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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे एगजीवेण अंतरं ( ४९ एयजीवेण कालो- अट्टण्णमुदीरओ जहण्णण एक्कं व दो व समए, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि आवलियूणाणि। सत्तण्णमुदीरओ जहण्णेण एक्कं व दो व समए, पमत्ते उदयावलियपविट्ठआउए बिदियसमए तदियसमए वा अप्पमत्तगुणं गदे वेदणीयउदीरणाए णटाए एग-दोसमयसत्तउदीरणाकालुवलंभादो। उक्कस्सेण आवलिया । छण्णमुदीरओ जहणेण एक्कं व दो व समए उदोरेदि, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । पंचण्णमुदीरओ जहणेण एक्कं व दो व समए उदीरेदि, उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । दोण्णमुदीरगो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । एवं कालो समत्तो। __एगजीवेण अंतरं- अढण्णमुदीरणंतरं जहण्णण : एगावलिया, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सत्तण्णमुदीरणंतरं जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणमावलियूणं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि आवलियूणाणि । छण्णमुदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियढें । एवं पंचण्णमुदीरयाणं पि अंतरं वत्तव्वं । दोण्णमुदीरयाणं णत्थि अंतरं । कुदो ? अंतरिदे पुणो दोण्णमुदीरणाए पादुब्भावाभावादोश। एवमंतरं समत्तं । एक जीवकी अपेक्षा काल- आठ कर्मोंका उदीरक जघन्यसे एक व दो समय तथा उत्कर्षसे आवली कम तेतीस सागरोपम काल तक होता है। सात कर्मोका उदीरक जघन्यसे एक व दो समय होता है, क्योंकि, प्रमत्तगुणस्थानवी जीवके आयु कर्मके उदयावलीमें प्रविष्ट होनेपर जब वह द्वितीय समयमें अथवा तृतीय समयमें अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होता है तब चूंकि वेदनीयकी उदीरणा नष्ट हो जाती है, अतः उसके एक या दो समय प्रमाण सातकी उदीरणाका काल पाया जाता है। (तात्पर्य यह है कि जिस प्रमत्तसंयतके आयुकर्म उदयावलीमें प्रविष्ट हो गया उसके सात कर्मकी उदीरणा होती है। किन्तु उसके एक समय बाद या दो समय बाद अप्रमत्त संयत गुणस्थानको प्राप्त हो जानेपर प्रमत्तसंयतके सात कर्मकी उदीरणाका जघन्य काल एक या दो समय देखा जाता है । ) सातकी उदीरणाका काल उत्कर्षसे आवली प्रमाण है। छहका उदीरक जघन्यसे एक व दो समय उनकी उदीरणा करता है, उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त काल तक उदीरणा करता रहता है। पांचका उदीरक जघन्यसे एक व दो समय उनकी उदीरणा करता है उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक उनकी उदीरणा करता है। दोका उदीरक जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त व उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि काल तक उनकी उदीरणा करता है । इस प्रकार काल समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा-आठ कर्मोकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्यसे एक आवली व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। सातकी उदीरणाका अन्तर जघन्यतः आवलीसे हीन क्षुद्रभवग्रहण व उत्कर्षसे आवली कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है। छहकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्महर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। इसी प्रकार पांच कर्मोके उदीरकोंका भी अन्तर कहना चाहिए । दोके उदीरकोंका अन्तर नहीं होता, क्योंकि, अन्तरको प्राप्त होनेपर फिर दोकी उदीरणाके प्रादुर्भावका अभाव है। इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। ४ काप्रती ' एवं दो', ताप्रती एवं (गं ) दो' इति पाठः। * ताप्रतौ ' अठ्ठण्णमुदीरणंतरं, जहण्णेण' इति पाठः । 8 काप्रतौ पादुब्भावादो' इति पारः। Jain Education International For Prive & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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