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________________ २०८ ) छक्खंडागमे संतकम्म क्कस्सेण अंतोमु०। पंचसंठाण-छसंघडणाणं जहण्णाणुभागउदी० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। अजहण्ण० सव्वद्धा । अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फासअथिर-असुभाणं जहण्णाणुभाग० जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा समया। अजहण्ण० सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो। __णाणाजीवेहि अंतरं । तं जहा-पंचणाणावरणीय-अमृदंसणावरणीय-सादासादअट्ठावीसमोहणीय-णिरय-देव-तिरिक्ख--मणुस्साउ--चत्तारिगदि-चत्तारिजादि-ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघाद-छसंठाण-छसंघडण-अप्पसत्यवण्णगंध-रस-फास मउअ-लहुअ-चत्तारिआणुपुव्वी-उदघाद-परघाद-आदावुज्जोव-उस्सासपसत्थापसत्थविहायगइ--तस-बादर--पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुह--दूभगदुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्ति-णीचागोदाणं उक्कस्साणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणुक्क० णत्थि अंतरं। णवरि सम्मामिच्छत्त-आहारचउक्क-तिण्णिआणुपुवीणं जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो वासपुधत्तं चउवीसअंतोमुहुत्तं अचक्खुदंसणावरण उस्कस्साणुक्कस्स० पत्थि अंतरं । तेजा-कम्मइयसरीर-तब्बंधण-संघाद-पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-णिधुण्ण-अगुरुअलहुअ संहननोंकी जघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र है। इनकी अजघन्य अनुभाग उदीरणाका काल सर्वकाल है। अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, अस्थिर तथा अशुभ ; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात समय मात्र है। इनकी अजवन्य अनुभाग उदीरणाका काल सर्वकाल है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है । यथा- पांच ज्ञानावरण, आठ दर्शनावरण, साता व असाता वेदनीय, अट्ठाईस मोहनीय, नारकायु, देवायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु, चार गतियां, चार जातियां, औदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीर तथा उनके अगोपांग बन्धन व संघात, छह संस्थान, छह संहनन, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस तथा मृदु व लघु स्पर्श नपवियां. उपघात. परघात, आतप उद्योत. उच्छवास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति त्रस, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीति और नीचगोत्र; इनकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र होता है। उनकी अनुत्कृष्ट उदीरणाका अंतर नहीं होता। विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यात्व, आहारकचतष्क और तीन आनपवियोंकी अनत्कष्ट अनभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय तथा उत्कर्षसे क्रमशः सम्यग्मिथ्यात्वका पल्योपमके असंख्यातवें भाग, आहारकचतुष्कका वर्षपृथक्त्व, और तीन आनुपूर्वियोंका चौबीस अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । अचक्षुदर्शनावरणकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट उदीरणाका अन्तर नहीं होता । तैजस व कार्मण शरीर, उनके बंधन व संघात. प्रशस्त वर्ण, गंध, रस तथा स्निग्ध व उष्ण * अप्रतौ'उक्क० पलिदो० असंखे० भागवासपुधतं',काप्रती 'उक्कल पलि. वासपूधत्तं',ताप्रती 'उक्का पलिदोकमवासपुधत्तं' इति पाठः। ओघेण सव्वपयडी उक्क० अणुभागदी० अंतरंजह० एगस० उक्क उसंखेज्जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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