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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १४५ सुभाणं णियमा उदीरओ। अथिर-असुह-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्ति-गीचागोदाणं असादभंगो। णवरि अथिर-असुहागं णियमा उदीरओ। अगुरुअलहुअ-णिमिणाणं सुदणाणावरणभंगो। अपज्जत्त-सुहुम-साहारणाणमणुदीरओ। वण्ण-गंध-रस-फासाणं सुदणाणावरणभंगो। उच्चागोदस्स सादभंगो। एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स णिरोहणं काऊण परूवणा कदा। एवं सव्वासि धुवबंधपयडीणं कायव्वं । एत्तो समासेण कासि पि पयडीणं सण्णियासं वत्तइस्सामो। तं जहा- णाणावरणीयस्स णियमा उदीरओ। उदीरेंतो वि णियमा अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव.. पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणं ति। एवं सव्वासि धुवबंधपयडीणं वत्तव्वं । हस्सरदि-इत्थि-पुरिसवेदाणं सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ। जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । णqसयवेद-अरदि-सोगाणं सिया उदीरओ सिया अणुदीरओ। जदि उदीरओ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूण-वीसंसागरोवमकोडाकोडीओ ति । भय-दुगुंछाणं सिया - अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और नीचगोत्रकी यह संनिकर्षप्ररूपणा असातावेदनीयके समान है। विशेष इतना है कि अस्थिर और अशुभका नियमसे उदीरक होता है । अगुरुलघु और निर्माणके संनिकर्षकी प्ररूपणा श्रुतज्ञानावरणके समान है । अपर्याप्त, सूक्ष्म और साधारणका अनुदीरक होता है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शकी यह प्ररूपणा श्रुतज्ञानावरणके समान है। उच्चगोत्रकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है । इस प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयकी विवक्षा करके यह संनिकर्षकी प्ररूपणा की गयी है। इसी प्रकारसे सब ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंकी विवक्षा करके संनिकर्षकी प्ररूपणा करना चाहिये। यहां संक्षेपसे कुछ प्रकृतियोंके संनिकर्षकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-- ( सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवाला ) ज्ञानावरणीयका नियमसे उदीरक होता है। उदीरक होकर भी वह उत्कृष्टसे एक समय कमको आदि करके पल्योपमके असंख्यात भागसे हीन तक अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसी प्रकारसे सब ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंके विषयमें कहना चाहिये । हास्य, रति, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों स्थितियोंका उदीरक होता है। उत्कष्टकी अपेक्षा अनत्कृष्ट स्थिति एक समय कमको आदि करके अन्तःकोडाकोडि सागरोपम तक होती है। नपुंसकवेद, अरति और शोकका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनोंका उदीरक होता है। उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय कमको आदि करके पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम बीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण तक होती है। भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक और कदाचित् अनुदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट और _Jain Educationing कापतो 'भागेगूणं' इति पाठः |For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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