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________________ उदयाणुयोगद्दारे सण्णियासो ( २९३ जीवे पडुच्च सव्वद्धं । ___णाणाजीवेहि अंतरं- आउअ-वेदणिज्जाणं जहण्णढिदिवेदयाणं णत्थि अंतरं। सेसाणं कम्माणं जहण्णट्ठिदिवेदगंतरं* जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा। सणियासो। तं जहा- णाणावरणस्स जहण्णद्विदिवेदओ मोहणीयस्स अवेदओ, णामा-गोदाणं णियमा अजहण्णढिदिवेदओ, जहण्णादो अजहण्णा असंखेज्जगुणब्भहिया। सेसाणं कम्माणं णियमा जहण्णढिदिवेदओ। दसणावरणंतराइयाणं णाणावरणभंगो। वेदणीयस्स जहण्णद्विदिवेदओ चदुण्णं घादिकम्माणं सिया वेदओ सिया णोवेदओ। जदि वेदओ सिया जहण्णं सिया अजहण्णं वेदेदि। जदि अजहण्णं दुगुणमादि कादूण णिरंतरं जाव असंखे० गुणं वेदेदि। आउअस्स णियमा जहण्णं वेदेदि। णामागोदा जहण्णमजहण्णं वा वेदेदि । जदि अजहण्णं णियमा असंखे० गुणं वेदेदि। जहा वेयणीयं घाइकम्मेहि सण्णिकासिदं तहा आउअं पि घाइकम्मेहि सण्णिकासियव्वं ।। आउअस्स जहणढिदिवेदओ णामा-गोद -वेदणिज्जाणं जहण्णटिदिमजहण्णदिदि वा वेदेदि। जदि अजहण्णं णियमा असंखे० गुणं। णामा-गोदाणं जहण्णट्ठिदिवेदओ अजघन्य स्थितिके वेदकोंका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है। नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर- आयु और वेदनीयकी जघन्य स्थितिके वेदकोंका अन्तर नहीं होता। शेष कर्मोंकी जघन्य स्थितिके वेदकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास प्रमाण होता है। अब संनिकर्षकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका वेदक मोहनीयका अवेदक तथा नाम व गोत्रकी नियमसे अजघन्य स्थितिका वेदक होता है। जघन्यकी अपेक्षा वह अजघन्य स्थिति असंख्यातगुणी अधिक है। वह शेष कर्मोंकी नियमसे जघन्य स्थितिका वेदक होता है। दर्शनावरण और अन्तरायके संनिकर्षकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । वेदनीयकी जघन्य स्थितिका वेदक चार घाति कर्मोंका कदाचित् वेदक और कदाचित् नोवेदक होता है। यदि वह वेदक होता है तो कदाचित् जघन्य और कदाचित् अजघन्य स्थितिका वेदन करता है। यदि वह अजघन्य स्थितिका वेदन करता है तो दुगुणी स्थितिको आदि करके निरन्तर असंख्यातगुणी तकका वेदन करता है। वह आयु कर्मकी नियमसे जघन्य स्थितिका वेदन करता है, नाम व गोत्रकी जघन्य अथवा अजघन्यका वेदन करता है । यदि वह अजघन्यका वेदन करता है तो नियमसे असंख्यातगुणीका वेदन करता है। जिस प्रकार घातिया कर्मों के साथ वेदनीयका संनिकर्ष बतलाया गया है उसी प्रकारसे घातिया कर्मोंके साथ आयु का भी संनिकर्ष बतलाना चाहिये । आयु कर्मकी जघन्य स्थितिका वेदक जीव नाम, गोत्र और वेदनीयकी जघन्य स्थिति अथवा अजघन्य स्थितिका वेदन करता है। यदि वह अजघन्य स्थितिका वेदन करता है तो नियमसे ४ प्रतिष 'वेदणीयाणं' इति पाठः। * अप्रतौ 'वेदगंतं ' , काप्रतौ ' वेदगं', तापतौ ' वेदगतं' इति पाठः। अ-का-ताप्रतिषु 'जहण्णादो अजहण्णा असंखेज्जगणब्भहिया। सेसाणं कम्पाणं णियमा जहण्णद्विदिवेदओ' इत्ययं पाठो नास्ति, मप्रतितोऽत्र योजितः सः। * अप्रतौ 'गोदाणं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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