SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उareमाणुयोगद्दारे द्विदिउदीरणा ( २०१ सादिरेयाणि । उक्कस्सं तिष्णं पि एइंदियट्ठिदी । देवाणुपुव्वीए जहण्णुक्कस्सेण णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उवक० उवड्ढपोग्गलपरियट्टं । अणुक्कस्सस्स पर्याडिउदीरणंतरभंगो Q । आदावणामाए उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एइंदियजादि थावर - सुहुम-साहारणसरीराणं उक्कस्साणुभाग उदीरणंतरं जह० एगसमओ उक्क० असंखे० लोगा । अपज्जत्तणामाए उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखे ० पोग्गलपरियट्टा । एवमोघुक्कस्सं समत्तं । जहण्णाणुभागुदीरणंतरं । तं जहा - पंचणाणावरणीय - चउदंसणावरणीय णवणोकसाय--चदुसंजलण-सम्मत्त अप्पसत्थत्रण्ण-गंध-रस- फास अथिर-असुभ - पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं णत्थि । णिद्दा- पयला-मिच्छत्त- सम्मामिच्छत्तबारसकसायाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गल - परियहं । णिद्दाणिद्दा- पयलापयला थीणगिद्धीणं जहण्णाणुभाग० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियट्टं । सादासादाणं जह० उदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । मात्र काल तक होता है । उत्कृष्ट अन्तर इन तीनोंही का एकेन्द्रियकी स्थिति प्रमाण होता है । देवानुपूर्वीकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे व उत्कर्ष से भी नहीं होता । सम्यक्त्व और सम्यग्यिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र होता है । इनकी अनुत्कृष्ठ अनुभागउदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा प्रकृतिउदीरणा के अन्तर जैसी है। आतप नामकर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका अन्तर जघ - न्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है । एकेन्द्रियजाति, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण शरीरकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र होता है। अपर्याप्त नामकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे अग्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होता है । इस प्रकार ओघ उत्कृष्ट समाप्त हुआ । जघन्य अनुभागउदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, नौ नोकषाय, चार संज्वलन, सम्यक्त्व, अप्रशस्त वर्ण, गंध, रस व स्पर्श, अस्थिर, अशुभ और पांच अंतराय; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अंतर नहीं होता । निद्रा, प्रचला, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषाय; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होता है । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी जघन्य उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होता है । साता व असातावेदनीयकी जघन्य उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से असंख्यात लोक मात्र काल तक होता है । एवं से साणं कम्माणं सम्मत्त सम्मामिच्छतवज्जाणं । नवरि अणुक्कस्साणूभागुदीरणंतरं पयडिअंतरं कादव्वं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुक्कस्साणुभागुदीरणंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूणं । क. पा. ( च. सू ) प्रे. ब. पू. ५४५०-५१ . अ-काप्रत्योः चदुसंजणअप्पसत्थ' इति पाठः । Jain Education International 4 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy