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________________ ८२ ) छक्खंडागमे संतकम्म छण्णं पवेसयस्स सत्त चउवीस भंगा । सत्तण्णं पवेसयस्स दस चउवीस भंगा। अढण्णं पवेसयस्स एक्कारस चउवीस भंगा। णवण्णं पवेसयस्स छ चदुवीस भंगा। दसणं पवेसयस्स एक्को चउवीस भंगा। एदेसि भंगाणं पमाणपरूवगट्ठमेसा गाहा वुच्चदे। तं जहा एक्क य छक्केक्कारस दस सत्त चदुक्कमेक्कयं चेव।। दोसु य बारस भंगा एक्कम्हि य होंति चत्तारि० ॥ १ ॥ एवं ट्ठाणसमुक्कित्तणा समत्ता। सामित्तपरूवणाए इमाओ बे सुत्तगाहाओ। तं जहा-- सत्तादि दसुक्कस्सं मिच्छे सण-मिस्सए णउक्कसं। छादी य णवुक्कस्सं अविरदसम्मत्तमादिस्स ।। २ ॥ पंचादि अणिहणा विरदाविरदे उदीरणढाणा। एगादी तियरहिदा सत्तुक्कस्सा य विरदस्स ॥ ३ ॥ प्रवेशकके चार चौबीस ( २४४४ ) भंग होते हैं। छह प्रकृतियोंके प्रवेशकके सात चौबीस ( २४x७ ) भंग होते हैं। सात प्रकृतियोंके प्रवेशकके दस चौबीस ( २४४१०) भंग होते हैं। आठ प्रकृतियोंके प्रवेशकके ग्यारह चौबीस (२४४११ ) भंग होते हैं। नो प्रकृतियोंके प्रवेशकके छह चौबीस ( २४४६ ) भंग होते हैं। दस प्रकृतियोंके प्रवेशकके एक चौबीस ( २४४१) भंग होते हैं। इन भंगोंके प्रमाणकी प्ररूपणाके लिये यह गाथा कही जाती है । वह इस प्रकार है-- दस, नौ, आठ, सात, छह, पांच और चार प्रकृतियोंके प्रवेशकके क्रमसे एक, छह, ग्यारह, दस, सात, चार और एक ( इतनी शलाकाओंसे युक्त चौबीस ) भंग; दो प्रकृतियोंके प्रवेशकके बारह, तथा एक प्रकृतिके प्रवेशकके चार भंग होते है ॥ १॥ ___ इस प्रकार स्थानसमुत्कीर्तना समाप्त हुई। स्वामित्वको प्ररूपणामें ये दो सूत्र गाथायें हैं। यथा सातको आदि लेकर उत्कर्षसे दस ( ७, ८, ९, १० ) प्रकृतियों तकके चार स्थान मिथ्यात्व गुणस्थानमें होते हैं, अर्थात् इन चार स्थानोंका स्वामी मिथ्यादृष्टि है। सातको आदि लेकर उत्कर्षसे नौ प्रकृतियों तकके तीन ( ७, ८, ९, ) स्थान सासादन और मिश्र गुणस्थानमें होते हैं। छह प्रकृतियोंको आदि लेकर उत्कर्षसे नौ तकके चार ( ६, ७, ८, ९) स्थान अविरतसम्यग्दृष्टिके होते हैं। पांचको आदि लेकर आठ प्रकृतियों तकके चार (५, ६, ७,८) उदीरणास्थान विरताविरत ( देशविरत ) गुणस्थानमें होते हैं । एकको आदि लेकर उत्कर्षसे त्रिप्रकृतिक स्थानसे रहित सात प्रकृतियों तकके छह ( १, २, ४, ५, ६, ७) उदीरणास्थान संयत जीवके होते हैं ॥२-३॥ विशेषार्थ-- यहां सात प्रकृतियोंको आदि लेकर दस प्रकृतियों तकके जो चार उदीरणा "एक्कग-च्छेक्के (छक्के) कारस दस सत्त चउक्क एककगं चेव । दोसु च बारस मंगा एकाम्हि य होंति चत्तारि ॥ जयध. अ प. ७५८. एक्क य छक्केयारं दस-सग-चदुरेक्कयं अपूणरुत्ता। एदे चवीसगदा बार दुगे पंच एक्कम्हि ।। गो. क. ४८८. ताप्रतौ ‘ण उक्कस्सं' इति पाठः। * जयध अ. प. ७५९. दस-णव गवादि चउ-तिय-तिद्राण णवट्र-सग-सगादि चऊ। ठाणा छादि तियं च य चवीसगदा अपव्वोत्ति ॥ गो.क.४८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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