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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे पयडिउदीरणाए पदणिक्खेवो णाणाजीवेहि भंगविचओ- भुजगार-अप्पदर-अवविदउदीरया णियमा अस्थि । सिया एदे च अवतव्वउदीरओ च, सिया एदे च अवत्तव्वउदीरया च धुवससहिया तिण्णि* । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। कालो- अवत्तव्वउदीरयाणं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जा समया। सेसाणं सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो। अंतरं अवत्तव्वउदीरयंतरं जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्साणि । सेसाणं णत्थि अंतरं । एवमंतरं समत्तं । अप्पाबहुअं- अवत्तव्वउदीरया थोवा । भुजगारउदीरया अणंतगुणा । अप्पदरउदीरया विसेसाहिया खवगसेडि पडुच्च । अवट्ठिदउदीरया असंखेज्जगुणा । एवमप्पाबहुअं समत्तं । पदणिक्खेवो- उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो उवसामओ एगपयडिउदीरओ मदो देवो जादो, ताधे अट्ठ उदीरेदि, तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । तस्सेव उक्कस्समवट्ठाणं । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जो मिच्छाइट्ठी से काले संजमं पडिविज्जहिदि, संपहि भय दुगुंछाणं वेदगो, से काले पढमसमयसंजदो जादो भय-दुगुंछाणमवेदगो, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय-- भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरक नियमसे हैं । कदाचित् ये व अवक्तव्यउदीरक एक, कदाचित् ये व अवक्तव्यउदीरक बहुत, इस प्रकार इन दो भंगोंमें ध्रुवभंगको मिलानेपर तीन भंग होते हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। काल- अवक्तव्य उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समयप्रमाण है। शेष उदीरकोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। अन्तर- अवक्तव्य उदीरकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात वर्षप्रसाण है । शेष उदीरकोंका अन्तर सम्भव नहीं है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। ___ अल्पबहुत्व- अवक्तव्य उदीरक स्तोक हैं। उनसे भुजाकारउदीरक अनन्तगुणे हैं। उनसे क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा अल्पतरउदीरक विशेष अधिक हैं। अर्थात् क्षपकश्रेणिमें मोहनीयका अल्पतर पद ही होता है, भुजाकार पद नहीं होता; इस अपेक्षासे भुजाकार उदीरकोंसे अल्पतर उदीरक विशेष अधिक कहे गये हैं। इनसे अवस्थित उदीरक असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। पदनिक्षेप- उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो उपशामक एक प्रकृतिका उदीरक होता हुआ मृत्युको प्राप्त होकर देव हुआ है, तब वह आठकी उदीरणा करता है, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके (अनन्तर समयमें) उत्कृष्ट अवस्थान होता है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है? जो मिथ्यादृष्टि अनन्तर समयमें संयमको प्राप्त होगा वह अभी भय व जुगुप्साका वेदक है, अनन्तर समयमें वह प्रथमसमयवर्ती संयत होकर उनका अवेदक हो जाता है, उस मिथ्यात्वसे भज० अप्प० अवढि० उदीर० णिय० अस्थि । सिया एदे च अवत्तम्बओ च सिया एदे च अवत्तब्वगा च भंगा तिणि ३। जयध. अ. प. ७६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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