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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए एगजीवेण अंतरं (६९ जहण्णमंतरं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पि अंतोमुहुत्तं । लोहसंजलणाए* जहण्णमंतरं एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । जहा सादस्स तहा हस्स-रदीणं वत्तव्वं । जहा असादस्स तहा अरदि-सोगाणं वत्तव्वं । भय-दुगुंछाणमंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । कध एगसमओ ? चरिमसमयणियट्टिभयवेदगो से काले अणियट्टिगुणं पविठ्ठो अवेदगो जादो, तदो से काले मदो देवो जादो भयं चेव वेदेदि, एवं भयवेदगस्स एगसमयमंतरं । एवं दुगुंछाए । पुरिसवेदस्स* उदीरणंतरं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । इत्थि-णवंसयवेदाणं जहण्णमंतरं अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सं णवंसयवेदस्स सागरोवमसदपुधत्तं, इत्थिवेदस्स असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। देव-णिरयाउआणमुदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । तिरिक्खाउअस्स जहण्णेण अन्तरमावलिया, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । एवं मणुस्साउअस्स वि । णवरि उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। अन्तर अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहर्त मात्र है । संज्वलन लोभका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । जिस प्रकार साता वेदनीयके अन्तरकी प्ररूपणा की गई है है उसी प्रकारसे हास्य व रतिके अन्तरकी प्ररूपणा करनी चाहिये। जिस प्रकार असातावेदनीयके अन्तरका कथन किया है उसी प्रकारसे अरति और शोकके अन्तरका कथन करना चाहिये । भय और जुगुप्साका अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । शंका-- उनकी उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय कैसे है ? समाधान-- भयका वेदक अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरण अनन्तर समयमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें प्रविष्ट होकर उसका अवेदक हुआ । पश्चात् अनन्तर समयमें मृत्युको प्राप्त होकर देव हुआ । वह उस समय भयका ही वेदन करता है । इस प्रकारसे भयका वेदन करनेवाले उक्त जीवके एक समय अन्तर पाया जाता है । इसी प्रकार जुगुप्साके भी उपर्युक्त एक समय मात्र अन्तरका कथन करना चाहिये । पुरुषवेदकी उदौरणाका अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। स्त्री और नपुंसक वेदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है । उत्कृष्ट अन्तर नपुंसकवेदका सागरोपमशतपृथक्त्व और स्त्रीवेदका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। देव व नारक आयुओंकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्महर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है । तिर्यंच आयुका अन्तर जघन्यसे एक आवली और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण है । इसी प्रकारसे मनुष्यायुके भी अन्तरका कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि उसका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । . प्रत्योरुभयोरेव 'लोइसंजलणाणं' इति पाठः । 0 प्रत्योरुभयोरेव 'अणियट्रिभयवेदगो' ति पाठः । * काप्रतौ 'पुरिसवेदयस्स ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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