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छक्खंडागमे संतकम्म छण्णं पवेसयस्स सत्त चउवीस भंगा । सत्तण्णं पवेसयस्स दस चउवीस भंगा। अढण्णं पवेसयस्स एक्कारस चउवीस भंगा। णवण्णं पवेसयस्स छ चदुवीस भंगा। दसणं पवेसयस्स एक्को चउवीस भंगा। एदेसि भंगाणं पमाणपरूवगट्ठमेसा गाहा वुच्चदे। तं जहा
एक्क य छक्केक्कारस दस सत्त चदुक्कमेक्कयं चेव।।
दोसु य बारस भंगा एक्कम्हि य होंति चत्तारि० ॥ १ ॥ एवं ट्ठाणसमुक्कित्तणा समत्ता। सामित्तपरूवणाए इमाओ बे सुत्तगाहाओ। तं जहा--
सत्तादि दसुक्कस्सं मिच्छे सण-मिस्सए णउक्कसं। छादी य णवुक्कस्सं अविरदसम्मत्तमादिस्स ।। २ ॥ पंचादि अणिहणा विरदाविरदे उदीरणढाणा। एगादी तियरहिदा सत्तुक्कस्सा य विरदस्स ॥ ३ ॥
प्रवेशकके चार चौबीस ( २४४४ ) भंग होते हैं। छह प्रकृतियोंके प्रवेशकके सात चौबीस ( २४x७ ) भंग होते हैं। सात प्रकृतियोंके प्रवेशकके दस चौबीस ( २४४१०) भंग होते हैं। आठ प्रकृतियोंके प्रवेशकके ग्यारह चौबीस (२४४११ ) भंग होते हैं। नो प्रकृतियोंके प्रवेशकके छह चौबीस ( २४४६ ) भंग होते हैं। दस प्रकृतियोंके प्रवेशकके एक चौबीस ( २४४१) भंग होते हैं। इन भंगोंके प्रमाणकी प्ररूपणाके लिये यह गाथा कही जाती है । वह इस प्रकार है--
दस, नौ, आठ, सात, छह, पांच और चार प्रकृतियोंके प्रवेशकके क्रमसे एक, छह, ग्यारह, दस, सात, चार और एक ( इतनी शलाकाओंसे युक्त चौबीस ) भंग; दो प्रकृतियोंके प्रवेशकके बारह, तथा एक प्रकृतिके प्रवेशकके चार भंग होते है ॥ १॥ ___ इस प्रकार स्थानसमुत्कीर्तना समाप्त हुई। स्वामित्वको प्ररूपणामें ये दो सूत्र गाथायें हैं। यथा
सातको आदि लेकर उत्कर्षसे दस ( ७, ८, ९, १० ) प्रकृतियों तकके चार स्थान मिथ्यात्व गुणस्थानमें होते हैं, अर्थात् इन चार स्थानोंका स्वामी मिथ्यादृष्टि है। सातको आदि लेकर उत्कर्षसे नौ प्रकृतियों तकके तीन ( ७, ८, ९, ) स्थान सासादन और मिश्र गुणस्थानमें होते हैं। छह प्रकृतियोंको आदि लेकर उत्कर्षसे नौ तकके चार ( ६, ७, ८, ९) स्थान अविरतसम्यग्दृष्टिके होते हैं। पांचको आदि लेकर आठ प्रकृतियों तकके चार (५, ६, ७,८) उदीरणास्थान विरताविरत ( देशविरत ) गुणस्थानमें होते हैं । एकको आदि लेकर उत्कर्षसे त्रिप्रकृतिक स्थानसे रहित सात प्रकृतियों तकके छह ( १, २, ४, ५, ६, ७) उदीरणास्थान संयत जीवके होते हैं ॥२-३॥
विशेषार्थ-- यहां सात प्रकृतियोंको आदि लेकर दस प्रकृतियों तकके जो चार उदीरणा
"एक्कग-च्छेक्के (छक्के) कारस दस सत्त चउक्क एककगं चेव । दोसु च बारस मंगा एकाम्हि य होंति चत्तारि ॥ जयध. अ प. ७५८. एक्क य छक्केयारं दस-सग-चदुरेक्कयं अपूणरुत्ता। एदे चवीसगदा बार दुगे पंच एक्कम्हि ।। गो. क. ४८८. ताप्रतौ ‘ण उक्कस्सं' इति पाठः। * जयध अ. प. ७५९. दस-णव
गवादि चउ-तिय-तिद्राण णवट्र-सग-सगादि चऊ। ठाणा छादि तियं च य चवीसगदा अपव्वोत्ति ॥ गो.क.४८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only
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