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________________ ५८ ) छक्खंडागमे संतकम्म छसंठाण-वज्जरिसहवइरणारायणसंघडणाणं पि वत्तव्वं। सेसाणं संघडणणामाणं उदीरगो णिवत्तओ। तं जहा- वेउव्वियसरीरस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठित्ति उदीरणा। एवं तदंगोवंगस्स। आहारदुगस्स पमत्तसंजदम्मि चेव उदीरणा। वज्जणारायणसंघडण-णारायणसंघडणाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव उवसंतकसाओ त्ति उदीरणा। अद्धणारायणसंघडण-खीलियसंघडण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति उदीरणा। पंचबंधण-पंचसंघादाणं पंचसरीरभंगो। वण्ण-गंधरस-फासाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति उदीरणा । णिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पढमसमयणेरइओ दुसमयणेरइओ वा मिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी वा उदीरओ। तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुविवणामाए तिरिक्खो पढमसमयतब्भवत्थो बिदियसमयतब्भवत्थो वा सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी वा, पढमसमय-दुसमय-तिसमयतब्भत्थमिच्छाइट्ठी वा उदीरओ। मणुसगइपाओग्गाणुपुस्विणामाएपढमसमय दुसमयतब्भवत्थो सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा उदीरओ* । देवगइपाओग्गाणुपुवीणामाए पढमसमयतब्भवत्थो दुसमयतब्भवत्थो चाहिये। इसी प्रकारसे छह संस्थानों और वज्रर्षभवज्रनाराचसंहननको उदीरणाका भी कथन करना चाहिये। शेष संहनन नामकर्मोंका उदीरक उनका निवर्तक होता है। यथा- वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक होती है। इसी प्रकार वैऋियिकशरीरांगोपांगकी भी उदीरणा जानना चाहिये। आहारद्विककी उदीरणा प्रमत्तसं यतमें ही होती है। वज्रनाराचसंहनन और नाराचसंहननकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक होती है। अर्धनाराचसंहनन, कीलितसंहनन और असंप्राप्तासपाटिकासंहननकी उदीरणा मिथ्यावृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक होती है। पांच बन्धन और पांच संघातोंकी उदीरणाकी प्ररूपणा पांच शरीरोंके समान है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्षकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक होती है । नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका उदीरक प्रथम समयवर्ती नारक अथवा प्रथम और द्वितीय समयवर्ती नारक मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि होता है। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मका उदीरक प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ अथवा प्रथम और द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा प्रथम समय, द्वितीय समय और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ मिथ्यादृष्टि होता है। मनुष्यगतिप्रायोग्यानूपूर्वी नामकर्मका उदीरक प्रथम समय अथवा प्रथम और द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होता है। देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका उदीरक प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ अथवा प्रथम और द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि अथवा अगंयत . प्रत्योरुभयोरेव ‘संघडणाणं ' इति पाठः। * काप्रती 'तिरिक्ख' इति पाठः । काप्रतौ 'सासण सम्माइली असंजदसम्मामिच्छाइट्ठी वा उदीरओ', ताप्रती 'सासणसम्माइटी असंजदसम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा पढमसमयदुसमयतिसमयतब्भवत्थमिच्छाइटठी वा उदीरओ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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