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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २३५ उवघाद-परघाद-आदाव-उज्जोव-उस्सास-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेयसरीरसाहारण-जसगित्ति-अजसगित्तीणं भुजगार-अप्पदर-अवट्टिद-अवत्तव्वउदीरया णियमा अस्थि । णवरि पत्तेयसरीरस्स अवद्विदउदीरया भजियव्वा । तेणेत्थ तिण्णिभंगा। णाणाजीवेहि कालो-- जेसि कम्माणं भंगविचए एक्को भंगो तेसिं भुजगारअप्पदर अवट्ठिद-अवत्तन्वउदीरयकालो सव्वद्धा। जेसि तिण्णिभंगा तेसिमवत्तव्वउदीरयाण कालो जह० एगसाओ, उक्क० आवलि. असंखे० भागो। सेसाणं सव्वद्धा : जेसि णवभंगा तेसि अवत्तव्व-अवविदउदीरयकालो जह० एगसमओ, उक्क० आव० असंखे० भागो। असीदिभंगएसु सम्मामिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदराणं जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अवत्तव्व-अवविदउदीरयाणं जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। तिण्णमाणपुव्वीणं भजगार-अप्पदर-अवट्रिद-अवत्तव्वउदीरयाणं जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। आहारचउक्क० भुजगारअप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अवट्ठिदावत्तव्व उदीरयाणं जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। एवं णाणाजीवेहि कालो समत्तो। बन्धन व संघात, हुण्डकसंस्थान, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, यशकीर्ति और अयशकीर्ति ; इनके भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य उदीरक नियमसे होते हैं । विशेष इतना है कि प्रत्येकशरीरके अवस्थित उदीरक भजनीय हैं । इसलिये यहां तीन भंग होते हैं । __नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका कथन किया जाता है- जिन कर्मोंका भंगविचयमें एक भंग होता है उनके भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य उदीरकोंका काल सर्वकाल होता है। जिन कर्मोके तीन भंग होते हैं उनके अवक्तव्य उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीका असंख्यातवां भाग होता है। शष कर्मोंका सर्वकाल होता है। जिन कर्मोके नौ भंग होते हैं उनके अवक्तव्य व अवस्थित उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । अस्सी भंगवाले कर्मोंके सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार उदीरकों और अल्पतर उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । अवक्तव्य व अवस्थित उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। तीन आनुपूर्वियोंके भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। आहारकचतुष्कके भुजाकार और अल्पतर उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । आहारचतुष्कके अवस्थित व अवक्तव्य उदीरकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात समय मात्र होता है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ। ताप्रती ‘-उदीरणका लो' इति पाठः । * अ-काप्रत्योः ‘अवट्टिदावत्त ब्वा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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