SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९० ) चरिमसमयछदुमत्थस्स । एवं सामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो । तं जहा -- आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स उक्कस्साणुभागउदीरणकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कण बेसमया । अणुक्कस्स० जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सुद--ओहिमणपज्जव - केवलणाणावरणीयाणं आभिणिबोहियणाणावरणभंगो । चक्खु - अचक्खु - ओहि --- केवलदंसणावरणीय---मिच्छत्त--अथिर-- असुह--- दुभग-- अणादेज्ज --- णीचागोद -पंचतराइयाणं उक्कस्सअणुभागुदीरणकालो जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । णवरि अचक्खुदंसण ---पंचतराइयाणमुक्कस्साणुभागउदीरणा जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गसपरियट्टा । वरि अचक्खुदंसण- पंचतराइयाणं जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्कस्सेण छक्खंडागमे संतकम्मं समय अधिक आवली मात्र शेष रह जानेपर होती है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ । एक जीव की अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- आभिनिबोधिकज्ञानावरणकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय है । उसकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय व उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है | श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा के कालकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान है। चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्णनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, मिथ्यात्व, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, नाचगोत्र और पांच अन्तराय; इनकी उत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय प्रमाण है । विशेष इतना है कि अचक्षुदर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका काल जघन्य व उत्कर्ष से एक समय मात्र है । उनकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । विशेष इतना है कि अचक्षुदर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट अनुभागउदीरणाका काल जघन्यसे एक समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से केवलसमुद्घातादर्वाग् भवति । तत्राङ् मर्यादायाम् । आ मर्यादया केकलिदृष्ट्या योजनं व्यापारणं आयोजनम् । तच्चातिशुभयोगानामवसेयम् । आयोजगमायोजिका, तस्याः करणं आयोजिकाकरणम् । केचिदावर्जितकरणमाहुः । तत्रायं शब्दार्थ:-- आवर्जितो नाम अभीमुखीकृतः । तथा च लोके वक्तारःआवजितोऽयं मया, संमुखीकृत इत्यर्थः । ततश्च तथा भव्यत्वेनावजितस्य मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं शुभयोगव्यापारणं आवर्जितकरणम् । अपरे 'जा नाउस्सयकरणं' इति पठन्ति । तत्रायं शब्दसंस्कारः-आवश्यककरणमिति । अन्वर्थश्चायं आवश्यकेनावश्यं मावेन करणमावश्यककरणम् । तथाहि-- समुद्घातं केचित् वुर्वन्ति, केचिच्च न कुर्वन्ति । इद त्वावश्ककरणं सर्वेऽपि केबलिनः कुर्वन्तीति । तच्चायोजिकाकरणमसंख्येयसमयात्मकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणम् । x x x तद्याववन्नाद्याप्यारभ्यते तावतीर्थंकरकेवलिनस्तीर्थंकरनाम्नो जघन्यानुभागोदीरणा । ( म. टीका ) काप्रती 'मुक्कस्साणुक्कस्सजहष्णुक्क ० ' ताप्रती 'मुक्कस्सा णुक्कस्स ० ( मुक्कस्साणुभागु० ) जहण्णुक्कस्त०', इति पाठः । " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy