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________________ ८ पक्क माणुयोगद्दार जयउ भुवणेक्कतिलओ तिहुवणकलिकलुस धुवणवावारो । संतियरो संतिजिणो पक्कमअणुयोगकत्तारो ॥ १ ॥ तत्थ पक्कमेत अणुयोगद्दारस्स थोवत्थपरूवणे कीरमाणे अपयदत्थणिराकरणदुवारेण पयदत्यपरूवणट्ठ णिक्खेवो कीरदे । तं जहा - णामपक्कमो, ठवणपक्कमो, Goatraमो, खेत्तपक्कमो, कालपक्कमो, भावपक्कमो चेदि छव्विहो पक्कमो । णाम-ठवणं गदं । दव्वपक्कमो दुविहो आगम-णोआगमदव्वपक्कमभेएण । आगमव्वपक्कम पक्कमाणुओगद्दारजाणगो अणुवजुत्तो । णोआगमदव्वपक्कमो तिविहो जाणुगसरीर भविय तव्वदिरित्तभेदेण । जाणुगसरीर-भवियं गदं । तव्वदिरिपक्कमो दुविहो - कम्मपक्कमो णोकम्मपक्कमो चेदि । तत्थ कम्मपक्कमो अट्ठविहो । uttarraat तिविहो- सचित्त-अचित्त - मिस्सभेएन । अस्साणं हत्थीणं पक्कमो सचित्तपक्कमो णाम । हिरण्ण-सुवण्णादीणं पक्कमो अचित्तपक्कमो णाम । साभाराणं हत्थी अस्साणं वा पक्कमो मिस्तपक्कमो णाम । खेत्तपक्कमो तिविहो - उड्ढलोगearer अधोलोगपक्कमो तिरियलोगपक्कमो चेदि । एत्थ आधेये आधारोवयारेण तत्थट्टियजीवाणं उड्ढाधोतिरियलोगो त्ति सण्णा, अण्णहा तिष्णं लोगाणं शान्तिके लोकके एक मात्र तिलक स्वरूप, तीन लोकके शत्रुभूत पाप- मैलके धोने में व्यापृत, करनेवाले और प्रक्रम अनुयोग के कर्ता ऐसे शान्तिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवें ॥ १ ॥ प्रक्रम इस अनुयोगद्वारके स्तोक अर्थोंकी प्ररूपणा करते समय अप्रकृत अर्थके निराकरण द्वारा प्रकृत अर्थकी प्ररूपणा करनेके लिये निक्षेप किया जाता है । वह इस प्रकार है- नामप्रक्रम, स्थापनाप्रक्रम, द्रव्यप्रक्रम, क्षेत्रप्रक्रम, कालप्रक्रम और भावप्रक्रम; इस प्रकार प्रक्रम छह प्रकारका है । इनमें नामप्रक्रम और स्थापनाप्रक्रम अवगत हैं । द्रव्यप्रक्रम आगमद्रव्यप्रक्रम और नोआगमद्रव्यप्रक्रमके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें प्रक्रम अनुयोगद्वारका ज्ञायक उपयोग रहित जीव आगमद्रव्यप्रक्रम हैं । नोआगमद्रव्यप्रक्रम ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकारका है । इनमें से ज्ञायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्यप्रक्रम अवगत हैं । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यप्रक्रम कर्मप्रक्रम और नोकर्मप्रक्रमके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें कर्मप्रक्रम आठ प्रकारका है । नोकर्मप्रक्रम सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है । अश्वों और हाथियोंका प्रक्रम सचित्तप्रक्रम, हिरण्य और सुवर्ण आदिकोंका प्रक्रम अचित्तप्रक्रम, तथा आभरण सहित हाथियों व अश्वोंका प्रक्रम मिश्रप्रक्रम कहलाता है । क्षेत्रप्रक्रम ऊर्ध्वलोकप्रक्रम, अधोलोकप्रक्रम और तिर्यग्लोकप्रक्रमके भेदसे तीन प्रकारका है । यहां आधेय में आधारका उपचार करनेसे उन लोकोंमें स्थित जीवोंकी ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और ताप्रती ' थोवत्त ( त्थ ) यपरूवणे' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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