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________________ २९४ ) छक्खंडागमे संतकम्म आउअ-वेदणिज्जाणं णियमा जहण्णट्टिदि वेदेदि। सेसाणमवेदगो । मोहणिज्जस्स जहण्णट्ठिदिवेदओ आउअ-वेदणिज्जाणं णियमा जहण्णट्ठिदिवेदगो। सेसाणं कम्प्राणं णियमा अजहण्णं असंखेज्जगुणं वेदगो। एवं सण्णियासो समत्तो।। एतो अप्पाबहुअं। तं जहा- जहा उक्कस्सटिदिउदीरणाए अप्पाबहुअं कदं तहा उक्कस्सट्ठिदउदीए कायव्वं । जहण्णढिदिउदए अप्पाबहुअं। तं जहा- अटण्णं पि कम्माणं जहण्णट्ठिदिउदओ तत्तियो* चेव। एवं अप्पाबहुअंगदं। जहा द्विदिउदीरणाए भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढी च कदा तहा एत्थ वि द्विदिउदए कायव्वा । एवं मूलपयडिट्ठिदिउदओ समत्तो। एत्तो उत्तरपयडिटिदिउदओ- तत्थ अट्ठपदं पुव्वं व कायव्वं । जहा उक्कस्सटिदिउदीरणाए पमाणाणुगमो कदो तहा उक्कस्सटिदिउदए वि पमाणाणुगमो कायव्वो। णवरि उदयट्टिदीए अब्भहियं । जहण्णट्ठिदिउदयपमाणाणुगमं वत्तइस्सामो । तं जहापंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-सादासादवेदणीय-लोभसंजलण-तिण्णिवेद-सम्मत्तमिच्छत्त-आउचदुक्क--मणुसगइ-पंचिदियजादि-तस-बादर-पज्जत्त-जसकित्ति-सुभगादेज्ज-तित्थयर-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं जहण्णछिदिउदओ एगा द्विदी एगसमयकालो। असंख्यातगुणीका वेदन करता है। नाम व गोत्रकी जघन्य स्थितिका वेदक जीव आयु और वेदनीयकी नियमसे जघन्य स्थितिका वेदन करता है, शेष कर्मोंका वह अवेदक है। मोहनीयकी जघन्य स्थितिका वेदक जीव आयु और वेदनीयकी नियमसे जघन्य स्थितिका वेदक तथा शेष कर्मोकी नियमसे असंख्यातगुणी अजघन्य स्थितिका वेदक होता है। इस प्रकार संनिकर्ष समाप्त हुआ । यहां अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। यथा- जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणामें अल्पबहुत्व किया गया है वैसे ही उत्कृष्ट स्थिति उदयमें भी उसे करना चाहिये। जघन्य स्थितिउदयमें अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। यथा- आठों ही कर्मोंकी जघन्य स्थितिका उदय उतना ही है अर्थात् समान है। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिका कथन जैसे स्थिति उदीरणामें किया गया है वैसे ही यहां स्थितिउदयमें भी करना चाहिये। इस प्रकार मूलप्रकृतिस्थितिउदय समाप्त हुआ। यहां उत्तरप्रकृतिस्थितिउदयकी प्ररूपणा की जाती है- उसमें अर्थपद पहिलेके ही समान करना चाहिये। जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणामें प्रमाणानुगम किया गया है वैसे ही उत्कृष्ट स्थितिउदयमें भी प्रमाणानुगम करना चाहिये । विशेष इतना है कि उदयस्थितिमें अधिक है। जघन्य स्थितिके उदयका प्रमाणानुगम कहते हैं। वह इस प्रकार है-पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, संज्वलनलोभ, तीन वेद, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, चार आयु कर्म, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजा त, त्रस, बादर, पर्याप्त, यशकीति, सुभग, आदेय, तीर्थंकर, उच्चगोत्र ओर पांच अन्तराय; इनकी जघन्य स्थितिका उदय एक समय कालवाली एक स्थिति मात्र है। संज्वलनक्रोध। * अ-काप्रन्यो: 'तत्तिया' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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