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________________ २१० ) छक्खंडागमे संतकम्म पुरिसवेद-कोध-माण माया संजलणाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० वासं सादिरेयं । णिहाणिहा-पयलापयला-थीणगिद्धि-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-छण्णोकसाय-णिरय-देव-मगुसाउ-णिरयगइ-मणुसगइ-देवगइ-चदुजादि-णिरय-देव-मणुस्साणुपुव्वी-वेउविय-तेजा-कम्मइयसरीर-तब्बंधण-संघाद-तिण्णिअंगोवंग --पंचसंठाण-छसंघडणपसत्थवण्ण-गंध-रस-फासमउअ-लहुअ-अगुरुअलहुअ -आदाव-पसत्यापसत्थविहायगइ-तस-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-णिमिणुच्चागोदाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। कक्खड-गरुआणं जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-एइंदियजादि-तिरिक्खगइपाओगाणुपुव्वी-ओरालियसरीर--तब्बंधण-संघाद-हुंडसंठाण-उवघाद-परघाद--उज्जोवउस्सास-थावर-सुहुम-बादर-पज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-जसगित्ति-अजसगित्ति-दुभगअणादेज्ज-णीचुच्चागोद-तित्थयराणं जहण्णाजहण्ण० णत्थि । णवरि तित्थयरी. अजहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । एवमंतरं समत्तं ।। सण्णियासो दुविहो उक्कस्सपदसणियासो जहण्णपदसण्णियासो चेदि । तत्थ* उक्कस्सपदसण्णियासो दुविहो सत्थाण-परत्थाणसण्णियासभेदेण। तत्थ सत्थाणे पयदं। उत्कर्षसे साधिक एक वर्ष मात्र होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, छह नोकषाय, नारकायु, देवायु, मनुष्यायु, नरकगति, मनुष्यगति, देवगति, चार जातियां, नरकानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर तथा उनके बन्धन और संघात, तीन अंगोपांग, पांच संस्थान, छह संहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व मृदु-लघु स्पर्श, अगुरुलघु, आतप, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, निर्माण और ऊंच गोत्रकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र होता है। कर्कश और गुरुकी उक्त उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व मात्र होता है। तिर्यगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी, औदारिकशरीर व उसके बन्धन-संघात, हुण्डकसंस्थान, उपघात, परघात, उद्योत, उच्छवास, थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, यशकीर्ति, अयशकीर्ति दुर्भग, अनादेय, नीचगोत्र, ऊंचगोत्र और तीर्थंकर; इनकी जघन्य व अजघन्य उदीरणाका अंतर नहीं होता। विशेष इतना है कि तीर्थंकर प्रकृतिकी अजघन्य अनुभागउदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व मात्र होता है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। संनिकर्ष दो प्रकार है- उत्कृष्टपदसंनिकर्ष और जघन्यपद संनिकर्ष । उनमें उत्कृष्टपदसंनिकष स्वस्थानसंनिकर्ष और परस्थानसंनिकर्षके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें स्वस्थानसंनिकर्ष प्रकृत * अप्रतौ 'फास-महुरअलहुअगुरुअलहु', ताप्रतौ 'फास-अगुरुअलहु-म (हुर) उ-लहअ', मप्रती 'फास-महुअलहुअगुरुअलहुअ ' इति पारः। 8 अप्रतौ 'तित्थयराणं', ताप्रती 'तित्थयर-' इति पाठः । अ-कापत्योः 'जत्थ' इति पारः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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