________________
२७६ )
छक्खंडागमे संतकम्म
त्ति च अप्पसत्थुवसामणा ति च। एदाए पयदं ।
तत्थ अप्पसत्थुवसामणाए अट्टपदं। तं जहा- अप्पसत्थुवसामणाए जमुवसंतं पदेसग्गं तमोकड्डि, पि+ सक्कं, उक्कड्डिदं पि सक्क; पयडीए संकामिदं पि सक्कं, उदयावलियं पवेसि, * ण उ सक्कं । वुत्तं च--
उदए संकम-उदए चदुसु वि दाएं कमेण णो सक्कं ।
उवसंतं च णिधत्तं णिकाचिदं चावि जं कम्मं ।। ४ ।। एदेण अट्ठपदेण सामित्तं तत्थ पुव्वं गमणिज्जं । सामित्तणिद्देसस्स पयदकरणं वत्तइस्सामो। तं जहा- सव्वकम्माणि चरित्तमोहणीयक्खत्रग-उवसामगाण*मणियट्टिपढमसमयं पविट्ठस्स चेव अप्पसत्थउवसामणाए अणुवसंताणि । दसणमोहणीयखवगउवसामगाणं अणुयट्टिकरणपढमसमयपविट्ठस्सेव दंसणमोहणीयं अप्पसत्थउवसामणाए अणुवसंतं होदि। सेसाणि सव्वकम्माणि तत्थ उवसंताणि अणुवसंताणि च । अणंताणुबंधिविसंजोयणाए अणुयट्टिपढमसमए पविठंतकाले * चेव अणंताणुबंधिचउक्कमप्पसस्थउवसामणाए अणुवसंतं। सेसाणि सव्वकम्माणि उवसंताणि अणुवसंताणि च । णत्थि
यह यहां प्रकृत है।
उनमें से अप्रशस्तोपशामनामें अप्रैपदका कथन करते हैं। यथा- अप्रशस्तोपशामनाके द्वारा जो प्रदेशाग्र उपशान्त होता है वह अपकर्षणके लिये भी शक्य है, उत्कर्षणके लिए भी शक्य है, तथा अन्य प्रकृतिमें संक्रमण कराने के लिये भी शक्य है। वह केवल उदयावलीम प्रविष्ट करानेके लिये शक्य नहीं है। कहा भी है
जो कर्म उदयमें नहीं दिया जा सकता है वह उपशान्त, जो संक्रमण व उदय दोनोंम नहीं दिया जा सकता है वह निधत्त, तथा जो चारों ( उदय, संक्रमण, अपकर्षण व उत्कर्षण ) में भी नहीं दिया जा सकता है वह निकाचित कहा जाता है ।। ४ ।। __ इस अर्थपदके अनुसार प्रथमतः स्वामित्वका परिज्ञान कराना योग्य है । स्वामित्वनिर्देशपूर्वक प्रकृत करणका कथन करते हैं। यथा- चारित्रमोहनीयके क्षपक व उपशामकोंमेंसे अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें प्रविष्ट हुए जीवके ही सब कर्म अप्रशस्त उपशामनाके द्वारा अनुपशान्त होते हैं। दर्शनमोहनीयके क्षपक व उपशामकोंमेंसे अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें प्रविष्ट हुए जीवके ही दर्शनमोहनीयकर्म अप्रशस्त उपशामनाके द्वारा अनुपशान्त होता है। शेष सब कम वहां उपशान्त और अनुपशान्त भी होते हैं। अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनमें अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें प्रविष्ट होने के काल में ही अनन्तानुबन्धिचतुष्क अप्रशस्त उपशामनासे अनुपशान्त होता है । शेष सब कर्म उपशान्त और अनुपशान्त होते हैं। किसी भी कर्मका सब प्रदेशाग्र
४ सव्वस्स य देपस्स य करणुवसमगा दुन्नि एविकका। सबस्स गुण पसत्या देसस्स वि तासि विव. रीया।। क. प्र. ५, २.
मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिष 'तमोकाइदं वरि' इति पाठः । ताप्रतौ ' उक्कड्डिदं व सक्कं ' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'पदेसिदं ' इति पाठः। । क. ४४०. * अप्रतौ ' -क्खवणउवसामगाण', का-ताश्त्योः 'क्खएण उवसामणाग' इति पा5:।
अप्रतौ 'पविठंतक्काले', ताप्रती 'पवितकाले' इति पाठः, काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org