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________________ १८६ ) छक्खंडागमे संतकम्म ओरालियसरीरणामाए जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? सुहमस्स जहणियाए अपज्जत्तणिवत्तीए उववण्णस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स अविग्गहगदीए उववण्णस्स । वेउव्वियसरीरणामाए जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स वा जीवस्स? जहणियाए उत्तरविउव्वणद्धाए पढमसमयआहारयस्स। आहारसरीरणामाए जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स? जहणियाए आहारविउवणद्धाए पढमसमयआहारयस्स । तेजाकम्मइयाणं जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स? अण्णदरस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स। ओरालियसरीरअंगोवंगणामाए जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? बेइंदियस्स जहणियाए अपज्जत्तणिव्वत्तीए उववण्णस्स पढमसमयआहारयस्स । वेउव्वियअंगोवंगणामाए जहण्णाणुभागुदीरणा कस्स ? पढमसमयणेरइयस्स असण्णिपच्छायदस्स पढमसमयआहारयस्स तपाओग्गउक्कस्सियाए विदोए उववण्णस्सी । आहारसरीरअंगोवंगस्स आहारसरीरभंगो । पंचसरीरबंधण-- औदारिकशरीर नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य अपर्याप्त निर्वत्तिसे एवं ऋजुगतिसे उत्पन्न हुए सूक्ष्म जीवके तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें होती है । वैक्रियिकशरीर नामकर्म जघन्य अनुभाग उदीरणा किस जीवके होती है ? वह जघन्य उत्तरविक्रियाकालमें प्रथम समयवर्ती आहारकके होती है। आहारकशरीर नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य आहारकत्रिक्रियाकालमें प्रथम समयवर्ती आहारकके होती है। तैजस और कार्मण शरीरकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुए अन्यतर जीवके होती है ? औदारिकशरीरअंगोपांग नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्तिसे उत्पन्न ऐसे द्वीन्द्रिय जीवके आहारक होने के प्रथम समयमें होती है। वैक्रियिकशरीरअंगोपांग नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह असंज्ञी जीवोंमेंसे पीछे आकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिके साथ नरकमें उत्पन्न हुए प्रथम समयवर्ती नारकीके आहारक होनेके प्रथम समयमें होती है। आहारकशरीरांगोपांगकी जघन्य उदीरणाकी प्ररूपणा आहारकशरीरके समान है। पांच शरीरबन्धनों और ४ ताप्रती ' कस्स ? वा जीवस्स ? ' इति पाठः। पोग्गलविवागियाणं भवाइसमए विसेसमवि चासि । आइतणणं दोण्णं सुहमो वाऊ य अप्पाऊ ॥ क. प्र. ४, ७३. xxx तत एतदुक्तं भवति- औदारिकशरीरौदारिकसंघातौदारिकबन्धनचतुष्टयरूपस्यौदारिकषट्कस्याप्यपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियो वायुकायिको वैक्रियिकषटकस्य च पर्याप्तो बादरो वायुकायिकोऽल्णयुजघन्यानुभागोदीरको भवति । (म. टीका) xxx तत आहारकसप्तकस्य यतेराहारकशरीरमुत्पादयतः संक्लिष्टस्याल्पे काले, प्रथमसमय इत्यर्थ;, जघन्यानुभागोदीरणा । क. प्र. ४, ७४. (म. टीका ) तथा तेजससप्तक-म दु-लघवर्जशुभवर्णाद्येकाशदकागुरुलघुस्थिर-शभ-निर्माणरूपाणां (२०) विशतिप्रकृतीनां संक्लिष्टोऽपान्तरालगतौ वर्तमानोऽनाहारको मिथ्यावृष्टिजघन्यानुभागोदीरणास्वामी वेदितव्यः । क प्र ४, ७६ (म. टीका) २ इयमत्र भावना-द्वीन्द्रियोऽल्पायुरोदारिकांगोपांगनान्म उदयप्रथमसमये जघन्यमनुभागमुदीरयति । तथाऽसंजिपंचेन्द्रियः पूर्वोदलितवैक्रियो वैक्रियांगोपांगं स्तोककालं बद्ध्वा स्वभूमिकानुसारेण चिरस्थितिको नैरयिको जातस्तस्त क्रियांगोपांगनाम्न उदयप्रथमममये वर्तमानस्य जघन्यानुभागोदीरणा । क. प्र. ४, ७४. (म. टीका). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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