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उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा
( ३०५ बंधीणं जहण्णओ पदेसउदओ*। अटण्णं कसायाणं चदुण्णं संजलणाणं पुरिसवेदहस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं जहण्णओ पदेसउदओ कस्स ? जो उवसंतकसाओ मदो देवो जादो तस्स आवलियतब्भवत्थस्स जहण्णओ पदेसउदओ। अरदि-सोगाणं जहण्णओ पदेसउदओ कस्स ? एदासि पयडीणं जहा ओहिणाणावरणस्स परूवणा कदा तहा कायव्वा । इत्थिवेदस्स जहण्णओ पदेसउदओ कस्स ? जाव अपच्छिमसंजमभवग्गहणे त्ति ताव जहा मदिआवरणस्स परूविदं तहा परूवेयव्वं । तदो अपच्छिमे संजमभवगहणे देसूणपुव्वकोडि संजममणुपालेदूण सव्वजहण्णए जीविदसेसे मिच्छत्तं गदो, तदो देवीसु उववण्णो, उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहत्तं गंतूण अंतोकोडाकोडिबंधादो पण्णारससागरोवमकोडाकोडीओ पबद्धाओ, तदो ताए देवीए जाधे पण्णारससागरोवमकोडाकोडिदिदी पबद्धा तदो* बंधावलियचरिमसमए इथिवेदस्स जहण्णओ पदेसउदओ। गQसय वेदस्स मदिआवरणभंगो ।
का जघन्य प्रदेश उदय होता है । आठ कषाय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और
साका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है? जो उपशान्तकषाय मर करके देव हआ है स आवली कालवर्ती तदभवस्थके उनका जघन्य प्रदेश उदय होता है। अरति और शोकका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश उदयकी प्ररूपणा जैसे अवधिज्ञानावरणके सम्बन्धमें की गयी है वैसे करना चाहिये। स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेश उदय किसके होता है ? अन्तिम संयमभवग्रहण तक जैसे मतिज्ञानावरणके सम्बन्धमें प्ररूपणा की गयी
प्ररूपणा करना चाहिये। तत्पश्चात अपश्चिम संयमभवग्रहणमें कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयमको पालकर जीवितके सबसे जघन्य शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हआ, पश्चात देवियोंमें उत्पन्न हआ, वहां उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर जाकर अंतःकोडाकोडि मात्र बन्धकी अपेक्षा पंद्रह कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण बन्ध किया. पश्चात् उक्त देवीके द्वारा जब पंद्रह कोडाकोडि सागरोपम मात्र स्थिति बांधी जाती है तब बंधावलीके अंतिम समयमें स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेश उदय होता है। नपुंसकवेदको प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है।
* चउरुवसमित्त पच्छा संजोइय दीहकालसम्मत्ता। मिच्छत्तगए आवलिगाए संजोयणाणं तु ॥ क. प्र. ५, २६. 0 सत्तरसण्ह वि एवं उवसमइत्ता गए देवं ।। क. प्र. ५, २५. तथाऽनन्तानुबन्धिवजंद्वादशकषायपुरुषवेद-हास्य-रति-भय-जुगुप्सारूपा: सप्तदश प्रकृतीरुपशमय्य देवलोकं गतस्य एवमेवेति उदीरणोदयचरमसमये तासां सप्तदशप्रकृतीना जघन्यः प्रदेशोदयः । मलय. *ताप्रतौ'-कोडाकोडीओ पबद्धाओ विदीओ तदो' इति पाठः । इत्थीए संजमभवे सव्वणिरुद्ध म्मि गंतु मिच्छत्तं । देवीए लहुमिच्छी जेठि इ आलिगं गंतुं ॥ क. प्र. ५, २७. xxxx इयमत्र भावना- क्षपितकर्माशा काचित् स्त्री देशोनां पूर्वकोटिं यावत्संयममनुपाल्यान्तर्मुहुर्ते आयुषोऽवशेष मिथ्यात्व गत्वा अननरभवे देवी समुत्पन्ना, शीघ्रमेव च पर्याप्ता ॥ तत उत्कृष्ट संक्लेशे वर्तमान स्त्रीवेदस्योत्कृष्टां स्थिति बध्नाति, पूर्वबद्धां चोर्तयति । तत उत्कृष्टबन्धारम्भान्
परत आवलिकायाश्चरमसमये तस्थ: स्त्रीवेदस्य जयन्यः प्रदेशोदयो भवति । मलय: Jain Education International For Private & Personal Use Only
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