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छक्खंडागमे संतकम्म
उदओ कस्स? जो ओहिणाणावरणस्स जहण्णपदेसवेदओ तस्स चेव जाधे उक्कस्सदिदिबं. धगद्धा पुण्णा ताधे जो उक्कस्सदिदिबंधादो पडिभग्गो संतो णिइं पयलं वा पवेदयदि तस्स णिहा-पयलाणं जहण्णओ पदेसउदओ। णिहाणिहा-पयलापयला-थीणगिद्धोणं जहण्णओ पदेसुदओ कस्स ? जो मदिआवरणस्स जहण्णओ पदेसउदओ दिट्ठो सो चेव जाधे पत्ति गो (ताधे) तस्स एइंदियपज्जत्तीए पढमसमयपज्जत्तयस्स थीणगिद्धितियं वेदयमाणस्स जहण्णओ पदेसउदओ+ । सादासादाणं ओहिणाणावरणभंगो ।
मिच्छत्तस्स जहण्णगो पदेसउदओ कस्स? उदीरणउदयादो* उवरि आवलियं गदस्स। सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्तस्त य मिच्छ तभंगो। अणंताणुबंधोणं जहण्णगो पदेसउदओ कस्स? अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्म कादूण सम्मत्तं संजमासंजमं संजमं च बहुसो लक्ष्ण चत्तारिवारे कसाए उवसामेदूण पुणो विसंजोइदं संजुत्तं कादूण बेछावट्ठीओ सम्मत्तमणुपालिय मिच्छत्तं गदो, तस्स आवलियमिच्छाइट्ठिस्स अणंताणु
अवधिज्ञानावरणके जघन्य प्रदेशका वेदक है उसीका जब स्थितिबन्धककाल पूर्ण होता है तब जो उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे प्रतिभग्न होकर निद्रा अथवा प्रचलाका वेदन करता है उसके निद्रा और प्रचलाका जघन्य प्रदेश उदय होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? जिसके मतिज्ञानावरणका जघन्य प्रदेश उदय कहा गया है वही जब पर्याप्तिको प्राप्त होता है ( तब ) एकेन्द्रिय पर्याप्तिसे पर्याप्त होने के प्रथम समयमें उसके स्त्यानगद्धित्रिकका वेदन करते हए उनका जघन्य प्रदेश उदय होता है । साता और असाता वेदनीयकी प्ररूपणा अवधिज्ञानावरणके सम
मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? उदीरणाउदयसे ऊपर आवलीको प्राप्त हुए जीवके मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेश उदय होता है। सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेश उदयकी प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? अभव्यसिद्धिकके योग्य जघन्य सत्कर्मको करके; सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त करके ; चार वार कषायोंको उपशमाकर, फिरसे भी विसंयोजित संयुक्त करके ( अनन्तानुबन्धी कषायोंको बांधकर ) दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वको पालकर जो मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उस आवली कालवी मिथ्यादृष्टिके अनंतानुबंधी कषायों
प्रभतं च दलिक विकर्षयति उद्वर्तयतीत्यर्थः । तत आवलिकां गत्वाऽतिक्रम्य बन्धावलिकायामतीतायामित्यर्थः' अवध्योरवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणायोजघन्यः प्रदेशोदयः । पलय. ताप्रतौ 'णिहा-पयले ' इति पाठः। निद्रा-प्रचलयोरपि तथन । केवलमत्कृष्टस्थितिबन्धात प्रति भग्नस्य प्रतिपतितस्य निद्रा प्रचलयोरनभवितुं लग्नस्य चेति द्रष्टव्यम् । उस्कृष्टस्थितिवन्धो हि अतिशयेन संक्लिष्टस्य भवति, न चातिसंक्लेशे वर्तमानस्य निद्रोदयसम्भवः । तत उक्तं उत्कृष्टस्थिबन्धा-प्रतिभग्नस्येति । क प्र ५, २३. ( मलय.)
निद्रानिद्रादयोऽपि तिस्रः प्रकृतयो जघन्यप्रदेशोदयविषये मतिज्ञानावरणवद्भावनीयाः। नवरमिन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्तस्य प्रथमसमये इति द्रष्टव्यम्, ततोऽनन्तरसमये उदीरणाया सम्भवेन जघन्यप्रदेशोदयसम्भबात, क. प्र. ५, २४. ( मलय.). * तापतौ 'उदीर गाउदयादो' इति पाठः। ४ सण मोहे
तिविहे उदी रणुदये आलिगं गंतुं । क. प्र. ५, २५. Jain Education International For Private & Personal Use Only
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