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विंणाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिणिबंधणं
पंच यछत्तिय छपंच दोणि पंच य हवंति अट्ठेव । सरीरादीप संता पयडीओ आणुपुव्वीए ॥ १ ॥ अगुरुलहु-परूवघादा आदाउज्जोव णिमिणणामं च । पत्तेय-थिर-सुहेदरणामाणि य पोग्गलविवागा ॥ २ ॥
( १३
पंच सरोराणि, छ संठाणाणि, तिण्ण अंगोवंगाणि, छ संघडणाणि, पंच वण्णा, दो गंधा, पंच रसा, अट्ठ फासा, अगुरुअलहुअ - उवघाद - परघाद- आदाउज्जोव-पत्तेयसाहारणसरीर-थिराथिर - सुहासुह- णिमिणणामाणि च पोग्गलणिबद्धाणि । कुदो ? एदेसि विवागेण सरीरादीणं निष्पत्तिदंसणादो । एवं बावण्णणामपयडीओ पोग्गलबिद्धाओ । संपहि जीवगिबद्धणाम पडिपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि -- गदिजादी उस्सासो दोणि विहाया तसादितियजुगलं । सुभगादीचदुजुगलं जीवविवागा यतित्थयरं ॥ ३ ॥
चत्तारिगदि-पंचजादि उस्सास -पसत्थापसत्थविहायगदि-तस - थावर - बादर - सुहुम-पज्जतापज्जत्त-सुभग- दूभग- सुस्सर दुस्सर - आदेज्ज - अणादेज्ज-जस - अजसकित्ति - तित्थयरपडीओ अप्पाणम्मि णिबद्धाओ । कुदो ? एदासि विवागस्स जीवे चेवुवलंभादो । एवमेदाओ सत्तावीस णामपडीओ जीवविवागियाओ । संपहि खेत्तणिबद्धपग्रडिपरूवणट्ठ गाहासुतं
शरीरसे लेकर स्पर्श पर्यन्त अर्थात् शरीर संस्थान, अंगोपांग, संहनन, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये अनुक्रमसे पांच, छह, तीन, छह, पांच, दो, पांच और आठ प्रकृतियां अगुरुलघु, परघात, उपघात, आतप, उद्योत निर्माण, प्रत्येक व साधारण, स्थिर व अस्थिर तथा शुभ व अशुभ ; ये नामप्रकृतियां पुद्गलविपाकी हैं ।। १-२ ।।
पांच शरीर, छह संस्थान, तीन आंगोपांग, छह संहनन, पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, प्रत्येक, व साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण ये नामकर्मकी प्रकृतियां पुद्गलनिबद्ध हैं, क्योंकि, इनके विपाकसे शरीरादिकों की उत्पत्ति देखी जाती है । इस प्रकार ये बावन नामप्रकृतियां पुद्गलनिनिबद्ध हैं । अब जीवनिबद्ध नामप्रकृतियोंकी प्ररूपणा करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं ।
गति, जाति, उच्छ्वास, दो विहायोगतियां, त्रस आदिक तीन युगल, सुभग आदिक चार युगल और तीर्थंकर, ये प्रकृतियां जीवविपाकी हैं ।। ३ ।।
चार गति, पांच जाति, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशः कीर्ति, और तीर्थंकर, ये प्रकृतियां आत्मामें निबद्ध हैं, क्योंकि, इनका विपाक जीवमें ही पाया जाता है । इस प्रकार ये सत्ताईस नामप्रकृतियां जीवविपाकी हैं। अब क्षेत्रनिबद्ध प्रकृतियोंकी
देहादी फासता पण्णासा णिमिण-तावजुगलं च ।
थिर-सुह-पतेयदुगं अगुरुतियं पोग्गल ववाई | गो.
क. ४७. * काप्रतो' णिबद्धाणाम' इति पाठः । तित्थयर उस्सा बादर- पज्जत्त-सुस्सरादेज्जं । जस-तस - विहाय - सुभगदु चउगइ-पणजाइ सगवीसं गदिजादी उस्सारसं विहायगदि तसतियाण जुगल च । सुभगादिचउज्जुगलं तित्थयरं चेदि सगवीसं । गो. क. ५०-५१.
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