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________________ उक्क माणुयोगद्दारे ट्ठदिउदीरणा ( ११५ चेव अंतोमुहुत्तं बंधदित्ति भणंतबंधसामित्तेण णेदस्स विरोहो, तत्थ नियमाभावादो | मणुसगईए जहण्णिया ट्ठिदिउदीरणा कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स । जहा freeगईए तहा देवगईए वत्तव्वं । णवरि तत्पाओग्गेण जहण्णट्ठिदिसंतकम्मेण असforपचदियो तप्पा ओग्गउक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मिएसु देवेसु उप्पादेदव्वो । चदुजादिणामाणं बादरेइंदियं सव्वसिसुद्धपरिणामेण कयजहण्णट्ठिदिसंतकम्मं सग-सगजादिमुप्पादिय पडिवक्खबंधगद्धाओ वोलाविय अप्पिदजादि बंधमाणस्स पढमावलियचरिमसमए जहण्णट्ठिदिउदीरणा वत्तव्वा । पचिदियजादि-ओरालिय-तेजा - कम्मइयसरीराणं जह दिउदीरगो को होदि ? चरिमसमयसजोगिकेवली । वेउव्वियसरीरस्स जहण्णfararरओ को होदि ? जो एइंदियो वेउव्वियसरीरस्स तप्पा ओग्गजहण्णट्ठिदिसंतकम्मिओ विउव्विदुत्तरसरीरो तस्स चरिमसमए जहण्णिया ट्ठिदिउदीरणा । जीवों से पीछे आया हुआ जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक तिर्यंचगतिको ही बांधता है, इस प्रकारकी प्ररूपणा करनेवाले बन्धस्वामित्वके साथ इसका कोई विरोध नहीं है, क्योंकि, वहां ऐसा नियम नहीं है | मनुष्यगतिकी जघन्य स्थिति - उदीरणा किसके होती है ? उसकी उदीरणा अन्तिम समयवर्ती . सयोगकेवली के होती है । जैसे नरकगतिकी जघन्य स्थिति उदीरणा कही गई है वैसे ही देवगति सम्बन्धी जघन्य स्थिति उदीरणाका कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्त्वके साथ असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवको तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट आयुस्थितिसत्त्ववाले देवों में उत्पन्न कराना चाहिये । सर्वविशुद्ध परिणामके द्वारा किये गये जघन्य स्थितिसत्त्व से संयुक्त बादर एकेन्द्रियको उस उस जातिवाले जीवोंमें उत्पन्न कराकर प्रतिपक्ष जातियोंके बन्धककालको बिताकर विवक्षित जाति नामकर्मको बांधनेवाले उस उस जीवके प्रथम आवलीके अन्तिम समयमें एकेन्द्रिय आदि चार जाति नामकर्मकी जघन्य स्थिति उदीरणा कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तेजस व कार्मण शरीर इनकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? अन्तिम समयवर्ती सयोगकेवली जीव उनकी जघन्य स्थितिका उदीरक होता है। वैक्रियिकशरीर सम्बन्धी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? वैक्रियिकशरीरके तत्प्रायोग्य स्थितिसत्त्ववाले जिस एकेन्द्रिय जीवने उत्तर शरीरकी विक्रिया की है उसके उत्तर शरीरकी विक्रियाके अन्तिम समयमें वैक्रियिकशरीरकी जघन्य स्थिति - उदीरणा होती हैं । आहारकशरीरकी जघन्य स्थिति - उदीरणा तिरिक्खगइ-ओरालियदुग-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुथ्वी-णीचागोदाणं सांतर- णिरंतरी, तेउ वाउकाइयाणं उ-बाउकाइय-सत्तमपुढवीणेरइए हितो आगंतूण पंचिदियतिरिक्त-तप्पज्जत्त जोगिणीसु उप्पण्णणं सणक्कुमारा-देव-रहितो तिरिक्खे सुप्पण्णाणं च निरंतरबंधदंसणादो । ष. खं. पु. ८, पृ. १२१. अमणागयस्स चिरठि अंत (ते) सुर-नरयगह उवंगाणं | अणुपुव्वीतिसमइगे नराण एगिदियागयगे । क. प्र. ४, ३८. उभयोरेव प्रत्यो: 'जहण्णओट्ठिदि' इति पाठः । उभयोरेव प्रत्योः 'विउन्विदुत्तरसरीरोत्तरस्स' इति पाठः । • एतदुक्तं भवति - बादरवायुकायिकः पल्योपमासंख्येय भागहीन सागरोपमद्वि-सप्तभागप्रमाणवैयिषट्कजघन्य स्थितिसत्कर्मा बहुशो वैक्रियमारस्य चरमे वैक्रियारम्भे चरमसमये वर्तमानो जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति । अनन्तरसमये च वैक्रियिकषट्कमे के न्द्रियसत्कजघन्यसत्कर्मापेक्षया स्तोकतरमिति कृत्वा उदीरणायोग्यं न भवति किन्तुद्वलनायोग्यम् । क. प्र. ( मलय ) ४, ४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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