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________________ २२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं किं च- ण णिच्चादो कारणकलावादी असंतस्स कज्जमुप्पज्जइ, णिच्चस्स अाया दिसयस्स पमाणगोयरमइवकंतस्स अणहिलप्पस्स असंतस्स कारणत्तविरोहादो । ण कमेण कुणदि, णिच्चम्मि कमाभावादो । भावे वा, अणिच्चं होज्ज; अवत्थादो अवत्थंतरं गयस्स णिच्चत्तविरोहादो । ण च अक्कमेण कुणदि, एग ण च अकज्जं कारण समए समुप्पा दसयलकज्जस्स बिदियसमए असंतप्पसंगादो । मत्थितमल्लियइ, पमाणविसयमइक्कंतस्स अत्थित्तविरोहादो । णच अणिच्चादो कारणादो असंतं कज्जमुप्पज्जदि, अट्ठियस्त कारणत्तविरोहादो । ण ताव उप्पज्जमाणमुप्पादेदि, एगसमए चेव सव्वकज्जाणमुप्पत्तिप्पसंगादो। ण च एवं, बिदियसमए सव्वकज्जस्स अणुवलद्धिप्पसंगादो। ण च उप्पण्णमुप्पादेदि, अणवट्टियस्स दुसमयअवट्ठाण विरोहादो। ण च णट्ठं कज्ज मुप्पादेदि, अभावस्स सयलसत्तिविरहियस्स और भी - नित्य कारणकलापसे तो असत् कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, सर्वथा नित्य वस्तु अनाधेयातिशय होनेसे न प्रमाणकी विषय हो सकती है और न वचनकी भी विषय हो सकती है । इस प्रकार असत् होनेसे ( गधेके सींग के समान ) उससे कारणताका विरोध है | ( इतनेपर भी यदि उसे कारण स्वीकार किया जाता है तो यह भी प्रश्न उपस्थित होता है कि विवक्षित कारण क्या क्रमसे कार्यको करता है या अक्रमसे ? ) क्रमसे तो वह कार्यको कर नहीं सकता, क्योंकि, नित्यमें क्रमकी सम्भावना ही नहीं है । अथवा यदि उसमें क्रमकी सम्भा ना है तो फिर वह अनित्यताको प्राप्त होना चाहिये, क्योंकि, एक अवस्थासे दूसरी अवस्थाको प्राप्त होनेपर नित्यताका विरोध है । अक्रमसे वह कार्यको करता है, यह द्वितीय पक्ष भी योग्य नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर एक समय में समस्त कार्यको उत्पन्न करके द्वितीय समय में उसके असत्त्वका प्रसंग आता है। इस प्रकारसे कार्यव्यापारसे रहित कारण अस्तित्वको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, प्रमाण ( अनुमानादि ) का अविषय होनेसे उसके अस्तित्वका विरोध है । अनित्य कारणसे असत् कार्य उत्पन्न होता है, यह बौद्धाभिमत भी ठीक नहीं है; क्योंकि, स्थिति रहित वस्तुके कारणताका विरोध है ( यदि स्थितिसे रहित अर्थ भी कारण हो सकता है तो वह क्या उत्पन्न होता हुआ कार्यको उत्पन्न करता है, उत्पन्न होकर कार्यको उत्पन्न करता है, नष्ट होकर कार्यको उत्पन्न करता है, अथवा विनष्ट होता हुआ कार्यको उत्पन्न करता है ? ) उत्पन्न होता हुआ तो वह कार्यको उत्पन्न कर नहीं सकता, क्योंकि, इस प्रकार से एक समयमें ही समस्त कार्योंके उत्पन्न होनेका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर द्वितीय समय में समस्त कार्योंकी अनुपलब्धिका प्रसंग प्राप्त होता है । उत्पन्न होकर वह कार्यको उत्पन्न करता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, अवस्थानसे रहित उसका दो समयोंमें रहनेका विरोध है । नष्ट हो करके वह कार्यको उत्पन्न करता है, यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि, नष्ट होनेपर अभाव स्वरूपको प्राप्त हुए उसके समस्त शक्तियोंसे रहित होनेके कारण कार्यको उत्पन्न करनेका विरोध ४ काप्रती Jain Education International सयस्स इति पाठः । , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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