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दिगम्बर जैन व्रतोद्यापन संग्रह
हस्तलिखित ग्रन्थोंसे संशोधक और सम्पादक :
फुलचन्द सूरचन्द दोशी,
ईडर (साबरकांठा)
प्रकाशक:दिगम्बर जैन पुस्तकाय गांधीचौक-सूरत-३
मुद्रक :=
शैलेश डाह्याभाई कापड़िया, "जैनविजय" प्रिं० प्रेस, गांधी चौक-सूरत-३.
मूल्य-रु०-001
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दि.जैनव्रतोद्यापनसंग्रह
हस्तलिखित ग्रन्थोंसे संशोधक और सम्पादक :
फूलचन्द सूरचन्द दोशी, ईडर ( साबरकांठा)
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प्रकाशक :दिगम्बर जैन पुस्तकालय, गांधीचौक-सूरत ।
___ मुद्रक :
शैलेश डाह्याभाई कापड़िया, "जैनविजय" प्रिं० प्रेस, गांधीचौक-सूरत - ३.
Namacा पाकमा
र वीर सं० २५१२]
सन १९४६
E तृतीय आवृत्ति ]
मूल्य - रु०
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GRIBIRTELENDINTI RADAMİRTENZAHIRITENOU HONTANART RAND CONTROVERHEID
KO उद्यापन करनेकी विधि
___ सबसे पहिले उद्यापन करनेवालेको स्नान आदिसे शुद्ध होकर जैन मन्दिर में जाना चाहिए और जिस व्रतका उद्यापन करना हो उसका संकल्प करे या वर्तमानतामें गुरुकी आज्ञा लेनी चाहिए। बाद पूजनोपयोगी तथा मण्डलोपयोगी ( साथियाके उपयोगी ) हरएक द्रव्य सामग्री शुद्ध लाना चाहिए। फिर शुभ मुहूर्त में जिस व्रतका उद्यापन करना हो उसका मण्डल (साथिया) नीचे लिखे माफिक कोष्टक (कोठे) का निकाले।
उद्यापनके कोष्टक ( कोठों) की संख्या १-रविवार व्रतोद्यापन ९४९ कोष्टक ८१ २-षोडशकारण व्रतोद्यापन (दर्शनविशुद्धि ९८, विनयसंपन्नता ४, शीलभावना १०, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ४२, संवेग १४, शक्ति त्याग ४, शक्तिस्तप २४, साधु समाधि ४, वैयावृत्य ४, अर्हद्भक्ति १३, आचार्य भक्ति १२, बहुश्रुत भक्ति २, प्रवचन ५, आवश्यकपरिहाणि ६, मार्ग प्रभावना १०, प्रवचन वात्सल्य ४)
= कुल कोष्टक २५६ ३-रत्नत्रय व्रतोद्यापन ( सम्यक्दर्शन १२, सम्यक्ज्ञान ४८, सम्यक्चारित्र ३३)
= कोष्टक ९३ ४-अनंत व्रतोद्यापन १४४१४ = , १९६ ५-अष्टाह्निका व्रतोद्यापन १३४४ = , ५२ ६-नवग्रह* व्रतोद्यापन
- , १४१+१ * नवग्रह उद्यापनमें मंडलके नवं कोष्टक निकाले वह पूजनमें पृष्ठ २९० पर छपे माफिक रंगके और उसमें छपी हुई दिशा में निकालें।
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७-शांतिचक्रोद्यापन+, (पंचपरमेष्ठि ५, मंगल ४, लोकोसम ४, शरणभूत ४, जैनधर्म १, बयादि अष्टदेवी ८, विद्यादेवता १६, शासनदेवता २४, भवनवासी १०, व्यंतर ८, ज्योति केन्द्र २, कल्पवासो १२ दिग्पाल १०, पक्षदेवता २४, नवग्रह ९)=१४१ और ईशान दिशामें मंडलके बहार अनावृत्तका १ ज १४२ ___ उपर छपे माफिक व्रतोंके उद्यापनका मंडल बर्गलाकार या चतुष्कोण, निकाले । पंडलमें पांच प्रकारके रंग पूरना चाहिए। ये पांच प्रकारके घान्य (जैसे उड़द, मूग, पनाको दाल सफेद चावल, पोले चावल और कुकुमसे सुशोभित धनाधे ।
कोष्टक निकालनेवालेको याद रखना चाहिए कि मध्यम कमल कणिकामें सबसे पहिले ॐकार निकाले। फिर उसके आगे पुष्पोंसे (पोले चावलोंसे) मालाकार निकालकर उसके आगे अष्टकोष्टक वर्तुलाकार निकाले । जो ज्ञानावरणादि अष्टकर्म रहित सिद्धपरमेष्ठिके गिने जाते हैं। या उसको अहदस कमल भी कहते हैं। वह कोष्टक उमापन के कोष्ठककी गिनतोमें नहीं गिने जाते हैं। मंडपको चारों तरफसे ध्वजाओंको पंक्ति
ओंसे सुशोभित करे और तोरण चंदोवा, चन्दनमाला { आशोपालवके पत्तोंके तोरण) और केलेके स्तम्भोंसे सुशोभित बनावें मंडलके बीच में सिंहासन स्ववे, जिसमें अभिषेकके बाद भगवानकी प्रतिमा और यंत्र बिराजमान करे।
+ शांतिचक्र मंडलमें (नवग्रहके कौष्टक ) मंहलके बाहर मंडल के वर्तुलको अडकर दशो दिशामें निकाले और अनावृतका कोष्टक मंडलको ईशान दिशामें बाहर निकालें।.. .
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[ ६ ]
उद्यापन करनेवालेको प्रथम स्नान कर शुद्ध वस्त्र ( घोतीदुपट्टा ) धारण करके पूजनोपयोगी द्रव्य सामग्री इकट्ठी करके पृष्ठ १ से ३ तक छपे हुये विधान से अभिषेक और पूजनके लिए जल लाना चाहिए। बाद पृष्ठ “१५” में छपा हुआ "ॐ ह्रां ह्रीं ह्रीं ह्रौं ह्रः नमोऽर्हते मगवते." इत्यादि मंत्रसे उस जलकी शुद्धि करना चाहिए। बाद पूजन सामग्री धोकर “ ॐ ह्री अईं झौं झौं वं मं तुं सं तं पं झवीं क्ष्वीं हं मं असि आउ वा पवित्र जलेन शुद्ध पात्रे निक्षिप्त पुष्पाणि पूजाद्रव्याणि शोधयामि स्वाहा ।" इस मंत्र से द्रव्यशुद्धि करना चाहिए ।
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बाद मंडप में वेदी स्थापन कर पृष्ठ १२ से अभिषेक प्रारम्भ करे | इन्द्रस्थापन क्रिया के पीछे पुरा कर्म (वेदी प्रक्षालन, श्रीकार लेखन आदि क्रिया ) करके भगवान और जिस व्रतका उद्यापन हो उसके यंत्रका स्थापन करना चाहिए। भगवानकी स्थापन क्रिया के समय पृष्ठ " ५६ " में दिया हुआ मंगलाष्टक पढ़ना चाहिए ।
फिर नीरांजन और पाद्याचमन क्रिया करके पृष्ठ “ १२ " में छपा हुआ "ॐ ह्रीं अहं नमः परम ब्रह्मणे विनष्टाष्टकर्मणे अर्घ्यम्" इत्यादि पश्चात् पृष्ठ ४ से ११ तक छपा हुआ दश दिग्पाल पूजन करना चाहिए ।
उसके बाद पृष्ठ 39. १९ में छपा हुआ क्षेत्रपाल पूजन करके चतुः कलश स्थापन और गन्धोदक कलश स्थापन करके अभिषेक विधिसे पंचामृताभिषेक क्रमसे करना चाहिए। अंतमें पृष्ठ " ५४ " में दिये हुए शांति मंत्र से अभिषेक के समय दक्षिण तरफ स्थापित किया हुआ पूर्ण कलश भगवानके ऊपर ढालना चाहिए | ( शांति मंत्र और अविछिन्न कलश जलधारा साथर होना चाहिए। )
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[७]
अभिषेक पूर्ण होने के बाद भगवानको प्रतिमाको और यन्त्रको मण्डलके बोचमें रक्खे हुए सिंहासनके उपर स्थापन करे । स्थापन विधिके बाद पृष्ठ "२९" में दिये हुये "ॐ जय जय जय नमोऽस्तु नमोऽस्तु णमो अरहंताणसे विघ्नौधा प्रलयंयांति" तक पढ़के पृष्ठ "३०" में दिया हुआ सकलीकरण, करन्यास और अंगन्यास क्रमसे करना चाहिए (सकलोकरणमें छपा हुआ " जलयन्त्र" को नागवेलके पान ऊपर निकालकर सकलोकरण पूर्ण होनेके बाद उस यन्त्रको एक थाली में रखकर साथमें एक कटोरोमें या खोपराकी कटोरी में खड़ी सक्कर ( मित्रो ) या फल रखकर उस थालीको मण्डलके बीच में सिंहासनके नोचे रक्खे । उसमें कुछ द्रव्य और पुष्प आदि डालना चाहिये । - पश्चात् सहस्रनाम पूर्ण पढ़के स्वस्ति विधान करके देव, शाख, गुरुपूजा, सिद्धपूजा और कलिण्ड पूजा ये पंच पूजा करके उद्यापन प्रारम्भ करे ।
उद्यापन पूर्ण होनेके बाद पुण्याहवाचन, आरती, शांति और विसर्जन अनुक्रमसे करना चाहिए। तथा शक्ति अनुसार उपकरण मन्दिरमें देना चाहिए और आहार औषषि, शास्त्र और अभयदान ये चार प्रकारके दान शक्ति अनुसार करना चाहिए । पश्चात् गुरुको आशीष लेकर घर जाना चाहिए ।
सेवक- .. फूलचन्द सूरचन्द दोशी-ईडर। .
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विषय सूची
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नं० ..
नाम .. १. उद्यापन करनेकी विधिः २. अभिषेककार्य जलशुद्धि विधान ३. दश दिक्पाल पूजन . ४. श्रीमदाशावरकृत महाभिषेक ५. स्वस्तिमङ्गल विधान ६. सकलीकरण ७. करन्यास, अंमन्यास . ८. पुण्याहवाचन ९. ममालाष्टक १०. शान्तिमनन११. सहखानाम आदि स्वस्तिः विधान १२. रविवार व्रत उद्यापन १३. षोडशकारण व्रत उद्यापन १४. रत्नत्रय व्रत कथा १५. रत्नत्रय व्रत उद्यापन १६. अनन्त व्रत उद्यापन १७. अष्टाह्निका ( नन्दीश्वर ) व्रत उद्यापन १८. नवग्रह उद्यापन १९. शांतिचक्र उवाफ्न
१४९ १५१
१७६ २५३
२८९ ३३७
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॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।
दि० जैन व्रतोद्यापनसंग्रहः
अथाभिषेकार्थ जलशुद्धिविधानम् ।
अभिषेक प्रारम्भ करनेके पहिले अभिषेक तथा पूजनके लिए जल आवश्यक है इसलिए सौभाग्यवती खिये अथवा कन्याएं अपने२ माथे पर नारियलसे ढके हुए कलश ले जावें और निम्नलिखित विधान पूर्वक जल लावें । नीचेके श्लोक प्रमाण जलाशय पर अर्घ चढ़ावे। पद्मापादनतो महामृतभवानंदप्रदानानृणाम् । जैनो मार्ग इवावभासि विमलो योगीव शीतीभवन् । जैनेन्द्रस्नपनोचितोदकतया क्षीरोदवत्तत्सताम् । पूज्यं त्वां शुभशुद्धजीवननिधि कासोर संपूजये ॥१॥
ॐ ह्रीं पद्माकराय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा । श्रीमुख्यदेवीः कुलशैलमूर्धपद्मादिपद्माकरसमसक्ताः। पयः पटीराक्षतपुष्पहव्यप्रदीपपोद्धफलैः प्रयक्ष्ये ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री प्रभृतिदेवताभ्यः इदं जलादि अर्धा निर्व० स्वाहा। गंगादिदेवीरतिमंगलांगा गंगादिविख्यातनदीनिवासाः। पयः पटीराक्षत पुष्पहव्य प्रदीपधूपोद्धफलैः प्रयक्ष्ये ॥३॥ ॐ ह्रीं गंगादि देवोभ्यः इदं जलादि अर्ष० ।
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२] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । सीतानदीविद्धमहाह्रदस्थान् हृदेश्वरान्नागकुमारदेवान् । पयः पटीराक्षतपुष्पहव्यप्रदीपधूपोद्धफलैः प्रयक्ष्ये ॥४॥
ॐ ह्रीं सीताविद्धमहाह्रददेवेभ्यः इदं जलादि अर्घ० । सीतोत्तरामध्यमहाह्रदस्थान हृदेश्वरान्नागकुमारदेवान् । पयः पटीराक्षत• ॥५॥
ॐ ह्रीं सीतोदाविद्ध महाह्रददेवेभ्यः इदं जलादि अर्घ० । क्षीरोदकालोदकतीर्थवति श्रीमागधादीनमरानशेषान् । पयः पटीराक्षत० ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं लवणोदकालोदमागधादि तीर्थ देवेभ्यः इदं जलादि० । सीतातदन्त्यद्वयतीर्थवर्ति श्रीमागधादीनमरानशेषान । पयः पटीराक्षत० ॥ ७॥ ___ॐ ह्रीं सीतासीतोदामागधादि तीर्थ देवेभ्यः जलादि० । समुद्रनाथांल्लवणोदमुख्यसंख्याव्यतीतांबुधिभूतिभोक्तन् । पयः पटीराक्षत० ॥ ८॥ ___ॐ ह्रीं संख्यातीत समुद्रदेवेभ्यः जलादि अर्घ० । लोकप्रसिद्धोत्तमतीर्थदेवान्नंदीश्वरद्वीपसरः स्थितादीन् । पयः पटीराक्षत० ॥९॥
ॐ ह्रीं लोकाभिमततीर्थ देवेभ्यः इदजलादि अर्घ० । गंगादयः श्रीप्रमुखाश्चदेव्यः श्रीमागधाद्याश्च समुद्रनाथाः। हृदैशिनोऽन्येऽपि जलाशयेशास्ते
सारयन्त्वस्य जिनोचितांमः॥१०॥
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जलशुद्धिविधान। ऊपरका "गंगादयः" आदि श्लोक मंत्र बोलकर जलाशयसे जल निकालना चाहिये । कलशों पर चंदन लगाकर नीचे लिखा मंत्र बोल कलशोंमें जल भरना चाहिये ।
ॐ ह्रीं श्री-ह्रीं-धृति-कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी-शांतिपुष्टयः श्री दिक्कुमार्यो जिनेन्द्रमहाभिषेककलशमुखेष्वेतेषु नित्यविशिष्टा भवत भवतेति स्वाहा। तीर्थेनानेन तीर्थान्तरदुरधिगमोदारदिव्यप्रभाव:स्फर्जतीर्थोत्तमस्य प्रथितजिनपतेः प्रेषितप्राभृताभान् । श्रीमुख्यख्यातदेवीनिवहकृतमुखाद्यासनोद्भुतशक्तिप्रागल्भ्यानुद्धरामो जयजयनिनदे शातकुंभीयकुंभान् ।११।
उपरका श्लोक बोल जलशुद्धि विधान पूर्णकर वे जल कलश सौभाग्यवती स्त्रियों अथवा कन्याओंके द्वारा मस्तकसे धारण कराकर लाना चाहिये ।
इति जलशुद्धिविधानम् ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह अथ वा दिक्पाल पूजा । दिक्पाल तथा क्षेत्रपालकी पूजाके लिए सामग्रो अलग रखना चाहिये। विस्तीर्णे स्वर्णपात्रे सलिलमलयजैश्चारु पुष्पाक्षतान्नः . पक्वान्नैः क्षीरसपिर्दधिफलनिकररध्यमुद्धार्यवयं । यज्ञांगर्दीपधपः परमजिनपतेः पादयोस्त्रिः परीत्य । प्रत्येकं प्रार्थयेऽहं निखिलदिगधिपान यज्ञनिर्विघ्नसिध्ये ।१०
दिगीशाः शब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः अत्रोपविशतैत यजे प्रत्येकमादरात् ॥ २ ॥
पूर्वस्यां दिशि।
द्वात्रिंशद्वक्रदंतहदनळिननटनाकयोषिन्निकार्य कात्या कैलाशशैलच्छविमलिनिकराक्रांतदानाग्रगंडं ।
आरुह्य रावतं ही कुलिशधर इहैवागतः पूर्वकाष्ठामव्याच्छच्या सहायो वरकनकरुचिर्वासबोऽर्हन्मखोर्वीम् ।११ । ॐ आं क्रां ह्रीं सुवर्णवर्ण प्रशस्त सर्वलक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधुचिन्ह सपरिवार हे इन्द्रदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट् स्वाहा । ॐ आं०-अत्र तिष्ठ२ ठः ठः स्वाहा । ॐ आं०-अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् स्वाहा ।
ॐ इन्द्राय स्वाहा । इन्द्रपरिजनाय स्वाहा । इन्द्रानुचराय इन्द्रमहत्तराय स्वाहा । अग्नये स्वाहा । अनिलाय स्वाहा ।
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अथ दश दिकपाल पूजा। वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा । भूः स्वाहा । भुः स्वाहा । स्वः स्वाहा । ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा । स्वधा स्वाहा। हे इन्द्रदेव ! स्वगुणपरिवार परिवृत इदमध्यं पाद्यं जलं गन्धं अक्षतं पुष्पं दीपं चरुं बलिं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां २ स्वाहा ।
यस्यार्थ क्रियते पूजा, तस्य शांतिर्भवेत् सदा । शांतिके पोष्टिके, चैव सर्वकार्येषु सिद्धिदा ॥२॥ शांतिधारा । इन्द्राह्वानं ।
आगकोणे। शुम्भजांबूनदामा मणिगणविलसच्छृङ्गमुर्णायुसूढः । प्राप्ताह्वानो जपाभः करविधृतलसच्छक्तिरग्नींद्र एषः ।। भास्वज्वालाकलापः पुरयमककुभोरंतरालं प्रयातो । भूयात् स्वाहाप्रियोऽस्मिन जिनपतिसवने दीपधूपादिकाले ॥ ___ॐ आं क्रों ह्रीं रक्तवर्ण प्रशस्तसर्वलक्षणसम्पूर्ण स्वायुध वाहनवधूचिन्हसपरिवार हे अग्निदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट् स्वाहा ॐ आं क्रों० अत्र तिष्ठ२ ठः ठः स्वाहा । ॐ आं क्रों अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् स्वाहा।
ॐ अग्निन्द्राय स्वाहा । अग्निपरिजनाय स्वाहा । अग्निद्रानुचराय स्वाहा । अग्निन्द्रमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा । अनिलाय स्वाहा । वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा । ॐ भूभुवः स्वः स्वाहा । स्वधा स्वाहा । हे अग्निन्द्रदेव ! स्वगुणपरिवार परिवृत
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दि० जैन व्रतोद्यपिन संग्रह। इदमयं पाद्यं जलं गन्धं अक्षतं पुष्णं दीपं धूपं चरु बलि फलं स्वस्तिकं यज्ञ भागं यजामहे प्रतिगृह्यतां२ स्वाहा । यस्यार्थं क्रियते पूजा० शांतिधारा ॥ २ ।।
दक्षिणस्यां दिशि जीमूतश्यामलांग कलुषितनयन कासरं चाधि रूढः । छायाजायासहायः स्फुरदुरगमनोभूषणो माषवर्णः ।। अस्यामाहूयमानो मखभुवि यमराट् कुन्तलोदंबुदालिः । सोऽयं दंडोद्धपाणिः प्रथयतुधरणी दक्षिणाशावकाशां।३।
ॐ आं क्रों ह्रीं कृष्णवर्ण प्रशस्त सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिह्न सपरिवार हे यमदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट् स्वाहा । ॐ आं क्रों ह्रीं अत्र तिष्ठ२ ठः ठः स्वाहा। ॐ आं क्रो० अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा ।
ॐ यमाय स्वाहा। यम परिजनाय स्वाहा । यमुनाचराय स्वाहा । यममहत्तराय स्वाहा । अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा । भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा । स्वः स्वाहा । ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा । स्वधा स्वाहा । हे यमदेव ! इदमयं मित्यादि । यस्यार्थं क्रियते पूजा० इत्यादि । शांतिधारा ॥ ३ ॥
नैऋर्तकोणे। धर्म ध्यानार्कभीत्यांतकवरुणदिशोरंतरेऽप्योक्यदेशे । पुज्जीभूतांधकारांजनगिरिसदृशं श्यामरक्षोऽधिरूढः ॥ नीलांगो यज्ञभूम्यामतिनिशित महामुद्गरव्याप्तमुष्टिः । सोऽस्यां पायादपायान्निजदिशि वसुधां यातुधानप्रधानः॥४॥
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अथ दश दिक्पाल पूजा ।
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ॐ मां क्रों ह्रीं श्यामवर्ण प्रशस्तसर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुधवाहन चिह्न सपरिवार हे नैर्ऋतदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट् स्वाहा । ॐ आं० अत्र तिष्ठ२ ठः ठः स्वाहा । ॐ आं० अत्र सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा ।
ॐ नैर्ऋताय स्वाहा ! नैर्ऋत परिजनाय स्वाहा | नैर्ऋतानुचराय स्वाहा | नैर्ऋता महत्तराय स्वाहा । अग्नेये स्वाहा । अनिलाय स्वाहा । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ
स्वाहा । भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा । स्वधा स्वाहा । हे नैर्ऋतदेव ! स्वगुणपरिवार परिवृत इदमर्ध्यामित्यादि० यस्यार्थ० । शांतिधारा ।
पश्चिमायां दिशि ।
तालस्थूलायतोऽथ घृतकरकरकां भोजनीनागहारो । ग्रैवेयान्परम्यं करिमकरमारुह्य कान्तासमेतः ॥ आयत्तोद्यध्वरोव र्मिंरुणमणिगणालंकृतोद्दामवेषः । प्रत्यक्काष्टां प्रवालद्युतिरवत् पतियादृशां पाशपाणिः ॥ ५ ॥
ॐ आं क्रों ह्रीं सुवर्णवर्ण प्रशस्तसर्वलक्षण संपूर्णं स्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे वरुणदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट् स्वाहा ।
ॐ आं० अत्र तिष्ठर ठः ठः स्वाहा । ॐ आं० अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा ।
ॐ वरुणाय स्वाहा । वरुणपरिजिनाय स्वाहा वरुणानुचराय स्वाहा । वरुण महत्तराय स्वाहा । अग्नये स्वाहा । अनिलाय स्वा. । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा । भुनः
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह स्वाहा । स्वः स्वाहा । ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा । स्वधा स्वाहा । हे वरुणदेव ! स्वगुणपरिवार परिवृत्त इदमयं पाद्यं जलमित्यादि । यस्यार्थः । शांतिधारा ।।
वायव्यकोणे। चञ्चच्चन्द्रावदात तुरगमरुजवं मुष्टिसम्मेर्यमध्य मारूढो वायुवेगी प्रिययुवतियुतः पादयाप्तप्रशस्तः । निष्टप्तस्वर्णवर्णोऽवतु वरुणधनाध्यक्षयोः श्रीगरिष्ठां । स्वां काष्ठां यागनिष्ठां परिमणितजगद्वन्धुरो गन्धवाहः।६। _* आं क्रों ह्रीं सुवर्णवर्ण प्रशस्तसर्व लक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहनवधुचिह्न सपरिवार हे पवनदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट् स्वाहा । ॐ आं० अत्र तिष्ठ२ ठः ठः स्वाहा । अत्र मम संन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा ॥ ६ ॥
ॐ पवनाय स्वाहा । पवनपरिजनाय स्वाहा । पवनानुचराय स्वाहा । पवन महत्तराय स्वाहा । अग्नये स्वाहा । अनिलाय स्वाहा । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा ! ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा । स्वः स्वाहा । ॐ भूभु वः स्वः स्वाहा । स्वधा स्वाहा । हे पवनदेव ! स्वगुणपरिवार परिवृत इदमयंमित्यादि० । यस्यार्थं० शांतिधारा ।।
___ उत्तरस्यां दिशि । कुन्देदुद्योतितांशयतिपटललसद्राजहंसायमानं । सौरभ्यामोदितांत भुवमणि विलसत्पुष्पकाख्यं विमानम् । अध्यासीनः कुलस्त्रीनिवहपरिवृतो व्यावृतीऽयं नुयत्र, . स्वामाशां पातु शश्वद्वितरितविभवस्तारकः कुक्कुबेरः ।।
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अथ दश दिक्पाल पूजा ।
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ॐ आं क्रीं ह्रीं सुवर्णवर्ण प्रशस्तसर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुधवाहनवधू चिन्ह सपरिवार हे धनदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट् -स्वाहा । ॐ आं० अत्र तिष्ठर ठः ठः स्वाहा । ॐ आं० अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा ।
ॐ धनदाय स्वाहा । धनदपरिजनाय स्वाहा । धनदानुचराय स्वाहा । धनदमहत्तराय स्वाहा । अग्नये स्वाहा । अनिलाय स्वाहा । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा । भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा । स्वः स्वाहा । ॐ भूर्भुव: स्वाहा । स्वधा स्वाहा । हे धनदेव ! स्वगुणपरिवार परिवृत इदमध्यं मित्यादि० । यस्यार्थं । शांतिधारा ।
ईशानकोणे ।
भाङ्कारस्फारमेरी समदलनिनदं पांडुरंगं गवीन्द्र' पार्वत्यामाधिरूढः शशिकरधवलः सर्वभूषाभिरामः । श्रीकंठः कालकंठो विमलविधुकलालोलमौली कदर्पी शूलो व्याहूयतेऽसौ घनदसुरदिशोरन्तरोर्वीव नेतु ं ॥ ८ ॥
ॐ आं क्रो ह्रीं शुभ्रवर्णं प्रशस्त सर्वलक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहनवधूचिह्न सपरिवार हे ईशानदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट् स्वाहा । ॐ आं० अत्र तिष्ठर ठः ठः स्वाहा । ॐ आं० अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् स्वाहा ।
ॐ ईशानाय स्वाहा । ईशानपरिजनाय स्वाहा । ईशानानु चराय स्वाहा | ईशानमहत्तराय स्वाहा | अग्नये स्वाहा | अनिलाय स्वाहा । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा । भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा । स्वः स्वाहा । ॐ भूर्भुवः - स्वः स्वाहा । स्वधा स्वाहा । हे ईशानदेव ! स्वगुणपरिवार परिवृत इदमध्यं मित्यादि० यस्याथं० शांतिधारा ।
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____१० ।
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह
अघोभूमि दिशायां। आशामातङ्गकुम्भस्थलकठिनमहा कच्छपं धूपधूम्र पद्मावत्या सहोढो जलधरपटलश्यामलं कोमलाङ्ग ।। रक्षत्वक्षमलक्ष्म्या हरिहरहरितोरंतराले मखोर्वी । भास्वत्सस्वस्तिकांको मकुटतरमणियोतिताशः फणीशः ।९।
ॐ आं क्रीं ह्रीं धवलवर्ण प्रशस्त सर्वलक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे धरणीन्द्र ! अत्रागच्छागच्छ संवौषट, स्वाहा । ॐ आं० अत्र तिष्ठ२ ठः ठः स्वाहा । ॐ आं० अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा ।। ___ॐ घरणीन्द्राय स्वाहा। धरणीन्द्रपरिजनाय स्वाहा । धरणी-- न्द्रानुचराय स्वाहा । धरणीन्द्रमहत्तराय स्वाहा । अग्नये स्वाहा । अनिलाय स्वाहा । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा । भूः स्वाहा । भुव: स्वाहा । स्वः स्वाहा । ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा । स्वधा स्वाहा । हे धरणीन्द्रदेव ! स्वगुणपरिवार परिवृत इदमध्यं० यस्यार्थ० शांतिधारा ।
उपरि दिशायां। उद्यतिग्मांशुभिः सुस्फुरितनिजजटाच्छादितस्कंधगौरं । बालेन्दुस्पद्धिदंष्ट्रांकुरकलितमहाभीष्मवकां मृगेन्द्र। रोहिण्यामाधिरूढं भगवदभिषवक्षीरगौरांगशुभिश्च । चाये लक्षांकितांगं निऋतिवरुणयोरन्तरेकुन्तहस्तं ॥१०॥
ॐ आं क्रों ह्रीं शुभ्रवर्ण प्रशस्तसनलक्षण संपूर्ण स्वायुध-. वाहनवचिन्ह सपरिवार हे सोमदेव ! अत्रागच्छागच्छ संवो-.
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अथ दश दिक्पाल पूजा ।
[ ११
षट् स्वाहा । ॐ आं क्रों० अत्र तिष्ठः २ ठः ठः स्वाहा । ॐ आं क्रों ह्रीं० अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा |
ॐ सोमाय स्वाहा । सोमपरिजनाय स्वाहा । सोमानुचराय स्वाहा | सोममहत्तराय स्वाहा । अग्नये स्वाहा । अनिलाय स्वाहा । वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा स्वाहा । भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा | स्वः स्वाहा । ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा । हे सोमदेव ! स्वगुणपरिवार परिवृत इदमध्यं मित्यादि । यस्यार्थं० शांतिधारा ।
। २%
इति दशदिक्पाल पूजा ।
अभिषेक करनेके स्थानपर जहां प्रतिमाजी स्थापन करना हो वहीं दश दिशाओंमें दश दिक्पालोंकी स्थापना तथा उक्त रीति से पूजन करना चाहिये ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
श्री वीतरागाय नमः ।
श्रीमदाशाघरकृतः महाभिषेकः ।
ॐ जय जय नमः सिद्धेभ्यः ।
श्रीमन्मन्दर मस्तके शुचिजलैर्धोते सुदर्भाक्षते । पीठे मुक्तिवरं निधाय रचितास्तत्पाद पुष्पस्रजः ॥ इन्द्रोऽहं निजभूषणार्थममलं यज्ञोपवीतं दधे । - मुद्रा कङ्कणशेखरानपि तथा जन्माभिषेकोत्सवे | इति इन्द्रस्थापनं ।
१२]
ॐकार बिंदुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमोनमः ॥ १ ॥ मंगलं भगवानर्हन, मंगलं भगवाजिनः । मंगलं प्रथामाचार्यो मंगलं वृषभेश्वरः ॥ २ ॥ - मंगल प्रथमं लोकेषूत्तम शरणं जिनं । -नत्वायमर्हतां पूजाक्रमः स्याद्विधिपूर्वकं ॥ ३ ॥ विज्ञान' विमलं यस्य भासते विश्वगोचरं । नमस्तस्यै जिनेन्द्राय सुरेन्द्राभ्यर्चितां || ४ | श्रीमद्भिर्जिनराज जन्मसमये स्नानक्रमप्रक्रियां ।
मेमू पयः पयोनिधिपयः पूर्णैः सुवर्णात्मकः ॥ कामं मामितश्रियं घटशतैः शक्राचयश्चक्रिरे ।
तामत्रार्यजनानुरागजनन जातोत्सवे प्रस्तुवे ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भूः स्वाहा (प्रस्तावनाय पुष्पांजलिः) ।
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श्रीमदाशाघरकृतः महाभिषेकः । [१३ श्रीमजिनेन्द्रकथिताय सुमङ्गलाय
लोकोत्तमाय शरणाय विनेजयन्तोः। धर्माय कायवचनादि त्रिशुद्वितोऽहं..
स्वर्गापवर्गफलदाय नमस्करोमि ॥ ६॥ पुण्यवीजोर्जितक्षेत्र स्नानक्षेत्र जगद्गुरोः । शोधये शातकुम्भोरु कुभ संभृतवारिभिः ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं क्षीं भूः स्वाहा पवित्रतर जलेन भूमि शुद्धि करोमि (जलके छींटोंसे भूमि शोधन करना चाहिये। दुरंतमोह सन्तान कांतारदहन क्षमं । दौंः प्रज्वालयाम्यग्नि ज्वालापज्लवितांबरं ॥ ८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं अग्नि प्रज्वालयामि स्वाहा (कर्पूर प्रज्व-- लन करके अग्नि प्रज्वलन करना चाहिये)।
तुष्टषष्टि सहस्रास्याप्यहीनां मोदहेतवे। सिञ्चामि सुधया भमि भव्यभानोर्महामहे ॥ ९ ॥
ॐ हीं क्षीं भूः षष्टि सहस्र संख्येभ्यो नागेभ्योऽमृतांजलि प्रसिञ्चामि स्वाहा (जलके छींटे देना)। ब्रम्हेंद्रहव्यवाहानां धर्मनैऋत्युदन्वतां ।। मरुद्यक्षेन्द्रमौलीनां दिक्षु दर्भान क्षिपाम्यहं ॥१०॥
ॐ ह्रीं दर्पमथनाय नमः स्वाहा । ब्रह्मादि दश दिक्षु-. दर्भाः । (दश दिशाओंमें दर्भ क्षेपण करना )। तोय गन्धाक्षतैः पुष्पैः सन्नायैश्च यजामहे । यागभूमि जिनेन्द्रस्य दीपधूपफलेरपि ॥ ११ ॥
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१४] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
ह्रीं नीरजसे नमः । जलं । ॐ ह्रीं शीलगन्धाय नमः। चन्दनं । ॐ ह्रीं अक्षताय नमः। अक्षतं । ॐ ह्रीं विमलाय नमः । पुष्पं । ॐ परमसिद्धाय नमः । नैवेद्य । ॐ ज्ञानोद्योतनाय नमः । दोपं । ॐ श्रुतधूपाय नमः स्वाहा । धूपं । ॐ ह्रीं अभीष्टफलदाय नमः स्वाहा । फलं । ॐ ह्रीं भूर्भूमिदेवता इदं जलादिकमर्चनं गृही२ नमः स्वाहा । अर्ध । यस्यार्थ क्रियते पूजा, तस्य शान्तिर्भवेत् सदा । शांतिकं पौष्टिक चैव, सर्व कार्येषू सिद्धिदा ॥ १२ ।।
शांतिधारा । पुष्पांजलिः । मदीय परिणाम समान विमलतम सलिलस्नान पवित्री भूत सर्वाङ्गयष्टि: । सर्वाङ्गी‘णार्द्र हरिचन्दन सौगन्धि दिग्ध दिग्विवरो हंसांस धवलदुकुलांतरीयोत्तरीयः ।
ॐ ह्रीं श्वेतवर्णं सर्वोपद्रव हारिणो सर्वजन मनोरंजिनी "परिधानोत्तरीय धारिणि हं हं झं झं सं सं तं तं पं पं परिधानोत्तरीयं धारयामि स्वाहा । वस्त्रावरणं ।
अतिनिर्मलमुक्ताफलललितं यज्ञोपवीतमतिपूतं । रत्नत्रयमिति मत्वा करोमि कलुषापहरणभिरामं ॥१३॥
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राय नमः स्वाहा । अनेन मंत्रेण यज्ञोपवीतं धारयेत् । स्नातानुलिप्त सर्वाङ्गो घृत धौताम्बरः शुचिः । दधे यज्ञोपवीतादीन मुद्रा कंकण शेखरान ॥ १४ ॥
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय नमः स्वाहा । शेखरमंत्रः । तिलक मन्दः ।
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श्रीमदाशाघरकृतः महाभिषेकः। [१५ धृत्वा शेखरपट्टहारपदकं ग्रैवेयकालम्बकं ।
केयूरांगदमध्यबंधुरकटीसूत्रं च मुद्रान्वित । चंचत्कुंडलकर्णपूरममलं पाणिद्वये कंकणं । मञ्जीरं कटकं पदे जिनपतेः श्रीगंधमुद्रांकित ॥ १५ ॥
षोडशाभरण श्वेतसूत्रोवृतान पूर्णकुम्भान सदकभूषितान ॥ संस्थाप्य कोणकोष्टेषु पुष्पाणि प्रक्षिपाम्यहं ॥१६॥ ॐ ह्रीं स्वस्तये कलशं स्थापयामि स्वाहा ।
इति चतु:कलश स्थापनं । ___ॐ ह्रां ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रः नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पद्म'महापद्म तिगिंछकेशरीपुण्डरीकमहापुण्डरीकगंगासिंधुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकांतासीतासीतोदानारोनरकांतासुवर्णकूलारूप्यकलारक्तारक्तोदाक्षीरांभोनिधिशुद्धजलं सुवर्णघट प्रक्षालितपरिपूरितनवरत्नगंधपुष्पाक्षताभ्यचितमामोदकं पवित्रं कुरु कुरु झौं झो वं मं हं सं तं पं द्रां ह्रीं असि आ उ सा नमः स्वाहा । इतिकलशजलशुद्धिः । पुष्प अक्षत चन्दन ले ऊपर मन्त्र बोल कर चारो कलशोंमें क्षेपण करना । .
अभ्यच्यं कलशांस्तोय प्रवाहैश्चन्दनैरह।
अक्षतैः कुसुमैरन्नैर्दीपधूपफलैरपि ॥ १७ ॥ ॐ ह्रीं नेत्राय संवौषट् कलशार्चनं करोमि स्वाहा । कलशार्चनं । अर्घ । पाण्डुकाख्यशिलां मत्वा पीठ मेतन्महीतले । स्थापयामि मिनेन्द्रस्य मज्जनाय महचरं ॥१८॥
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१६] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
ॐ ह्रीं अहँ क्ष्मं ठः ठः श्रोपीठ स्थापनं करोमि स्वाहा । श्रीपीठ स्थापनं भगवान स्थापन करनेकी जगह पुष्प क्षेपण करना। पादपीठकृतस्वर्गपादमूलजिनेशिनः । शैलेन्द्रस्नानपीठस्य पीठं प्रक्षालयाम्यह ॥ १९ ॥
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्र" ह्रौं नमोऽहँते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन पीठप्रक्षालनं करोमि । क्षिपामि हरितानदर्भान पीठे पूतमनोहरान । विधूताशेषसंतापान दीप्तकांचननिर्मिते ॥ २० ॥ ॐ ह्रीं दर्पमथनाय नमःस्वाहा पीठे दर्भान क्षिपेत् (दर्भक्षेपना) प्रक्षाल्य पीठिका पार्ने तोमैं गधैः सु तंदुलैः। प्रसूनैश्चरुभिर्दीपै पै नाफलैरपि ।। २१ ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय नमः स्वाहा । पीठार्चनं । अर्ध । श्रीवर्ण विदधे शभ्रः सदकैः शुचिभिः फलैः।। देवदेवस्य पीठेऽस्मिन सलक्षणसंयुतैः ॥ २२ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं श्रीकार लेखनं करोमि । श्रीकार लेखनं । जलंगंधाक्षतकसुमैश्चरुप्रदीपधूपफलनिव हैः । जितकर्भरिपु जितपतिमर्चामि प्रबलया भक्तया ।। २३ ।।
ॐ ह्रीं श्रीं श्रीयंत्रार्चनं करोमि स्वाहा । यंत्रार्चनं । (जहां प्रतिमा अभिषेकार्थ स्थापित करनी हो उस जगह अर्घ चढाना । जिनराज प्रतिबिम्बं सकलजगद्भव्यपुण्यपुजावलम्बं । भक्तया स्पृशामि परया निभूषिमखिललोकभूषणममलं।२४।
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श्रीमदाशाघरकृतः महाभिषेकः । ॐ ह्रीं धात्रे वषट्प्रतिमास्पर्शनंकरोमि स्वाहा । उपरका मंत्र बोल प्रतिमा स्पर्श करना और अभिषेकके लिए प्रतिमाजी लेना। द्वीपे नंदीश्वराख्ये स्वयममृतभुजोऽकृत्रिमांस्नापयेयु-। र्भावे भावाहतो वा भवभयभिदया भाक्तिकाश्चैत्यगेहात् ॥ आनीयास्मिन् स्थवीयस्यतिविमलतमे कृत्रिमा स्नानपीठे। सद्भावैः स्थापयेऽर्हत्प्रतिकृतिमधुना यक्षयक्षीसमेतां ॥२५॥ प्रणमदखिलामरेश्वरमणिमुकुटतटांशुखचितचरणाजं । श्रीकामं श्रीनाथं श्रीवर्णे स्थापयामि जिनं ॥ २६ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं जगतां सर्व शांतिं कुर्वति श्रीवण प्रतिमा स्थापनं करोमि स्वाहा । श्रीवर्णे प्रतिमा स्थापनं । श्रीपादपद्म युगलं सलिलैर्जिनस्य ।
प्रक्षाल्य तीर्थ जलपूततमोत्तमांग ॥ आव्हानमंबुकुसुमाक्षतचन्दनायैः
__ संस्थापनं च विदधेऽत्र च सनिधानं ॥२७॥ ____ॐ ह्रां ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रः नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पवित्रतर जलेन श्रीपाद प्रक्षालनं करोमि स्वाहा । श्रीपाद प्रक्षालनं ।
करोमि परमां मुद्रां पश्चानां परमेष्ठिनां । श्रीनिधे व्यनाथस्य सन्निधौ त्रिजगद्गुरौः ॥२८॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं एं अहँ असि आ उ सा नमः पंचगुरुमुद्रावतरणं करोमि स्वाहा। पंचगुरु मुद्रावतरण ।
ॐ उसहाय दिव्यदेहाय सज्जोजादाय महापण्णाय अणंतचउट्ठयाय परमसुहाय पइट्ठियाय णिम्मलाय सयंभुवे अजरामरपदपत्ताय चउमुहाय परमेट्ठिणे अरहते तिलोयणाहाय
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दि० मैन बत्तोद्यापन संग्रह। तिलोयपूज्जाय अढदिव्वदेवाय देवपरिपूज्जाय परमपदाय ममत्तहे सण्णिधाय स्वाहा।
अनंतज्ञानदृग्वीर्य सुखरूप जगत्पतेः। पाद्य समर्चयाम्यद्भिनिर्मलैः पाद पंकजै ॥२९॥
ॐ ह्रीं अहंत इदं पाद्यं गुण्हीध्वं २ नर्मोऽर्हद्भ्यः स्वाहा । जलधारा। ( भगवान ऊपर )।
कनत्कनकभृङ्गारनालाद्गलित वारिभिः । जगत्रितय नाथस्य करोम्योचमनक्रियां ॥३०॥ ॐ ह्रीं स्वीं क्ष्वी यं में हं सं तं पं द्रां द्रों हं स्वाहा ।
॥ इति पाद्य आचमन क्रिया ।। नीराजनविधिद्रव्यैर्वर्धमानैः फलैरपि । विदधामि जिनेंद्रावतारं पापोपशांतये ॥३१॥
ॐ ह्रीं समस्तनीराजनद्रव्यैर्नीराजनं करोमि स्वाहा । दुरितमस्माकमपनयतु भगवान् स्वाहा। नीराजनावतरणं । ( कर्पूर जलाकर आरती करना )। करोमिभक्त्या कुसुमाक्षताद्यैः सुसंभृतैः पाणिपवित्रपात्रे । जिनेश्वराणामिह पादपीठे प्रकाशमाहवाननपूर्वमादौ ॥३२॥ ___ॐ ह्रीं श्रीं क्लों ऐं अहँ अत्र एहि २ संवौषट् स्वाहा । अत्र तिष्ट तिष्ट ठः ठः स्वाहा । अत्र मम सन्निहितो भव भब वषट् स्वाहा ।
ॐ ह्रीं परमेष्टिने नमः जलं । ॐ ह्रीं परमात्मकेवलिभ्योनमः गन्धं । ॐ ह्रीं अनादिनिधनेभ्यो नमः अक्षतान् । ॐ ह्रीं सर्व नृसुरासुरपूजितेभ्यो नमः पुष्पं । ॐ ह्रीं अनन्तानन्त सुखसंतृप्तेभ्यो नमः चरु । ॐ ह्रीं अनन्तानन्त दर्शनेभ्यो नमः दीपं ।
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f
श्रीमदाशापरकृतः महाभिषेकः ।
ॐ ह्रीं अनन्तानन्त वीर्येभ्यो नमः घूपं । ॐ ह्रीं अनन्तानन्त सौख्येभ्यो नमः फलं । सामोदैः स्वच्छतोयैरुपहिततुहिनैश्चन्दनै स्वर्गलक्ष्मीलीला रक्षतोषैर्मिलदलिकुसुमैरुद्गमैर्नित्यहृद्यैः ॥ नैवेद्यैर्नव्यजांबूनद मददमकैर्दीपकैः काम्यधूमस्तूपधूपैर्मनोज्ञैगृ हसुरभिफलैः पूजये त्वाऽर्हदीशं ॥३३॥ ॐ ह्रीं अहं नमः परम ब्रह्मणे विनष्टाष्टकर्मणे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । शांतिधारा । पुष्पांजलि: ।
अथ क्षेत्रपाल पूजा ।
अस्मिन् जैनमहामहोत्सवविधाविंद्रादिक्पालक स्थित्यर्थं परितो दिशास्वभिमुखंनिक्षिप्यदर्भासनं । आरोप्यार्घ्यमनर्घ्यमंत्र यजनै र्विघ्नौघविच्छित्तये शक्राद्यैरभिपूज्यते तरुभुवि श्रीक्षेत्रपालाधिपः ॥ १ ॥
4
ॐ ह्रीं क्रों प्रशस्तवर्णं सर्वलक्षणसपूर्ण स्वायुधवाहन चिह्न+ - सपरिवार हे क्षेत्रपाल अत्रागच्छागच्छ सवौषटस्वाहा । ॐ ह्रीं अत्र तिष्ठतिष्ठ ठः ठः स्वाहा । ॐ ह्रीं० अत्रमम संन्निहितो भव भव वषट स्वाहा ।
सन्मंगलायैर्वर भाजनस्थैः संपूर्णतोयादिसमन्वितैश्च । रक्षन्तु चैत्पालयभूमिमागं श्रीक्षेत्रपालं परिपूजयामि ॥२॥ ॐ ह्रीं क्रों क्षेत्रपालाय अर्घ्यं समर्पयामि । शांतिधारा ॥ अथ अद्गद्य' |
निहतचनघातिदोषः, संप्राप्ता तिशयपंचकल्याणः । समवसृतिसभानाथो, जिनेश्वरोददातु मे बोधं ॥
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२०] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । - घातिघनपटल विघटनबात बिंबाय जातिजरारोगादिदोषगिरिशंबाय कल्याणपंचकांचितवीतरागाय शल्यत्रयातीतनित्यसुख बोधाय प्रातिहार्याष्टकालंकृतजिनेंद्राय भूतहितसमवसृतिराजितजिनेंद्राय समवसरणादिबहिरंगविभवेशाय । विमलगुणमणि गणविभूतिपरमेशाय द्रव्यगुणपर्याययुक्तचिद्रूपाय भव्यजनवंदितानंदचिद्रूपाय वरगणधरप्रभृतिमुनिनिवहनाथाय निरुपमानंतबलकलितगुणयूथाय नवनरामरसरसिजवहत्कमलसूर्याय नवलब्धिलब्धशुद्धात्मसत्कार्याय त्रिषष्टिकर्ममलविलयनसमर्थाय दोषाष्टदशदूरपरमचित्स्वार्थाय दिव्यध्वनिप्रगटितात्मस्वरूपाय सुव्यक्तचैतन्यनित्यप्रभावाय स्याद्वादविद्याविलासिनीनंदाय विद्वञ्जनानंदकदनीकंदाय निर्मलनिजानंदभावार्थसौख्याय भर्माभतीर्थकरपुण्यपुजाख्याय चंद्रार्ककोटिसन्निभदिव्यदेहाय इन्द्रशतनमितवरगुणगणसमूहाय लोकत्रयाशेषवस्तुविज्ञाताय नाकनायकनमितपदकंजाताप परमपावनरूप देवाधिदेवाय परमकारुएयरससंतृप्तजीवाय वृन्दारकवृन्दवंदनसमक्षाय वन्दनामगलोत्तम शरणभूताय जातात्मनेनमः पूतात्मनेनमः । शुद्धास्मनेनमः ।
अथ विरुदावलिः।
श्रेयापनबिकासवासरमणिः स्याद्वादरक्षामणिः । संसारोरगदर्णगारुडमणिभव्यौप चिंतामणिः ॥ अश्रांताक्षय शांतयुक्तिरमणिःसामंतमुक्तामणिः । श्रीमान् देवशिरोमणिविजयते श्रीवीतरागः प्रभुः ॥१॥ __ आहारभयभेषज्यशास्त्रदानदत्तवधानानां खण्डस्फुटितजीर्णजिनचैत्यचैत्यालयोद्धारणैकधीराणां यात्राप्रतिष्ठादि
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श्रीमदाशाधरकृतः महाभिषेकः। [२१ सप्तक्षेत्रधनवितरणैकशोलानां तर्कव्याकरणच्छदोऽलंकारसाहित्यसंगीतकाव्यनाटकाभिधान शास्त्रसरोजरसास्वादनमदोत्करमधुकरसमाभरणानां निज कुल कमलविकाशनक मातंडावताराणां श्रीकरवीरक्षेत्र श्रीवृषभदेवपदकमलाराधकानां श्री जैनसंघपुण्यार्थं मंगलार्थं तुष्टिपुष्टयारोग्यार्थ भव्यजनक्रियमाणे जिनेश्वराभिषेके सर्वेजनाः सावधाना भवंतु । पूर्वाचार्येभ्यो नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु ।।
अथ कलशोद्धारणम् । सूर्यगीतस्तुति ध्वानबातैः सब्दलिरोदसी। मया जिनाभिषेकाय पूर्ण कुम्भोऽयमुद्धतः ॥१॥
ॐ ह्रीं स्वस्तये कलशोद्धारणम् । पूर्ण कलश भगवान् के दक्षिण तरफ स्थापन करना । उसमें पूष्प अक्षत चन्दन ये द्रव्य ( ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं न्हः नमः ते भगवते श्रीमते पद्म महा.) यह मंत्र बोलकर क्षेपण करना कलश ऊपर श्रीफल रखना चाहिये ।
अथ जलाभिषेकः । मतैरिव जिनेन्द्रस्य वारिभिस्तापहारिभः। निर्मल स्नापयामीशं विशुद्धं मद्विशुद्धये ॥१॥ श्रीमद्भिः सुरसैनिसर्गविमलैः पुण्याशयाभ्याहतैः शीतैश्चारुघटाश्रितैरवितौः सन्तापविच्छेदकैः । तृष्णोद्रकहरैरजः प्रशमनैः प्राणोपमैः प्राणिनां तोयैचॅनवचोमृतातिशयिभः संस्नापयामो जिनं ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लों ऐं अहं वं मं हं सं तं पं नं नं हं हं सं संतं तं
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२ दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह। पं.पं झं झ झ्वी इवी क्ष्वी क्ष्वी द्रां द्रां द्राबय द्राबय नमः । भगवते श्रीमतें पवित्रतर जलेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा ।
इति जलस्नपनं । शीतै लैर्मलयजैबहुलैरखंडैः
शाल्यक्षतैः सुखकरैः कुसुमैर्ह विभिः ॥ दीपप्रदीपपटलैः रुचिरैर्विचित्रे ___ धृणैः फलैरपि यजे जिनमर्चयामि ॥..
अर्घ । अथ नालिकेरादिरसाभिषेकः । सुस्निग्धैर्नवनालिकेरफलजै राम्रादि जातैस्तथा । पुण्ड्रक्ष्वादिसमुद्भवैश्च गुरुभिपापहैरजसा ॥ पीयूषद्रवसनिभैर्वररसैः संज्ञानसम्प्राप्तये । सुस्वादैरमलैरलं जिनविभु भक्त्याऽनधं स्नापये ॥१॥
ॐ ह्रीं नालिकेराम्रकदलीद्राक्षादिरस स्नपनं । ... नालिकेरजलैः स्वच्छैः शीतैः पूतैर्मनोहरैः।
स्नानक्रियां कृतार्थस्य विदधे विश्वदर्शिनः ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं नालिकेररसेन जिनमभिषेचर्याम स्वाहा। नालिकेरस्नपनं नारोयेल केला द्राक्ष आदिसे अभिषेक करना। बनसुनन्दसदक्षत पुष्पकैमनसि जातसुहव्यप्रदीपकैः । अनुपमागरुधूपसुसत्फलौर्जिनपतेः पदपद्मयुगं यजे ॥३॥
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श्रीमदागाधरकृतः महाभिवकः । [२३
अथ आम्ररसाभिषेकः । सुपक्यैः कनकच्छायैः सामोदैर्मोदकादिभिः । सहकाररसैः स्नानं कुर्मः शमैंकसमनः ॥१॥
ॐ ह्रीं पवित्रतर चूतरसेन जिनमभिषेचयामि । आम्ररस स्नपनं । उदक चन्दनतंदुल पुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलायंकैः।। धवलमंगलगानरवाकुलौर्जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥
अर्घ ॥ ___ अथ शर्कराभिषेकः। मुक्त्यंगनानामविकीर्यमाणैरिष्टार्थक: ररजोविलासैः। माधुर्यधुनरशर्करौधैर्भक्त्या जिनस्य स्नपनं करोमि ॥१॥ __ ॐ ह्रीं पवित्रतरशर्करोघेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा ॥ शर्करास्नपनं ।। जलेन गंधेन सदक्षतैश्च पुष्पेण शाल्यनचरुष्करेण । दीपेन धूपेन फलेन भक्त्या सुरासुराय जिनमर्चयामि ॥२॥
अर्घ ॥२॥
अथ इक्षुरसाभिषेकः । देवानीकैरनेकैः स्तुतिशतमुखरैर्वीक्षिता याऽतिहष्टः। शक्रेणोच्चैः प्रयुक्ता जिनचरणयुगे चारुचामीकराभा ॥ धारांभोजक्षितीक्षुप्रचुरवररसश्यामला वो विभूत्यै । भूयात् कल्याणकाले सकलकलिमलक्षालनेऽतीवदवा ॥१॥
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२४] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह।
प्राणिनां प्रीणनं कत्तु दौरिक्षुरसैमुदा। सौवर्णकलशैः पूर्णैः स्नापयेऽहं निरंजनं ॥२॥ ॐ ह्रीं पवित्रतरेक्षुरसेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा ।
॥ इक्षुरसस्नपनम् ।। शीतोदकमजुलगंधलेपैः सत्रांडुलौः पुष्पवरैश्व हव्योः । दीपैश्च धूरुचिरैः फलौौरंचामि भक्त्या जिननाथमेनं ॥
अर्घ ॥ ३॥
अथ घृताभिषेकः। दंडीभूततडिद्गुणप्रगुणया हेमाद्रिवस्निन्धया ।
चञ्चच्चम्पकमालिकाचरया गोरोचनापिंगया ॥ हेमाद्रिस्थलसूक्ष्मरेणविलसद्वातूलिकालीलया । - द्राधीयोघृतधारया जिनपतेः स्नानं करोम्यादरात् ।। कनकनकसंजातपालिकोरुचिरत्विपा।
प्राज्येनाज्येन निर्वाणराज्यार्थ स्नापयाम्यहं ॥२॥ ॐ ह्रीं पवित्रतरघृतेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा । घृतस्नपनं । अंचामि सलिलमलयजतंडुलपुष्पान्नदीपधूप फलनिवहैः । नमदमरमौलिमालालालितपदकमलयुगलमहतं ॥३॥
अर्घः।
अथ क्षीराभिषेकः । माला तीर्थकृतः स्वयंवरविधौ क्षिप्ताऽपवर्गश्रिया। तस्येयं सुभगस्य हारलतिका प्रेम्णा तया प्रेषिता ॥
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श्रीमदाशाधरंकृत: महाभिषेक : [२५ चम॑न्यस्य समीक्षितेति विनतदृग्वीथि शंकाकृता । कुर्मः शर्म समृद्धये भगवतः स्नानं पयोधारया ॥२॥ ॐ ह्रीं पवित्रतरक्षीरेण जिनमभिषेचयामि स्वाहा। क्षीरस्नपनं । सलिलघनसारसदकप्रसवहविर्दीपधूपफलनिवहैः । नमदमरमौलिमालालालितपदकमलयुगलमहतं ॥३॥
अघं० ।
अथ दध्यभिषेकः । शुक्लध्यानमिदं समृद्धिमथवा तस्यैव भतुर्यशो
राशीभूतमितं स्वभावविशद वाग्देवतायाः स्मितं । आहो श्वेतसुपुष्पवृष्टिरियमित्याकारमातन्वता
दध्नैनं हिमखंडपांडुररुषा संस्नापयामो जिनं ।।१।। लोकत्रयपतेः कीर्तिमूर्तिसाम्यादिव स्वयं ।
संलब्धस्तब्धभावेन दध्ना मज्जनमोरभे ॥२॥ ॐ ह्रीं पवित्रतरदना जिनमभिषेचयामि स्वाहा । दधिस्नपनम् । सलिलमलयजसदक कुसुमसान्नायप्रदीपधूपफलैः । तबक शांतिधाराद्यप्त ? मंगलद्रव्यैराराध यामि ॥३॥
अर्घ० ।
अथ कल्कचूर्णोद्वर्तनम् । पिष्टैश्च कल्कचूर्णैश्च गंधद्रव्यसमुद्भः। - जिनांगं संगताज्यायैः स्नेहपूतं करोम्यहं ॥१॥
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२६ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
ॐ ह्रीं पवित्रतर कल्कचूर्णेन जिनांगोद्धर्तनं करोमि स्वाहा । सुगन्ध कल्कचूर्णोद्धर्तनम् ।
सुगन्धित द्रव्योंसे भगवानकी प्रतिमाजीका लेपन करना । अथ लाजादिचूर्णोद्वर्तनम् ।
सुगन्धित ( खस आदि) से लेपन करना । सकलकलमलाजैर्मल्लिकाफुल्लजातैरिवसितसमवल जिचूर्ण प्रपूर्णैः । बहुलपरिमलौघैर्हारहारिद्रचूर्णैः ।
जिनपति महमुच्चैः संप्रसिंचे रजोभिः ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं पवित्रलाजादिचूर्णोद्वर्तनम् ।
अथ नीराजनावतरणम् ।
वर्णानां प्रमुखैद्रव्यैर्जिनेन्द्रमवतारये । संसारसागरोत्तारं पूतं पूतगुणालयं ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं समस्त नीराजनद्रव्यैर्दुरितमस्माकमपनयतु भगवान् स्वाहा । नोराजनावतरणं । कर्पूर अगरादिसे भगवानकी आरती करना ।
अथ कषायोदकस्नपनम् ।
कंको लैग्रन्थिपर्णागरु तुहिनजटा जातिपत्रैर्लवगैः श्रीखंडेलादिचूर्णैः प्रतनुभिरवधूलीं दुधूलीविमित्रैः | आलिप्तोद्वर्तशुद्धः समलयजरसैः कालः पिष्टपिंडैः प्लक्षादित्वकत्वायै जिनतनुमभितः स्नेहमाक्षालयामि ॥१॥
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श्रीमदाशाधरकृतः महाभिषेक: । ९. संस्नापितस्य घृतदुग्धदधिप्रबाहैः
सर्वामिरौषधिभिरहत उज्वलामिः । उद्वर्तितस्य विदधाम्यभिषेकमेवं
कालेयकुमकुरसोत्कटचारुपूरैः ॥ २ ॥ क्षीरभूरुहसंजातत्वकषायजलैरहं । मज्जातमविच्छित्यै मज्जनं विदधे विभोः ॥३॥ ॐ ह्रीं पवित्रतर कषायादकेन जिनमभिषेचयानि स्वाहा । इति सर्वोषधिरस स्नपनं ।
__ अथ चतुष्कोणकुम्भोदकस्नपनं । हृद्योद्वर्तनकल्कचूर्णनिवहैः स्नेहापनोदं तनोः
वर्णाढ्य विविधैः फलैश्च सलिलैः कृत्वाऽवतारक्रियां । संपूर्णैः सकृदुद्ध, तैर्जलधराकारैश्चतुर्भिर्घटैः
रंभ:पूरितदिङ्मुखैरभिषवं कुर्मस्त्रिलोकीपतेः॥१॥ आम्भोभिः सम्भृतैः कुम्भैरंभोधरनिभैः शुभौः । कोणस्थैरभिषिचामि चतुर्भिभुवनप्रभु॥२॥
ॐ ह्रीं पवित्रतरचतुष्कोणकुभोदकेन जिनमभिषेचयामिः स्वाहा । चतुः कलशस्नपनं ।
अथ चन्दनानुलेपनम् । संसिद्धशुद्धया परिहारशुद्धया कर्पूरसंमिश्रितचंदनेन । जिनेंद्रदेवे सुरपुष्पवृष्टि विलेपनं चारु करोमिभक्त्या ॥
चन्दनानुलेपनम् ॥
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- २८ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ पुष्पोद्धारणम् ।
वासंतिकाजातिशिरीषवृन्दै वधूकवृन्दरपि चंपकाद्यैः । पुष्पैरनेकैर लिभिहतायैः श्रीमज्जिनेंद्रांघ्रियुगं यजेऽहं ॥ १ पुष्पोद्धारणम् ॥
अथ गंधोदकस्नपनं । कपू रोल्वणसांद्र चंदनरसप्राचुर्यशुभ्रत्विषा
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सौरभ्याधिकगंधलुब्धमधुप श्रेणीसमाश्लिष्टया । सद्यः संगतगांगया मुनमहास्रोतो बिलास श्रिया सद्गंधोदकधारया जिनपतेः स्नानं करोमि श्रियै ॥१॥ गंधोदकेभ्रमद्भङ्गसंगीतध्वनिवन्धुरैः ।
अभिषिंचामि सम्यक्त्वरत्नाढ्यविमलप्रभुम् ||२॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हनमोऽर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षोणा शेषदोष कल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तयेनमः श्रीशांतिनाथाय शांतिकराय सर्वविघ्नप्रणाशनाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्वपरकृत क्षुद्रोपद्रव विनाशनाय सर्वक्षामडामर विनाशनाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं ह्रः असि आ उ सा पवित्रतर गन्धोदकेन जिनमभिषिचामि । मम सर्वशांति कुरु कुरु । तुष्टि कुरु कुरु । पुष्टि कुरु करु स्वाहा । गंधोदक स्नपन |
स्नानानंतर मर्हतः स्वयमपि स्नानांबुशेषाद्रितो वार्गन्धाक्षतपुष्पदामचरुकैदींपैः सुधूपैः फलैः । कामोद्दाम गजांकुशं जिनपति स्वभ्यर्च्य संस्तौति यः स स्यादारविचंद्र मक्षयसुखः प्रख्यातकीर्तिध्वजः ॥ १ ॥ इति अर्घं, अचर्नाफलम् ।
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[२९
श्रोमदाशाधरकृतः महाभिषेकः मुक्तिश्रीवनिताकरोदकमिदं पुण्यांकुरोत्पादकं । नागेन्द्रत्रिदशेन्द्रचक्रपदवी राज्याभिषेकोदकम् ॥ सम्यग्ज्ञानचरित्रदर्शनलतासंवृद्धिसंपादकं । कीर्तिश्रीजयसाधकं तब जिन स्नानस्य गन्धोदकं ॥१॥ स्नानस्य गंधोदक। गंधोदकं लेना ।
इति महाभिषेकः । अथ पूजा प्रारभ्यते । तत्र स्वस्ति भंगल विधानं ।
ॐ जय जय जय । नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु । णमो अरहं-- ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरीयाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोये सव्व साहूणं। ॐ ह्रीं अनादिमूलमंत्रेभ्यो नमः । पुष्पांजलि क्षिपेत् । चत्तारि मंगलं-अरहंत मंगलं । सिद्धमंगलं साहूमंगलं । केवबिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमाअरहंतलोगुत्तमा । सिद्धलोगुत्तमा । साहूलोगुत्तमा । केवलिपण्णतो धम्मोलोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पव्वजामि। अरहंत सरणं पव्वज्जामि । सिद्ध सरणं पव्वज्जामि । साहू सरणं पव्वज्जामि। केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि । ॐ नमोऽर्हते स्वाहा ।
पुष्पांजलिं क्षिपेत् । अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। ध्यायेत्पंचनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥ अपवित्रः पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत्परमात्मानं स बाद्याभ्यन्तः शुचिः ॥२॥
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दि० जैन वढोद्यापन संग्रह |
अपराजितमंत्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ॥ ३ ॥ एसो पंचणमोयारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलागं च सव्वेसिं पढमं होड़ मंगलं ॥ ४ ॥ अर्हतित्यक्ष बह्मवाचकं परमेष्टिनः । सिद्धचक्रस्य सद्वीजं सर्वतः प्रणम्याम्यहं ।। ५ ॥ कर्माष्टकविनिर्मुक्त मोक्षलक्ष्मीनिकेतनं । सम्यक्त्वादिगुणोपेतं सिद्ध चक्रं नमाम्यहं ॥ ६ ॥ विघ्नोद्याः प्रलयं यांति शाकिनी भूतपन्नगाः । विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥ ७ ॥
३० १
पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
અથ સકલી કરણુ મ
स्वयंभुवं महादेवं ब्रह्माणं पुरुषोत्तमं । जिनेन्द्र चंद्रमानम्य वक्ष्ये देवार्चनक्रमं ॥ १ ॥ इन्द्रश्चैत्यालयं गत्वा वीक्ष्य यज्ञांगसज्जनम् । यागमंडलपूजार्थं परिकर्माचरेदिदं ॥ २ ॥ स्नानानुस्नानभागंतधौतवस्त्रो रहः स्थितः । कृतेर्यापथ संशुद्धिः पर्यङ्कस्थोऽमृतोक्षितः ॥ ३ ॥ दहनप्लावने कृत्वा दिव्यस्वांगेषु दीक्ष्य च । न्यस्य पञ्चनमस्कारान् प्रयुक्तगुरुमुद्रिकः ॥ ४ ॥
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सकलोकरण । व्युत्सृज्यांग पूरकेण व्याप्ताशेषजगत्रयं । शुद्धस्फटिकसंकाशं प्रातिहार्यादिभूषितं ।। ५॥ पादांतेन नमद्विश्वं स्फूर्जतं ज्ञानतेजसा । परमात्मानमात्मनं ध्यायन् जप्त्वाऽपराजितं ॥६॥ परिणामविशुद्ध्यास्तपापौघः पुण्यपुञ्जभाक् । ध्वस्तपापचयः कुर्याजिनयज्ञांगसंविधीन् ॥ ७ ।
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३२] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
झं ठं स्वरावृतं तोय मंडलद्वय वेष्टितं । तोये न्यस्याग्रतर्जन्या तेनानुस्नानमावहेत् ॥ १ ॥ अर्धचंद्रघटीरूपं पंचपत्रांबुजानन । नांतलांताप्तदिकोणं धवलं जलमंडलं । २ ।।
ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लू ब्लू द्रां द्रां द्रों द्रों द्रावय द्रावय हं सं इवीं क्ष्वी हं सः स्वाहा । इत्यमृतस्नान मंत्र: अनुस्नानं । - इस मंत्रसे अमृत स्नान करे।
इस मंत्रको एक रकाबीमें लिखे और सकलीकरण करनेवाला जीमणां हाथकी तर्जनी अंगुलीसे ऊपरका मंत्र बोल, माथे ऊपर छोटे
पृथग्विद्वैकवाक्यांतमुक्तोच्छवासं जपेनव । वारान् गाथान् प्रतिक्रम्य निषिध्यालोचयेत्तथा ।। १
पडिक्कमामि भंते ईरियावहियाए । विराहणाए । अणागुत्ते। आइग्गमणे । णिग्गमणे । ठाणे गमणे । चकमणे । पाणुग्गमणे। बीजुग्गमणे । हरिदुग्गमणे । उच्चारपस्सवण खेल सिंहाणयवियडिपइठ्ठावणियाए । जे जीवा । ए इंदिया वा। वी इंदिया वा। ति इंदिया वा। चरिंदिया वा। पंचेंदिया वा । पणोल्लिदा वा। पिल्लिदा वा । संघठ्ठिदा वा । संघादिदा वा। ओदाविदा वा । परिदाविदा वा । किरिछिदा वा । लेस्सिदा वा । छिदिदा वा । भिदिदा वा । ठाणदो वा । ठाणचक्कमणदो वा । तस्स उत्तरगुणं । तस्स पायछित्तकरणं । तस्स विसोहीकरणं । णमोकारं पज्जुवासं करेमि । तावकायं । पावकम्मं । दुच्चरियं वोस्सरामि । ॐ णमो अरहताणं । णमो सिद्धाणं ।
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श्रोमदाशाधरकृतः महाभिषकः । [३३ णमो आइरियाणं । णमो उवझ्झायाणं णमो लोए सव्वसाहणं । (णमोकार मंत्रका नव बार जाप करना)
ॐ नमः परमात्मने नमोऽनेकांताय शांतये । ईर्यापथि प्रचलताद्यमया प्रमादा
देकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा । निर्वतिता यदि भवेदयुगांतरीक्षा
मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे ॥१॥ इच्छामिभंते ईरियावहमालोचेउं । पुव्वुत्तरदक्षिणपश्चिम चउदिसु । विदिसासु। विहरमाणेण । जुगुत्तरदिठ्ठिणा । दळूवा । डवडवचरियाए । पमाददोसेण । पाणभूद जीवसत्ताणं । सत्ताणं एदेसि उवघादो। कदोवा । कारिदो वा । किरन्तो वा। सयणुमणियं । तस्समिच्छामि दुक्कडं । पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया मायाविना कोभिना। रागद्वेषमलीमसेन मनसा दुष्कर्म यनिर्मितं ॥ त्रैलोक्याधिपते जिनेन्द्र ! भवतः श्रीपादमूलेऽधुना । निंदापूर्वमहं जहामि सततं निवृत्तये कर्मणां ॥
ईर्यापथ शोधनं । गुरुमुद्राग्रे भूः झं वं ह्वः पोहोम्योऽमृतैः स्वकीयप्रवद्धिः सिच्यमानं स्वं ध्यायन्मंत्रमिमं पठेत् । ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लू ब्लू द्रां द्रां ह्रीं ह्रीं द्रावय द्रावय हं झं इवीं क्ष्वी हं स: स्वाहा ।
(यह मंत्र अमृत स्नानका है) दोनों हाथोंकी पांचों अंगुलियां लम्बी करके दाहिने हाथकी सब अंगुलियों पर अंगुष्ठकी तरफसे अ सि आ उसा लिखना चाहिये और अ सि आ उ सा के ऊपर की
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३४ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
तरफ संवं ह्नः पः हः लिखना चाहिये । फिर दोनों हाथ जोड़ मस्तक नमा कर हाथ माथे पर रख और पूर्वोक्त यंत्र से जल ले उक्त मंत्र बोल माथे पर छींटना चाहिये । अग्निमंडलमध्यस्थरे फैज्र्वाला शतांकुरैः । सर्वांगदेशगैर्विश्वग्धूयमानैर्नभस्वता ||
ॐ ह्रीं नमोऽर्हते भगवते जिन भास्करस्य बोध सहस्र किरणैर्ममकर्मेन्घनद्रव्यं शोषयामि घे घे स्वाहा । द्रव्य शोषणं ।
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( अग्नि मंडल ) यह यंत्र पान पर लिख कपूर जलाना चाहिये ।
स्वस्तिकाग्रत्रिकोणांतर्गतरेकं शिखावृतं । अग्निमंडलमोंकारं गर्भरक्ताभमास्थितं ॥ सप्तधातुमयं देहं देहेन्द्रं प्रार्चिषां चयैः । सर्वाङ्गदेश गैर्विश्वग्धूयमानैर्नभस्वता ||
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रीं ह्रः ॐ ४ रं ४ हमुल्ब्यू जं २ सं २ दह २
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श्रोमदासावरकृत महाभिषेक: विकर्ममलं दह २ दुःखं दह २ हूँ फट् घे २ स्वाहा । इत्युच्चार्य कमन्धनानि स्मरेत् । दहनं ॥
( ऊपरका मंत्र बोल यंत्र जो प्रथम पान ऊपर लिखा है उस पर जो कर्पूर जलै उससे यह समझना चाहिये कि ये कर्म जल रहे हैं।
नाभिस्तु सुस्वरद्व्यष्ट पत्राब्जांतरमहंतः। दहेद्दीपौधरुद्यद्भिरष्टकर्ममयं वपुः ॥ वृत्तात्सबिन्दुदिक्कोण स्वायाद्गोमूत्रिकाकृतेः। कृष्णाद्वायुपुराद्वातैः औरयेद्भस्मवायुभिः ॥ व्योमव्यापिघनासारैः स्वमालाव्यामृतमु तं । स्वे स्वं ध्यायन् सृजेदेवममृतैरन्यदिदुवत् ॥
नाभि मंडल ।
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३६]
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वायु मंडल।
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वरुण मंडल ।
आकाश मंडल।
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स्वे स्वं
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स्वे स्वं
ॐहीं बह श्री जिन प्रभञ्जनाय कर्मभस्म विघूननं कुरु कुरु स्वाहा।
उपरका मंत्र बोल कर कर्म भस्म हुये बाद उसकी राख उड़ गई ऐसा विचार करना चाहिये और उक्त अग्निमंडल आदि पांचों यंत्रोंका मनमें ध्यान करना चाहिये।
अथ हस्त संघटनम् । करमध्ये लिखेद्यंत्रं काश्मीरादिसुमिश्रितैः । रविसोमसमुद्धार्य तन्मध्ये च स्वनाहतं ॥१॥
चन्द्रप्रभाऽनाहतयंत्रम् ।
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श्रीमदाशाघरकृतः महाभिषेक :
प्रद्मप्रमाऽनाहतयंत्रम् ।
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उपरके दोनों यंत्रोंको सकलीकरण करनेवाला एकको दाहिने और एकको वाम हाथमें लिखे । यदि ऐसा न करे तो पान पर लिखकर पानोंको दोनों हाथोंमें रख लें । हस्तद्वयकनी यस्याद्यंगुलीनां यथाक्रमं । मूलरेखात्रयस्योर्ध्वमग्रे च युगपत्सुधीः ॥ न्यसोंहामादि होमाढ्यान् नमस्कारान् करौ मिथः । संयोज्यांगुष्टयुग्मेन व्यस्तान् स्वांगेषु विन्यसेत् ॥ ॐ ह्रीं अहं वं मं हं सं तं पं असि आउ सा हस्त संघटनं करोमि स्वाहा । हस्त संघटनं ॥
ऊपरके दोनों यंत्रोंसे उल्लिखित हाथोंकी पांचों अंगुलियां लम्बी कर दाहिने हाथकी पांच अंगुलियों ऊपर अंगुलियोंके मूल में अगूठा अनुक्रमसे ।
ॐ ह्रां णमो अरहंताणं स्वाहा, ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा, ॐ णमो हूँ आइरियाणं स्वाहा, ॐ ह्रौं णमो उवझ्झायाणं स्वाहा, ॐ ह्रः णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा । ( इस प्रमाण णमोकार मंत्र लिख हाथ जोड़ना । इति सकलीकरणम् ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह।
अथ करन्यासः ।
हृदि न्यसेन्नमस्कारमों हां पूर्वक महतां । पूर्वे शिरसि सिद्धानामों ही पूर्वां नमस्कृति ॥१॥ ॐ हूँ पूर्वकमाचार्यस्तोत्रं शीर्षस्य दक्षिणे । ॐ ह्रौं पूर्वमुपाध्यायस्तवं पश्चिमदेशतः ॥ २ ॥ ॐ इः पूर्वा ततो वामे सर्वसाधुनमस्कृति । न्यसेत्पंचाग्यमन्मंत्रान् शिरस्येवं पुनः सुधीः ॥३॥ ॐ ह्रां णमो अरहताणं स्वाहा हृदये। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा ललाटे । ॐ ह्र. णमो आइरियाणं स्वाहा शिरसो' दक्षिणे। ॐ ह्रीं णमो उवझ्झायाणं स्वाहापश्चिमे। ॐ हा णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा" वामे । पुनस्तानिमान् मंत्रान् प्राग्भागे दक्षिणे पश्चिमे उत्तरे च
क्रमेण विन्यसेत् ।। इति प्रथमांगन्यासः ।। प्राग्भागे शिरसो मध्ये दक्षिण पश्चिमे तथा। वामे चैतेषु विन्यासक्रमो वारे द्वितीयके ॥४॥
ॐ ह्रां णमो अरहंताणं स्वाहा शिर-मध्ये । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा ललाटे । ॐ ह्र आइरियाणं स्वाहा शिरसो
१ सकलीकरण करते समय हाथ जोड़, बुड़े हायसे हृदय, कपाल, माथा, पश्चिम आदि जो शरीरके अवयवोंके नाम बाकें वहां वहां हाथ लगाना ।
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अथ करन्यास
[३९ दक्षिणे । ॐ हौं गमो उवज्झायाणं स्वाहा पश्चिमे । ॐ ह्र: णमो लोए सव्व साहूणं स्वाहा वामे । पुनरप्यमूनेव मंत्रान् शिरोमध्ये तत्पूर्वादिषु च विन्यसेत्
॥ इति द्वितीयांगन्यासः ॥ भुजयुग्मे च नाभौ च पार्श्वयुग्मे तृतीयके। कवचास्त्रतनुन्यासं कुर्यान्मंत्रेण मंत्रवित् ॥५॥
ॐ ह्राँ णमो अरहंताणं स्वाहा नाभौ । ॐ ह्रीं णमो सिद्धार्थ स्वाहा नाभेदक्षिणे । ॐ हू णमो आइरियाणं स्वाहा नाभेामे । ॐ ह्रौं णमो उवझ्झायाणां स्वाहा । कवचाय ह दक्षिण भाग भुजे । ॐ ह्रः णमो लोए सव्व साहूणं स्वाहा अखाय फट् वामभुजे।
ॐ णमो अरहंताणं मल्व्यू मम हृदयं रक्ष २ ह्राँ स्वाहा । ॐ णमो सिद्धाणं हल्व्यू मम शिरं रक्ष २ ह्रीं स्वाहा । ॐ णमो आइरियाणां छम्य॑ मम शिखां रक्ष २ ह्रस्वाहा । ॐ णमो उवझ्झायाणं म्म्ल्यूं मम वज्राणि वज्र कवचं रक्ष२ ह्रौं स्वाहा । • णमो लोए सव्वसाहूणं मयूं मम दुष्टं निवारय २ अस्त्राय फट् स्वाहा ।
।। इति तृतीयाँगन्यासः ।।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ अङ्गन्यास भेदः । तथा वामप्रदेशिन्यां न्यस्य पंच नमस्कृतिं । पूर्वादिदिक्षु रक्षार्थं दशस्वपि निवेशयेत् || ६ ||
असि आउ सा एतानि पंचाक्षराणि तर्जन्यंगुल्यां संस्थाप्य कूटबीजानि ।
( ऊपरके पांच बीजाक्षर दक्षिण हाथकी तर्जनी अंगुली ऊपर लिख नीचे लिखे दश मंत्र बोल नीचे दिशाओं में हाथ दिखाना चाहिये ) |
मंत्रमें बताई
हाँ पूर्वे । ईं ह्रीं क्षीं अग्नौ । ॠ हैं क्षौं नैऋते । एँ हैं झैं वरुणे ओं हों क्षौं कुबेरे । ओं हं ईशाने । अ: हों क्षीं आकाशे । दिशा बंधनं ।
४० ]
* ह्रक्षू यमे ।
। ऐं हों क्षों वायव्ये । अंहः क्षः भूतले ।
वर्मितोऽनेन मंत्रेण सकलीकरणे सुधीः ।
कुर्वनष्टानि कर्माणि केनाप्येनानि विन्यसेत् ॥ ७ ॥
ॐ नमोऽर्हते सर्व रक्ष २ हृ फट् स्वाहा | अनेन पुष्पाक्षतं सप्त वारान् प्रजाप्य परिचारकाणां शीर्षेषु क्षिपेत् ।
( ऊपरका मंत्र सात वक्त बोल सात वक्त पुष्प अक्षत साथ परिचारकों के मस्तक उपर क्षेपना । )
ॐ ह्र फट् किरीट घातय २ परविघ्नान् स्फोटय २ सहस्र खंडान् कुरु २ परमुद्रांछिद २ परमंत्रान् भिद २ क्षः फट् स्वाहा ।
( ऊपरका “ ॐ ह्रीं फट् " ए मंत्र बोल पुष्पाक्षत दश दिशानों में सर्व विघ्नोंकी शांतिके लिए क्षेपण करना । ) ॥ इति सकलीप्रकरण विधानम् ॥
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पुण्याह वाचनं ।
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अथ पुण्याहवाचनं । श्री निर्जरेशाधिपचक्रपूर्व श्रीपादपकेरुहयुग्ममीशं । श्री वर्धमानं प्रणिपत्य भक्तया संकल्पमेनं कथयामि सिद्धये ।।
__ॐ स्वस्ति श्रीयजमानाचार्यप्रभृतिसमस्तभव्यजनानां सद्धर्म श्रीवलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिरस्तु।
अद्य भगवतो महापुरुषस्य श्रीमदादिब्रह्मणो मते त्रैलोक्यमध्यमध्यासीने मध्यलोके श्रीमदनावृतपक्षसंसेव्यमाने दिव्यजम्बूवृक्षोपलक्षितजंबूद्वीपे, महनीयमहामेरोदक्षिणभागे, अनादिकालसंसिद्धभरतनामधेयप्रविराजितषटखंडमंडितभरतक्षेत्रे, सकलशलाकापुरुषसंभूतिसम्बन्धविराजितायखंडे,परमधर्मसमाचरगगुज्जरदेशे, अस्मिन विनेयजनताभिरामे, 'ईडरग्रामे, श्रीदिगंबरजैनकाष्ठासंघे नंदीगच्छे आदि श्रीमद्भट्टारक श्रीरामसेनाम्नाये महाशांतिकर्मणोचिने, अत्र वृषभनाथस्य (आदिनाथस्य) दिव्यमहा चैत्यालयप्रदेशे, एतदवसर्पिणीकालावसाने प्रवृत्तसुवृत्तचतुर्दशमनूपमान्वितसकललोकव्यवहारे, श्रीवृषभस्वामिपौरस्त्यमंगलमहापुरुषपरिषत्प्रतिपादितपरमोपशमपर्वक्रमे, वृषभसेनसिंहसेनचारुसेनादिगणधरस्वामिनिरूपितविशिष्टधर्मोप्रदेशे। दुःखमसुखमानंतर
१-जहां पूजन होता हो उस ग्रामका नाम लेवें, २-मंदिरमें जो मूलनायक हो उनका नाम लेवें।
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४२] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह। प्रवर्तमानकलियुगापरनामधेयदुःखमाभिधानपंचमकालप्रथमपादे, महतिमहावीरवर्धमानतीर्थंकरोपदिष्टसद्धर्मव्यतिकरे, श्रीगौतमस्वामिप्रतिपादितसन्मार्गप्रवर्त्तमाने, श्रेणिकमहामंडलेश्वरसमाचरितसन्मार्गावशेष, विक्रमांकनृपालपालितप्रवर्त्तमानानुकलशकनृपकाले, १९९३ वर्षसंमिते, प्रबर्तमान आनंदनाम संवत्सरे, अमुकमासे शुक्लपक्षे अष्टमितियो" अमुकवासरे (...) प्रशस्ततारकायोगकरण काणहोरामुहूर्तलग्नयुक्तायां, अष्टमहाप्रातिहायशोभितश्रीमदहेत्परमेश्वरसन्निधौ, श्री शारदासनिधी, राजर्षिपरमपिब्रह्मर्षिसन्निधौ, विद्वत्समाजसनिधी, अनादिश्रोतृसन्निधौ, देवब्राह्मणसन्निधौ सुब्राह्मणसनिधी, यागमंडलभूमिशुद्धयर्थं द्रव्यशुद्धयर्थं पात्रशुद्धयर्थं क्रियाशुद्धयर्थं मंत्रशुद्धयर्थं महाशांति कर्मसिद्धिसाधनयंत्रमंत्रतंत्रविद्याप्रभावसंसिद्धिनिमित्तविधीयमानस्य अमुक (......)क्रियामहोत्सवसमये पुण्याहवांचनं करिष्ये । सर्वैःसभाजनैरनुज्ञायतां, विद्वद्विशिष्टजनैरनुज्ञायतां, महाजनैरनुज्ञायतां तद्यथा ।
प्रस्थमात्रतंदुलस्योपरि ह्रींकारसंवेष्टितस्वस्तिकयंत्रे मंत्रपरिपूजितमणिमयमंगलकलशं संस्थाप्य, यजमाना
१-वतमान संवतका नाम लेवें, २-संवत्सर जो चलता हो उनका नाम लेवें, ३-चालू मासका नाम, ४-चालू पक्षका नाम लेवें, ५-चालू तीथीका नाम लेवें ६-जो वार हो उसका नाम लेवें, ७-जिस उद्यापन क्रियामें पुण्याहवाचन होता हो उस क्रियाका नाम लेवें ।
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पुण्याह वाचनं ।
[ ४३ चार्योऽपसव्यहस्तेन धृत्वा पुण्याहमंत्रमुच्चारयन् सिंचेत् । ॐ स्वस्तिककलश स्थापनं करोमि । | (पासमें छपे हुए यंत्र अनुसार करीब एक सेर चावल
लेकर जमीनपर यंत्र बनावें, फिर उसके ऊपर जलसे
भरा हुआ कलश रखकर उसमें नागरवेलका पत्ता रखें और पुण्याहवाचन पढते जावे और कलशका पानी उस पत्तेसे दाहने हाथसे छिडकते जावे ।)
अथ पुण्याहमंत्र-ॐ ह्रां ह्रीं ह्र हौं ह्रः नमोऽर्हते भगवते श्रीमते समस्तगंगासिंवादिनदीनदतीर्थजलं भवतु स्वाहा । जलपवित्रीकरणं ॥
अभ्यर्च्य कलशं तोयप्रवाहैश्वदनैः शुभैः ।
अक्षतैः कुसुमैरनर्दीपधूपफलैरपि ।। ॐ ह्रीं पुण्याहकलशार्चनं करोमि स्वाहा । ( साथीयाके उपरके कलशको अर्घ चढावें।)
कलशार्चनं ॥
आर्या- जयतु जिनेश्वरशासनमखिलसुखं मे भवतु जगति जनानां । देशे भवतु सुभिक्षं पांतु चिरं वसुमतिं राज्ञः ॥
ॐ अहद्भयो नमः । ॐ सिद्धेभ्यो नमः । ॐ मूरिभ्यो. नमः । ॐ पाठकेभ्यो नमः । ॐ सर्बसाधुभ्यो नमः। __ॐ अतीतानागतवर्तमानत्रिकालगोचरानन्तद्रव्यगुणपर्यायात्मकवस्तुपरिच्छेदकसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राद्यनेकगुणगणाधारपंचपरमेटियो नमो नमः । ॐ पुण्याहं. ३ प्रीयंतां३
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४४ ] दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह। भगवंतोऽर्हतः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः सकलवीर्याः सकलसुखाः त्रिलोकेशाः त्रिलोकेश्वरपूजिताः त्रिलोकनाथाः त्रिलोकमहिताः त्रिलोकप्रद्योतनकराः । ॐ श्रीमद् भगवदर्हत्सर्वज्ञपरमेष्ठिपरमपवित्रशांतिभट्टारकपादपद्मप्रसादात् सद्धर्मश्रीवलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिरस्तु ।
ॐवृषभादयो महतिमहावीरवर्धमानयंताः परमतीर्थकरदेवाश्चतुर्विंशत्यस्तो भगवन्तः सर्वज्ञाः सर्वदशिनः संभिन्नतमस्का वीतरागद्वेषमोहास्त्रिलोकनाथास्त्रिलोकमहितास्त्रिलोकप्रद्योतनकरा जातिजरामरणविप्रमुक्ताः सकलभव्यजनसमूहकमलवनसम्बोधदिनकराः देवाधिदेवाः । अनेकगुणगणशतसहस्त्रालंकृतदिव्यदेहधराः। पंचमहाकल्याणाष्टमहाप्रातिहार्यचतुस्त्रिंशदतिशयविशेषसंप्राप्ताः। इन्द्रचक्रधरबलदेववासुदेवप्रभृतिदिव्यसमानभव्यवर पुण्डरीकपरमपुरुषवरमकुटतटनिबिडनिवद्धमणिगणकर निकरवारिधाराभिपिक्तचारुचरणकमलयुगलाः। स्वशिष्यपरशिष्यवर्ग प्रसीदंतु वः परममांगल्यनामधेयाः सद्धर्मकार्यविहामुत्र च सिद्धाः सिद्धि प्रयच्छंतु नः।
अतीतकालसंजातविविधविबुधनिवहप्रार्थितार्थप्रदानसद्धर्मपारिजातपादपप्रभावोद्भ तसंपत्समेताः । निखिलभुवनकुहरविश्रुतयशोराशिधवलितहरिद्वलयनिलयनिलिंपनितंबि'नीजनमनोवितर्कमानकल्याणपरम्पराः । अनवरतविनमदखिलसुरनरोरगखेचरपतिमुकुटतटताटितमाणिक्यमयूखमालालंकृतक्रमकमलयुगलाः।
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पुण्याहवाचनं ।
[ ४५
ॐ निर्वाण सागर, महासाधु, विमलप्रभ, श्रीधर, सुदत्त, अमलप्रभ, उद्धर, अंगिर, सन्मति, सिंधु, कुसुमांजलि, शिवगण,.. उत्साह, ज्ञानेश्वर, परमेश्वर विमलेश्वर, यशोधर, कृष्ण, ज्ञानमति, शुद्धमति, श्रीभद्र, अतिक्रांत, शांताच ेति चतुर्विंशत्यतीतकालतीर्थंकर पर मजिनदेवाश्च वः प्रीयंतां२ |
ॐ संप्रतिकालश्रावकश्रेयस्कर स्वर्गावतरणजन्माभिषव परिनिष्क्रमण केवलज्ञाननिर्वाणकल्याणविभूतिभूषितमहाभ्युदयाः । सिद्धविद्याधरराजमहाराजमण्डलीक महामण्डलीकमुकुटवद्धवल केशव सावभौमादि विजयदानवोरगेन्द्र किरीटप्रभामणिगणप्रभा मरुद्धनि जलप्रवाहप्रक्षालितचारुचरणनखकिरणचन्द्रन्द्रिकाप्रतिहतपापांधकाराः ।
ॐ वृषभ, अजित, शंभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, बिमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुन्यु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व, श्रीवीर वर्धमानाच ेति चतुर्विंशतिवर्तमानकालतीर्थंकर परम जिनदेवाश्च वः प्रीयंतांर ।
ॐॐ भविष्यत्कालभव्याभ्युदयनिमित्तनिखिलकल्याणरमणीयकत्रिभुवनेश्वर्य शोभितमहाप्रभावाः । सहर्षसंभ्रमप्रणुतचतुर्निकायामर पतिनिकर मॉलिविलसितरत्न र जितानेकमणिगणखचितसुवर्णसिंहासनालंकृत सहस्त्रदलकमल विष्टराधिष्ठित पादपद्मयुगुलाः ।
ॐ महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवपुत्र, कुलपूत्र, उदक, प्रौष्ठिल, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत,
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४६ । दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह। अर; निःपाप, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंभू, अनिवर्तिक, जय, विमल, देवपाल, अनन्तवीर्याश्चेति चतुर्विशति अनागतकालतीर्थंकरपरमजिनदेवाश्च वः प्रीयतां २।
- ॐ अनाद्यविद्याविलासदुस्तरतमःपटलपटावगुण्ठितजगर्जितज्योतिः स्वरूपयथावस्थितसमस्तवस्तुस्वरूपनिरूपणप्रवीणादिब्रह्मवदनकंजसंजातद्वादशांगचतुर्दशपूर्वप्रपंचप्रवचनपारावारपारीणाः।
ॐ वृषभसेन, कुम्भ, दृढरथ, शतधनु, देवशर्म, धनदेव, नन्दन, सोमदत्त, सूरदत्त, वायुशर्म, यशोबाहु, मार्गदेव, अग्नि, अग्निदेव, अग्निगुप्त, चित्राग्नि, हलधर, महिधर, माहेन्द्र, वासुदेव, वसुन्धर, अचल, मेरुधर, मरुभूति, सर्वयश, सर्वयज्ञ सर्वगप्त, सर्वप्रिय, सर्वदेव, सर्वविजय, विजयगुप्त, विजयमित्र, विजयदल, अपराजित, वसुमित्र, विश्वसेन, सुसेन, सत्यदेव, देवसत्य, सत्यगुप्त, सत्यमित्र, शर्मद, विनत, शंवर, मुनिगुप्त, मुनियज्ञ, मुनिदेव, गप्तयज्ञ, मित्रयज्ञ, स्वयंभू, भगदेव, भगदत्त, भगफल्गु, मित्रफल्गु, प्रजापति, सर्वसह, वरुण, धनपाल, मघव, तेजोराशि, महावीर, महारथ, विशाल, महाज्वाल, सुविशाल, वज्र, वज्रशाल; चन्द्र, चन्द्रचूल, मेघेश्वर, कच्छ, महाकच्छ, नाम, विनमि बल, अतिबल, वज्रबल, नंदी, महानुभोगी, नंदिमित्र, महानुभाव, कामदेवानुपमाश्चेति आदिब्रह्म समवशरण प्रवर्तमान चतुरशीतिगणधरदेवाश्च वः प्रीयंतां२ ॥
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पुण्याह वाचनं ।
ॐ वृषभसेन, सिंहसेन, चारुसेन, वज्रनाभि, चमर, वज्रचमर, बलदत्त, विदर्भ, अनगार, कुन्थु, धर्म, मंदर, जयार्य, अरिष्टसेन, चक्राभुध, स्वयंभू, कुमार्य, विशाल, मल्लि, सुप्रभ, बरदत्त, स्वयांभू, गौतमाश्चति चतुर्विंशतितीर्थकरसभाभासमानगणधर मुख्याश्च वः प्रीयंतां२ ।
ब्राह्मी, आत्मगुप्ता, धर्मश्री, मेरुषेणा, अनंतमति, रतिपेणा, मीनश्री, वरुणश्री, घोषावती, धरणश्री, धारणा, वरसेना, पद्मश्री, सनश्री, सुव्रता, हरिषेणा, भावश्री, कूर्मश्री, अमरसेना, पुष्पदंता, मार्गश्री, यक्षश्री, सुलोचना, चन्दनाचोति चतुर्विंशतिगणिनीमुख्याश्च वः प्रीयंतां२।
श्रेयांस, ब्रह्मदत्त, सुरेन्द्रदत्त, इन्द्रदत्त, पद्मदत्त, सोमदत्त, महेंद्रदत्त, पुष्पमित्र, पुनर्वसु, नंदन, सौंदर, जय, विशाख, धान्यसेन, धर्ममित्र, सुमित्र, अपराजित, नंदी, नंदिसेन, वृषभसेन, दत्त, बरदत्त, धान्य, नंदनाश्चेति चतुर्विंशतिदातृमुख्याश्च वः प्रीयंतां२।
भरत, सत्यभाव, सत्यवीर्य, मित्रभाव, मित्रवीर्य, धर्मवीर्य, दानवीर्य, मघव, युद्धवीर्य, श्रीमन्दर, त्रिपिष्ट, द्विपिष्ट, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषवर, पुण्डरीक, दत्त कुनाल, नारायण, सुभौम, अजितंजय, उग्रसेन, अजित, श्रेणिकाश्चेति चतुर्विंशतिश्रोतृमुख्याश्च वः प्रीयंतां२ ॥ गोमुख, महायक्ष, त्रिमुख, यक्षेश्वर तुम्बरू, कुसुम, वरनंदी,
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दि० जंन व्रतोद्यापन संग्रह |
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विजय, अजित, ब्रह्मेश्वरकुमार, पन्मुख, पाताल, किन्नर, किंपुरुप, गरुड, गंधर्व, महेंद्र, कुबेर, वरुण, विद्युत्प्रभ सर्वाह धरणींद्र, मातंगनामानश्चेति चतुर्विंशतियक्षेन्द्राश्च वः प्रीयंतांर चक्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ती, वज्रशृंखला पुरुषदत्ता, मनोवेगा, काली, ज्वालामालिनी, महाकाली, मानवी गौरी गांधारी, नैरोही, अनंतमति, मानसी, महामानसी, जया विजया, अपराजिता, बहुरूपिणी, चामुण्डी, कूष्माण्डी, पद्मावती, सिद्धायिन्यचेति चतुर्विंशतिशासन देवताश्च वः प्रीयंतां२ ॥ नाभिराज, जितशत्रु दृढराज, स्वयंवर, मेघरथ, धरणराज, सुप्रतिष्ट, महासेन, सुग्रीव, दृढरथ विष्णुराज वसुपूज्य, कृतवर्म, सिंहसेन, भानुराज विश्वसेन, सुरसेन, सुदर्शन, कुम्भराज, सुमित्र, विजयराज, समुद्रविजय, विश्वसेन, सिद्धार्थाचेति चतुर्विंशति जिनजनकाश्च वः प्रीयंतां२ |
४८
मरुदेवी विजया, सुषेणा, सिद्धार्था, सुमंगला, सुपीमा. पृथ्वी, लक्ष्मणा, जयरामा, सुनन्दा, नन्दा, जयावती. आर्यश्यामा, लक्ष्मीमती, सुप्रभा, एरादेवी, श्रीकांता, मित्रसेना, प्रभावती, सोमा, बर्मिला, शिवदेवी, ब्राह्मी, शियका रण्यचेति चतुर्विंशतिजिन मातृका वः श्रीयंतां२ ।
प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, प्रसेनविमल, वाहन, चक्षुष्म, यशश्वि, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, जित, नाभिराजाश्चेति वर्तमानचतुर्दशकुलधराश्च वः प्रीयंतां२ ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । कनक, कनकप्रभ, कनकराज, कनकध्वज, कनकपुगव, नलिन, नलिनप्रभ, नलिनराज, नलिनध्वज, नलिनपुगव, पद्म, पद्मप्रभ, पद्मराज, पद्मध्वज, पद्मपुंगव, महापद्माश्चेति भविष्यत्कुलधराश्च वः प्रीयंतां २।
श्रीषेण, पुंडरीक, वज्रनाभि, वज्रदन्त, चारुघोष, चारुदत्त श्रीदत्त, सुवर्णप्रभ, भूवल्लभ, गुणपाल, धर्मसेन, कीर्योघाश्चेति अतीतद्वादश चक्रवर्तिनश्च वः प्रीयंतां २ ।
भरत, सगर मघव, सनत्कुमार, शांति, कुन्थु, अर, सुभौम, महापद्म, हरिषेण, जयसेन, पद्म दत्ताश्चेति वर्तमानद्वादशचक्रवर्तिनश्च वः प्रीयंतां २।।
भरत, दीर्घदन्त, मुक्तदन्त, गूढदन्त, श्रीषेण, श्रीभूति, श्रीकांता, पद्म, महापद्म, चित्रवाहन, पिमलवाहन, अरिष्टसेनाश्वेति अनागतद्वादशचक्रवर्तिनश्च वः प्रीयंतां २।
श्रीकांत, शांतचित्त, वरबुद्धि, मनोरथ, दयामूर्ति, विपुलकीति, श्रीराम, प्रभाकर, संजयन्ताश्चेति अतीतनवबलदेवाश्च वः प्रीयंतां २।
विजय, अचल, सुधर्म, सुप्रभ सुदर्शन, नंदि, नंदिमित्र, राम, पद्माश्च ति, वर्तमान नवबलदेवाश्च वः प्रीयंतां २ ।
चन्द्र, महावन्द्र, चन्द्रधर, हरिचन्द्र, सिंहचंद्र, वरचंद्र, पूर्णचन्द्र, शुभचन्द्र, श्रीचन्द्राश्चेति अनागतनवबलदेवाश्च वः प्रीयंतां २।
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५० ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
काकुत्स, वरभद्र, सुभद्र, सुश्लिष्ट, वरवीर, शत्रुञ्जय, अमितारि, प्रियदत्त, विमलवाहनाश्चति अतीतनववासुदेवाश्च वः प्रीयंता२।
त्रिपिष्ट, द्विपिष्ट, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषवर, पुण्डरीक, लक्ष्मीधर, कृष्णाश्चेति वर्तमान नववासु-- देवाश्च वः प्रीयंतां २।
नन्दि नन्दिमित्र, नन्दिषेण, नन्दिभति, बल, महाबल, अतिबल, त्रिपिष्ट, द्विपिष्टाश्चति अनागतनववासुदेवाश्च वः प्रीयंतां २।
निशभ, विद्युत्प्रभ, रणरसिक, मनोवेग, चित्रवेग दृढ़रथ, वज्रजंघ, विद्यजंघ, प्रल्हादचेति अतीतनवप्रतिवासुदेवाश्च, वःप्रीयंतां २।
अश्वग्रीव तारक, मेरुक, निशुभ, केटभ, वलि प्रहरण, रावण जरासंघश्चेति वर्तमाननवप्रतिवासुदेवाश्च वः प्रीयंतां२।
श्रीकण्ठ हरिकण्ठ, नीलकण्ठ, अश्वकण्ठ, सुकण्ठ, शिखिकण्ठ, अश्वग्रीव, हयग्रीव, मयूरग्रीवाश्चेति अनागतनवप्रतिवासुदेवाश्च वः प्रीयंतां २
भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल. दुर्मुख, निर्मख, अधोमुखाश्चति वर्तमाननवनारदाश्च वः प्रोयता २ ।
भीमावली, जितशत्रु रुद्र, महारुद्र, विश्वानल, सुप्रतिष्ठा, अचल, पुडरीक, अजितंजय, जितनाभि, पीठ, सत्यकीपुत्राश्चेति वर्तमानएकादशरुद्राश्च वः प्रीयंतां २ ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ५१ प्रमद, समद, प्रकाम, कामद, भवहर, मनोहर, मनोभव, मार, काम, रुद्र, अङ्गजाश्चति, अनागत एकादशरुद्राश्च वः प्रीयतां २ ।
असुर, नाग, सुपर्ण, द्विपर्ण, द्विपोदधि स्तनित, विद्यत, अग्नि,वात दिवकुमाराश्चेति दशविधभवनेन्द्राश्च वः प्रीयंतां२।
चमर, वैरोचन, धरण, भूतनाद, वेणुदेव, वेणुधारी, पूर्णवशिष्ठ, जलप्रभ, जललांत,घोष, महाघोष, हरिषभ, हरिकांत अमितगति, अमितवाहन, अग्निशिखि, अग्निमाणव, वलम्ब, प्रलम्ब प्रभंजनाश्चेति विंशतिभवनेन्द्राश्च वः प्रीयंतां २।
किन्नर, किंपुरुष गरुड, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाचाश्चेति अष्टविधव्यन्तरेन्द्राश्च वः प्रीयंतां २ ।
किन्नर, किंपुरुष, तत्पुरुष, महापुरुष, महाकाय, अतिकाय, गीतरति, गीतयशः, पूर्णभद्र, मणिभद्र, भीम, महाभीम, सुरूप, प्रतिरूप काल महाकालाभिधानाचति षोडश व्यन्तरेन्द्राश्च व : प्रीयंतां २।
चन्द्रादित्यग्रह नक्षत्र प्रकीर्णक तारकाश्चेति पचविध ज्योतिषकेन्द्राश्च वः प्रीयतां २ ।
सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्म, ब्रह्मोतर, लातव; कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण अच्युतेन्द्राश्चति षोडशकल्पेन्द्राश्च वः प्रीयंतां२
हिट्ठिमहिटिम हिटिममझिझम हिट्ठिमोपरिम मझिझमहिटिम मझिझममझिमोपरिमउपरिमहिटिम उपरिममझिम उपरिमो
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५२ ] दि० जैन व्रतोापन संग्रह । परिमाख्य नवग्रैवेयकनिवासिनोऽहमिंद्रदेवाश्चवः प्रीयंतां २ ।
त्रिलोकविषयलोकालोकवर्तिसर्वद्रव्यपर्यायक्रमकरणव्यवधानातिक्रमसाक्षात्करणकेवलाख्यपरंज्योतिप्रमुखस्वभाविकानंतगुणविशेषविभूषिताः सकलचक्रिकुरुभवार्गफणींद्राहमिंद्रत्रिकालभवितसुखानंतगुणित दुखसभावितक्षीणपर्यायसवं कालशा श्वतपरमोत्कृष्टसुखानन्दमन्दिरायसाणाः।
वीतरागद्वेषमोहाः जातिजरामरणविप्रमुक्ताः देवाधिदेवाः परमनिर्वाणसंप्राप्ताः परममांगन्यनामधेयाः अष्टकर्ममलविलयस्पष्टी भतपरमावगाढसम्यक्त्वाद्यष्टगुणविशिष्टसकलसिद्धसमुहाश्च वः प्रीयंतां २।
रोहिणी, प्रज्ञप्ती, वज्र,खला, वज्रांकुशा, अप्रतिचक्रा । पुरुषदत्ता, काली, महाकालो.गौरी, गांधारी, ज्वालामालिनी, मानवी, वैरोही, अच्युता, मानसी, महामानस्यश्चेति षोडशविद्यादेवताश्च वः प्रीयंतां २ ।
जया, विजया, अजिता, अपराजिता, जंभा, मोहा, स्तंभा, स्तंभिन्यश्चेति अष्ट महादेवताश्च वः प्रीयंतां २ ।
श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, शांति, पुष्टयञ्चति अष्टदिक्कन्यकाश्च वः प्रीयंतां २।
नित्यप्रवृत्ततारकायोगकरणाद्युपेतपक्षतिप्रभतिसमस्ततिथिप्रभावप्रयोजनप्रधानाः यक्ष, वैश्वानर, राक्षस, नधृत, पन्नग, असुरकुमार, पित, विश्वमालिनी, चमर, वैरोचन, महाविद्यमार, विश्वस्कर,पिण्डाशिनश्चति,पंचदशतिथिदेवाश्च वः प्री.२
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admashee
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दि० ओम प्रतोद्यापन संग्रह । . [ ५३... अनन्त, कुलिक, वासुकी, शंखपाले, तक्षक पद्म, महापन, कर्कोटक, जयविजयादि अष्ट महानागाश्च वः प्रीयंतां २ ।
__इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, धरणींद्र, चन्द्राश्चेति दशदिक्पालदेवाश्च वः प्रीयंतां २।
आदित्य, सोम मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु, नाम नवग्रहाश्च वः प्रीयंतां २ ।
काल, निकाल, लोहित, कनक, कनकस्थान, अन्तरद, कच, यव, दुदभि, रत्ननिभ, रूप; निर्भास; नीलनीलभास, अश्व; अश्वस्थान, कोश, केशवर्ण, शंख, शंखपरिमाण,
शंखवर्ण, उदय, पंचवर्ण, तिल, तलपुच्छ, क्षारराशि, धूम, 'धूमकेतु, एकसस्थान, अज्ञ, कलेवर, वकट, अभिन्नसंधि, ग्रंथिमान, चतुः पाद, विद्युज्जिह्व. नभ, सदृश, निलय, काल, कालकेतु, अनय, सिंहायु, विपुलकाल, महाकाल, रुद्र, सन्तान, सम्भव, सर्वाधीश, शांति वस्तून, निश्चल, प्रलंभ, निमंत्र, ज्योष्मित, स्वयंप्रभ, भासुर, विरज, निदु:ख, वीतशोक, सीमंकर, क्षीमंकर, अभय कर, विजय, वैजयंत, अपराजित, विवाल, तस्त, विजयिष्णु विकस, करिकाष्ठ, एकजटि, अग्निज्वाल, ज्वालकेतु, क्षीररस, अघ श्रवण, राहु, महाग्रह, भावग्रह, कुज, शनि; बुध, शुक्र, गुरवश्चेति. अष्टाशीति, ग्रहाश्च वः प्रीयंतां २।
ग्राम, नगर, खेड, खर्वड मडव,पत्तन, द्रोणामुख संवाहन
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__५४ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । घोष राजधानी,जिनधाम, प्रासाद, गोपुर,गृहमण्डप, समस्त, वास्तु वास्तव्यास्ताः समर्चनीयाः ब्रह्म, इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋति, वरुण,वायु,कुबेर, ईशान,आर्य,विवस्वत,भधर,सविन्द्र साविन्द्र, इन्द्र, इन्द्रराज, रुद्र, रुद्रराज, अप, अपवत्स,पर्जन्य जयन्त, भास्कर, सत्यक, भश, अंतरिक्ष पुष, वितथ, राक्षस, गन्धर्व, भृगराज, मृष, दौवारिक सुग्रीव, पुष्पदंत, असुर, शोष, रोग, नाग मुख्य मल्लाह, मृनदेव, अदिति, उदिति, विचारी, पूतना, पाप राक्षसी, चरकीनामधेया वास्तुदेवताः वः प्रीयंतां २।
सर्वे गुरुभक्ता अक्षोणकोशकोष्टागारा भवेयुः । दानतपो वीर्यधर्मानुष्ठान नित्यमेवास्तु । मातृपितृभ्रातपुत्रपौत्रकलत्र गुरुमुहृतत्वजनसम्बन्धिबन्धुवर्गसहितस्य अस्य यजमानस्य धनधान्यौश्वर्या तिबलाययशकीर्तिबुद्धिवर्धन भवतु । समोद प्रमदा भवतु । ग्रामदेवता प्रसीदंतु, गृहदेवताः प्रसीदंतु, कुलदेवता प्रसीदंतु दीक्षागुरुवः प्रसदंतु शिक्षागुरुवः प्रसीदतु विद्यागुरुवः प्रसीदंतु, चातुर्वर्णसंघाः प्रसीदंतु। शांतिभवतु, कांतिर्भवतु तुष्टिभवत, पुषिटर्भवतु, सिद्धिर्भव, वृद्धिर्भवतु । अविध्नमस्तु, आरोग्यमस्तु, आयुक्यमस्तु, शिवकर्मास्तु, कमेसिद्धिरस्तु शास्त्रसमृद्धिरस्तु इष्टसम्पदस्तु अरिष्टनिरसनमस्तु, धनधान्यसमृद्धिरस्तु। काममांगल्योत्सवाः संतु । शाम्यतु घोराणिं, शाभ्यंतु पापानि । पुण्यं वर्धता, धर्मो वर्षतां, श्रीवर्षतां, आयुवर्णतां कुलं गोवं चाभिवर्णतां ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ५५ त्वस्ति भद्र चास्त नः, हस्तास्ते परिपंथिनः, शत्रवो निधनं यांतु, निःप्रतिधमलमस्तु शिवमलमस्तु ।
यत्सुखं त्रिष लोकेषु व्याधिव्यसनवर्जितं । अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु विधीयते ।। १॥
श्री शांतिरस्तु शिवमस्तु, जयोस्तु नित्यमारोग्यमस्तु तब पुष्ठिसमृद्धिरस्तु, कल्याणमस्तु सुखमस्त्वभिवृद्धिरस्तु दीर्घायुरस्तु कुलगोत्रधनं सदास्त ॥ २ ॥
भता भवंतो भव्याश्च जिनाधीशागणाधिपाः । गणिन्योदातृसुख्याश्च श्रोतारो यक्षनायकाः ॥३॥ यक्ष्यो जिनानां पितरो मातरो मानवस्तथा । चक्रिणो बलदेवाश्च केशवाः प्रतिकेशवाः ॥ ४ ॥ नारदाश्च ततो रुद्राश्चतुर्विधसुराधिपाः। रोहिण्याद्या जयाद्याश्च श्रयादयस्तिथिदेवताः ॥४॥ महानागाश्च दिक्पाला ग्रहाः वास्तु सुरोस्तथा । ग्रामाधिदेवता क्षेत्र देवताः कुलदेवताः ॥ ६ ॥ एते देवगणाः सर्वे भण्याः पुण्याहवाचने। ततो देवाः प्रसीदंतु विघ्ना नश्यतु सर्वथा ॥७॥ महायज्ञसमारम्भे गंधाबुनपने तथा । गन्धोदकप्रदाने च शांतिपुष्टयाध पक्रमे ॥ ८॥ आधानादिक्रियारम्भे ग्रहवक्रत्वसंभवे । परमत्र प्रयोगे च महोत्पाते महारुजि ॥९॥
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५६ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । सर्वेष्वपि च होमेषु बीजानां सेचने तथा । पुण्याहवाचना पुण्या भण्या संकल्पपूर्विका ॥ १० ॥
इति श्री पुण्याहवाचनम् ।
अथ मंगलाष्टक। श्रीमन्नम्रसुरासुरेन्द्रमुकुटप्रद्योतरत्नप्रभा । भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनांमोधी व्यवस्थायिनां ॥ ये सर्वे जिनसिद्धसूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधव - स्तुत्या योगिजनैश्च पंचगुरवः कुर्वन्त वो मंगलं ॥२॥ सम्यग्दर्शनबोधवृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं । मुक्तिश्रीनगराधिपजिनपतेः स्वर्गापवर्गप्रदं ॥ धर्म सूक्तिसूधावचैत्यमखिलं जैनालयं स्वालयं । प्रोक्तं तत्रिविध चतर्विधमिमं कुर्वन्तु वो मंगलं ॥२॥ नामेयादिजिनाधिपास्त्रिभुवने ख्याताश्चतुर्विंशतिः । श्री मंतो भरतेश्वर प्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादशाः ।। ये विष्णुप्रतिविष्णुलांगलधराः सप्ताधिका विंशतिः । त्रैलोक्याभयदात्रिषष्ठिपुरुषाः कुर्वन्तु वो मंगले ॥३॥ ये पंचौषधिरिद्धयः श्रुततपोरिद्धिं गताः पंच ये । ये चाष्टांगमहानिमित्तकुशला येऽष्टौ विधाश्चारणः ।। पंचज्ञानधराश्च येऽपि बलिनो ये बुद्धिरिद्धिश्वराः । सप्तैते सकलाश्च ते गणधराः कुर्णतु वो मंगलं ॥४॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ५७ देव्यचाष्ट जयादिका द्विगुणिता विद्यादिका देवताः ॥ श्री तीर्थकरमालकाश्च जनका यक्षाश्च यक्षीश्वराः ॥ द्वात्रिंशत्रिदशाग्रहा निधिसुरा दिक्कन्यकाश्च ाष्टधा । दिक्पाला दश इत्यमी सुरगणाः कुर्वन्तु वो मंगलं ॥२॥ ज्योतिव्यंतरभावनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिताः । जम्बूशाल्मलिचत्यशाखिषु तथा वक्षाररौप्याद्रिषु ॥ इक्ष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे द्वीपे च नन्दीश्वरे । शैले ये मनुषोत्तरे जिनग्रहाः कुर्वतु वो मंगलं ॥६॥ कैलासे वृषभस्य निर्वृति महावीरस्य पावापुरे । चम्पायां वसुपूज्य सञ्जिनपतेः सम्मेदशैलेऽर्हतां । शेषाणामपि चोज्जयन शिखरे नेमीश्वरस्याहतो। निर्वाणावनयः प्रसिद्ध विभवाः कुर्वन्तु वो मंगलं ॥७॥ ब्राह्मीचन्दनवालिका भगवती राजीमती द्रौपदी । कौशल्या च मृगावती च सुलसा सीता सुभद्रा शिवा ॥ कुन्तीशोलवती नलस्य दुहिता चूला प्रभावत्यपि । पद्मावत्यपि सुन्दरी च प्रमुखाः कुर्वतु वो मंगलं ॥८॥ यो गर्भाव तरेऽहंतामनु तथा जन्माभिषेकोत्सवे । यो जातः परिनिक्रमेण सतत यः केवलज्ञान भाक् ॥ यै कैवल्यपुरः प्रवेशमहिमा सम्भावितः स्वर्णिभिः। कल्याणानि च पंच सात सततं कुर्वतु वो मंगलं ॥९॥ इत्थं श्रीजिन मंगलाष्टकमिदं कल्याणकालेऽहंतां ।
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५८ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
पूर्वाह्न च महोत्सवे च सततं श्रीसीख्य सम्पत्प्रद । ये शृण्वंति पठंति तेश्च मनुजैधर्मार्थकामान्वितेः । लक्ष्मीराश्रयते विपायरहिता कुर्वतु वो मंगलं ॥१०॥
॥ इति मंगलाष्टकं ।।
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॥ शांतिमंत्रः॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः। श्रीवीतरागाय नमः । ॐ नमोऽर्हते भगवते, श्रीमते. श्री पाश्वतीर्थंकराय द्वादशगणपरिवेष्टिताय, शुक्लध्यानपवित्राय, सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, लोक्यमहीव्याप्ताय, अनन्तसंसारचक्रपरिमर्दनाय, अनन्तदर्शनाय,अनन्तवीर्याय, अनंतसुखाय; सिद्धाय, बुद्धाय, त्रैलोक्यवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्रह्मणे, धरणेन्द्रफणामण्डलमंडिताय, ऋष्यार्यिकाश्रावकश्राविकाप्रमुख चतुस्संघोपसर्गविनाशाय, घातिकर्मविनाशाय, अघातिकर्मविनाशाय । अपवाद अस्माकं छिद छिंद, भिंद भिंद । मृत्यु छिंद२, भिंद२ । अतिकामं छिद२, मिंद२ । रतिकामं छिंद२, भिंद२ । क्रोध छिंद२, भिंद२ । अग्नि छिंद२, भिंदर । सर्वशत्रु छिंद २, भिंद २ । सर्वोपसर्ग छिंद २, भिंद २। सनविघ्न छिद २, भिंद २ । सर्नभयं छिंद २, भिंदर सन
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [५९ राजभयं छिंद २, भिंद २ । सनचोरभयं छिंद२, भिंद२ । सर्वदुष्टभयं छिंद२, भिंद२ । समृगभयं छिंद२, भिंद२। सर्वपरमंत्र छिंद२, भिंद२ । सर्वमात्मकभयं छिंद२ भिंद२। सर्वशूलभयं छिंद२; भिंद२ । सनक्षयरोगं छिंद२. भिंद२ । सनकुष्टरोगं छिद२, भिंद२ । सर्व ज्वरमारि छिंद२, भिंद२, सर्नगजमारिं छिंद२, भिंद२ । सश्विमारिं छिद२, भिंद२ । सर्वगोमारि छिंद२, भिद२ । सर्व महिषमारिं छिंद२, भिंद२, सर्न धान्यमारिं छिद२ भिंद२, । सर्न वृक्षमारिं छिद२, भिंद२ । सर्वगुल्ममारि छिंद२ भिद२ । सर्वपत्रमारि छिंद२, भिंद२ । सर्वपुष्पमारि छिंद२ भिंद२ । सनफलमारिं छिंद२ भिंद२ । सनराष्ट्रमारिं छिदर भिंद२ । सर्वदेशमारि छिंद२ भिंद२ । सनविषमारि छिन्दर भिन्द२ । सनक्रररोगं छिंद२ भिंद२ । सनवेतालशाकिनीभयं छिंद२ भिंद२ । सनवेदनीयं छिंद२ मिन्दर । सर्वमोहनीयं छिंदर भिंदर । ॐ सुदर्शनमहाराजचक्रविक्रमतेजोवलशौर्यशांतिं कुरु कुरु । सर्वजनानन्दनं कुरु२ । सर्वभव्यानन्दन कुरु२ । सर्वगोकुलानन्दन कुरुर । सनग्रामनगरखेटखटमडम्बपत्तनद्रोणामुखसहानन्दन कुरु २ । सर्वलोकानन्दन कुरु २ । सर्वदेशानन्दन कुरु २ । सनयजमानानन्दन कुरु २ । हन हन दह दह पच पच कुट कुट शीघ्र शीघ्र व्याधिव्यसनवर्जितं अभयक्षेमारोग्यं स्वस्तिरस्तु । शांतिरस्तु । शिवमस्तु कुलगोत्र
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दि० जैन व्रसोधापन संग्रह । धन धान्य सदास्तु । चन्द्रप्रभ, वासुपूज्य मल्लि, वर्द्धमान, पुष्पदंत, शीतल, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ पार्श्वनाथ, इत्यनेन मंत्रण नवग्रहार्थ गंधोदकधारावर्षणम् ॥
॥ इति शांतिमंत्र सम्पूर्णः ।। सहस्रनाम व स्वस्ति विधान । सकली करण किये बाद जिनसेनाचार्य कृत सहस्रनाम बोल एक एक दशकके दश अर्घ चढ़ाना । सहस्र नामके पाठके पश्चात् नीचे प्रमाण स्वस्ति विधान पढ़ना । श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवन्द्य जगत्त्रयेशं
स्याद्वादनायकमनन्तचतुष्टयाह । श्वी मूलसंघसुदृशां सुकृतैकहेतु
जैनेन्द्रयज्ञविधिरेषमयाऽभ्यधायिं ॥ १। स्वस्ति त्रिलोकगुरवे जिनपुङ्गवाय
स्वस्ति स्वभावमहिमोदय सुस्थिताय । स्वस्ति प्रकाशसहजोजितदृड्भयाय
स्वस्ति प्रसन्नललिताद्भुतवैमवाय ॥२॥ स्वस्त्युक्छल द्विमलबोधसुधाप्लवाय
स्वस्ति स्वभावपरभाव विभासकाय । स्वस्ति त्रिलोकविततैकचिदुद्गमाय
स्वस्ति त्रिकालसकलायतविस्तृताय ॥३॥ द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं
भावस्थ शुद्धिमधिकामधिगन्तुकामः ।
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• दिल जैन व्रतोकापन संग्रहः । [ ६१. आलम्बनानि विविधान्यवलम्ब्यवन्गान
भूतार्थयज्ञपुरुषस्य करोमियज्ञम् ॥ ४ ॥ अर्हत्पुराण पुरुषोत्तमपावनानि
वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेक एवं । अस्मिन् ज्वलद्विमलकेवलबोधवह्नी
पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि ॥ ५ ।।
पुष्पांजलि क्षिपेत् । श्री वृषभो नः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अजितः । श्री सम्भवः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अभिनन्दनः। श्री सुमतिः स्वस्ति, स्वस्ति श्री पद्मप्रभः । श्री सुपाश्व: स्वस्ति, स्वस्ति श्री चन्द्र ग्भः ।। श्री पुष्पदन्तः स्वस्ति, स्वस्ति श्री शीतलः । श्री श्रेयांसः स्वस्ति, स्वस्ति श्री वासुपूज्यः । श्री विमलः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अनंतः । श्री धर्मः स्वस्ति, स्वस्ति श्री शांतिः । श्री कुन्थुः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अरनाथः । श्री मल्लिः स्वस्ति, स्वस्ति श्री मुनिसुव्रतः। श्री नमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्री नेमिनाथः । श्री पार्श्व:: स्वस्ति, स्वस्ति श्री वर्द्धमानः । पुष्पांजलि क्षिपेत् । नित्याप्रकम्पाद्भुतकेवलौधाः
स्फुरन्मनः पर्ययशुद्धबोधाः । दिव्यावधिज्ञानबलप्रबोधाः
स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥१॥ कोष्टस्थधान्योपममेकबीजं
संभिन्नसंश्रोतृपदानुसारि । चतुर्विधं बुद्धिबलं दधानाः
स्वस्ति क्रियासुः परमर्पयो नः ॥ २॥
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६२] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरा
दास्वादनघ्राणविलोकनानि । दिव्यान्मतिज्ञानवलाद्वहंतः
स्वस्ति क्रियासुः परमर्णयो नः ॥ ३ ॥ प्रज्ञाप्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः
प्रत्येकबुद्धा दशसर्वपूर्वैः। प्रवादिनोऽष्टांगनिमित्तविज्ञाः
स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ४ ॥ जंघावलि श्रेणिफलांबुतन्तु
प्रसूनबीजांकुरचारणाह्वाः। नभोगणस्वरविहारिणश्च
स्वस्ति क्रियासुः परमर्णयो नः ॥ ५ ॥ अणिम्नि दक्षाः कुशलाः महिम्न
लघिम्नि शक्ता कृतिनो गरिम्णि । मनोवपुर्वाग्वलिनश्च नित्यं
स्वस्ति क्रियासुः परमर्णयो नः ॥ ६॥ सकामरूपित्ववशित्वमेश्य - प्राकाम्यमंतद्धिर्मथाप्तिमाप्ताः । तथा प्रतीधातगुणप्रधानाः
स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ७ ॥ दीप्तच तप्त च तथा महोग्रं
. घोरं तपो घोरपराक्रमस्थाः ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
ब्रह्मापरं घोरगुणाश्चरन्तः
स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ८ ॥
आमसर्वोषधयस्तथाशी
-
विषंविषादृष्टिविष विषाश्व ।
अक्षीणसंवास महानसाच
सखिल्ल विड्जल्लमलौषधीशाः
स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ९ ॥ क्षीरं स्रवन्तोऽत्र घृतं स्रवन्तो
मधुं स्रवन्तोऽप्यमृतं स्रवन्तः ।
"
[ ६३
स्वस्ति क्रियासुः परमयो नः || १० ॥ इति स्वस्ति मङ्गल विधानम्
स्वस्ति मङ्गल विधान पीछे जो उद्यापन प्रथम देवपूजा शाखपूजा, गुरुपूजा, सिद्धपूजा,
इस प्रमाणसे पांच पूजाऐं करना और पीछे उद्यापन प्रारम्भ करना चाहिये ।
करना हो तो कलिकुडपूजा,
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अथ रविवारव्रत उद्यापनम् । नत्वा श्रीमज्जिनाधीश सर्वज्ञं सुखदायकम् । वक्ष्ये सूर्यव्रतं यस्य पूजासौख्यप्रदायिनी ॥१॥ आदी गंधकूटीपूजा ततस्नपनमाचरेत् । पश्चात् कोष्टगता पूजा कर्तव्या विबुधोत्तमैः ॥ २ ॥ पाश्वनाथ जिनेन्द्रस्य प्रतिमा परमां शुभाम् । आह्वाननादिविधिना स्थापयेत् स्वस्तिकोपरि ।। ३ ॥ पश्चात पूजा प्रकर्तव्या विधिवदष्टाधा मुदा ।
उत्तमा सर्वसामग्री मेलयित्वा त्रिशुद्धितः ॥४॥ इति जिनपूजनप्रतिज्ञानाय जिनप्रतिमाग्रे परिपुष्पांजलि क्षिपेत् ।
'अथ स्थापना । स्वामिन संवौषट कृताहाननस्य, दिष्टं तेनोटङ्कितस्थापनस्य । स्वामीन निर्नेतु वषट्कारजागृत सान्निध्यस्य प्रारभेयाष्टसिद्धिम् ॐ ह्रीं श्री चिंतामणिपार्श्वनाथ अत्र अवतर २ संवौषट स्वाहा । ॐ ह्रीं अत्र तिष्ठ तिष्ठः ठः ठः स्वाहा (स्थापन)
अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणम् ।। ॐ ह्रीं परब्रह्मणे नमो नमः ॥ ॐ ह्रीं स्वस्तिर, जीव२, नन्दर, वर्धस्वर, विजयस्वर, अनुसाधि२, पुनीहि२, पुण्याहं२, प्रियंताम २, मंगलं२, पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह।
अथाष्टकम्। क्षीरहीरगौरनीरपूरवारिधारया। मन्दकुन्दचन्दनादिसौरभेण सारया ॥ चिन्ततार्थकामधेनुकल्पवृक्षदायकम् ।
पूजयाम्यचिन्त्यतार्थदं हि पार्श्वनायकं ॥ १॥ ॐ ह्रीं श्री चिंतामणिपार्श्वनाथाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
अर्कतर्कवर्जनैरनर्धचन्दनद्रवः ।। कुकुमादिमिश्रितैरनल्पषट्पदाश्रितैः । चिन्तितार्थकामधेनुकल्पवृक्षदायकम् ॥
पूजयाम्य० ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री चिंतामणिपार्श्वनाथाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
औषधेन सिन्धुफेनहारभासमुज्वलैरक्षितैः सुलक्षितैरजोतखण्डवर्जितः ॥ चिन्तितार्थकामधेनुकल्पवृक्षदायकम् ।
पूजयाम्य० ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री चितामणिपार्श्वनाथाय अक्षतं निवपामीति स्वाहा ।
पारिजातवारिसूतकुन्दहेमकेतकैः । मालतीसुचंपकादिसारपुष्पमालया ॥ चिन्तितार्थकामधेनुकल्पवृक्षदायकम् ।
पूजयाम्य० ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री चिंतामणिपार्श्वनाथाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
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६६ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
व्यंजनेन पायसादिभिः समं च षट्सैः । मोदकोदनादिभिः सुवर्णभाजनस्थितैः ॥ चिन्तितार्थ कामधेनुकल्पवृक्षदायकम् ।
पूजयाम्य० ॥ ५ ।।
ॐ ह्रीं श्री चिन्तामणिपार्श्व नाथाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । रत्नसोमसर्पिषादिदीपकैः कृतोज्वलैः ।
वातघात तोपको पकं परूपवर्जितः ।
चिन्तितार्थकामधेनुकल्पवृक्षदायकम् ।
पूजयाम्य० ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं श्री चिन्तामणिपार्श्व नाथाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
सीलिका सिता गुरुप्रधूपकः शुभप्रदः । वानमानवर्धमानमाननीमनोहरैः || चिन्तितार्थकामधेनु कल्पवृक्षदायकम् ।
पूजयाम्य० ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं श्री चिन्तामणिपार्श्व नाथाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रीफलाम्रकर्कटीसुदा डिमादिभिः फलैः । वर्णमिष्टसौरभादिचक्षुरादिमोदनैः ॥
चिन्तितार्थकामधेन कल्पवृक्षदायकम् । पूजयाम्य० ॥ ८ ॥
ॐ ह्रीं श्री चिन्तामणिपार्श्वनाथाय फलं निर्वपामीति स्वाहा । जीवना सिता गुरुद्रवाक्षतैः प्रसूनकैः । शुभैश्वरुप्रदीपकैः सुधूपरूपसत्फलैः ॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ ६७
सुवर्णभाजनस्थितैरमारमारमाभिधः।।
ज्ञानभूषणायक महामुनिगवीक्षते ।। ९ ॥ ॐ ह्रीं श्री चिन्तामणिपार्श्वनाथाय अर्घ निर्वपामोति स्वाहा ।
• .m-namastepROpmmmwoman..
अथ प्रत्येक पूजा ।*
(१) आषाढशुक्लपक्षस्य प्रथमो रविवासरः ।
तदिने प्रोषधं कुर्यात् सूर्यव्रतप्रसिद्धये ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतप्रथमोपवासप्रोषधोद्योतनाय श्रीजिनेन्द्राय जल वंदनाक्षतपुष्पचरुदीपधूपफलाघं निनपामीति स्वाहा ।
द्वितीयादित्यवारे च प्रोषधं यः तपस्यति ।
पूर्वसूरिसदाचारी सूर्यव्रतप्रसिद्धये । ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतद्वितीयोपवासप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० ।
तृतीयादित्यवारे च प्रोषधं हि करोति यः ।
तस्य स्यात् सर्वसिद्धिश्च सूर्यव्रतप्रसिद्धये ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रततृतोयोपवासप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० ।
त्रिशुद्धया प्रोषधं कुयात् चतुर्थे रविवासरे ।
पुण्येन तेन संसिद्धिः सूर्यव्रतप्रसिद्धये ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत चतुर्थोपवासप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
* श्रीफल साथिया पर चढाववां ।
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६८] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
यः कुर्याद प्रोषध भव्यं पंचमे सूर्यवासरे।
धनधान्यागमस्तस्य सूर्यव्रतप्रसिद्धये ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतपंचमोपवासप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० ।।
षष्टे हि रविवारे च प्रोषध परमादरात् ।
यः करोति स धन्यश्च सूर्याव्रतप्रसिद्धये ।। ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतषष्टमोपवासप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० ।
सप्तमे रविवारे च प्रोषधो हि करोति यः ।
सनसिद्धि हे तस्य सूर्यव्रतप्रसिद्धये ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतसप्तमोपवासप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि०।
अष्टमे रविवारे च प्रोषध सुखदायकम् ।
सुखार्थ कुरुते नित्यं सूर्यव्रतप्रसिद्धये ।। ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रताष्टमोपवासप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० ।।
प्रोषधं सुखदं कुर्यात् नवमे रविवासरे ।
सर्वसंपद्गृहे तस्य सूर्यव्रतप्रसिद्धये ।। ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतनवमोपवासप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० ।
आषाढशुक्लादारभ्य नवेति सूर्यवासराः।
प्रोषधेन समं कुर्यात स नरः सुखमेधते ।। ॐ ह्रीं श्री प्रथमवर्षे रविव्रतोपवासप्रोषधोद्योतनाय पूर्णाघ नि० ।।
(२) आषाढ़ मासे खलु शुक्लपक्षे, सूर्यादिबारे द्वितीये च वर्षे । आचाम्लभुक्तं पुनरेकवारं, करोति यः सर्वसुखं लभेत ॥१॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [६९ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतद्वितीयवर्ष प्रथमकांजिकाहारप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं निर्वपामीति स्वाहा ।
द्वितीयवर्षसम्बन्धिद्वितीये सूर्यवासरे। कांजिकाहारकं कुर्यात् स्वर्गसोपानप्राप्तये ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतद्वितोयवर्षे द्वितीयकांजिकाहारप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० स्वाहा ।
द्वितीयवर्गसम्बन्धितृतीये रविवासरे । तदिने कांजिकाहारं कुर्वन्तु व्रतसिद्धये ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यवतद्वितीयवर्षे तृतीयकांजिकाहारोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० स्वाहा ।
द्वितीये खलु वर्षे च चतुर्थे रविवासरे । तदिने कांजिकाहारं कर्तव्यां भव्यसत्तमैः ॥ ४॥
ॐ ह्रीं श्रीं सूर्यव्रतद्वितीयवर्षे चतुर्थकांजिकाहारप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० स्वाहा ।
द्वितीयवर्णसम्बन्धि पञ्चमे सूर्यवासरे । कांजिकाहारं कुर्यात् सुख सम्पत्तिहेतवे ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतद्वितीयवर्षे पंचमकांजिकाहारप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० स्वाहा ।
द्वितीये वर्ष के रम्ये षष्ठे च रविवासरे। कांजिकाहारंभोक्तव्यं सूर्यव्रतप्रसिद्धये ॥ ६॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतद्वितीयवर्षे षष्ठमकांजिकाहारप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० स्वाहा ।
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७० ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
वर्षे द्वितीये भो भव्याः कांजिकाहारमुत्तमं । कुर्वन्तु सर्वदा नित्यं सप्तमे सूर्यवासरे ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतद्वितीयवर्षे सप्तमकांजिकाहारप्रोषधोद्योतनाय अघं नि० स्वाहा ।
द्वितीयवर्षे संजाते रविवारे चाष्टसे पुनः । कांजिकाहारभुक्तिश्च कर्तव्या व्रतशुद्धये ॥ ८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं सूर्यव्रतद्वितीयवर्षे अष्टमकांजिकाहार प्रोषधोद्योतनाय अर्घं नि० स्वाहा |
द्वितीयवर्णेसंजाते नवमे रविवासरे।
सम्प्रोक्तं कांजिकाहारं व्रतसिद्धयै विदांवरैः ॥ ९॥ ॐ ह्रीं श्री द्वितीयवर्षे नवमकांजिकाहारप्रोषधोद्योतनाय जलादिकं नि० स्वाहा ।
सूर्यव्रतस्य सम्बंधि कांजिकाहारकान्नव ।
कृत्वा च द्वितीये वर्षे पार्श्व नाथं च पूजयेत् ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं श्री द्वितीयेवर्षे कांजिकाहारप्रोषधोद्योतनाय पूर्णा नि०
( ३ )
वर्षे तृतीये पुनरागते च क्षारं रसं त्याज्य करोति भुक्तिम् । आषाढमासे प्रथमे च पक्षे सूर्यादिवारे लभते सुखं स ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रततृतीयवर्षे लवण रहितप्रथमैकभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घं नि० स्वाहा ।
तृतीयवर्ष सम्बन्धि द्वितीये रविवासरे । तद्दिने चैकमुक्तं च कर्तव्यं लवणं विना ॥ २ ॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [७१ ॐ ह्रीं सुर्यव्रततृतोयवर्षे लवणरहितद्वितीयभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
तृतीये रविवारे च तृतीये वर्षे पुनः । लवणेन रहिता भुक्तिः कर्तव्या व्रतसिद्धये ॥३॥ .
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रततृतीयवर्षे लवणरहिततृतीयकभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ निर्वपामोति स्वाहा ।
चतुर्थे रविवारे च तृतीये वर्षे मुदा । लवणेन विना भुक्तिः कारयेत् सुविचक्षणः ॥ ४ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रततृतीयवर्षे लवणरहितचतुर्थंकभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचमे सूर्यवारे हि वत्सरे तृतीये पुनः ।
लवणेन विना मुक्तिः क्रियते व्रतधारकैः ॥ ५॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रततृतीयवर्षे लवणरहितपंचमैकमुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
षष्टे हि रविवारे च लवणेन विना नरः। भुक्तिं कुर्यात् स पूतात्मा तृतीये वर्षे मुदा ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं श्री सुर्यव्रततृतीयवर्षे लवणरहितषष्ठकभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
सप्तमे सूर्यवारे च वत्सरे हि तृतीयके ।
लवणेन बिना भुक्ति कुर्वन्तु व्रतसिद्धये ॥ ७॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रततृतीयवणे लवणरहितसप्तमैकमुक्तिप्रोषधो. द्योतनाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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७२ ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अष्टमे सूर्यवारे च तृतीये वत्सरे पुमान् ।
लवणेन विना भुक्तिं यः करोति स धर्मभाक् ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रततृतीयवर्षे लवणरहितअष्टमैकभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० ।
तृतीये वत्सरे जाते नबमे रविवासरे।
लवणेन विना भुक्तिं कुर्वन्तु हितचिंतकाः ॥ ९॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रततृतीयवर्षे लवणरहितनवमैकमुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि०।
अमुना हि प्रकारेण कुर्वन्ति ये नराः शुभम् । व्रतमादित्यसंशं च ते नराः धर्मनायकाः ॥ १० ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रततृतीयवर्षे लवणरहितभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय पूर्णा नि० ।
(४) आषाढमासे खल शुक्लपक्षे वणे चतुर्थे पुनरागते च ।
सूर्यादिवारे चटुकप्रमाणं भोक्तव्यमशनंव्रतधारकेण ।२। ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतचतुर्थवर्षे प्रथमैकचाटुकप्रोषधोद्योतनाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
चतुर्थो वत्सरे जाते द्वितीये रविवासरे।
चाट्दैकमन्न भोक्तव्यं सूर्यव्रतप्रसिद्धये ॥ २ ॥ - ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतचतुर्थवर्षे द्वितीयैकचाटुप्रोषधोद्योतनाय पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
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-
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [७३ वर्षे चतुर्थे संजाते तृतीये रविवासरे।
एकचाटुप्रमाणान्नं भोक्तव्यं व्रतसिद्धये ॥ ३॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतचतुर्थवर्षे तृतोकचाटुप्रोषधोद्योतनाय अर्ध नि.।
वर्षेचतुर्थेचतुर्थे हि वासरे रविसंज्ञके ।
चाटुप्रमाणमन्नं च भोक्तव्य व्रतशुद्धये ॥ ४ ॥ ॐह्रीं श्री सूर्यवतचतुर्थवर्षेचतुथैकचाटुपोषधोद्योतनाय अर्घ नि०।
चतुर्थे वत्सरे जाते पंचमे सूर्यवासरे ।
एकचाटुप्रमाणान्नं भोक्तव्यं व्रतधारिणा ॥५॥ ॐह्रीं श्री सूर्यव्रतचतुर्थवपंचमैकचाटुशोषधोद्योतनाय अर्ष नि०।
चतुर्थे हि समायाते पष्टे रविदिने तथा ।
चाटुप्रमाणं भोक्तव्यं रविव्रतविशुद्धये ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतचतुर्थवर्षेषष्टेकचाटुप्रोषधोद्योतनाय अर्ध नि० ।
वर्षे चतुर्थे संजाते सप्तमे रविवासरे ।
एकचाटुप्रमाणान्नं भोक्तव्यं परमादरात् ॥ ७॥ ॐह्रीं श्री सूर्यव्रतचतुर्थवर्षंसप्तमैकचाटुप्रोषधोद्योतनाय अर्ध नि० ।
अष्टमे रविवारे च वर्षे चतुर्थे मुदा ।
चाट्दैकमन्नं भोक्तव्यं सूर्याव्रत विशुद्धये ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतचतुर्थेवर्षेअष्टकचाटुप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि ।
वर्षे चतुर्थे नवमे च वासरे सूर्यसज्ञके ।
चाटुप्रमाण भोक्तव्यं सूर्यव्रतविधायधैः ॥ ९॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यबतचतुर्थवर्षेनवमैकचाटुप्रोषधोद्योतनाय अर्ध नि।
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७४ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
चतुर्थे वर्णमध्ये च सूर्ये सूर्ये हि वासरे। नवमं चाटुकं कृत्वा पार्श्वनाथ प्रपूजयेत् ॥ १० ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत चतुर्थवर्षे चाट्वेकभुक्तिप्रोषघोद्योतनाय पूर्णा नि..
(५) आषाढशुक्लपक्षस्य प्रथमादित्यवासरे ।
तक्रोदनं च भोक्तव्य' केवलं वर्णपंचमे ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यपंचमे वर्षे प्रथमनिवेडप्रोषधोद्योतनाय अनि० । वर्षे पंचमे जाते द्वितीये सूर्यवासरे।
निवे नाममुक्तिश्व कर्तव्या व्रतधारिणा ।। २ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतपंचमेवर्षे द्वितीयनिवेडप्रोषधोद्योतनाय अघं नि. तक्रोदनं हि भोक्तव्यं वत्सरे पंचमे तथा । तृतीये सूर्यवारे च सूर्यव्रतविधायकैः ।। ३ ।। ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत पंचमेवर्षे तृतीर्यानवेडप्रोषघोद्योतनाय अर्धं नि. । वर्णे पंचमके भव्यैः कर्तव्य हि निवेडर्क |
:
चतुर्थे सूर्यवारे च रविव्रत विशुद्धये ॥ ४॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतपंचमेवर्षे चतुर्थनिवेडप्रोषघोद्योतनाय अर्धं नि० । पंचमेष्टे समायाते पचमे रविवासरे । निवे डनामभक्तिश्च कर्तव्या व्रतधारकैः ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतपंच मे वर्षे पंचमनिवेड प्रोषधोद्योतनाय अर्धं नि० पंचमेष्टे समायाते षष्ठे च रविवासरे ।
नि वेडप्रोषधं कुर्यात् सूर्य व्रत प्रसिद्धये ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत पंचमेवर्षे षष्टमनिवेडप्रोषधोद्योतनाय अर्धं नि० ॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [७५ सप्तमे रविवारे च निवेडं च प्रकारयेत् ।
पंचमे वत्सरे भव्यः आदित्यव्रतसिद्धये ॥ ७॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतपंचमेवर्षेसप्तमनिवेडप्रोषधोद्योतनाय अर्धा नि० ।
अष्टमे सूर्यवारे च पंचमे वत्सरे मुदा।
निवेडभुक्तिमादाय पाच नाथ प्रपूजयेत् ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतपंचमेवर्षे अष्टमनिवेडप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि।
पंचमेष्टे समायाते नवमे रविवासरे ।
तक्रोदनं च भोक्तव्य केवलं व्रतधारिणा ।। ९॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतपंचमेवणे नवमनिवेडमोषधोद्योतनाय अर्घ नि० ।
निवेडं नवमे प्रोक्तं पंचमे वत्सरे शुभे ।
पूजनं पाच नाथस्य स्मरणं भजनं कुरु ।। १० ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतपंचमेवर्षे निवेडप्रोषधोद्योतनाय पूर्णाघ नि० ।
एकान्नं च भोक्तव्यं वर्षे षष्ठे समागते । आषाढशुक्लपक्षस्य प्रथमे रविवासरे ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतषष्ठमे वर्षे प्रथमैकान्नभुक्तिप्रोषधोद्योतनायः अर्घ नि० स्वाहा ।
षष्ठे संवत्सरे जाते द्वितीये रविवासरे।
एकान्नमेव भोक्तव्यमपरान्नं न सर्वथा ।। २ ।। ___ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत षष्ठमे वर्षे द्वित्तीयैकान्नप्रोषधोद्योतनाक अर्घ नि० स्वाहा ।
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७६ ।
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । द्रव्यप्रमाणवर्षे हि तृतीये सूर्यवासरे । एकान्नभुक्ति: कर्तव्या सूर्यव्रतविधायकैः ॥३॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत षष्ठमेवर्षे तृतीयैकान्नभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्ध नि० स्वाहा ।
चतुर्थे सूर्यवारे च वर्षे षष्ठे तथैव च ।।
एकान्नभक्तिः संप्रोक्ता सूर्यवतप्रकाशकः ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतषष्ठमे वर्षे चतुर्थंकान्नभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
वर्षों षष्ठे समायाते पंचमे रविवासरे। एकान्नमेव मुंजीत सूर्यव्रतविधायकैः ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतषष्ठमेवर्षे पंचमैकान्नभुक्तिमोषधोद्योतजाय अर्घ नि० स्वाहा ।
एकान्नभक्तिः संप्रोक्ता सूर्यव्रतप्रकाशकैः ।। षष्ठे वर्षे प्रयाते च षष्ठे मार्तंडवासरे ॥ ६॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतषष्ठमेवर्षे षष्ठकान्नभुक्ति प्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
षष्ठेष्टे सम्प्रयाते च सप्तमे भानुवासरे । एकान्नभक्तिः कर्तव्या सूर्यव्रतविधायकैः ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतषष्ठमे वर्षे सप्तमैकान्नभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्धं नि० स्वाहा ।
अष्टमे रविवारे च षष्ठे वर्षे सुखार्थिभिः । एकमन्नं हि भोक्तव्य सूर्यवतप्रकाशकैः ॥ ८ ॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [७७ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतषष्ठमे वर्षे अष्टमैकान्नभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
षष्ठे संवत्सरे जाते नवमे सूर्यवासरे । एकान्नभुक्तिः संप्रोक्ता सूर्यव्रतप्रकाशकैः ॥ ९ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतषष्ठमेवर्षे नवमैकान्नभुक्तिमोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
षष्ठे वर्षे प्रकर्तव्या नव चैकान्न भक्तयः। आषाढमासमारम्भ सूर्ये सूर्ये च वासरे ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतषष्ठमे वर्षे एकान्नभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
(७) आषाढमासे शुभशक्लपक्षे मार्तण्डबारे खलु सप्तमाब्दे । निगोरसं भोजनमेकवारम् कर्तव्यमादित्यव्रताय भव्यौः ।
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत सप्तमवर्षे प्रथमनिगोरसभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
सप्तमेष्टे समायाते द्वितीये रविवासरे।। गोरसं नैव भोक्तव्य दधिदुग्धघतादिकं ॥२॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत सप्तमवर्षे द्वितीयनिगोरसभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
सप्तमे वत्सरे जाते तृतीये सूर्यवासरे। गोरसेन विना सर्व भोक्तव्य व्रतधारिणा ॥३॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत सप्तमवर्षे तृतीयनिगोरसभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
चतुर्थे रविवारे च वर्षे सप्तमके तथा । गोरसं नैव भोक्तव्यं सूर्यव्रतविधायकैः ॥ ४॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतसप्तमवर्षे चतुर्थनिगोरसभुक्तिप्रोषधोद्योतनाय अर्घं नि० स्वाहा ।
सप्तमेष्टे समायाते पंचमे रविवासरे । दुग्ध दधि घृतं नैव भोक्तव्य' व्रतधारिणा ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतसप्तमवर्षे पंचम निगोरस भुक्ति प्रोषधोद्योतनाय अघं नि० स्वाहा |
षष्ठे हि रविवारे च वर्षे सप्तमके ध्रुवं । गोरसं सर्वथा त्याज्यं सूर्यव्रतविधायकैः ॥ ६॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत सप्तमवर्षे निगोरसभुक्ति प्रोषघोद्योतनाय अर्घं नि० स्वाहा ।
सप्तमे वर्षे संप्राप्ते सप्तमे रविवासरे । गोरसं नैव भोक्तव्य' सूर्यव्रतविधायकैः ।
७८
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतसप्तमवर्षे सप्तमनिगोरसभुक्ति प्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा :
अष्टमे रविवारे हि सप्तमे वत्सरे मुदा । दधिदुग्धघृत' त्याज्यं सूर्यव्रतविशुद्धये ॥ ८ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतसप्तमवर्षे अष्टमनिगोरस भुक्ति प्रोषधोद्योतनाय नि० स्वाहा ।
संजाते सप्तमे वर्षे नवमे रविवासरे ।
गोरसं सर्वथा त्याज्यं सूर्यव्रतविशुद्धये ॥ ९
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दि. जैनव्रतोद्यापन संग्रह । [७९ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत सप्तम वर्षे नवम निगोरसभुक्तिमोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
सप्तमे वर्णमध्ये हि विना गोरसभोजनं । कुर्वन्ति जनास्तेषां सुखं स्यात् सर्वमोक्षजं ॥ १० ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत सप्तमवर्षे निगोरसभुक्तिशोषधोद्योतनाय पूर्णाधं नि० स्वाहा ।
(८) अष्टमाब्दे समायाते रूक्षाहारस्तु कारयेत् । आषाढशुक्लपक्षस्य प्रथमे रविवासरे ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रताष्टमे वर्षे प्रथन रूझाहारमोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
अष्टमे हायने जाते द्वितीये रविवासरे । भोजनं एकवारं च घृततैलविना बुधैः ॥२॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रताष्टमे वर्षे द्वितीय रूक्षाहारप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
अष्टमे वत्सरे प्राप्ते तृतीये रविवासरे । लक्षाहारो हि कर्तव्योः सूर्यव्रतविधायकैः ॥३॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रताष्टमे वर्षे तृतीयारूक्षाहारप्रोषधोद्योतनाय अर्धा नि० स्वाहा ।
अष्टमे वत्सरे प्राप्ते चतुर्थे भानुवासरे । रूक्षाहारस्तु कर्तव्यः सूर्यव्रतविशुद्धये ।।४॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रताष्टमे वर्षे चतुर्थेरूक्षाहारमोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
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4.] दि० जैनव्रतोद्यापन संग्रह ।
सम्वत्सरेऽष्टमे प्राप्ते पञ्चमे रविवासरे । रूक्षाहारस्तु कर्तव्यः सूर्याव्रत प्रसिद्धये ॥ ५॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रताष्टमे वर्षे पंचमरूक्षाहारप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा।
वर्षाष्टमे हि संजाते षष्ठे मार्तण्डवासरे ।
ततैलं हि संत्याज्यं सूर्याव्रतप्रसिद्धये ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रताष्टमे वर्षे षष्ठमरूक्षाहारप्रोषधोद्योतनायय अर्घ नि० स्वाहा ।
सप्तमे सूर्यवारे च वसु संवत्सरे गते ।। रूक्षाहारं च कर्तव्य प्राशुकैः व्रतधारिकः ।। ७ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रताष्टमे वर्षे सप्तमरूक्षाहारप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० ।
अष्टमे हायने प्राप्ते रविवारेऽष्टमे पुनः।
रूक्षाहारं हि कर्तव्य सूर्यव्रतप्रसिद्धये ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्याव्रताष्टमे वर्षे अष्टमरूक्षाहारप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
अष्टमेण्टे समायाते नवमे रविवासरे । रूक्षाहारस्तु कर्तव्यः रविव्रतविशुद्धये ॥ ९ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रताष्टमे वर्षे नवमरूक्षाहारप्रोषधोद्योतनाय अर्घ नि० स्वाहा ।
अष्ठमे वर्षमध्ये च रूक्षाहारस्तु कारयेत् । घततैलं च संत्याज्यं सूर्यव्रतविधायकैः ।। १० ।।
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रताष्टमे वर्षे रूक्षाहारमोषधोद्योतनाय पूर्णाघ नि० स्वाहा ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
( ९ )
आषाढ़ मासे खलु शुक्लपक्षे, मार्तण्डवारे नवमे हि वर्षे ।
मुक्तिश्च कुर्यात् खलु चैकवारं,
________[={
एषा विधिः श्रीमुनिभिः प्रयुक्ता ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत नवमे वर्षे प्रथमैकस्थानप्रोषधोद्योतनाय अघं नि० स्वाहा ।
नवमेष्टे समायाते द्वितीये सूर्यवासरे ।
एकस्थान' च कर्तव्य सूर्यव्रतविधायकैः ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं सूर्यव्रत नवमे वर्षे द्वितीयैकस्थानप्रोषधोद्योतनाय अर्घं नि० स्वाहा ।
हायने नवमे जाते तृतीये रविवासरे ।
एकस्थान विधेयं च सूर्यव्रतविशुद्धये ॥ ३ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत नवमे वर्षे तृतीयैकस्थानप्रोषधोद्योतनाय अघं नि० स्वाहा ।
नवमे वत्सरे प्राप्ते चतुर्थे सूर्यवासरे ।
एकस्थान प्रकर्तव्य' सूर्यव्रत विधायकैः ॥ ४ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत नवमे वर्षे चतुर्थैकस्थानप्रोषधोद्योतनाय अर्घं नि० स्वाहा ।
नवमे वर्षे मध्ये च पंचमे रविवासरे ।
तद्दिने युगपद् ग्राह्यं भोजन व्रतशुद्धये ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत नवमे वर्षे पंचमैकस्थानप्रोषधोद्योत
नाय अर्घं नि० स्वाहा |
६
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८२ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
नवमे हायने प्राप्ते षष्ठे मार्तण्डवासरे । एकस्थान प्रकर्तव्यं सूर्यव्रतविधायकैः ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रतनवमे वर्षे षष्ठमेकस्थानप्रोषधोद्योतनाय अघं नि० ।
नवमे च वर्णे प्राप्ते दिने सूर्यभिधान के ||
सप्तमे युगपद्ग्राह्यं भोजनं व्रतधारिना ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत नवमे वर्षे सप्तमैकस्थानप्रोषधोद्योतनाय अघं नि० स्वाहा ।
अष्टमे भानुवारे च नवमेष्टे प्रकारयेत् ।
एकस्थानं हि भो भव्याः सूर्यव्रतप्रसिद्धये ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत नवमे वर्षे अष्टर्मकस्थानप्रोषधोद्योतनाय अर्घं नि० स्वाहा |
नवमे वत्सरे जाते नवमे सूवासरे।
युगपद् भोजन ग्राह्यं सूर्यव्रतविधायकैः ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं श्री सूर्यव्रत नवमे वर्षे नवमैकप्रोषधोद्योतनाय अघं निर्वपामीति स्वाहा ।
अमुना हि प्रकारेण कर्तव्य सूर्यसद्व्रतम् । पूजनम् पार्श्वनाथस्य नववर्षप्रमाणकम् ।। १० ।। जलगन्धाक्षतैः पुष्पैः नैवेद्यैः दीपधूपकैः । फलार्घेण समभ्यर्च्य पूर्णव्रतम् समाचरेत् ॥ ११ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं सूर्यव्रत नवमे वर्षे एकस्थानप्रोषधोद्योतनाय पूर्णा नि० स्वाहा |
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[१३.
अथ जाप्य मन्त्र। ॐ नमो भगवते श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्रपद्मावतिसहिताय दुष्टग्रहशोकसर्वज्वररोगाल्पमृत्युविनाशनाय सूर्यब्रतद्योतनाय नमः।
उपरोक्त मन्त्रका १०८ वार जाप करना चाहिये।
अथ जयमाला।
त्रिभवनपतिपूज्य देवदेवेन्द्रवन्धं । जननमरणहारं पापसंतापवारं ॥ सकलसुखनिधानं सर्वदोषावसानं । फणिमणिसहितं तं संस्तवे पार्थनाथम् ॥१॥
अमरासुर नर सेवितचरणं, वन्दे पाच जिनं नरशरणं ।। दूरीकृतनरपापाचरणं, संसृति संभवजनदुखहरणं ॥ १ ॥ क्रोध मान माया संवरणं, संसाराम्बुधि तारण तरणं । वारित जनमजराभयमरणं, तर्जितदर्शन ज्ञानावरणं ॥२॥ कृत पंचेन्द्रिय द्विप वशकरणं, दर्शनज्ञानं चरिताभरणं । येन सुविहितं सेतूद्धरणं, यत्र न स्यात् जरामाचरणं ॥३॥ धर्माराम विवर्धनमेहं, नीलमणि प्रभु शोभित देहं । सिद्विवधू सम्भावित नेहं, नागनरामर वन्दित देह ॥ ४॥
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८४. ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
धर्माधर्म प्रकाशन धीरं, मोहमहारिपु भंजन वीरं । दुःखदावानल शमन सुनीरं, दर्शित जनता भवजल तीर |५| महीचन्द्रायतिराजैर्महितं मेरुचन्द्र स्तुतिवाक्यैः सहितं । पापतिमिरनाशनर विभूर, जयसागर वांछित सुखपूर ॥६॥ घत्ता - इति वरजयमाला, ये पठन्ति त्रिशुद्धया । रविव्रत सुखकारं कुर्वते ये नराश्व । दिविजखगनरा वा ते लभते नितान्तं । सकलसुखसमाजं मोक्षसौख्यास्पद च ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथाय धरणेन्द्रपद्मावतीसहिताय दुष्टग्रहशोकसर्वज्वर रोगाल्पमृत्युविनाशनाय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा । शांति पुष्टि चतुष्टि च, कल्याणं कमलाकर । पार्श्वनाथप्रसादेन, देयात् पद्मावती च सा ॥
|| इत्याशीर्वादः ||
इति भट्टारक श्री महीचन्द्र शिष्य ब्रह्मश्री जयसागर विरचितं सूर्यव्रतोद्यापनं सम्पूर्णम् ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [८५
॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ अथ षोडशकारणोद्यापनं।
पीठिका। आदौ नमामि वृषभं जिनेन्द्र', ततो गरिष्टं श्रुतमंगपूर्व । विद्याविभूषं व्रतिनांवरिष्ठं, श्रीभूषणं शारदचन्द्रकीर्ति ॥ जिनसेनादयो देवा ते भवा मोक्षमार्गगाः । ते सर्वे मे शुभं दद्यः पूजा प्रारम्भ कर्मणि ॥२॥ नत्वा जिनं श्रुतं चैव, गुरु चापि विशेषतः । वक्ष्ये बुद्धयानुसारेण व्रतं षोडशकारणं ॥३॥ पूजाकारकैः भव्यैः ह्यांदो श्रीमज्जिनालये । गत्वा नत्वा गुरु देवं कर्तव्या प्रार्थना परा । ४॥ भो स्वामिन् ! कतुमिच्छामि व्रतस्योद्यापनं महत् । तत्कथं क्रियते भव्यौः मोक्षाप्तगै कर्महानये ॥५॥ गुरुस्ततोऽवदद्वाक्यं गम्भीरं गुणगर्भितं । उपकाराय भव्यानां पापघ्नं मोक्षदायकं ॥६॥ वर्षषोडशपर्यन्त कर्तव्य व्रतमुत्तमम् ।। पूजाद्रव्यविधानश्च ध्येयाः षोडशभावना ॥ ७॥ अभिषिच्यामृतः' सारैः पूजाद्रव्योश्च पूजयेत् । गद्यपद्यनुतिस्तोत्रौर्जयमाला प्रकीर्तनैः ॥८॥ जाते षोडशमे वर्षे व्रतोद्यापनमाचरेत् । चतुर्विधमहासंधैः साक्षीकृत्य महोत्सनैः ॥९॥ १-पंचामृत ।
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दि. जैन व्रतोद्यापम संग्रह । गीतनर्तमहावाद्यश्चन्दोपकविराजितैः ।। छत्रचामरसंकीण रंगविचित्रितैः ॥ १० ॥ सुशब्दार्थभरैस्तोत्रैः पंतितैश्च विशारदः । पुष्पचन्दनकर्पूरैः केशरैश्चाक्षतैः फलैः ॥ ११ ॥ नालिकेरलवंगादिसामग्री प्रथम रचेत् । मंडलं विशदं कार्यं चतुष्कोणं स्फुरत्प्रभं ॥ १२ ॥ रम्यौर्मणिमणैश्चूर्णैः सुकोष्टं चिंतितार्थदं । संख्यायं दिव्यरूपं च रस बाण कलाधरैःx ॥१२॥ विधानं परमं कार्यं मन्त्रोचारणपूजितः । तांबूलैस्तिकैर्वस्त्रैः कुर्यात्संघस्य चर्चनं ॥ १४ ॥ अनेकविधिना सारं तीर्थेशपदकारणं । व्रतं संपाद्यते भव्यौः प्रीणितं परमेश्वर ॥ १५ ॥
इति पिठिका विधान।
अथ पजा। अनन्तसौख्यामृतकूपरूपंजिनेन्द्रसेव्य परमं पवित्र । कर्मारिनाशाय हि वज्रतुल्यं संस्थापये षोडशकारण सत् ॥
ॐ ह्रीं षोडशकारणानि अत्रावतर २ संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
अमलक्षीरसमुद्रसंभव वारिपूरितधारया । कनककुम्भसमाश्रिताबुत पापतापनिवाया ॥ x २५६ कोठा ।
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दि. जैम व्रतोद्यापन संग्रह । [८७ नमामि षोडशभावनां भवनाशहेतु शिवाप्तये । इन्द्रचन्द्रनरेन्द्र नागखगेन्द्रयतिपतिपूजितं । ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो जलं ॥१॥ सरसकेशरमलयचन्दनपरिमलाकृतषट्पदैः । भव भयातपभंजकैः शिवसौख्यदानविधायकै ।। नमामि षोडश० ॥ चन्दनं ।। २ ॥ . विशदमौक्तिकमालशाली गगनतारकसदृशैः । कमलसम्भवकमलवासितखण्डवर्जिततंदुलैः ॥ नमामि षोडश. ॥ अक्षतान् ॥३॥ भ्रमरगुंजतकमलकेतकीजातिचम्पकपुष्पकः। कुन्दसारलवंगपाटलगन्धगन्धितदिग्मुः ॥ नमामि षोडश० । पुष्पम् ० ॥ ४ ॥ विविधलड्डकपरमखञ्जकपायसामधरोदनैः । पूतस्तूपघृतान्वितैर्वरशाकपानसमन्वितैः ॥ नमामि षोडश० । नैवेद्यम् ॥ ५ ॥ तिमिरसंचयनाशकारकदीपमणिमयभासुरैः ॥ घृतवरै हि विकारवर्जितज्ञानदीपकदायकैः । नमामि षोडश० । दीपम् ।। ६ ॥ नविनजलधरपटलमेचकधूपरभासितैः । यक्षधूपमुदेवकष्टममोक्षगुरुविमिश्रितः ।। नमामि षोडस.पि ॥७॥
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८८
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
फनसचोच सदा फलाम्रकपित्थदाडिम माधवी । वीजपूर पवित्रचिर्भटमूगलकुच सुकर्कटः ॥ नमामि षोडश । फलं ॥ ८ ॥ जलेन गन्धेन शुभाक्षतेन पुष्पेण हव्येन सुदीपकेन । फलेन धूपेन व्रत सुखाप्त्य श्रीभूषणानां परिपूजयामि ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो अर्धं ।
अथ जयमाला ।
सुगुणभण्डारं विगतविकार, संसाराणव भयहरणं । कलिमलनाशण सुमइपयासणं, पंचमगइमय सुहकरणं ॥ १ ॥ इह षोडशभावण परम तत्त, इह परभवगमण सहाय सत्त । इह तित्थेसर पद दाण सार, इह तारह रवि संसार पार || २ || इह भावणदोविभोग होइ, इह भावणदो सेवेसु लोय । इह भावणदो विहडे कुम्भ, इह भावणदो मह होइ धम्म, ॥ ३ ॥ इह भाव, इंदर पदवी सहाय, इह भावणदो सीय रिसिय राय । इह भावणदो होउ सफल जम्म, इह भावणदो सवि पुण्य कम्म || ४ || इह भावण अम्मजरा विणास, ss भावण शिवपद धरइ पास । इह भावण कम्मकलङ्क दूर इह भावण सुहसम्पति पूर ॥ ५ ॥ इह भावण भवतारण सुणाव, इह भावणदो वद अमरगाव । इह भावणदो कुलदोसनास, इह भावणदो
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दि० जैन प्रतोद्यापन संग्रह । [ . सविवय पयास ॥ ६॥ इह भावण तस थावर हरति, इह भावण सुहसंपय करन्ति । इह भावण गयण सु
प्राणभंग, इह भावणदो तणु कणयरंग ॥ ७॥ 'धत्ता-सिरिभूषण कहियं, गुणगण सहियं,
चन्द्रकीर्ति समपद कमलं । सविकम्म विसुद्ध, पापविमुक्क,
बभणाण भणियं विमलं ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धादिषोडशकारणेभ्यो महायं ।
अथ प्रत्येक पूजा। षट्पंच द्विकोष्टकमंडलं शुभं,
वेद्यां स्थितं पंडितलोकमान्यं । सदक्षतैः पुष्पचयैः क्षिपामि,
__ संस्थापये मोक्षसुखाय सार।। इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत् । सम्यक्तमलतो ज्ञेयं पंचविंशमलोज्झितं ।
सत्यशौचादयोपेतं सर्वज्ञप्रतिपादितं ।। ॐ ह्रीं अष्टानवतिसागोपांगरहितदर्शनविशुद्धये जलं, चन्दनं, अक्षतं, पुष्पं, चरु', दीपं धूपं, फलं अर्घ, नि० स्वाहा । निशंकितांगांकितमाद्यमध्य, मुनींद्रवंद्य भवतापमुक्तं । गंधैः सुपुष्पाक्षतहव्यदीपर्यजे सदा कर्मकलङ्कहीनं ॥
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९० ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
ॐ ह्रीं निशंकितगुणसंयुक्तदर्शनविशुद्धये जलादिकं ||१|| सर्वकांक्षविनिर्मुक्तं सर्वदोषविवर्जितं । निष्कांक्षाव्रत सम्पन्न पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं निकांक्षित गुणसंयुक्तदर्शनविशुद्धये जलादिकं ॥ २॥ सुगन्धे चापि दुर्गन्धे सन्मुख न पराङ्मुखं । विचिकित्साविनिर्मुक्त पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं निर्विचिकित्सा गुणसंयुक्तदर्शनविशुद्धये जलादिकं ||३|| संसारे कुत्सिते धर्मे व्रते शास्त्र विशेषतः । मूढता यस्य नास्त्येव पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं निर्मू व्यगुणसंयुक्तदर्शनविशुद्धये जलादिकं ||४|| सर्वदा सर्वसंघेषु चोपगूहनमातनोत् । मौनधारी व्रतो धारी पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं उपगृहनगुणसंयुक्तदर्शनविशुद्धये जलादिकं ||५|| व्रतात्संचलितो धीरस्तस्य तस्मिन् व्रते दृढः । यत्करोति मुनीशं हि पूजये तं शुभानैः ॥ ॐ ह्रीं संस्थितिकरणगुणसंयुक्तदर्शन विशुद्धये जलादिकं ||६|| व्रतयुक्त विशेषेण वात्सल्यांगरतो मुनिः । विष्णुकुमारसादृश्य पूजये तं शुभार्चनः ॥ ॐ ह्रीं वात्सलांगयुक्तदर्शनविशुद्धये जलादिकं ॥७॥ चतुरो यः कृपायुक्तः प्रभावांगेषु तत्परः । धर्मध्यानरतो नित्यं पूजवे तं शुमार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं प्रभाबनागुणसंयुक्तदर्शनविशुद्धयेः जलादिकं ||८||
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[ ९१
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
सूर्यचन्द्रादिनां पूजा न करोति कदाचन । गंगासिन्धुजलैर्दिव्योः पूजये तं शुभार्चनैः ॥
ॐ ह्रीं सूर्यार्घदान मिथ्यात्वरहितदर्शन विशुद्धये जलादिकं ||९|| नवग्रहाणां दोनेभ्यो विरतो मुनिसत्तमः । त्रिवर्णशुद्धो मोक्षार्थी पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं नवग्रहदान रहितदर्शनविशुद्धये जलादिकं ॥१०॥ संक्रांतिसमये दानं मिथ्यादृष्टिप्रकल्पित ं । तस्माद्यो रहितः साधुः पूजये त शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं संक्रांतिदानरहितदर्शनविशुद्धये जलादिकं ॥ ११ ॥ नीचकर्म प्रहार संध्यावन्दन मुच्चति । विश्वतत्वप्रकाशाकं पूजये त शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं गायत्री मन्त्रजाप्यरहितायदर्शन जलादिकं ॥ १२ ॥ ध्यानाध्ययन होमेषु कर्मकाष्टाहुति क्षिपेत् । हिंसा होमविनिर्मुक्तः पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं अग्निसत्काररहितदर्शन० जलादिकं ||१३|| करोति गृहपूजां न दुष्टवाक्याद्विशेषतः तत्कर्मरहितः साधुः पूजये तं शुभाचनैः ॥ ॐ ह्रीं गृहपूजा रहितदर्शन० जलादिकं ॥१४॥ वपुपूजादि मिथ्यात्वाद्विरतो यो मुनीश्वरः । तस्वार्थागमचेता यः पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं शरीरपूजा रहितदर्शम० जलादिक ॥१५॥
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९२ ] दि० जैनव्रतोखापन संग्रह ।
गोमत्रसेवनं धत्ते नेवं गोच्छवन्दनं । तत्कर्मरहितो योगी पूजये तं शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं गोपुच्छमूत्रसेवारहितदर्शन० जलादिकं ॥१६॥ अनन्तभवसन्तानं रत्नपाषाणसेवनं । तस्माद्यो विरतो योगी पूजये तं शुभार्चनेः ।। ॐ ह्रीं रत्नपाषाणसेवारहितदर्शन० जलादिकं ॥१७॥ मुक्तो गजादिसेवातो धर्मध्यानेषू तत्परः । रागद्वषविनिमुक्तः पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं गजादिवाहनसेवारहितदर्शन० जलादिकं ॥१८॥ क्षमादयातपोयुक्तः पृथ्वीसेवा पराडूमुखः । सावद्यरहितो धीरः पूजये तं शुभार्चनैः । ॐ ह्रीं भूमिसेवारहितदर्शन० जलादिकं ।।१९।। तरुसेवादिपापेभ्यो विरतो यतिपुङ्गवः । स विवेको विचारज्ञः पूजये तशुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं वृक्षसेवारहितदर्शन० जलादिकं ॥२०॥ शुद्धज्ञानरतो शांतः कुशास्त्रमतिदूरगः । तत्वातत्वं विजानाति पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं कुशास्त्रसेवारहितदर्शन० जलादिकं ।।२१।। आयुधानं महापूजावन्दनाविरतो मुनिः । कलाविज्ञानपर्णो यः पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं आयुवपूजारहितदर्शन० जलादिकं ॥२२॥ .
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
गङ्गासिंधुनदीस्नाने विरतो व्रतवल्लभः । गङ्गासिंधुनदीतोयैः पूजये तम शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं गंगादिस्नानरहितदर्शनविशुद्धये जलादिकं ॥२३॥ शिकतापूजने योगी विरतो व्रतरक्षकः । मोक्षाभिलाषवान् विद्वान् पूजये तशुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं वालुकादिपूजारहितदर्शन० जलादिकं ॥२४॥ पर्वतादिषु स्थानेषू आरुह्य न पतन्ति यः । तत्पापाद्विरतो वाग्मी पूजये तम् शुभार्चनैः । ॐ ह्रीं गिरिपातरहितदर्शन० जलादिकं ॥२५।। अग्निपातादिपापेभ्यो विरतो धर्मतत्परः । ध्यानाग्निकुण्डसम्पोषी पजो तम् शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं अग्निपातरहितदर्शन० जलादिकं ॥२६॥ व्रतहीनो दयाहीनो मिथ्यात्वमतपूरितः । तस्यसङ्गविनिमुक्तः पूजये त शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं कुगुरुसेवारहितदर्शन• जलादिकम् ॥२७॥ शंकराग्रे शिरोछेदो मिथ्यात्वे प्रतिपादितः। तद्भव्यानां विनिमुक्तं पूजये तशुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं शंकरादिग्रेमस्तकछेदमिथ्यातत्वरहितदर्शन० ॥२८॥ शास्त्रज्ञानधरो मूढो ज्ञानाहंकारपूरितः । तद्भवरहितः ज्ञानी पूजये तशुभाचनैः । ॐ ह्रीं ज्ञानमदररहितदर्शन० जलादिकं ॥२९॥
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९४] दि० जैन प्रतोचापन संग्रह।
अर्चामदविनाशाय स्वगौरवविवर्जितां । स्वात्मतत्वविलीन हि पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं पूजामदरहितदर्शन० जलादिकं ॥३०॥ उच्चस्तरकुले जन्म तस्याहंकारवर्जितः । धर्मानुष्ठानसंलीनः पूजये तं शुभाचनैः । ॐ ह्रीं कुलमदरहितदर्शन० जलादिकं ॥३१॥ जातिमदातिगः शांतः सु जातो जातमुल्वणः । दर्शनज्ञानसंपन्नः पूजये तं शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं जातिमदरहितदर्शन० जलादिकं ॥३२॥ शरीरादौ बलं यस्य तेन गर्वेण पुरितः । तत्गनरहितः साधुः पूजयेतम् शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं बलमदरहितदर्शन० जलादिकं ॥३४॥ रत्नहेमपदार्था ये संसारे लोभकारणं । तप्पापाद्रहितो दक्षः पूजये तं शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं ऋद्धिमदरहितदर्शन० जलादिकं ॥३४।। मासपक्षोपवासादीन् तपः कुर्वन्ति साधवः । तपो गवं विनिमुक्तः पजये तं शुभाचनैः ।। ॐ ह्रीं तपोमदरहितदर्शन० जलादिकं ॥३५॥ कामदेवसमं रूपं कामदं कामदायकं । कोयक्लेशकशीभूतः पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं रूपमदरहितदर्शन० जलादिकं ॥३६।।
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दि. जैनव्रतोद्यापन संग्रह । [९५ सप्तानां व्यसनामां हि यतव्यसनमग्रिमम् । द्यूतव्यसनसत्यक्तः पूजये तं शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं द्यूतव्यसनविरतिदर्शन० जलादिकं ॥३७॥ मांसस्य दर्शने त्रासे भक्षणप्राणनिर्गमः । त्यक्त मांसं सदा येन पूजये तं शुमार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं मांसव्यसनरहितदर्शन• जलादिकं ॥३॥ मद्यपान महापाप भयभीतो यतीश्वरः । तद्गन्धेऽपि मनो नास्ति पूजये तम् शुभार्चनैः॥ ॐ ह्रीं मद्यपानव्यसनरहितदर्शन० जलादिकं ॥३९॥ गणिकाव्यसनेदूरशीलाभरणभूषितः । संघम स्त्रीसमाश्लिष्टः पूजये तम् शुभार्चनैः ॐ ह्रीं वेश्याव्यसनरहितदर्शन० जलादिकं ॥४०॥ षटकाय रक्षणे दक्षः सनसत्त्वाभयप्रदः । पापाद्विरतो योमी पूजये तम् शुभाचैनैः ॥ ॐ ह्रीं पापाxिव्यसनरहितदर्शन० जलादिकं ॥४॥ शीलसन्नाहसंपन्नः परदारा पराड्मुखः । ब्रह्मचारी त्रिशुद्धयाय पूजये तम् शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं परदरागमनविरतिदर्शन० जलादिकं ॥४२॥ त्रसजीववधोत्पन्न मधुजीवशताकुलं । तस्य त्यागस्ततो येन पूजये तम् शुभार्चनैः ॐ ह्रीं मधुत्यागदर्शन० जलादिकं० ॥४३॥
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९६ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
त्रसजीवशतैर्युक्त उदम्बरफलवर्जन । कृत जीवदयादक्षः पूजये तम् शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं उदम्बरफलविरतिदर्शन० जलादिकं ॥४४॥ अनेकांगिसमाकीण नीचयोग्य कठम्बरं । तस्याहारविनिमुक्तं पूजये तम् शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं कठुम्बरफलविरतिदर्शन० जलादिकं ॥४५॥ न्याग्रोधवृक्षसम्भूतम् फलं जन्तुविमिश्रितं । यत्फले यो विराकांक्षिः पूजये तम् शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं वटफलविरतिदर्शन• जलादिकं ॥४६॥ काकयोग्यं कलाहीन पीप्पलादिफलोज्झन । कृत येन दया बुद्धया पूजये तम् शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं पिप्फलीफलविरतीदर्शन० जलादिकं ॥४७॥ सर्वजीवदयाधारो निष्कषायो दिगम्बरः । पिप्पलीफलसंत्यागी पूजये तम् शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं पिप्पलीफलसंविरतिदर्शन० जलादिकं ॥४८॥ त्रसस्थावरपापेभ्यो विरतः सर्वदा मनः । तस्य चितम् द्रवीभूतम् पूजये तम् शुभाचं नैः ।। ॐ ह्रीं हिंसाविरतिदर्शन० जलादिकं ॥४९॥ मनसा वचसा चैव सत्यं वदति सर्वदा । भाषासमितिसम्पन्नः पूजये तम् शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं सत्यसंयुक्तदर्शन० जलादिकं ॥५०॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ९७ विस्मृतं पतितं नष्ट कदाचित्पथिकाजनैः । निर्लोभी न तु गृहणाति पूजये तं शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं चौर्यविरतिदर्शन• जलादिकं ॥५२॥ ब्रह्मचर्यव्रते धीरो नवभेदपरायणः । . तुर्ये व्रते सदारक्तः पूजये तं शुभार्चनैः ॥ . ॐ ह्रीं ब्रह्मचर्यसंयुक्तदर्शनविशुद्धये जला० ॥५३॥ मनोवचनयोगेन अन्तर्बाह्यपरिग्रहान् । त्यक्त्वा सन्तोषमापन्न पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं परिग्रहविर तिदर्शन• जलादिकम् ॥५४॥ पूर्वपश्चिमयोनूनं दक्षिणोत्तर भागयोः । प्रमाणं योजनैर्यस्य पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं दिग्वतयुक्तदर्शन० जलादिकं ॥५५॥ अग्निनैऋत्य कोणेषु व्रतं दधाति यो मुनिः । अहिंसावतरक्षार्थ पूजये तम् शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं विदिग्संख्यायुक्त दर्शन० जलादिकं ॥५६।। शुककुकरमार्जार कुठारासि ह्यनर्थकान् । न पुष्णाति कदा साधुः पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं अनर्थदण्डविरतिदर्शन० जलादिकं ।।५७।। सामायिकवताशक्तं द्वात्रिंशदोषदरगं । समता भावसम्पन्नं पूजये तं शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं सामाथिकसंयुक्तदर्शन० जलादिकं ॥ ८॥
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९८] दि. जैनबसोबापन संग्रह ।
भूताष्टमीषु पर्वेष प्रोषधे लीनमानसं । सद्धर्मामृतसन्तुष्टः पूजये तम शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं प्रोषधोपवाससंयुक्तदर्शन० जलादिकं ।।५९॥ भोगोपभोगसंख्यानं यः करोति विशुद्धये । रत्नत्रयव्रताधारः पूजये तम् शुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं भोगोपभोगविरतिदर्शन० जलादिकं ॥६०॥ अतिथीनां यतीनां च करोत्योदरशुश्रषां । सल्लेखनां करोत्येव पूजये त शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं अतिथिसंविभागसंयुक्तदर्शन० जलादिकं ॥६॥ विविक्तशय्यासनानां हि पापारम्भपराड्मुखः । नैव स्पर्श करोत्येव पूजये तशुभार्चनैः ।। ॐ ह्रीं विविक्त शय्याशनकृतदर्शन० जलादिकं ।।६।। करोति सर्वदा ननं कायक्लेशतपोमहत् । धनाहारेण पुष्टांगः पूजये तं शुभाचनैः ।। ॐ ह्रीं कायक्लेशसंयुक्तदर्शन० जलादिकं ॥६३।। व्रतेन जायते दोषः पूर्वकर्मानुसारिणः । तद्दोषरहितः योगी पूजये तं शुभाचनः ।। ॐ ह्रीं स्वाध्यायसंयुक्तदर्शन० जलादिकं ॥६४।। हस्तपादादिसंभारवर्जित काष्टवत् मुनिः । कायोत्सर्गव्रतारूढः पूजये तं शुभार्चनेः ।। ॐ ह्रीं कायोत्सर्गसंयुक्तदर्शन० जलादिकं ॥६५॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ 33
पिंडस्थध्यानयोगेन रूपस्थेन विशेषतः । करोति स्वात्मनो ध्यानं पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं स्वात्मध्यानसंयुक्तदर्शन० जलादिकं ॥ ६६ ॥ त्रसस्थावरजीवेषु कृपाक्रांतमनो वचः । रागद्वेषमदाद्धीनः पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं समताभावसंयुक्तदर्शन० जलादिकं ||६७ || भव्य सत्त्वहितोदेशी दर्शनप्रतिमावरा | विस्तारयति यो भव्यः पूजये तम् शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं दर्शनप्रतिमायुक्तदर्शन० जलादिकं ॥६८॥ अव्रतीषु जनेष्वेव दोषाः सन्ति विशेषतः । व्रतं करोति यो धीरः पूजये तं शुभाचनैः ॥ ॐ ह्रीं व्रतप्रतिमायुक्तदर्शन० जलादिकं ॥६९॥ पर्वते निर्जने स्थाने चारण्ये पितृभूमिषु । सामायिकं व्रताशक्तं पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं सामायिकयुक्तदर्शन० जलादिकं ||७०ll उपवासरतो धीरो गतशोको विचक्षणः । प्रोषधव्रतमाधत्ते पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं प्रोषधव्रतप्रतिमायुक्तदर्शन० जलादिकं ॥ ७१ ॥ सचित्तवस्तु संत्यक्त्वा सचित्तप्रतिमा मता । प्रासुके वस्तुनि बोधः पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं सचित्तविरतियुक्तदर्शन० जलादिक ॥७२॥
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१०० ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
रात्रिभोजनयोगेन हिंसाकर्म प्रजायते । निशिभोजनसंत्यागी पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रींरात्रिभोजनविरतिदर्शन० जलादिकं ॥७३|| दिवे हि मिथुनात्पापं जायते सर्वदेहिनां । तत्पापाद्विरताह्मः पूजये तं शुभाचनैः ॥ ॐ ह्रीं दिवामैथुनत्यागप्रतिमायुक्तदर्शन० जलादिकं ||१४|| मनोवाक्कायसंशुद्धया मैथुनं त्यजति व्रती । ब्रह्मचारी महापूत पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं ब्रह्मचर्यप्रतिमायुक्तदर्शन • जलादिकं ।।७५।। सर्वारम्भपरित्यागः सर्वपापनिवारकः 1 प्रारम्भं न कहोत्येव पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं आरम्भत्यागप्रतिमायुक्तदर्शन० जलादिकं ॥ ७६ ॥ अन्तबाह्यद्विधा संगान् यो दूरी कुरुते व्रती । तद्दोषाद्विरतः शङ्खं पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं परिग्रहविरतिप्रतिमायुक्तदर्शन० जलादिकं० ॥७७॥ | कस्यापि वस्तु न चित्ते न कस्येत्यनुमोदनं । दशमी प्रतिमा युक्तः पूजये तं शुभाः ॥ ॐ ह्रीं अनुमतित्यागप्रतिमायुक्तदर्शन० जलादिकं ॥७८॥ प्रासुकाहार संग्राही चोद्दिष्टाहारवर्जितः । सर्वदोषविनिमुक्तः पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं उद्दिष्टाहाररहितदर्शन० जलादिकं ॥ ७९॥
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दि० जेनव्रतोद्यापन संग्रह |
| १०१
मुहूर्तैकगते नीरं मुहुर्गालयते सुधीः । सद्व द्विगुणी कृत्य पूजये तम् शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं जलगालणसहितदर्शन० जलादिकं ||८०|| सर्वेषां सज्जनानां यो निशाहारविवर्जकः । रात्रिभोजन सत्यक्तः पूजये तम् शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं रात्रिभोजनविरतिदर्शन० जलादिकं ॥ ८१ ॥ जीवादिसप्तत्वानां श्रद्धानं हि करोति यः । शुद्ध सम्यक्तमापन्नः पूजये तम् शुभाचनैः ॥ ॐ ह्रीं सम्यक्तशुद्धिदर्शन० जलादिकं ॥ ८२ ॥ मतिश्रुतावधिश्चेति मनः पर्यय केवलम् । ज्ञानं चाष्टविधं यस्य पूजये तम् शुभार्चनः ॥ ॐ ह्रीं सत्यज्ञानदर्शन० जलादिकं ॥८३॥
महाव्रतानि पंचैव त्रिगुप्तिसमतिस्तथा । चारित्रं यस्य चित्तेस्ति पूजये तम् शुभार्चनंः ॥ ॐ ह्रीं शुद्धचारित्रदर्शन० जलादिकं || ८४|| प्रथमे भारते क्षेत्रे जिनाः कर्मविनाशकाः । तेषां सद्दर्शनं यस्य पूजये तम् शुभार्चनैः ॥
A
ॐ ह्रीं प्रथमजिनोद्भवदर्शन० जलादिक ॥८५॥ द्वात्रिंशत् विदेहाश्च तेषु जाता जिनोचमाः । यस्य मेषां पशभक्ति पूजये सम्मार्थः ॥ ॐ ह्रीं विहक्षेत्र
। 検便
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१०२ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
॥
येऽत्रसंजाता जैनेन्द्राः क्षेत्रे ऐरावतावनी | दर्शन' यस्य तेषां हि पूजये तं शुभार्चनैः || ॐ ह्रीं ऐरावतक्षेत्रोद्भवदर्शन० जलादिकं ॥ ८७॥ प्रथमे भारते क्षेत्रे कर्म नष्टा जिनोत्तमः । मानसे दर्शन येषां पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं घातकी खण्ड प्रथमभरतोद्भवजिनदर्शन • जलादिकं ॥ ८८ ॥ भारतेद्वितीय क्षेत्रे ये सन्ति जिनपुंगवाः । यस्य तेषां हृदि ध्यान पूजये तं शुभार्चनैः ॐ ह्रीं धातकीखण्डद्वितीयभरतोद्भवजिनदर्शन • जलादिकं ॥ ८९ ॥ धातक्या च जिनान् सर्वान् विदेहे पूर्वपश्चिमे । विभावयति सम्यक्त पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं घातकीविदेहजिनप्रणीतदर्शन० जलादिकं ॥९०॥ धातक्यैरावते क्षेत्रे प्रथमे जिनपुंगवान् । यो धारयति सम्यक्तं पूजये तं शुभाचनैः ॥ ॐ ह्रीं धातक्यैरावतक्षेत्र प्रणीतजिनदर्शन • जलादिकं ॥ ९१ ॥ धातस्यैरावतक्षेत्रे द्वितीये जिनपुंगवान । यो धारयति सम्यक्तं पूजये त शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं घातक्यैरावतद्वितीयजिनप्रणीतदर्शन० जलादिकं ॥ ९२ ॥ भारते पुष्करे जाता पूर्वमेरुजिनाश्च ये । तेषां सद्दर्शन यस्य पूजये तं शुभार्चनैः ॥
ॐ ह्रीं पुष्करपूर्वेभ रते जिनप्रणीतदर्शन० जलादिकं ॥९३॥
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । [ १०३ पश्चिमे पुष्करे मेरु जिनो द्वितीय भारते ।
तेषां सद्दर्शन यस्य पूजये तं शभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं पुष्करद्वीपे द्वितीयभरतजिनप्रणीतदर्शन० जला० ॥१४॥
विदेहे पूर्वके देवा महाद्वीपे च पुष्करे ।
तेषां सद्दर्शन यस्य पजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं पुष्करद्वीपेपूर्वविदेहेजिनप्रणीतदर्शन• जलादिकं ॥९॥
पुष्करे पश्चिमे सारे विदेहे जिननायकाः ।
यो विभ्रति सुसम्यक्त पूजये तं शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं पुष्करद्वीपेपश्चिमविदेहेजिनप्रणीतदर्शन० जलादिकं ॥९६॥
ऐरावते शुभे क्षेत्र पूर्वे च मेरुपर्वते ।
यो धारयति सम्यक्तं पजये तम् शुभार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं पुश्करैरावतपूर्वमेरुजिनप्रणीतदर्शन• जलादिकं ॥९॥
पुष्करैरावते क्षेत्रो पश्चिमे मेरुपर्वते ।।
यो धारयति सम्यक्तं पूजये तं शुमार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं पुष्करैरावतेपश्चिममेरुजिनप्रणीतदर्शन० बलादिकं ॥९८॥ सुनीरगंधैः कुसुमैश्च तंदुलैः द्रव्यश्च गंधर्वरमातुलिंगकः । सदशनाख्यां परमां पवित्रां श्रीभूषणानां परिपूजयामि ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धये महापं निर्वपामोति स्वाहा ।
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१०४ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ जयमाला। त्रिभुवननिर्जित चरणं, भवभय हरणं सविपातिक दूरी करणं । किल शिवसुख करणं, भवजल तरणं हतभय मरणं सुगुणमई ।।१॥ दंसण हीण भमई संसारह, दसण हीण लहइ अवतारह । दंसण हीणय कुगइ पामइ, दसण हीण भमइ संसारह ॥ २ ॥ दंसण हीण लहइ अवतारह, दंसण हीण णर दुह गमइ । दसण हीण भमइ छहु कालह, दंसण हीण पडइ जंजालह ।।३। दंसण हीण निगोद जावइ, दसण हीण भमइ त्रसथावर । दसण हीण लहह महादुःखह, दसण हीण न पामइ सुखह ॥४॥ दसण होई सुरपद दाता, दसण सुगति रमणी सुह साता । द सण केसरपद धरइ, दसण इन्द अमर सुह करइ ।।५।। दसण कम्मकलङ्क विणासण, दंसण धम्मकरण्ड णिवासण । दसण भव सायर वर तारण दसण अविचल शिवपदकारण ॥६॥ भुवि दसण सारह कम्म णिवारण, धम्म रहण शिव सुहभण्डारह । सिरिभूषण भव्य गतमदगद्य, चन्द्रकीर्ति सिद्धांत कहे ।। ७ ।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धये पूर्णाघ ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ विनय भावना |
सर्वज्ञदेवेन विनिर्मितायां
भव्यात्मनां कर्मकलंकशांत्य ।
संस्थापये तां विनयादि जातां
[ १०५
चतुर्विधां श्रीजिनधर्मरूपां ॥
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताश्वतर २ संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठः ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । देवशास्त्रगुरूणां च दुविधां च तपस्विनां । तथा च गुणवृद्धानां कर्तव्यो विनयो महान् ॥ ॐ ह्रीं चतुर्विधसांगोपांगयुक्त विनयसम्पन्नताये जलादिकं ||१|| रोगसंक्रात वृद्धानां तथा विद्यावतां मतां । करोति विनयं यो हि पूजये तां सुभावतः ॥ ॐ ह्रीं दर्शनचारित्रसंयुक्ततपस्वी विनयसम्पन्नतायै जलादिकं ॥२॥ समाधानं करोत्येव आर्यिकाणां विशेषतः । जैनधर्मसुवृद्धयथं पूजये तं सुभावतः ।। ॐ ह्रीं आर्यिका संजातविनयसम्पन्नतायै जलादिकं ||३|| अणुव्रताधिकारिणां श्रद्धानां ब्रह्मचारिणाम् । करोति विनयं यो वै पूजये तं सुभावतः ॥ ॐ ह्रीं सम्यक्तसंयुक्तश्रावकसंजात विनय सम्पन्नताये जलादिकं ॥४ श्रावकाचार शुद्धानां श्राविकाणाम् विवेकवान | करोति विनयं यो वै मुनये त सुभावतः ॥
.
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१०६ ] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । ॐ ह्रीं सम्यक्तसंयुक्तश्राविकासंजातविनयसम्पन्नतायै जला० ॥५॥ सतोयगंधैः कुसुमैः शुभाक्षतेश्वरुसुदीवरधूपसत्फलैः । सद्भावनांतां विनयादि जातां चर्ने सदाकर्मकलङ्कत्यैि ॥
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नतायै अघं।
अथ जयमाला। सिरि जिन धम्मे गुणगण हम्मे, विणय विवेक समुच्चरिय। सिरि गोयम देवे कुन्द मुणिंदे चउविह संघ समुच्चरियं ॥१॥ विनयेण हवइ संसारकाज, विनयेण लहइ सुरपुरीय राज विनयेण हवइ पंचणाण विनयेण होसि शीवपुरीय वास ॥२॥ विनयेण होइ सवि अरीयमित्र, विनयेण हवह वसणिय चित्त । विनयेण देव पसण्ण होय, विनयेण मण आनन्द लोय ॥ ३ ॥ विनयेण होइ धम्मादि काज, । विन येण पसरह बहुय लज्ज । विनयेण हवइ जिन शुद्ध जाण, विनयेण णासइ जम्म मज ।४। इय विण तिण गुणवंता मुनिजणसंता, धम्मखाण मुणिगण कहीयं । ते मवसु तारण ताप निवारण, सहीरी भूषयं सुख लहीयं ॥५॥
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नतायै जयमाला महाध्यं ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ शील भावना |
।
शीलायं कामगजेन्द्रसिंह
[ १०७
कायेन वाचा मनसा च नित्यं ।
संस्थापयं मोक्षप्रदाय सारं त्रिकर्णशुद्धया जलचन्दनाद्यैः ||
ॐ ह्रीं शीलभावनात्रावतर २ संघोषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ
ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
けれ
अष्टादशसहस्रैश्च भेदैर्ब्रतं महोत्तमं । पालनीयं सदा सद्भिः समताशीलभावना ॥ ॐ ह्रीं दशविधसांगोपांगयुक्तशील व्रतेष्वनतीचाराय जलादिकं ॥ सुररामा विकारघ्नं मदनोद्वारवर्जितं । शीलरक्षासमापन्नं चर्चये स्वष्टद्रव्यकैः ॥ ॐ ह्रीं देवत्रीशीलभावनायें जलादिकं ॥ १ ॥ मानुषीरमणीत्यक्तं शुद्ध शीलसमन्वित ं । विकारो नैव यस्यांगे चर्णये स्वष्टद्रव्यकैः ॥ ॐ ह्रीं मनुष्यस्त्रीविरतिशीलभावनाये जलादिकं ॥ २ ॥ मनसा वचसा वपुषा विकारो न तु सर्वथा । पशुखीविरति साधु चर्चये स्वष्टद्रव्यकः ॥ ॐ ह्रीं पशुखीविरतिशीलभावनाये जलादिकं ॥ ३ ॥ काष्टचित्रगता कांता विरतं वनवासिनम् । मकरध्वजदनं चर्षये स्वष्टद्रव्यकेः ॥ ॐ ह्रीं चित्रकाष्टविरतिसीच नावनाये जलादिकं ॥ ४ ॥
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१०८ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
मनसा भोगविरतं जीवसंगनिराकृतं । ब्रह्मचर्यसमापन्न चर्च ये स्वष्टद्रव्यकः ॥ ॐ ह्रीं मनसा भोगविरतिशोलभावनामै जला० ॥५।। वचसा विरतं साधु वक्रवाचानिराकृतं । धर्माधार व्रतैयुक्तं चर्चये म्बष्टद्रव्यकः । ॐ ह्रीं वचसा कृतिभोगविरतिशोलभावनाग जला० ॥६॥ वपुषा विरत साधु कांताकटाक्षय र्जित । मेरुधर्य समापन्न चर्चये स्वष्टद्रव्यकैः ॥ ॐ ह्रीं कायभोगविरतिशीलभावनामै जलादिकं ।।७।। आत्माना विहिते भोगे विरत मुनिपुङ्गवम् । शीलभावसमापन्नं चर्चये स्वष्टद्रव्यकः ।। ॐ ह्रीं आत्मकृतभोगविरतिशोलभावनाये जलादिकं ॥८॥ अन्यस्यात्मकृतस्योपभोगकमेनिषेधन ।।
शीलभावसमापन चर्चये स्वष्टद्रव्यकैः ।। ॐ ह्रीं आत्मना कारितभोगविरतिशीलभावनामै जला० ॥९॥
अन्यस्मिन विहिते भोगे नानुमोदयति यतिः । शीलरत्नसमापन चर्चये स्वष्टद्रव्यकैः ।। ॐ ह्रीं परानुमोदनविरतिशील० जलादिकं ॥१०॥ सर्वसिद्धिप्रदोलोके धर्मशानुबंधिनी । चर्चये जलमुख्याष्टद्रव्यः श्रीज्ञानसागरं ॥ .. ह्रीं शीलभावनायै महाघ ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
। १०९:
अथ जयमाला ।
कृतकर्मविणासं सुगुण पयासं, सुरनरपतिसेवित चरणं जरमरणविणासण कुगइ निरासण सारशीलमानव सरणं ॥१॥ शील रयण बहुमूला सार, शीले तरइ संसार पार । शीलेन शद्धणय । सद विबोध, शीले हवइ इन्दिय निरोध ॥२॥ शीले नमइ सादुल पाय, शीले हवाइ सुरणर सहाय । शीलेन विणासय सय दुःख, शीलेन कलह नर मोक्ष सुख ॥३॥ शीलेन खग नित करइ सेव, शीलेन नमइ नित अखिलदेव । शीलेन विजय तियलोकमज्ज, शीलेन सरह सविधम्म कज्ज ॥४। शीलेन भुवन तित्थरयकीर्ति, शीलेन लहइ णर अखय वित्ति। शीलेन वन्हि जल रुव होय, शीलेन माणव बहु करइ लोय ॥५॥ शीलेन होइ इह सफल जम्म, शीलेन सरइ सविपुण कम्म। शीलेन मोक्ष पदवि णिवास, शीलेन होइ लोला विलास ॥६॥
घत्ता । भुविपार निकंद मुनिवचवृन्द, कम्म विखंडण धम्ममयं । जगजयजयकरणं शीलसुसरणं, संसारांबुद्धि शुभतरणं ॥ ॐ ह्रीं शीलवतेष्वनतिचाराय पूर्णाघ ।
॥ इति शीलभावना ॥
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११० ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना
प्रबोध पापनाशं च चिदानंद महोदयं । स्थापयामि शुचिभक्त्या ब्रह्मज्ञानं सुखास्पदं ॥
ॐ ह्रीं ज्ञानभावनात्रावतर २ संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । द्वादशांगं सुसिद्धांत चतुर्विधसमुद्भवं । पट्य पाठयते नित्यं ज्ञानोपयोगभावना || ॐ ह्रीं द्वाचत्वारिंशसांगोपांगयुक्ताभीक्ष्णज्ञानोपयोगाय जलं० प्रथमानुयोगवेदांग भेद जानाति यो मुनिः । जलचन्दन पुष्पौधैः पूजये तं मुनीश्वरं ॥ ॐ ह्रीं प्रथमानुयोगवेदभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥१॥ करणानुयोगनामानं वेद यो वेत्ति संयमी ॥ जलचन्दन ० ॐ ह्रीं करणानुयोगवेदभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥२॥ चरणानुयोगद्वेद भेदाभेदेन वेत्ति यः ॥ जल० ॥ ॐ ह्रीं चरणानुयोगवेदभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥३॥ द्रव्यानुयोगवेद हि सदा यो वेत्ति तत्वतः । जल ० ॥ ॐ ह्रीं द्रव्यानुयोग वेदभावनाप्राप्तमुनये जला० ||४|| आचारांग महाज्ञानं यो वेत्ति मुनिपुंगवः । जलचन्दनपुष्पौघैः पूजये तं मुनीश्वरं ॥ ॐ ह्रीं आचारांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ||५||
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
| १११
सारं सूत्रकृतागं यः प्रकाशयति संयमी ॥ जल० ॥ ॐ ह्रीं सूत्रकृतांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ||६||
सुस्थानांग पर पुण्यां मेदभावेन यः स्मरेत् ॥ जल०|| ॐ ह्रीं स्थानांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥७॥ समवायांगमहत् ज्ञान यो वेत्ति मुनिसत्तमः । जल० ॥ ॐ ह्रीं समवावांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥८॥ वादांगं वेत्ति यो साधुः सर्वसावद्यनाशकं ॥ जल ० ॥ ॐ ह्रीं विवादांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥९॥ ज्ञातृकथांगज्ञातारं धीरवीरमहोदयं । जल० ! ॐ ह्रीं ज्ञातृकथांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥१०॥ श्रावकाचारविस्तारदेशकम् भव्यबोधकम् । जल० । ॐ ह्रीं श्रावकाचारभावनाप्राप्तमुनये जला० ||११|| अन्तःकुद्दशधर्मांगं भेदाभेद विदांवरं । जल० । ॐ ह्रीं अन्तकृतदशांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥१२॥ अनुत्तरोपपादांग विस्तारं वेत्ति यो मुनिः । जल० । ॐ ह्रीं अनुत्तरोपपादांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ||१३|| विपाकसूत्रांगं सार विपाककर्मसूचकं । जल० । ॐ ह्रीं विपाकसूत्रांगभावनाप्राप्तमुनये जला० 118811 शब्दापशब्दवेत्तारं प्रश्नव्याकरणस्य यः । जल० । ॐ ह्रीं प्रश्नव्याकरणभावनाप्राप्त मुनये जला० ॥ १५॥ दृष्टिवाद दयायुक्त सर्वज्ञवदनोद्भवं । जल० । ॐ ह्रीं दृष्टिवादभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥ १६ ॥
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११२ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
चन्द्रपज्ञप्तिज्ञातारं भव्यसत्वप्रबोधकम् ॥ जल० ॥
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रज्ञप्तिभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥१७॥ सूर्यप्रज्ञप्तिवेत्तारं भेदाभेदप्रकाशकम् । जल० ॥
ॐ ह्रीं सूर्यप्रज्ञप्तिभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥१८॥ द्वीपसागरभेदज्ञ गणनामानकारकम् । जल० ॥
ॐ ह्रीं द्वीपसागरभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥१९॥ द्वीपपर्वतवद्यादिवेदकं शास्त्रदीपकम् । जल० ॥
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥२०॥ व्याख्याप्रज्ञप्तिवेत्तारं भव्यजीवहितावहं । जल० ॥
ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तिभावनाप्राप्तमुनये जला० ।।२१।। सूत्रार्थभेदज्ञातार सर्वजीवादयापर । जल । ॐ ह्रीं सूत्रभेदभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥२२॥
पूर्वगतविचारज्ञ पवित्रं पापभंजकम् ॥
जलचन्दनपुष्पीधैः पूजये तं मुनीश्वरं ।। ॐ ह्रीं पूर्वगतभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥२३॥ नीरागतमहाविद्यां यो वेत्ति भवतारकः । जल० ॥
ॐ ह्रीं नीरागतभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥२४॥ स्थलगामि महाविद्यां प्राप्तये च मुनीशिनं । जल० ।।
ॐ ह्रीं स्थलगतभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥२५।। मायागतपराविद्यां तां वेक्ति यो मुनीश्वरः । जल० ।। ॐ ह्रीं मायागतभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥२६॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ११३ रूपप्राप्तमहाविद्यां बहुरूपप्रकाशिकां । जल० ॥ ॐ ह्रीं रूपगतभावनाप्राप्तमुनये जलादिकं ॥२७॥
आकाशगमने साधु व्योमविद्या विशारदं । जल० ॥ ॐ ह्रीं आकाशगतभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥२८॥ उत्पादपूर्वांगंशुद्ध यो वेत्ति यतिनायकः । जल०॥ ॐ हीं उत्पादपूर्वांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥२९॥ . अग्रायणीयपूर्वे हि गम्भीरं धीरमानसं । जल०॥ ॐ ह्रीं अग्रायणिभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥३०॥ वीर्यानुवादं पूर्वे च समर्थः यो यतीश्वरः । जल० ॥ ॐ ह्रीं वीर्यानुर्वांदभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥३१॥ अस्तिनास्तिप्रवादांगं यो वेत्ति धर्मनायकः । जलचन्दनपुष्पौधेः पूजते तं मुनीश्वर ॥ ॐ ह्रीं अस्तिनास्तिप्रवादभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥३२॥ ज्ञानप्रवादज्ञातारं संघर्बोधनतत्परं । जल० ॥ ॐ ह्रीं ज्ञानप्रवादपूर्वांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥३३॥
सत्यप्रवादपूर्वांगं तस्य ध्याने विचक्षणं । जल०॥ ॐ ह्रीं सत्यप्रवाद भावनाप्राप्तमुनये जला० ॥३४॥
आत्मप्रवादपूर्वांगं यो वेत्ति मुनिसत्तमः । जल०॥ ॐ ह्रीं आत्मप्रवादपूर्वांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥३५॥ कर्मप्रवादपूर्वागं यो जानाति गुणाग्रणी । जल० ॥ ॐ ह्रीं कर्मप्रवादभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥३६॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
प्रत्याख्यानमहापूर्वे यो श्रुतिशास्त्रपारगः । जल० ॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानपूर्वागभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥३७॥ विद्यानवादपूर्वांगं येनांगीकृतमद्भुतं । जल० ॥ ॐ ह्रीं विद्यानुवादपूर्वागभावनाप्राप्तमुनये जला० ||३८|| कल्याणपूर्वनाम्ना हि ज्ञातं येन मुनिशिना । जल० ॥ ॐ ह्रीं कल्याणवादपूर्वांगभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥३९॥ प्राणानुवादपूर्वांगं धर्मध्यानविशारदं । जल० ।। ॐ ह्रीं प्राणानुवादपूर्वागभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥४०॥ विशालपूर्व संशुद्ध विदग्वं बोधपारगं । जल० || ॐ ह्रीं विशालपूर्व भावनाप्राप्तमुनये जला० ॥ ४१ ॥ लोकबिन्दुसुपूर्वांगे धातारं धर्मदेशकम् । जल० ॥ ॐ ह्रीं लोकविदुतापूर्वागभावनाप्राप्तमुनये जला० ||४२|| ज्ञानं नराणां सुखदं प्रमाणं तत् साधुनां सौख्य सहायभूतं ।
११४ ]
संपूजये सज्जलचन्दनौघः
कर्मक्षयायामलबोधकाय ॥
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावना० महाघं ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ जयमाला ।
9
"
जिनवर मुखजातं जगविख्यात कुमइभाव दूरीकरणं । गणधरवरगणियां मुनिवर भणियं सकललोय पावण सरणं ॥ णा भावण भवभय भंजन, णाण तिलोय भविक मनरंजन । गाण जरामरणादिक वारण, णाण कषाय कलंक निवारण | णाण भट मद माण णिकंदण, णाण भवनतप पाप निकंदन । णाण भावना शिवगुरु दाता, णाण फले तिहुयण वरसाता || णाण जिणंद वदणदो जातं, अंगु उपांग वेद विख्यात । णाण रिसिह गाण उवस्सं णाण दाण दि जूइ
[ ११५
,
अविछेणं || णाण सदा मद अठ विहंडण, णाण वस इंदिय परिखण्डण । णाण अपार संसार सुतारण, णाण सदा
-कल्लाह कारण ।
घत्ता ।
शिव संपयकारण भवजलतारण
कम्म निवारण णाणवरं ।
सिरिभूषण महियं बहुगुण सहियं बंभणाण भणियां परमं ॥ ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनाय पूर्णां ।
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११६ ]
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ संवेगभावना ।
संसारसारसं त्यक्तं दुःखराशिक्षयंकरं । स्थापयामि त्रिशुद्धयाहं आह्वानन तत्पूर्वकं ॥
ॐ ह्रीं वैराग्यभावनात्रावतर २ संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठः ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
पुत्रमित्रगृहारम्भदारेभ्यो निवृत मनः । सा विरक्तिबुधैः ज्ञेया नरस्य बुद्धिदायनि ।। ॐ ह्रीं चतुर्दशसांगोपांगयुक्तसंवेगनाय जलादिकं ॥ सप्तलक्षधराकायं कदापि न वीराधति । वैराग्यभावसम्पन्न चर्चये जलचन्दनः ॥ ॐ ह्रीं पृथ्वीकायोद्भववैराग्यभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥१॥ सप्तलक्षकुयोनिस्थजलकायनिरस्तधिः । वैराग्य० ॥
ॐ ह्रीं जलकायोद्भववैराग्य० जला० ॥२॥ तेजस्कायोद्भव दुःख सप्तलक्षकुयोनिष । नैराग्य० ॥
ॐ ह्रीं तेयुकायोद्भववैराग्य० जला० ॥३॥ वायुकाये महादुःखे पूर्णसंख्ये' कुलक्षणे । पैराग्य० ॥
ॐ ह्रीं वायुकायोद्भववैराग्य० जला० ॥४॥ दशलक्षकुयोनौ च छेदे भेदे परे तरौ । वैराग्य० ॥ ॐ ह्रीं तरूकायोद्भववैराग्य० जला० ॥५॥ १-सप्तलक्ष वायुकाय।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । निगोददुःखसंत्रस्तं नित्यनामभयप्रदं । नैराग्यभावसंपन्नं चर्चये जलचन्दनैः ॥ ॐ ह्रीं नित्यनिगोद्भववैराग्यभावनाप्राप्तमुनये जला० ॥६॥ सप्तलक्षपरे भेदे त्वेतरे दुःखदे खले । नैराग्य० ॥ : .
ॐ ह्रीं इतरनिगोद्भववैराग्य० जला० ॥७॥ द्विन्द्रिया बहवो जीवाः कीटकृमिमहीलताः। नैराग्य० ॥
ॐ ह्रीं द्वन्द्रिीयोद्भववैराग्य० जला० ॥८॥ त्रिन्द्रियो बहवो जीवा मधकोटकपिपीलिका । वैराग्य० ॥
ॐ ह्रीं तींद्रीयोद्भववैराग्य० जला० ॥९॥ मक्षिकाश्च पतङ्गादि द्विरेफाश्चतुरिन्द्रिया । वैराग्य० ॥
ॐ ह्रीं चतुरिंद्रियोद्भववैराग्य० जला० ॥१०॥ पञ्चाक्षा मनुजा लक्षचतुर्दशप्रमेषू च । नैराग्य० ॥
ॐ ह्रीं पंचेद्रियोद्भववैराग्य० जला० ॥११।। चतुर्लक्षामरे दुःखे देवयोनौ परान्मुखं । नैराग्य० ॥
ॐ ह्रीं देवगतिदुःखोद्भववैराग्य० जला० ॥१२॥ शीतोष्णवेदनाजातदुःखानि सन्ति नारके । गैराग्य० ॥ __ॐ ह्रीं नरकगतिदुःखद्भववैराग्य० जला० ॥१३।। तिर्यञ्चजातिभेदेष चतुर्लक्षेष य दुःख । नैराग्य० ॥ ॐ ह्रीं तियंचगतिदुखोद्भववैराग्य० जला० ॥१४॥ चतुराशीतिलक्षेषु दुःख जातं भवे भवे । तं दुःखहानयेऽस्माभिः पूजितं जलचन्दनैः ॥ ॐ ह्रीं वैराग्यभावनाप्राप्तमुनये ।। महाघ ।
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११८ ]
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ जयमाला।
सिरि तित्थेसर भव्यदिणेसर रिसहेसर जिण प्रगट कियं । वर बाहुबली भरतेसर सुन्दर रिसहसेण मण शुद्धलियं ॥ वैरागेण सफल होई जम्म नैरागेण हवइ पुणकम्म । वैरागेण तरइ सृति सेत नैराग्यं भव दुह छन्दण मित्त ।। गैराग्य मोह माया हरन्त, नैराग्य अणुबय सुह धरन्त ॥ नैरागेण उपजई सिद्धि, नैरागेण लहई शिव रिद्धि । वैरागेण णमई णर पाय, नैरागेण कुपाप पलाय । नैरागेण सकल होइ सिद्धि, वैरागेण लहइ शिव रिद्धि ॥ गैरागेण लहइ सुख खाण, शुद्ध नैराग्य दिजइ माण। नैराग्ये भव सफल करज्जइ, पुण रवि आवागमण न कीजइ ॥
घत्ता । नैराग्यमुर्णिदह दुःख निकन्दह
भवभयफन्दह भयहरणं । णिखिलागमनायक शिवपददायक
भव्यजनस्स सदा सरणं ॥ ॐ ह्रीं संवेगभावनायै पूर्णांर्घ० ।।
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दि. जैन ब्रतोद्यापन संग्रह ।
• अथ शक्तितस्त्याग भावना। चतुर्विधजिनेद्रस्योद्भुतां पापमलापहां । स्वर्गमोक्षवशीभूतां स्थापयामि यथागर्म ॥
ॐ ह्रीं दानभावनात्रावतर २ संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
भोगभूमिभव सौख्यं या ददाति सुभावना । तदोपदेशनं साधु यजे पुष्पवराक्षतैः ॥ ॐ ह्रीं आहारदानभावनोपदेशकायमुनये जलादिकं ॥१॥ श्री जिनेन्द्रमुखोत्पन्नं ज्ञान यो मुनि भाषते । तस्य भावनया रक्तं यजे पुष्पवराक्षतैः ।। ॐ ह्रीं ज्ञानदानभावनारतमुनये जला० ॥२॥
रोगशांतिकरं शुद्ध भेषजं यो ददातिवै । तस्य० ॥ ॐ ह्रीं सर्वोषधिद्धियुक्तमुनये जला० ॥३॥ स्थावरजंगमजीवेषु दयादानं ददाति यः। करूणामृतसंतृप्त यजे पुष्पवराक्षतैः ॥ ४ ॥
ॐ ह्रीं अभयदानभावनारतमुनये जला० ॥४॥ . दानेन ज्ञानं च यशस्त्रिलोके,
दानेन सौख्यं भवनोद्भवं च ।। दानेन नाभेय जिनोत्तमोऽभू,
तस्माद्यजे दानमनल्पपुण्योः ।। ॐ ह्रीं दानभावनाय महा।
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१२०]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
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अथ जयमाला।
सिरि जिणवर कहियं पाटविर हियं चतुविह दाणमनंत फलं । गणधर विछरीयं बहुगुणभरियं चंदभासदो अतिविमलं ॥१॥ दाणेन जीव आरज होय, दाणेन न वेर मंडेन कोय । दाणेन सुरेंदह भोग सार, दाणेन लहइ संसार पार ॥२॥ दाणेन णरंदह करइ सेव, दाणेण होइ पसण देव । दाणेन रोग णवि अंग होय, दाणेण पसण भुवण लोय ।३। दाणेन भोग धरासु सुख, दाणेन लहइ परम सुख, दाणेन सु वंतरणमइ पाय, दाणेन सुवर्णय होय काय ॥४॥ दाणेन अट्ठ भोगाधि सार, दाणेन पंच विमाणकार । दाणेन होय गृहकणध धार, दाणेण रयण चउदसे सु सार ।। ५॥
धत्ता। रिसेसर कहिवा तिहुयणमहिया,
दाण भावणा भय हरणी । सिरिभूषण भासि गुणपयासि,
भणण भणाण भवजलतरणी ।। ॐ ह्री दानभावनायै महाघ ।
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दि. जैनव्रतोद्यापन संग्रह । [१२१
अथ शक्तिस्तप। कर्मारिभेदने वज्र किल्विषमेघमारुतं । इच्छितार्थप्रदं शुद्ध स्थापये तत् तपोवरं । ॐ ह्रीं तपोभावनात्रवतर २ संवोषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । दिनैकांतरे शुद्ध वा आहारं भुनक्ति च । एकांतरे युत साधुमपटद्रव्यैः समच ये ।। ॐ ह्रीं एकांतरतपसायुक्तमुनये जला० ॥१॥ द्विदिनांतरयुक्तेन तपसा यो मुनीश्वरः । द्विदिनांतरसंयुक्तमष्टद्रव्यौः समर्च ये ॥ ॐ ह्रीं द्विदिनांतरतपसायुक्तमुनयेजला० ॥२॥ अष्टाह्निनन्तर यो चै भुनक्त्याहारमात्रकम् । अष्टाहातरसंयुक्तमष्टद्रव्यैः समर्च ये ॥ ॐ ह्रीं अष्टोपवासतपसायुक्तमुनये जला० ॥३॥ पक्षोपवाससंयुक्ते तपसां यो. मुनीश्वरः । पक्षोपवाससंयुक्तमष्टद्रव्योः समच ये ॥ ॐ ह्रीं पक्षोपवासतपसायुक्तमुनये जला० ॥४॥ प्रतिमासं मुनींद्रो यः पारणं कुरुते वर । मासोपवाससंयुक्तमष्टद्रव्योः समच ये॥ ॐ ह्रीं मासोपवासतपसायुक्तमुनये जला० ॥५॥
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१२२ ] दि० जैन व्रतोद्यापन मंग्रह ।
षण्मासे पारणं यो वै करोति कर्महानये । षण्मासे तपसायुक्तमष्टद्रव्यौः समर्च ये ॥ ॐ ह्रीं षण्मासतपसायुक्तमुनये जला० ॥६॥ वर्षोपवाससंयुक्तो बाहुबलियतीश्वरः । वर्षोपवाससंयुक्तमष्टद्रव्योः समर्च ये ॥ ॐ ह्रीं वर्षोपवासतपसायुक्तमुनये जलादिकं ॥७॥ दुःखहानिकर पुसां तपो वृद्धि महाबलः। स्वाहानि तपसा युक्तमष्टद्रव्योः समचये ॥ ॐ ह्रीं दुःखहरणतपसायुक्तमुनये जलादिकं ॥६ सदा यो लभ्यते सार श्रुतज्ञानाभिधस्तपः तस्य भावनया युक्तमष्टद्रव्योः समच ये ॥ ॐ ह्रीं श्रुतज्ञानतपोभावनायुक्तमुनये जलादिकं० ॥९॥ सावधानतपो यो वै व्रतानाचरते खलु । द्विषद्भदतपो युक्तमष्टद्रव्यैः समर्च ये ।। ॐ ह्रीं द्वादशभेदतपोभावनायुक्तमुनये जलादिकं ॥१०॥ ग्रासैकादितपोनाम कुरुते यो जितेन्द्रियः ।। एकग्रासतपो युक्तमष्टद्रव्यैः समर्चये ॥ ॐ ह्रीं एकग्रासतपोभावनायुक्तमुनये जलादिकं ॥११॥ मानसे चिंतन यो हि करोति तपसोद्भवं । मनः चिंतनसंयुक्तमष्टद्रव्योः समच ये ।। ॐ ह्रीं मनचिंतिततपसायुक्तमुनये जलादिकं ॥१२॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
त्रिशुद्धया व्रतसंयुक्तं सर्वतोभद्रनामनि । गुणगणनाथोक्तमष्टद्रव्यैः समच्चये ॥ ॐ ह्रीं सर्वतोभद्रतपसायुक्त० जनादिकं ॥ १३॥ सातकुम्भाभिधानेय तपसि सर्वदोद्यमी I मनोवाक्कायसंशुध्यमष्टद्रव्येः समच्चये ॥ ॐ ह्रीं सातकुम्भतपसायुक्त० जनादिकं ॥ १४॥ सिंहविक्रिडितनामतपसा परिमंडित । कर्माणि खलु नश्यन्ति अष्टद्रव्यै समर्चयेः ॥ ॐ ह्रीं सिंहविक्रमतपसायुक्त० नबादिकं ||१५|| वज्रमध्याभिधानेहि तपसि संस्थितो मुनिः । कर्मारिभेदने वज्रमष्टद्रव्यैः समच्चये ॥ ॐ ह्रीं वज्रमध्यतपसायुक्त० जनादिकं || १६॥ तपो मेरुजमध्याख्य ं यः करोति मुनीश्वरः । तस्यभावनया युक्तमष्टद्रव्यैः समच्चये ॥ ॐ ह्रीं मेरुजमध्यतपसा युक्त० जलादिकं ||१७|| उल्लिनोलीनतपसि संस्थितो यो मुनिसत्तमः । कारिकाष्ठाग्निसादृश्यमष्टद्रव्यैः समच्चये ॥ ॐ ह्रीं उल्लिनोलीनतपसायुक्त० जलादिकं ।। १८ ।। मृदंगमध्यतपसा संयुक्तं धर्मदेशकं । कर्मसन्तानहं तारिमष्टद्रव्येः समर्चये ॥
ॐ ह्रीं मृदंगमध्यतपसायुक्तः क्वादिकं ॥ ६९॥
१२३
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१२४ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
धर्मचक्रवतं सारं करोति धर्मसिद्धये । अनालस्यं सुरैः पूज्यमष्टद्रव्यैः समच्चये ॥ ॐ ह्रीं धर्मचक्रतपसायुक्त० जला० ||२०|| रौद्रोत्तर वसंताख्यतपो यः कुरुते यमी । पापारिकुलहंतारमष्टद्रव्यैः समच्चये ॥ ॐ ह्रीं रोद्रोत्तरवसंततपसायुक्त० जलादिकम् ॥ २१ ॥ यो मुनिः कुरुते नित्यमत्रमोदतपो महत् । पञ्च ेन्द्रियमधातीतमष्टद्रव्यैः समच्चये ॥ ॐ ह्रीं अवमौदर्यंत पसायुक्त० जलादिकं ॥ २२ ॥ करोति व्रतशुद्धयर्थं रसत्याग तपो महत् । धर्मध्यानरतं साधुमष्टद्रव्यैः समच्चये । ॐ ह्रीं रसपरित्यागतपसायुक्त० जलादिकं ||२३|| वस्तूसंख्या तपो रम्यं करोति यतिनायकः । कषायभटता भैरमष्टद्रव्यैः समच्चये ॥
ॐ ह्रीं वस्तूसंख्यातपसा युक्त० जलादिकं ॥ २४ ॥ कर्मक्षयं संकुरुते प्रशस्यं ह्यनेकसौख्यालयदानदक्षं ।
जलादिद्रव्यैर्वसुभिः सदा तं
संपूजयामि मुनिं ज्ञानवाद्धिं ॥
ॐ ह्रीं तपोभावनाये महार्घं ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ जयमाला ।
तव धम्म विचारह गुण भण्डारह, सक सुखकारह कम्महरं । रिसि हेसर कहियं कम्म विदहियं, तिहुयण महियं धम्म परं ॥ १ ॥ शुद्धतवेण सुजाण भण्डारह, शुद्धतवेण सुजाण विचार | शुद्धतवेण कषाय विणासह, शुद्धतवेण सकल सद्भाव || २ || शुद्ध तवेण अमरपद पावर, शुद्धतवेण सकल चय भारत । शुद्धतवेण तिलोयह सिद्धि, शुद्धतवेण जिनंदह रिद्धि ॥३॥ शुद्धतवेण सुदेव सहाय, शुद्धतवेण णमइ अरि पाय । शुद्धतवेण कुयोनि विछिज्जड़, अहनिशि शुद्ध तवो इम किजइ || ४ || कम्मकलंक जलंजलि दिज्जइ, शुद्धतवेण परम पद लिज्जइ । शुद्धतवेण भयमद खण्डण, शुद्धतवेण
परम पद मण्डण ||५||
घत्ता ।
बारह तपसारह कम्म निवारणह
[ ११५
सासह सुह संपयकरण ।
सिरिभूषण कहियो तिहुयण महियो,
बंभणाण भव भयहरणो ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागतपसे पूर्णा ।
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-१३६ ] . दि. जैनव्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ साधु समाधि भावना। श्री सर्वज्ञमुखोत्पन्न शिवशर्मविधायनीं। स्थापयामि सदा भक्तया आह्वाननविधायनः ।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधि अत्रावतर २ संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
कुष्ठोदरव्यथाशलः पीडिता ये मुनीश्वराः। यः करोति समाधानं यजे तं मुनिनायकं ।। ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनाप्राप्तमुनये जलादिकं ॥१॥ दुष्टोपसर्गसम्प्राप्तं वधबन्धादिताडने । यो निवारयते साधोः यजे तं मुनिनायकं ॥ ॐ ह्रीं उपसर्गनिवारकभावनाप्राप्तमुनये जलादिकं ॥२॥ मनो दुःख गते यो वै सुश्रुषाभेषजादिभिः । भावेन कुरुते नित्यं यजे तं मुनिनायकं ।। ॐ ह्रीं दुःखविनाशभावनाप्राप्तमुनये जलादिकं ॥३॥ किंचिद्दोषसमायाते निर्मले ते सुशासने । तन्निवारय ते यो हि यजे तं मुनिनायकम् ।। ॐ ह्रीं व्रतरक्षणसाधुसमाधिभावनाप्राप्त० जलादिकं ॥४॥ सर्वाणि दुःखानि क्षयं व्रजति
मुखानि सर्वाणि भवन्ति नित्यं । यस्याः प्रसादाच्छिवसौख्यमुख्य
__ यजे जलादिमुनिज्ञानवाड़ि ॥ ॐ ह्रीं साधुसमाधये महाघ ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ १२७
-
अथ जयमाला। भव जलतारण शिवसुखकारण साधुसमाधि सुपूरणवरो। सविकम्म निवारण धम्म विधासण परमपरा पर सुखः करो। साधुसमाधि मुर्णिदह किजइ, साधुसमाधि महाफल लिज्जा। साधुसमाधि सुधम्म सहाय, साधुसमाधि फले सुरगाय ॥ साधुसमाधि कुरोग निवारण, साधुसमाधि अचलपद कारण । साधुसमाधि महा सुखकारी, साधुसमाधि भवोदधि तारी॥ साधुसमाधि दया गुण मण्डइ, साधुसमाधि महामद छण्डइ। साधुसमाधि विणय संपज्जइ, साधुसमाधि करइ दुह वज्जइ ।। साधुसमाधि सुसुह बहुभासिय, साधुसमाधि निखिलगुण रासिय । साधुसमाधि सदा जिण कहिया, साधुसमाधि महामुनि महिया ॥
घत्ता । सिरिजिण कहिया तिहुयण महिया
साहुसमाहि महा फलदा । मणिधम्म विजुत्ता कम्म विखुत्ता
गंभणाणभासिय वरदा ॥ ॐ ह्रीं साधुसमाधयेपूर्णाघ ।
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१२८ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ वैयात्रत भावना |
धर्मध्यायप्रदां साध्वीं पापाश्रवनिरोधनीं । स्थापयामि जिनोदिष्टां वैयावृत्य सुभावनां ॥
ॐ ह्रीं वैयाव्रतभावनात्रावतर २ संवौषट् । अत्र तिष्ठर
ठः ठः । अत्र मम संन्निहितो भव भव वषट् ।
लाक्षादिकपडिंदेन तैलेनातिसुमर्दनं ।
वैयावृत्तिं करोत्येव यस्तं चर्चे जलादिभिः ॥ ॐ ह्रीं तैलमर्दन वैयावृत्तिभावनाप्राप्त० जलादिकं ॥१॥ उष्णेन वारिणा साधोः करोति तनुमार्जनं । सदा ज्ञानप्रकाशाय यस्त ं चर्च जलादिभिः ॥ ॐ ह्रीं जलसेवावैयावृत्तिभावनाप्राप्त० जलादिकं ॥ २ ॥ तनुमार्जनपादाब्जक्षालन' पीठिमद्दनं । वैयावृत्तिं करोत्येव यस्तं चर्चे जलादिभिः ॥ ॐ ह्रीं हस्तोपचार वैयावृतिभावनाप्राप्त० जला० ॥३॥ शासनासने साधोः विनयान्वितमानसः । वैयावृत्ति करोत्येव यस्तं चर्चे जलादिभिः ॥ ॐ ह्रीं शयनासनवैयावृतिभावनाप्राप्त० जला० ॥४॥ यशोबुद्धिर्धन लोके महत्वं स्यान्महातले । जलचन्दनपुष्पौषैर्ददाम्य महोत्तमं ॥ ॐ ह्रीं वैयावृत्तिकारणभावनाये महाघं ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ १२९
अथ जयमाला। आइ जिनेसर पदनवि कहिया, वैयाविच्चि तिलोय महिया । अमलगुण कलि गणगह भरिया, बाहुबलि मण चक्रम करिया ॥ १॥ वैयाविच्चि मुणिसर किज्जइ, नैयाविच्चि सहाय बलिज्जा । नैयाविचि परम जस पावइ, नैयाविच्चि गिरोस सुवज्जइ ॥२।। गैयाविचि दलिद्द णिवारइ, नैयाविच्चि भवोदधि तारइ । नया विचि अमरपद विजइ, नैयाविच्चि सदा फल लिज्जइ ॥३॥ वैयाविच्चि करइ जन सेवा, याविचि पसण जु देवा नेयाविच्चि कुकम्म विणासइ,
याविच्चि सुभव पयासइ ॥४॥ तैयाविच्चि गणेदसु कहिया, नैयाविचि मुणिंद सु महिया। नैयाविचि महा तब सिद्धि, चैयाविच्चि अचलपद रिद्धि ॥५॥
घत्ता । दिइ नैयाविच्चि गुण सम्पत्ति,
सिरिभूषण मुणिणा कहिया । जिनवर मुख जाता भव भय त्राता,
बम्भणाण मुणिणा कहिया ।। ॐ ह्रीं वैयावृत्तिकरणाय पूर्णाघ० ।
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१३० ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ अद्भक्ति भावना |
अर्हतां परमा भक्ति संसारांबुधितारिणां । स्थापयामि महाभक्त्या मिथ्यांधकारनाशिनां || ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनात्रावतर २ संवौषट् । अत्र तिष्ठ२
ठः ठः । अत्र मम संन्निहितो भव भव वषट्
1
दर्शन' जिनदेवस्य स्तीति च करोति यः । स्तोत्रेण परया भक्त्या तं यजे मोक्षमार्गगं ॥ ॐ ह्रीं दर्शनस्तोत्रंणार्हत ये जलादिकं ॥ १ ॥ आह्वाननं जिनेन्द्रस्य सु पूजासमये सदा । यः करोति सदाचारं यजे तं० ॥
ॐ ह्रीं आह्वाननार्हद्भक्तये जला० ||२|| स्थापनं श्रीजिनेन्द्रस्य पूजायां शुद्धभावतः । यः करोति सदाचारं यजे तं० ॥
ॐ ह्रीं स्थापनार्हद्भक्तये जला० ॥३॥
- सन्निधिकरणसारं जिनेन्द्रस्य जिनागमत । यः करोति० ॥ ॐ ह्रीं सन्निधिकरणाद्भक्तये जला० ||४|| अष्टधा श्रीजिनेन्द्रस्य पूजन परमोत्सवः । यः करोति० ॥ ॐ ह्रीं पूजयार्हद्भक्तये जला० ||५||
स्नपन सर्वदोषघ्न घृतदुग्धदधीक्षुभिः । यः करोति० ॥ ॐ ह्रों पंचामृतस्नानार्हद्भक्तये जला० ||६|| निरन्तरं सुकंठेन सर्वज्ञकीर्तनस्तवं । यः करोति० ॥ ॐ ह्रीं महागोतेनार्हद्भक्तये जला० ||७||
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दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह । ___ [ १३१ निर्घोषवाद्यशब्देन जिन भक्ति निरन्तरयः करोति ।। ___ ॐ ह्रीं वाद्येनार्हद्भक्तये जला० ॥८॥ नर्तनं श्रीजिनेन्द्राग्रे हावभावसमन्वितं। यः करोति ॥ ___ॐ ह्रीं नर्तनेनार्हद्भक्तये जला० ॥९॥ गङ्गाकल्लोलसादृश्यश्चामरैर्भक्तिमात्मवित् । यः करोलिका ___ॐ ह्रीं चामरेणार्हद्भक्तये जला० ॥१०॥ छत्रत्रयेण सद्भक्तिं जिनेन्द्रस्य सुभावतः । यः करोतिः ।।
ॐ ह्रीं छत्रत्रयेणार्हद्भक्तये जला० ॥११॥ भक्ति श्रीजिनराजस्य सिंहपीठेन शोभिना । यः करोति०।
ॐ ह्रीं सिंहासनेनार्हद्भक्तये जला० ॥१२॥ चन्द्रोपकेन सद्भक्ति चीनदेशोद्भवैः ननै । यः करोति ॥ ॐ ह्रीं चन्द्रोपकेनार्हद्भक्तये जला० ॥१३।। संसारपीठोधि तरंति भब्या
यस्या प्रसादाच्छिचसौख्यमेति । तां नीरगन्धैः कुसुमैः शुभाक्षत
श्वरुलदीपरहमर्चये फलैः ॥ ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तये महाघ ।।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ जयमाला ।
सिरि णिवरभक्ति सुह सम्पत्ति संसारांबुद्धितरणी । जउपाव विणासणि सुगति णिवासिणि बहु सुहरासिणि भयहरणी || १ || जिणवर भक्ति करइ सविभोग, जिणवर भक्ति हरइ सवि रोग, जिणवर भक्ति करइ सविकाज, जिणवर भक्ति जहर शिवराज || २ || जिणवर भक्ति हरइ कुल दुःख, जिणवर भक्ति हरइ महा सुख । जिणवर भक्ति विणासइ कम्म, जिणवर भक्ति करइ जस धम्म ||३|| जिणवर भक्ति कुविघ्न विणासण, जिणवर भक्ति पाप पयासण | जिणवर भक्ति सु कीर्ति करइ, जिणवर भक्ति कुदुख हरह || ४ || जिणवर भक्ति सुमोख सहाय, जिणवर भक्ति णमइ सुर राय । जिणवर भक्ति जु परम णाण, जिणवर भक्ति तिलोय माण ||५||
१३२ ]
घत्ता ।
इति सिरि जिणभक्ति कम्म,
विच्छत्ति शिवसंपत्ति सुगईकरं ।
सिरि भूषणभासि सुगुन,
पयासि बंभणाण भवतापहरं ॥
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तये पूर्णाघं० ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ आचार्य भक्ति भावना |
श्रीमदाचार्य सहभक्तिं पुण्यदां सुखदां तथा । स्थापयामि जिनेन्द्रोक्ता मनोवाक्कायशुद्धितः ॥
अत्र तिष्ठ
[ १३३
ॐ ह्रीं आचार्यभक्ति अत्रावतर २ संवोषट् । तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् : प्रशक्तरुद्धिसंयुक्तो मोक्षमार्गोपदेशकः । संपूज्यते मया साधः कर्म्मराशिविवर्हिणा ॥ ॐ ह्रीं प्रशक्तरुद्धि आचार्यभक्त ये जलादिकं ॥ | १ || श्रेणियुग्मयुतो धीरो गम्भीरगुणसागरः || सम्पूज्यते ० ॥ ॐ ह्रीं युग्मश्र णियुताचार्यभक्तये जला० ॥२॥ प्रत्यक्ष ज्ञानसंयुक्तो मुनिनाथो गुणार्णवः || सम्पूज्यते ० ॥ ॐ ह्रीं प्रत्यक्षज्ञानाचार्यभक्तये जला० ||३|| धर्मामृतसंतुप्तो नगारो जितेन्द्रियः || सम्पूज्यते ॥ ॐ ह्रीं अनगाराचार्यभक्तये जला० ॥४॥ धर्माधर्मप्रकाशाय प्रजानां हितकारकः । सम्पूज्यते ० ॥
०
ॐ ह्रीं राजरुष्याचार्यभक्त ये जला० ||५|
परमब्रह्मणो रूपं स्वचित्ते धारयन्ति ये || सम्पूज्यते ० ॥ ॐ ह्रीं ब्रह्मरुष्याचार्यभक्तये जला० ॥६॥
- देवर्षिः सुगुणांभोधिः पावनो मलहारकः || सम्पूज्यते ० ॥ ॐ ह्रीं देवरुष्याचार्यभक्त ये जला० ||७|| परमर्षिः परो ध्यानी केवलज्ञानदायकः । सम्पूज्यते ० ॥ ॐ ह्रीं परमरुष्याचार्यभक्तये जला० ||८||
--
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१३४ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
पुलाको हितबुद्धिः सर्वशास्त्रविशारदः । सम्पूज्यते० ॥ ॐ ह्रीं पुलकाचार्यभक्त ये ० जला० ||९|| कुसो बोधने रक्तो भव्य जीवहितंकरः । सम्पूज्यते० ॥ ॐ ह्रीं बकुशाचार्यभक्तये जला० ॥ १० ॥ कुशील संयमग्राही शुद्धचारित्रपालकः । सम्पूज्यते ० ॥ ॐ ह्रीं कुशलाचार्य भक्तये जला० ||११|| स्नातको मुनिशार्दूलः सर्वग्रंथविवजित | सम्पूज्यते० ॥ ॐ ह्रीं स्नातकाचार्य भक्तये जलादिकं ||१२|| आचार्याणां पराभक्तिप्रसूते सुखमुल्वणं । तां यजे जलमन्धेन शिवशम्र्म्मविधायनी ॥ ॐ ह्रीं आचार्यभक्तये जलादिकं ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ जयमाला ।
जो मुनि तारणतरण समच्छहु, भवसायर वरनाव समं ! परभव जण सुहयं पुण समच्छहु, आयरियमत्ति परमं ॥१॥ जो मुणिवर महवय पालन्त, जो मुणिवर कम्मइ काटन्त । जो मुणिवर चारित धरन्त, जो मुणिवर तप बारह करन्त || २ || जो मृणिवर गुति तय रक्षो, जो मुणिवर शिव सायर दक्षो । जो मुणिवर दह धम्म पयासे, जो मणिवर निखि-लागम भासे || ३ || जो मुणिवर जीवदया पाले, जो मुणिवर मिथ्यामद टाले । जो मुणिवर परोसहा बावीस, जो मुणिवर तप बारह इस |४| जो मुणिवर कम्मट्ठइ खण्डे, जो मुणिवर शुभ ध्यान मण्डे । जो मुणिवरं रयणत्तय जुत्ता, जो मुणिवर तिय सल्लविमुचा ॥५॥
घत्ता ।
जे बहुगुणपूरा कम्मु विचूरा
सिरि
भूषण
[ १३५
शिवपद सूरा भवभय हरणम् ।
कहिया तिहुयण महिया,
बंभणाण मह सुहकरणम्
ॐ ह्रीं आचार्य भक्तये पूर्णांचं० ॥
"
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१३६ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ बहुश्रुत भक्ति भावना ।
धर्मोपदेशदातारं त्रातारं भववारिधौ । बहुश्रुतं महाभक्त्या स्थापयामि यथागमं ।।
ॐ ह्रीं बहुता अत्रावतर २ संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
लोकालोकप्रकाशक्ति जन्मांतर विशुचिका । सर्वदोषविनिमुक्ता भक्तिर्या सा बहुश्रुता ॥ ॐ ह्रीं द्विधासांगोपांगयुक्तबहुश्रुतभक्तये जलादिकं । बहु तगुणाधारं धर्मतत्वप्रदीपकम् । जलचन्दनपुष्पैश्च पूजयामि बहुश्रुतम् ॥
ॐ ह्रीं पूजयाश्रु तभक्तये जला० । वपुषा मनषा वाचा बंदनागुणभाजनं । जलचन्दन० ॥ ॐ ह्रीं वंदनाश्रुतभक्तये जला० । तोयचन्दनाक्षतैः प्रसूनहव्यदीपकैः, धूपधूम्रनालिकेर संयुतैः सदार्थकैः ।
कर्मछेदनं सुपापदाह भेदनम्,
बहुश्रुतं यजामहे भवार्तिकन्दकन्दनम् ॥
ॐ ह्रीं बहुश्रुताभक्तये महार्थं ॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ जयमाला ।
बहुश्रुतभावण कम्म विदावण मुक्तिलच्छी सुहमं परमं । पाव विमोक्खण भवजल सोक्खण धम्म विपोषण शिवचरण ॥ १ ॥ इह बहुश्रुत भावण भवह पार, इह बहुश्रुत भावण कम्म णास । इह बहुश्रुत भावण धम्म रास, इह बहुश्रुत भावण समय सार | २| इह बहुश्रुत भाषण विषय होय, इह बहुश्रुत भावण णमइ लोय । इह बहुश्रुत भावण सुकल जाण, इद्द बहुश्रुत भावण पञ्च णाण | ३ | इह बहुश्रुत भाषण कम्म डाह, इह बहुभूत भावण लाय माण । इह बहुश्रुत भावण अचल गण, इह बहुश्रुत भावण परम धम्म ||४ | इह बहुश्रुत भावण गलइ कम्म इह बहुश्रुत भाषण सफल जम्म । इह बहुश्रुत भावण मोक्ख मग्ग, इह बहुश्रुत भावण सुह सुमग्ग ॥ ५ ॥
घत्ता ।
इह बहुसुद भावण महसुह दावण, शिवसुख पावण गुण लहियं ।
सिरिभूषण महियं जिणवर कहिणं, बम्भणाण मुनि नामनयं ॥
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तये पूर्णा ।
[ १३७
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१३८ ]
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ प्रवचन मावना।
ज्ञानं श्री जिनेन्द्रोक्तं स्थापयामि श्र ताप्तये । मतिश्रुतावधिश्चेति मनःपर्ययकेवलम् ॥
ॐ ह्रीं प्रवचनक्ति अत्रावतर २ संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
कर्माण्यष्टौ तथा सप्ततत्व षटकाय भावना। विचारः सर्ववेदानां प्रोक्तो यत्र तदागम।। ॐ ह्रीं पंचांगोपांगयुक्तप्रवचनभक्तये जलादिकं ॥१॥ जिनेन्द्रवक्रसंसक्तं मतिज्ञान प्रदायकं । पूजयामि सदा भक्तया द्रव्योः शुद्धरधापहं ॥
ॐ ह्रीं मतिज्ञानप्रवचनभक्तये जलादिकं ॥२॥ द्वादशांग जिनोद्रोक्तंश्रुत ज्ञान' मदापहं। पजयामि० ॥ ___ॐ ह्रीं श्रु तज्ञानप्रवचनभक्तये जला० ॥३॥ रुपिद्रव्यप्रकाशायावधिज्ञान च षड्विधं । पूजयामि० ॥ ___ ॐ ह्रीं अवधिज्ञानप्रवचनभनये जला० ।।४।। मन पर्ययसबोध ऋजुविपुलसंज्ञिकं । पूजयामि ।।
ॐ ह्रीं मनःपर्ययप्रवचनभक्तये जला० ॥५॥ केवलज्ञानसंशद्ध लोकालोकप्रकाशकं । पूजयामि०।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञान प्रवचनभक्तये जला० ॥६॥ चक्रित्वं भोगिनाथत्व शक्रत्व तीर्थनाथता । यस्या प्रसादतो नून सदा तां पजयेऽर्घकैः ।। ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तये महार्य ।
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दि० जैनव्रतोद्यापन संग्रह |
अथ जयमाला ।
णाण उदयकर पाप तिमिर हर सुह साताभर बोधमयं । मदि सुदि उहिं मण पज्जयमदि केवल णाण महो उदयं || १ || पवयण भत्ति भवोदधि तारण, पवयण भत्ति कुकम्म निवारण | पवयण भत्ति कषाय विहंडणी, पवयण भत्ति कुकम्म विखंडणी ||२|| पवयण भत्ति सूद णाण पयासे, पवयण भत्ति शिव फल भासे । पवयण भत्ति कुमग्ग विणासइ, पवयण भत्ति सुमग्ग निवासइ || ३ || पवयण भत्ति परमइ संचइ, पवयण भत्ति महामद वंचइ । पवयण भत्ति सुगुण भण्डारह, पवयण भत्ति सफल संसारह || ४ || पवयण भत्ति कुरुप सुरुपी, पवयण भत्ति अखय सुह कूपी । पवयण भत्ति कुमति छन्डइ, पवयण भत्ति सुगति पद मन्डइ ॥५॥ -
घत्ता ।
पवयण भत्ति सदा सुहकारी,
पवयण भत्ति पालो वय धारी ।
सिरिभूषण जिण णाह पयारी,
पचयण वंदे ब्रह्म विचारी ॥
[ १३९
ॐ ह्रीं प्रर्वचनभक्तये पूर्णार्थ ।
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१४० ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
आवश्यका परिहाणी भावना ।
आवश्यकाभिधां रम्या भावनां स्थापयामि ताम् । यथापूर्व मुनींद्राणां चाभवन्मोक्षमार्गगाः ||
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणीभावना अत्र अवतर २ संवौषट् अत्र तिष्ठ २ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव २ वषट् I समता वन्दना यत्र प्रतिक्रमणमेव च । प्रत्याख्यान' तथा स्त्रोत्रं कायोत्सर्ग च षडूविधं ॥ ॐ ह्रीं षड्विध सांगोपांगावश्यकपरिहाणी विशुद्धये अघ० । समभावसमादिष्टं स्थितः पूर्वोत्तरे मुख । त्रिकालयोगसंचारी माते मोक्षदायकः ॥
ॐ ह्रीं समताभावावश्यकापरिहाणीविशुद्धये जलादिकं ॥ १॥ कृतकर्मविनाशाय प्रतिक्रपण शद्धिदं । यः करोति सदा योगी मह्यते मोक्षदायकः || ॐ ह्रीं प्रतिक्रमणावश्यका ० जा ० ||२|| जिनेन्द्रस्य गुणां भोधेः वन्दनां कुरुते मुनिः । जलाद्यैरष्टधा द्रव्योः मह्यते मोक्षदायकः ||
ॐ ह्रीं वन्दनावश्यका० जला० ||३|| अनेक गद्यपद्येन स्तोत्रेणैव जिनोत्तम' ।
- स्तूयते यो मुनिः साधुः मह्यते मोक्षदायकः ॥
ॐ ह्रीं स्तोत्रेणावश्यका० जला० || ४ ||
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ १४१
गुणज्ञो गुणवान् साधुः प्रत्याख्यानपरायणः ।। तोयचन्दनपुष्पोधः मह्यते मोक्षदायकः ।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावश्यका० जलादिकं ॥५॥ कायोत्सर्ग करोत्येव निर्भयः सर्वतो यथा । तोय चन्दन
ॐ ह्रीं कायोत्सर्गावश्यका० जलादिकं ॥६॥ तोयचन्दनपुष्पौधैः प्रसूनेश्वाक्षतैः शुभैः । हव्यदीपैश्चधूपैश्च तां यजे वरश्रीफलैः ।। ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणीदर्शनविशुद्धये महाघ ।
अथ जयमाला।
ओवश्यक परीहाणि विशुद्धि, जाय साय णिम्मल वर बुद्धि । अणुकम्म पावइ सुर रिद्धि, मोक्खमग्ग संपज्जइ सिद्धि ॥१॥ आवश्यक दो कम्म विणासइ, आवश्यक दो सुगइ णिवासइ । आवश्यक दो णाण उपज्जइ, आवश्यक दो मोक्ख संपज्जइ ॥२॥ आवश्यक दो पावइ खण्ड, आवश्यक दो जाण विमण्ड । आवश्यक दो दंशण शुद्धि, आवश्यक दो निम्मल बुद्धि ॥३॥ आवश्यक दो दूगइ विचूक्कइ, आवश्यक दो सूगइ संपज्जइ । आवश्यक दो रोय विलज्जइ, आवश्यक दो मुगति सूरजह ॥४॥ आवश्यक दो षटभेद
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१४२ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
कहिज्जइ, समतानंदण स्तोत्र समज्जइ । थुदि पडिक्कमण वर स्वाध्याय, आवश्यक पाले मुनिराय ||५||
घत्ता ।
आवश्यक कीजिड़ पाव विछिज्जड़, धम्म धरिज्जइ सुद्धमणि ।
सिरिभूषण भास्यो सुगुणपयास्यो, भणाण मुणि सार भणे ||
ॐ ह्रीं आवश्यकारिहाणिविशुद्धये पूर्णाधं ।
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अथ मार्ग - प्रभावना भावना ।
मोक्षमार्गप्रदां सारां जैनमार्गप्रभावनां । स्थापयामि सदा सम्यक् भावपूरेण नित्यशः ॥
ॐ ह्रीं मार्गप्रभावना अत्र अवतर२ संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
रथोत्सव जिनस्नानं नृत्य गीत च चर्चन । पूजा यत्र जिनेन्द्रस्य कर्तव्य तत्र सर्वदा ॥ ॐ ह्रीं दशविघसांगोपांगयुक्तमार्गप्रभावनाय जला० । श्रुतावधिप्रकाशेन ज्ञानेनैव मुनीश्वरः । • मार्गप्रभावनां सारां करोत्येव यजेतकं ॥
ॐ ह्रीं ज्ञानमार्गप्रभावनाये जला ॥१॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [१४३ . पक्षमासोपवासेन तपो ये प्रचरंति हि । यजे सव भयातीतां सदा मार्गप्रमावनां ॥ ॐ ह्रीं तपसामार्गप्रभावनायै जलादिकं ॥२॥ गद्यपद्यकवित्वेन शास्त्रसंदर्शनेन च । मार्ग प्रभावनां सारां करोत्येव यजेतकम् ।। ॐ ह्रीं कवित्वेमार्गप्रभावनाग जला० ।।३।। सूठेकन वितर्केण व्याख्यान वितनोति यः । जिनमार्गप्रकाशाय यजे तं धीरमानसं ॥ ॐ ह्रीं व्याख्यानेमार्गप्रभावनामै जला० ॥४॥ समन्तभद्रनामानमकलंक जितेन्द्रिय । जिनमार्गप्रकाशाय द्रव्याष्टकर्महाम्यहं : ॐ ह्रीं वादेनमार्गप्रभानायै जला० ॥५॥
जिनसेनं जितारातिं रविषेणं महाम्यहं ।। - नेमिचन्द्रगुणैः पूर्ण ग्रन्थकर्तारमुत्तम ॥ ॐ ह्रीं ग्रन्थोद्धारमार्गप्रभावनायै जला० ॥६॥ कैलाशपर्वते रम्ये बिबानि भरतेशिना । करापितानि सद्भक्तया यजे तम् भरताभिधं । ॐ ह्रीं जिनप्रतिमामार्गप्रभावनायै जला० ॥७॥ चतुर्विधमहासंघगीतनृत्यमहोत्सवः। मन्त्रपूर्व प्रतिष्ठां यः करोत्येव हि तम् यजे । ॐ ह्रीं प्रतिमाप्रतिष्ठाकृतमार्गफ्भावनायै मला० ॥८॥
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१४४ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
सम्मेद्दा चलसेत्रुजोर्जयन्तादिनगादिषु । . संघयात्रा यथा भक्तया यो करोत्येव तम् यजे । ॐ ह्रीं संघयात्रामार्गप्रभावनायै जला० ॥९॥ षोडशकारणान्यष्टाह्रिदशलक्षणपूजनं । सद्व्यीनृत्यगीतैश्च यः करोत्येव तम् यजे । . ॐ ह्रीं अनेकपूजाविधानमार्गप्रभावनायै जला० ॥१०॥ जलेन गन्धेन शुभाक्षतेन,
हव्येन दीपेन सुधूपकेन । फलेन सारेण जिनस्य जाता,
चर्चामि तां मार्गप्रभावनां हि ॥ ॐ ह्रीं मार्गप्रभावनायै महाघ ।
.
अथ जयमाला।
वरकीर्तिपसारण भवजलतारण, वारण कम्मकलंक चयं । इह धम्म पहावण परमत वारण, भव भय हारण बम्भमय ॥१॥ जय मग्ग पहावण धम्म थम्भ, जय मग्ग पहावण मुगुण रम्भ । जय मग्ग पहावण दह पयार, जय मग्ग पहावण भवह पार ॥२॥ जय मग्ग पहावण कीत्ति रासि; जय मग्ग पहाबण लछि दासि । जय मग्ग पहावण कुमत खण्ड, जय मग्ग पहावण स्वमत मण्ड ॥३॥ जय मग्ग पहावण तित्थ
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । [१४५ संघ, जय मग्ग पहावण सिद्धि जंघ । जय मग्ग पहावण चैत्य देव, जय मग्ग पहावण मुणिव सेव ॥४॥ जय मग्ग पहावण रामसेन, जय मग्ग पहावण रविषेण । जय मग्ग पहावण चन्दकीत्ति, जय मग्ग पहावण सह सम्पत्ति ॥५॥
घत्ता । इह मग्ग पहावण पाव निवारण,
सिरिभूषण णिय वयण धरो । सिरि जिणमत पोषण कम्म विशोषण
बम्भणाण शिव सुक्ख करो ॥ ॐ ह्रीं मार्गप्रभावनाय पूर्णा ।
अथ प्रवचन वात्सल्य भावना ।
सर्वज्ञवदनोद्भुत सारसौख्यकरं नृणां । स्थापये धर्मसिद्धियर्थ वत्सलत्व प्रवाचकं ॥
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यांगत्रावतर २ संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
शीलसंपत्तियुक्तानां चारित्रप्रतिपालिनां । यत्र संक्रियते मान तद्वात्सल्यं बुधैः स्मृत॥ ॐ ह्रीं विविधसांगोपांगयुक्ता वधनवात्सल्यांगाय जला० ॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
भरतादिकसमये तिष्ठन्ति मुनीश्वराः । श्रुत्वा स्नेहं करोत्येव यजे तं धर्मवत्सलं ॥ ॐ ह्रीं साधुस्नेहप्रवचनवत्सलत्वायै जलादिकं ॥१॥ भरतादिकसम या विहरहन्ति चार्जिकाः । श्रत्वास्नेहं करोत्येव यजे तं धर्मवत्सलं । ॐ ह्रीं आजिकास्नेहप्रवचनवत्सलत्वायै जलाः ॥२॥ भरतादिकसमो ये सन्ति सुश्रावकाः ।
त्वा स्नेह' करोत्येव यजे तम् धर्मवत्सलं । ॐ ह्रीं श्रावकस्नेहप्रवचनवत्सलत्वायै जला० ॥३॥ भरतादिकसमौ या सन्ति सुश्राविकाः । श्रुतवा स्नेह करोत्येव यजे त ं धर्मवत्सलं || ॐ ह्रीं श्राविका स्नेहप्रवचनवत्सलत्वायै जला० ॥४॥ नीरगन्धसुगन्धपुष्पसुभाक्षतौघचरुवरैः । दीपधूपफलातिनायक शिवदायकम् ॥ रामसेन मुनींद्रचन्द्र कीर्तिवर्णिभिरचित' । ज्ञानसागर प्रार्थित भवमंजकं अघनाशकं । ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यत्वायै महार्घं । पूर्णां ।
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१४६ ]
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अथ समुच्चय जयमाला ।
इह भवजल तारण कम्म निवारण सोलहकारण कम्महरं । जन्म जरामय चउगइ दुस्सय सव्वदु कम्म स्वयकरणं ||१|| सीत्ययकरणघणु दंसण विशुद्धि, जसभावे पावे अमर रिद्धि |
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [१४७ मण धरउ विणच संघाधिकार, मुणि अजय भाव वसाधिकार ॥२॥ पुण शील रयण पालो विशाल, णव भेद भाव वर हो दयाल । मण धरहू जीव गाणोपयोग, जह भावे करे कम्मारि रोग ॥३॥ णिय हृदय धरउ संवेग भाव, जाणी लगि हो अचल पमाण । दिज्जइ अक्खय सम्पत्त दाण, लीजे तिलोय मजे सुजाण ॥४॥ तब तको जीव बारह पयार, सब साधु समाहि भवाब्धिपार । मण धरहु वैयाविधि सु अङ्ग, अरिहंत भक्ति कम्मारि भंग ॥५॥ आयार भक्ति भव दुःख छेद, बहु सुयण भक्ति अणाण भेद । आवश्यकेन कम्मट्ट णास, पवयण भत्ति मुत्ति भिवास ॥६॥ निण मग्ग पहावण धम्म धीर, पवयण पालो भव्य सुवीर । जे सोलहकारण पालयंत, ते माणव अविचल पद लहन्त ॥७॥
घत्ता । भवदुःहछंडण मोक्खविमंडण, कम्मविखंडण वयधुरीयं चन्द्रकित्ति मुनीवरपद परम, धर बम्भणाण अंगीकरीयं ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो पूर्णार्धं । त्रैलोक्ये वरदां शुद्धां जराभयविनाशिनी । पूजां ते प्रददाम्युच्चैः शांतिधारा त्रयात्मिकां ।।
इति शांतिधारा ।
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१४८ ] दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह । त्रैलोक्योदर सम्भवासु विसदां लक्ष्मी नयत्यातिकी । राज्यकोशयुतं यशः पृथुतरं सौख्यं प्रतापोल्वणं ॥ छत्रचामरभूषितं च निजता ज्ञानच सौख्यास्पदनेतद् षोडशकारणव्रतविधौ पूजा प्रसादाद्भवेत् ।।
___इत्याशीर्वादः । श्रीमद ब्रह्मांड भांडोप्रकटितसुयशः काष्टसंघो गुणाद्रिस्तस्मिन् श्रीरामसेनो यतिजनविदितः पूर्वमेवावभवः ।। तद्वंशेऽनेकशो हि प्रचुरगुणयुताः सूरयो विश्वविद्याः । संजाता विश्वसेनाभिधजननमिता भावतस्तान् भजेऽहं ।। विद्यया भूषितं सारं विद्याभूषणमुत्कटं । तत्पटाचलभास्वंतं श्रीभषणयतीश्वर ॥२॥ चन्द्रकीर्तिमहामान्यं तक्किणां हि शिरोमणिं । तत्पट्ट राजकीर्ति च वन्दे चर्चेति भक्तितः ॥३॥
सर्वज्ञदेववदनोद्भवमक्षयं च । नाम्ना व्रतं षोडशकारणं हि ॥ तस्याष्टकर्मरिपुखण्डनवज्रतुल्यं । श्रीज्ञानसागर मुनींद्र मनं चकार ॥४॥
॥ अथ जाप्य १०८ दीयते ॥ जाप्य मन्त्र-ॐ ह्रीं अहं दर्शनविशुद्धादि षोडशकारणेभ्यो नमः
इति श्री भूषणकृतषोडशकारण व्रतोद्यापनं ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [१४९
श्री रत्नत्रय व्रत कथा । श्रीमनसन्मतिं नत्वा गौतम च गणाधिपं । प्रच्छकः श्रेणिको राजा विनयान्नतमस्तकः ॥१॥ केनेदं विहितं नाथ रत्नत्रयमिदं व्रत । कीदृकफलं च तेनाप्त तद्वत कथय प्रभो ॥ २॥ अथाह गौतमस्वामी दिव्यगंभीरया गिरा । भव्य पृष्ट त्वया राजन् श्रुणु त्वं कथयामि ते ॥ ३॥ जंबूवृक्षांकिते जंबूद्वीपे द्वीपेषु मध्यगे । लक्षयोजनविस्तीर्णे क्षेत्रं भारत संज्ञकम् ॥ ४ ॥ तस्यास्ति पूर्वदिग्भागे द्वितीयं क्षेत्रमुत्तमम् । नाम्ना पूर्व विदेह च धर्मिजनैः समाकुलम् ॥ ५ ॥ पुष्कलावतिप्रमुखानेकदेशसमन्वित । पवित्र क्षेत्रमत्यन्तम् पुरपत्तनशोभितम् ।। ६॥ राजा बंश्रवणस्तत्र सम्यक्त्वालकृतः सुधीः । तेनेद च कृत पूर्व व्रत रत्नत्रयाभिध ॥७॥ तत्कलेनैव सम्बद्धं तीर्थकृतकुलमुत्तमम् । ततः समाधिना मृत्वाहमिंद्रोऽभूतो भृपतिः ।। ८ ।। तस्माच्युत्वायुषांते सः बंगदेशे मनोहरे । मिथुलाक्षापूरिरम्या तस्यां कुम्भाभिधो नृपः ।। ९ ॥ राज्ञी प्रभावती दक्षा तद्गर्भे सोऽवतीर्णवान् । रत्नत्रयप्रभावेन मल्लिनाथो जिनेश्वरः ॥ १०॥ सः जातः कर्मनियोगः पंचकल्याणक नायकः । इति मत्वा बुधैः कार्य रत्नत्रयमिद व्रत ॥ ११ ॥
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१५० ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
तस्य पूजा विधिर्वक्ष्येऽहनामाष्टसहस्रकम् । पठित्वा देहशुद्धयर्थ सकलीकरणं पठेत् ॥ १२ ॥ पूजयेत् प्रथम देव सिद्धादिपंचनायकान् । वेदिमण्डपयो शोभां कृत्वा पूजा तयोर्मुदा ॥१३॥ गुर्वाज्ञां च समादाय स्वस्तिकेनास्य भक्तितः । रत्नत्रयस्थ यद्विवं चतुर्विंशतिसंयुतम् ॥ १४ ॥ तदग्रे विधिना स्थाप्य सम्यक् यंत्रत्रयं शुभ । संस्नाप्य विधिना तत्र वृत्तानामर्चयेत्पुनः ॥ १५ ॥ स्वस्तिकम् सुन्दरं कृत्या त्रिनवतिसुकोष्टकैः । तद्वतोद्यापन कुर्यात् भक्तया शक्तया शिव पद।१६। नित्वाज्ञां प्रथमं गुरोरपि ततः पूजां समारभ्यते । तत्रादौ च सहस्रनामसकलीकरणं त्रिशुद्धया पठेत् ।। पश्चात् श्रीजिनदेवसिद्धकलिकुण्डादिश्रु तार्चागुरोः । कृत्वानुक्रमतोऽर्चनं च विधिना दृग्योधवृत यजेत १७. अस्योद्यापन सद्विधौ च मण्डपादि स्वस्तिकस्यार्चन । कर्तव्य स्नपनं पठेत्सुविधिना पंचामृत क्तितः ॥ कार्यां च ध्वजसंघ पुजकरणं तांबूलदानादिकम् । कुर्यात्रांकहरोपणादिविविध वाद्यैश्च सन्तोरणः ॥१८॥ आहाराभयभैषजं च मुनये सच्छास्त्रदान तथा । पात्रेभ्यो विनयाच्चतुर्विधभिदं दानं प्रदेयं बुधैः ॥ स्त्याशीर्वरंगीतमंगलरः कार्य व्रतोद्यापनं । इत्युद्यापनसंद्विधिश्च गणिनोक्तश्रोणिकाग्रे पुरा ॥१९॥
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दि. जैन व्रतीधापन संग्रह। [ १५१ अथ रत्नत्रय व्रत उद्यापन।
अथातः सम्प्रविक्ष्यामि तेषां सद्गुणपूजनं ।
कर्णिका मध्यभागे च पूजयेत् द्रव्यसत्तमैः ।। ॐ ह्रीं सम्यकरत्नत्रयधर्मपूजनाय स्वस्तिकोपरिपुष्पांजलि क्षिपेत् । आह्वाननस्थापनसन्निधानः संस्थापयाम्यत्र सबीजवर्णैः । सदर्शनस्यापि सुगंत्रराज रौप्यं तथा हेममयं च ताम्र।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनअत्रावतरावतर संवौषट् । स्थापन सन्निधिकरणं ॥
गगादितीर्थभवजीवनधारया च । संवद्धिताखिलसुमंगलपुण्यवल्लिः ।। संपूजयामि भवत्तापहरं स्वनय ।
सदर्शनं परमधर्मतरोश्च मूलं ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगविधसम्यकदर्शनाय जलं० । श्रीचन्दनैः कनकवर्णसुकुन्कुमाद्यैः। कृष्णागुरुद्रवयुतैर्घनसारमिश्रः । सम्पूजयामि ।। ॐ ह्रीं अष्टांगविधसम्यक्दर्शनाय चन्दनम् । शुभ्रः सुगन्धकलमाक्षतचारुपुजैः । हीरोजलैः सुखकरैरिवचन्द्रचूर्णं ।। सम्पूजयामि० ॥ ॐ ह्रीं अष्टांग० अक्षतम् ।
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१५२ ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
हेमाभचंपकवरांबुजकेतकीभिः । सत्पारिजातकचयैर्वकुलादिपुष्पैः संपूजयामि ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग० पुष्प। षभिःरसैश्चरुभिधुतपूरयुक्तैः । शुद्धैः सुधामधुरमोदकपायसान्नैः ॥ संपूजयामि० ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग० नैवेद्यम् । रत्नादिसोमघृतदीपतरैरिवाः । ज्ञानकहेतुरत्न प्रहतांधकारैः ॥ संपूजयामि ।।
ॐ ह्रीं अष्टांग. दीपं । कृष्णागुरुप्रमुखधूपभरैः सुगन्धैः । कर्मेधनाग्निभिरहो विबुधोपनीतैः ॥ संपूजयामि०
ॐ ह्रीं अष्टांग० धूपं । स्वर्गापवर्गफलदैवरपक्कवासैः। नारिंगलिंबुकदलीफनसाम्रकैर्वा ॥ सम्पूजयामि ॥ ॐ ह्रीं अष्टांग० फलम पूजाविशेषकृतमघमतीव भक्त्या
प्रोत्तारयामि भवसागरसेतुकल्प। सम्यक्त्वरत्नमपि भव्यसहायरुप
शंकादिदोषरहित शुभधर्मबीजं ॥ ॐ ह्रीं अष्टांग० अध्यं ।
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'दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ १५३ अथ प्रत्येक पूजा। क्षयादुपशमान्मिश्रात् सम्यक्त्व त्रिविधं मतम् । निसर्गाधिगमाच्चेव तत्वं श्रद्धानमुत्तमं ॥ ॐ ह्रीं स्वस्तिकोपरिपुष्पांजलिं क्षिपेत् । कर्मोपशमतः सम्यकदर्शन कर्मछेदकम् । नाम्नोपशममित्याहुर्यजे नीरादिभिर्वरः ॥ ॐ ह्रीं उपशमसम्यक्त्वरत्नत्रयाय जलादिकं ॥१॥ क्रोधमानादिसप्तानां क्षयोपशमतो भवेत् । वेदकं दर्शन रम्यं यजे नीरादिभिर्बरः ॥ ॐ ह्रीं वेदकसम्यक् रत्नत्रयाय जला० ॥२॥ सप्तकर्मक्षयाज्जातमुत्तम क्षायकं परम् । मुक्तिहेतुशुभनित्यं यजे नीरादिभिर्वरैः ।। ॐ ह्रीं क्षायकसम्यक्त्वरत्नत्रयाय जला० ॥३॥
शुद्ध यन्निश्वये ज्ञेयं निःकर्मात्मगुण स्थिरं । । निर्वातच यथा नीर यजे तत् दृष्टिरत्नकं ॥ ॐ ह्रीं सिद्धगुणनिश्चयसम्यक्त्वरत्नत्रयाय जला० ॥४॥
जैनागमे सूक्ष्म विचारशङ्का,
___ नोदेति यीय पवित्ररूपे ॥ तोयादिभिः शंकितदोषहीन,
तत् दृष्टिरत्व परिपूजयामि । ॐ ह्रीं निःशंकितसम्यक्त्वरत्नत्र याय जला० ॥४॥
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१५४]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह।
कृत्वा तपोदानसुसंयमानि,
सौख्याभिकांक्षा न करोति यत्र । निकांक्षिताख्यां सुगुण जलाये
___ स्तत दृष्टिरत्न परिपूजयामि ।। ॐ ह्रीं निःकांक्षितांगायसम्यक्त्वरत्नत्रयाय जला० ॥६॥ संक्लिष्टदेहादिकसाधुवृन्द
दृष्टवा तदास्य प्रवदन्ति चांगे । तस्मिन् जुगुप्सा न करोति भव्यः
तत दृष्टिरत्न परिपूजयामि ॥ ॐ ह्रीं जुगुप्सितांगाय सम्यक्त्वरत्नत्रयाय जला० ॥७॥ मौढ्यत्रयादूर तरङ्गदंग
चामूढताख्य प्रवदन्ति तज्ञाः ।। शुद्धात्मकं मुक्तिकरं जलाद्य
स्तत दृष्टिरत्न परिपूजयामि ॥ ॐ ह्रीं अमूढतासम्यक्त्वरत्नत्रयाय जला० ॥८॥ आच्छादन यत् गुरुधर्म तीर्थे
दोषे कदाचित् क्रियते कुभावात् । आहुश्च सोपादिकगृहनाख्यं
तत् दृष्टिरत्न परिपूजयामि ।। ॐ ह्रीं उपगृहनाय सम्यक्त्वरत्नत्रयाय जला०॥९॥
पुण्यादिवर्गे चलिते सुधर्मात् स्थिर तनोति विधिना प्रबोधात् ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ १५५ तोयादिभिः सुस्थितिकारनोम
तत् दृष्टिरत्न परिपूजयामि ॥ ॐ ह्रीं स्थितिकरणाय सम्य० जलादिकं ॥१०॥ आप्तोक्तधर्मव्रतपालकेषू
वात्सल्य भावात् विदधाति सेवां । अङ्ग तदाख्य सुखदं जलाद्य
स्तत् दृष्टिरत्न परिपूजयामि । ॐ ह्रीं वात्सल्य गाय सम्य. जलादिकं ॥११॥ जैनोक्तमार्गस्य तनोति भव्य
प्रोत्साहतां दानवित्तादिशक्तया । धर्मार्थमंगं तदहं जलाद्य
स्तत् दृष्टिरत्न परिपूजयामि ॥ ॐ ह्रीं प्रभावनांगाय सम्य० जलादिकं ॥१२॥ पूजाविशेषैर्वसुद्रव्यमान
यौः सुमन्त्रौः खलु दृष्टिसिद्धगैः । चोत्तारयाम्यमिदं जलाये
दिननादैः व्यवहाररूपैः ।। ॐ ह्रींअष्टांगविधसम्यक्दर्शनाय महाघ ।
___ अथ दर्शन जयमाला ।
जय जय सदर्शन कुमत विखण्डन मिथ्यामोह निवारण | बुध कमल दिवाकर परम गुणाकर मुक्तिवधू
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__१५६ ]_ दि० जैन ब्रतोद्यापन संग्रह । सुखं करण ॥१॥ जय वर निःशंकित गुण विशाल, परहित निखिल शंकादि जाल । जय पर निःकांक्षित भोग दूर, शिवगति सुखकारण कुमुदसर ॥२॥ जय निर्विचिकित्सा गुण गरिष्ट, निर्नाशित विचिकित्सादि कष्ट । जय निहित सकल मढत्व भाव, जय भवनिधि भव्य समूह नाव ॥३॥ जय उपगृहन वर निहित दोष, परिकृत मुनिजन बहु हृदय तोष । जय वृष पतनादि निवार धीर, दूरीकृत भव भय दोष धीर ॥४॥ जय वत्सलत्व बहुगुण निधान, परिकल्पित सुरनर अखिल मान । जय जिनशासन विख्यातकार, विधि गुण संसार समुद्रतार ॥५॥ जय जिनवर गणधर गुण करंड, संस्कृत मिथ्यासुख पाप दंड । जय सुरनरपति पद जन मूल, मिथ्यातम मोहित हृदयशूल ।। इति दृगगुण संस्तुति ममला महामति रिहयः पठति परमभक्त्या । रत्नत्रय सम यातिरखिलभुवनपतिरात्मपाणिगत कृतमुक्तिः ॥
सम्यक पदांकितसुदर्शनमादिधर्मः । स्वर्गापवर्गफलदं गणरत्नपात्रं ॥ सायुधनं शुभगमित्रकलत्रपुत्रं । देयाद्विभो भुवि सुदर्शन रत्नमय॑ ।।
इत्याशिर्वादः।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ ज्ञान पूजा ।
आह्वाननस्थापनसंन्निधापनैः । संस्थापयाम्यत्र स बीजवर्णैः ॥
सद्ज्ञानरत्नस्य सु यन्त्रमन्त्रं । रौप्येपदे हेममये च ताम्र े ॥
[ १५७
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानअत्रावतरावतर संवौषट् । स्थापनम् सन्निधिकरणम् ।
गंगादितीर्थभवजीवनधारया च । सत् स्थूलया सदयधर्मसुवृक्षवृद्धयैः ॥ स्वात्मस्थशुद्धमपरं व्यवहाररूपं । सद्बोधरत्नममलं परिपूजयामि ॥
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय जलं । श्रीचन्दनैः कनकवर्णसुकु कुमाद्यैः । कृष्णागरुद्रव युतैर्घनसार मिश्रः ॥ स्वात्मस्थ० ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय चन्दनं ० ।
O
स्थूलैः सुगन्धकमलाक्षत चारुपूजैः । हीरोज्वलैः शुभतरैरिव पुण्यपुजैः ॥ स्वात्मस्थ० ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय अक्षतं । हेमाभचम्पकवरांबुज केतकीभिः । सत्पारिजातकचयैर्व कुलादिपुष्पैः ॥ स्वात्मस्थ० ॥
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय पुष्पम् ० ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । शाल्योदनैः सुखकरै तपूरयुक्तैः । शुद्धः सुधामधुरमोदकपायसान्नैः । स्वात्मस्थ० । ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय नैवेद्य । रत्नादिसोमघृतदीपचगैरघनः। ज्ञानैकहेतुभिरलं प्रहतांधकारैः । स्वात्मस्थ०। ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय दीपं० । कृष्णागुरुप्रमुखधृपभरैः सुगन्धरैः। कर्मेधनाग्निभिरहोविवधोपनीतैः । स्वात्मस्थ। ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय धूपं० । स्वर्गापवर्गसुखदैर्वरपक्वारी
रिंगलिंबुकदलीफनसाम्रकैर्वा । स्वात्मस्थः । ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय फलं० । वागंधशालिजसुपुष्पच मनोझै
नैवेद्यदीपवरधूपफलादिभिर्वा ॥ एतैः कृतार्थमिह बोधमये सुयन्त्रे।
प्रोत्तारयामि सह वाद्यसुगीतघोषौः। ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय अर्घ ।
अथ प्रत्येक पूजा। अवग्रहादिभिर्जातं षट्त्रिंशत्रिशतात्मकम् । मविज्ञान महद्ज्ञान यजे तोयादिभिर्मुदा ॥ ॐ ह्रीं सम्यकमतिज्ञानायला० ॥१॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ १५९ - सर्वार्थवित क्रियते शास्त्र द्वयनेकद्वादशात्मकम् । मतिपूर्व श्रुत ज्ञान यजे सर्वज्ञवत् श्रत ॥ ॐ ह्रीं सतृसम्यक्श्रु तज्ञानाय जला० ॥२॥ आचारो वण्यते यत्र चारित्रं मोक्षसाधकम् । गम्भोरार्थं तदंग तत् यजे तोयादिभिः श्रुतम् ॥ ॐ हीं सम्यक्आचारांगाय जला० ॥३॥ सूत्रकृतांगनामा यः सहस्रत्रिंशद् पदं द्वितीयांग जिनेन्द्रोक्त, यजे तोयादिभिः श्रुत ॥ ॐ ह्रीं सूत्रकृतांगाय जला० ।।४।। स्थानानि तत्वजीवानां कथ्यते यत्र तज्ञकैः । भव्यार्थानि तदंगं च यजे तोयादिभिः श्रुतं । ॐ ह्रीं स्थानांगाय जला० ॥५॥ द्रव्यादीनां च सादृश्य, कथ्यते समवायसः । परस्परैतदंगं च, यजे तोयादिभिः श्रुत ॥ ॐ ह्रीं समवायांगाय जला० ॥६॥ प्रश्नषष्टिसहस्राणि व्याख्याप्रज्ञप्तिकेयतः । प्रोच्यन्ते तस्तदंगं च यजे तोयादिभिः श्रुतम् । ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्त्यांगाय जला० ॥७॥ ज्ञातृधर्मकथांग तत् यत्र धर्मकथा भवेत् । गम्भीरार्था तदंगं च, यजे तोयादिभिः श्रुतम् ॥ ॐ ह्रीं ज्ञातृधर्मकांगाय जला० ॥८॥
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१६० ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
श्रावकाचारसबोधोपासकाध्ययनं यतः। नाम्ना तदंगकं रम्य यजे तोयादिभि श्रतं ।। ॐ ह्रीं उपासकाध्ययनांगाय जला० ॥९॥ दशप्रांतकृतो यत्र वयँते प्रतितीर्थकम् । तन्नामाहि तदगं च यजे तोयादिभि श्रुतं ।। ॐ ह्रों अन्तकृद्दशांगाय जला० ॥१०॥ प्रति तीर्थ दशोत्पत्ति प्रोच्यते विजयादिषु । तदीपपादिकं चांग यजे तोयादिभि श्रुतं ।। ॐ ह्रीं उपधादिकनामांगाय जला० ॥११॥ प्रश्नानुसारतः यत्र वाच्यायं ते कथा शुभाः । प्रश्नव्याकरण नाम, यजे तोयादिभिः श्रुतं ।। ॐ ह्रीं प्रश्नव्याकरणांगाय जला० ॥१२॥ नाना कर्मोदयं यत्र वर्ण्यते तीर्थचक्रिणां । विपाकसूत्रनामांङ्ग, यजे तोयादिभिः श्रुतं । ॐ ह्रीं विपाकसूत्रांगाय जला० ॥१३॥ दृष्टिवादांगसम्भूतं श्रीप्रथमानुयोगकं । पुराणरचना यत्र यजे तोयादिभिः श्रुतं । ॐ ह्रीं प्रथमानुयोगाय जलादिकं ॥१४॥ दृष्टिवाद गत सूत्रं सूत्रांसद्धांतसंज्ञिकं ।। नानाप्रमेयवाराशिं, यजे तोयादिभिः श्रुत।। ॐ ह्रीं सूत्रसिद्धांताय जलादिकं ॥१५॥
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दि. अन व्रतोचापन संग्रह । चन्द्रप्रज्ञप्तिकं नाम श्रुतज्ञान जिनोदितं । वर्णनं तत्र चन्द्रस्य, यजे तोयादिभि श्रुतं ।। ॐ ह्रीं चन्द्रप्रज्ञप्त्यै जलादिकं ॥१६॥ सूर्यप्रज्ञप्तिस्थज्ञान सूर्यादिग्रहणादिकं। कथ्यते यत्र सर्वः यजे तोयादिभिः श्रुतं ।। ॐ ह्रीं सूर्यप्रज्ञप्त्यै जला० ॥१७॥ जम्बूद्वीपकुलाद्रीणां वर्णन कथिता यतः । तत्प्रज्ञप्ति श्रुतपुण्य, यजे तोयादिभि श्रुतं ।। ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यै जला० ॥१८॥ द्वीपसागरचैत्यानां वर्णन यत्र कथ्यते । तत्प्रज्ञप्ति भव्यार्थे यजे तोयादिभिः श्रुतं ॥ ॐ ह्रीं द्वीपसागरप्रज्ञप्त्यै जला० ॥१९॥ व्याख्याप्रज्ञप्तिकाख्यं यत् जीवाजीवादिवर्णन । - क्रियते यत्र तबोध, यजे तोयादिभिः श्रुतं ॥ ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तिश्रु ताय जला० ॥२०॥ जलादिस्तभनं यत्र चोक्तं मन्त्रादिभैषजैः। जलादिचूलिकाख्यं तत् यजे तोयादिभिः श्रुतं ॥ ॐ ह्रीं जलगतचूलिकायै जला० ॥२१॥ स्थलादिचूलिकाख्यां तत् मेरुकुलाद्रिभभृतां । व्याख्यान क्रियते या, यजे तोयादिभिः श्रुत। ॐ ह्रीं स्थलगतचूलिकायै जला० ॥२२॥
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१६२]
दि. जैन प्रलोयापन संग्रह ।
मायादिचूलिकाख्यं तत् मायारुपेन्द्रजालकां । कथ्यते यत्र सर्वशैः यजे तोयादिभिः श्रुतम् । ॐ ह्रीं मायागतचूलिकायै जला० ॥२३॥ आकाशचूलिका वन्दे खे गत्यादिकवर्णन। यत्र भवेत्सुबोधं तत् यजे तोयादिभिः श्रुतम् । ॐ ह्रीं आकाशगतचूलिकायै जला० ॥२४॥ रूपादिचूलिकामाचं चित्रकर्मादिवर्णनम् । गजादीनां च तत्ज्ञानं यजे तोयादिभिः श्रुतं ॥ ॐ ह्रीं रूपगतचूलिकामै जला० ॥२५॥ उत्पादपूर्वमाद्यं स्यात् द्रव्योत्पादादिवर्णनम् । यौतत्पूव्यमहं वन्दे, यजे तोयादिभिः श्रुतं । ॐ ह्रीं उत्पादपूर्वश्रु तज्ञानाय जला० ॥२६॥ अग्रायणीयपूर्ण तत् यत्र मोक्षप्रकाशन । मुख्यत्वं सर्वशास्त्र पू, यजे तोयादिभिः श्रुत । ॐ ह्रीं अग्रायणीयपूर्वश्रु ताय जला० ॥२७।। यत्र वीर्यानुवादाख्यमात्मनः शक्तिवर्णन । एतत्पूनमहं वन्दे, यजे तोयादिभिः श्रुतम् ।। ॐ ह्रीं वोयीनुवादपूर्वश्रु ताय जला० ॥२८॥ अस्ति नास्ति प्रवादम् तत् यत्र स्याद्वादलक्षणं ॥ एतत्पूर्वमह वन्दे, यजे तोयादिभिः श्रुत ॥ ॐ ह्रीं अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वीय जला० ॥२९॥
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दि० येन नोझापान मंग्रह ) [ 2] ज्ञानप्रवादपूर्व च क्न्दे ज्ञानादिदेशकं । ज्ञानप्रमाणसिद्धयर्थ, यजे तोयादिभिः श्रुतम् ॥ ॐ ह्रीं ज्ञानप्रवादपूर्वांय जला० ॥३०॥ सत्यप्रवादसंज्ञ यत् सत्यादिमेदवाचक । एतत्पूर्व नमस्यामि, यजे तोयादिभिः श्रुतम् ॥ . ॐ ह्रीं सत्यप्रवादपूर्वाय जला० ॥३१॥ आत्मप्ररूपणं यत्र वन्दे तां भारती परं । आत्मप्रवादपूख्यिां , यजे तोयादिभिः श्रुवम् ।। ॐ ह्रीं आत्मप्रवादपूर्वाय जला० ॥३२॥ कर्मप्रवादपूर्न स्यात् यत्र कर्मादिवर्णनम् । शब्दार्थक च नानार्थ यजे तोयादिभिः श्रुतम् ।। ॐ ह्रीं कर्मप्रवादपूर्वाय जला० ॥३३॥ प्रत्याख्यान च तत्पूर्ण यत्र सावंद्यवर्जन । वदेऽहं तद्भवं ज्ञान, यजे तोयादिभिः श्रुतम् ।। ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानपूर्वाय जला ॥३४।। यत्र मन्त्ररसः प्रायो विद्यौषध्यादिवर्णनम् । विद्यानुवादपूर्वं तद, यजे तोयादिभिः श्रु तम् ।। ॐ ह्रीं विद्यानुवादपूर्वाय जला० ॥३५॥ कल्याणवादपूर्ण तत् यत्र कल्याणवर्णनम् । तीर्थंकरादिचक्रिणी, यजे तोयादिभिः श्रुतम् ।। ॐ ह्रीं कल्याणवादपूर्वाय जला० ॥३६॥
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१६४ ]
दि० जैनव्रतोद्यापन संग्रह |
प्राणवादमिदं पूर्व चिकित्सादिप्ररूपणं । वन्दे धर्मफलं यत्र, यजे तोयादिभिः श्रुतम् ॥ ॐ ह्रीं प्राणानुवादपूर्वाय जला० ||३७|| नृत्यवाद्यक्रियागतं प्रोक्तं च यत्र पावनम् । क्रियाविशालपूर्व तत् यजे तोयादिभिः श्रुतम् ॥ ॐ ह्रीं क्रियाविशालपूर्वाय जला० ||३४|| त्रैलोक्यरचना यत्र प्रोक्ता श्रीजिननायकैः । त्रैलोक्यबिन्दु सारं तत्, यजे तोयादिभिः श्रुतम् ॥ ॐ ह्रीं त्रैलोक्यबिन्दुसारपूर्वाय जला० ||३९|| अङ्गबाह्य श्रुतं वन्दे यत्करोत्यघनिर्जरां । चतुर्दशविधं तच्च यजे तोयादिभिः श्रुतम् ॥ ॐ ह्रीं अङ्गबाह्यचतुदर्शविधश्रुताय जला० ॥४०॥ वर्णनं व्यञ्जनानां च श्रुतज्ञानं सुलक्षणं । स्फुरदर्थं जलाद्यैश्च, तदंगं पूजयाम्यहम् ॥ ॐ ह्रीं व्यञ्जनोजिताय जला० ||४१ ||
अर्थैर्यत्र समग्रं च होनाधिकार्थवर्जित ॥ विशदार्थ जलाद्यैश्च तदंगं पूजयाम्यहम् ॥ ॐ ह्रीं अर्थसमग्राय जला० ||४२ || शब्दार्थः पूर्णांगं, शब्दार्थो भयसंज्ञकं । निर्दोषार्थ जलाद्यश्व, तदंग, पूजयाम्यहम् ॥
ॐ ह्रीं शब्दार्थोभयपूर्णाय जला ॥४३॥
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । [१६५ अकाले पठन प्रोक्त सुकालेऽध्ययने मतम् । तत्कालाध्ययन ज्ञेयं तदंगं पूजयाम्यहम् ॥ ॐ ह्रीं कालोऽध्ययनोप्रभावाय जलादिकं ।।४४।। उपाधानसमृद्धांग नियमादि भवं यतः । विनयं देवतादीनां, तदंग पूजयाम्यहम् ॥ ॐ ह्रीं उपधानसमृद्धांगाय जलादिकं ॥४५॥ विनयोन्मुद्रितांग स्यादधिकविनयादिभिः । जलाद्ययष्टविधैद्रव्यौः, तदगं पूजयाम्यहम् ॥ ॐ ह्रीं विनयोन्मुद्रितांगाय जलादिकं ॥४६।। सम्यग्ज्ञानं च गुर्वाधनपहच समेधित । यत्पवित्र जलाद्य श्च, तदंगं पूजयाम्यहम् ॥ ॐ ह्रीं गुर्वाद्यनपह्नसमे धितांगाय जलादिकं ।।४७॥ बहुमानसमृद्वाख्यां मानपूजादिपूर्वकम् ।। प्रोक्तं जिनैः जलाद्य श्च, तदंगं पूजयाम्यहम् ॥ ॐ ह्रीं बहुमानसमृद्वांगाय जलादिकम् ।।४८।। पूजाविशेषैर्जनितम् महापंचात्मरूपे वरबोधसूर्से । प्रोत्तारयाम्यत्र महोत्सवेहि वाद्यप्रधोषैर्वरमंगलाय ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय महाघ ।
अथ जयमाला । स्वोक्षेकनिवन्धन भवहरं चाज्ञानविध्वंसकं । मिथ्यामोहतमोपहम् निरुपम तीर्थेश्वरादुद्भवम् ।
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___१६६ ] दि जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
लोकालोक पदार्थदीपममलं योगीश्वरैरावृतं । ज्ञान ज्ञानधनाय नौमि वसुधा चारान्वितं संस्तुवे ।।
ये पठन्ति विमलाक्षरसारं, ते प्रयांति सकलागमपारं । पजयन्ति परमार्थसमग्रं, ते त्यजन्ति संसृतिघनदुर्ग ॥ ये पठन्ति शब्दार्थमनेकम्, ते तरन्ति विद्यार्णवमेकम् । ये पठन्ति काले श्रतपाठम्, लंघयति ते मिथ्याघाट । ये कुर्वत्युपधानसमृद्धि, ते भजन्ति सर्वातिमहद्धिं । अर्चयन्ति ये विनयाचारं, ते गच्छन्ति शिवालयसारं ॥ ये स्तुवन्ति विद्यागुरुपज्यं, ते भजन्ति तीर्थेश्वरराज्यं । ये यजन्ति शास्त्रे बहुमान, ते पिवन्ति सिद्धान्तसुपान ॥ ज्ञानं कत्स्नेन्द्रिय मृगपाशं, ज्ञानं महामोहविष नाशं । निस्संदेहं शिवसुखमूल, अनन्तं पापारि विदुरं ॥ अष्टभेदमाचारविशुद्ध, ये पठन्ति जैनागमशुद्ध । येऽयंतिभक्तव्याखिलभुक्तिं ते व्रजतिभुक्त्वाखिलमुक्तिं ॥
घत्ता। असमगुणनिधान चित्तमातङ्गसिंह ।
_ विषयभुजङ्गमन्त्रां कर्मशत्रुघ्नमेव ॥ नरसुरपतिमान्य विश्वसिद्धान्तसारं ।
वसुविधियजनाद्य श्चार्चयेऽर्पण मुक्तये ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय पूर्णाघ ।
॥ इति जयमाला ॥
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दि. जैन प्रतोकापन संग्रह। [१६७ यः सर्वथैकांतनयांधकासं
ध्वंसत्यवश्य नयरश्मिजालैः । विश्वप्रकाशं विदधातु नित्यां,
पायादनेकांतरविः स युषमान् ।। इत्याशीर्वादः ।
ज्ञान पंचविध सुधारसमय, सौख्याकर दीपवत् ।। प्रत्यक्षादिपरोक्षभेदममलं स्वान्यप्रकाशात्मकम् ॥ धर्माद्यन सुभूषणेन रचितः सद्बोधकल्पद्र मः। कुर्यात् यत्ररमादिभोगसकलं ध्यान बलं मूरिणां ।।
इत्याशीर्वादः । पुष्पांजलि ।
अथ चारित्र पूजा। सद्वृत्तं सर्वसावधौं योगव्यावृत्तिरात्मनः । गौणं स्यावृत्तिरानन्दः ज्ञेयं चारित्रभूषणं ॥१॥ अहिंसादीनि पंचव समितिं पंचकं तथा । गुप्तित्रयं च यत्रस्या तच्चारित्ररत्नक ॥२॥ इति यंत्रस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत् । आह्वाननस्थापनसचिच्चन,
संस्थापयाम्पमा वीजा।
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१६८ ]
दि. जैन प्रतोद्यापन संग्रह । चारित्ररत्नत्रययन्त्रमन्त्र,
रौप्यं तथा हेममयं च ताम्र ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र अत्रावतरावतर संवौषट् । स्थापनम् । सन्निधिकरणम् । गंगादितीर्थभवजीवनधारया च,
सत्सारया सुखदपुण्यसुवानिवृद्धौं । स्वात्मस्थशुद्धमपर व्यवहाररूपं,
चारित्ररत्नममलं परिपूजयामि ।। ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यकचारित्राय जलं । भीचन्दनैर्विशदकुम्कुमहेमवर्णैः,
कृष्णागुरुद्रवयुतनसारमिष्टः । स्वात्मस्थ०॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविध० चन्दनं । स्थूलैः सुगन्धकलमाक्षतचारुपुजैः, हीरोज्वलैः सुखकरेरिव चन्द्रचणैः । स्वात्मस्थ०॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविध० अक्षतं० । हेमाभचम्पकवरांवुजकेतकीभिः. सत्पारिजातकचयैबैकुलादिपुष्पैः । स्वात्मस्थ० ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविध० पुष्प । शान्योदनैः शुभतरघुतपूरयुक्तः शुद्धः सुधामधुरमोदकपायसान्नैः । स्वात्मस्थ०॥ ही त्रयोदशविष० नैवेद्य ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [१६९ रत्नादिसोमघृतदीपचगैरन.:, ज्ञानैकहेतुभिरलं प्रहतांधकारैः । स्वात्मस्थ० ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविध० दीप० । कृष्णागुरु प्रमुखधूपमरैः सुगन्धः, कर्माष्टकाग्निभिरहो विबुधोपनीतैः, । स्वात्मस्थ०॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविध० धूपं० । स्वर्गापवर्गफलदैर्वरपकवारी
र्नारिंगलिम्बुकदलीफनसाम्रा । स्वात्मस्थ०॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविध० फलं० । वागंधशालिजसुपुष्पचगैमनोझै
नैवेद्यदीपवरधूपफलादिभिर्वा । एतैः कृतार्थमिहसंयममन्त्ररूपे
__ चोत्तारयामिवरबाद्य सुगीतघोणैः।। ॐ ह्रीं त्रयोदशविध०सम्यक्चारित्राय अर्घ ।
अथ प्राशेक पूजा। मनसापि न कर्तव्या हिंसा दुर्गतिकारणम् । तव्रतं च जलाद्यश्च यजे चारित्ररत्नकम् ।। ॐ ह्रीं मनोविशुद्धयाकृतहिंसाविरतिसम्यक्तचारित्राय जला० वचने नापि कर्तव्यं हिंसाकर्मनिवारणं ॥ बनत च०॥ ॐ ह्रीं मनोविशुदयाकृतहिंसाविरतिमहायताय जबा• ॥२॥
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१७० ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । कायेन सर्वसावा त्याज्यं निग्रंथनायकः । तद्वतम् ।। ॐ ह्रीं कायविशुद्धयाकृताहिंसाविरतिमहाव्रताय जलादिकं ॥३॥ मनसापि न कर्तव्यं मनोसत्यं कर्मनिष्ठुरम् । तद्वतं० ।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्धयाकृतसत्य० जला० ॥४॥ वचनेन हितं सत्यं वाच्यं जीवसुखाकरं ! तव्रतं ॥
ॐ हीं प्रवचनविशुद्धयाकृता सत्य० जला० ॥५॥ कायेनापि न कर्तव्यमसत्ये प्रेरणादिक तद्वत ॥
ॐ ह्रीं कायविशुद्धयाकृतासत्य० जला० ।।६।। स्तेयं हेयं दुराचारं मनसापि मुनिश्वरैः । तद्वतं० ॥
ॐ ह्रीं मनोविशुद्धया कृतासत्य० जला० ॥७॥ वचनेऽपि च तत् त्याज्यं स्तेयं हिंसाकर यतः तद्वतं०॥
ॐ ह्रीं वचनविशुद्धया कृतस्तेयः जला० ।।८।। कायेनापि न कर्तव्यं स्तेयं स्वपरनाशकृत् । तद्वत ।
ॐ ह्रीं कायविशुद्धया कृतस्तेय० जला०॥९॥ मनसापि न चिंतव्यां कुशीलं दुःखदायकम् । तद्वत ।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध याकृतब्रह्मचर्यमहाव्रताय जला० ॥१०॥ ब्रह्मचर्यधरोवाग्मिस्त्रीवार्ता सकलां त्यजेत् । तद्वत ॥
ॐ ह्रीं वचनविशुद्धयाकृत ब्रह्मचर्य० जला० ॥११॥ कायेन रक्षित शील प्राप्त तेन शिवालयं ॥तव्रत॥
ॐ ह्रीं कायविशुद्धया कृतब्रह्मचर्य• जला० ॥१२॥ परिग्रहः परीहेयः मनसापि मुमुक्षुभिः ॥तव्रत ॥ ॐ ह्रीं मनोविशुद्धया कृतपरिग्रहविरति० जला० ॥१३॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [१७१ परिग्रह सदा त्याज्यः वचसा पापकारणं ॥तद्वत ।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्धयाकृतपरिग्रहवि० जला० ॥१४॥ साधुर्याति शिवं यस्मात् कायत्यपरिग्रहः ॥तद्वत॥ ॐ ह्रीं कायविशुद्धयाकृतपरिग्रहवि०बलादिकं ॥१५॥ मनसान्वेषणं कृत्वा गच्छति साधवो यतः । ईयोसमितिसंज्ञं तत यजे चारित्ररत्नकं ॥ ॐ ह्रीं मनसाकृतैर्यासमिति० जबा० ॥१६॥ वाग्भिर्दर्शितो मार्गो निरबधस्तपोभृतः । ईर्यासमितिसंज्ञतत यजे चारित्ररत्नकं ॥ ॐ ह्रीं वचनविशुद्धयाकृतैर्यासमिति० पला० ॥१७॥ कायेन क्रियते यत्र गमन दृष्टिगोचरं । ईर्यासमितिसंज्ञ तत् यजे चारित्ररत्नकं ॥ ॐ ह्रीं कायविशुद्धयाकृतैर्यासमिति० जला० ॥१८॥ अविष्टुराक्षरं यत्र मनसा कोमलं वचः । भाषासमितिसंज्ञ तत् यजे चारित्ररत्नकं ॥ ॐ ह्रीं मनोविशुद्धयाकृतभाषासमितिमहा० जला० ॥१९॥ वाचा मधुरता यत्र वाग्दोणैः रहित वचः । भाषासमितिसंज्ञ तत् यजे चारित्ररत्नकं ॥ . ॐ ह्रीं वचनविशुद्धयाकृतभाषासमिति० जला० ॥२०॥ कायदोषविनिमुक्त यतः सत्यार्थवाचकं । तत्समिति जलायेध, यो चारित्ररत्नकं ॥ ॐ ह्रीं कायविशुद्धयाकृतभाषासमिति जला० ॥२१॥
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१७२]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह। मुक्तिर्दोषैविनिमुक्तां नानाशास्त्रार्थसाधिनी । एपणासमितियंत्र, यजे चारित्ररत्नकं ॥ ॐ ह्रीं मनोविशुद्धयाकृतैषणासमितिमहाव्रताय जला० ॥२२॥ नानाशुद्धिकरा यत्र वचसाहारशुद्धिता । एषणासमितिज्ञेया, यजे चारित्ररत्नकम् ॥ ॐ ह्रीं वचनविशुद्धयाकृतैषण० जला० ॥२३।। कायेनशुद्धभावेन ग्दिोषाहार सम्भवा । सैषणासमितिइँया, यजे चारित्ररत्नकम् ।। ॐ ह्रीं कायविशुद्धयाकृतैषण० जला० ॥२४॥ वस्त्वादानं दयाद्रेण क्षेपणं मनसा तथा।
तन्नामा समितियंत्र, यजे चारित्ररत्नकम् ॥ -ॐ ह्रीं मनोविशुद्धयाकृसादाननिक्षेपणसमिति० जला० ॥२५॥
आदाननिक्षेपणं यत्र दयाद्रवचसा तथा । तन्नामा समितियंत्र यजे चारित्ररत्नकम् ॥ ॐ ह्रों वचनविशुद्धयाकृतादाननिक्षेपण. जलादिकं ॥२६॥ वस्त्वादान दयाद्रण कायेन क्षेपणं तथा । तन्नामा समितियंत्र यजे चारित्ररत्नकम् ॥ ॐ ह्रीं कायविशुद्धयाकृतादाननिक्षेपण• जलादिकं ॥२७॥ मनसा क्षांति: दयायुक्ता प्रतिष्ठापसंज्ञिका । तन्नामा समितियंत्र, यजे चारित्ररत्नकम् ॥ ॐ ह्रीं मनोविशुदयाकृतप्रतिष्ठापनासमिति० जला० ॥२८॥
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दि० जंन व्रतोद्यापन संग्रह ।
शुद्धया वचसा च युक्ता प्रतिष्ठापन संज्ञिका । समितिर्यत्र तोयाद्यः यजे चारित्ररत्नकम् || ॐ ह्रीं वचनविशुद्धयाकृतप्रतिष्ठापना० जलादिकं ||२९|| शुद्धया युक्ता च कायेन प्रतिष्ठापनसंज्ञिका । समितिर्यत्र तोयाद्यैः यजे चारित्ररत्नकम् ॥ ॐ ह्रीं कायविशुद्धयाकृतप्रतिष्ठापना० जलादिकं ||३०|| मनसा ध्ययनोद्भुता मनोगुप्तिरधापहा । तत्प्राप्तयैर्यत्र तोयाद्यः यजे चारित्ररत्नकम् ॥ ॐ ह्रीं मनसाविशुद्धयाकृतमनोगुप्तिमहा० जलादिकं ॥३१॥ यत्र स्वाध्यायतो जाता वचोगुप्तिस्तपोभृतां । वाग्विशुद्धया जलाद्यश्च यजे चारित्ररत्नकम् ॥ ॐ ह्रीं वाग्विशुद्धयाकृत वाक्गुप्तिमहा• जला० ||३२|| कायोत्सर्गविशुद्धया च कायगुप्तिः सुनिश्चला | जाता यत्र जलाद्यश्च यजे चारित्ररत्नकम् ॥ ॐ ह्रीं कायविशुद्धयाकृत कायगुप्तिमहा • जला० ||३३|चारित्ररत्नमनघं परमं पवित्रं ।
प्रोत्तारयामि वरमर्ध मह जलाद्यः ॥ पूर्ण सुवर्णकृतभाजनसंस्थित ं च । स्वर्गापवर्गफलदं जयघोषणश्च ॥
ॐ ह्रीं परमचारित्ररत्नाय महार्घं ।
अथ जाप्यः १०८ मालतीकुसुमैः ।
१७३
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१७४ ] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं असि आ उ सा सम्यग्दर्शनज्ञानचारि
त्रेभ्यो नमः ।
अथ जयमाला। संत्येवात्र महाव्रतानि सततं गुप्तित्रयं मुक्तिदं । पंचेव समितिव्रतानि सुहित कुति भव्यात्मनां ॥ तस्मात्पुण्यचरित्ररत्ननिकर सेव्यं मुदा शंकरं ।। मुक्तर्गिमिदं भवाब्धिशरणं भव्यौरहं संस्तुवे ॥१॥
अहिंसाव्रतं विश्वसत्वानुकंपं, यजेऽनन्तशर्माकरं निःप्रकम्प । असत्याद्विदूरं ज्ञानविज्ञानमूलं, सुसत्यं स्तुवे सर्वकर्मा'नुकूल ॥२॥ अदत्तातिगं कृत्स्नलोभादिदूरं, महांतं महासव्रतं धर्मपूर। परं ब्रह्मचर्यं जगद्ध हेतु, वर चर्चयेऽनन्तकर्माब्धिसेतु ॥३।। व्रतं धर्म शर्माकरं त्यक्तसंगं, खलैर्लोभतृष्णादिसर्वैरमगं मनोवाक्यकायत्रयं गुप्तिगुप्तं यजाम्यत्र हिंसादिपापैरमोष्ट ॥४॥ सुवाचां सुभाषैषणां यत्र भूतां किलादाननिक्षेपणां धर्मसुतां । प्रतिष्ठापनां चाचयेऽहं पवित्रां, समित्याख्यकावृत्तधात्रि विचित्रां ॥५।। परं पावन विश्वभव्यैकबन्धु, महादृष्टि चिवृत्तरत्नादि सिन्धु। जगत्पूज्यमानदशर्मादिहेतु, व्यथानिष्टरोगादि दुःखादिसेतु
१-वृत्ता
।
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दि० जन प्रतोद्यापन संग्रह ।
[१७५
॥६॥ सुरेन्द्रादिभूतिप्रदं पापदूरं, जिनेन्द्रादिसेव्यां वृषांमोतिपूरं । यजे वृत्तसार प्रमादादित्यक्तं, परम्पालयामक्षधातेवि सक्तं ॥७॥
X
विविधफलसम है दिव्यपक्वान्नवर्गः । ज्वलितवहुसुदीपैश्चार्चये वाद्य संयैः । रचितममलमध हेमपाोति रम्यम् ।
त्रिदशविधचरित्रस्यैव चोत्तारयामि ॥ ॐ ह्री त्रयोदविधसम्यकचारित्राय महाघ ।
समस्तानमांगल्यं द्रव्यपूर्णशभावह।
सुरज्ञानचरित्राणां मर्घमुत्तारयाम्यहम् ।। ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नत्रयधर्मेभ्यो पूर्णाघ । धर्मः कल्पतरुसदाफलतरुः सोऽयं महामङ्गलम् । सोऽयं देवजिनेन्द्रपादजनितः ससारदुःखावहः ।। तस्मात्पुत्रकल त्रशांतिकमला कीर्तिप्रदो वः सतां । भूयात् सन्तति वल्लरी जलधरः वंशान्वयेऽसौनिजे ॥
__ इत्याशिर्वादः ।
दृग्बोधादिकशुद्धवृत्तजनितम् रत्नत्रयं सद्वतम् । तत्पूजारचितामुनीन्द्रगणिना पुण्यात्मनासूरिणा ॥ सद्भट्टारकधर्मचन्द्रपदभृद् धर्मादिभूषात्मना । भव्योपासकशीवलेश विहित प्रश्नान् जिमार्थात् वरं।
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१७६ दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । गच्छे श्री शारदायाः सदतिवलगणे पावने मूलसंधे। भव्यो दाक्षिण्यभूषो जनिकुमुदविधोः धर्मचन्दो मुनीन्द्रः ॥ तत्पट्टाभोजसूर्यो जयति भविसुखं धर्मभूषो गणेद्रः । तत्कृत्या शम्भव यजयन्तु शिवकर श्रीव्रतोद्यापनं च ॥
_ पुष्पांजलि क्षिपेत् । इति श्री रत्नत्रयव्रतोद्यापनम् ।
अथ अनंत व्रतोद्यापनम् । श्रीनाभिसनुचरणाजयुगं
प्रणम्य देवेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रपूजित। वक्त्रादनन्तजिनपात् प्रविनिर्गतं
यदुधापनं बृहदनन्ततपोविधानं । सम्यक्त्वशुद्धिपरितं हृदयं नरो यो, भक्तया स्वनन्ततपसा परिधार्य नित्यं । शृण्वन्तु तस्य तपसो विधिमाहितस्य,
यस्यान्नराः सुखकरं फलमाप्नुवन्ति ।। मासे भाद्रपद शुक्ले, पक्षे च दशमी तिथौ । एकमुक्तिविधानेन भुक्त्वा गत्वा जिनालयम् ॥ जलगन्धादिभिर्द्र व्योः पूजयित्वा जिनाधिपान् । त्रिशुद्धिभक्तिभावेन स्तुत्वा नत्वा पुनः पुनः ॥४॥
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-:
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह। [१७७ गुरुणां चरणौ नत्वा गृहीत्वा प्रोषधं व्रतं । गृहीत्वाद्रव्यसामग्री जलगन्धादिशुद्धिकां ॥५॥ श्रीवृषभाद्यनन्तान्तान् चतुर्दशजिनेश्वरान् । स्थापयित्वा महोत्साहैः प्रौतेश्च अङ्गलाष्टकैः ॥६॥ चतुर्दशाकाः सम्यक् ते पूजनीया पृथक् पृथक् । आर्तिका जयमालाभिगंधपूगादि पूर्वकम् ॥७॥ एकभुक्तिर्दिनेचैकादश्यां त्रिकालपूजया । धर्मध्यानेन तत्रैव तिष्ठेत् श्रीजिनसद्मतिः ॥८॥ गृहारंभपरित्यक्तः स्वन्पोपाधिसमाहितः । द्वादश्यां जिनपूजांते चैकभुक्तिः प्रजायते ॥९॥ त्रयोदश्यामेकवार भोजनं निरवद्यकम् । त्रिकालपूजनं तद्वद् गृहव्यापारवर्जितं ॥१०॥ शुद्धत्रयोदशीयोग गन्धकूटीस्थवेदिकां । चतुप्रस्थप्रमाणे हि पंचचूर्णेन कारयेत् ॥११॥ मण्डलं वर्तलाकारं चतुस्र वर्गतशोभनं । द्रव्यग्रह सु चन्द्र के सुदकं ध्वजमण्डितं ॥१२॥ श्रीगन्धकुट्यां च विधाय मण्डले
तस्याग्रवेद्यां च विधाय स्वस्तिकं । भक्तया विशुद्धया महतीं सुयज्यां,
__ अनन्तवृत्तस्य तु वैभवेन वा ॥१३॥ स कोष्ठकान संप्रविधाय सादरं,
विविधचन्द्रोपकचारुमण्डपैः। .
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१७८ ]
दि. जैन व्रतोद्यापन मंग्रह ।
कुर्वतु सुभव्यजनाः सुयज्ञकं
तथा जिनेशा वरदा भवन्ति वै ॥१४॥ श्रीखण्डागरुकपूरकाश्मीरैः कुम्कुमादिभिः । चित्रितो मृन्मयताम्रधौतकुम्भो विलेपितः ॥१५॥ स्थापनीयोऽजुनधौतवस्त्रणाच्छादितःपरः । तस्योपरि च संस्थाली स्थापनीया मनोहरा ॥१६।। तस्यां श्रीजिनबिंब हि चतुर्दश जिनेशिनां । चतुर्विंशतिदेवानां बिंबं वा स्थापयेवुधैः ॥१७॥ अथवानन्ततीर्थस्य बिम्बं च स्थापयेन्मुदा । स्थापनीयं तदन चानंतयंत्रण मन्वितं ॥१८॥ यन्त्राभावे सुगन्धेन लेखनीयः शलाकया । यो यन्त्रोऽनंतनाथेन दर्शितो दिव्यभाषया ॥१९॥ यन्त्रोपरि विधातव्यां शुद्धमनन्तमण्डलं । प्रतिष्ठादिविधानेन प्रतिष्ठया मुमुक्षभिः ॥२०॥ यन्त्राद्योऽपि सर्वेषु पदार्था विदुषांवरे । जपनीयं ततो मन्त्र वनस्पति सुपुष्पकैः । २१॥ पञ्चामृतेन संस्नाप्य क्षालनीयो जलैर्वरैः पूर्ववदर्चन कृत्वा रात्री जागरणं चरेत् ॥२२॥ चतुर्दश्यां विधातव्यं चतुगहारवर्जन । महासंस्थापन कृत्वा पूजन च त्रिकालजं ॥२३।। पौर्णीमायां प्रभाते च पूजयित्वा जिनेश्वरान । पोषधं पारयित्वा च क्षेमं कृत्वा परस्परं ॥२४॥
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दि. जैनव्रतोद्यापन संग्रह । साधर्मिजनैः सार्द्ध स्वगृहे भोजनं व्रजेत् । मनवोऽस्य भवो येन जायते सफलो नृणाम् ॥२५॥
एवं विधानेन मयोदितं शुभं ... कृत्वा तपोऽनन्तवृताभिधान । उद्यापनं श्री जिनयज्ञकल्पं
कुर्नतु यस्मात् सफलं तपो भवत् ॥ एतत् पठित्वा वेदिकोपरि पुष्पांजलि क्षिपेत् । श्रीमन्त देवदेवौद्यः, पूजितं यस्य पङ्कजं । वृषभं वृषदातार, स्तूवेहं जगदुत्तमं ॥१॥ मदननाग विदारण केशरी,
धनभवोदधितारण नौसमः । नरवरेंद्र सुरेन्द्रसुपूजित
स्सभवनुश्च जगत्स्थजितोवतात् ।२।। स्तुवे शंभवं यस्य पादारविंदं ।
सुरैः पूजित पूज्यपादारविंद, । स्फुरन्फुल्लराजीव पादारविंदं,
चरच्चारनैरुप्प पादारविंदं, ॥३॥ विविधदुःखदवानलकन्दक,
विबुधहृत्कमलांतरनंदशकं । खचरनागनरामरवन्धक,
समभिनन्दनदेवमहं स्तुवे ॥४॥
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१८० ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
देवेन्द्रवृन्दमुकुटोत्करघृष्टपादो ।
दिव्यध्वनिप्रकटितामृत मेघनादः ॥
तत्वानुशाशनपराजित दुष्टवादः ।
संस्तूयते जिनपतिः सुमतिः सुभयः ॥ ५ ॥ कमलांचित सुकमलेष्टि परैः
कमलेपि जनाश्रितहृत्कमलम् । कमलां कमलोज्जित सद्वपुषे
कमलप्रभदेव नमो भवते ||६|| नीलरत्न भासपद्मभांचितोग्रविग्रहोः । ध्यान वन्हिसन्निधानकर्म कक्षनिग्रहः ॥ अस्तबाह्यमध्यवर्तितुर्यविंशतिग्रहो । नूयते सुपार्श्व कोsस्तकुत्सवाक्कदाग्रहः ||७|| शीतरश्मिरश्मिजालगौरकांति देहभाक् । सप्तत्व देश नै सप्त मंत्रत्रभवाक् ॥ शीतदीधितीद्धलक्ष्मणा चन्द्रमः प्रमः । स्तूयते मनोवचः सुकाययोगशुद्धितः ||८|| कुन्दपुष्प शुभ्र देववत्तया प्रसिद्धिता । आगमप्रमाणयुक्तियुक्तधर्म्य तथ्यवाक् ॥ पुष्पदन्तइत्यभूत्समस्तदेव देवराट् । यः समेस्तु बुद्धये समृद्धये जिनेश्वरः ||९|| शीतरश्मिचन्दनौधगांगवारिशीतता । धर्मदेशनांबुगर्भशीतवाक्यरश्मिभिः ||
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [१८१ यस्य शीतलस्य तं नमाम्हं तिरस्तुता । वेदनीयकर्मधर्मनाशनाय वै जिनं ॥१०॥ श्रेयांसं देवदेवं सुरपतिमहितं पूज्यपादं जिनेन्द्र । भक्तिप्रध्वेन्द्रनम्रोन्मुकुटमकरिकोद् घृष्टपादारविंदं ॥ कैवल्यज्ञानभानु त्रिदिवजवनितागीतकीर्तिसूमूर्ति । शांतं गम्भीरनादं निरुपममनिशं भावतोऽहं नमामि ।।
श्रीवासुपूज्यजिनपंजिततां दधानम् । सदर्शनावगमचारुचरित्रधानम ॥ कारुण्यबुद्धिकलितांतरमाददान । मुपास्महे महिषलक्षणमादधानम ॥१२॥ विमलोमलव र्जितगात्तधरः। प्रवरः प्रवराहसु लक्षभरः ॥ सुवचोमृततर्पितभव्यनरः । स जिनो भवता विवोऽतिहरः ॥१३॥ अनन्तसंसारपरं पराणम् । विध्वंसकं सौख्यकरं नराणां ।। अनन्तनाथं करुणानिधानम ।
वन्देऽहमष्टोपदसनिमाम् ॥१४॥ इति चतुर्दशतीर्थंकरस्तुतिपठित्वा स्वस्तिकोपरि पुष्पाक्षतता क्षिपेत् ।
NA
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ वृषभादि चतुर्दशतीर्थंकराष्टकम् ।
श्रीमन्नाकींद्रसेव्यान् वृषदान् वृषनायकान् ।
संस्थापयामि सद्भक्तया वृषमाद्यश्र्चितुर्दशः || ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्दशतीर्थंकर अत्रावतरावतर अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव २ वषट् स्वाहा । गंगादितीर्थोद्भववारिपूरैः ।
शीतैः सुगन्धैः प्रयजे जिनेन्द्रान् ॥ द्विः सप्तसंख्यादिजिनान् सुभक्त्या । नाकींद्रनाथार्चितपादपद्मान् ॥
१८२ ]
1
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्दशतीर्थंकरेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा । श्रीचन्दनैनंदितभृगवृदः शीतै गन्धैर्मलयाद्रिजातैः । द्विः सप्तसंख्यादिजिनान् सुभक्त्या ० । चन्दनम ० ॥ सन्मौक्तिकैर्वा कलमाचतोधेः ।
०
शुभैः सुदीर्वैः कमलादिवा हि || द्विसप्त || अक्षतान् ० | मल्लीजपाकुन्दकदम्बजाती ।
T
सच्चपकैः पद्म सुपारिजातैः । द्विसप्त० । पुष्पम् ० ॥ सन्मोदकैः खज्जकशर्करौधः । सद्भाजनस्थैश्वरुभिमनोज्ञैः । द्विसप्त० नैवेद्यम ० ॥ सद्ररत्नकर्पू रघृतादिभनैः सुदीपैः । दीपैस्तमोनाशकरैर्नरिष्टेः ॥ द्विसप्त० दिपम ॥ धूपैः सुगन्धैरगुरुद्भवैर्वा सन्धूपितासैबहुलुब्धभगैः । द्विः सप्त संख्यादिजिनान् सुभक्त्या • || धूपम० ॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [१३ सन्नालिकेराम्रसुदाडिमोथैः फले सुनारिंगकपित्थपुगैः । द्विः सप्तसंख्यादिजिनान सुभक्त्या० ॥ फलं० ॥
सद्वारिचन्दनशुभाक्षतकुन्दपुष्पै.वैद्यकैनरसुदीपसुधूपपुगैः ।। नारायणो यजसि देवनरेन्द्रपूज्यान् । द्विः सप्तसंख्य जिनपान् वरपात्रसंस्थः ॥ अर्ध ।
अथ प्रत्येक पूजा । सदर्शनावगमचारुचरित्रयुक्तं । विश्वामरार्चितपदाम्बुजसन्निरुक्तं ॥ नाभेयनन्दनमहं वसुकर्ममुक्तं।
शुद्धोदकादिभिरिमैजिनमर्चयामि ॥१॥ ॐ ह्रीं सद्धर्मप्रवर्तकाय वृषभतीर्थंकराय जलादि अर्घ० ॥
मिथ्यान्धकारविनिवारणपद्यमित्र । भव्याङ्गिपद्यवरबोधनपमित्रं ॥ कर्मोद्भटेरजितसज्जितशत्रुपुत्र।
वारादिभिर्जिनमह प्रयजे सुभक्त्या ॥२॥ ॐ ह्रीं कर्माष्टकरहिताय श्री अजितजिनदेवाय अर्घ॥२॥
शैवं सौख्यं सम्भावत्यस्य लोके । भक्त्या स्तुस्था बन्दमेवारीया च ।।
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१८४ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
तत्संप्राप्तम् सम्भवाख्यं जिनेन्द्रम् । जेतारेयं पूजयाम्यम्बु मुख्यैः ||३|| ॐ ह्रीं शिवंकराय श्री सम्भवतीर्थंकराय अघं ॥३॥ यश्व दर्शनादिभिः सुनन्दयत्यनुद्धतान् । पन्नगाधिपामरेन्द्रनाकिनः समुत्सुकान् ॥ मोहनीय कर्मधर्मघात नै कदक्षकम् । तं सदाभिनन्दनं यजेऽष्टधोदकादिभिः || ४ || ॐ ह्रीं लोकाभिनन्दकाय श्री अभिनन्दनजिनाय अघं ||४|| क्रोध लोभमान मोहभार सारमल्लकोमाथनैकमल्लतुल्यदोषहारकं सदा || चारनीरदिव्यहीरनीर चन्दनादिभिः ।
संजये जिनेश्वर सु पश्चमं शुभक्तितः | ५ || ॐ ह्रीं क्रोधाद्य न्मथकाय श्री सुमतितीर्थंकराय अ० ||५||
नीलकञ्जपत्र नेत्ररक्तकखचक्रमम् । रक्तपङ्कजातगात्रसत्सुसीममातृकम ॥ रक्तपङ्कजोज्वलक्षकर्मकक्षह तृकं । वारिचन्दनादिभिर्यजे सुषष्टमं जिन ॥६॥
ॐ ह्रीं पद्मप्रभतीर्थकराय अ० ||६|| कंदर्प सिन्धुरविदारणपंचवक्त्रः । सन्नीलरत्नसमभांचित पुण्यगात्रः ॥ सद्द्रव्यपंकज बिकस्वरबालमित्रः । सम्पूज्यते वन सुगन्धमुखः सुपार्श्वः ॥७॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
[ १८५
ॐ ह्रीं कन्दर्पोन्मयकाय श्रीपार्श्व तीर्थंकराय अघं० ॥७॥ सम्पूर्णचन्द्रोज्वलदिव्यगात्रं । सम्पूर्णचन्द्रांकसुबोधपात्रं ॥ चन्द्रप्रभं चन्द्रमिव द्वितीयं । द्रव्यैर्वनादिप्रमुणैर्यजेऽह ॥८ ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभतोर्थंकराय अघं० ||८| भूरि भव्य चित्तहारि सौख्यकारिवाग्विर । पुष्पदन्तनामधेयमंकमं दिगम्बर ॥ भूक्तिमुक्तिसार सौख्य सम्पदाकरं परं । पूजयामि भक्तितांष्टधोदकादिभिर्जिन ॥९॥ ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्ततोर्थंकराय अर्थ ॥९॥ त्रैकान्यवस्तु निचयं स चरचर च । जानाति पश्यति सदा युगपज्जिनो यः ॥ दिव्याविचित्रशुभशक्तिधर ं प्रभुं तम् । चर्चे जलादिकचयैर्जिनशीतलेशं ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथतीर्थंकराय अघं० ॥१०॥ श्रेयान् जिनः परमसंत तसौख्यकारी ॥ रूपप्रभृत्यककर राष्टमदापहारी । सम्पूज्यते जिनवरोऽष्टजलादिसारैः । द्रव्यंर्मनो वचनकाय विशुद्धिभाजः ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसतीर्थंकराय अघं० ॥। ११॥ ० श्री वासुपूज्यं वसुनाथपज्यं । तत्वार्थसार्थ प्रतिबोधदक्षं ॥
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__१८६ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
सद्बोधनिर्भत्सितवादिपक्ष ।
चर्चाम्यहं वारिसुचन्दनायैः ॥१२।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यतीथंकराय अपं० ॥१२॥ विमलं मलवर्जितगात्रघरं । कमलापतिसेवित पत्कमलं ॥ वरशूकरलांछनमर्तिहरं ।
प्रयजे कमलप्रमुखौ सुजिनम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अर्घ० ।।१३।। भव्यांभोरुहबोधनकतरणिं सेधांकविभ्राजितं । कन्दर्पोद्भटकुम्भिकुम्भदलने सत्यां च वक्रोपमं ।। अज्ञानभुविभेदनैकपरशुदुर्वादिगर्वापह। चर्चेऽनन्तमनन्तसद्गुणऽमणिवातास्पदंवाम सैः ॥ ॐ ह्रीं अंनतन्तनाथतीर्थंकराय अर्घ० ॥१४॥
देवेन्द्रवृन्दमुनिवन्दितपादपद्मान् । आदीश्वरप्रमुखधर्मसुतीर्थनाथान् ॥ द्रव्योश्चतुर्दशजलादिवसुपमैस्तान् ।
अर्पण संयजतिवर्णिनरायणाख्यः ॥ ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्दशतीर्थकरेभ्यो महापं ॥१५॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[१८७.
.. अथ जयमाला।
घत्ता। नतकल्पमहेन्द्रा नमितमुनींद्राश्चंद्राचित पदकमलवरा । नुतबुद्धिगणींद्रा दीप्तिदिनेंद्रास्तेजगंतु जिनवरनिकरा ।।
जय वृषभ वृषभ मुनि सेव्यपाद, जय नमित सुरासुर दिव्य नाद । जय अमलकमलदल नयनसार, जय अजित जिनेश्वर तरणतार ।।२।। जय संभव शंकर सुख निधान, जय अजरामर पद धर विमान । जय अभिनन्दन नन्दित मुनींद्र. जय सुरनर खेचर मही वितन्द्र ॥३॥ जय सुमति जिनेश्वर सुमतिकार, जय सुमनोमल गुणगण सुधार । जय रक्त कमलसम गात्र देव जय कमलापति यति विहित सेव ॥४॥ जय शोभन पाच सुपार्श्व राज, स्वस्तिक लांछन सुजिनपराज, । जय चन्द्रप्रभ वर चन्द्र गात्र, जय चन्द्र डित जिन परम पात्र ॥५॥ जय पुष्पदन्त सित पुष्पदन्त, जय मकर मुलांछन परम शांत । जय शीतल, शीतल वचन भङ्ग, जय द्रत कनकाम शरीर चङ्ग, ॥६॥ जय श्रेयो जिनवर परम धाम, जय विजित सुदुर्जय विकटकाम । जय वासुपूज्य वर महिष लक्ष, जय विजित सुदुर्जय मोह पच ।।७। जय बिमल विमल गुण निर्मिकार, जय प्रवर वराह सुलक्ष धार जय अनन्त परम गुजमनगरिष्ट, जय त्रिभुवनपति नुत पद वरिष्ट ॥८॥
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१८८ ]
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दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह ।
. घत्ता। सकलगुण गरिष्टान्निर्जितानङ्गदुष्टान्नमितसुरमहिष्टान् क्षिप्तकर्मारिकाष्टान् । वसुसुगुणवरिष्टानर्घयामीह शिष्टान् ।
मनसि परमनिष्टो वर्णि नारायणाख्यः ॥ ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्दशजिनेभ्यः जयमाला महाघ । आनन्दाधिविवर्धनेकविधवः संसारविध्वंसकाः । अज्ञानांधविभेदनेन सदृशास्त्र लोक्यलोकार्चिताः ।। कन्दर्पोत्कटकुम्भिदारुणहरिप्रायाः सुशांतिप्रदाः । श्रीमन्तो वृषभादयो जिनवराः कुर्वतु मे मङ्गलम् ।।
इत्याशीर्वादः । स्तुति।
छप्पा । वृषभाजित जिनदेव शम्भव अभिनन्दन जाणो । सुमति पदम पहपास विधुपह सुविधि वखाणो । शीतल ने श्रेयन्स द्वादश वासुपुजेसर । विमल कमल दलनेन अनन्तगुणअनन्त जिनेश्वर ॥ एह चतुर्दश जिनवरा, धर्मतीर्थपद उद्धरण । नारायण ब्रह्मचारी कहें, सकल संघ मंगलकरण । इति चतुर्दश तोशंकर प्रत्येक पूजा समाप्तम् ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [१८९ अथ चतुर्दश प्रकीर्णक गुणपूजा । सामायिकादिसुचतुर्दशभेदभांजि । प्रकीर्णकानि जिनदेवमुखोद्भवानि । वैराग्यभावजनकानि सुनिर्मलानि ।
संस्थापयामि विधिपूर्वकमाह्वयेऽहं । ॐ ह्रीं चतुर्दशप्रकोणात्रवतरावतर संवौषट् स्वाहा । अऋ तिष्ठ२ ठः ठः । अत्र मम संनिहितो भव भव वषट् स्वाहा ।
सर्वभूतसमाकारं सामायिकयुतम् मुनिं ।
जलाधष्ट विधैद्रव्योः पूजयामि तमुत्तमं ।। ॐ ह्रीं सामायिकक्रियायुक्तमुनये जलादिकं ॥१॥
१-व्रत कथाओंमें कोई कोई जगह १४ प्रकीर्णककी जगह सिद्धोंके १४ गुणोंकी पूजा की है, सो उसी माफिक नीचे सिद्धोंके १४ गुणोंकी पूजा दी जाती है ।
सिद्धके चतुर्दश गुण पूजा। त्रिकालसम्भवाः सिद्धाः चतुर्दशगुणोज्वलाः ।
अोवानन्तसंस्थाने सम्यकतिष्ठंतु सादरात् ॥ इति पठित्वा आह्वानन स्थापनं सन्निधिकरणम् ।
सिद्धस्य चतुर्दशगुणाः। ये सिद्धाः कर्मनिकृत्य तपोभिदिशात्मकैः । __यजेऽहं जलगन्धायैः सिद्धांतान तत्पदाप्तये ॥ ॐ ह्रीं तपसिद्धेभ्य नमः जलादिकं ॥१॥
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.१९०] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
चतुर्विशतिदेवानां स्तवनं प्रतिपादकम । पूजयाम्यष्टधा द्रव्योर्जलादिभिरहं मुनि ॥
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतिजिनस्तुतिप्रतिपादकाय मुनये जला० ॥२॥ ये विनयादिभिः सिद्धाः पंचसञ्ज्ञानसत्तमाः । यजेऽहं जलगन्धाडौः सिद्धान्तान्तत्पदाप्तये ॥ ___ॐ ह्रीं विनयसिद्ध भ्यो नमः जला० ॥२॥ कर्मनिमलनं कृत्वा संयमे सिद्धतां गताः । यजेऽहं ॥ ___ॐ ह्रीं संयमसिद्ध भ्यो नमः जला० ॥३॥ चारित्रादिगणैः सम्यक् कर्मनिर्म ल्यसिद्धिगाः । यजेऽह॥
ॐ ह्रीं चारित्रसिद्ध भ्यो नमः जला० ॥४॥ श्रतज्ञानेन संसिद्धाः कर्मनिमूल्य सिद्धिपाः । यजेऽहं ।। ___ॐ ह्रीं श्रु ताभ्याससिद्ध भ्यो नमः जला० ॥५।। निश्चयात्मकभावेन सिद्धाः कर्मविघातकाः । यजेऽहं ।।
ॐ ह्रीं निश्चयात्मकभावसिद्ध भ्यो नमः० जलादिकं ॥६॥ नष्टशरीरिणः सिद्धाः ज्ञानदेहविज भिताः । यजेऽह ।।
ॐ ह्रीं ज्ञानगुणसिद्ध भ्यो नमः जला० ॥७।। अनन्तबलसंवाद्याः क्षयाति कर्मजालिनः । यजेऽहं ।
ॐ ह्रीं बलगुणसिद्धेभ्यो नमः जला० ॥८॥ अनन्तदर्शनोपेताः पश्यन्ति ये चराचरम यजेऽह० ॥
ॐ ह्रीं दर्शनगुणसिद्धेभ्यो नमः जला० ॥९॥ अन्तरायक्षयात सिद्धा वीर्यानन्तविवर्धिताः । यजेऽहम ॥
ॐ ह्रीं अनन्तवोर्यसम्पन्नसिद्ध भ्यो नमः जला० ॥१०॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।'. [१९१ प्रातर्मध्यान्ह सन्ध्याष देवानां पूजने रतम् । पूजयाम्यष्टधाद्रव्योमुनींद्रम् विधिपूर्वकम् ।। ॐ ह्रीं त्रिकालदेववंदनायुक्तमुनये जलादिकं ॥३।। शुद्धशूक्ष्मगुणोपेताः क्षयाच नामकर्मणः । यजेऽहम् ॥
ॐ ह्रीं सूक्ष्मगुणोपेतसिद्ध भ्यो नमः जला० ॥११॥ अवगाहनेन संसिद्धाः मिलिता ये परस्परं । यजेऽहम् ॥
ॐ ह्रींअवगाहनगुणोपेतसिद्ध भ्यो नमः जला० ॥१२॥ अगुरुलघुसद्भावात् निराश्चयास्तपः श्रिताः । यजेऽहम् ॥
ॐ ह्रीं अगुरुलघुगुणगरिष्ठसिद्ध भ्यो नमः जला० ॥१३।। वेदनीयक्षयादव्याबाधसंगुणगोचराः । यजेऽहम् ॥
ॐ ह्रीं अव्याबाधगुणसमृद्धिसिद्ध भ्यो नमः जला० ॥१४॥ नवसुलक्षसरातपयोजनैः परमितं वरलोकसुमर्धजं । यममवाप्यसुसिद्धगणस्थितं वरमहामहं वितरामितं॥ ॐ ह्रीं चर्तु दर्शगुणपूरित सिद्धेभ्यो पूर्णा ।
वृषभादिवधमानन्ताः षोडशचाष्टसंयुताः । देवादिचक्रवादीनां तस्मै पुष्पांजलिं क्षिपेत ।।
पुष्पांजलिः ।
दुर्वारावारुणेन्द्रार्जितपवनजवा वाजिनश्चेन्द्रनोद्या । लीलास्वत्योत्य युक्त्यःकृतकरचमरोद्भासिताराज्यलक्ष्मीः
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१९२ ]
! दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
वानां निरोद्वारं प्रतिक्रमकारकम् । पूजयाम्यष्टघाद्रव्यैमुनींद्रम् विधिपूर्वकम् ॥ ॐ ह्रीं प्रतिक्रमणक्रियायुक्तमुनये जला० ||४|| दि 'तिवृद्धेषु विनय क्रियया युतं । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं गुर्वादिकध वृद्ध विनय क्रियायुक्तमुनये. जला० ॥५॥ दीक्षाग्रहणशिक्षादि कृतिकर्मपरं वरं । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं दीक्षाग्रहणशिक्षादियुक्तमुनये जला० ॥ ६ ॥ यत्याचारोपदेष्टारं दशवैका लिकं परं । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं दशवैकालिकोपदेशकायमुनये जला० ||७| उपसर्गाः सहे द्वीरमुत्तराध्ययने रतं । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं उत्तराध्ययनरतमुनये जला० ॥ ८ ॥ कल्पादिव्यवहारेण युतं दोषविघातकं । पूजया || ॐ ह्रीं कल्पव्यवहारयुक्तमुनये जला० ॥ ९ ॥ कल्पकल्परतम काले योग्यवस्तुग्रहे परं । पूजया || ॐ ह्रीं कल्पा कल्पयुक्त मुनये जला० ॥ १० ॥ षट्कालाचरणणोद्युक्तं भाणपोषकदेशकं । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं महाकल्पोपदेश कायमुनये जला० ॥ ११ ॥
उच्चैश्चातापपत्रं नवनिधिसहितं मेदनी सागरान्ताः । प्राप्यं त्वत्प्रसादात् त्रिभुवनमहिता शाश्वति धर्मवृद्धिः ॥ इत्याशीर्वादः ।
१ - धर्म |
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह !
[ १९३
पुण्डरीकपरं देवं सुचिकित्सोत्पत्युपदेशकं । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं पुण्डरीकोपदेशकायमुनये जला० ॥ १२॥ महादि पुण्डरीकाख्य देष्टारं करुणाकरं । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं महापुण्डरीकोपदेशकायमुनये जला० । १३॥ अशीतिकोपदेष्टारम् व्यवहारनये परे । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं अशोतिकोपदेश कायमुनये जला० ॥१४॥ प्रकीर्णकान्यङ्गवहिर्भवानि
सामायिकादीनि चतुर्दशानि
सम्पूजयाम्यर्घवरेण भक्तया
जलादिभिर्वर्णिनरायणाख्यः ॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशप्रकीर्णकेभ्यो महार्घं ।
'
अथ जयमाला ।
नतपरम सुरेन्द्रा, नमित नरेन्द्रा, कीर्ति कांतिवर दीप्तिधराः । वररुक्ष दिनेन्द्रा, बुद्धि गणेन्द्रास्ते जयन्तु मुनिवर निकराः |१| श्री सामायिक गुणसहित नमो, वर बत्रिस दूषण रहित नमो । स्तुत चौविस जिनवर पाय नमो, जिन क्रोधादिक कुकषाय नमो ॥२॥ जिनवन्दनशुभकृतकाय नमो, पद नमित सुरासुरराय नमो । प्रतिक्रमणप्रकाशितबोध नमो, कृत पंच दुराश्रवरोध नमो || ३ || कृत गुरु मुनीवर जन विनय नमो, वर तत्व प्रकाशित सुनय नमो । निरुपम शुभ संयम
१३
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१९४ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । सहित नमो, नरवर सुख रखनमहित नमो ॥४॥ उपदिष्ट यती जन चरण नमो, नव नय कलितागम धरण नमो। उपसर्ग सहन महाधीर नमो, दोइविंशति परिषह वीर नमो ॥५॥ व्यवहार क्रिया गुण कथित नमो, अष्ट मदरहित मुनि नयित नमो । हेयाहेय विचार सुधरण नमो, कमलापति सेवित चरण नमो ।।६।। गुणिजन गणपोषण सहित नमो, सुरनर विद्याधर महित नमो वरद्वादश विध तप चरण नमो, सुरनर खेचर पद धरण नमो ॥७॥ षड्सत्व दयाकर वीर नमो, सम तत्व प्रकाशन धीर नमो । पञ्चाचार चरण गुण धरण नमो, विकथा प्रमाद दूरीकरण नमो ।।८॥
घत्ता। परम मुनीश्वर दुरित तिमिरहर,
ज्ञानदिवाकर कुमति हरो । गुणगण कमलाकर नमित सुरासुर,
नारायण ब्रह्म सौख्य करो! ॐ ह्रीं चतुर्दशप्रकीर्णकेभ्यो पूर्णा ।
शान्ति सुवृद्धिं सुनरेन्द्रऋद्धिं । स्फूर्ति सुकीर्ति वरचुद्धिलब्धि ।। सत्कार्यसिद्धिं धृतिमादिशन्तु । प्रकीर्णकज्ञानधरा नरा वः ॥
इत्याशीर्वादः ।
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[ १९५
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
छप्पय ।
सामायिक जिनस्तववन्दन जिन फूनि हि जाणो । प्रतिक्रमण मुनि विनय सुनय कृति कर्म वखाणो ॥ दशवेकालि नाम उत्तराध्ययन मन आणो । कल्पव्यवहार सु नवम कल्पाकल्प वखाणो ॥ महापुण्डरीक सु महा-- पुण्डरीक अशीति ह्या । नारायण एवं वदतं चौदप्रकीर्णक जिन कथा | इति चतुर्दश प्रकीर्णक पूजा समाप्तम् ।
अथ चतुर्दश कुलकर पूजा ।
मतिज्ञानप्रगल्भांगान् सुमनून् परमायुषः । संस्थापयामि सद्बुद्धयै सत्प्रतिश्रुतिपूर्वकान् ।।
1
ॐ ह्रीं मतिज्ञानप्रगल्भचतुर्दशकुलकर अत्रावतरावतर अच तिष्ठ२ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । स्वाहा | वाचं प्रत्यशृणोत्यस्माच्चन्द्रार्कज्योतिषां प्रभां । प्रतिश्रुतिः समाख्यातः पूज्यतेऽसौ गुणाग्रणीः ।। ॐ ह्रीं प्रति तिकुल कराय अर्धं ||१|| नक्षत्रांकित शुभ्रभ्रदर्शनाज्ज्योतिष प्रभां ।
भीतिं न प्राप सन्मत्या सम्मतिः मोडच्यते मया ॥२॥
ॐ ह्रीं सन्मतिकुलकराय अघं० ||२||
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१९६ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
क्षेमं चकारयो लोके प्रजानां भोगभुजुषां । क्षेमकरत्वमाप्तोऽसौ पूज्यते पुण्यभाजनः ॥३॥ ॐ ह्रीं क्षेमङ्कर कुलकराय अ० ||३|| क्षेमन्धरो सदा लोके प्रजानां क्षेमधारणात् । जलाद्यष्टविधैद्रव्यैः पूज्यतेऽसौ प्रगल्भवाक् ||४||
Q
ॐ ह्रीं क्षेमन्करकुलकराय अ० ||४|| भोगभूमिजुषां नृणां सीमकृत्वा नरोत्तमः । सीमङ्कर इति ख्यातिं गतोऽसौ पूज्यते गुणी ||५||
ॐ ह्रीं सीमन्करकुल कराय अ० ||५|| तरुभिः क्षेत्र मर्यादां यो करोड्रोगभुजुषां । सीमन्धर इति ख्यातिं प्राप्तो सः चर्च्यते गुणी ||६| ॐ ह्रीं सीमन्धरकुल कराय अ० ||६|| बाहोपदेशाल्लोकेऽस्मिन् ख्यातो विमलवाहनः । कमलाद्यष्टधाद्रव्यैः पूज्यते कमलापतिः | ७|| ॐ ह्रीं वाहनोपदेशकाय विमलवाहनकुलकराय अघं० |७| पुत्रास्यलोकसन्दानाच्चक्षुष्मान् भवद्भुवि । भोगभूमिभवां योऽसौ पूज्यते गुणवान प्रभुः ||८|| ॐ ह्रीं चक्षुष्मान् कुलकराय अ० ||८|| भोगभूमिभवार्याणां संस्तुवात्परमादरात् । यशस्वदाख्यतां प्राप्तः पूज्यतेऽसौ मनोहरः ||९||
अ] ॥९॥
ॐ ह्रीं यशस्वान् कुलकराय
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
[ 280.
चन्द्र ेणाक्रीडयद्बालान भोगभूमिवां मुदा । अभिचन्द्राख्यतां प्राप्तः पूज्यते चन्द्रमप्रभः ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं अभिचन्द्रकुलकराय अघं ॥१०॥ हायनान्यजीवन्यस्मिन् राज्यं कुर्वति भूतले । चन्द्राभकोऽच्यते नित्यं भोगभूमिभुवा ॥ ११॥ ॐ ह्रीं चन्द्राभकुलकराय अर्घं ||११||
राज्यं कुर्वंति सापत्या जीवंतिस्म चिरंप्रजाः । यस्मिन्मरु' वसद्रव्यैः पूज्यते कमलादिभिः ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं मरुदेवकुलकराय अर्घं ||१२|| भोगभूमिवामपत्यानां गर्भमलापहा । प्रसेनदितिति आख्या प्राप्तो सः चर्च्यते मया ॥ १३ ॥ ॐ ह्रीं प्रसेनजित कुलकराय अर्घं ||१३|| नाभिरित्या प्रसख्यातिर्नाभिनाल निवर्तनात् । प्रजानां यो महाबुद्धिः पूज्यतेऽसौ मया मुदा ॥ १४ ॥ ॐ ह्रीं नाभिराय कुलकराय अघं ॥ १४ ॥ सद्वारिचन्द्रनशुभाक्षतपुण्य पुष्पैनैवेद्यरत्नवरदीपस धूपपुङ्गः । अर्ध ददाति विजयादिसुकीर्तिशिष्यने । नारायणः कुलकरेभ्य इह प्रमोदात् ॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशकुलकरेभ्यः पूर्णा ।
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१९८]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । अथ जयमाला।
घत्ता। कमलाननरुचिरा गणगणानिचिता नीलोत्पलदलनयनवरा। शुभमतिवर विभवा रतिपति सभवा स्तेजयन्तु कुलकरपुरुषाः ॥१॥ प्रतिश्रुति कुलकर गुणगण निधान, शुभ भोगभवांकृत परम मान । शुभ तारकिताभ्र समायें भीत, विनिवारण सन्मति सरल चित्त ॥२॥ वरभोग धराज मनुष्य लोक, कृत भाबुक गत मल विगत शोक । कृत भोग धराज सु भव्यकार, वर निर्मल भाबुक नाम धार ।३। सकलार्य महानग सीमकार, जगती जसु सीम कृत नीहार वर वृक्ष लतोकृत सीम धार, धृत सीमन्धर वर नाम भार ॥४। वर वाहन दर्शित विभव सार, विमलादि सु वाहन नाम धार । वर पुत्रानन लोकन सुदेश, विधि दानसु चक्षुष्मदभिधेश ॥५॥ सुयशस्त्रदिति प्रथिताभिधान, परमार्यानुति स्तुति घृत वितान । रमयन सु प्रजावर चंद्रकेण, स्वभिचंद्र इति श्रुति मायतेन ॥६॥ वर चंद्राभक इति नाम धार, सकलामल विधु सम कांतिभार । सुर राज समान मरु सु देव, चिरजीवन सन्ततिकृत सु सेव ॥७॥ सु प्रसेन विजिद्वर नाम धार, कृत बालक गर्भ पलापहार ।
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दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ १९९
वर नाभिराज नत नर समाज, कृत नामि निवर्तन सुख समाज !|८|| घत्ता । कुलकर वर देवा सुरकृत सेवा,
भांतु वरिष्टसुगुणनिकरा । सु चतुर्दश संख्या मत बहु कांक्षा,
भोगधराज सु सौख्यकरा ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशकुलकरेभ्यो जयमाला महाघ ।
शांति समृद्धि वरसौख्यवृद्धि, बुद्धि सुलब्धि परमार्थसिदि । स्फूर्ति सुकीर्ति वरपूजकाना, करोति नित्यं कुलभृत्समूहः ।।
इत्याशीर्वादः ।
छप्पा । मति श्रुति सन्मति नाम क्षेमङ्कर शेमन्धर जाणो । सीमङ्कर सुख धाम सीमन्धर बहु वखाणो ॥ विमलबाह वर चक्ष्व यशस्वदभिचन्द्र मनोहर । चन्द्राभक मरुदेव प्रसेनजित नाभि नरवर ॥ एह चतुदेश कुलकरा भोगभूमिज कुल उदरण । नारायण एवं वदत आर्यलोक बहु सुखकरण ॥
इतिश्री चतुर्दशकुलकर पूषा सम्पूर्ण ।
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२०० ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ चतुर्दश अतिशय प्रत्येक पूजा ।
द्विसप्तसंख्यान्वरदेव निर्मितान, सद्भव्यपूज्यातिशयान्मनोहरान् । आह्वाननस्थापनसन्निधापनैभक्त्या यजेऽहं विधिपूर्वकम् प्रभो ॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशातिशयात्रावतरावतर संवौषट् स्वाहा । अत्र तिष्ठर ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा । सर्वार्द्धमागधीयरा नै भाषा यस्य प्रवर्तते । पूज्यते परया भक्त्या पूजया परमादरात् ।। ॐ ह्रीं सर्वार्द्धमागधी भाषावंत भगवते अ ॥१॥ मैत्रीह सर्वजनना विषया यस्य विद्यते । पूज्यते परया भक्त्या पूजया परमादरात् ।। ॐ ह्रीं मैत्रोयुक्ताय भगवते अ ||२|| सर्व फलपुष्पाद्या भवेयुर्यस्य पादपाः । पूज्यते० ॥ ॐ ह्रीं सर्वऋतुफलपुष्पाग्रपादपाय जिनाय अर्ध ||३|| आदर्शतलसंकाशं रत्नम् यस्य प्रजायते । पूज्यते ० || ॐ ह्रीं आदर्शतलसन्निभ रत्नोभुयुक्ताय भगवते अर्धं ॥४॥ शीतो मंदः सुगंधिश्च वायुरन्वेति यं जिनम् | पूज्यते || ॐ ह्रीं सुगंधिवायुयुक्ताय जिनाय अर्घं ||५|| यस्मिन्विहरतीलायां जनानन्दोऽभवत्सदा । पूज्यते० ॥ ॐ ह्रीं सर्वजनानन्दकराय जिनाय अर्धं || ६ ||
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२०१ योजनांतरभूभागं देवाः कुर्वति निर्मलं । पूज्यते।
ॐ ह्रीं निर्मलभूभागयुक्ताय जिनाय अर्मं ॥७॥ मेघाः कुर्नति यस्योच्च वृष्टि गंधोदकाख्यकां । पूज्यते॥
ॐ ह्रीं दिव्यगंधोदकवृष्टियुक्ताय जिनाय अर्घ ॥४॥ सप्ताग्रे पृष्टतः सप्तपद्मानि यत्पदे पदे । पूज्यते॥
ॐ ह्रीं पद्मोपरि पादन्यासाय जिनाय अर्घ ॥९॥ यस्य व्रीह्यादि युक्ताभरभवद्यत्रभावतः । पूज्यते॥
ॐ ह्रीं व्रीह्यादि यस्यसंपत्तियुक्ताय जिनाय अर्घ ॥१०॥ यस्मन्विहरतीहाभदंगनम् मलवर्जितम् । पूज्यते॥
ॐ ह्रों निमलंगगनातिशययुक्ताय जिनाय अर्ध ॥११॥ आह्वयंतिस्मचान्येऽन्यान देवादेवान सुभक्तितः पूज्यते॥
ॐ ह्रीं अन्यदेर्वाह्वाननयुक्ताय जिनाय अर्घ ॥१२॥ धर्मचक्रम् भवेद्यस्य सहस्रारं सुसूर्यभं । पूज्यते ॥
ॐ ह्रीं धर्मचक्रयुक्ताय जिनाय अब ॥१३॥ भृङ्गाराद्यष्टधा यस्य मङ्गलं चाभवत्सदा । पूज्यते ॥ ॐ ह्रीं अष्टमंगलद्रव्ययुक्तायजिनाय अर्घ ॥१४॥ जलादिगंधाक्षतपुष्पकाये,
नैवेद्यकैर्दीपशतः सधूपैः । फलैर्महाघ प्रददाति शिष्यो,
नारायणः श्री विजयादिकीर्तेः ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशअतिशयमाप्तेम्यो जिनाय महार्ण ।
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२०२]
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ जयमाला। सकलविबुधवन्द्या देवदेवाभिनन्द्याः । कृतदुरितनिकन्दा भव्यपद्माभिनंदाः ॥ अतिशयगुणवन्दा नष्टकर्मारिकन्दात्रिभुवनजनशंदास्ते जिनेन्द्रा जयन्तु ॥१॥ शुद्धसर्वार्थसन्मागधी वागवादा । विश्वकर्मापहा निर्मला निर्मदादा ॥ सनविद्याधिपा धर्मबुद्धीश्वरा । सत्वबाधातिगा मित्रता मन्दिरा ॥२॥ सर्वपुष्पांचितांगस्थितेः षट्पदैः । संस्तुता वा मुदुत्कर्षगैः स्वास्पदैः । निर्मलादर्शतुल्याध्यममीश्वराः ।। सर्व भव्याापादाब्ज देवेश्वराः ॥३॥ वायुरन्वेति यान सद्विहारेश्वरांस्तानहं संस्तुवे सिद्धिगामीश्वरान् । सर्वभव्यार्चितान् भव्यमुक्तारिणो । दर्शनज्ञानचारित्रसद्वारिणः ॥४॥ देवदेवाशुभं कुर्नतु भूतले । शांतधूली तृणं शांतकीटोत्पलं ॥ देवदेवाज्ञया कुर्तते निर्मला । मंदगन्धोदकां वृष्टिमामोदकां ॥५॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२०३ देवदेवाधिपाः पद्मसंचारिणः । शुद्धभावं गताः सर्नशंकारिणः ।। भश्च येषामभन्नम्रशाल्यन्विता । देवदेवीप्रभूत्यंगिभिः संस्तुता ॥६॥ निमलं खं सरोवासरं जलामयं । यद्विहारे भवत्सर्व दिग्मण्डलम् ॥ देवदेवीगणा व्यन्तराः किन्नरा । यद्विहारेऽग्रगामि नः सत्पुत्सुकाः ॥७॥ दर्पणाद्यष्टधामङ्गलैभक्तितः । पूजिता देवदेवीगणैः शक्तितः ॥८॥
घत्ता । श्री जिनदेवाः सुरकतसेवा अतिविशेषगुणगणनिकराः ॥ विजयादिसुकीर्तरनुपममूर्तेः शिष्यनरायणसौख्यकराः ॥ ___ॐ ह्रीं चतुर्द शांतिशयेभ्यो महार्ष० । सकलदेवमनुष्यगणार्चिताः सकलकर्ममदोद्धति वर्जिताः ।। सकलसत्वदयानिधि संस्तुता सकलसंघसुखाय भवंतु ते॥
इत्याशीर्वादः ।
छप्पय । मागधी भाषा मित्री ऋतुफलमही मनोहर । अनुगत अलि मानन्द सुरनर कृत भूमि सुन्दर ।।
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२०४ ] दि० जैनव्रतोद्यापन संग्रह ।
गन्धोदक वर पद्म शालि सुक्षेत्र अनोपम । निर्मल गगन सुदेव सेव वर चक्र अनोपम ।। मङ्गलाष्ट दर्पण प्रमुख एवं अपूर्व वखाणीए ।। नारायण एवं वदति अतिशय चउद वरवाणीए ।
इति चतुर्द शातिशय पूजा सम्पूर्ण ।
अथ चतुर्दश पूर्वाणाम् प्रत्येक पूजा। देवदेवचक्रपद्मगिर्गतानि संविदे । संस्तुतानि चन्द्रकेन्द्रनागमानुषेन्द्रकैः ॥ भूक्तिमुक्तिसारसोख्यदायि पूर्वकाणि च । स्थापयामि मोदतः सुभक्तितश्च तुर्दशः ।।
ॐ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भवचतुर्दशपूर्वाणि अत्रावतरावतर -संवोषट् अत्र तिष्ठ २ ठः ठः। अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् ।
आद्यमुत्पादपूर्व वचककोटी प्रमाणकम् । यजेऽहमष्टधाद्रव्यलचन्दनमुख्यकैः ।। ॐ ह्रीं एककोटोपदप्रमाणाय उत्पादपूर्वांगाय जला० ॥१॥ अग्रायणीयपूर्वं वै लक्षषणमति प्रभं । यजेऽहम् ॥ ॐ ह्रीं षणवतिलक्षपदप्रमाणाय अग्रायणी पूर्वाय जला० ॥२॥ वीर्यानु सुप्रवादं च प्रोक्तं सप्ततिलक्षकं । यजेऽहम् ।। ॐ ह्रीं सप्ततिलक्षणपदप्रमाणवीर्यानुवादपूर्वाय जला० ॥३॥
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दि. जेनवताधापन सग्रह ।
। २०५ अस्तिनास्तिप्रवाई व षष्टिलक्षप्रमाणकम् । यजेऽहम् ॥
ॐ ह्रीं षष्टीलक्षपदप्रमाण अस्तिनास्ति पूर्वांय जला० ॥४॥ ज्ञानप्रवादसत्पूर्व व्येककोटीप्रमाणकम् । यजेऽहम् ।।
ॐ ह्रीं एकोनकोटोपद अमिताय ज्ञानप्रवादपूर्वाय जला० ॥५॥ षड्भिः संयुक्तकोट्योकम् सत्यप्रवादपूर्वकम् । यजेऽहम्॥
ॐ ह्रीं षधिककोटोपदप्रमाणा सत्यप्रवादपूर्वाय जला० ॥६।। आत्मप्रवादपूर्ण वै कोटीपट्विंशतिः स्मृतम् । यजेऽहम् ।।
ॐ ह्रीं षडविंशतिकोटीपदप्रमाणआत्मप्रवादपूर्वाय जला०॥७॥ कर्मप्रवादपूर्व चाशीतिलमाधिकोटिकम् । यजेऽहम् ॥ ॐ ह्रीं अशीतिलक्षाधिककोटीपदप्रमाणधर्मप्रवादपू० जला० ।। प्रत्याख्यानम् हि पूर्व च चतुरशीतिलक्षक । यजेऽहम्॥
ॐ ह्रीं चतुरशोतिलक्षपदप्रमाण प्रत्याख्यानपूर्वाय जला० ।।९।। घूथुविद्यानुप्रवाद षष्टीलक्षद्विकोटिक । यजेऽहम् ॥ ॐ ह्रीं षष्टीलक्षद्विकधिकद्विकोटीपदप्रमाणविर्यानुवादपू० ज० १०॥ कल्याणनामधेयं च षड्विंशति हि कोटिक । यजेऽहम्॥ ॐ ह्रीं षड्विंशतिकोटीपदप्रमाणकल्याणवादप्रादपू० जला० ॥११॥ प्राणानुवादसत्पूर्न कोटयस्ति हि त्रयोदशं । यजेऽहम्।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशकोटीपदप्रमाणप्राणानुवादपूर्वाय जला० ॥१२॥ क्रियाविशालपूर्ण च नवकोटीप्रमाणक । यजेऽहम् ॥ ॐ ह्रीं नवकोटीपदप्रमाणक्रियाविशालपूर्वाय जला• ॥१३॥
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२०६ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । लोकबिंदुशुभं पूर्व सार्द्धद्वादशकोटिकम् ।यजेऽहम् ॥ ॐ ह्रीं साई द्वादशकोटीपदप्रमाणलोकबिंदुपूर्वाय जला० ॥१४॥
अतिसुरभिजलोघेश्चन्दनैरक्षतोघेबकुलचरुसुदीपेधूपकर्नालिकेरैः ।। मुनिविजयसुकीर्तेः पादसेवाभिशक्तो ।
यजति सकलपूर्वाणीह नारायणाख्यः ।। ॐ ह्रीं चतुर्दशपूर्वेभ्यः पूर्णाघ ।
अथ जयमाला।
श्री जिनवरवाणी गुणगणवाणी, अमीय समान सोहामणिय । मिथ्यामत रहिता बहुगुणसहिता, गंभीर मधुररलीपरमणिय ॥१।। सुउठविकण्ठवि रहित अभङ्ग, सुअङ्ग विवेदवि सहित सु चङ्ग । सुमतिपूर्वक आगम सुविशाल, ते पूजो चउद परब गुणमाल ॥२॥ सु एक अनेक अस्थगुण खाण, सु एक मना थई सुण हो सुजाण । सुशीतल चंद्रकला सुविशाल, ते पूजो चउद पूरव गुणमाल ॥३॥ सुद्रव्य प्रकाशन निर्मल तेज, सु भवियण जन मन उपजे हेज । कुज्ञान तिमिर नाशन सुविशाल, तेपूजो चउद पूरव गुणमाल ॥४॥ सु पहेलो उपपाद पूर्व सु जाण, सु दुजो अग्रायणीय वखाण सुत्रीजो वीर्यांनुवाद विशाल, ते पूजो
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२०७ चउद पूरव गुणमाल ॥५॥ सु चोथो अस्ति नास्ति सुचङ्ग, सु पांचमो ज्ञान प्रवाद अभङ्ग। सु छट्ठो सत्य प्रवाद विशाल, ते पूजो चउद पूरव गुणमाल ॥६।। सु सातमो आत्म प्रवाद सुसन्त, सु आठमो कर्मप्रवाद अनन्त । सु नवमो प्रत्याख्यान विशाल, ते पूजो चउद पूरव गुणमाल ॥७॥ सु दशमो पृथु विद्यानप्रवाद, सु अग्यारमो कल्याण नाम सुवाद । सुवारमो प्राणानुवाद विशाल, ते पूजो चउद पूरव गुणमाल | ८|| सु तेरमो क्रिया विशाल आख्येय, सु चौदमो लोक बिंदु वरध्येय । सु जिनवर गणधर कथित विशाल, ते पूजो चउद पूरव गुणमाल ॥९॥
घत्ता । मिथ्यात्व तिमिर हरबोध दिवाकर, पढ़े गणे जे भाव धरी। नारायण भासै तत्व प्रकाशे, मनवांछित फल लछी घणी ।। ॐ ह्रीं चतुर्दशपूर्वेभ्यो जयमाला महाध० ।।
श्रीमजिनेन्द्रमुखपङ्कज निर्गतानि । धर्मार्थकामफलदानि सुपूर्वकानि ।। सत्पूजकं प्रमुखसंघजनस्य नित्यं । देवेन्द्र मानुष नुतानि भवंतु लोके ।। . इत्याशिर्वादः ।
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२०८]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
छप्पय । उत्पाद अग्रायणी नाम त्रिजोवीर्यानुवादह । अस्तिनास्ति सुखधाम ज्ञान सु सत्य प्रवादह ॥ आतमकर्म प्रवाद नवम सु प्रत्याख्यान यह । पृथु विद्यानुप्रवाद कल्याण सु पाणावायह ।। क्रिया विशाल सु लोकबिंदु चउद पूरवह जाणीए । नारायण ब्रह्मचारी कहे जिन सिद्धांत वखाणीए ।।
इति चतुर्दश पूर्वाणां पूजा समाप्ता ।
अथ चतुर्दश गुणस्थान पूजा। गुणस्थानामि पूर्वाणि भाषितानि जिनेश्वरैः ।
संस्थापयामि सबुद्धया विधिनाहं चतुर्दशम् ।। ॐ ह्रीं चतुर्द शगुणस्थानानि अत्र अवतरावतर संवौषट् अत्र तिष्ठ२ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा ।
मिथ्यात्वेनं तता प्राप्ता ये जीवा भव्यतां गता। ? __ पूजयामीह सद्भक्त्या जलादिभिरमैः शुभैः ।। ॐ ह्रीं मिथ्यात्वगुणस्थानस्थितानंतभव्य जीवराशये जला० ॥१॥ षडावलिसमायुष्का ये च सासादना स्मृताः । पूजया०॥ ॐ ह्रीं सासादनगुणस्थानवतिसम्यग्दृष्टिजीवराशये जला० ॥२॥ ये जीवाः श्रीजिनः प्रोक्तास्तृतीयस्थानवर्तिनः । पूजया०। ॐ ह्रीं मिश्रगुणस्थानस्थितभव्यजीवराशिभ्यो जला० ॥३॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ २०९
तत्वार्थश्रद्धया युक्ता ये सम्यग्दृष्टयो मताः । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं अविरत गुणस्थानस्थित सम्यग्दृष्टि भव्यराशिभ्यो जला । ४० देशव्रत समायक्ता ये जीवाः शुद्धमानसाः । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं देवव्रत गुणस्थानस्थितभव्यराशिभ्यो जला० ||५|| प्रमत्तमुनयो ये वै दृगविच्चारित्रधारकाः । पूजया ० ॥ ॐ ह्रीं प्रमत्तगुणस्थानस्थितमुनिभ्यो जला० ||६|| प्रमादरहिता ये चाप्रमत्तामुनिपुङ्गवाः । पूजया ० ॥ ॐ ह्रीं अप्रमत्तगुणस्थानस्थितमुनिभ्यो जला० ||७|| अपूर्वकरणाये वे सच्छ ेणिद्वय सुस्थिताः । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं अपूर्वकरणगुणस्थानश्र ेणिद्वयमुनिभ्यो जला० ||८|| करणानाम निवृत्तेस्त्व निवृत्ताश्च ये स्मृताः । पूजया०|| ॐ ह्रीं अनिवृत्तिकरणगुणस्थानस्थितमुनिभ्यो जला० ||९|| सत्सूक्ष्म सांपरायस्थो ये लिंगत्रयवर्जिता । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं सूक्ष्मसांपरायस्थितमुनिभ्यो जला० ||१०|| उपशांतकषायस्था ये नराः कश्मलोभिताः । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं उपशांतकषायस्थितमुनिराशिभ्यो जला० ॥ ११ ॥ क्षीणाः कषाया येषां वै द्वादशस्थानवर्तिनः । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं क्षीणकषायगुणस्थानस्थितमुनिराशये जला० ||१२|| घातिकर्मक्षयाद्ये व केवलज्ञानधारकाः । पूजया ० ॥ ॐ ह्रीं सयोगकेवलीगुणस्थानस्थितमुनिभ्यो जला० ||१३|| अ इ उ ऋ ल स्वायुष्काश्चतुर्दशगुणाधिपाः । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशगुणस्थानवर्तिमुनिभ्यो जला० ॥१४॥
१४
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दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह |
जला दिचन्द मसंदात पुष्पचारु । मैवेद्यदीपवर धूपफलैर्महार्घ ॥ नारायणो विजयकीर्तिगुणप्रसादात् । यच्छत्यनर्धममलं मुनिपुङ्गवेभ्यः ||
ॐ ह्रीं चतुर्दशगुणस्थानस्थित भव्यजीवेभ्यो महाघं० ।
२१० ]
अथ जयमाला |
सिरि गुणगण ठाणा अमिय समाणा, भवियण मुनिवर बोधकरा ।
अइ सुमइ विहाणा मुणिप्रणभाणा, कुमविणासण दुरियहरा ॥ १ ॥
पठमं मिथ्यातह ठाण यहि भव्व राशि अनंत जिणेसर देव का |
चउदस बावण गणहर मुणिवर भव्य लहा ते बन्दामिय निम्मल निस्सय सिद्धि पहा || २ ||
सासादण वर दिठि भणा एक सम कोड़ि चार । जिणेसर देव का ||
चउदस बावण गणहर मुनिवर भव्य लहा ते वन्दामिय निम्मल निस्सय सिद्ध पहा || ३ || तिदिय ठाणे गाण भव्ववरा दो पंचासय कोढ़ि जिणेसर देव का | चउदसि बावण० ॥ ४ ॥
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[२११
दि० जैन ब्रतोद्यापन संग्रह। अविरदमि सय सत्तकोडि समकितवंत महंत जिणेसर देव कह्या । चउदसि बावण ॥ ५ ॥ देस विरद वर सावयए तेरइ कोडिपमाण जिणेसर देव कह्या । चउदसे बावण० ॥ ६ ॥ रस खदु अठङ्कर यणङ्कड बाण समाण पमत्त जिणेसर देव कह्या । चउदसे बावण ॥ ७ ॥ रयणख चन्दण वइरसहि णवदोसचम ठाण जिणेसर देव कह्या । चउदसे बावण० ॥ ८ ॥ अठय ठाणे मुणिव सहा, पूजंता भयहाणि विणेसर देव कह्या । चउदसे बावण ॥९॥ अणियट्टिवर गणयहि मुणिवर गुणगण ठाण जिणेसर देव कह्या । चउदसे बावण ॥ १० ॥ सुहुमे ठाण मय रहिता जाण अणुवय धाम जिणसर देव कह्या । चउदसे बावण० । ११ । एकादह वर ठाणम्मियें उपसम पत्त कषाय जिणेसर देव कह्या । चउदसे बावण० ॥ १२ ।। क्षीण कसाय सु द्वादसवें पंच महव्वय धार जिणेसर देव कह्मा । चउदसे बावण० ।। १३ ॥ सयोगेवर केवलीए परम पयत्थ पकास जिणेसर देव कह्या ।। चउदसे त्रावण ॥१४॥ पंच लहु खर ठिदि धरए कम्म रहित जिणदेव जिणेसर देव कह्या । चउदसे बावण ॥ १५ ॥
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२१२ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
घत्ता ।
इह चउदह गणे मुणिकय जाणे, तत्तपमाणे दुरिह हरे |
सिरि विजय सुकीर्ति अविचल तुत्ति, सिस्स नरायण सुमइकरे ||
ॐ ह्रीं चतुर्दशगुणस्थानस्थित भव्यराशिभ्यो जला० । लक्षाम्पष्टतथाष्ट भिन्नवतिरुक्ता सा सहस्राहताः । पंचाब्बेकशतानि चोत्तरय मन्येते जिनाः कीर्तिताः || सांप्रतिष्टमुखाश्च षङ्क नवकामध्ये सदेक त्रिताः । सर्वे ते मुनयो दिशंतु भवतां भूरिश्रियं वंदिताः || इत्याशीर्वादः ।
छप्पय ।
मित्रा सासादय दिठि मिस्स अविरय गुण ठाणह । देसविरय परमत्त सत्तम उपमत्त बषाणह || अपूव्वकरण अनिवत्त हम सांपराय सुजाणह । उवसंतह खीण कसाय जोग अजोग पमाणह ॥ चउदह ठाणा णामसु जिणवर मणहर मुणिभण्या । नारायण ब्रह्मचारी कहिं भव्य जीव श्रवणे सुण्या ॥ इति चतुर्दश गुणस्थान पूजा समाप्त ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह। [ २१३
अथ चतुर्दश मार्गणा पूजा। गत्यादिभेदतः सन्ति चतुर्दश सुमार्गणाः । आह्वानयामि सद्भक्त्या जैनसिद्धान्तमार्गतः ।
ॐ ह्रीं चतुर्दशमार्गणात्रावतरावतर संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। अत्र मम सन्निहितो भव २ वषट् स्वाहा ।
स्वर्गादिगतिहेतुनां देष्टारो ये गतस्मयाः । .. यजेऽहमष्टधा द्रव्यौमार्गणाश्रितमानसान् ॥ ॐ ह्रीं स्वर्गादिगतिहेतुपदेशकेभ्यो जला० ॥१॥ एकेन्द्रियादिजीवानां ये वै रक्षणतत्पराः यजे० ॥
ॐ ह्रीं एकेंद्रियादिजीवरक्षकेभ्यो जलां० ॥२॥ पृथिवीकायिकादीनां रक्षणे लुब्धमानसाः यजे०॥
ॐ ह्रीं षट्कायरक्षकमुनिभ्यो जला० ॥३॥ मनोवाकाययोगानां हेयाहेयप्रकाशकान् । यजे०॥
ॐ ह्रीं योगमार्गणाज्ञापकेभ्यो जला० ॥४॥ वेदत्रयविमुक्तानां पूर्णसंयमाशालिनः । यजे०॥
ॐ ह्रीं वेदत्रयरहितमुनिभ्यो जला० ॥५॥ कर्महेतुकषायाणां ये नरा भेदने वराः। यजे० ॥
ॐ ह्रीं कषायविध्वंसकेभ्यो जला० ॥६॥ ज्ञानोपयोगयुक्ता ये मुनींद्रा मानवर्जिताः । यजे० ॥ ॐ ह्रीं ज्ञानोपयोगयुत्तजिनेभ्यो जला० ॥७॥
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२१४] दि. जैन व्रतोधापन संग्रह । संयमोद्धरणे दक्षाः संयमानां प्रकाशकाः । यजे० !!
ॐ ह्रीं सामायिकसंयमोद्धारकमुनिभ्यो जला० ॥८॥ चक्षुणां दर्शनानां ये ज्ञायका मुनयो वराः । यजे० ॥
ॐ ह्रीं चक्षुरादिदर्शनज्ञापके म्यो मुनिभ्यो जला० ॥९॥ शुक्लमेश्यारता ये च लेश्याषट् कोपदेशकाः । यजे०॥
ॐ ह्रीं षट्लेश्यापदेशकेभ्यो जिनेभ्यो जला० ॥१०॥ भव्याभव्यप्रभेदज्ञाः ज्ञानध्यानधनाश्च ये । यजे०॥
ॐ ह्रीं भव्याभव्यमार्गणाप्रकाशकेभ्यो जला० ॥११॥ सम्यक्त्वादिगुणोपेता ये सम्यक्त्प्रकाशकाः । यजे०॥
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वोपदेशकेभ्यो जला० ॥१२।। संज्ञासंज्ञिप्रभेदानां मार्गणा ये रताः सदा । यजे०॥
ॐ ह्रीं संज्ञासंज्ञिमार्गणाभेदकथकेभ्यो जला० ॥१३॥ आहारमार्गणोधुक्ता ये तद्भेदप्रकाशकाः । यजे०॥ ॐ ह्रीं आहारकमार्गणोपदेशकेभ्यो जला० ॥१४॥
गत्यादिवेदपृथिवीमित मार्गणाश्रिताः। संसारसागरसमुत्तरणैकनिष्टिताः । अर्पण रत्नवरभाजनसुस्थितेन तान् ।
नारायणो यजति भक्तिभरेण सन्मनीन् ।। ॐ ह्रीं चतुर्दशमार्गभ्यो महाघ ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ जयमाला |
पणविवि जिणदेवा, सुरकय सेवा, पुणुपणविवि मुणिणाण घणा । चउदश वर मगणा, जिण गणहर भणा, ता कहामि सुणु भव्व जणा ।।
[ २१५
I
सुरगह णरगह तिरिय णरय गइ णायहरा । इन्द नरिंद फणिंद सुचन्द्र तिलोय वरा ! ते वंदामिय सामिय णिम्मल भावधरा 1 पुणू पणमामि सत्तिय भत्तिय भावमुदा ॥ २॥ फासण रासण, घाण णयण, वरकणमया । सत्ताविंसदि माणविजय इन्दिय विसया । ते वंदामि०॥ पुढवी आइसु थावर तस्स दया विमला | इरियाजुगंतर दिठिम सुछिय पय कमला । ते वंदामि०॥ मणवय काय तिव्विमित जोग सुभेय करा | अणुभय भासय भासिय तत्तय मतइरा । ते नंदामि ० || पुरुस चेयथीवेय नपुं संयवेय वहा । झाणपणासिय कम्मपभासियमुत्ति पहा । ते वंदामि०॥ कुछिय कोह कुपाण कुमाया लोह जया । णिज्जिय हासरदीर दिसा कह सच भया । ते चंदामि || कुमइ सुमइ मषपञ्जय चावदेसकरा । केवलणाण पकालिय भासिय अनुभ्रा । वे चंदामि ० ॥
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२१६ ] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । सामाइयादिय संजम खयकय कम्मगणा । दीव धुणी पयिबोहिय सोहिय भव्य जणा। ते नंदामि०॥ वर कुस्मादिय दंसण भेय पकास करा । केवल दंसण पेक्खिय लोय अलोय वरा । ते नंदामि०॥ सुक्क सुपउपक बोत................. लेस्सा छक्खयभेय पभासण भव्व हिदा । ते नंदामि०॥ भव्य सु मग्गण मग्गिय भव्व सु जीवजणा । भव्य भवोदहि तारण णाव समाण मणा । ते वंदामि०॥ मिछत्तादि सम्मत्त पयार पयास बुहा । जिय मय जिय उठ सग्ग पमाद खुहाय मुहा । ते वंदामि। सणमग्गण दस्सिय मणिय जोव पहा । दुइ कम्मट्ट गयट्ठ विहट्टण सिंह जहा । ते वंदामि॥ आहारय मग्गण दस्सिय आहारह जीव पहा । विग्गहगइ अणाहरोय संसण बोहवहा । ते वदामि० ॥
पत्ता। सिरि जिण मुणि बन्दा,
णयणाणन्दा भव्यकुमुयवर बोहकरा । सिरि विजय मुणिंदा पापणिकन्दा,
सिस्स नरायण दरिय हरा ॥ ॐ ह्रीं चतुर्द शमार्गणोपदेशकेभ्यो पूर्णाघ । तीर्थङ्करा गणधरा मनीपुङ्गवा नः । श्रीमज्जिनेन्द्र वरयज्ञ विधिप्रणिष्टाः ।।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२१७ कारुण्यबुद्धिकलिताशयभव्यसाथी । नरायणेन महिताः प्रदिशन्तु भव्यम् ।। __ इत्याशीर्वादः ।
छप्पय । चउगइ इन्दिय पंच काय फुनि छक्क भणिजे। पगदस जोग पमाण वेय फुनि तीन्ह गणीजे ।। चउकसाय फुनि गाण संयम फनि दंसण चउक्कह । लेस्सा छक्क वखाण भव्व फनि सम्मक वन्तह ।। सणि आहारय णायसे चउदस मग्गण जाणीए । नारायण वाणी वदन्त जिन सिद्धांत वखाणीए॥
इति चतुर्द शमार्गणा पूजा समाप्तम् ।
अथ चतुर्दश जीवसमास पूजा। द्विसप्तसंख्यवरजीवसमासरक्षा
नेकेन्द्रियप्रमुखजीवविवेकदक्षान् ॥ नागेन्द्रचन्द्रमनुजेन्द्रसुरेन्द्रलक्षान् ।
संस्थापयामि विधिना वृषतीर्थनाथान् ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशजीवसमासरक्षकमुनियोऽत्रावतरावतर संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
पर्याप्तपार्थिवानां ये जीवानां रक्षणोद्यताः । सम्पूजयामि तान् भक्त्या सद्यौः कमलादिभिः ॥ ॐ ह्रीं पर्याप्तपृथ्वीकायिकजीवरक्षकेभ्यो जलादिकं ॥१॥
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२१८ } दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह। अपर्याप्तकजीवानां पार्थिवानामहिंसकाः । संपूजयामि तान् भक्त्या सद्रव्योः कमलादिभिः ॥
ॐ ह्री अपर्याप्तपृथ्वीकायिकजीवरक्षकेभ्यो जला० ॥२॥ अप्कायिकाख्यपर्याप्तसत्त्वरक्षणतत्पराः । संपूज० ॥
ॐ ह्रीं पर्याप्तकअपकायिकजीवरक्षकेभ्यो जला० ॥३॥ अपर्याप्ताख्य जीवानां जलानां ये प्ररक्षकाः । संपूज०॥
ॐ ह्रीं अपर्याप्तकायकायिकजीवरक्षकेभ्यो जला० ॥४॥ तेजस्कायिकजीवानां पर्याप्तानां दयापराः । संपूज०॥
ॐ ह्रीं पर्याप्तकतैजस्कायिकजीवरक्षकेभ्यो जला० ॥५॥ तेजसानामपर्याप्तसत्वानां ये दयान्विताः । संपूज०॥
ॐ ह्रीं अपर्याप्तकतैजस्कायिकजीवरक्षकेभ्यो जला० ॥६॥ पर्याप्त काख्यवायनां रक्षणे ये हि तत्पराः । संपूज.॥
ॐ ह्रीं पर्याप्तकवायुकायिकजीवरक्षकेभ्यो जला ॥७॥ अपर्याप्तकोयूनां रक्षा संसक्तमानसाः । संपूज०॥
ॐ ह्रीं अपर्याप्तकवायुकायिकजीवरक्षकेभ्यो जला० ॥८॥ वनस्पतिसमुद्भुत पर्याप्तागिप्रपालकान् । संपूज०॥
ॐ ह्रीं पर्याप्तकवनस्पतिजीवरक्षकेभ्यो जला० ॥९॥ वनस्पतिसमुत्पन्नापर्याप्तांग्यप्रपात्कान् । संपूज०॥
ॐ ह्रीं अपर्याप्तकवनस्पतिजीवरक्षकेभ्यो जला० ॥१०॥ द्विन्द्रियादि त्रयाणां ये पर्याप्तानां प्रपालकाः । संपूज०॥ ॐ ह्रीं पर्याप्तद्विन्द्रीयादिविकलत्रयरक्षकेभ्यो जला० ॥११॥
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ २१९
अपर्याप्तकभेदानां रक्षका विकलात्मना । संपूज० ॥ ॐ ह्रीं अपर्याप्तद्विन्द्रयादिवि कलत्रयजीवरक्षकेभ्यो जला० १२ ये प्ररांति पचाज्ञान पर्याप्तभेदभाजिनः । संपूज० ॥ ॐ ह्रीं पर्याप्तकपंचेन्द्रीयजीवरक्षक मुनिभ्यो जला० ||१३|| अपर्याप्तक पंचाक्षप्राणरक्षणवर्तिनः । संपूज० ॥ ॐ ह्रीं अपर्याप्त पंचेन्द्रीयजीवरक्षकमुनिभ्यो जला० ||१४|| द्विसप्तसंख्यवर जीवसमासरक्षानेकेन्द्रीय प्रमुख सच्च विवेकदक्षान् । सम्पूजयामि कमल प्रमुखखैमुनींद्रानद्रव्यैरहं विजयकीर्तिमुनींद्र शिष्यः । ॐ ह्रीं चतुर्दशजीवसमासरक्षकेभ्यो महाघं ।
X
X
अथ जयमाला ।
णासियमय ठाणे, चउविहणाणे,
झाणट्टिय णियमय कमले जीउ चउद समासे. विविध पकासे,
णिम्मल भासे मुणि विमले ॥ पुढवी पज्जय भेय विद्वेष कर सुकरं । वह अपन्जय भेय विवेय करं पवरं ॥
तं वन्दे सिरणामिय सामिय पापहरं ।
पुणु पणमामिय गणहर मुमिवर साहु भरं ॥ १६
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
२२० ]
अपसु पज्जय जीव विणायमणोविमलं
तह अपज्जय सत्तय सत्त मणो कमलं | तम् वन्दे ० ॥ २ ॥
ते सुभेउ पभा िपज्जय भेय वरं ।
तह अपज्जय ते सुभेउ उपमाणकरम् | तम् वन्दे ० || ३ || पज्जय वायु सुभाउ अभेय पभेय धरं ।
तह अपज्जय बाउ सुकाउ विदेशहरं । तं वन्दे० ||४|| वणफ्फदि पज्जय जीव समासय नीदिहरं । तह अपज्जय वणफ्फदिसत्तय संतिकरं । तं वन्दे ० ||५|| पज्जय छिंदिय तिदिय चउरिंदि भेय वयं । तह अपज्जय छिति चउरिंदिय सत्त दयं । तं वन्दे ० ||६||
पज्जय पंचवि इंदिय जीउवि भेदहरं ।
तह अपज्जय सण असणिय संतिकरं || तं वन्दे ० ||७||
घत्ता ।
सिरि गणहर सुणिवर, साहु समयधर
जीउ समास पयास करा ।
सिरि विजय सुरीसा गुणगगइसा सिस्स नारायण दुरिय हरा ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशजीवसमासरक्षकमुनिभ्यो महाघं० । श्री मद्गणाधिपतयो यतयो मुनीशाः । सत्साधवो विबुधवृन्दविवन्द्यधीशाः ॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२२१ सच्छात्रपाठपठनोद्यतपाठकेशाः । क्षेमं दिशन्तु यजते भजते गिरीशा ॥
इत्याशीर्वादः ।
छप्पा । पुढी अप्पह तेज वायु फुनि तरुकय मेयह । एक बिइंदिय भेय गोय फुनितिंदिय वे यह ।। चउरिंदिय फुनि जात खात विकलत्तय णामह । सणि असणि गणभात पञ्च इंदिय सुधामह ।। सत्तह पज्जय भेयसु सत्त अपज्जय जाणीये । नारायण ब्रह्मचारी कहे, चउदह जीव वखाणोये ॥ इति चतुर्दश जोवसमास पूजा समाप्तम् ।
अथ चतुदेश नदा पूजा। जम्बूपलक्षिते द्वीपे नद्यश्चतुर्दशस्मृताः । आह्वानयामि ताः सर्वा गंगाद्या मंगलप्रदाः ।।
ॐ ह्रीं गंगादिचतुर्दशनद्योऽत्रावतरावतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ२ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा ।
गंगा हिमवदुद्भूतां जिनबिंबसमन्वितां ।। सलिलाधष्टधाद्रव्योः पूजयामिप्रभक्तितः ॥
ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वित गंगानद्यै जलादिकं ॥१॥ सिंधुहिमवदुद्भूतां जिनबिम्बसमन्वितां । सलिला० ॥ ॐ ह्रीं जिन बिम्बसमन्वितसिन्धुनी जला० ॥२॥
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२२२ ] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । रोहित हिमवद्जातां जिनबिंबसमन्वितां । सलिला०॥ ___ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वितरोहितायै जला० ॥३॥ महाहिमदुद्भतां रोहितास्यां जिनान्वितां । सलिला०॥
ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वितरोहितास्यायै जला० ॥४॥ महाहिमदुद्भतां हरितां जिनसंयुक्तां । सलिला०॥
ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वितहरिते जला० ॥५॥ निषधाचलसंभतां हरिकांता जिनाकितां । सलिला०॥
ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वितहरिकांतायै जला० । ६।। निषधाचलसंभा सीतां श्रीजिनसंश्रितां । सलिला० ॥
ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वितसीतानी जला० ॥७॥ नीलभभत्समुत्पन्नां सीतोदां प्रतिमान्विता । सलिला०॥
ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वितसीतोदानी जला० ।।८।। नीलभभृत्समुत्पन्नां नारी प्रतिममांकितां । सलिला०||
ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वितनारीना जला० ॥९॥ रुक्म्यद्रिप्रोत्थितां रम्यां नरकांतां जिनान्विता । सलि०॥
ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वितनरकान्तानद्य जला० ॥१०॥ रुक्मिपर्वतसंभूतां सुवर्णकुलसंज्ञिका । सलिला० ।।
ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वितसुवर्णकुलाना जला० ॥११॥ शिखरिप्रोत्थितां रम्यां रौप्यकुलां जिनांकितां ।सलिला.।
ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वित रौप्यकुलानो जला० ॥१२॥ शिखरिप्रोत्थितां रक्तां श्रीजिनप्रतिमांकितां । सलिला०॥ ॐ ह्रीं जिनबिम्बसमन्वितरक्तानो जला० ॥१३॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
[ २२३
शिखरिप्रोत्थितां रम्यां रक्तोंदां श्रीजिनां कितां । सलि० ॥ ॐ ह्रीं जिनबिम्बे समन्वित रक्तोदानद्य जलादिकं ॥ १४ ॥ गंगादिवाहिनि सुमध्य जिनेन्द्रबिम्बार्चा प्रवरभक्तिभरेण युक्ताः ||
अर्घेण सज्जलसुचन्दनपुष्पचारुनैवैद्यदीपवरधूपफलैः कृतेन ॥ ॐ ह्रीं गंगादिचतुर्द शनद्य महाघं ।
अथ जयमाला ।
णिम्मलवर सरिया गुणगण भरिया, चउदह णिम्मल जल भरिया । कुलाचल घरिया द्रह उद्धरिया,
जिण अणुसरिया मल हरिया, ॥१॥ भरह सरासण उवमय जाणो,
गंगा सिन्धु नदीय वखाणो । तिहपण श्रीजिनवर सुविशाल,
ते पूजो भविषण गुणमाल ||२|| जह ह भोय भूमि गुण भरिया.
रोहिद रोहिदासा दोह सरिया | तिहांपण श्रीजिनवर सु विशाल,
ते पूजो भवियण गुणमाल ॥३॥ मध्यम भोथ धरा अणुसरिआ,
हरिय हरिकांता मणी हरिया | तिहां० ॥४॥
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२२४ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । दाहिण उत्तर कुरु परसरिया,
सीता सीतोदा सुइ मरिया । तिहां ॥५॥ हिमवद अज्जधरा परिसरीया,
णारी णरकांता दुह हरिया । तिहां ॥६॥ हिरणवदह वर खेत्त पसारा,
___ सुवणह रुचकुला जुय धारा । तिहां०॥७॥ एरावद पुणु खेत विशाल,
रत्ता रत्तोदा गुण माल । तिहां० ॥८॥ क्षेमकीर्तिसुरि पट्ठमुणिन्दा,
___ नरेन्दकीर्ति गुरु कुवलयचन्दा । तसपट पंकज सुर सोहाय,
विजयकीर्ति भट्टारक राय ॥९॥ तसपद पंकज भुंग कहाया,
नारायण यतिवर गुण गाया । जे नर पजें जिण समुदाया, ते नर अजर अमर पद पाया ॥१०॥
घत्ता । सिरिसरिय जिणन्दा कुवलयचन्दा,
इन्द नरिंद सुगुण कहिया । सूरि विजय मुणिंदा पापणिकन्दा,
सिस्स नरायण यति महिया ॥ ॐ ह्रीं गंगादिचतुर्दशनदीस्थितजिनेम्यो महाघ ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२२५ सरित्सुस्थिता श्रीजिनानां सुबिंबा ।
द्विसप्तादिसंख्यानमन्नाकिमुख्याः ॥ सदा पूजिताः संस्तुताः पूजकानां । मनोऽभीष्टसत्कार्यदास्ते भवन्तु ।। इत्याशीर्वादः ।
छप्पय । गंगासिंधु आद्य रोहिता रोहिता सा जाणह । हरिद हरिकांता णाम सीता सीतोदा माणह ।। नारी नरकांता सरिद सुवर्ण रुपकुला वखाणह। रक्ता रक्तोदा सरिद खेत एरावत धामह ॥ नदीयचउदस जिणवरा, शुद्धसरुपे जाणीये । नारायण वर्णी कहे, जिनसिद्धांत वखाणीये ।
इति चतुर्दश नदी पूजा समाप्त ।
अथ चतर्दश भुवन भव्य जीव पजा।
द्विगुणमुनिसमाना लोकभेदा समुत्थाः । जिनवर गणिदिष्टा ये स्थितास्तत्र जीवाः ।। निरुपमवरभक्त्या भाविनो मुक्तिनाथान् ।
सकलगुणगरिष्टान् स्थापयेऽहं प्रमोदात् ।। ॐ ह्रीं चतुर्द शभुवस्थभव्यजीवा अत्रावतरावतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ२ 8ः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा ।
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२२६] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
निगोदेषु स्थिता जीवाः भविष्यन्मुक्तिनायकाः । अर्याम्यहं सुद्रव्येण जलाद्यष्टविधेन तान् ॥ ॐ ह्रीं निगोद्रस्थभव्यजीवराशिभ्यो जला० ॥१॥ महातमःप्रमोद्भुता ये जीवभव्यतां गताः ॥अर्चाम्यहं०॥
ॐ ह्रीं महातमःप्रमोद्भूतभव्यजीवराशिभ्यो जला० ॥२॥ तमः प्रभासमुत्पन्ना भव्यराश्यभिधेयका: । अर्चाम्यहं०॥
ॐ ह्रीं तमःप्रमोद्भूतभव्यराशिभ्यो जला० ।।३।। धूम प्रभाश्रिताः सत्वा मोक्षसूत्रोपधारिणः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं धूपः प्रमोद्भूतभव्यराशिभ्यो जला० ॥४॥ पङ्कप्रभासमुत्पन्ना भव्या मानविवर्जिताः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं पंकप्रभाश्रितभव्यराशिभ्यो जला० ॥५॥ चालुकास्थितयो येवै जीवानां राशयो मताः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं वालुकास्थितभव्यजीवराशिभ्यो जलादिकं ॥६॥ ये जीवा भव्यभावाग्राः शक्कराप्रभवाः स्मृताः।अर्चा०॥ ॐ ह्रीं शर्कराप्रभाश्रितभव्यजीवराशिभ्यो जलादिकं ॥७॥ रत्नप्रभाश्रिता जीवाः भव्या ये जिनमार्गगाः अर्चा०॥
ॐ ह्रीं रत्नप्रभाश्रितभव्यजीवराशिभ्यो जला० ८।। तियग्लोगगता जीवा ये भव्याभव्यभावुकाः ।अर्चा०॥
ॐ ह्रीं तिर्यग्लोगस्थितभव्यजीवराशिभ्यो जला० ।।९।। ज्योतिपेटलधामानो ये भव्याः जीवराशयः ।अर्चा०॥ ॐ ह्रीं ज्योतिपटलाभिंतभव्यजीवराशिभ्यो जला० ॥१०॥
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । [ २२७ ये कल्पवासिनो देवाः सौधर्माद्यच्युतांतकाः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं कल्पवासिभव्यदेवराशिभ्यो जला० ॥११॥ अधो मध्योर्वग्रेवेयकोद्भवा भव्यराशयः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं ग्रैवेयकाश्रितभव्याहमिंद्रेभ्यो जला० ॥१२॥ नवानुदिशधामानो ये देवा निर्मलाशयाः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं नवानुदिशाविमानस्थाहमिंद्र भ्यो जला० ॥१३॥ येऽहमींद्रा हि भव्याश्च पञ्चानुत्तरवासिनः ।। अर्चा०॥ ॐ ह्रीं विजयादिपञ्चविमानस्थाहमिंद्रेभ्यो जला० ॥१४॥
त्रिलोकाश्रिताभव्यजीवा सुभावा । भविष्यात्सुमुक्तिस्त्रियोनायकास्तान् । जलाधष्टधार्पण नारायणाख्यो ।
यजामि प्रभक्त्या त्रिशुद्धया नमामि ।। ॐ ह्रीं चतुर्दशभुवनस्थितभव्यजीवराशिभ्यो महाघ ।
अथ जयमाला। इय भव्य सु सत्ता, गुणगणमत्ता, सत्ता मुत्ति जुवइ सुसया। दसण वरणाणा, चरिय णिहाणा, डहिय कुकम्म सुधम्म वया ॥१॥ जे छत्तीस कारण वख्त गया, णिगोय कु भूमिय लद्ध पया । ते चउदह भुवण सु भव्य लरा, वन्दामिय भाविय मुत्तिवरा ॥२॥ जे सत्तम माधवी पुढवी धरा, वर तेतीस सायर आउ लरा । ते चउदह भुवण सु भव्य लरा, चन्दामिय भाविय मुत्तिवरा ॥३॥ जे मधवी गाय जीव
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___२२८ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । घणा । दोइ वंसदि सावर आउ भणा ।। ते चउ०॥४॥ जे धूम यहां वर भूमि सधा । दस सत्त सु सायर आउ जुया । ते चउ० ॥५॥ जे पंक यहां पुढवी सुजणा । दस सायर आउ जिणेस भणा । ते चउ०॥६॥ जे मेघा भूमिय वास करा । वर सत्तम सायर आउ धरा । ते चउ० ॥७॥ जे वंसा पुढवी कयप सरा । वर तिन्हसु सायर आउ धरा । ते चउ० ॥८॥ रयणप्पह पुढवीसु वास करा । वर एकसु सप्पर आउ धरा । ते चउ० ॥९॥ जे मझ्झह लोयसु उयधरा । वर तिरिय गइसुद्ध वासकरा । ते चउ० ॥१०॥ जे पंचइ भेदहिं जोइ गणा । जिण देवगणिंदहिं भव्य भणा । ते चउ० ॥११॥ जे सुहमादिय वर कप्पसुरा । वर भव्य सुरासिय संख धुरा । ते चउ० ॥१२॥ जे अधो मध्य सु उद्धं कहा अवेयकदेव जिणन्द लया । ते चउ० ॥१३॥ जे अणुदिस णाम विमाण सुण्या । जिण णाह गणिदहिं भव्य गुण्या । ते चउ० ॥१४॥ जे पंचाणुत्तर वास भणा । अहमिद अपूरब णाम घणा ते चउ० ॥१॥
घत्ता। इय चउदह लोया गुणगुण उया
भवीण मुत्ति णयरी वसहा । सुरि विजय मुणींदा तिहुमण चन्दा
सिस्स नरायण विबुध कहा ॥ ॐ ह्रीं चतुर्द शलोकभव्यजीवराशिभ्यो महाघ ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । श्रीमच्चतुर्दशतुलोकभवाः सुभव्याः। जीवा अनन्तवरराशिमिता गुणाढ्याः ।। सत्पूजक प्रमुखसंघजनाय नित्यं । देया सुरुत्तमसुभक्तिं विभुक्तिसौख्यं ॥
इत्याशिर्वादः।
छप्पय ।
धमावंसामेघा अंजण अरिट्ठा फनि दोयह ।। मघवी माधवी णाम अट्ठमि फुनि जाण णिगोयह ।। तिरियलोय जो इस सगा फुनि सोलगिवेय ।
एह चउदह लोकमें भव्य अणंता जाणीये । नारायण ब्रह्मचारी कहे जिनसिद्धांत वखाणीये ।।
अथ चतुर्दशभुवनस्थित भव्यजीव पूजा समाप्तम् ।
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२३० ]
दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
चतुर्दश रत्नाधिपति चक्रवति पूजा।
सेनापतिस्थपतिहर्म्यपतिद्विपाश्च,
स्त्रीचक्रचर्ममणिकारिणीकापुरोधः । छत्रासिदण्डवररत्नपतीन्मनोज्ञान,
संस्थापयामि विधिना गुणरत्नलब्धैः ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशरत्नाधिपतिचक्रवर्तीनोऽत्रावतरावतर संर्वोषट् । अत्र तिष्ठ२ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । स्वाहा ।
सेनापतिमहारत्ननमिताखिलभूभतः।
अर्चाम्यहं सुद्रव्येण तान्भक्त्या चक्रवर्तिनः ॥ ॐ ह्रीं सेनाधिपतिरत्नाधिपतिचक्रवतिभ्यो जला० ॥१॥ स्थपत्याख्याः सुरत्नेन ये सं वित पंकजाः । अर्चा०।।
ॐ ह्रीं स्थपतिरत्नाधिपतिचक्रवतिभ्यो जला० ॥२॥ हर्म्यपत्यभिधानेन रत्नेन श्रितपंकजाः । अर्चा०||
ॐ ह्रीं हर्म्यपतिरत्नाधिपतिचक्रवर्तिभ्यो जला० ॥३॥ द्विप्राख्यरत्नसंश्रिताः वरिष्ठानिर्मितासना । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं द्वीपरत्नेकृतासनेभ्यश्चक्रवतिभ्यो जला० ।।४।। विजयाोपपन्नस्याश्वस्यारोहिणतत्पराः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं विजयाझैपपन्नाश्वाधिपतिचक्रवतिभ्यो जला० ॥५॥ दांगभोगमोक्तारो ये सु स्त्रींपतयो नराः । अचर्चा०॥
ॐ ह्रीं स्त्रीरत्नाधिपतिचक्रवतिभ्यो जला० ॥६॥ बुद्धिरत्नप्रभाभासिपादानतपुरोध सः । अर्चा०॥
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दि. जैन तोडापन संग्रह । [२३१ ॐ ह्रीं पुरोहितरत्नसंसेवितचक्रवर्तिभ्यो जला० ॥७॥ चक्ररत्नप्रभावेन दण्डो नाराति मण्डलाः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं चक्ररत्नाधिपतिचक्रवर्तिभ्यो जला०॥८॥ चर्मरत्न प्रतापेन रक्षितस्वप्रसैनिकाः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं चर्मरत्नाधिपतिचक्रवतिभ्यो जला० ॥९॥ स्फुरद्रत्नप्रभाजालाधिपतिपणिभासितः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं मणिरत्नाधिपतिचक्रवतिभ्यो जला० ॥१०॥ कार्किण्याख्या सुरत्नेन लिखितस्वाभिधानका । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं काकिणीरत्नाधिपतिचक्रवर्तिभ्यो जला० ॥११॥ चन्द्रबिंबसमाकार छत्ररत्नाधिभासिनः । अर्चा०॥
ॐ ह्रीं छत्ररत्नाधिपतिचक्रवर्तिभ्यो जला० ॥१२॥ समुल्लसद्वध्रबिम्ब प्रभाभा पन्महासयः । अर्चा०||
ॐ ह्रीं असिरत्नाधिपतिचक्रवर्तिभ्यो जला• ॥१३॥ प्रचण्डदण्डरत्नेन प्रोवारितगुहारशः । अर्चा०॥ ॐ ह्रीं दंडरत्नाधिपतिचक्रवर्तिभ्यो जला० ॥१४॥
श्रीमचतुर्दश सुरत्नमहाप्रभावं । चक्राधिपेभ्य इह सम्पत्प्रदामनये ॥ नारायणो विजयकीर्तिमुनींद्रशिष्यो ।
वाश्चन्दनादिकृतमधमहम् प्रभक्त्या ॥ . ॐ हीं चतुर्द शरत्नाधिपतिचक्रवर्तिभ्यो महापं।
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२३२ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ जयमाला।
इह पुण्य पवित्ता गुणगणचित्ता, छित्तापिछा मइणिपुणा । चउदह रयणता, विज्जयपत्ता चकवट्टि पयपत्तगुणा । पुणेण रयणपइपद लहंति, पुणेण सु णरयइ गुग कहति । पुणण सणाणइ रयण सार, पुणण ठहइ गुणगण भंडार ।। पुणेण सुणरसुर णमइ सिस्स, पुणेण सुगयवर भमइ दीस । पुणेण हसारवीहय करंति, पुणेण सु जुबइ ग्यण वरंति ॥२॥ पुणेण सुचकह करइ सेव, पुणेण सुचम्मह र यग हेव । पुणेण सुरहसम मणि विशाल, पुणेणसु काकिणी गुणहमाल ३ पुणेण पुरोधह करइ सेव, पुणेण सुछत्तह धरड़ देव । पुणेण असिय वर रयण पत्ति, पुणेण सुदण्ड रयण पसत्ति ॥४॥ पुणेण सुजलणिहि थल हवन्ति, पुणेण अगणिभयसुर अवन्ति । पुणेण कुरोग दलिद्द णास, पुणण धरणपई पय विलास ॥५॥ पुणेण सुकुल णर लहइ जम्म, पुणेण सु जिणवर लहइ धम्म । पण सु मुणिवर खवइ कम्म, पुणेण सुभोयह भूमि सुसम्म ॥६॥ पुणेण सु अगणिय लच्छि सार, पुणेण सुकुलपइ चतुर णार | पुणेण हन्ति सुपुत्त पुत्त, पणेण पराभव इणहि भूत्त ॥७॥ पुणेण कुड़ायणी ण रहे पास, पुणेण कु साइणी हवइ दास । पुणेण कुदेव पिसाय जाय, पुणेण लहइ गरपइ पसाय ॥८॥ पुणेण सुणर लहइ सुहग सग्ग, पुणोण सुलहइ णर सु अपवग्ग । पुणेण सुति -
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह 1
[ २३३
हुयण जस अभंग, पुणेण सुणर लहइ सुवण संग ॥९॥ पुणेण णियर गइ विलय जाइ, पुणेण तिरिय गइ दूर धाय । पुणेण कुसत्तुह हव मित्त, पुणेण सगुरुजण धरइ चित | १० |
घत्ता ।
चउदह वर रयणा अणुछयमयणा, पुणय तु सिंदणर विभवा । सिरिविजयसूरिसा मुणिजणइसा,
सिस्स नरायण कयसु तवा ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशरत्नाधिपतिचक्रवर्तिभ्यो महाघं । सेनापतिप्रमुख रत्न महाप्रभावावाधिपा विमलबुद्धिमहस्वभावाः ॥ संपूजक प्रमुख भव्यजनान्सु पूज्याः ॥ कीर्ति सुबुद्धिविभव सततम् दिशन्तु ॥ इत्याशीर्वादः ।
छप्पा ।
सेनापति वर रयणय पति गृहपति वरख्यात ह । गयवर हय वर रयण युवति सुचक्र विभातह || चर्म नाम मणि रयण काकिणी फुनि रथण पुरोधह । छत्र खड्ग फुनिरयण दण्ड फुनि रयण प्रबोध ||
एह चउदह रयण घर, चक्रवर्ति पातक हरो । नारायण ब्रह्मचारी कहे, सकल संघ मँगलकरो ॥ इति चतुर्दश रत्नाधिपतिपूर्ण' समोरी
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२३४ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ चतुर्दश स्वराणां पूजा । अकारादि स्वराणां ये वक्तारो विश्वदीपकाः ।
आह्वाननादि सद्भक्त्या विधिना प्रयजे जिनान् । ॐ ह्रीं चतुर्दशस्वरप्रकाशकजिना अत्रावतरावतर संवोषट् स्वाहा । अत्र तिष्ठ २ ठः ठः। अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् ।
युगादौ वृषदातारमकारस्वरमादिमम् । यजामहेऽष्टधा द्रव्योवृषभम् वृषलांछनम् ॥ ॐ ह्रीं अकारस्वरवादिने वृषभाय जला० ।।१।।
आकारस्वरवक्तारम् प्रकाशितमहागमं । यजा०॥ ॐ ह्रीं आकारस्वरवादिने वृषभाय जला० ॥२॥ इकारम् यो विजानाति तमिना रहितम् परम् । यजा०॥
ॐ ह्रीं इकारस्वरवादिने वृषभाय जला० ॥३॥ ईकारस्य प्रवक्तारं भावीराजितसत्सतम् । यजी०॥
ॐ ह्रीं ईकारस्वरवके वृषभाय जला० ॥४॥ उकारस्य प्रभेदज्ञं सर्वज्ञम् विमलप्रभम् । यजा०॥
ॐ ह्रीं उकारस्वरभेदकंथकाय जला० ॥५॥ ऊकारस्यापि वेत्तारंमनुद्धतमयम् जिनम् । यजा०॥
ॐ ह्रीं ऊकारस्वरभेदज्ञायकेभ्यो जला० ॥६॥ अकारस्योपदेष्टारमर्तिहतारमादिमम् । यजा०॥
ॐ ह्रीं ऋकारस्वरोपदेशकाय जला० ॥७॥ ऋकारस्योपदेष्टारमोनन्दितजगज्जनं । यना०॥
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दि. जैन प्रतोद्यापन संग्रह । [२३५ ॐ ह्रीं ऋकारस्वरोपदेशकाय वृषभाय जला० ॥८॥ प्रकक्तिलस्वरस्यो वै सवर्णमृस्वरस्यतं । यजा०॥
ॐ ह्रीं लकारस्वरस्यप्रवक्तार वृषभाय जला० ॥९॥ लकारोच्चारदक्षो यो देवाचितांघ्रिपंकजः । यजा०॥
ॐ ह्रीं लकारस्वरोच्चारकाय वृषभाय जला० ॥१०॥ एकारस्वरनामज्ञमेकारस्वरदेशिनम् । यजा०॥ ___ॐ ह्रीं एकारस्वरदेशने वृषभाय जला० ॥११॥ ऐकारस्वरजानानमेकारस्योपदेशकम् । यजा०॥
ॐ ह्रीं ऐकारस्वरप्रकाशकाय वृषभाय जला० ॥१२॥ ओकारस्योपदेष्टारमोकारस्थानवादिनम् । यजा०॥ ॐ ह्रीं ओकारस्वरोपदेशकाय जला० ॥१३॥ औकारोचारणे शक्तं विश्वविद्याप्रकाशकम् । यजा०॥ ॐ ह्रीं औकारस्वरकथकाय जिनाय जला ॥१४॥ अकारप्रभूत्यन्यशुद्धस्वराणां
वराणां प्रवक्तारमाय जिनेन्द्रम् । वरैरौप्यपास्थितैः सज्जलाये
र्यजे ब्रह्मनारायणो भक्तियुक्तम् । ॐ ह्रीं चतुर्दशस्वरप्रवक्तारम् जिनाय महाघ ।
अथ जयमाला। आदि जिनेसर परम दिनेसर, भविय कमल परकास करु। निहुयर परमेसर सात दिवाकर सेवक जन मन दुरिया हरू
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२३६ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । ॥१॥ जय जय नाथ नारंजन योगी, जय जय शांति सकल गुण भोगी। जय जय त्रिभुवन जन हितकारी, जय जय जय मुक्ति रमा अधिकारी ॥२॥ जय जय काम गियन्द विहन्डन, जय जय मुक्ति नयरि वर मन्डन । जय जय मान महा मद भंजन, जय जय क्रोध महाभट गंजन ॥३॥ जय जय दिव्यधुनी मुख राजे, जय जय सकल घनाघन लाजे जय जय त्रिभुवनना दुःख भाजे, जय जय देव दुन्दुभी बाजे ॥४॥ जय जय त्रिभुवन जन मन राचे जय जय सूत्र एकावन वाचे । जय जय तत्व पदारथ भाखे, जय जय तप संजम भेद भाखे ।।।। जय जय भवियण कम विहंता, जय जय धर्मस्थांग नियंता । जय जय तोरण ध्वज लहकता, जय जय सुरनर साद करंता ॥६॥ जय जय दंसण णाण चरित्ता. जय जय निर्मल नित्य पवित्ता। जय जय अधरीकृत मन राजा, जय जय इन्द्र विकट भय लाजा ।।७।। जय जय आसोपल्लवकृत छाया, जय जय धृत चामर देवराया । जय जय सुन्दर फल सहकारा, जय जय कोयल करे टहुकारा ॥८॥ जय जय चंपकना पन तोहे, जय जय त्रिभुवनना मन मोहे । जय जय सप्तच्छदकृत शोभा, जय जय निर्जित दुर्द्धर लोभा ॥९॥ जय जय निर्जित दुर्जय माया, जय जय हरिहर पाय लगाया। जय जय सिद्ध निरंजन घाया, जय जय अजर अमर पद पाया timun नवजय बरहनत भगान्त देवा, जय जय
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द. जेनक्लोद्यापन सत्रह ।
। २३७:
सुरनर करतुजु सेवा । जय जय अमर अमर पद दाता, जय जय संसार सागर याता ॥११।। जय जय एक अनेक कहाया, जय जय गणधर देव पढाया । जय जय दर्शनसे दुःख नाशे, जय जय सेव करे तुम पासे ॥१२॥ जय जय जे नर हृदय धरन्ता, जय जय मन गुप्ति ते हरन्ता । जय जय वयणे स्तवन करन्ता, जय जय वचन गुप्ति परिहन्ता ॥१३।। जय जय अष्टांगे जे नमन्ता, जय जय काय गुप्ति निगमन्ता । जय जय धर्म धुरन्धर देवा, जय जय जनम जनम कर सेवा ॥१४॥ जय जय क्षेमकीरती पद धारी, जय जय नरेन्द्रकीर्ति मनोहारी । जय जय तसपद् विजय मुनींद्रा, जय जय सरसति गुच्छ सु चन्दा ॥१५॥ जय जय तस पद पंकज भंगा, जय जय नित्य सेव सुरंगा । जय जय सेवक जन साधारी, जय जय कहे नारायण ब्रह्मचारी ॥१६॥
घत्ता
।
सिरि जिणवर देवह सुरकृत सेवह,
जनम जनम तुव चरण नम्। कर पूजा सारीय अष्ट प्रकारिय,
अर्घ उतारिय दुःख गम्॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशस्वरप्रकाशकवृषभाय जिनाय महाघ ।
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२३८ ]
दि० जैन व्रतोबापन संग्रह ।
%
E
दयादानदाता जगज्जन्तु पाता ।
महामोहजेता च नेता जिनाना ।। सुमुद्घात भेता चहु कर्महन्ता ।
जिनो नाभि पुत्रो भवं शं करोतु ॥ इत्याशोवादः ।
छप्पय । वृषभ जिनेश्वर देव देव करे बहु सेवह । गावे गीत रसाल भग्यरि वर करे सेवह ॥ नाभिराय कुलचन्द मात मरु देवी नन्दह । इन्द्र नमे तस पास नमे राय धरणिंदह ।। सेवा मनवांछित फले, जुग आदि जग वासीया । नारायण ब्रह्मचारी कहे जाणे चौद स्वर प्रकाशिया ॥
इति चतुर्दश स्वर पूजा समाप्तम् ।
अथ चतदेश तिथी पजा। मुख्या चतुर्दशाद्यायास्तिथयो मुनिनिर्मिताः ।
आह्वानन स्थापनादि विधिना तास्समर्चये ॥ ॐ ह्रीं धर्मकार्यप्रसिद्धचतुर्दशतिथियोऽत्रावतरावतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ२ ठः ठः। अत्र मम संन्निहितो भव भव वषट स्वाहा ।
मुख्या प्रतिपदं बुध्या मुख्यदेव जिनेश्वरं । दोषनिमुक्तसत्पूज्यमर्चयामि जलादिभिः ।।
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दि० जेन व्रतोचापन संग्रह । [२३९ ॐ ह्रीं प्रतिपदिस्वरूपनिरूपकअष्टादशदोषरहितायजिनाय जला०
द्वितीयां तिथिमाश्रित्यदयामूलं जिनोदितं ।
सागारमुनिभेदाख्यं द्विधाधर्म समर्चये ॥ ॐ ह्रीं द्वितीयतिथिमाश्रित्यसागारानगारधर्माय जला० ॥२॥
तृतीयां तिथिमाध्यायदर्शनादिप्रभेदतः ।
रत्नत्रय जिनैः प्रोक्तं प्रार्थयेऽहं जलादिभिः॥ ॐ ह्रीं तृतीयातिथिमाश्रित्यदर्शनादिरत्नत्रयाय जला० ॥३॥
चतुर्थीतिथिमाश्रित्य वेदाश्चत्वार ईशिना ।
ये प्रोक्तास्तानहं यज्मि कमलाद्यष्टधार्चनैः ।। ॐ ह्रीं चतुथितिथिमाश्रित्य प्रथमानुयोगादिवेदेभ्यो जला०॥४॥ पंचमीतिथिमुद्दिश्य ये पंचपरमेष्ठिनः ।
जलादिभिरिमैद्रव्यौरर्णयामि प्रभक्तितः ।। ॐ ह्रीं पंचमीतिथिमुद्दिश्य पंचपरमेष्ठिभ्यो जला० ।।५।।
षष्ठीमाश्रित्य द्रव्याणि सर्वज्ञैः कथितानि वैः।
षडिमतानि जेतानि जलाद्यष्टविधार्चनैः ।। ॐ ह्रीं षष्ठतिथिमाश्रित्य सर्वज्ञोदितषद्रव्येभ्यो जला० ॥६॥ . सप्तमीतिथिमुद्दिश्य संयमाः सप्तसंख्यया ।
प्रोक्ता जिनमुनींद्राणां यायज्मि तानहं मुदा ।। ॐ ह्रीं सप्तमीतिथिमुद्दिश्य सामायिकादिसप्तसंयमेभ्यो जला
अष्टमीचाष्टकर्माग्निमाश्रिताष्ठगुणात्मताः । सिद्धानां तानहं यज्मि जलाद्यष्टविधार्चनैः ॥ ॐ ह्रीं अष्टमीतिथिमाश्रित्य सिद्धाष्टगुणेभ्यो जला ॥६॥
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२५० ] दि०. जैन व्रतोद्यापन संग्रह।
उद्दिश्य नवमी सद्भिर्नया नवमता जिनः ।
गम्भीराथाऽविरुद्धार्था दूरगास्तानहम् यजे ॥ ॐ ह्रीं नवमी तिथिमाश्रित्य सर्वज्ञोक्त नवनयेभ्यो जला० ॥९॥
दशमीतिथिमाश्रित्य यो धर्मो दशधास्मृतः ।
दयामूलो हि सर्वशैरर्चयाम्यमष्टधा ॥ ॐ ह्रीं दशमी तिथिमाश्रित्य दशलाक्षणिकधर्मेभ्यो जला० ॥१०॥
अङ्गान्येकादशोक्तान्येकादर्शीतिथिसंज्ञया ।
तान्यहम् प्रयजे नित्यं जलाद्यष्टविधार्चनैः ।। ॐ ह्रीं एकादशमी तिथिमाश्रित्य एकादशांगेभ्यो जला० ॥१०॥
आश्रित्य द्वादशी प्राजैरुक्तानिपरमार्थतः । तपांसि द्वादशोध्यानि यजे तानीह भक्तितः ॥ ॐ ह्रीं द्वादशीतिथिमुद्दिश्य द्वादशविधतपेभ्यो जलादिकं ॥१२॥
त्रयोदशी समाश्रित्य त्रयोदशविधं स्मृतं ।
चारित्रं श्री जैनेन्द्र स्तैः यायज्मि शुद्धयान्वितः ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशी तिथिमाश्रित्य त्रयोदशप्रकारचारित्रेभ्यो जला०
चतुर्दशीतिथि प्रोक्तानन्तचतुर्दशं जिनम् । पूजया परया भक्त्या पूजयामि प्रबुद्धये ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशीतिथिमाश्रित्य अनन्ततीर्थकराय जला० ॥१४॥ धर्मप्रधानास्तिथयश्चतुर्दशः प्रोक्ताः,
जिनेन्द्रः परमार्थज्ञातृभिः । अर्पण वारोदिकृतेन सत्कृताः,
सद्बुद्धये संजयतां भवन्तु ताः॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशतिथिभ्यो महाधं ।
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दि. जैन व्रतोबापन संग्रह।
[२४१
अथ जयमाला। चतुदहवरतिथि हो, परम अतिथि हो,
__धम्मह कारण सुमण धरी । भवियण जण रंजण कम्म विभंजण, काम विगंजण जिणंउ धरी ॥
छहढालाकी चालमें । प्रथम तिथि समकित साधो, ए संसार अपार अगाधो । मनमें अरहन्त देव आराधो, भमतां भमतां मानव भव लाधो । बीजे धर्म द्विधा जिन भाख्यो, अनागार सागरह दाख्यो । मनमें अरहन्त देव आराधो, भमतां भमतां मानव भव लाधो ।। त्रीजे दसण णाण चरित्र, पूजो अष्ट प्रकार पवित्र |मन०॥ चोथे वेद चतुष्टय जाणी, पूजो निम्मल भवियण प्राणी ।मन०॥ पूजो पांचम पंचपरमेष्ट, टाले जनम जनमनां कष्ट ।मन०॥ छ? छद्रव्य कह्या जिनदेवा, पूजा नित्य करो बहुसेवा । मन०। सेवो संजम सातमे सात, सु सामायिक करो परभात ।मन०॥ शुभ कर्म दहन पूजा कीजे, आठमे आठ कर्म हणीजे मन०॥ नवमें नव नय अथें गम्भीरा, मनमें जे धरसे तेह धीरा मन०॥ दशमी दश लाक्षणीक पूजो, उत्तम क्षमयादि गुण बुझो ।मन.। अगीयारसे अङ्ग अग्यार, पूजो पाप तणो परिहार मन०॥ बोरे व्रत बारसें पालो, सुधी श्रावकाचार सम्भालो
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२२] दि. जैन प्रतोषालन संग्रह । मन०॥ पूजे तेरसि चारित्र तेर, देव अभिषेक करें तस मेर मन०॥ जे नर चउदशे पूजे अनन्त तेहनि आश पूरे भगवन्त ॥मन०॥
घत्ता
।
तिथि चउदह जाणो धर्म वखाणो,
सहु मन आणो भाव धरी । श्री विजय सुकीर्ति शिष्य सुमूर्ति
नारायण जयमाल करी ।। ॐ ह्रीं धर्मकार्यप्रसिद्धचतुर्दशतिथिभ्यो महाघ ।
तिथयो तिथिभिः सुकृताय कृताः । शुभ कर्म सुखधा जगत्प्रथिताः ।। शुभमर्चकधर्मिजनाय सदा । सु द्विशं विह शं जगति प्रथितं ।।
इत्याशीर्वादः ।
छप्पय । प्रतिपद बीज सु त्रीज समकित धर्म सुदंसण । चौथा पंचमी वर छठि वेद परमेष्ठि द्रवांचण ।। सातिम आठिम नुम संजक्रम यहन नया नव । दशम अग्यारस द्वादशी धर्म अङ्ग तप संभव ।। तेरसे चारित्र पूजिये चउदशे अनन्त जिनसरु । नारायण ब्रह्मचारी कहे, चउदश तिथि मंगल करु ॥
इति चतुर्दश तिथि पूजा समाप्त ।
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । [ २४३ अथ चतुर्दश मलत्यक्ताहार मुनि पूजा।
पुयादिकद्विगुणसप्तमलापहारा । ये त्यजन्ति तान्कुमलान वरशुद्धिभाजः । सद्वादशव्रतविधानविधौ समर्थाः ।
संस्थापयेऽहमधुना विधिना मुनींद्रान् ।। ॐ ह्रीं चतुर्दशमलोज्जिताहारग्राहकमुनियोऽत्रावतरावतर संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
पूयदोषपरित्यक्तमाहार विष्वणन्ति ये । पूजयामीह सद्भक्त्या कमलाद्यष्टधार्चनैः ॐ ह्रीं पूयमलातिरिक्ताहारग्राहकमुनिभ्यो जला० ॥१॥ अस्राख्यमलसंत्यागाद्येनमन्धेति शुद्धितः ।पूजया। ॐ ह्रीं अस्वमलरहितआहारग्राहकमुनिभ्यो जला० ॥२॥ पलाख्यमलसंत्यागाद्यमन्धेति शुद्धिभाक् ।पूजया। ॐ ह्रीं पलमलरहितपिंडविशुद्धये जला० ॥३॥
अस्थि रिक्तं च भोज्यं ये भुजंति परमार्थतः ।पूजया। ॐ ह्रीं अस्थिरिक्तमलरहितपिंडविशुद्धये जला० ॥४॥ चौख्यमलसंत्यागाच्छुद्धमनमदन्ति ये ।पूजया। ॐ ह्रीं चर्ममलरहितपिंडविशुद्धये जला० ॥५॥ भोजनं नख संत्यक्तं ये वल्भन्ति निरम्बरा पूजया ॐ ह्रीं नखमलरहितपिंडविशुद्धये जला० ॥६॥
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२४४ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
कचप्रश्न निर्मुक्तं भुजंत्यन्नमुत्तमाः । पूजया ० || ॐ ह्रीं कचमलरहितपिंडविशुद्धये जला० ||७|| विकलत्रिकजीवेभ्यः त्यक्तमन्नमदन्ति ये पूजया० ॥ ॐ ह्रीं मृर्तावकलत्रिकमलरहितपिंडविशुद्धये जला० ||८|| सूरणादिमलत्यागाद्विशुद्धान्नमदन्ति ये । पूजया ० ॥ ॐ ह्रीं सूरणादिकंदमूलत्यक्तपिंडविशुद्धये जला० ॥ ९ ॥ येऽश्नन्ति यवगोधूमबीज संत्यक्तमन्नकम् पूजया० ॥ ॐ ह्री यवगोधूमादिबीजमलरहितपिंडविशुद्धये जला० | १०६ येऽन्नं भुजंति निर्विघ्नामूलाख्यमलवजितम् । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं मूलमलरहितपिंडविशुद्धये जला० ॥ ११ ॥ बदर्यादिफलत्यागाच्छद्धमन्नम् भुजंति ये । पूजया० ॥ ॐ ह्रीं बदर्यादिफलमलरहितपिंडविशुद्धये जला० ||१२|| तुषादिमलसन्त्यक्तं भुजंति येऽन्नमुत्तमं । पूजया ० ॥
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ॐ ह्रीं तुषकणमलरहितपिंडविशुद्धये जला० || १३|| कुन्डाद्यन्तमलैस्त्यक्तमाहारम् च भुजंति ये । पूजया - || ॐ ह्रीं कुन्डमलरहितपिंड विशुद्धये जला० ॥ १४॥ पूर्यादिदुर्मल विमुक्तमनुत्तमान्नम् । भुजन्ति ये विपुलमानमदीझितांगाः ॥ वार्गंधतन्दुलसुपुष्पचरुप्रदीपैः । धूपैः फलैः कृतमहार्घमहं ददामि ॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशमलरहितपिंडविशुद्धये महार्थं ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[२४५
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अथ जयमाला। मदनमदविहंता दुष्टकर्माष्टमेत्ता । अगम निगमवेत्ता सप्ततत्कचेता । मदननृपतिजेता भव्यसार्थप्रणेता ।
जयतिजगतपूज्यः सन्मुनीनां प्रसंघः ।। विराग विमोह विरोग विभोग,
विशोक विरोष विदोष वियोग। दिनेश सयेश मुनीश निकाय,
जय प्रणीताखिल लोक कृताय ॥ दिनेश निशेश सुरेश नरेश,
खगेश दिनेश विवंदित सेस । दिनेश समेश मुनीश निकाय,
जय प्रणताखिल लोक कृताय । विमान वितान विदम्भ विलोभ । विमाय विजाय विजभ विसोभ । दिनेश०।३॥ विकन्तु विजन्तु विराजित वीस । ' विहास विलास विवर्जित दीस । दिनेश०॥४॥ विसंक विमुक्त विकर्म कलंक । निरामय निर्भय निर्गत पंक । दिनेश० ॥५॥ विबाध विकासित विश्व निरास । 'विरित संसृति संसय पास । स्नेिक ६॥
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२४६ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अचिंत्य चरित्र पवित्र सुनेत्र । विलोकित जीवनिकाय सुमित्र || दिनेश० ७|| घनाघन दुन्दुभि धीर निनाद | निराशित दुर्गतवादि कुवाद | दिनेश० ८ || दिगम्बर वेष विकुंचित केश ।
विहार पवित्रित देश विदेश || दिनेश ० ९ || निराभरणांकित निर्मल पात्र । निरायुध निर्भय सोभित गात्र || दिनेश० १० ॥ कुकर्ममहीरुह भेद कुठार | सुगंधनगो धरणामृतधार || दिनेश०११ ॥ विशल्य विशूल्य निरीह विदण्ड | विखण्डित दुर्मद बुद्धि करंड || दिनेश० १२ ||
कषाय निकायरज प्रसमीर । दुरास्रव निर्जय दुर्जय धीर || दिनेश० १३ ॥
सुरासुर भासुर किन्नर देव ।
खगाधिप मानुष निर्मित सेव || दिनेश ० १४ || विनिर्गत दुर्बल मुक्त विमुक्त । परिग्रह दुर्गह दोष विमुक्त || दिनेश० १५ ||
घत्ता ।
अखिलगुणनिधाना निर्जितक्रोधमाना । विरहितकुनिदानाः सततत्वेकतानाः ||
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
[ २४७
सुमुनिविजयकीर्चेः शिष्य नारायणाख्यो । दुरितनिवायै तान्मुनीनर्धयामि ।। ॐ ह्रीं चतुर्दशमलत्यक्ताहारग्राहकमुनिभ्यो महाघं । यो नित्यप्रणिधान संश्रितमना संसारनिर्विणह | यो रत्नत्रयधारणां चित्तमतिः कायारिविध्वंशकः ॥ यो विज्ञान रसायनामृतघयस्फीतांगसंगातिगः । श्रीमुसंघजन (?) मुनीश्वरमहासंघो वतां सर्वदा || इत्याशीर्वादः ।
छप्पय ।
पूय अस्रपलनाम अस्थि अजिनमल जाणह । नख केश मल दोय एक विकलत्रय मानह || सूरण आद्य कुकन्द बीज फुनिमूल अनेकह । फल बदरीफल आदि कण फुनि कुन्ड विवेकह | एह चतुर्दश मल रहित, शुद्ध आहार मुनिवर कह्यो । नारायण ब्रह्मचारी कहे, जिन सिद्धांते संग्रह्यो ।
इति चतुर्दशमला रहिताहारग्राहकमुनि पूजा । अत्र षण्नवत्यकिंकशत परिमितान् जाप्यान, देयात् । जाप्य ( १४ x १४ ) = १९६ देयात् । जाप्य मंत्र - ॐ ह्रीं अहं हंस अनन्त के लिये नमः ।
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२४८]
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ समुच्चय जयमाला। सिरि अणन्त जिणेसरु दुरिय, तिमिरहरु तत्व पदारथ भासणु । भवि कमल दिणेसर वसु विहमय, इरु सयल सुणाण पयासणु ॥ सुहग कपूर मय कुन्द वासिय जलं । कणयमणि घडिय भृगार धारोज्वलं ।। इन्द आरत्तियं करइ विकसिय मणं । अमरदेवी गणा णच्चइ सुभासणं ॥१॥ विमल कर्पूर सुगन्धि चन्दण भरं । घसिय केसर वरं जनम पातक हरं ।इन्दु० २॥ कमल तन्दुलगणं कमलवासियघणं । णयण मोहणकर हसिय सज्जण जणं ।इन्द० ३॥ कमल मचकुन्द जाइ जुह चम्पकं । मालती मोगरा तिलक कन्दवकं ।इन्दु० ४॥ खज्जया मोदया घेवरा फेणया। सेव सुहालया लेहु वर मंडया' ॥इन्दु० ५॥ मोतीया पायसा पूरी लापसी गणा । सूपरे अपुवय वटप पुडा घणा ॥इन्दु०६।। सुहग व्यञ्जनघणा तलिय मुहा चणा ।
शालि भक्तोत्करा सयण नण रखना ।इन्दु०७) १-रोटी,२-दाल, ३-खाखरा भाखरी, ४-शाकभाजी तरकारी।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ २४९ रयण दीपोज्वला कपूर अति उज्जवला । दुरिय तिमिर हरा मदि सुदि अबहि फला ॥इन्दु० ८॥ सिंहल असित गरु हरिय चन्दण भरा । धूप धूमांचिया गयण माणुस धरा ।इन्दु० ९॥ नालिकेरैः फलैः पूगीसुकदम्बकैः । आम्र जम्बीरनारिंगदाडीमकः ॥ इन्दु०१०॥ कर्वटीचिर्मटैः कोमलैः कर्मदः । फोफलैः फालसैमुक्तिवरशर्मदैः ॥इन्दु०११॥ जम्बुरायणफलैः कोमलकुषमांडकः । पिस्ताबदामफलेरखोडपरकांडकैः ॥इन्दु. १२।। कुसुमवर संति सुगंधी सुरभव्ययं । णायकुमार धरणिंद सुर सव्वयं ।' इन्दु० १३॥ जय जय सुदेव उचरंति जिण मंदिरं । पूरयंतिह पंचायणं मणुहरं ।इन्दु० १४॥ अमलवर कमलदल नयन सुरकापणी। चमर ढोलंति अति सुहग गयगामिणी ॥इन्दु. १५॥ कणय भृगार पर ताल कंसालयं । कमल मुह कलस धय दंड सोहालयं । इन्दु० १६॥ सुहसुपरतिक वरछत्तत्तय संयुतं । रयण सम कंतयं दप्पणं सुरगुतम् ॥इन्दु० १७॥ एकसम मडवरं चामरं उज्वलम् । अमरधुणी जी जब मुगुजालन्दु. १८॥
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२५० ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
जण सुहीरावली क्षीर मचकुन्दय । क्षीर जलणिहि सम कमल वरकंदयं ॥इन्दु० १९॥ वंदतय संणिहं छत्ततय सुन्दरम् । प्रातिहार्याष्टकं सयल मंगलकरम् ।।इन्दु० २०॥ पंच वर वरण धज भेय लहकंतयम् । रयण वर तोरणं धूपघटमालयम् ॥इन्दु० २१॥ कणयमणि किंकिणी सुख झणकारयं । तोरया घंटया रचिय विज्ञानयं ।इन्दु० २२॥ दीपवरमालया सुहग मंदारया । भमर झंकारया कणयमणि जालया ॥इन्द० २३॥ व्यन्तरी खेचरी किन्नरीय भूचरी । सुहग पुरन्दरी स्वर्ग देवामरी इन्दु० २४॥ तत्ताथइ तत्ताथइ तत्ताथइय थोगिणी । णचए अच्छरा हंस गय गामिणी । इन्द० २५।। वज्जये घुघरा धमक धमकारए । पयकमलणे उरं ठमक चमकारए । इन्द० २६।। छमकछम पाय झंझरीय झमकारए । कहिय तह मेखला वर खलकारए ।इन्द० २७। वीणा वज्जति छलछपल कंसालए । भेरी गज्जति अडयाल बहुतालए ॥इन्द० २८॥ धपमय धपमय दो दो दों वज्जए । जण तु पण जप मुकाम पर मजबए ।इन्दु.२९॥
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ २५१
ढोल बहुदुन्दुभीय णाद बहु सव्वए । जण सु घण गज्जणं मोरमद णच्चए ।इन्दु० ३०॥ हाव भाव कला णयण सु विसालए । भमइ वर भमरी देांति कर तालए ॥इन्दु० ३१॥ राग सारंग तह देव गन्धारए । पंचमो भैरव राग मल्हारए ॥इन्दु० ३२॥ कुणइ कल्लाण विलास आसाउरी । हरीइ बहु पाव पुरुज्जत अन्ते उरी ॥ इन्दु० ३३॥ कुणइ ओरत्तियं इन्दु जिणमन्दिरे। सयल वर संघ आणन्द मंगल करे ।इन्दु० ३४।।
घत्ता । सिरि अणन्त जिणेसर दुरिय तिमिर हर
भवियण जण कल्लाणकर । सुरि विजयमुणिंदो तिहुयण चन्दो
नारायण ब्रह्म यजति वर ॥ ___ॐ ह्रीं अनन्तव्रतोद्यापन जयमाला पूर्णाघ । घण्टा तोरण दाम दर्पण महाश्री चामराणां चयाः । सद्भगारकतारतालकलशस्फर्यध्वजानां गणाः ॥ येषां ते विलसंति नित्य महसां श्वेतानपत्रत्रयाः । श्रीमन्तो वृषभादयो जिनवाला बुतु मे मंगलम् ।।
इत्याशीर्वादः ।
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२५२ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । कीर्ति स्फूर्ति सुबुद्धि विमलमतिचयं श्लाध्यदीप्तिं च शुद्धि । चारोग्यवृद्धिमृद्धिं गजतुरगरथाद्युत्करं सन्तनोति ॥ लक्ष्मी रामा प्रकामं तनयपरिकरं सारभुक्ति च मुक्ति । सम्यग्बुद्धया कृताया प्रभवतु यजतो श्रेयसेऽनन्तपूजा ॥
इति पूजाफलं । श्रीमत्सूर्यपुरेऽर्णवांगहयचंद्रष्टनभस्य सिते । पक्षे रामतिथौ बुधयुते पूर्वकृतार्चाविधः ।।। श्री नारायणस्येहकृति विजयतां लोककृताऽसौ चिरं । सत्पुत्रोत्तमधीमनोहरमहा संघाधिपस्यादरात् ॥ इति श्री भट्टारक श्री विजयकोति शिष्य ब्रह्म श्री नारायण
_ विरचित्त अनन्तव्रतोद्यापन समाप्तम् । महावासुपूज्यालये मूलसंधे, स्फुरद्विद्यसारस्वताख्यादिगच्छे । गणसबलात्कारनाम्नि प्रकृष्टे, समुत्फुल्लसकुन्दकुन्दाख्यवशे ॥१॥ मुनिपद्मनन्दी सुरेंद्रादिकीर्तिःस्फरदिव्यमतिः मुनिक्षेमकीर्तिः । गुरो पट्टधारीनरेंद्रादिकीतिः, सदा सौख्यकारी महाभव्यमूर्तिः ॥२। तत्पट्टपंकजविकासनभानुमतिः,
सबोधपंडितजनैडितशुद्धकीर्तिः, संवत १७८४ ।
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दि० जन प्रतोद्यापन संग्रह ।
[२५३
सत्कांतिनिर्जितसमुज्वलचन्द्रमूर्तिः, भट्टारको विजयकीर्तिरसौ प्रजीयात् ॥३।। तदीयांङ्गियुग्मांबुजाधारभाजा, कृतं भक्तितो वर्णिनारायणेन । अनन्तवतोद्योतनं पूजकानां,
सदानंदचन्द्रोदयं तत्करोतु ॥४॥ सूर्यपूर्या (सूरत) मनंताख्य व्रतस्योद्यापनं मया । नारायणेन भव्यानां कृतं सबोध हेतवे ॥
॥ इति श्री अनंतव्रतस्योद्यापनं समाप्तम् ॥
श्री अष्टाह्निका व्रतोद्यापनम् । प्रणम्य श्रीजिनाधीशं सर्वज्ञ सर्वपूजितम् । वीतरागं जगन्नेत्रं धर्मचक्रप्रवर्तकम् ॥१॥ जिनास्यजां सदावन्दे शारदां मम शारदाम् । चतरशीतिलक्षाणां जन्तूनामुपकारिणीम् ॥२॥ गुरुणां चरणी नत्वा प्रणम्याष्टविधार्चनम् । नदीश्वराभिधे द्वीपे द्वापञ्चाशज्जिनालये ॥३॥ आदौ गन्धकुटीपूजां प्रश्चात् सर्व समाचरेत् । यंत्रस्य सिद्धचक्रस्य चतुर्मुखजिनस्य वा ॥४॥ एकैकस्य च दिग्भागे त्रयोदश हि पर्वताः । तत्र प्रत्येकचैत्यस्य पूजां कुर्वे शुभाप्तये ॥५॥
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२५४ ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह।
पूजनीयो जिनाधीशो नन्दीश्वरस्यस्वस्तिके । द्वापञ्चाशत्सुपर्दोषु विमलेषु शिवाप्तये ॥६॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे जिनपूजनप्रतिज्ञानाय प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् । नन्दीश्वराष्टमविशालमनोज्ञरूपे
द्वीपे जिनेश्वरगृहाश्च भवन्ति युग्मम् । पंचाशदिन्द्रमहितान प्रयजामि सिद्धयै
देवेन्द्रनागपतिचर्चितचारुबिम्बान् ।। ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशज्जिनालय अत्र अवतर २ संवौषट् स्वाहा । (आह्वाननं) ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचा. शज्जिनालय अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्वाहा । (स्थापन)
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वोपे द्वापंचाशजिनालय अत्र मम संन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा । (सन्निधापन)
अथाष्टका कपूरपूरपरिपूरितभूरिनीर
धाराभिराभिरभितः श्रमहारिणीभिः । नन्दीश्वराष्टदिवसानि जिनाधिपाना
मानन्दतः प्रतिकृति परिपूजयामि ।। ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वोपे द्वापञ्चाशजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य जलं निर्वपामीति स्वाहा जलं ॥१॥ हृद्माणतर्पणपरैः परितर्पसपैं
गन्धः सुचन्दनरसैर्धनकुकुमायैः ।
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कि० चेन ब्रतोचापन संग्रह । [२५५ नन्दीश्वराष्टदिवसानि जिनाधिपानां
मानन्दतः प्रतिकृति परिपूजयामि ॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० ।चन्दनं ॥२॥ उन्निद्रचन्द्रविलसकिरणावदातैः
सत्कुन्दकोरकनि कलमाक्षतोधैः । नन्दीश्वराष्टदिवसानि जिनाधिपाना
मानन्दतः प्रतिकृति परिपूजयामि ।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे० अक्षतान् ॥३॥ मन्दारचारुहरिचन्दनपारिजात,
सन्तानभूरुहभवैः कुसुमैर्विचिौः । नन्दीश्वराष्टदिवसानि जिनांधिपाना
मानन्दतः प्रतिकति परिपूजयामि ॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे० पुष्पं० ॥४॥ सिद्धैर्विशुद्धनवकांचनभाजनस्थैः
पीयूषमिष्टललितैश्चरुभिर्विचिौः । नन्दी ॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे० चरु ॥५।। स्वस्तान्धकारनिकरः कनकावदातै--
दीपः प्रदीपितसमस्तदिगन्तरालै । नन्दी०॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वोपे० दीपं ॥६॥ धरमन्दतरसौरभजालगुञ्जद्
भृङ्गाकुलेरगुरुचन्दनचन्द्रमिश्री निन्दी०॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे० धूपं ॥७॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
कम्राम्रदाडिममनोहर मातुलिङ्गजातीफलप्रभृति सौरभ सत्फलायें || नन्दी ● ॥
०
२५६ ]
ॐ ह्रीं श्रीनन्दोश्वरद्वोपे० फलं ||८|| द्वीपे नन्दीश्वरेऽस्मिन् विविधमणिगणाक्रान्तकान्ताङ्गकान्ति
प्राग्भारप्रास्तचन्द्रद्युतिकरनिकरध्वस्तमिथ्यान्धकारम् ॥ चैत्यं चैत्यालयांश्चोज्वलकुसुमफलाद्यैर निन्द्यप्रभावः । भक्त्या येऽभ्यचयन्ति स्फुटमसमसुखां ते लभन्ते विमुक्तिम् ||
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशज्जिनालये जिनबिम्बेभ्यः अर्धं निर्वपामीति स्वाहा अर्धं ।
अथ प्रत्येक पूजा |
अष्टम्यां क्रियते साधो नन्दीश्वरोहि शोषकः । दशलक्षोपवासस्य फलं चाये जिनाधिपं ॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशज्जिनालये नन्दीश्वरोपवासाय दशलक्षोपवासफलप्रदाय अष्टाकिव्रतोद्योतनाय जलादि अघ १ नवम्यामेकभुक्तं हि महाविभूतिनामभाक् । दशसहस्रोपवासस्य फलं चाये जिनाधिपं ॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशज्जिनालये महाविभूतिनामोपवासाय दशसहस्रोपवासफलप्रदाय अष्टाह्निक व्रतोद्योतनाय जलादि अवं ॥ १ ॥
दशम्यां कंजिकाहार खिलोकसारसंज्ञकः । षष्टिलक्षोपवासस्य फलं चाये जिनाधिपं ।
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दि० ज्येन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ ૨૭
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशजिनालये त्रिलोकसारनाम शोष - कायषष्टिलक्षोपवासफलप्रदाय अष्टाकिव्रतोद्योतनाय ज० अघं ३ एकादश्यां तिथौ प्रोक्तं मत्रमौदर्यचतुर्मुखम् । पंचक्षोपवासस्य फलं चाये जिनाधिपं ॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशज्जिनालये चतुर्मुखनामशोषकाय पंचलक्षोपवासफलप्रदाय अष्टान्हिकव्रतोद्योतनाय ज० अर्धं ॥ ४ ॥ द्वादश्यामनगारस्य पंचलक्षणनामकः । चतुरशीतिलक्षस्य फलं चाये जिनाधिपं ॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वोपे द्वापंचाशज्जिनालये पंचलक्षणनामशेषकाय पंचाशल्लक्षोपवासफलप्रदाय अष्टान्हिकव्रतोद्योतनाय जलाद्यघं ॥५॥ त्रयोदश्यामाम्लरसः स्वर्ग सोपानसंज्ञकः ।
चत्वारिंशच्चलक्षस्य फलं चाये जिनाधिपम् ।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे द्वापंचाशज्जिनालये स्वर्ग सोपाननामशोषकाय चत्वारिंशलक्षोपवासफलप्रदाय अष्टान्हिकव्रतोद्योतनाय जलाद्यषं ॥६ श्रीमत्सुसप्तम दिने वर सर्व संज्ञः
शाकत्रयेण सहितो वरशुद्ध एषः ।
लक्षोपवासफलदो भवति प्रसिद्धः
चाये जिनम् सकलबोधनिधानपात्रम् ॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशज्जिनालये सर्वसम्पन्ननामोपवासाय लक्षोपवासफलप्रदाय अष्टान्हिकव्रतोद्योतनाय अघं ||८|| एका दिने ? हीन्द्रध्वजाभिधान उपोषको यः क्रियते मनुष्यैः ।
१७
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२५४ । दि० जन व्रताचापन संग्रह। तिस्रोहिकोट्योत्तर पंचलक्षम्
चाये जिनम् तस्य फलप्रदाय ।। ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशजिनालये इन्द्रध्वजनामोपवासाय त्रिकोटिपंचलक्षोपवासफलप्रदाय अष्टाह्निकव्रतोद्योतनाय अर्घ ।९।
जलगन्धाक्षतैः पुष्पैनैवेद्य दीपधूपकैः फलैरर्यान्वितैश्चाये श्रीजिनम् सुधये नृणां ।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशज्जिनालये अष्टाह्निकव्रतोद्योतनाय पूर्णाधं ॥१०॥ प्राच्यां दिशि श्रीगिरिरंजनस्यात
तत्रस्थितं श्रीजिन चैत्यवृन्दं । चाये जलायैः सुरराजवंद्य
सदा पवित्रं सुखदम् सुगात्रम् ॥१॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिशिरिस्थतांजनगिरौ जिनबिम्बाय अष्टाह्निक व्रतोद्योतनाय अर्घ ॥१॥
श्रीमत्प्राचीसुदिग्भागे गिरिदधि , मुखोमतः । तत्रस्यं श्रीजिनाधीशं चायेऽहं श्रीसुखाप्तये ॥२॥ ॐ ह्रीं नन्दोश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थितदधिमुखगिरि श्रीजिनाय अष्टाह्निक व्रतोद्योतनाय अधू । २।। श्रीपूर्व दिग् सुखवराश ? सुशोभमानो
नाम्नायुतो दधिमुखो गिरिराजतुल्यः । तत्रस्थितं सुरनुतं जिननाथबिम्ब
चाये सदा सकलकर्मविमुक्तरूपम् ॥३॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ २५९
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थितदधिमुखगिरौ श्रीजिनाय० जलादिकं ॥३॥
श्रीपूर्वस्यां दिशायां च तृतीयो यो दधिमुखः ।
तत्रस्थं जिनचैत्यं च चाये पापप्रशांतये ॥४॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थित तृतीयदधिमुखगिरौ श्री जिनाय० जलादिकं ॥४॥
तत्र प्राचीदिशायां च चतुर्थो यो दधिमुखः । तत्राश्रितं जिनंचैत्यं पूजयेऽहं सुखाप्तये ||५|| ॐ ह्रीं नन्दोश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थित चतुर्थदधिमुखगिरी श्री जिनाय० जलादिकं अर्धं ॥५॥
श्रीमदिन्द्रस्य संबंधिदिशायां यो रतिकरः । तत्रस्थं श्रीजिनाधीशं पूजयेऽहं सुखाप्तये ॥ ६॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थित प्रथमरतिकरगिरी श्री जिनाय० अ० ॥ ६ ॥
त्रिदशेन्द्रस्य संबंधि दिशायां यो रतिकरः ।
तत्रस्थं श्री जिनाधीशं पूजयेऽहम् सुखप्रदम् ||७||
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थित द्वितीय रतिकर गिरौ श्री जिनाय अर्घं ॥७॥
O
श्री देवेन्द्रस्य संबंधो दिग्भागे यो रतिकरः ।
तत्रस्थं जिनबिम्बम् च पूजयेऽहम् सुखाप्तये ||८||
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थित तृतीयरतिकर गिरौ श्री जिनाय ० अ० ॥८॥
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२६० ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
इन्द्राधिष्ठित दिग्भागे वर्तते यो रतिकरः । तत्रस्थं पूज्यपादम् च पूजयेऽहम् सुखाप्तये ॥९॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थित चतुर्थरतिकरगिरी थी जिनाय० अर्घ ॥९॥
देवदेवस्य दिग्भागे सुखदेऽस्ति रतिकरः । तत्रस्थमकलङ्कच पूजयेऽहं सुखोप्तये ।।१०। ॐ ह्रीं नन्दोश्वरद्वोपे पूर्वदिरिस्थत पंचमरतिकरगिरी श्री जिनाय० ॥१०॥
प्राचीन बहिदिग्भागे संस्थितो यो रतिकरः । तत्रस्थंजिनचंद्रम् च पूजयेऽह सुखाप्तये ॥११॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थितौ षष्ठरतिकरगिरी श्री जिनाय० अघं ॥१॥
इन्द्राणीपतिदिग्भागे संस्थितो यो रतिकरः । तत्रस्थं जिनविम्बम् च पूजयेऽह सुखाप्तये ॥१२॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थितसप्तमरतिकरगिरी श्री जिनाय अर्घ ॥१२॥
त्रिदशेन्द्रस्य दिग्भागे विद्यते यो रतिकरः। तत्रस्थं जिनसूर्य च पूजयेऽहं सुखाप्तये ॥१३॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थिताष्ठमरतिकरगिरौ श्री. जिनाय अर्धा ॥१३॥
तबीजं परमं सर्व यज्ज्ञानेन सुवासिने । अनेनमूलमंत्राय तस्मै पुष्पांजलि क्षिपेत् ॥१॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२६१
इत्याशिर्वादः । कल्याणं विजयो भद्र चिन्तितार्थ मनोरथाः। श्रीनन्दीधरप्रसादेन सर्वेऽऽर्था हि भवन्तु ते ।२॥
पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
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00000000
अथ जयमाला।
घत्ता । सुरणर पणमियपयगुण हर भवभय । शांतिपयासण शांतिजिणा ॥ तुवचरणणमिवर उवसम इवर । अक्खमि अग्धु समुवयण ॥१॥
छन्द । वाणवितरवरा कप्पवासीसुरा । मिलियजोइसियगणा अमरासुरगणा । शए मनिरंग रमयन्ति गंदीसरे । अहविय पूय णिम्माविय वसु वासरे ॥१॥
गाथा 1 वसुवासरम्मिप्या णिम्माविय पढमसग्गइन्देण । कणयमय थाल सज्जिय पज्जलिय रयम आरतिऔ ।।
प्रज्जलिय रयण आरतियो भासूसे । इन्दु णचइ सुरा संजुषो सुन्दरो ।। देव बारमणा जय जब सदयं ।
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२६२ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । आरतिओ कुण्णंता, अट्ठमदीवहिं वासओ भायं । अच्छरय गच्चमाणाः देवाणां जयजय सद्दम् ॥४॥
जय जणाह गुण गहिरमई सायरा । बीयसो यांति जय लोपतु भायरा ॥ कुणइ आरतिओ विग्ध अवहारिणो । सग्ग अपवग्ग मग्गमि जो देसणो ॥५।।
गाथा । अट्ठमदीव पहाणो, चउदिसि चत्तारिवावि सुखणाए । जोयण लक्ख पमाणा, व्यमेयं पयं पीयाविरे॥६॥
वावि कुंडभि दह तिणिच्चेहरा । दिसिहि दिसि एव जाणेहि मह्न सुन्दरा ॥ एय एयम्मि वसु अहिंए सउ पडिणय । उद्धसय पञ्च धुणुहाइ तणु वपुमयं ॥७॥
गाथा । अट्टसहस्समाला, णाणा रयण मणीय लम्बमाणाए । पत्तेया पोया, अणाइ णिहिणामय सिद्धा ॥८॥
जोयण सत्तरि पञ्च अहियं परं । उच्चमाणंवि आयाम सहु णिब्भरं ॥ विध्उरा होति पंणास मनोहारिणो । चारिदारं वरं मणोहारिणो ॥९॥
- गाथा । सिंहादार वरम्मिय, धवल मणोहर सोहणाए । आविसराः प्रयण्टा, चत्तारि माण थंभाए ॥१०॥
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दि० जेन तोयापन संग्रह। [२६३ अट्टवर पाडिह एसया सोहिया । वसुविहा दव्य मंगल सुरे संसया ॥ तालकंसाल भरमेरि बीणांकुला। तवलि झल्लरीय वन्जति बहु महला ॥११॥
गाथा ।
वज्जति वायवहुला । इंदो पच्चंतु अप्सराजुत्तो। अषाढ़कातिकाय । फान्गुण मासम्मि सर्व अट्टम्मिदिणे ॥ १२ ॥
तावकुव्वंति जावंति पुण्णिमदिनो। दिव्यवर सोलसाभरण मंडियतणो । दिव्यमणि जडिय आरति ओकर तले । उत्तरेविणं एवं हिणन्दीसरे ॥१३॥ धुगिणधों धुगिगधों वज्जतिए मद्दलं । त्रिगिणे त्रिणिणेने सद्दए भुंगलं ॥ दिव्यमणि जडिय आरतिओ करतले । उत्तरेवीयं एवं हिंणन्दीसरे ॥१४॥ झिमिगझं झिमिगझं सद्दकंसालया। णच्चमाणं वि दीसन्ति बहुपाड्या ॥ दिव्यमणि जडिय आरति बोरतले । उत्तरेबीयं एवं हिन्दीसरे १५ ॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
घत्ता ।
एवं दिव्वसहा मणिपकिरता इन्द्रेण संजोइया । उत्तेरेवि जिणस्स अट्ठयदिणे णन्दीसरे सङ्करे || पूया भक्तिकरे विझति विवहा पत्ताणिए गणए । जे कुव्वेति सुशुद्ध भावणकरा सिद्धपदेणभव्व || १६ || ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिस्थित जिन चैत्यालयेभ्यो महार्घं० पूर्णा ।
इति श्री पूर्वादिक चैत्यालय पूजा ।
२६४ ]
अथ दक्षिण दिकूपूजा प्रारभ्यते
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तीर्थोदकर्मणिसुवर्णघटोपनीतैः ।
पीठे पवित्रवपुषि प्रविकल्पितार्थैः ॥
लक्ष्मीसुतागमनवीर्य विदर्भगः
संस्थापयामि भुवनाधिपति जिनेन्द्रम् || १ ||
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिण दिग् स्थितत्रयोदशज्जिनालय अत्र अवतर अवतर सवौषट् ( आह्वाननं ) अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ( स्थापनं ) अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ( सन्निधिकरणम् ) अथाष्टकं ।
क्षीरोदतोयैः स्नपयन्ति देवाः । यांस्तान् जिनेशान् मणिहेमबिम्बान् ||
यजामि गङ्गादि भवैर्जलोधः ।
नन्दीश्वरेऽप्यष्ट दिनानि भक्त्या ॥ १ ॥
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दिने प्रतीचापन संग्रह । (२६५ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिण दिग् स्विंतत्रयोदश जिनाचयेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ विलेपनैर्दिव्यसुगन्धद्रव्यः
येषां प्रकुर्वन्त्यमराश्च तेषाम् । कुर्वेऽहमने वरचन्दनायैः
नन्दीश्वरेऽप्यष्टदिनानि भक्त्या ॥२॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे. चंदनं ॥२॥ मुक्तामयै रक्षतपुण्यपुञ्जः
या प्रार्चिता देव गणजिनार्चा । तां शालि जातै विमनै र्यजेऽहं ।
नदीश्वरेऽप्यप्टदिनानि भक्त्या ॥३॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० अक्षतान ॥३॥ यान्यार्चिन्तान्येव जिनेंद्रबिम्बान्येवामरेंद्र सुर वृक्षपुष्पैः । तान्यर्चयेऽहम् वर चम्पकायैः नन्दीश्वरेऽप्यष्ट० ॥४॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० पुष्पं ॥४॥ पीयूष जातैश्चरुभिः सुरेशैः
या पूजिता सत्प्रतिमा जिनेशां । तां पूजयेऽहम् चरमोदकाद्यः
नन्दीश्चरेऽप्यष्ट० ॥शा ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० च ॥शा मा प्रवर्षति पुरस्मत
येषां गिना विदयामि सान।
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२६६ ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । घृतादिक' रभवः प्रदीपैः
नन्दीश्वरेऽप्यष्ट० ॥६॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० दीपं० ॥६॥ स्वर्णोद्भवैश्चारुघटस्थधूपैर्यानदेवदेवैर्महितान सुमृर्तीन् ।
तान्संयजे दिव्यसुगन्धधणैः नन्दीश्वरे ॥७॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० धूपं० ॥७॥ फलैः सुकल्पद्रु मजैः सुरेशैः
या चर्चिता सत्कृतिभिर्महेशान् । तान् नारिकेलादि चयैर्यजेऽह
नन्दीश्वरेऽप्यष्ट० ॥८॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे• फलं० ॥6॥ विमलजलसुगन्धरक्षतेश्चारुपुष्पैः
वरचरुबहुदीपः सारधपः फलश्च । जय जय वरवाद्यहेमपात्रस्थ मंगः
जिनवरशुभविवायार्घमुत्तारयामि ।।९॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० अर्घ० ॥९॥
अथ प्रत्येक पजा। दक्षिणस्यां दिशि योऽसाऽबंजनोनाम पर्वतः । तत्रस्थं जिनबिम्बम् च चायेऽहं तद्गणाप्तये ॥१॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थितांजनगिरी श्री जिनाय बष्टान्हिकवतोबोतनाय जलादि अर्ष १ .
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२६७ श्रीमद्दक्षिणदिग्भागे नाम्ना दधिमुखोमतः । तत्रस्थं श्रीजिनं पद्म चायेऽहम् तद्गुणाप्तये ॥२॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थित. प्रथमदधिमुखगिरी श्री जिनाय० अर्घ ॥२॥
दक्षिणस्यां दिशायां च द्वितीयो योदधिमुखः । तत्रस्थं श्रीजिन पद्म चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥३॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थित द्वितीयदधिमुखगिरी श्री जिनाय० अघं ॥३॥
यमाश्रित दिशायां च तृतीयो यो दधिमुखः । तत्रस्थं श्रीजिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥४॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थित तृतीयदधिमुखगिरीः श्री जिनाय० अर्वं ॥४॥
दक्षिणस्यां दिशायां च चतुर्थो यो दधिमुखः । तत्रस्थं वीतरागं च चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥५।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिस्थित चतुर्थदधिमुखगिरी थी जिनाय० अर्घ ॥१॥
दक्षिणस्यां दिशायां च रतिकरौ वै पर्वतः । तत्रस्थं श्री जिन पझे चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥६॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिस्थितप्रथमरतिकरगिरौ श्री जिनाय० अर्घ० ॥६॥ . श्रीमद्दक्षिणदिग्भागे रतिकरो द्वितीयकः ।
तत्रस्थं जिनचन्द्र च चायेऽहं बहुगुणाप्तये ॥७॥.
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२६८ ] वि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थित द्वितीयरतिकरगिरी श्री जिनाय अघं ॥७॥
दक्षिणायां दिशायां च रतिकरस्तृतीयकः । तत्रस्थं श्री जिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥८॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिरिस्थत तृतीयरतिकरगिरौ श्री जिनाय अर्ध ।।८।।
तत्र दक्षिणदिग्भागे तुर्यो नाम्ना रतिकरः । तत्रस्थं श्रीजिन भक्त्यो चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥९॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थित चतुर्थरतिकरगिरी श्री जिनाय अर्घ ॥९॥
देवाश्रितसुदिग्भागे नाम्ना रतिकरो मतः । तत्रस्थं श्रीजिन भक्त्या चायेऽहं तद्गुणाप्तये । १०॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थित पंचमरतिकरगिरौ श्री जिनाय अर्धी० ॥१०॥
श्रीमद्दक्षिण दिग्भागे षष्टो नाम्ना रतिकरः । तत्रस्थं श्रीजिनाधीशं चायेऽहं तद्गणाप्तये ॥११॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थित षष्ठरतिकरगिरो श्रो "जिनाय अर्घ० ॥११॥
दक्षिणायां दिशायां च सप्तमो यो रतिकरः । तत्रस्थं श्री जिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥१२॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिस्थितसप्तमरतिकरगिरी "धी जिनाय अर्ज. १२॥
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कि गैन बालोखापन संग्रह । तत्र दक्षिण दिग्भागे अष्टमो हि रतिकरः । तत्रस्थं श्री जिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥१३॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थितअष्टमरतिकरगिरी श्री जिनाय अर्घ० ॥१३॥ जिनेन्द्रः शंकरः श्रोदः परमेष्ठी सनातनः । अलक्षः सुगतोविष्णुरुनतां वः श्रियं क्रियात् ॥१४॥
इत्याशीर्वादः।
अथ जयमाला। नन्दीश्वर वरदिवहिए बावन चैत्यराय
जिनेश्वरपयकमलो बहु कुसुमांजलि देहिं . सुरिंदा जे लहिया अट्टविह पूजकरेयि
सुभत्तिय शुभ जाणिया ॥१॥ पंचह मेरु हेममय असिय जिणंदह
धामजिणेसर पयकमलो ॥२॥ सत्तरसो विजयारधहिं कुलगिर
तीस जिणेसर पयकमलो ॥३॥ असिय वखारि जिण भवणिं,
वीसमहा गयंदत निणेसर पयकमलो ॥४॥ माणुस उत्तर चारि जिण,
दसकर जिमगेह जिणेसर फ्यकमलो |
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-२७० ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । इक्ष्वाकारि चारि जिणगेह कुण्डलगिर,
चत्तारि जिणेसर पयकमलो ॥६॥ रुचकगिर च्यारि पिंडकथा,
चउसइ अट्ठावन जिणेसर० ॥७॥ व्यंतरमांहि असंख जिण,
जोइससंख विहीण जिणेसर० ॥८॥ सग्गि जिणदंह मणि भुवण',
लक्ख चउरासि होय जिणेसर० ॥९॥ लक्ख बहत्तरि सात कोडि,
भवनालय जिण संख जिणेसर० ॥१०॥ अधिक सत्ताणु सहस्स पुण,
तेवीसा सविजाण जिणेसर० ॥११॥ कैलास सत्रुजय गिर सिहरे,
सत्रुजय गिरनारि जिणेसर० ॥१२।। गोमट्टसामि आदीकरी,
किट्टिम सव चेइत्याल जिणेसर० ॥१३॥ अढाईय दीवहं भवियकथा,
जिण मन्दिरसु बिम्ब-जिणेसर० ॥१४॥ माणस खेतह माहिजिण,
मुणिवर जिरवाण भूमि जिणेसर० ॥१५॥ जन्दीसर पुहुपांजलि,
. जोइस भक्ति करेण जिणेसर० ॥१६॥
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दि. जैन प्रतोद्यापन सग्रह । । २७५. सो गर भुजवि सग्ग सह,
मुक्ति हि तिण हवेहिं जिणेसर० ॥१७॥ श्री सकल कीरति मुणिवर.
भणइ छोड़ो भवणापास जिणेसर० ॥१८॥ यावन्ति जिनचैत्यानि विद्यन्ते भवनत्रये ।
तावन्ति सततं भक्त्या त्रिपरीत्य नमाम्यहम् ॥१९॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थितजिनमन्दिरेभ्योः महाध ।१९
___ इति दक्षिणदिक् पूजा ।
अथ पश्चिमदिस्थित चैत्यालय पूजा । द्वापंचाशजिनागाराः प्रतिमापरमप्रभाः । आह्वानयामि नंदीशं द्विपंचाष्टकवासरान् । ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिकभागे त्रयोदश जिनालय अत्र अवतर अवतर संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम् ।
सत्सौरभादिवरगन्धविशुद्ध हस्तैः
कर रधूलिपरिमिश्रिततीर्थतोयोः नंदीश्वराख्यवरपर्वणि संयजेऽस्मिन् ।
चाष्टौ दिनोनि विधिना प्रतिमा जिनानाम् ॥१॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिम दिग्स्थित जिनालयेभ्यः जर्व निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥
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२७२ ]
दि० जन
दि. जेन बतायापन सग्रह ।
सत्कं कुमागरुसुवत्तिकचंदनानां
गन्धैर्वरैः सुखकरः कृतिनां सुगन्धः नन्दीश्वराख्यवर पर्वणि संयजेऽस्मिन् __ चाष्टौ दिनानि विधिना प्रतिमा जिनानाम् ॥ २॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० चन्दनं ॥२॥ चन्द्रांशुजालविशदैरमलैमनोजौः सद्गन्धशालिविशदाक्षतपूतपुजैः । नन्दीश्वराख्य ०३। ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० अक्षतान् ।।३।। पंकेजकन्दवकुलोत्पलमालतीनां पुष्पैदिरेफनिनदैः परिपूरिताशैः । नन्दीश्वराख्य०।४१ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० पुष्पं ॥४॥ सद्ध मभाजनकररस्मृतोपमानः हव्येनचानदधिभक्ष्यसशकराज्यः । नन्दी० ॥५॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० चरुं ॥५॥ ध्वस्तप्रमोहतिमिरे रसवृद्धराणां सत्सोमदीपनिकरैमणिभाजनस्थैः । नन्दी० ॥६॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० दीपं ॥६॥ रुजोंगकप्रवरचन्दनचन्द्रगन्ध द्रव्योद्भवैरनुपमैः सरसेव्यधपैः । नन्दी० १.७॥॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वोपे० धूपं ॥७॥ मोचासुचोचवरपूगरसालकायैः नारिंगदाडिमविराजितमजूद्रव्यः नन्दीश्वराष्ट० ॥८॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२७३ ॐ ह्रीं श्रीनन्दोश्वरद्वोपे० फलं ॥८॥ इत्थं नन्दीश्वराख्ये वरशिवसुखजे पर्वणींद्रादि लोके । संस्तुत्याष्टो दिनानि प्रवरगुणयुतं भव्यलोका यजन्तः । ये विद्यानन्दिसू रिप्रणतपदयुगं श्रीजिनानां सदर्चा । श्री भत्या नागसौख्यं निरूपममनघं यांतु मोक्षाय सौख्यं ।। ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० अर्घ० ॥९॥
अथ प्रत्येक पजा ।
श्रीमत्पश्चिम दिक्देशे बाह्यांजनो गिरिर्मतः । तत्रस्थं च गतद्वेषं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थितांजनगिरौ श्री जिनाय अष्टान्हिकव्रतोद्योतनाय जलादिकं अर्यं ॥१॥
पश्चिमायां दिशायां च नाम्ना दधिमुखोगिरिः। तत्रस्थं च गतद्वेषं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥२॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिस्थित प्रथमदधिमुखगिरी श्री जिनाय० अर्धं ॥२॥
वरुणश्रितदिग्भागे द्वितीयो यो दधिमुखः ।। तत्र स्थितं जिनाधीश चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥३॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिस्थित द्वितीयदधिमुखगिरी श्री जिनाय० अघं ॥३॥
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२७४] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
पश्चिमायां दिशायां च तृतीयो यो दधिमुखः । तत्रस्थं श्रीजिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥४॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थित तृतीयदधिमुखगिरौ श्री जिनाय० अर्मं ॥४॥
तत्र पश्चिम दिग्भागे चतुर्थो यो दधिमुखः । तत्र स्थितं जिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥५॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिरिस्थत चतुर्थदधिमुखगिरौ श्री जिनाय० अर्घ ॥५॥
दशाननारिदिग्देशे नाम्ना रतिकरो मतः । तत्र स्थितं जिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥६॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थितप्रथमरतिकर गिरौ श्री जिनाय० अर्घ० ॥६॥
रामारिशत्रुदिग्भागे द्वितीयो यो रतिकरः । तत्र स्थितं जगान्नाथं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥७। ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थित द्वितीयरतिकरगिरी श्री जिनाय अर्घ ॥७॥
पश्चिमायां दिशायां च तृतीयो यो रतिकरः । तत्र स्थितं जिनाधीशं चायेऽहं तद्गणाप्तये ॥८॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थित तृतीयरतिकरगिरौ श्री जिनाय अर्ध ।।८।।
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । [२७५ वारुण्यायां दिशायां च चतुर्थो यो रतिकरः । तत्र स्थितं जिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥९॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिस्थित चतुर्थरतिकरगिरी श्री जिनाय अर्थ ॥९॥
पश्चिमायां दिशायां च पंचमो यो रतिकरः । तत्र स्थितं जिनाधीशं चायेऽहम् तद्गुणाप्तये ॥१०॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थित पंचमरतिकरगिरौ श्री जिनाय अर्घ० ॥१०॥
वरुणाश्रित दिग्भागे षष्टो नाम्ना रतिकरः । तत्रस्थं श्रीजिनाधीशं पूजयेऽहं तद्गुणाप्तये ॥११॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थित षष्ठमरतिकरगिरी श्री जिनाय अपं० ॥११॥
सीतारिशत्रुदिग्भागे सप्तमो हि रतिकरः ।
तत्र स्थितं जिनाधीशं चायेऽहतद्गुणाप्तये ॥१२॥ ___ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिस्थितसप्तमरतिकरगिरी श्री जिनाय अर्था० ॥१२॥
श्रीमत्पश्चिमदिग्भागे अष्टमो हि रतिकरः । तत्र स्थितं जिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥१३॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थितअष्टमरतिकरगिरी श्री जिनाय अध० ।।१३।।
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___२७६ ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । सकलकुसुमवल्लीपुष्कलावर्तमेघो ।
दुरिततिमिरभानु:कल्पवृक्षोपमानः ॥ भवजलनिधिपोतः सर्वसम्पत्तिहेतुः।। स भवतु सततं वः श्रेयसे पाच नाथः ॥१॥
इत्याशीर्वादः।
अथ जयमाला।
कंपिला णयरि मंडस्से, विमलस्से विमलणाणस्से ।। आरतिवर समये णच्चति, अमरमणीओ ॥१॥
.अमर रमणीउ णचंति जिणमन्दिरं । विविह वर तूर तालेहिं वग्गिनूपुरं ॥ जडिय बहु रयण चोमीकरं पत्तियं । जिणन्द आरत्तियं जोइयं सुन्दर ।
मोतियंदाम । रुणझुणंकारेणउरधचलणुत्तिय । कमलदल णयण जिण विम्ब पेखन्तिया ॥ जिणन्द आरत्तिय जोइय सुन्दरम् ॥३॥ इन्दु धरणेंदु जलदु वो सहतिया।
मिलियसुर असुरघण रास खेलन्तिया ॥ केचि सिर चमर जिणबिम्ब ढोलंतिया ॥ जि० ॥४॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[२७० केसभरि कुसुम भर सिर ढोलंतिया । वयण छूणिइन्दु छमकंति विहसंहतिया ॥ कमलदलणयणजिण बिंब पेखन्तिया । जि०॥
गाथा।
गंदीसरम्मि दीवे बावण जिणालयासु पडिमाणं । अट्ठाई वरपव्वे इंदु आरतिओ कुणइ ॥ ६ ॥ इन्दु आरतियो कुणइ जिणमन्दिरं । रयणमणिकिरणकमलेहिं वर सुन्दरं ॥६॥ गीउ गाइयन्ति पञ्चन्ति वरणारया । तूर वज्जन्ति णाणाविंह पाडया ॥७॥
गाथा ।
एक्कम मिहजिणहरे चौ चौ सोलह वावीओ । जोयण लक्खपमाणं अट्टमणंदीसरे दीवे ॥८॥
अट्टमं दीव णंदीसरं भासुरं । चैत्य चैत्यालयं वन्दि अमरासुरं॥ देव देवी जहां धम्म सन्तोसिया। पश्चम गीय गायन्ति रस पोसिया ॥९॥
गाथा ।
दिव्वे हिं खीरनीर-हिं गन्धे हिंसुम मालाई । सव्वसुरलोप सहिये मा भारम्भषे इन्दु ॥१०॥
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२७८ ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह | इन्दु साहम्मि सम्भाइ वेजोसयं । आयवो सज्जिऐरावयंवर गयं ॥ सब दव्वेहिं भव्वेहि पूजा करा । मिलिय पढमवफया तासु तई देसिहा || ११ ||
गाथा ।
कंसाल तालतिविली झल्लरी भरि भेरि वीणाउ । वज्जन्ति भावसहिया भावेहिं णम्मिया सव्वे ॥ १२ ॥
सव्वदव्वेहिं भव्वेहिं करताडया | सद्दये संसि झिगिणिणीणाडया || झिगिणिझां झिगिणिझां वज्जये झल्लरी | चई इन्दु इन्दायणी सुन्दरी ॥ १३ ॥ यणकज्जल सुसीलामयं दीणयं । हेम हीराल कुण्डलकयं कण्णां ॥ झझणं शंकरं वज्जएणपुरं । जिणंद आरतियं जोइयं सुन्दरं ॥ १४ ॥ दिट्टिणा सव्व अंगुलिय दांवतिया । खिणिहिं खिणि स्त्रिणिहिं जिणविंब जोवंतिया । नारि णच्चन्ति गायन्ति कोमलसरं । जि० ॥ १५॥ रुणु झुणुकारेण उरघकर कंकणं । पारि जपन्ति जिणणाहवे बहुगुणं ॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
[ २७९
जुवइ णञ्च्चन्ति समरन्तियो जिणवरं । जिणन्द आरतिओ० ।। १६ ।।
कण्ठ कहलेहिं मणिहार झलंकतिया । जिगह थुणि थुणिहि सवणाइ संतुट्टया || विवि कोतुहलं कुणहि णारीणरं । जि० | १७ ||
धत्ता ।
आरतिह पढेहिं कम्मह धोवहिं सग्ग अपवरंग लहडं ॥ जं जं मणि झोवे तं सुखपावे सग्ग मोक्ख हेला तरहिं ॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिक्स्थित चैत्यालयेभ्यो
महाघं० ॥ १८ ॥
इति पश्चिम दिक्स्थितचैत्यालय पूजा ||
अथ उत्तरदिक् चैत्यालय पूजा ।
आषाढकार्तिकसुफाल्गुन शुक्लपक्षे ।
चातुर्निकाय सुर वृन्दसुभक्तिपूर्वम् ॥
नंदीश्वराख्यवरपर्वणि संयजेऽस्मि ।
नाह्वाननादिभिर्यजे शुभवस्तुयुक्तैः ॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिविस्थत जिनालय अत्र अवतर अवतर सर्वोौषट् ( आह्वाननं ) अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ( स्थापनं ) अत्र मम सन्निहितो र धन वषट् । स्वाहा ( सन्निधिकरणम् ) ।
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२८० ]
दि. जेन व्रतोद्यापन संग्रह । सत्सिन्धुपाथोभिरमन्दवासैः।
सत्स्वर्णभृङ्गारभृत् लोधैः ॥ चाये शतार्धाधिककाप्तवासा
नाषाढसत्कार्तिकफाल्गुणेषु ॥१॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्स्थितत्रयोद शचैत्यालयेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ शक्रार्चितान् भव्यसरोजपूष्णः ।
कोदण्डसत्पञ्चशतार्धमूर्तिन् । लेपामि सद्गन्धविलेपनस्तान् ।
आषाढसत्कार्तिकफाल्गुणेषु ॥२। ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० चंदनं ॥२॥ नन्दीश्वरद्वीपविशालवापी
स्थाद्रीन सुबिम्बान् वरकांचनाभान् ।। चर्चेऽक्षतैः कल्पितभावपासान् ।
__ आषाढसत्कार्तिकफाल्गणेषु ॥३।। ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० अक्षतान् ॥३॥ कन्दर्पसर्वावहताक्षरूपान् ।
भव्याऽटवीवन्हिप्रसिद्धलोकान् । यजाम्यहं पुष्पव्रजैः जिनेशान् । आषाढ० ॥४॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० पुष्पं ॥४॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन सग्रह ।
। २८१ अत्यक्षसोख्यास्पदलब्धकामान् ।।
भव्याम घानतकान् गरिष्टान ॥ संपूजऽहं वरभक्षकस्तान । आषाढ० ॥५॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० चरं ॥५॥
सत्केवलालोकितकृतत्स्नलोकान ।
घातिक्षयानन्तचतुष्टयाप्तान् ॥ यायज्मि तान् कपूररत्नदीपैः । भाषाढ० ॥६॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० दीपं० ॥६॥
कर्माष्टकाष्ठालघुपावकाभान् । . कैवल्यसौख्यान परमर्दियुक्तान् ॥
अर्चामि कृष्णागरुधूपधूम्रः आषाढ० ॥७॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० धूपं० ॥७॥ यजे फलेमुक्तगणाप्रमादान ।
प्रबुद्धबोधान भुवनत्रयाप्तान । देवेन्द्रसत्कीर्तितवांच्छिताप्तान आषाढ० ॥८॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० फलं० ॥ वाश्चंदनाक्षतसुपुष्पचरुप्रदीरैः।
धूपैः फलश्च रचितः शुभहेमपागैः ।। अर्घ ददामि दमितारिपते ? जिनाय ।
देवेन्द्रकीतिमहिताय मनोज्ञकाय ॥९॥ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे० अर्थ ॥५॥
।
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२८२ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । उत्तरस्यां दिशायां च नाम्ना ह्यजनपर्वतः । तत्रस्थित जिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥१॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्स्थितां अंजनगिरौ जिनायः अष्टाह्निक व्रतोद्योतनाय अर्घ ॥१।।
श्रीमदुत्तरदिग्देशे नाम्ना दधिमुखो गिरिः । तत्रस्थित जिनाधिशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥२॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्स्थितप्रथमदधिमुख गिरौ श्री जिनाय अष्टाह्निक व्रतोद्योतनाय अर्धा ।।२॥
उदीच्यां हि दिशायां च नाम्ना दधिमुखः पृथुः । तत्रस्थितं जगत्पूज्यं चायेऽहम् तद्गणाप्तये ॥३॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्स्थित द्वितीयदधिमुखगिरौ श्री जिनाय० अर्धी ॥३॥
उद्दगदिशिस्थितस्तत्र गिरिर्दधिमुखाधिपः । .. तत्रस्थित जिनाधीशं पूजयेऽहम् गणाप्तये ॥४॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्स्थित तृतीयदधिमुखगिरी श्री जिनाय० अघं ॥४॥
उत्तरायां दिशायां च तुर्यो दधिमुखो गिरिः । तत्रस्थितं जगत्पूज्यं चायेऽहम् तद्गुणाप्तये ॥५॥
ॐ ह्रीं नन्दोश्वरद्वोपे उत्तरदिग्स्थित चतुर्थदधिमुखगिरी श्री जिनाय० अर्घ ॥५॥
श्रीमदुत्तरदिग्भागे आद्यो रतिकराभिधः । तत्रस्थित लोकनाथं पूजयेऽहम् गुणाप्तये ॥६॥
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दिए मैन बसोवापन संग्रह । । २८३ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्स्थित प्रथमरतिकरगिरी श्री जिनाय० अर्घ० ॥६॥
कुबेराश्रित दिग्भागे गिरि रतिकराधिपः । तत्रस्थित जिनेन्द्र हि चर्चेऽहं तद्गुणाप्तये ॥७॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिस्थित द्वितीयरतिकरगिरी श्री जिनाय० अर्घ ॥७॥
उत्तरस्यां सुकाष्ठायां नाम्ना रतिकरोगिरिः । तत्रस्थित जगत्पूज्यं पूजयेऽहं सुखाप्तये ।।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्स्थित तृतीयरतिकरगिरौ श्री जिनाय० अर्ब० ॥८॥
धनदाश्रितदिग्भागे तुर्यो रतिकरः खलु । तत्रस्थितं जिनाधीशं चायेऽहम् तद्गुणाप्तये ॥९॥ . ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिस्थित चतुर्थरतिकरगिरी थी जिनाय० अर्घ ॥९॥
नैगमाश्रितदिग्भागे पंचमो यो रतिकरः तत्रस्थित जिनाधीशं चायेऽहं तद्गणाप्तये ॥१०॥ ॐ ह्रीं नन्दोश्वरद्वोपे उत्तरदिग्स्थित पंचमरतिकरगिरी श्री जिनाय० ॥१०॥
वित्ताधिपस्य काष्ठायां षष्ठो रतिकरो मिरिः । तत्र स्थितं जगत्पूज्य पूजयेऽहं सुखाप्तये ॥११॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरविरिस्थतौ षष्ठमरतिकरगिरी श्री जिनाय. अर्घ ॥१॥
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२८४ ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
राजराजस्य ककुभि सप्तमो यो रतिकरः ।
तत्रस्थित जिनाधीशं पूजयेऽहम् सुखाप्तये ॥१२॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्स्थितसप्तमरतिकरगिरौ श्री जिनाय अर्घ ॥१२॥
वैश्रवणस्यदिग्भागे अष्टमी हि रतिकरः ।
तत्रस्थितं जिनाधीशं पूजयेऽहं सुखाप्तये ॥१३॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिस्थित अष्टमरतिकरगिरौ श्री जिनाय अर्धं ॥१३॥
जलगन्धाक्षतैः पुष्पैः नैवेद्यैर्दीपधपकैः ।। फलैरयं जिन चाये दधिर्वाकुशे स्तथा ॥१४॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरस्थित त्रयोदशजिनचैत्यालयेभ्यो महाघ० पूर्णाघ ।
अथ जाप्यदीयते-जाप्य मन्त्र ।
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वोपे द्वापञ्चाशजिनालयेभ्योः नमः । यावज्जैनेन्द्रवाणी विलसतिभुवने सर्वसत्वानुकम्पा । यावज्जैनेन्द्रधर्म दशगणसहित साधवो योजयन्तः ।। यावच्चन्दाकेतारा गगनपरिचरा रामकीर्तिश्च यावत् । तावत्वं पौत्रपुत्रस्वजनपरिवृतो धर्मवृध्याभिवन्धः ॥१॥
. ॥ आशीर्वादः ॥
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[ २८५
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ जयमाला।
श्रीमन्नेमिजिनं जयत्रयगुरुं नत्वा सुरैः संविदं । वक्षेऽहम् स्तवनं द्वीपाष्टकभव कोटिशतम् सुन्दरं ॥ पष्ठिन्यौक सुयोजनस्य सुपयः शीतं शुभं लक्षकम् । चत्वारांजन भूधरोः प्रगुणका नीलेन्द्ररत्नत्विषः ।।१।।
छन्द । उन्नतचतुराशीतिसहस्त्राः, भाति पटहाकारविमिश्राः । सहस्त्र चतुराशीतिविष्कंभाः, शशिशुन्यत्रयकन्दसुदम्भाः ॥२॥ हित्वा लक्षयोजनगिरिराज्य, प्रत्या संवरवापि सुभाज्यं । प्रागंजनगिरि प्राच्यसुनन्दा. नन्दावति दक्षिणदिशिद्वन्दा ।३। पश्चिमनन्दोत्तरशुभनामा, नन्दखेणिका भाति सुरामा । दक्षिणाञ्जन पर्वत प्राच्या, प्राग्वदराज्या वापि सुराा ।४। दक्षिणतो विरजागनशोका, राजतिवापि विगतशोका । पश्चिमदिश्यञ्जनपरभूधं, त्यक्त्वा योजनशतसहस्र।। पूर्वविधिवद्विरजा वापि, वैजयन्ति जयन्ति सु वापी । राजत्यपराजितगुणधामा, उत्तर काशांजन गिरि रामा ।६।
रमणी नयना सुप्रभ विमला, सर्वतोभद्रा सरवर सकला। सहस्त्रदेवयोजन अगाधा, लक्षयोजन विश्रितवनसिद्धा ।। दीपिकामध्ये देशगिरि साराः, सन्ति षोडश दध्याकाराः ।
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२८६ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । पटहसमं योजन उन्मानं, व्यासाददया ? तावन्मानं ८। व्यासो द्विकोणयो रत्याकाराः,द्वात्रिंशत्सुराज्याकाराः सन्ति सहस्रोत्सेधविदेहाः,मूलयोजनतुर्याशसुगेहाः ।९। वापीनां परितोवनसारं, भात्यशोकं सप्तच्छदतारं । चम्पककेत किहंसमरालं, अष्टवर्गप्रमाणविशालं।१०।
वनमध्ये चैत्यादिकवृक्ष, दिक्षु भातिसुजिनवरदक्षं । पल्यंकासनस्थितसुर पूज्यं, शुभ रत्न प्रभनतसुरराज ११॥ अंजनदधिमुखरतिकरसकले, भ्राजते जिनगृहविपुले । योजनशतकाया महिमाभाः, पंचाशद्वासा मणि शोभाः ।१२ पञ्चसप्ततितुङ्गविशालाः, प्रद्योतितदिड मुखपरशालाः । पोडश योजनद्वारोत्सेध, विसृतवरवसुयोजनसिद्धं ।१३। तोरण पाच ररयो भांति, अष्टयोजनकामा सुकांति । चतुर्विशतिप्रोक्तापरमा मानस्तंभे अग्रे कामा ।१४ भांति गोपुरतोरणविशाला, स्तूपधूपघट ध्वजसमराला । तेमध्ये जिनप्रतिमातुंगा, चाप पंचशतमूर्ति विभंगा ।१५।
अष्टागृहशतसंख्या गेहं, प्रतिभाति गतकलिमलदेह । सिंहासनप्रकीर्णकवरछत्र, प्रातिहार्यभृगादिकपात्र ।१६। धवले बाहुलमासितपक्षे, आषाढ़े शुक्लाष्टमि दिवसे । तत्रागच्छन्ति सुरनाथाः, साप्सरा वाहनारूढ़कपंथाः ।१७। जिनपूजां रचयंति सुधीराः, अष्टविद्यार्चनकृतविधिसाराः । प्राड
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
[ २८७
मूर्तेर्जल स्नपनं कृत्वा, किल्विषदूरमनेनेति मत्वा |१८| यामद्वय प्रत्यासमनेन विधिनाखण्डल प्रतिमातेन ? स्तुवंति प्रतिमा विबुधेशाः, गानतानगंधर्व सुरेशाः | १९|
अथ प्राकृते ।
व्यन्तरा जोतिसा सग्गसोहाकुला । किन्नरा गाय कामिनिसंगाकुला || धों धो धपम वज्जये मद्दला |
णच्चए इन्दु इंद्राणी संगाकुला ॥ २० ॥ तितिं ति तिणी सह सोहाकुला ।
झिग झिगी झल्लरि ढोल रसाकुला || तें तें ताल कंसाल वीणाकुला ।
णच्चए इन्दु इन्द्राणी संगाकुला ॥ २१ ॥ थें थें जम्पए नारयो तम्बुरो | रुणुझुणु झंकरो किंकिणी सुन्दरो ॥ जोइ सानन्द सुराव रसाकुला ।
णच्चए इन्दु इन्द्राणी सङ्गाकुला ॥ २२ ॥ परसह कामिणी वर मणीमोहणी,
हस्स हासविलास गजगामिणी ।
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२८८ ।
दि० जन व्रताद्यापन सग्रह ।
सो हि आहार मन्दार मुक्ताकला,
णचए इन्दु इन्दाणी सङ्गाकुला ॥ २३ ॥ कुणइ अट्ठ दिवसेंहि पूय विहवरं,
जन्ति णियवासयं णिम्मलं भाधरं । पुण्ण उपावइ देव देवी गणा, गच्चए इन्दु इन्दाणी सङ्गाकुला ॥ २४ ॥
___ पत्ता । सुदीप्यभासुरं हि द्वीपनन्दीश्वरम्,
जिनेन्द्रचन्द्र'धरं कलाधरं परम् । सुभक्ति तोहि पूजये परापरं जिनालयम्,
सुधभूषसायरम् सुरेन्द्रकीर्तिचर्चितम् ॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वोपेपूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणेद्वापञ्चाजिनालयेभ्यः जयमाला महाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
इति नन्दीश्वरपूजा उद्यापन सम्पूर्णम् ।
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अथ नवग्रहव्रतोद्यापनम् ।
शार्दूलविक्रीडितम् । प्रारब्धाः फणियक्षभूतपतिभिर्देहात्तिवित्तक्षतिस्थानभ्रंशरसाद्यसाम्यविपदां नाशाय संकल्पिताः। योष्विष्टेषु च तापसादिषु समयान्त्याशयित्वार्चितेवातन्वन्तु गुरुप्रसादवरदा स्तेऽर्कादवो वः शिवम् ।।
अनुष्टुप् । माणिक्यं च रविं मध्ये, ह्याग्नेये मौक्तिकं विधुम् । भौमम् च विद्र मम् याम्ये, ह्यशाने ज्ञम् मरकतम् ॥ पुष्परागं गुरु सोमे, वज्र प्राच्यां भृगु तथा । नैऋते राहु गोमेदं, शनि नीलम् तु वारुणे ॥ वायव्ये केतु वैद्र य, तत्तत्स्थान निवेशयेत् । आदित्योरक्तवर्णश्च, सोमश्च श्वेतवर्णकः ॥ मजिष्टवर्ण आङ्गारो, बुधः स्यात्पीतवर्णकः । गुरुर्हरितवर्णच, शुक्रः स्यात्पाण्डुवर्णवान् । शनिः स्यात्कृष्णवर्णश्च, राहुगोमेदवर्णकः । गैडूर्यवणेः केतुःस्या, दित्येवं ग्रहवणेनम् ॥
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२९० ]
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह।
इन्द्रवज्रा। सूर्येन्दुभौमेन्दुसुतामरेज्य,
देत्येज्यमन्दोरगकेतुनाम्नः सर्वग्रहान् ज्योतिरमर्त्य मुख्या,
नभ्यर्च ये शान्तिसुखप्रदातन् ।। ( एतत्पठित्वां पुष्पाञ्जलि क्षिपेत् )
___ अनुष्टुप् । अर्के पद्मप्रभश्चैव, सोमे चन्द्रप्रभस्तथा । मङ्गले वासुपूज्यश्च, बुधेमल्लिजिनेश्वरः ।। गुरौ तु वर्धमानश्च, शुक्र पुष्पजिनेश्वरः । राही नेमिजिनेन्द्रः स्याच्छनौ च मुनिसुव्रतः ।। केतौ तु पार्श्वनाथश्चे, त्येते नवग्रहाधिपाः ! कल्याणं सततं कुयु, भव्यं भन्यौकहितः ।
शार्दूलविक्रीडितम् । रक्तस्तुल्यरुगम्बरादि युगिनः' श्वेतः शशी लोहितोभौमो हेमनिभी बुधामरगुरु गौरः सितश्चासिताः, । कोण स्थातनु केतवो जिनमहे हूंत्वेहपूादितः, शश्यूर्वेऽधिकुशं निवेष्यमुदमाप्यंते सवर्णाचनः ।। १--बुधः, २-बृहस्पतिः, ३-शुक्र, ४-शनिः, ५-राहुः । १-सूर्यः, २-शुक्रः, ३-शनिः, ४-राहुः । ५-सूर्यका लाल, चन्द्रमाका श्वेत, मङ्गलका लाल. बुध और गुरुका पीला, गौर और शेष ३ ग्रहोंका कृष्ण वर्ण है । सूर्यकी
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ २९१
मध्यपूर्वादिदिक्षु सवर्णाक्षतपुञ्जान् स्थापयित्वा क्रमेण कुंकुमादिद्य तदर्भासनानि
तदुपरि सूर्यादिनां विन्यसेत् ।
(मध्य में तथा पूर्वादि दिशाओं क्रमपूर्वक सवर्ण अक्षतपुञ्जोंसे सूर्यादि ग्रहों की स्थापना करके कुंकुमादिसे युक्त दर्भासनकी योजना करे | )
इति दर्भन्यासः ।
अथ पूजा प्रारभ्यते ।
उपजातिः ।
श्रीनाभिसूनोः पदपद्म युग्म
नखाः सुखानि प्रथयन्तु ते वः समन्नमन्ना किशिरोऽङ्घ्रिपीठेसंदत्तविस्रस्वमणीयितं यैः ॥
पूर्व, चन्द्रको आग्नय, मङ्गलकी दक्षिण, बुधकी नैऋत्य, गुरुकी पश्चिम, शुक्रकी वायव्य, शनिको उत्तर, राहुको इशान और केतुको उद्धर्व दिशा समझना चाहिये । उद्धर्व दिशाका स्वामी चन्द्रमा होता है । ग्रहोंको दिशाओं का यह वर्णन इसी पुस्तकमें आगे छपे " शान्तिचक्र विधान" की "दशदिक्पाल पूजा" के अनुसार लिखा गया है । " रक्तस्तुल्य" यह श्लोक "दशदिक्पाल पूजा" के प्रारम्भ में ज्योंका त्यों आया है । परन्तु इस नवग्रह पूजाके प्रारम्भमें “माणिक्यं च रवि मध्ये" आदि श्लोकों द्वारा ग्रहों की दिशाओं का क्रम अन्य प्रकार बतलाया है । इसलिये उसी प्रकार मण्डल बनाकर पूजा करना चाहिये ।
१ - वर्णो भवेद्यस्यग्रहस्य योहि तं तेन वर्णेन निवेशयन्तु । प्रमोद मायान्ति यतः सदृशेवंर्णा चनैस्ते हि मतं बुधानाम् ॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अनुष्टुप् ।
"
तावत्सरित्कृतस्नानो, द्यौतवस्त्रो रहः स्थितः । कृतेर्यापथसंशुद्धिः क्रोधमानी विवर्जयेत् || आदी तीर्थकृतां पूजां, सिद्धपूजां शिवाप्तये । कलिकुण्ड जिनेन्द्रस्य कुर्यात्पूजां सुखप्रदाम् || भारती श्रीगुरु नत्वा, धुतसन्तोषमानसः । सर्वापत्तिविनाशार्थं, त्रिवर्गफल साधने ॥ नवसंख्यग्रहाणां च, जिनसागर नामभाक् । करोति पूजन भक्त्यां, विनेयानां फलप्रदम् ॥ ( इति पठित्वा यन्त्रोपरिपुष्पांजलि क्षिपेत् । वसन्ततिलका |
आदित्य सोमबुधमङ्गलदेव पूज्यान, शुक्र शनैश्वरमथोवरराहुकेतून् ।
२९२ ।
चौरारिभारिग्रहभूतविनाशदक्षान्
संस्थापयामि सकलान् बुधलोकपूज्यान् ॥
ॐ ह्रीं सूर्य चन्द्रमङ्गल बुध गुरुशुक्रशनिराहुकेत्वादि नवग्रह देवाः अत्रागच्छतागच्छत । अत्र तिष्ठत तिष्ठत । अत्र मम सन्निहितां चवत भवत वषट् स्वाहा ।
( त्रिवारान् पुष्पांजलि क्षिपेत् )
द्रुतविलम्बितम् ।
सुरनंदीवर संभव सज्जलैः, कनककुम्भगतै रति शीतलैः ।
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दि. जैन प्रतोद्यापन संग्रह । [ २९३ सकल दुःख विनाशन दक्षकै.
दिविसदो नवसंख्य ग्रहान्यजे ॥ ॐ ह्रीं सूर्यादिनवग्रहदेवेभ्यो जलं समर्पयामि ॥१॥ अगुरु मिश्रित कुकुम चंदनै,
रविज ताप विनाशन दक्षकैः । मलयपङ्क महोत्तम शीतने, .. दिविसदो नवसंख्य ग्रहान्यजे ॥ ॐ ह्रीं सूर्यादिनवग्रहदेवेभ्यो चन्दनम् समर्पयामि ॥२॥ सकलबूस विवर्जित तन्दुले,
र्धवलमौक्तिक वर्ण समानकैः ।। सुरभिवास सुवासित दक्षक,
दिविसदो नवसंख्य ग्रहान्यजे ॥ ॐ ह्रीं सूर्यादिनवग्रहदेवेभ्योऽक्षतान समर्पयामि ।।३।। सरसिजात मनोहर पुष्पक,
बंकल केतकि चम्पकमोगरैः ॥ भ्रमर गुंजित चोरुसुवासकै,
दिविसदो नवसंख्य ग्रहान्यजे ।। ॐ ह्रीं सूर्यादिनवग्रहदेवेभ्यो पुष्पम् समर्पयामि ॥४॥ घृत सुपक्क सुमोदकखज्जकै,
वटक मण्डकभक्त सुनिर्मगैः । सुभग हव्य पयोदधिसंयुतै,
दिविसदो नवसंख्य ग्रहान्यजे ॥
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२९४ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
ॐ ह्रीं सूर्यादिनवग्रह देवेभ्योश्वरुं समर्पयामि ||५|| कनक कांति विकाशित दीपके:, हृदयतामस विस्तरवारकः । मणिमये रिव विश्वप्रकाशकै, दिविसदो नवसंख्य ग्रहान्यजे || ॐ ह्रीं सूर्यादिनवग्रहदेवेभ्यो दीपम समर्पयामि ||६|| अगुरुचन्दन मिश्रित धूपकैः,
सकलकर्म विनाशन दक्षकैः ।
सुरभितोषित षट्पद संचयै, दिविसदो नवसंख्य ग्रहान्यजे || ॐ ह्रीं सूर्यादिनवग्रह देवेभ्यो धूपम् समर्पयामि ||७ पनस दाडिम पक्त्र कपित्थके, मधुर मोचकआ सुसत्फलैः ।
कनक वर्ण सुधारस पूरके, दिविसदो नवसंख्य ग्रहान्यजे || ॐ ह्रीं सूर्यादिनवग्रहदेवेभ्यो फलम् समर्पयामि ||४|| तोटक छन्दः ।
जलगन्धसदक्षतपुष्पभरै, श्वरुदीपसुधूपमनोज्ञ फलं ।
वसुद्रव्यविनिर्मितकं प्रयजे,
कविप्रेम सुकल्पितम महम् ||
ॐ ह्रीं सूर्यादिनवग्रहदेवेभ्योऽयं समर्पयामि ॥ ९॥
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दि० जन. प्रतोद्यापन संग्रह।
[.२९५
...
-
अथ प्रत्येक पूजा।
अनुष्टुप् । सुसोमा धरणाधीश, पुत्रं पद्मप्रभं यजे । पद्मचिह्न समायोग्यं कुसुमाभ्यां सुसेवितम् ।। ॐ ह्रीं पद्मप्रभ जिनेन्द्र ! अत्रावतरावतर संवौषट् । ॐ ह्रीं पद्मप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं पद्मप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभ जिनेन्द्राय जलं गन्धमक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलमद्यमित्यादि निर्वपामीति स्वाहा ।
अथ स्तोत्रम् ।
__ उपजाति । पद्मप्रभः पद्मपलाश लेश्यः,
पद्मालया लिङ्गित चारुमूर्तिः । बभौ भवान् भव्य पयोरुहाणां,
पद्मकराणा मिव पद्मबन्धुः ॥ बभार पद्मां च सरस्वतीं च,
भवान्पुरस्तात्पति मुक्तिलक्ष्म्याः । सरस्वती मेव समग्र शोभां,
सर्वज्ञ लक्ष्मी ज्वलितां विमुक्तः ॥ १-पुष्प यक्ष और मनोवेगा यक्षी। २-यह स्तोत्र समन्तभद्राचार्य विरचित स्वयंभूर्तोत्रमें कहा है इस नवग्रह विधानमें आगे छपे हुए अन्य तीथंकरोंके स्तोत्र भी स्वयंभस्तोत्रके ही हैं।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
शरीर रश्मि प्रसरः प्रभोस्ते, बालार्क रश्मिच्छवि रालिलेप ।
२९६ ]
प्रभा
नरामराकीर्ण सभां वच्छलैस्य पद्माभमणेः स्वसानुम् ॥
नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वम्,
सहस्र पद्माम्बुज गर्भचारः । पादाम्बुजैः पातितमारदर्षो,
भूमौ प्रजानां विजह भूत्ये ॥ गुणाम्बुधेर्विप्रष मध्य जस्र,
नाखण्डलः स्तोत मलं तवर्षेः । प्रागेव माहकिकमुताति भक्ति,
मी बालमाला पयतीदमित्थम् || ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनेन्द्रायार्थ्ये निवर्णेत् । ॥ इति स्तोत्रं ॥
अथ यक्ष पूजा ।
मृगारुह कुन्तधरापसव्य,
करं सखेाभयसव्यहस्तम् । श्यामाङ्गमब्जध्वज देवसेव,
पुष्पाख्ययक्षं परितर्पयामि ॥
ॐ आं ह्रां ह्रीं श्यामवर्णं पुष्पयक्ष ! तिष्ठ तिष्ठ मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
अत्र गच्छागच्छ,
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२९७ ॐ पुष्पयक्षाय स्वाहा ।११ पुष्पपरिजनाय स्वाहा ।२। पुष्पानुचराय स्वाहा ।३। पुष्पमहत्तराय स्वाहा ।४। अग्नये स्वाहा ।५। अनिलाय स्वाहा ।६। वरुणाय स्वाहा |७| प्रजापतये स्वाहा ।८। ॐ स्वाहा ।९। भूः स्वाहा ।१०। भुवः स्वाहा ।११। स्वः स्वाहा ।१२, ॐ भूर्भुवः स्वाहो ।१३। स्वधा स्वाहा ।१४।
हे पुष्पयक्ष ! स्वगणपरिवारघृताय तुभ्ययमिद मध्यपाद्यं जलं गन्धमक्षतं पुष्प चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञ भागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां२ स्वाहा ।
यस्याथं क्रियते ० शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
अथ यती पूजा।
__ इन्द्रवज्रा। निष्टप्तहेमच्छवि मुग्नखेट,
चञ्चत्कृपाणं च फलं वरञ्च । संधारयन्ती निजपाणिभिश्च.
वेगाच्यते सा वरवाजिवाहा ।। ॐ ओं कों ह्रीं सुवर्णप्रभे! चतुर्भुजे ! खेटकृपाणवारिणि, बाजिवाहने ! श्री पद्मभजिनशासनम मनोवेगादेवी ! अत्रावतरावतर । अत्र तिष्ठ २ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् ।
ॐ मनोवेगादेव्यै स्वाहा ।। मनोवेगापरिजनाय स्वाहा ।२। मनोवेगानुचराय स्वाहा ।३। मनोवेगामहत्तराय
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२९८ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
स्वाहा |४| अग्नेये स्वाहा ५ | अनिलाय स्वाहा | ६ | वरुणाय स्वाहा |७| प्रजापतये स्वाहा | ८ | ॐ स्वाहा |९| भूः स्वाहा ।१०। भुवः स्वाहा । ११। स्वः स्वाहा | १२ | ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा | १३ | स्वधा स्वाहा | १४ |
हे मनोवेगादेवि ! स्वगणपरिवार परिवृताये तुभ्यमिदं मध्ये पाद्यं जलं गन्धमक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलि स्वस्तिकं यज्ञ भागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां२ स्वाहा । यस्यार्थ० शान्तिधारा । पुष्पांजलि: ।
B
अथ रविग्रह पूजा ।
उपजाति ।
ताप प्रकाशं प्रतिभासमानं,
मदीशयन्तं सततं विमानम् ।
उत्कृष्टपन्यस्थितिमव्जहस्त,
महाम्यहं तं प्रयजामि सूर्यम् ॥
ॐ ओं क्रों ह्रीं रक्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहन वधूचिह्न सपरिवार हे आदित्यमह ग्रह ! अत्रावतरावतर । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव २ वषट् ।
ॐ आदित्याय स्वाहा । आदित्य परिजनाय स्वाहा | आदित्यानुचराय स्वाहा । आदित्य महत्तराय स्वाहा ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [२९९ अग्नेय स्वाहा अनिलाय स्वाहा वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा । भूः स्वाहा भुवः स्वाहा । स्वः स्वाहा । ॐ भूर्भुवः स्वाहा । स्वधा स्वाहा ।
हे आदित्यमहाग्रह ! स्वगणपरिवारपरिवृताय तुभ्यमिदमय पाद्यं जलं गन्धपक्षतमित्यादि यजामहे प्रतिगृह्यतां२ स्वाहा ।
यस्यार्थं । शांतिधारा । पुष्पांलिः । (नैवेद्यमें वस्तु-चांवलके साथ पका हुआ दूध, पुष्प लाल, ध्वजा लाल, कुकुम, अको आका दातुन, जनोई, १ पैसा, दशाङ्गधूप, इन सबको मध्यभागमें रखकर अर्घ चढ़ाना चाहिये।)
जाप्य मन्त्रम्। ॐ आं क्रों ह्रीं ह्रः फट रविमहाग्रहाय नमः, अस्य यजमानस्य सर्वशांतिं कुरुकुरु स्वाहा ।
शादूलविक्राडितम् । आदित्यः सविता सहस्रकिरणः सूर्यः सुभानू रविमार्तण्डः कमलाप्तमित्रमुदयाधीशो जगत्त्रीक्षणः । नाथाः सर्वजगतामूतिजगदाधारत्रयारूपकाः श्री सूर्याः शुभलग्ननिष्ठकलदा कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ।।
इत्याशीर्वादः ।
पुष्पांजलिं क्षिपेत् । १-आकेडा ।
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३०० ] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । अथ चन्द्रप्रम जिन पजा।
आर्यागीतिच्छन्दः । चन्द्रपुराम्बुधिचन्द्र, चन्द्राङ्क चन्द्रकान्तकीर्तिसंकाशम् । चन्द्रप्रभजिनमर्चत, चन्द्रन्दुस्फारकीर्तिकान्ता कान्तम् ।।
ॐ ह्रीं अहँ नमोः। चन्द्रप्रभजिन ! अत्रावतरावतर । अत्र तिष्ठ तिष्ठः ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट, । ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जलं गन्धमित्यादिकमय॑म् ।
अथ स्तोत्रम्।
उपजातिः । चन्द्रप्रभं चन्द्रमरीचि गौरं,
चन्द्र द्वितीयं जगतीव कान्तम् । वन्देऽभिवन्द्यं महतामृषीन्द्र,
जिनं जितस्वान्त कषायबन्धम् ।। यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेष भिन्नम्,
तमस्तमोरे रिव रश्मिभिन्नम् ॥ ननाश बाह्य बहु मानसं च,
ध्यान प्रदीपातिशयेन भिन्नम् ॥ स्वपक्ष सौस्थित्वमदावलिप्ता,
वाक्सिंह नादेविमदा बभूवुः । प्रवादिनो यस्य मदागण्डा,
गजायथा केशरिणो निनादः ।
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दि. जैन व्रतोबापन संग्रह । यः सर्वलोके परमेष्ठिताया,
पदं बभूवाछुतकर्मतेजाः । अनन्तधामाक्षर विश्वचक्षुः,
समस्तदुःखक्षयशासनश्च ॥ स चन्द्रमा भव्य कुमुद्वतीनां,
विपन्नदोषाधकलङ्कलेपः । व्याकोशवान्यायमयूखजालः,
पूयात्पवित्रो भगवान्मनो मे ॥ (इति स्तोत्रं पठित्वा चन्द्रप्रभजिनेन्द्राययं निर्वपेत् ।।
अथ यक्ष पजा।
उपजातिः । मालाक्षसूत्रोरुकुठारधारणा
त्प्रशस्त हस्त शतमाल्य कोमलम् । सुसप्तभङ्गीकृत विश्वरूपिणं
सुचन्द्रनाथस्य यजे त्रिलोचनम ॥ ॐ आं क्रों ह्रीं श्यामवर्ण विजयक्ष ! अत्रागच्छागच्छ, अत्र तिष्ठ२ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
ॐ ह्रीं विजययक्षाय स्वाहा-इत्यादयः १४ वलयः । इदमध्यमित्यादिकमय॑म् ।
यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पांजलि ।
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३०२] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह।
अथ पती पूजा।
उपेन्द्रवज्रा। लुलायरूढां जिनचन्द्रनाथ.. प्रभाविनी ज्वालिनि ! काशिताङ्गीम् । फलासि चक्रांकशबाणपाश
धनुस्त्रिशूलाष्टभुजां यजामि ॥ ॐ आं क्रां ह्रीं श्वेतवर्णे ! अष्टभुजे ! फलासिचक्रांकुश बाणपाश चाप त्रिशूलहस्ते ! चन्द्रनाथस्यशासनदेवते ज्वालामालिनि ! अत्रावतरावतर । अत्र तिष्ठ२ अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
ॐ ज्वालामालिन्टौ स्वाहा-इत्यादयो १४ वलयः इदमयमित्यादिकमय॑म् ।
यस्यार्थः । शान्तिधारा । पुष्पाजलिः ।
अथ चन्द्रग्रह पूजा।
उपजातिः । सबक्षसम्वत्सरपल्यवृति
वलक्षरोचिः प्रतिभासमानम् । स्फूरन्महारत्नकृतोद्धवेशं
ग्रहाधिपं सोम मिहार्चयामि ।। ॐ आं क्रां ह्रीं श्वेतवर्ण ! सर्वलक्षण सम्पूर्ण ! स्वायुध वाहन वधूचिह्नपरिवार ! हे सोमदेव ! अत्र गच्छागच्छ । अत्र तिष्ठ२ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
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दि. जैन प्रतीयापन संग्रह। [३०३ ___ॐ सोमाय स्वाहा । इत्यादया १४ वलयः इदमर्थ्य मित्यादिकमय॑म् । यस्यार्थ० । शांतिधारा । पुष्पांजलि ।
(भक्ष्य- दूधकी खीर, बडा चांवलका, सफेद पुष्प, ध्वजा सफेद, धूप देवदार, खाखराका दातून, जनेउ, १ पैसा, चन्दन, अर्घ में चढावे । )
जाप्यमन्त्रम् ! ___ॐ आं क्रां ह्रीं ह्रः फट चन्द्रमहाग्रहाय नमः । अस्य....यजमानस्य सर्व शान्तिं कुरूकुरू स्वाहा ।
शादूलविक्रीडित। श्वेताङ्गः कमुदाप्तशीतकिरणः क्षीराम्बुधे र्जातकोलक्ष्मीशो वरकृष्णलाञ्छनधरः स्वारूढ मात्रेय शाः । शंभूमण्डलभूषणाधिपपतिः पूर्णाङ्गपुण्योदयश्चन्द्र कादशवगंलग्नफलदा: कुवन्तु ते मंगलम् ।।
इत्याशीर्वादः ।
पुष्पांजलिं क्षिपेत् । अथ मौमग्रह पूजा।
अनुष्टुप । जयसेना वसुपूज्य-सुत श्चम्पाधिपोऽरुणः । वासुपूज्यो महापूज्यो लुलायध्वजराजितः ॥
ॐ ह्रीं अहं नमो वासुपूज्य जिनदेव ! अत्रावतरावतर । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं वासुपून्यजिनाय जलं गन्धामित्यादिकमध्यं निर्गपेत् ।
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दिजन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ स्तोत्रम्।
उपजातिः । त्वं वासुपूज्योऽभ्युदयक्रियोसु,
त्वं वासुपूज्यस्त्रिदशेन्द्र पूज्यः। मयापि पूज्योऽन्पधिया मुनींद्र !
दीपार्चिषा किं तपनो न पूज्यः॥ न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न,
न निन्दया नाथ विवान्त गैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृति नः,
पुनातु चितं दुरिताञ्जनेभ्यः ।। पज्य जिनं त्वार्ययतो जनस्य, - सावद्यलेशो बहु पुण्यराशी । दोषाय नाल कणिका विषस्य,
न दृषिका शीत शिवाम्बुराशी ।। यद्वस्तु बाह्य गुणदोषस्ते,
निमित्त मभ्यन्तरमूल हेतोः ॥ अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूत,
मभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते ॥ बाह्य तरोपाधिसमग्रतेयं,
कार्येसु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुसां,
तेनाभिवन्धस्त्वमृषिव॒धानाम् ॥ (इति स्तोत्र पठित्वावासुपूज्यजिनेन्द्रायाय निर्वपेत् )
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ यक्ष पजा ।
उपजातिः ।
सकुन्तपाशांकुश खेटखड्गंवरोत्तर इंसगति त्रिवक्त्रम् ।
यक्षं सितांगं परमेश्वरस्य
श्री वासुपूज्यस्य यजे कुमारम् ॥
ॐ आं क्रां ह्रीं श्वेतवर्णं ! कुमारयक्ष ! अत्रावतरावतर अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ कुमार यक्षाय स्वाहा - इत्यादयो १४ वलयः । इदमर्घ्यमित्यादिकमर्थ्यम् । यस्यार्थं । शांतिधारा । पुष्पांजलि: ।
अथ यती पूजा ।
गान्धारिकायां मुसलाम्बुजाढ़य - चतुष्करां सन्मकराधिरूढाम् ।
श्री वासुपूज्यस्य पदाग्रनम्रां
८, ३०५
CORONAD
हरित्प्रभां पुण्यघनां यजामि ॥
ॐ आं क्रां ह्रों हरितप्रभे ! चतुर्भुजे ! मुसलाम्बुजधरे ! मकाराधिरूढे श्री वासुपूज्यस्य शासनदेवते ! विद्युन्मालिनी देवि ! अत्रागच्छागच्छ । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
२०
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३०६ ]
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । ॐ ह्रीं विद्युन्मालिनी देव्यै स्वाहा-इत्यादयोः १४ वलयः । इदमयमित्यादिकमय॑म् ।
यस्यार्थः । शान्तिधारा। पुष्पांजलिः ।
अथ मौमग्रह पूजा। मृगाधिपाकारसुरोह्यमानं
क्रोशार्धमानं श्रितमुद्धविन्मम् । कुमारयक्षाश्रितपूजनोक्तं
पल्यावृति कुज' मर्चयामि ।।
ॐ आं क्रां ह्रीं रक्तवर्ण ! सर्वलक्षणसंपूर्ण ! स्वायुधवाहन वधूचिह्न सपरिवार ! हे मङ्गल ! अत्रागच्छागच्छ । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव २ वषट् ।
ॐ कुल महाग्रहाय स्वाहा-इत्यादयो १४ क्लयः इदमयमित्यादिकमध्य॑म् ।
यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पाजलिः ! _ भक्ष्य-लापसी (गुड़की), लाल पुष्प, लाल कुकुम मिश्रित लाल ध्वजा, शमीका दातुन, गुग्गुलका धूप, जनेउ ? पैसा इन सबको अपित कर अर्ध्य चढ़ावे । . ... ...
१-मङ्गलग्रहम्
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ३०७
जाप्य मन्त्रम् ! ॐ आं क्रां ह्रीं ह्रः फट कुज महाग्रहाय नमः। अस्य.......यजमानस्य सर्वशांति कुरु कुरु स्वाहा ।
.शार्दूलविक्रीडितम् ।। रक्तोऽङ्गार सुवर्ण सन्निभकरो रक्तध्वजो मङ्गलोभूदेव्याश्च तनूजमेषगमनोऽवन्तीषू पुण्यग्रहः । भारद्वाजकुलान्वयः प्रतिदिनं सर्वज्ञ'मम् बन्दिता भौमैकादश वर्गलग्नफलदाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ।।
...इत्याशीर्वाद: । __ पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
अथ बुधग्रह पजा। कुम्भकुम्भिनीश वल्लभा प्रभावतीलसत्
डिम्भ ! कुम्भशुम्भदेक मल्लिनाथ ! संयजे । फुल्ल काममल्ल मर्द ! शात कुम्भसद्युते !
त्वा मिहा सुरेन्द्रवृन्दवन्द्यपाद पङ्कजम् ॥ ॐ ह्रीं नमो मल्लिनाथ जिनेन्द्र ! अत्रावतरावतर । अत्र 'तिष्ठ२ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथ जिनेन्द्राय जल मित्यादिमय॑म् ।
यस्यार्थ० । शांतिधारा । पुष्पांजलिः। .. १- सर्वज्ञम् +अम् ।
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३०८ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ स्तोत्रम् ।
श्रीच्छन्दः X
यस्य महर्षेः सकल पदार्थ,
प्रत्ययबोधः समजनि साक्षात् ।
सामरमर्त्य जगदपि सर्व.
प्राञ्जलि भूत्वा प्रणिपततिस्म ||
यस्य च मूर्तिः कनक मयीव, स्वस्फुरदाभाकृत परिवेषा ।
वागपि तत्त्वं कथयतु कामा,
स्यात्पदपूर्वा रमयति साधुन | यस्य पुरस्ता द्विगलितमाना,
न प्रतितीर्थ्यां भुवि विवदन्ते ॥ भूरपि रम्या प्रतिपदमासी
ज्जातवि कोशाम्बुजमृदुहासा । यस्य समन्ताज्जिन शिशिरांशोः
शिष्यक साधुग्रह विभवोऽभूत् । तीर्थ मपि स्वं जनन समुद्रत्रासितसत्त्वोत्तरण पथोग्रम् ॥
यस्य च शुक्लं परम तपोऽग्नियन मनन्तं दुरित मधाक्षीत् ।
X वाण रसैः स्याद्भतनगगेः श्री इति वृत्तकरे श्री च्छन्दो
लक्षणम. ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
तं जिनसिंहं कृतकरणीयं मन्लिमशल्यं शरण मितोऽस्मि ||
इति स्तोत्रं पठित्वा मल्लिनाथ जिनेन्द्रायध्यं निर्वपेत् ।
अथ यक्ष पूजा ।
मालिनीच्छन्दः ।
कुलिशपरमव चाप वाण त्रिशलै
[ ३०९
वरदफल सुशील रष्ट हस्तोरुदीप्तम् । सुरुचिर चतुरास्य मेघचापोरुवर्ण
जगति कुसुमपाद्यैः प्राचयामः कुवेरम् ॥
क्रां ह्रीं कुबेर यक्ष ! अत्रागच्छागच्छ । अत्र तिष्ठ२ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ कुवेर यक्षाय स्वाहा । इत्यादयौ १४ वलयः इदमर्घ्य मित्यादिकमर्घ्यम् । यस्यार्थ ० । शांतिधारा । पुष्पांजलि |
X
X
X
अथ यक्षी पूजा ।
उपजातिः ।
देवीं सुदृष्टां पदगापराजितां
फलासि खेटोद्धुरहस्त संयुताम् । चतुर्भुजां मन्लिजिनस्य शासने
प्रभाव वैदग्यवतीं यजामहे ॥
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३१० ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
ॐ आं क्रां ह्रीं सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे ! फलासिखेटवरदहस्ते ! मल्लिनाथस्यशासनदेवते ! अनुजातिदेवि ! अत्रावतरावतर । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं अनुजाति देव्यै स्वाहा - इत्यादयो १४ वलयः । इदमर्घ्यमित्यादिकमध्येम् । यस्यार्थं ० | शान्तिधारा । पुष्पांजलि: ।
केन्द्र त्रिकोणे जन सौख्यकारिमृगेन्द्रसच्वोहित लोकपूज्यम् । वलिप्रदानेन सुपुष्टिकर्ता - रं सोमपुत्रं परिपूजयामि ।।
ॐ आँ फ्रां ह्रीं श्वेतवर्ण ! सर्वलक्षण सम्पूर्ण ! वायुध वाहन वधुचिह्न सपरिवार ! हें बुधमहाग्रह ! अत्रागच्छागच्छ | अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
ॐ बुध महाग्रहाय स्वाहा - इत्यादयः १४ वलयः । इदमर्घ्यमित्यादिकमर्घ्यम् ।
यस्यार्थ० । शांतिधारा । पुष्पांजलि: ।
भक्ष्य- -भात और बड़ा, अंगारीका दातुन, दालका धूप, ध्वजा, पीली, केशर पीला, पुष्प पीला, जनेउ, १ पैसा । इन सबको अर्पित कर अर्घ्य चढ़ावे ।
जाप्य मन्त्रम् ।
ॐ आं क्रीं ह्रीं ह्रः बुध महाग्रहाय नमः यस्य... यजमानस्य सर्वशान्ति कुरु कुरु स्वाहा ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [३११
शार्दूलविक्रीडितम् । विद्वांसः कृतकृत्य कर्णिकदलापीताः सुपीतध्वजाः सिंहस्था वरदा बुध प्रियमया मूर्त्या च सौम्यग्रहाः । आत्रेयान्वय शुद्धबुद्धि परमानन्द प्रसन्नात्मकाः सौम्यकादश वर्गलग्न फलदाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥
इत्याशिर्वादः। पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
अथ गुरुग्रह पजा। श्रीमत्कुण्ड पुराधिनाथ विलसत्सिद्धार्थ भूवल्लभाप्रेमार्थप्रियकारिणी प्रियसुतः संप्रााते सन्मतिः । पञ्चास्योन्नतकेतनः कनकरुग्मार्तण्डसिद्धादिभिर्माणिक्याभरणादिरजितपदप्रोत्पुल्लपङ्क रुहः ॥
ॐ ह्रीं नमो वर्धमानजिनेन्द्र ! अत्रावतरावतर ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ॐ ह्रीं वर्धमान जिनेन्द्राय जलमित्यादिकमय॑म् । यस्यार्थ० । शांतिधारा । पुष्पांजलिः । . अथ स्तोत्रम्।
आर्यागीतः । कीर्त्याभुवि भासितया,.
वीर त्वं गुणसमुच्छ्या भासितया ।
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३१२ |
द० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
भासोडुस भासितगा,
सोम इव व्योम्नि कुन्दशोभासितया || तव जिनशासनविभवो,
जयति कलावपि गुणानुशासन विभवः । दोषकशासन विभवः,
स्तुवन्ति चैनं प्रभाकृशाशन विभवः । अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः ॥ इतरो न स्याद्वादो द्वितयविरोधान्मुनीश्वरास्याद्वादः || त्वमसि सुरासुरमहितो,
ग्रन्थिकसत्त्वाशय प्रणामामहितः ।
लोकत्रय परमहितो
Sनावरण ज्योति रुज्ज्वलद्धाम हितः ॥ सभ्यानामभिरुचितम्,
ददासि गुणभूषणं श्रिया चारुचित्तम् । मग्नं स्वस्यां रुचितम्,
जयसि च मृगलाच्छनं स्वकान्त्या रुचितम् ॥ त्वं जिन गतमदमाय, स्तवभावानां मुमुक्षुकामदमायः । श्रेयान् श्रीमदमायस्त्वयाः, समादेशि सप्रयामदमायः ॥ गिरिभित्त्यवदानवतः, श्रीमतइवदन्तिनः स्त्रवद्दानवतः । तव शमवादानवतो, गतमूर्जित मपगत प्रमादानवतः ॥ बहुगुणसपदसकलं,
परमतमपि मधुर वचन विन्यास कलम् ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह। जय भक्त्य वतं सकलं, तव देव मतं समन्तभद्रं सकलम् ॥
वसन्ततिलका । श्रीवर्धमान मकलङ्क मनिन्द्यवन्ध
पादारविन्दयुगलं प्रणिपत्य मूर्ना । भव्यैकलोकनयनं परिपालयन्तं स्याद्वादवतेपरिणामि समन्तभद्रम् ॥
वसन्ततिलका। ये संस्तुता विविधभक्ति समेतभक्त
रिन्द्रादिभि विनतमौलिमणिप्रभाभिः । उद्योतितांघ्रियुगलाः सकलाववोधा
स्ते नो दिसन्तु विमलां कमलां जिनेन्द्राः । ___ इति स्तोत्राय॑म् ।
अथ यक्ष पूजा।
उपजातिः । सुधर्म चक्राङ्कित चारुहस्तकं
मातङ्गयक्षं द्विभुजं वरोत्करम् । भी वधमानस्य समातुलिङ्गक
समुग्दवर्ण जिनवाहन यजे ॥ * आं क्रां ह्रीं मातङ्गयक्ष ! अत्रावतरावतरेत्याह्वानम् , स्थापनम् , सन्निधिकरणम् ।
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३१४ ] दि. जैन. व्रतोद्यापन संग्रह ।
ॐ मातङ्गयक्षाय स्वाहा इत्यादयः १४ वलयः । इदमय॑मित्यादिकमय॑म् ।
यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ।
अथ पनी पूजा। सिद्धायनी संमतिनाथभक्तां सुवर्णवर्णा वरदप्रसस्ताम् । प्रतीतसत्पुस्तकपाणिपूज्यां यजे समुद्रासनसुस्थिराङ्गीम् ॥
ॐ आं क्रां ह्रीं सुवर्णवर्णे सिद्धायनीयक्षि ! अत्रागच्छगच्छेत्याह्वानम् , स्थापनं, सन्निधिकरणम् ।
ॐ सिद्धायन्यै स्वाहा । इत्यादयः १४ वलयः। इदमयमित्यादिकमय॑म् ।
यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ।
बहरात ग्रह पूजा। यः स्वर्गलोके सुरंराज मंत्री, पयःप्ररादिघृतैः सुतुष्टः । वियद्विहारीबलिभक्षकः सन्, बृहस्पति तं परिपूजयामि ॥
ॐ आं क्रां ह्रीं सुवर्णवर्ण सर्वलक्षणसम्पूर्ण स्वायुधवाहन वधूचिह्न सपरिवार हे बृहस्पतिमहाग्रह ! अत्रागच्छागच्छेत्या ह्वानम् स्थापनम् , सन्निधिकरणम्
बृहस्पतिग्रहाय स्वाहा। इत्यादयः १४ वलयः, इदममित्यादिकमय॑म् ।
यस्यार्थ० शान्तिधारा, पुष्पांजलिः ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [३१५ भक्ष्य-भात, बड़ा, पीपलका दातुन, ध्वजा पीलो, केशरगन्ध, पीला पुष्प, दशांग घूप, जनेउ, १ पंसा। इन सबको उत्तर दिशामें अर्पित करे ।
जाप्य मन्त्रम्। ॐ आं क्रों ह्रीं ह्रः फट बृहस्पतिमहाग्रहाय नमः, अस्य यजमानस्य सर्वशांति कुरुकुरु स्वाहा ।
शार्दूलविक्रीडित। .. कालज्ञः सुरमन्त्रिणां सुरगुरु थातुर्भुजो वाक्पतिः सर्वत्रापि समस्तलोक जजनैः संपूज्यमानो गिराम । आचार्यः सुरवन्धभूसुरकुलो धीरोऽक्षमालाधरोगाग्रौंकादशवर्ग लग्न फलदा कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥
इत्याशोल्दः ।
अथ शुक्रग्रह पूजा । जयरामारमण्याश्च सुग्रीवस्य च सूनूकम् । पुष्पदन्त यजे यज्ञे पुष्पदन्त वरप्रभम् ॥ ॐ ह्रीं अहं नमः पुष्पदन्त जिनेन्द्र ! अत्रावतरावतरेत्याह्वान स्थापनम । सन्निधीकरणं । ॐ ह्रीं पुष्पदन्ताय जलगन्धमित्यादिकमयम् ।
यस्यार्थ० शान्तिधारा पुष्पांजलयः ।
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३१६ ]
दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
-
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-
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अथ स्तोत्रम् ।
उपजातिः । एकान्तदृष्टि प्रतिषेधितत्त्वं,
प्रमाण सिद्ध तदतत्त्वभावम् ।। त्वया प्रणीतं सुविधे ! स्वधाम्ना,
नैतत्समालीपढ़पदं त्वदन्यः ।। तदेव च स्यान्न तदेव च स्या,
तथा प्रतीते स्तव तत्कथचिंत् । नात्यन्त मन्यत्व मनन्यता च,
विधेर्निषधस्य च शन्यदोषात् ॥२॥ नित्यं तदेवेद मिति प्रतीते,
न नित्यमन्यत्प्रतिपत्ति सिद्धः। न तद्विरुद्ध बहिरन्तरङ्ग,
निमित्तनैमित्तिकयोगतस्ते ॥३॥ अनेकमेकं च पदस्य वाच्य,
वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्य । आकाक्षिल्लणः स्यादिति वै निपातो,
गणानपेक्षे नियमोऽपवादः ॥४॥ • गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्य
जिनस्य ते तद्विषतामपथ्यम् । ततोऽभिवन्धं जगदीश्वराणां, ममापि साधो स्तव पादपमम् ॥॥
स्तोत्राघ्यम् ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ यक्ष पूजा ।
वंशस्थवृत्तम
पलाच सूत्रोज्जलशक्तिसद्वरं,
चतुर्भुजं कूर्मगतं शुभं रूचा ।
अनन्तशक्यात्मक चिह्नरूपिणः,
[ ३१७
सुपुष्पदन्तस्य यजेऽजितं तथा ।
ॐ आं क्रों ह्री सुवर्णवर्ण चतुर्भुज स्वायुधवाहन वधूचिन्ह सपरिवार हे अजितयक्ष अत्रागच्छगच्छेत्याह्वानम् स्थापनम सन्निधिकरणं ।
ॐ अजितयक्षाय स्वाहा - इत्यादयो १४ वलयः 'इदमर्घ्य' मित्यादिकमर्घ्यम ।
यस्यार्थ • शान्तिधारा, पुष्पाञ्जलिः ।
अथ यक्षी पूजा ।
उपजाति ।
श्री पुष्पदन्तस्य महादिकालीं सुकूर्मपृष्टादिगतां यजामि ।
कृष्णां लसन्मुग्दरवज्रहस्तां
वरोल्लसत्सवर्ती पवित्रां ॥
ॐ आं फ्रां ह्रीं कृष्णवर्णे चतुर्भुजे मुग्दाबचफलवरदहस्ते कर्मवाहने श्री पुष्पदन्तस्य शासनदेवते भ्रकुटीदेवी ! अत्रागच्छ गच्छेत्यावाहनम् स्थापनम, सन्निधिकरणम् ।
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३१८ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
ॐ भ्रकुटीदेव्ये स्वाहा- इत्यादयः १४ वलयः, 'इदम' मित्यादिकमर्घ्यम | शान्तिधारा, पुष्पांजलिः । अथ शुक्रग्रह पजा । यः सव्यपाणौ शुचिदण्डधारी सुवामहस्ते च कमण्डलुं श्रित् ।
धौतव कविराज मुख्यां, तं शुकदेव परिपूजयामि ||
ॐ आं क्रौं ह्रीं श्वेतवर्ण सर्वलक्षणसम्पन्न - हे शुक्रमहाग्रह ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम् स्थापनं सन्निधिकरणं । ॐ शुक्र महाग्रहाय स्वाहा । इत्यादयः १४ वलयः इदमर्घ्यमित्यादिकमर्घ्यम् ।
यस्यार्थ । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ।
भक्ष्य-भात, बड़ा, उम्बरका दातुन, सफेद ध्वजा, दशांग धूप, चन्दन, सफेद फल, जनेउ, १ पैसा, इन सबको ऐशान दिशा के कोण में अर्पित करे ।
जाप्य मन्त्रम् ।
अस्य
यजमानस्य
ॐ आँ क्रीं ह्रीं ह्रः फट् शुक्र महाग्रहाय नमः । सर्व शान्तिं कुरू कुरू स्वाहा । शार्दूलविक्रीडितम् । श्वताङ्गा रजताद्रिसन्निभकराः श्वतध्वजाभार्गवाः ।
सु
つ
वाश्वाधिपका तुभुजधराः श्व ेताङ्गपत्राङ्किताः ॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
श्रीमद्भार्गव गोत्र वंशज महासंपूज्यपुण्यग्रहाः । शुक्रकादशवर्गलग्नफलदाः कुर्वंतु ते मङ्गलम् ||
इत्याशीर्वादः ।
अथ शनिग्रह पूजा ।
उपजातिः ।
[ ३१९
सुमित्रगोत्राधिपसत्कलत्र,
पुत्रः पवित्रो दुरितच्छिदस्त्री | नीलप्रभः सुव्रततीर्थनाथ:
संप्रार्च्छतेऽस्मिन् शुभकृत्प्रयोग ||
ॐ ह्रीं अहं नमो मुनिसुव्रत जिनेन्द्र ! अत्रावतरावतरेत्याह्वानम्, स्थापनं सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय जलं गन्धमित्यादिकमम यस्यार्थं ० शान्तिधारा, पुष्पांजलिः
1
अथ स्तोत्रम् |
अपरचक्रयच्छन्दः ।
अधिगतमुनिसुव्रतस्थितिमुनिवृषभो मुनिसुव्रतोऽनघः । मुनिपरिषदि निर्वमभवानुडुपरिषत्परिधीत सोमवत् ॥ परिणत शिखिकण्ठरागया कृतमंद निग्रहविग्रहाभया 1 भवजिततपसः प्रसूतया ग्रहपरिवेषरुचैव शोभितम् ॥ शशिरूचिशुक्ललोहित सुरभितर विरजोनिजं वपुः
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३२० ।
दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह ।
तव शिवमति विस्मयं यते यदपि च, वांगन सोऽयमोहितम् ।।
स्थिति जनन निरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम । इति जिन सकलज्ञलाञ्छनं वचनमिदं वदतां वरस्य ते ॥ दुरित मलकलङ्कमष्टकं निरुपम योगबलेन निर्दहन् । अभवदभव सौख्यवान् भवान् ।
भवतु ममापि भवोपशातये ॥ ५ ॥ स्तोत्रार्घ्यम् ।
अथ यक्ष पूजा ।
वसन्ततिलका |
अष्टाननं वरदखेटक पाणपाणि
पुष्यत् फलं त्रिनयनं मुनिसुव्रतस्य ।
श्वेतं वृषस्थ मुरुकाय महाजयोग्र
भूषं महामि जिनयज्ञमहोत्सवेऽस्मिन् ॥
ॐ आं क्रीं ह्रीं श्वेतवर्ण ! हे त्रिनयनयक्ष ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानं, स्थापनं सन्निधिकरणं ।
ॐ त्रिनयनयक्षाय स्वाहा - इत्यादयो १४ वलयः, इदमर्घ्यमित्यादिकमर्घ्यं ।
यस्यार्थ • शातिधारा, पुष्पांजलिः ।
•
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दिन प्रतोद्यापन संग्रह।
। ३२१
अथ यती पूजा।
उपेन्द्रवजा। यजामिभक्तां मुनिसुव्रतस्य
सुनागरूढां बहुरूपिणीं त्वाम् । सुखेटखड्गोत्पल सद्वराङ्का
चतुर्भुजां चारु सुवर्णवर्णाम् ।। ॐ आं क्रां ह्रीं सुवर्णवणे चतुर्भुजे खड्गखेटफलवरदहस्ते ! मुनिसुव्रतनाथस्य शासनदेवते ! श्री सुगन्धिनीदेवी ! .अत्रागच्छागच्छेत्याहवानम् स्थापनम, सन्निधिकरणम् ।
ॐ सुगन्धिनी देव्यै स्वाहा-इत्यादयोः १४ वलयः । इदमध्यमित्यादिकमध्य॑म् ।।
यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ।
अथ शनिग्रह पजा।
उपजातिः । छायासुतः सूर्यखचारिपुत्रो
यः कृष्णवर्णो रजनीशशत्रुः । अष्टारिगः सज्जनसौख्यकारी
शनीश्वर तपरिपूजयामि ॥ ॐ आं क्रां ह्रीं नीलवर्ण सर्वलक्षण सम्पन्न हे शनिमहाग्रह ! अत्रागच्छच्छेत्यावाहनम् स्थापन, सन्निधिकरणं ।
२१
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३२२ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
ॐ शनिमहाग्रहाय स्वाहा इत्यादयो १४ वलयः । इदमर्घ्यमित्यादिकमर्घ्यम् ।
यस्यार्थं ० । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ।
सक्ष्य — भात, बड़ा, उडदकी घुंगरी, खीजड़ाको दातुन, काली ध्वजा, घूप रालको, कस्तूरो मिश्रित गन्ध, जनेऊ, १ पैसा । इन सबको अग्नेय दिशाके कोण में अर्पित करे । जाप्य मन्त्रम् !
ॐ आं क्रौं ह्रीं ह्रः फट् शनि महाग्रहाय नमः । अस्ययजमानस्य सर्वशांतिं कुरु कुरु स्वाहा । शार्दूलविक्रीडितम् ।
श्रीमत्काश्यपगोत्र वंशज महा संपूर्णहेमद्युतिभक्ताभीष्टफलप्रदायिकमहासौराष्ट्र देशाधिपः । श्रीसूर्यात्मज मानवाणसधनुश्छायासुतो नीलवान् सौरेकादश वर्गलग्नफलदाः कुर्वन्तु ते मङ्गलं । इत्याशीर्वादः ।
अथ राहुग्रह पूजा ।
आर्या ।
शिवदेवी नयनांबुज, मधुप समुद्रादि विजयसमुत्पन्नम् । द्वारावतिनाथ त्वा मरिष्टनेमिं यजामि शंखाङ्कम् ॥
,
ॐ ह्रीं अहं नमो नेमि जिनेन्द्र ! अत्रावतरावतरेत्याह्वानं स्थापनम्, सन्निधिकरणम् ।
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वि० जैन व्रतोचापन संग्रह । [२२३ ॐ ह्रीं नेमिजिनेन्द्राय जलंगन्धमित्यादिकमय॑म् । यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पाजलिः ।
अथ स्तोत्रम्।
उद्त्तावृत्तम् । भगवानृषिः परमयोगदहन
हुतकल्मषेधनम् । ज्ञान विपुल किरणैः सकलं,
प्रतिबुध्य बुद्ध कमलायतेक्षणः ॥१॥ हरिवंश केतु रनवद्य
विनय दमतीर्थनायकः । शीलजलधि रभवो विभव
स्त्वमरिष्टनेमिजिनकुज्जरोऽजरः ॥२॥ त्रिदशेन्द्रमौलिमणिरत्न- .
किरणविसरोपचुम्बितम् ।। पादयुगलममलं भवतो,
विकसत्कुशेशय दलारुणोदरम् ॥३॥ नखचन्द्ररश्मिकववातिरुचिर
शिखराङ्ग लि स्थलम् । स्वार्थनियतमनसः सुधियः,
प्रणमन्तिमन्त्रमुखरामहर्षयः ॥४॥ द्युतिभद्रधाङ्गरविबिम्ब, , .. ::
किरणजटिलसमन्डलः ।
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३२४ ]
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह। नीलजयजदलराशिवपुः,
___ सहबन्धुभिगरुड्केतुरीश्वरः ॥ ५ ॥ हलमृच्च ते स्वजन,
भक्तिमुदितहृदयौ जनेश्वरौ। धर्म विनय रसिकौ सुतरां,
चरणार विन्द युगलं प्रणमेतु ॥६॥ ककुदं भुवः खचरयोषि,
दुषित शिखरै रलंकृतः ।।
मेघपटल परिचीत तट,
स्तवलक्षणानिलिखितानि वज्रिणा ॥७॥ वहतीति तीर्थमृषिभिश्व,
सततमभिगम्यतेऽद्य च । प्रीति विततहृदयः परितो,
भृशं मूर्जयन्त इति विश्रुतोचलः ॥ ८॥ बहिरन्तरप्युभयथा च,
करणमविघाति नार्थकत् । नाथ युगपदखिलं च,
सदा त्वमिदं तलामलकवद्विवेदिथ ॥९॥ अतएव ते बुधनुतस्य
चरित गुणमद्भुतोदयम् । न्याय विहित मवधार्य जिने,
त्वयि सुप्रसन मनसः स्थितावयम् ॥१०॥
स्तोत्राध्यंम् ।
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह। [ ३२४ अथ यन पूजा।
वंशस्थवृत्तम । गोमेदयक्षं त्रिमुख प्रसूनगं
नृवाहन नेमिजिनस्य षड भुजम् । त्रिशूलपाशाङ्कश चापमार्गणे
रुदीर्णहस्त सकलैयजाम्यहम् ।। ॐ आं क्रीं ह्रीं सुर्वालयक्ष ! अत्रागच्छगच्छेत्यावाहनम् स्थापनम, सन्निधिकरणम् ।
ॐ सर्वाहयक्षाय स्वाहा । इत्यादयः १४ वलयः इदमध्ये मित्यादिकमर्यम् ।
यस्यार्थ० । शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
अथ पती पूजा।
उपेन्द्रव्रजा। अरिष्टनेमेजिनपुगवस्य
प्रभाविनींशासनपुण्यदेवीम् । यजेऽम्बिकां सिंहगतिं सुनीलां
भुजद्वयाङ्गां विपवित्रपत्राम् ॥ * आं क्रां ह्रीं नीलवर्णं द्विभुजे सहकारफलवारिणि सिंहवाहने श्रीनेमिनाथस्यशासनादेवते !"कुष्माण्डिनीदेवि । अत्रागच्छापमानाला
निकिगं ।
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३२६ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
ॐ कुष्माण्डिनी देव्यै स्वाहा - इत्यादयो १४ वलयः । इदमर्घ्यमित्यादिकमर्घ्यम् । यस्यार्थं । शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
अथ राहुग्रह पूजा । उपजातिः ।
निजेन चिम्बेन दिने दिने च
षष्टे च मासे शशिनो विमानम् ॥
प्रच्छादयन्त परितर्पयामि
राहु स्वभावात्परितुष्यमाणम् ॥
ॐ आं क्रीं ह्रीं कृष्णवर्ण सर्वलक्षणसम्पन्न हे राहुमहाग्रह अचागच्छागच्छेत्याह्वानम, स्थापनम, सन्निधिकरणम् । ॐ राहुमहाग्रहाय स्वाहा - इत्यादयो १४ वलयः, इदमर्घ्यमित्यादिकमर्ध्य 1
यस्यार्थ शातिधारा, पुष्पांजलिः ।
भक्ष्य - उडदकी घुंघरी, बडा, लापसी, दर्भका दातुन, १ पैसा । इन सबको
हरी ध्वज, लाखका धूप, जनेऊ, ऋत्य दिशा के कोण में अर्पित करे ।
०
जाप्य मन्त्रम् ।
ॐ आं क्रां ह्रीं हृः फट राहुमहाग्रहाय नमः, अस्य यजमानस्य सर्वेशांतिं कुरुकुरु स्वाहा ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
शार्दूलविक्रीडितम् ।
श्रीपंचाननपीठमध्यविलसत्पाठीनपीठस्थिताश्वातुर्लक्षप्रमाणयोजनमहाकाय प्रसवात्मकाः । सिंहारूढ कराल वक्रकुटिलाः श्याम प्रभाभाजिनोराहु कादशवर्गलग्नफलदाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥ इत्याशीर्वादः ।
अथ केतुमहाग्रह पूजा ।
शालिनीच्छन्दः ।
काशीनाथं विश्वसेनस्यसूनु,
भोगीन्द्राङ्क पार्श्वनाथ' च चाये |
[ ३२६
पद्मावत्याः स्वामिन ब्रह्मनाथ, नागेन्द्राद्यैर्ध्वस्तघोरोपसर्गम् ॥
ॐ ह्रीं नमोः पार्श्वजिनेन्द्र ! अत्रावतरावतरेत्याहवानम, स्थापनम, सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं जलं गन्धमित्यादिक मर्घ्यम् । यस्यार्थं ० शान्तिधारा पुष्पांजलिः ।
स्तोत्रम् |
वंशस्थवृत्तम् ।
तमालनीलैः सधनुस्तचिद्गुणैः, प्रकीर्णभीका निमावृष्टिभिः ।
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३२८ ]
दि. जैन व्रतोखापन संग्रह । बलाइकै वैरियशैरुपद्रु तो,
महामना यो न चाल योगतः।।१॥ बृहत्फणामण्डल मण्डपेन,
यं स्फुरत्तडिपिङ्गरुचोपसर्गिणाम् । जुगूह नागोधरणोधराधरं,
विराग संध्यतडिदम्बुदो यथा ॥२॥ स्वयोग निस्त्रिंश निशातधारया,
निशात्य यो दुर्जय मोहवि द्विषम् । अवाप दार्हन्त्य मचित्यमद्भुत,
त्रिलोकपूजातिशयास्पद पदम् ॥३॥
यमीश्वरं बीक्ष्य विधूतकल्मष,
तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । बनौकसः स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः,
शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥४॥
स सत्यविद्यां तपसां प्रणायकः,
समग्रधोरुपकुलाम्बरांशुमान् । मया सदा पागे जिनः प्रणम्यते, विलीन मिथ्यापथ दृष्टि विभ्रमः ॥५॥
इति स्तोत्राय॑म् ।
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दि० जेन तोद्यापन संग्रह । अथ यक्ष पजा।
__उपजातिः। संपूज्यपक्षं धरणेन्द्रयक्षं,
सुकुमपृष्ठातुलवाहनस्थम् । तमालनीलाज्जन पार्श्वनाथः,
क्रमानतं तप्रयजामि शान्यै ॥५॥ ॐ आं क्रां ह्रीं धरणेन्द्रमहायक्ष ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम स्थापनम् , सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं धरणेद्राय स्वाहा-इत्यादयः १४ वलयः । इदमर्ध्यमित्यादिकमाम् ।।
यस्यार्थः । शान्तिधारा । पुष्पांजलि ।
अथ यक्षी पूजा। पद्मावती पाजिनस्य भक्तां,
चतुर्भुजां बिद्र म कान्तवर्णाम् । पाशांकुशाक्षाम्बुजचारुहस्तां,
पद्मासनां क टसपगाधाम् ॥ ॐ आं क्रां ह्रीं विद्रुमवणे चतुर्भुजे पाशाशामय फल हस्ते श्री पार्श्वनाथस्य शासनदेवते ! पद्मावतोदेवी ! अत्रा गच्छागच्छेत्याह्वानम्, स्थापनम सन्निधिकरणम् ।
ॐ पद्मावतीदेव्यै स्वापारयादयो १४ वलयः ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
अथ केतुमहाग्रह पूजा |
कृष्ण ध्वजा कृष्ण सुवर्ण धारी, छायाग्रहो पुण्य वियग्विहारि ।
एकादशस्थः संभवन्प्रपूज्य, केतु ग्रह त' परिपूजयामि ॥
३३० ]
ॐ आं क्रीं ह्रीं कृष्णवणं सर्वलक्षण सम्पूर्ण हे केतुमहाग्रह अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम् । स्थापनम् । सन्निधिकरणं ।
ॐ केतुमहाग्रहाय स्वाहा - इत्यादयः १४ वलयः । इदमर्घ्य मित्यादिकमर्घ्यम ।
यस्यार्थ० शान्तिधारा, पुष्पाञ्जलिः ।
भक्ष्य-बली मालुपर (कालीरोटी), उडदकी गुगरी, दानीका दातुन, काली ध्वजा; जनेउ, १ पैसो
ॐ आँ क्रीं ह्रीं ह्रः फट् केतु महाग्रहाय नमः अस्य यजमानस्य सर्व शान्तिं कुरू कुरू स्वाहा । शार्दूलविक्रीडितम् ।
-
श्रीनन्नेमि जगोत्र वंशज महा सम्पूर्ण मेघद्य तिगृद्धारूढ महाचलोऽतिधनवान् श्री पुण्य मूर्तिर्वरः अष्टाशीतिसहस्रयोजन महाविस्तीर्णदेहः सखा केत्यैकादशव गलग्नफलदाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥
इत्याशीर्वादः ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
इन्द्रवज्रा ।
एतेग्रहाः सर्व बल प्रभावा, मार्तण्ड मुख्या जगति प्रसिद्धाः ।
भव्यं प्रमोदं वितरन्तु नव्यं, देवाधि देवस्य पवित्र यज्ञे ॥
ॐ आँ क्रौं ह्रीं ह्रः मादित्य सोमाङ्गारक बुध बृहस्पति शुक्र शनि राहु केतु नवग्रहेभ्यः पूर्णार्थ्यां समर्पयामि, यज्ञभागे च यजामहे प्रतिगृह्यतां२ स्वाहा ।
[ २१
यस्यार्थ० । शांतिधारा । पुष्पांजलिः |
कार्पासवस्त्रादिसुधीतवस्त्रेः
काकूला दिसुपट्टकूलेः ॥
देवाङ्गवासोज्ज्वलदीप्तियुक्ते
राच्छादितांस्तान्प्रकरोमि देवान् ॥
इति पठित्वा वस्त्राच्छादनं कुर्यात् । ( मण्डल पर वका आच्छादन करे ) आदित्यो रोगहर्ता च सोमचिन्ताविनाशकृत् । मङ्गलो धरणीपुत्रः पूजितो मङ्गलप्रदः ॥ बुधो बुद्धिप्रदाता च सर्वकार्येषु सिद्धिदः । गुरुबुद्धिप्रदाता च शुक्रः संजीवनमदः ॥
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३३२ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
मदो मन्दमतेर्हर्ता राहु वैरिविनाशकः । केतुर्महागदच्छेदी सर्वकालफलप्रदः ॥ ॐ ह्रीं नवग्रहदेवा ! शान्ति प्रददतु । पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
अथ समुच्चय जयमाला ।
शार्दूलविक्रीडितम् ।
वन्दे तान् भुवि मुख्यकान
नवग्रहान् विश्वार्तिसंहारकान
तेजःपुञ्जकराननादि
विभवानिन्द्रादिदेवैनु तान् ।
भूतप्रेत पिशाचराक्षस
भयाद्देवः सदासत्कृतान, भोगीशानलचोररोगश मकान, लक्ष्मीकरानन्वहम् ॥
मात्रोपेक्षिकं - दोषकवृत्तम् ।
-
काश्यपवंश महाद्युतिमारं,
बन्धुकपुष्प सुवर्ण विसारम् ।
नेत्र, वासहमनि शुचितर शुभगात्रम् ||
'पद्मदलायत सुन्दर
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दि. जैन प्रतीयापन संग्रह।
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कम्बधवलदधिसप्रभभासं,
शीतलकोमलरश्मिविलासम तं शशिन कुमुदालि विकाशं,
शानरगाढतमः कृतनाशम् ॥ श्रीधरणीसुत लोहिनदेह,
गण्यगुणावलिशोभितगेहम् । शक्तिमहायुध शेषकुमारं,
तं मंगलग्रहमण्डलसारम् ॥ सर्वगुणोत्तम श्यामसुरूप,
देव नरासुरसंभृत भूपम् । तं शशिन वरसौख्यविशालं,
दीर्घललाम विकाशितभालम् ॥ सुरपति वन्दितपादसरोज,
हाटककान्ति महामतिराजम् । ऋषिगण संस्कृत बुदिविलोकं,
वन्दे तं सुरगुरुगतशोकम् ॥ काश्चनकुन्द शशाहकलामं,
वेदपठनमतिमत्रितलाम। दैत्य कुलाधिपजितपादं,
पन्डितजन नय सरकत वादन..
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-३३४ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
नीलमहोत्पलविश्रुततापं,
वासरमणिसुतमुद्धतकोपम् ।
गर्वित जनताविहित विनाशं,
तं मन्द वन्दे सविकाशम् ॥
राहुमहाग्रहतपन विदारम्,
अर्द्धसुकाय महामतिसारम् ॥
सैंहिकेयमतिकल्पितमानम्,
कज्जलविग्रह कज्जलधानम् ।
कुष्णमहोन्नत धूम विकाशं,
तारापति कृतदेह विनाशं ॥
रौद्र विपूर्णित रौद्रविनोदं,
केतुमहाग्रह संघृतमोदं ॥ मालिनीच्छन्दः ।
इति शुभ जयमालां यो विधत्ते सुकण्ठे, दिनमपि रजनीं वा सर्वकालं पठेद्यः । व्रजति स जनमुख्यः पुत्रवाञ्छां सुकीर्ति, जिनजलधिसुपूज्यः पण्डिताचार्यवर्यः ॥
ॐ आं क्रां ह्रीं सूर्य चन्द्र मंगल बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु महाग्रहेभ्यः सर्वशान्तिप्रदमर्घ्यं समर्पयामीति स्वाहा ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [३३५
मन्त्र- ॐ आं क्रां ह्रीं श्रीं ग्रहा श्चन्द्र सूयोङ्गास्क बुध बृहस्पति शुक्र शनैश्वर राहु केतु सहिता इह जिनपति पुरत स्तिष्ठन्तु मम धनधान्य जयविजय सुख सौभाग्य धति कीर्ति कान्ति शान्ति तुष्टि पुष्टि बुद्धि लक्ष्मी धर्मार्थ कामदाः स्युः स्वाहा ।
(इस मन्त्रका १०८ अथवा २७ वार जाप करना चाहिये ।)
अनुष्टुप ।
जगद्गुरुं नमस्कृत्य श्रुत्वा सद्गुरुभाषितम् । ग्रहशान्ति प्रवक्ष्यामि भव्यानां सुखहेतवे ॥ जन्मलग्ने च राशी च यदा पीडन्ति खेचराः । तदा संपूजयेद्धीमान् खेचरैः सहितान् जिनान् ॥ पुष्पैर्गधै पदीपैः फलनैवेद्यसंयुः । वर्णसदृशदानश्च वस्त्रौश्च दक्षिणान्वितैः ॥ पद्मप्रभश्च मार्तण्ड श्चन्द्र श्चन्द्र प्रभश्च सः। भूसुतो वासुपूज्यश्च बुधोऽप्यष्टजिनेश्वरः ।। विमलानन्तधर्माराः शान्तिः कुन्थुन मिस्तथा । वर्धमानो, जिनेन्द्राणां पादपद्म बुधो नमेत् ॥ ऋषभाजितसुपार्वा श्वाभिनन्दनशीतलौ । सुमतिः शंभवः स्वामी श्रेयसच बृहस्पतिः ॥
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३३६ ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह। सुविधेः कथितः शुक्रः सु व्रतस्यशनैश्चरः । नेमिनाथस्य राहुः स्यात् केतुः श्रीमल्लिपार्श्वयोः॥ जिनागारे गतः कृत्वा ग्रहणां शान्ति हेतवे । नमस्कार, ततोभक्त्या जपेदष्टोत्तरं शतम् ॥ भद्रबाहुरुवाचैन, पंचम श्रुतकेवली ।। विद्याप्रवादतः पूर्वाद्, ग्रहशान्तिविधिं शुभम् ॥ आदित्यादिग्रहाः सर्गे, सनक्षत्राः सुराश्च ये । कुर्वन्तु मङ्गल तस्य, पूजाकतुरस्य ते ॥ ___ णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव साहणं ।'
इस महामन्त्रका १०८ वार जाप करना चाहिये । __ॐ आँ क्रौं ह्रीं श्रीं सूर्य चन्द्र मङ्गल बुध गुरू शुक्र शनि राहु केत्वादयः सर्वे ग्रहाः शांन्ति पुष्टि तुष्टिश्च कुर्वन्तु२ स्वाहा ।
इत्याशीर्वादः ।
पुष्पांजलिं क्षिपेत् । नवग्रह होम करणाच्छान्तिर्भवतु । ॥ इति श्रीजिनसागरकृत नवग्रह पूजा समाप्तः ।।
40
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शान्तिचक्रोद्यापन विधान । अथाधिवास्य चिद्र प मित्यादिविधिनापरम् । ब्रह्माईदादीन् धर्मश्च मध्येमण्डलमर्चय ॥ (प्रथम देवशास्त्रगुरुसिद्ध और कलिकुण्ड पूजा करे )
ॐ परमब्रह्म यज्ञप्रतिज्ञानायकणिकान्तः पुष्पाजलिं क्षिपेत् ।
शार्दूलविक्रीडितम् । प्रत्यर्थिवजनिर्जयानिशलसद्धीवीर्यदृक्शर्मणोलोकेषू त्रिषू मङ्गलोत्तमतपाख्यातान् पवित्रात्मनः। धर्मं च व्रजतोहृदावदधतोमुक्तिप्रियामात्मनोलोकेशामरपूजितानधभिदः प्रा मितानहतः ॥ ____ॐ ह्रीं अरिप्रमथनाद्रजोरहस्यनिरसनाच्चसमुद्भिनानन्तज्ञानादिचतुष्टयतया शुक्रादिकता मनन्तसंभाविनीमहणा महंतां मंगलङ्गत्वेन लोकोत्तम शरणभूतानामहत्परमेष्ठिनोमष्टतयीमिष्टि करोमीति स्वाहा ।
स्रग्धरा। सामोदैः स्वच्छतोयै रूपहिततुहिन श्चन्दनै स्वर्गलक्ष्मीलीलाध्यें रखतौघे मिलदलीकुसुमै रुग्दमै नित्यहृद्यैः ।
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३३८ |
दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह । नैवेद्यैर्नव्य जाम्बूनदमद दमके दीपकैः काम्यधूमस्तूपै पै मनोज्ञगृहसुरभि फलैः पूजयेत्वादिशम् ॥
ॐ ह्रीं घातिचतुष्टयरहितेभ्यो नवकेवललब्धिसमन्वितेभ्योऽद्धयो जलादिकमर्थ्यं निर्वपामीति स्वाहा । यस्थार्थं क्रियते पूजा तस्य शांतिर्भवेत्सदा । शांतिक पौष्टिक चैव सर्वकार्येसु सिद्धिदा || ( यह पढ़कर शांतिधारा देवे और पुष्पांजलि क्षेपण करे ) शार्दूलविक्रीडितम् ।
प्रत्येकार्पित सप्तभंगयुपहितै धर्मैरनन्तैर्युतान् । श्रीव्योद्ध दतदत्ययैरनुगतान्सर्वज्ञताशोभितान् । सच्चतन्य चमत्कृति प्रविल सन्मोदाब्धिमध्य स्थितान् । भक्त्या मंगल लोकवय शरणान्येतहि सिद्धान्यजे । ॐ ह्रीं सामग्री विशेष विश्लेषिता शेष कर्ममल कलङ्कपङ्कतया सांसिद्धिका त्यन्तिक विशद्धि विशेष विभवा दभिव्यक्त परमोत्कुष्ट सम्यक्त्वादिगुणाष्टक विशिष्ट मुदितोदित स्वपरप्रकाशात्मक चिच्चमत्चकारमात्रपरतन्त्र परमानन्देकमयीं निर्गतानन्तपययितयैक किञ्चिदनवरता स्वाद्यमान लोकोत्तर परम मधुर स्वरस स्वभर निभर कोटरथ्यमधिष्ठितां परमात्मता ना संसार मनासादित पूर्वामपुनरावृत्याधिष्ठितानां लोकोतमशरणभूतानां सिद्धपरमेष्ठिना मष्टतयी मिष्टि करोमीति स्वाहा |
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ३३९ ___ॐ ह्रीं कर्माष्टक विमुक्तभ्यः सिद्ध भ्यो जलं गन्ध मक्षतं पुष्प चरु दीपं धूपं फल मयं च निनपामीति स्वाहा । सामोदः स्वच्छतोयै रूपहिततुहिनैश्चन्दनै स्वर्गलक्ष्मी । लीलाध्यौं रक्षतौर्मिलदलिकसुमै रुद्गमैर्नित्यायः ॥ नैवेद्य नव्यजाम्बू नदमददमकै र्दीपकैः काम्यधूमस्तूपधू पैमनोजैगृहसुरभिफलैः पूजये सिद्धनाथान् ॥
ॐ ह्रीं कर्माष्टक विमुक्तभ्यः सिद्धिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ।
स्रग्धरा । व्यक्ताशेषश्रुतोपस्कृतिकषितमस्काण्डगम्भीरधीरस्वान्ताः पड्विंशदुच्चः स्फुरदसमगुणाः पञ्चमुक्त्यै स्वयं ये । आचारनाचरन्तः परमकरुणया चारयन्तो मुमुक्षुन् लोकाग्रण्यः, शरण्यान् गणधर वृषभान मङ्गलं तान्महामि ___ ॐ ह्रीं व्यवहाररत्नत्रयावधान समुद्भिद्यमाननिश्चय रत्नत्रयैकलाभमनु भवन्त मानन्दसान्द्र सुद्धस्वात्मान भर्भिमिविशमानानां विश्वस्वरूपोपलब्धि प्रेयसी दृढतर परिरम्भ सुखाभिलाषुक मुमुक्षुवर्गानुग्रहैक सर्गाय मानांतः करणानां मङ्गललोकोत्तमशरणभूतार्थानामाचार्य परमेष्ठिनामष्टतयी मिष्टि करोमीति स्वाहा ।
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३४० ] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
ॐ ह्रीं पंचेन्द्रिय विषयविरतेभ्यः पंचाचारनिरतेश्य आचार्य परमेष्ठिभ्यो जलं गन्धं अक्षतं पुष्पं नैवेद्य दीपं धूपं फलमध्यंच निर्मपामीति स्वाहा ।
स्रग्धरा । सामोदः स्वच्छतोयै रूपहिततुहिनैश्चन्द्रनः स्वर्गलक्ष्मीलीलाध्यैरक्षतौर्मिलदलिकुसुमै रुदमैनित्य हृद्यः । नैवेद्य नव्यजाम्बूनदमद दमकै र्दीपकः काम्यधूमस्तू धूंगैमनोजै हसुरभिफलैः पूजये धर्मसूरीन् । __ॐ ह्रीं पंचेन्द्रियविषयविरतेभ्यः सूरीभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः । साङ्गोपाङ्गागमज्ञाः सुविहितमहिताः सूक्तियुक्तिप्रपंचविद्यानिष्पन्दतृष्णातरलितमनसः प्रीणयन्तो विनेयान् । कीर्तिस्तम्भायमाना निपुणमतिधनाः शक्तिसत्कोषवन्तः ख्याता लोकेऽत्र लोकोत्तमशरणतया
येऽचयेऽध्यापकांस्तान् ॥ ॐ ह्रीं निरन्तरधोरदुःखावर्तविवर्तन चतुर्गतिपरिवर्तनार्ण वनितुर्यास्तीर्णमनोरथ महारथमनस्कारविनेयाचारप्रवचनानुसासन व्यसनानामपियोगसुधारसायनाभ्यास सनिकृष्यमाणाजरामरत्वपयोमहिम्ना मङ्गललोकोत्तम शरण भूतानामुपाध्याय परमेष्ठिना मष्टतयोमिष्टि करोमीति स्वाहा ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
[ ३४१
ॐ ह्रीं व्रतसमितिगुप्ति युक्तेभ्यः कषायादिरिपुजेतृम्यः पाठकेभ्यो जलं गन्ध ं अक्षत पुष्प नैवेद्य दीप धूपं फलं अर्घ्यं च निर्वपामीति स्वाहा ।
सामादैः स्वच्छतोरूपहिततुहिनौ चन्द्रनैः स्वर्गलक्ष्मीलीलारक्षतौ पॅर्मिल दलिकुसुमै रुद्रमैर्नित्यहृद्यः । नैवेद्य र्नव्य जावूनदमददमकेंदपकैः काम्यधूमस्तूपधूपैर्मनोट हसुरभिफलैः पूजयेपाठकेन्द्रान् ।
ॐ ह्रीं पंचविंशतिमूलगुणधार केभ्यः पाठकेभ्योऽध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
यस्यार्थ शान्तिधारा । पुष्पांजलिः । - सर्वज्ञोपज्ञविद्याहृदय परिचय प्रोच्छलनिर्विकल्प - प्रत्यग्ज्योतिः प्रतिष्ठान् परदुरधिगमद्य ुद्गमोद्धारनिष्ठान् । अन्योन्यस्पर्द्ध मानत्रिदिव शिवपद श्रीकटाक्षच्छटाढ्यान चिन्मूर्ति विभ्रतोऽग्रयान -
शरणमिह यजे मङ्गलं सर्वसाधुन ॥ ॐ ह्रीं वैश्रसिकपरमचिन्मय विश्वैश्वर्यपदापहारकठोरकर्मठ दुःकर्मशात्रव शक्ति शातनोत्सिक्त विशिष्टशक्ति ब्यञ्जक प्रकाम दुर्लक्ष व्यतिरेक क्षेत्रज्ञाशान्तर प्रवेश दुर्ललित बुद्धयनुबन्ध प्रवर्धमान सद्ध्यानसमिद्ध सहजानन्दामृत रसास्वादनावधीरित परम भुक्ति सम्पत्प्रियासमागमोत्कण्ठानां मङ्गल ठोको
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३४२ । दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । त्तमशरणभूतानां सर्ग साधु परमेष्ठिनामष्टतयीमिष्टि करोमीति स्वाहा। ___ ॐ ह्रीं पंचमहाव्रत समिति प्रभृतिविभषितेभ्यः पंचेन्द्रियदमनोधतशक्तिभ्यः साधु परमेष्ठिभ्यो जलं गन्धं अक्षत पुष्पं नैवेद्य दीपं धूपं फल मध्य च निर्वपामीति स्वाहा। सामौदः स्वच्छतोयेरूपहित तुहिनः श्चन्द्रनैः स्वर्गलक्ष्मीलीलाध्यरक्षतौधर्मिलदालिकुसुमै रुद्गमैनित्यहृद्यैः । नैवेद्यैर्नव्यजाम्बूनदमददमकैर्दीपकैः काम्यधूमस्तूपैधपैमनोजै हसुरभिफलैः पूज्ये साधुसिंहान् ॥ ___ ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण धारकेभ्यः साधु परमेष्ठिभ्योऽर्घ्य निर्वापामीति स्वाहा । ___ यस्यार्थ० शान्तिधारा, पुष्पांजलिः ।।
एबमर्हत्सिद्धादीनभ्यर्च्य चत्वारिमंगलानि लोकोत्तम भूतानि शरणानि चायः सम्भाव्य सिद्धोपरिधर्मस्येत्थं पूजां कुर्यात् ।
( इस प्रकार अर्हन्त आदि पंच परमेष्ठियोंकी पूजा करके नीचे लिखे चतारि मंगल, आदिको पूजा करे)
शार्दूलविक्रीडितम् । भित्वा कर्मगिरिन प्रबुद्ध सकलोयादिकान्ताः शिवं पुंसां शुद्धिविशेषतोऽच्छमनसा सेवाविधौ पश्यताम् ।
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दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह। ३१३ सौख्यं लान्ति वृषार्पणादधहतेोवा मलं गालयन्त्यध्येणोपचरामि मङ्गलमह तानहतोऽभ्यर्हितान् ।। ॐ ह्रीं अर्हन्मङ्गलायाय निर्मपामीति स्वाहा।
शालिनी । नामध्वंसातैजसादायुरन्ता
दुत्क्रम्याङ्गा दुत्तमौदारिकाच्च। ये भक्तणां मङ्गल लोकमूर्ध्नि
प्रद्योतंतेतान्भजेऽध्येणसिद्धान् ॥ ॐ ह्रीं सिद्धमङ्गलायाय निर्वापामीति स्वाहा । ये मार्गस्याचारका देशका ये,
ये चासक्तं ध्यायकाः साधयन्ति । सिद्धि, साधून्मङ्गलंभावुकानां,
तान्सर्वानप्युद्धभक्त्यार्चयामि ॥ ॐ ह्रीं साधुमंगलायाध्य निर्वापामीति स्वाहा ।
इन्द्रवज्रा। दृग्बोधवर्धिष्णुदयाप्तभूष्णोः
क्रोधादिशत्रुप्रचौकजिष्णोः । सन्मंगलस्योपहरामि केव
लिज्ञप्त धर्मस्य समर्चनााम् ॥ ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्त धर्ममंगलाय जलादिकमज़ निर्णयामीति स्वाहा।
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૪ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
शालिनी ।
ज्ञात्वा श्रुत्या नैगमेनानुचिन्त्य, बुद्ध्वा नाम स्थापना द्रव्यभावः ।
ये सेव्यन्ते सर्वदा मुक्तिकामैस्तेभ्योऽद्धयो नौमि लोकोत्तमेभ्यः ॥ ॐ ह्रीं अर्हलोकोत्तमायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा । इन्द्रवज्रा ।
नामादिभिर्येऽष्टभिरप्यदुष्ट-
रिष्टाय सन्ति प्रणिधीयमानाः ।
विन्यस्यनो आगमभावतस्तां, लोकोत्तमान् साधु यजेऽत्र सिद्धान् ॥
ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमाय जलादिकम निर्ण० स्वाहा ।
स्रग्धरा ।
ध्वस्त क्रोधादिवेगा ऋषि च यति मुनयो ये नवोत्कर्षवन्तो । नानादेशान्नृलोके शिवपथमनिशं साधयतः पुनन्ति । घ घत्रे सनीडीभवदमृतरमा संगमा साधवस्ते, भूता भव्या भवन्तो विधिवदयचिता पान्तु लोकोत्तमा नः ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमाय निर्णपामीति स्वाहा । शार्दूलविक्रीडितम् ।
श्रद्धाय व्यवहार तच्च रुचिधी चर्यात्मरत्नत्रयम्, प्रोद्भूतं परमार्थतत्रयमय स्वात्मस्वरूपं बुधाः । यं युक्त्यागमचक्षुषो विदधते, लोकोत्तमः केवलिप्रज्ञप्तोऽभ्युदयापवर्गफलदः सोऽर्येण धर्मोनघः
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दि० जैन प्रतोद्यापन संग्रह । [ ३४५ सर्व प्राणी दयामयेन मनसा शुद्धात्मसंवित्सुधास्रोतस्यात्मनि संनिपत्य महसा शशात्तपंतः परम् । ये भव्यान्निज भक्ति भावितधियो रक्षन्त्यपायात्सदातानावृत्य सपर्ययात्र शरणम् सर्वान्प्रप्रद्यर्हतः ॥
ॐ ह्रीं अर्हच्छरणाय जलादिकमयं निर्मपामोति स्वाहा । सान्द्रानन्द चिदात्मनिस्वमहसि स्फारं स्फुरन्तः स्फुरंपश्यन्तो युगपतित्त्रकाल विषयानन्तातिपातान्वयाम । पडद्रव्यीं स्वपदाधिपत्य मचिराद्यच्छन्ति ये ध्यायतांतानपेण यजामहेभगवतः सिद्धान् शरण्यानिह ॥ ॐ ह्रीं सिद्धशरणाय जलादिकमयं निर्मपामीति स्वाहा ।
स्रग्धरा । आचार पंचधा ये भव कितधियश्चारयन्तश्चरन्ति व्याख्यान्तिद्वादशाङ्गी सुच्चरितनिरता ये च शुश्रूषकाणाम् साम्याभ्यासोद्यदात्मानुभवधनमुदो येऽङ्गिनां घ्नन्ति वैरं ते सर्वेऽप्यध्यिता मे त्रिभुवनशरणं साधवः सन्तु सिद्धयै॥ ___ॐ ह्रीं साधुशरणाय जलादिकमयं निपामोति स्वाहा ।
शार्दूलविक्रीडित । सच्छुद्धोपगृहीतमूर्तिमदनानाहार्यवैराग्यकृत सम्यग्ज्ञानमसङ्गसङ्गपदधिष्ठान यदात्माद्विधा । सिद्धः संवरनिर्जराभवशिवाहादावहः केवलिप्रज्ञप्तः शरणं सतामनुमतः सोऽर्येण धर्मोऽच्यते ॥ ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तचर्माय जलादिकमा निर्व० स्वाहा ।
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३४६ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अनुष्टुप् । इत्यचिताः परब्रह्म प्रमुखाः कर्णिकार्पिताः । सन्तु सप्तदशाप्येते भव्यानां शिवसर्मणे ।
ॐ ह्रीं पञ्चपरमेष्ठिरभृतसप्तदशप्रमुखेभ्य: पूर्णाध्य निर्वपामोति स्वाहा।
शार्दूलविक्रीडितम् । अश्रान्तप्रतिबन्धकव्यपगमैकांतस्फूटच्चित्कला-- रूपेणापिजगत्यचिन्त्य चरित स्तंतन्यते येन ना । यत्सर्वस्वरसाय योगिपतयोऽप्याशासतेऽत्यक्षणं तच्छ्रे यो यदनुग्रहश्च, वृषमप्यर्चामि तं तद्गुणम् ॥ ___ॐ ह्रीं भेदाभजननियतिनिर्मितां प्रादेशिकीमप्यभेदरूपतां योग विशेषसौष्ठवटङ्कन विश्वद्रीची-- मुत्कीर्य विश्रांतस्य मङ्गललोकोत्तमशरणभूतत्स्य केवलि प्रज्ञप्तधर्मस्याष्टतयोमिष्टि करोमीति स्वाहा ।
स्रग्धरा। सामोदैः स्वच्छतोटी रूपहिततुहिन श्चन्दनैः स्वर्गलक्ष्मीलीलाध्यै रक्षतौघे मिलदलिकुसुममै रुद्गमै नित्यहृद्यः । नेवेद्य नव्य जाम्बूनदमद दमकै र्दीपकैः काम्यधमःस्तुपै धृर्मनोही गुहसुरभिफलैः पूजये जैनधर्माम् ।। ___ॐ ह्रीं केवलि प्रज्ञप्त जनधर्मेभ्यो जलादिकमध्य निर्वपामीति स्वाहा। __एवम दादीनभ्या शरच्चन्द्रमरीचिरोचि पस्ता-- नंतश्चेतसि चिन्तवन्ननादि सिद्धमंत्राभिमंत्रित कपूरहरि चंदन द्रव्याभिलूलितसुरभि शुभ्र पुष्पा--
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [३४७ .. अलिभिरेकविंशतिवागनधिवास्य पूर्णायंदानेन बहुमानयेत् ।
इस तरह पञ्चपरमेष्ठिी आदिको अध्यं देकर
ह्रीं णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूंणं । चत्तारि मङ्गलं अरहत मङ्गल सिद्ध मङ्गलं, साहू मङ्गलं केवलि पण्णत्तो धम्मो मङ्गलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि शरणं, पव्वज्जामि, अरहंत सरणं पबज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहू शरणं पबज्जामि केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि ।। ___ॐ ह्रां ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रः अ सि आ उ सा सर्व शान्ति कुरु कुरु स्वाहा ।
. इस अनादि सिद्ध मन्त्रसे २१ वार सुगन्धित केशर मिश्रित पुष्पोंसे जाप करे
शार्दूलविक्रीडितम् । तेऽमी पञ्चजिनेन्द्रसिद्धगणभृत्सिद्धांतवित्साधवोमाङ्गल्यं भुवनोत्तमाश्च शरणं तद्वज्जिनोक्तोवृषः । अस्माभिः परिपूज्य भक्तिभरतः पूर्णार्घ्य मापादिताः सङ्घस्य क्षितिपस्य देशपुरयो रप्यासतां शान्तये ॥
ॐ ह्रीं पञ्चपरमेष्ठिप्रभृत्यनादिसिद्धमन्त्रेभ्यः पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा ।
पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
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३४८ । दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । अथ जयादि देवताचनम् ।
अनुष्टुप् । जयाद्याः शब्दये युष्मा नायात सपरिच्छदाः ।
अत्रोपविशतैता वो यजे प्रत्येक मादराव ॥ (आह्वाननादिपुस्सरं प्रत्येक पूजांविधाय पद्मपत्रेषु पुष्पांक्षतान्
क्षिपेत्)
आह्वाननादिपूर्वक प्रत्येक देवताओंको पूजा कर मण्डल पर बने हुए कमल पत्रों पर पुष्प तथा अक्षतोंको अञ्जलि क्षेपण करना चाहिये। जये जयाये विनये विजेत्रि
जैत्रेऽजिते जैन्यपराजितेऽस्मिन् । जम्मे च मोहे सुमहेऽस्तदम्भे
स्तम्भेऽस्तिमास्तम्भिनि रक्षतास्थान् । (सोमग्रहाम्य स्ताम्यः पद्मषु पुष्पाक्षतान् क्षिपेत् ।
अथ प्रत्येक पजा। इहाहतो विश्वजनीनकृतेः
कृती कृतारातिजये जये त्वाम् । सद्गन्ध पुष्पाक्षत दीप धूप
__फलादिसम्पादनया धिनोमि ॥
ॐ ह्रीं जयेदेवि ! अत्रागच्छगच्छेत्याह्वानम्, स्थापन, “सन्निधिकरणम् ।
(देवी देवताओंका आह्वान सप्त धान्यसे करना चाहिये)
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ ३४९
ॐ ह्रीं जयदेव्यै - इदमर्घ्यम् - पाद्यं जलं गन्धं अक्षत पुष्पं नैवेद्यं दीपं - धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां २ स्वाहा ।
यत्यार्थं क्रियते० शांतिधारा । पुष्पांजलिः । जिनाधिराजे विजयौकबोजे
जगद्विजेतुः कुसुमायुधस्य |
विजेतरि स्फारितभृरिभक्ति
त्वामत्र यज्ञे विजये यजेऽहम् ॥
ॐ ह्रीं विजये देवि ! अत्रागच्छागच्छेत्यावाहन स्थापन सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं विजयेदेव्टी इदमर्घ्यं ० ।
यस्यार्थ० क्रियते० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ।
जगज्जयोज्जागरिणां कषाय-
द्विषां न केनापि जित जिनेन्द्रम् ।
आवर्जयन्तीमजितोर्जितोर्जा,
मूर्खाये त्वामजितेऽयामि
ॐ ह्रीं अजितेदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्यावाहन स्थाप सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं अजित देव्यै-- इदमर्घ्य ० यस्यार्थ • क्रियते ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः पराजितारे रपराजिता रण्याश्रितस्यारिपराजयाय । जगत्प्रभो रत्रमहेमहामि पराजितेत्वा मपराजितेऽय ॥
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३५० ।
दि. जैन व्रतोद्यापन सग्रह । ॐ ह्रीं अपराजिते देवि ! अत्रागच्छागच्छेत्यतह्वान स्थापनं सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं अपराजितादेव्यै- इदमलूँ।
यस्यार्थ० क्रियते । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः । व्यामोहनिद्रां भुवनान्यजम्भ-जम्भं विशन्त्युद्धरतो जिनस्य वितन्वतां यज्ञमजन्यहन्त्रीं त्वां देवि जम्भे
परिपूजयामि । ॐ ह्रीं जम्मेदेवि ! अत्रावतरावतरेत्याह्वानम् स्थापनं सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं जम्मादेव्यौ-इदमयं० । यस्यार्थ क्रियते० शान्तिधारा, पुष्पांजलिः । चिरं जगन्मोह विषेण सुप्त
स्याद्वादमंत्रण विबोघीयतम् । श्री बुद्ध माराधयतां विमोह
त्वा मोहयन्तीं महितां महामि ॥ ॐ ह्रीं मोहे देवि ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम् स्थापनं सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं मोहदेव्यौ इदमयी । यस्यार्थ० क्रियते. शान्तिधारा, पुष्पांजलिः । । जिनं महाभव्य विशुद्धभाव
प्रासाद सुस्तम्भ मुपास्तियस्त्यम् । प्रकुर्वतः स्तस्भयतां स्तभत्वं
स्तम्भे सृजन्ती भवतीं यजामि ॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ३५१ ॐ ह्रीं स्तम्भे देवि ! अत्रागच्छागच्छेत्यावाहनं स्थापनं सन्निधिकरण।
ॐ ह्रीं स्तभादेव्ठी इदमाम ० । यस्यार्थ० क्रियते । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ।
प्रवादिनां स्तम्भयतोऽत्रमान प्रवादिनां स्तम्भेन दूरादपि मनु मानम् ।
जिनस्ययज्ञेऽचनमा सपन्ना धिस्तम्भिनि स्तम्भिनि संस्तुवेत्वाम् ।
ॐ ह्रीं स्तम्भिनि देवि ! अत्रागच्छागच्छेत्यावाहनम् स्थापनं सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं स्तम्भिनि देव्यो इदमध्यम् । यस्यार्थ० क्रियते । शांतिधारा । पुष्पांजलि: ।
प्रहर्षिणी । इत्येताः पृथुयशसोजयादिदेव्यो,
देवेशामभिरुचिता जिनेन्द्रयज्ञ । सम्पूर्णाहुतिमिहलम्भिताः प्रपूज्य,
श्रेयांसि प्रददतु भव्य भक्तिकेभ्यः ॥ ॐ ह्रीं जयाद्यष्टदेवीभ्य पूर्णाज़ निर्वपामीति स्वाहा ।
अनुष्टुप् । प्राच्याद्याग्नेय कोणादि पोष्विष्टाः क्रमादिमाः । अष्टौ जयादि जम्भादि देव्योः शांतिं वितन्क्ताम् ।।
इष्ट प्रार्थना ।
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३५२ ) दि. जन व्रतोद्यापन संग्रह ।
अथ षोडशपत्रस्थापित विद्यादिदेवार्चनम् ।
(सोलह दलका कमल बनाकर उसमें विद्यादि देवियोंकी स्थापना करे)
उपजातिः । विद्याः प्रियाः षोडशकग्विशुद्धि
पुरोगमार्हन्त्यकृदर्थरागाः। यथायथं साधु निवेश्य विद्या
देवीर्यजे दुर्जयदोश्चतुष्मः ॥ विद्याः संशब्दये युष्मा नायात स परिच्छयदा । अत्रोपविशतता बो यजे प्रत्येकमादरात् ॥
आर्या । भगवति रोहिणी महति, प्रज्ञप्ते वज्रशृङ्खलेऽस्खलिते । वज्रांकशे कुशलिके जाम्बूनदिकेऽस्तदुर्मतिके ॥ पुरुषधाम्नि पुरुषदत्ते, कालि कलाध कले महाकालि । गौरि वरदे गुणद्ध, गान्धारि ज्वालिनि ज्वलज्वाले । मानवि देवि शिखण्डि-विखण्डिनि ।
वैरोरिशुक्च्यतेऽच्युतिके । मानसि मनस्वि निरते यशसि
महामानसि दमुचि तव ॥ (आह्वाननादिपुरस्कारम, प्रत्येकपूजा प्रतिज्ञानाय पत्रेषु पुष्पाक्षतान् क्षिपेत् ।)
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
[ ३५३
विशोध्य यच्छ्रेष्ठगुणैः सरागो, दृष्टि विरागश्च परा प्रचक्रे । सकुन्तशङ्ख ेब्जफलाम्बुजाद्याश्रितार्च्यते रोहिणि रुक्मरक्ता ॥
ॐ ह्रीं रोहिणीदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम् स्थापनं सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं रोहिणी देव्यै - इदमर्थ्यं जलं गन्ध अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां २ स्वाहा ।
यस्यार्थ० शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ।
हरज्ञानचारित्रतपः सुसूरि--पुरस्सरेष्वेव कृतादरोयः । तद्भक्तिकान्तां स्वगतेऽतिनीलां प्रज्ञप्तिकेऽर्चा -- मिसचक्र खड्गाम ॥
ॐ ह्रीं प्रज्ञप्तिदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्यावाहनम् स्थापनं सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं प्रज्ञप्तिदेव्यै इदमर्घ्यं ॥ २ ॥ यस्यार्थं । शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
00
व्रतानि शीलानि च जातु योऽन्तर्धृत्वां विनम्नो बहिरन्तरं वा । तद्भागिनीं वज्रविशृङ्खलास्त्रां पीतां च चाये पविशृङ्खलेऽस्मिन् ॥
ॐ ह्रीं वज्रशृङ्खले देवि ! अत्रागच्छागच्छेत्या वाहनम् स्थापनं सन्निधिकरणम् ।
२३
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३५४] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
ॐ ह्रीं वज्रशृखला देव्यै इदमध्य० ॥ ३ ॥ यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलिम् ।
ज्ञानोपयोगं विदधात्यभीक्ष्ण य स्तंभजन्तीं श्रित पुण्ययानाम् । वज्राङ्कशे त्वां शणिपाणिमुद्य-द्वीणारसां मंजु यजेऽजनाभाम् ॥ ॐ ह्रीं वज्रांकुशेदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधि० ।
ॐ ह्रीं वज्रांकुशदेव्यौ इदमय॑म् ॥ ४ ॥ यस्याएं० क्रियते० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ।
धर्मेरजोदर्म फले क्षणे च यो जन्मभीस्तस्यमखे शिखिस्था । जांबुनदामाधृत खङ्गकुतां जांबुनदे स्वीकुरु यज्ञ भागां ॥ ॐ ह्रीं जांबुनदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधि० ।
ॐ ह्रीं जांबुनदेव्यै इदमा० ॥ ५ ॥ यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलिः ।
शक्त्यर्थिनां बोधनसंयमाङ्ग यरत्यागमाधत्त-- तमानमन्तीम् । कोकाश्रितां वज्रसरोजहस्तां यजे सितां पूरुषदत्तिकेत्वाम् ॥ ॐ ह्रीं पूरुषदत्तदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिः ।
ॐ ह्रीं पूरुषदत्तदेव्यौ-इदमयम् ॥६॥ यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः । तपांसिकष्टान्यनिगढवीर्य श्चरन् जगज्जैत्रमधश्व
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
[ ३५५
कार । यस्तं नताचभज कालि ! भ-प्रभा मृगस्था
मुसलासिहस्ता
ॐ ह्रीं कालिदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम्, स्थापन सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं कालीदेort इदमर्घ्यं ॥ ७ ॥
यस्यार्थं क्रियते शांतिधारा पुष्पांजलिः ।
O
चक्रेऽधिकं साधुषु यः समाधिं तं सेवमाना वृषभाधिरूढा । श्यामा धनुः खड्गफलास्रहस्ता चलिं महाकालि ! जुषस्वशान्त्यै ।
ॐ ह्रीं महाकाली देवि ! अचागच्छागच्छेत्याह्वानं स्थापन सन्निधिकरणम् ।
O
ॐ ह्रीं महाकाली देव्यै - इदम
० ॥ ८ ॥
यस्यार्थ • क्रियते ० शांतिधारा, पुष्पांजलि: ।
०
तपस्विनां संयमबोधव प्रतिव्यधत्तात्मवदापदोयः । गोधागता हेमरुगब्जहस्ता गौरि ! प्रमोदस्व तदर्चनांशै ॥ ॐ ह्रीं गौरी देवि अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधि० । ॐ ह्रीं गौरी देव्यै - इदमर्थ्यां० ॥ ९ ॥
०
यस्यार्थं क्रियते ० शांतिधारा । पुष्पाञ्जलिः । तेने शिव श्रीसचिवाय योऽहं द्भक्तिं स्थिरांक्षायिक दर्शनाय । चक्रासिमत्कूर्मणनील मूर्ते गृहाण गान्धारि ! तदधिगन्धम् ।
ॐ ह्रीं गान्धारीदेवि ! अत्रावतरावतरेत्याह्वानम् स्थापनं सन्निक ॐ ह्रीं गान्धारीदेव्ये इदमध्ये ० ॥ १० ॥
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३५६ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
यस्यार्थः क्रियते० शान्तिधारा, पुष्पांजलिः ।
सत्सूरिझुक्ति पयिदेवतां यो, भेजे यजे ज्वालिनि ! तन्महेत्वाम् । शुभ्रां धनुः खेटकखड्गचक्रा-युग्नाष्टवाहुं महिषाधिरूढाम् ।
ॐ ह्रीं ज्वालामालिनी देवि ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम स्थापनं सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं ज्वालामालिनी देव्यो इदमयं ० ॥११।। यस्यार्थं० क्रियते० शान्तिधारा पुष्पांजलिः ।
शुद्धोपयोगैः सुफलश्रुतार्थ, यो भक्तिमभ्याज बहुश्रुतेषू । स्वं धिन्वितो मानवि ! कोकिकण्ठ नीला किटिस्था सझषत्रिशूला ॥
ॐ ह्रीं मानवीदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्या ह्वानम् स्थापनं सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं मानवी देव्यै इदमय० ॥१२॥
यस्यार्थ० क्रियते० शांतिधारा । पुष्पांजलिः । योऽस्पृष्टदृष्टेष्ट विरोधमर्ह दुपज्ञमभ्यागम भन्वरज्यत । त्वां सिंहगा मात्तसदर्पसा यज्ञेऽस्य बैरोरि !
यजेऽभ्रनीलाम् ।। ॐ ह्रीं बैरोरिदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम् स्थापनं सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं वैरारि देव्यै इदमध्य० ॥ १३ ॥ यस्यार्थ० क्रियते० शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
| ३५७
हानिं नयेद्वयाधि वशोपसेव्यम् नावश्यकं यः समयाद्यपेक्ष्यम् । धौता सिहस्तांवयगेऽच्युते त्वां हेमप्रभां तं प्रणतां प्रणौमि ॥
ॐ ह्रीं अच्युतेदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्या वाहनम् स्थापन, सम्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं अच्युत देव्यै - इदमर्घ्यं ० ॥ १४ ॥ यस्यार्थ० क्रियते शांतिधारा पुष्पांजलिः । मार्ग वृषे निश्चलयन् विनेयान्
।
प्राभावयद्यः सुतप्रः श्रुताद्यः । रक्ताहिगा तत्प्रणता प्रणाम - मुद्रान्विता मानसि ! मेऽसि मान्या ॥
ॐ ह्रीं मानसिदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्यावाहनम् स्थापने सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं मानसीदेव्यै - इदमर्घ्यं ० ॥ १५ ॥ यस्यार्थं शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
योधात् सघ
O
स्वति वत्सलत्व रक्तां महामानसि तत्प्रणामी ।
रक्तां महाहंस गतेक्ष सूत्रं वरांकुश सक्सहितां यजेत्वां ॥ ॐ ह्रीं महामानसिदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम स्थापनम्, सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं महामानसिदेव्यै - इदमध्ये ० ॥ १६ ॥ यस्यार्थ० शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
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३५८ ] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
शार्दूलविक्रीडितम् । सत्पूजा बलिदान लालितमनः स्फारस्फुरद्वत्सलीभावावेशवशीकृताः कृतधिया मिष्टाश्च पूर्णाहुतिम् ।। विद्यादेव्य इमां प्रतीच्छत जिनज्येष्ठ प्रतिष्ठाज्जसानिष्ठा मुख्यमनोरथान फलवतः कर्तुं यतध्वं मम ॥ ॐ ह्रीं विद्यादि षोडशदेवताभ्यः पूर्णाध्यं निर्व० स्वाहा ।
शालिनी। एवं विद्यादेवता श्वन्दनाद्य
रोहिणाद्याः प्रीणिता मन्त्रयक्तः । विघ्नन्त्योऽर्ह द्यागविघ्नावशेषान् ।
प्रीत्युष्कर्ष तज्जुषां पोषयन्तु ॥ इतीष्ट प्रार्थनाय पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
अथ चतुर्विंशति शासनदेवतार्चनम् ।
वसन्ततिलका। संभावयन्ति वृषभादि जिनानपास्य,
तद्वामपार्श्व निहिता वरदीप्तयो याः । चक्रेश्वरीप्रभृतिशासनदेवतास्ता,
द्विादशा दलमुखेषु यजे निवेश्य ॥ चतुर्विशति शासनदेवतासमुदायपद्मपोषु पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
(चौवीस दलका कमल बनाकर उस पर चौवीस शासनदेवताओंकी स्थापना करे ।)
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [३५९ यक्ष्यः संशब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः। अत्रोप विशतैता वो यजे प्रत्येकमादरात् ॥
ॐ ह्रीं हे चतुर्विंशति जिनशासन देवताः । अत्रागच्छागच्छेत, तिष्ठ२ सन्निहितो भवत भवत ।
आह्वाननाद्ययं पुष्पांजलि क्षिपाणि । अथ प्रत्येक पजा।
शार्दूलविक्रीडितम् । भाभाद्यकरद्वयात्तकुलिशा चक्राङ्कहस्ताष्टका सव्यासव्यशयोल्लसत्फलवरा यन्मूर्तिरास्तेऽम्बुजे । ताक्ष्योवा सहचक्रयग्म रुचकत्यागै श्रतुर्भिः करैः पंचेष्वासशतोन्नतप्रभुनतां चक्रेश्वरी तां यजे ॥
ॐ ह्रीं अप्रतिचक्रेदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम् स्थापनम् । सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं अप्रतिचक्रदेव्यग-इदमलुं० जलम् गन्ध मक्षतं पुष्पं चरु नैवेद्य दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यगमागं च यजामि० प्रतिगृह्यतां २ स्वाहा ॥१॥
स्वर्णधुतिः शङ्खस्थागशस्त्रा, लोहासनस्थाभयदानहस्ता । देवं धनुःसार्थचतुःशतोच वन्दारु रिष्टा मम रोहिणीष्टे ॥
ॐ ह्रीं अजितेदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानम् स्थापनम् सन्निधिकरणम् ।
१-आदिनाथः, २-अजितनाथः । .... .
im.......
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३६० ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
ॐ ह्रीं अजितदेव्यै इदमय० ॥ २ ॥ यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः । पक्षिखाद्ध न्दु परशुफलासीढिवरैः सिता ।
चतुश्चाप शतोच्चाहद्भक्ताप्रज्ञप्ति विज्यते ।। ॐ ह्रीं नम्र देवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिः ।
ॐ ह्रीं नम्रदेव्यो इदमलं ० ॥ ३ ॥ यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः । सनागपाशोरुफलाक्षसूत्रा. हंसाधिरुढा वरदानभक्ता। हेमप्रमार्धत्रिधनुःशतोच्च, तीर्थेशनम्रापरिशखलाया॑ । ॐ ह्रीं दुरतारिदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापन सन्निधिः ।
ॐ ह्रीं दुरितारिदेव्यौ इदमझुं० ॥ ४ ।। यस्यार्थं ० शांतिधारा, पष्पांजलिः ।
गजेन्द्रगावज्रफलोद्यचक्र वरांगहस्ता कनकोज्वलांगी। गृह्णातु दण्डत्रिशतोन्नता हतार्चनां पीरुपदत्तिकार्या ॥ ॐ ह्रीं ससारिदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधि० ।
ॐ ह्रीं संसारिदेव्यौ इदमयं० ॥५॥ यस्यार्थ. शांतिधारा पुष्पांजलिः । साद्विशतचापोच भक्ता भर्मप्रभावंगा ।
मनोवेगा सफलक फल खड्गधराय॑ते ।। ॐ ह्रीं मोहिनीदेवो अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरणं । ____ॐ ह्रीं मोहिनीदेव्यै इदमय० ॥ ६ ॥ १-सम्भवनाथः, २-अभिनन्दननाथः, ३-सुमतिनाथः, ४-पद्मप्रभः
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह |
[ ३६१
यस्यार्थं ० । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः । शिताङ्गीं वृषगां घण्टा फल शूल वराहताम् । भजे काली द्वि कोदण्ड शतोच्छाय जिना 'श्रयाम् ॥ ॐ ह्रीं मानविदेवि ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानं, स्थापनं, सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं मानवीदेव्य इदमर्घ्यं ० ॥ ७ ॥ यस्यार्थं ० शान्तिधारा पुष्पांजलिः । चन्द्रोज्वला चक्र शरा सिपाश, चर्मत्रिशूलेषु झपासि हस्ताम् श्री ज्वालिनीं सार्धधनुः शतोच्च जिनानतां कोणगतां यजामि ॥
ॐ ह्रीं ज्वालामालिनीदेवि ! गच्छागच्छे० स्थापन सन्निधि० । ॐ ह्रीं ज्वालामालिनीदेव्यै, इदमध्य० ॥ ८ ॥ यस्यार्थ० शान्तिधारा, पुष्पाञ्जलिः ।
कृष्णा कूर्मासना चाप, शतोन्नत जिनानता । महाकाल ज्यते वज्र, फल मुद्गरदानयुक् ॥ ॐ ह्रीं भ्र ुकुटिदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापन सन्निधि० । ॐ ह्रीं भ्रुकुटिदेव्यं इदमर्घ्यं ॥ ९ ॥ यस्यार्थं । शांतिधारा । पुष्पांजलिः । आर्या । झपदान रुचकदानो, चितहस्तां कृष्णकोलगां हरिताम् । नवति धनस्तु रंग जिन' प्रणता मिहमानवीं प्रयजे || ॐ ह्रीं चामुण्डेदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनम् सन्निधिः । १- सुपार्श्वनाथः, २- चन्द्रग्भः, ३- पुष्पवन्तः ४ - मस्तवाषः ।
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२६२ ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह। ॐ ह्रीं चामुण्डादेव्यौ-इदमयं ॥१०॥
यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पाजलिः । समुन्द्राब्जकलशां, वरदां कनकप्रभाम् । गौरी यजेऽशीतिधनः, प्रां'सुदेवीं मृगोपगाम् ॥ ॐ ह्रीं गोमेधकेदेवी ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापन सन्निधि० । ॐ ह्रीं गोमेधदेव्यौ इदमय० ॥११॥
यस्यार्थ । शांतिधारा । पुष्पांजलिः । सपद्ममुसलाम्भोज, दाना मकरगा हरित । गान्धारी सत्पतीवास, तुंग प्रभुनतागते ।। ॐ ह्रीं विद्युन्मालिनिदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्नि० ।
ॐ ह्रीं विद्युन्मालिनी देव्यो-इदमध्य० ॥ १२ ॥ ___ यस्यार्थः । शांतिधारा । पुष्पांजलिः । षष्टिदण्डोच्च तीर्थेश', नता गोनशवाहना । ससर्प चापसप्र्येषु, भैरोही हरितार्क्ष्यते ॥ ॐ ह्रीं विद्यादेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरणं ।।
ॐ ह्रीं विद्यादेव्यो-इदमध्य ॥ १३ ॥ ___ यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पांजलि । हेमामा हसगा चाप, फल बाणवरोद्यता । पंचाशच्चाप तुंगार्हद्भक्तानन्तमतीज्यते ॥ ॐ ह्रीं विजृम्भिनिदेवी ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधि०.। १-श्रेयोनाथा, २-वासुपूज्यः, ३-विमलनाथः, ४-अनन्तनाथः ।
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ३६३ ॐ ह्रीं विजृम्भिनीदेव्यै-इदमयं० ॥ १४ ॥ यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ।
आर्या । साम्बुजधनुदानांकुश, शरोत्वला व्याघ्रगा प्रवाल निभा। नवपञ्चक चापोच्छित, जिन'नम्रा मानसीह मान्या मे ।। ॐ ह्रीं परभृतेदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरण ।
ॐ ह्रीं परभृतादेव्यै-इदमय० ॥ १५ ॥ यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः । चक्रफलेषु वराङ्कित, करां महामानसीं सुवर्णाभाम । शिखि गां चत्वारिंश, द्धनुरुन्नत जिन'नतां प्रयजे ॥ ॐ ह्रीं कन्दपैदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं कन्दर्प देव्यै-इदमध्य० ॥ १६ ॥ यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ।। सचक्रशङ्खासिवरां रुक्मामां कृष्णकोलगाम । पंचत्रिंशद्धनुस्तुङ्ग, जिन नम्रां यजे जयाम ॥ ॐ ह्रीं गान्धारिदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं गांधारीदेव्यो-इदम ० ॥१७॥
यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः । स्वर्णाभां हंसगां सर्य, मृग वज्रवरोद्धराम् । . चाये तारावती त्रिंश, चापोचप्रभु भाक्तिकाम् ।
१-धर्म, २-शांतिनाथ, ३-कुन्थुनाथ, ४-अरनाथ ।
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३६४ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
ॐ ह्रीं कालिदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरणम् । ॐ ह्रीं कालीदेव्यै - इदमध्ये ० ॥ १८ ॥ यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ।
पंचविशतिचापोच्च देव ' सेवापराजिता ।
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शरमस्यार्च्यते खेट - फलासि वरयुग्हरित् ॥ ॐ ह्रीं अनजातदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरणं । ॐ ह्रीं अनजातदेव्यै - इदमर्घ्यं ० ॥ १९ ॥
यस्यार्थ०, शांतिधारा, पुष्पांजलिः ।
पीतां विंशतिचापोच्च' - स्वामिकां बहुरूपिणीम् । यजे कृष्णाहिगां खेट - फलखङ्गबरोत्तमाम् ॥ ॐ ह्रीं सुगन्धिनीदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरणं । ॐ ह्रीं सुगन्धिनी देव्यै इदम० ॥ २० ॥ यस्यार्थं ० शांतिधारा, पुष्पांजलि: । चामुण्डायष्टिखेटाक्ष- सूत्रखड्गोत्कटा हरित् । मकरस्थार्च्छते पंच- दशदण्डोन्नतेश भाक् ॥ ॐ ह्रीं कुसुममालिनि देवि ! अत्रागच्छागच्छेत्याह्वानं स्थापन सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं कुसुममालिनि देव्यै - इदमर्घ्यं ० || २१ | यस्यार्थं • शांतिधारा०, पुष्पांजलिः ।
१ - मल्लिनाथ, २ - मुनिसुव्रत, ३ - नमिनाथ ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । । ३६५
शार्दूलविक्रीडितम् । सव्ये कद्रयुपगप्रियं करभकं प्रीत्यै करे विभ्रतीं । दिव्याघ्रस्तवकं शुभंकरकरे श्लिष्टान्यहस्तांगुलिम ॥ सिंहेभर्तचरे स्थितां हरितभा माम्रद्र मच्छावगांवन्दार दशकामुकोच्छय जिनं' देवी मिहाम्रां यजे ॥ ॐ ह्रीं कष्माण्डिदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरणं । ____ॐ ह्रीं कूष्माण्डिदेव्यी--इदमध्य० ॥ २२ ॥
यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः । येष्टा कुक्कुटपंगात्रफणकोत्तसा द्विषामात्तषट-- पाशादिः सदसत्कृते च घृत शङ्खास्यादिदोस्त्यष्टका । तां शांतामरुणां स्फूरच्छणि तरोजन्माक्षमालावरांपद्मस्थां नवहस्तक प्रभुनतां यायज्मि पद्मावतीम ॐ ह्रीं पद्मावतोदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरणं ।
ॐ ह्रीं पद्मावतीदेव्यौ--इदमध्य० ॥२३॥ यस्यार्थं० शांतिधारा, पुष्पांजलिः । सिद्धायिकां सप्तकरोच्छ्तिाङ्ग, जिनाश्रयांपुस्तक दान हस्ताम । श्रितां सुभद्रासन मत्र यशे, हेमद्युतिं सिंहगतिं यजेऽहम् ॥ ॐ ह्रीं सिद्धायनिदेवि ! अत्रागच्छागच्छे० स्थापनं सन्निधिकरणं।
ॐ ह्रीं सिद्धायनीदेव्यो-इदमध्य० ॥२४॥ : यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः । १-नेमिनाथम् ।
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
शार्दूलविक्रीडित। इत्यावर्जितचेतसः समुचितैः सन्मान दानैः स्फुरत्स्यात्कारध्वजशासनद्विपदपक्षेपोच्छलच्छक्तयः । यक्ष्यः सङ्घनृपादिलोक विपुदुच्छेदादिहाहन्महेकुर्वाणा: सहकारितां सममिमां गृह्णीत पूर्णाहुतिम् ।। ॐ ह्रीं चतुर्विंशतिशासनदेवताभ्यः पूर्णाऱ्या निर्व० स्वाहा ।
अथ हानिशच्छकाचनम्।
शार्दूलविक्रीडितम् । तत्ताडक्सुतपःप्रभावविलसत्पुण्यानुभावोद्भववस्वाशैश्वर्यपराभिमानकरस ततोऽवगाहोत्सवान् । हुत्वा यन्त्रपदे स्वमन्त्रविहीतासत्तीन्कराब्जोल्लसद्यज्ञाङ्गोङ्गणितद्युतीन् सुरपतीन् द्वात्रिंशतं संयजे ॥
शालिनी। त्रिभुवनपतियज्ञे व्यापूतानां व्यवायान् खरमृदुकुदृशां तु द्वेष मस्पृष्टततां च । प्रतिनियतनियोगे व्यक्तदुर्वारशक्तीन् व्युपशमयितु भिन्द्रां नद्य सम्मानयामः ॥ इति पठित्वा द्वात्रिंशदिन्द्रसमुदायाय यन्त्रस्योपरि पुष्पासतांजलि क्षिपेत् ।
इन्द्राः संशब्दये युष्मा- नातात सपरिच्छदा। अत्रोपविशतैतान्यो यजे प्रत्येकमादरात् ॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [३६७ ॐ ह्रीं द्वात्रिंशदिन्द्रसमूह ! अत्रागच्छागच्छ, तिष्ठ तिष्ठ सन्निहितो भव२ वषट् ।
अथ प्ररोक पूजा ।
कोणस्थ मन्यादि दिगुद्घसप्त--कोणाधनीक दृढमुग्दरासत्रम् । विश्वेश पादाम्बुज सरूर दृप्यचूडामणिं चारु यजे सुरेन्द्रम् ॥१॥ ॐ ह्रीं असुर कुमारेन्द्रायायं निर्वपामोति स्वाहा ॥१॥
यस्यार्थं क्रियते० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ।
कूर्मश्रितं सप्तदिगाश्रितोरु--नागादिसैन्य फणिपाशपाणिम् । जिनादिंघपुष्पाङ्क फणाङ्कमौलिं, वागेन्द्र नामेन्द्र मुदयामि ॥२॥ ॐ ह्रीं नागकुमारेन्द्रायाध्य० यस्यार्थ० शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
ताादिकक्षाकुल सप्त दिवकं द्यौतासिदण्डं द्विरदाधिरूढम् । यजे सुपर्णेन्द्र मपास्तमोह जिनेन्द्र पादाप्तशिरः सुपर्णम् ॥ ३॥ ॐ ह्रीं सुपर्णकुमारेन्द्रायायं० यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलिः ।
सप्त्यासनं सप्तगजादिसप्त-सप्तीष्टघट्टोत्कट सप्त कांष्टम् । द्वीपेन्द्र महर्हाम्यह मर्ह दंवि--नखेन्दुलक्ष्मीकृत-- मौलिपीठम् ॥४॥
ॐ ह्रीं द्वीपकुमारेन्द्रायाधं । यस्यार्थ शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
जलेभपत्रो मकरादिचक्र--व्याकीर्णदिको वरदण्ड--
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३६८ ।
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । चण्डः इष्टो मदिष्टे रुदधीश्वरोऽहत्-क्रमांशु रज्यन्मकराङ्कमूर्धा ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं उदधिकुमारेन्द्रायायी० यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलि।
___सिंहाधिरूढ धृतधौतखड्गाद्यधिष्ट नृसुरैः परीतम् । अर्हत्पदाोकत मौलिवज्र सम्भावयामि स्तनितामरेन्द्रम् ॥ ६॥ ॐ ह्रीं स्तनितकुमारेन्द्रायायी० यस्यार्थं क्रियते० शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
वराहवाह करमादिदण्ड-चण्ड तडिदण्डकरालहस्तम् । छायाच्छलत्स्वस्तिकसत्कृतार्हत--पादासन विधु दिनं धिनोमि ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं विद्य त्कुमा रेन्द्राध्यं निर्वपामीति स्वाहा । यस्यार्थ० शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
दिक्कुज्जरस्थं परिघक्षतारि मजुप्रभाभासित दिक्ममूहम् । नतिक्षणाहच्चरणाङ्कशङ्का कराङ्कसिंह प्रयजे दिगिन्द्रम ॥ ८ ॥
ॐ ह्रीं दिवकुमारेन्द्रायागुं० यस्यायं० शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।
___ स्तम्भाधिरोह शिविका दिसैन्य-व्याप्ताशमुल्कायुध मग्निमौलिम । अग्निन्द्रमर्चामि जिनक्रमान्-- श्रीकुम्भलीलायित मौलिकुम्भम ॥ ९ ॥
ॐ ह्रीं अग्निकुमारेन्द्रायाय॑० यस्यार्थं० शांतिधारा पुष्पांजलि।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
| ३६९
कुरङ्गयुग्मं नगहेतिमश्व - प्रष्ठामरानीकपरीतमूर्तिम् । चायेऽनिलेन्द्र नतमस्तकाब्जच्छाये जिनाङ्घ्रिस्थल
मङ्कयन्तम् || १० ॥
ॐ ह्रीं वातकुमारेन्द्रायार्घ्यं यस्यार्थं शांतिधारा पुष्पांजलिः । शार्दुलविक्रीडितम् ।
3
सैन्यैरस्वरथेभपत्तिकभवाग्नद्यादिभः कोणगेः
ताक्ष्यैभावर गण्डकोष्ट्र करटि सम्प्राप्ययानार्वगैः । सप्ताप्राकृतसप्तक क्रमवतां चूडाश्म दर्त्री खगेट् दैत्यान्जस्वर वर्धमानकमृगेट् कुम्भाश्च मौलिध्वजाः |१| मालिनीच्छन्दः ।
असुर फणिसुपर्ण द्वीपवार्ध्यब्दविद्य - हिंगनलपवनानां भावनानामधीशाः । दशविधपरिवर्गाः पङ्करत्नाढ्यधम्माभरणभवनभाजामस्तु पूर्णाहुतिर्वः ॥ ॐ ह्रीं दशविधभवनेन्द्रेभ्यः पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा ।
अथाष्टविध व्यन्तरेन्द्राचनम् ।
इन्द्राः संशब्दये युष्मा नायात सपरिच्छदाः । अत्रोप विशतैतान्वो यजे प्रत्येक मादरात् ॥
ॐ ह्रीं अष्टविधव्यतरेन्द्रा ! अत्रावतर२, तिष्ठर, सन्निहिताश्च भवत २ वषट् इति पुष्पाजवि क्षिपेत् ।
२४
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३७०] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
___ उपजाति । अथेह सर्वज्ञपदारविन्द, द्विरेफ मभ्यद्यदरेफवेषम् । नागायधं किन्नरशक्रमिष्टि, मष्टपदाधिष्ठित मर्पयामि । ॐ ह्रीं किन्नरेन्द्रायाध्य० ।
यस्यार्थं० शांतिधारा पुष्पांजलिः ।।१।। नेतु स्वसंज्ञार्थमिवान्यथात्वं, शुश्रूषमाणं पुरुषोत्तमांनी। आलापये किंपुरुषेन्द्रमुद्य, ज्जयश्रियं सायकमुहन्तम् । ॐ ह्रीं किम्पुरुषेन्द्रायाा ।
यस्यार्थ० । शांतिधारा । पुष्पांजलि: १२॥ मुमक्षशार्दूलमदूरमुक्ति, श्रीप्रेयसी प्रश्नयतः अयन्तम् । शादलमारूढ मयोऽग्रपिष्ट, दुष्ट महामीह महोरगेन्द्रम् ॥ ॐ हीं महोगेन्द्रयायं निर्वपामोति स्वाहा ।
यस्यार्थ० क्रियते० शान्तिधारा, पुष्पाञ्जलिः ।३।। गन्धर्ववृन्दारकगीयमान, शुभ्रोरुकीर्तिश्रितमहं दीशम् । श्रीणामिगन्धर्वहरिं मराल, लीलागतिल्किष्टमगलपत्रम् । ॐ ह्रीं गंधर्वेन्द्रायाज़ । यस्यार्थ. शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥४॥ आरादवज्ञाननिधिव्रजाह, देवक्रमारब्धशशङ्कसेवम् । यजामि यक्षेन्द्र मधिष्ठिताहि,
प्रष्ठं फणिश्लिष्टनिधिद्धदर्पम् ॥ ॐ ह्रीं यक्षेन्द्रायाऱ्या । यस्यार्थ. शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥॥
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ३७१ ,
इन्द्रवज्रा। आत्मैकनिष्ठा क्षपिताक्षरक्षः, पक्षं परं पूरुषमाश्रिताय ! कुन्तोग्रहस्ताय हरिश्रिताय, रक्षोऽधिराजाय बलिंददामि । ॐ ह्रीं राक्षसेन्द्रीयाध्य० । यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥६॥
उपजाति । भूतेशिने भूतदयामयाय, भूतार्थनिष्ठाय महुर्नमन्तम् । भतेन्द्रमाक्रान्ततुरङ्गराज, बलिप्रदानेन सुखाकरोमि ।। ॐ ह्रीं भूतेन्द्रायायं० । यस्यार्थ. शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥७॥ ध्येयं सतां मोह पिशाच शान्त्य, शान्त्यै कनेतार मुपासितारम् । हेमाण्डकोड्डामरदण्डचण्डं, पिशाचशक्र बलिना धिनोमि ॥ ॐ ह्रीं पिशाचेन्द्रायाó० यस्यार्थ. शांतिधारा०, पुष्पांजलिः ।।८।।
आर्याच्छन्दः । किन्नर किंपुरुषगरुड, गन्धर्व निधिपनिशागभूत'पिशाचैः । प्रतिपन्नशासनानां, जिनशासन महिम, भावनव्यसनानाम् ॥
स्रग्धराच्छन्दः । द्वाभ्यां द्वाभ्यां प्रियाभ्यामपहृतमनसां द्विद्विदेवीसहस्र प्रेमाार्दाक्षि भाजां पुरुनिफरतताष्टाज्जनादि:
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३७२ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
क्षितीनाम् । नित्योत्पादादि भौमव्रजविनयसृजां लोकरक्षैकदोष्णां पूणपित्योत्सवानां युवपतिभिरसा वस्तु पूर्णाहुति वः !
ॐ ह्रीं अष्टविधव्यन्तरेन्द्रेभ्यः पूर्णाध्यं निर्व० स्वाहा ।
अथ ज्योतिष्क देवाचनम् ।
इन्द्राः संशब्दये युष्मा, नायात सपरिच्छदाः । अत्रोपविशतैतान्वो यजे प्रत्येकमादरात् ||
ॐ ह्रीं ज्योतिष्कदेवेन्द्राः अत्रावतर२, तिष्ठत२ सन्निहिताश्च भवत२ ।
शार्दूलविक्रीडितम् । सार्हच्च त्यगृहाङ्करम्यन गरोत्तानर्द्धिगोलाकृति
प्रन्यासा ङ्कमणी मण्डलकरवातामृतैः प्लावयन् । भूलोकं, हरिवाहनः परिवृतो भोडुग्रहोपग्रह - ब्रध्नैः कुन्तकरश्चरस्थिरवि धूपेतोऽथ सोमोऽर्च्यते ॥ ॐ ह्रीं सोमेन्द्रायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा ! यस्यार्थ० शांतिधारा | पुष्पांजलिः ॥ १॥ हित्वाधो दश योजनानि गगने तारा: सदैकाध्वगामार्गेनित्यनवेश्वरनिह करोत्यह्नां निशां यः स्थितिम् । तप्तस्वर्णभलोहिताख्य पुरभृद्विम्बः ससूर्यवरै
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
।३७३
न 'लोकैरपरैः स्थिरैश्च रविभिः सोऽत्राय॑तेऽन् जिनम् । ॐ ह्रीं सूर्येन्द्रायाध्यं निर्व० स्वाहा ।
यस्यार्थ० शांतिधारा । पुष्पांजलिः ॥२॥ विंशत्येकयुतानि योजनशतान्ये कादशान्दीश्वरं मुक्त्वाश्मामपितच्छतानि विदशान्यष्टौविमानानिखे । उच्चेऽतुच्छतया घनोदधिदशोपेतं ततान्याश्चितान्ज्योतिष्काननुगृहणतोऽब्जरवयः पूर्णाहुतिश्चार्यते । ॐ ह्रीं ज्योतिष्कदेवेभ्य पूर्णाऱ्या निर्ग० स्वाहा ।
अथ द्वादशकपेन्द्राचनम् । इन्द्राः संशब्दये युष्मा नायात सपरिच्छदाः ।
अत्रोपविशतैतान्यो यजे प्रत्येकमादरात् ॥ ॐ ह्रीं द्वादशकल्पेन्द्राः ! अबावतर२, तिष्ठत२ सन्निहि० भवत।'
मन्दाक्रांताच्छन्दः । एकत्रिंशद्य पटलभितेऽष्टादशे पाकनाम्नि
श्रेणिबद्धे सततवसति पंचधणे विमानैः । तिस्रः श्रेणिर्वसुगुण चतुर्लक्षसंख्यरवन्त
सौधर्म प्राक्सुरपति मिहा म्यथैरविणस्थम् ।। ॐ ह्री सौधर्मन्द्रायं निर्व० स्वाहा ।
यस्यार्थ० क्रियते शांतिधारा पुष्पांजलिः ॥१॥ १-नृलोके भवः नालाकः -सावंद्विद्वोपस्यितैरित्यर्थः, २-मेपर्वतम्। .
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३७४ ]
दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
शालिनीछन्द । तद्वच्छणीबद्धमाप्योदगेक-श्रेणीमष्टाविंशति पंचवर्णाः । लक्षं पाति स्वःपुरो यो जिनांधि स्रक्चूलं त यष्टु
मीशानमीशे ॥ ॐ ह्रीं ऐशानेन्द्रायायं । यस्यार्थं० शान्तिधारा पुष्पांजलिः ॥२॥
वसन्ततिलकाच्छन्दः। सप्त स्वपाक पटलेषू समाह्यमन्त्ये
श्रेणीनिबद्धमधितिष्ठति षोडशं यः । त्रिश्रेणिगद्विदशकृष्ण विमानलक्ष:
सोऽर्चा नमन् जिनमुपतु सनत्कुमारः ।, ॐ ह्रीं सनत्कुमारेन्द्रायाध्यं । यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलिः ॥३॥
उपजातिच्छन्दः । एकाष्टकृष्णोनविमानलक्ष
श्रेणीशमहत्प्रभु माभजन्तम् । महामि माहेन्द्र मुदग्वसन्त
दिव्यास्पदे शोडश एव तद्वत् ॥ ॐ ह्रीं महेन्द्रायाय । यस्यार्थ० शान्तिधारा, पुष्पांजलिः ॥ ४ ।।
इन्द्रावज्रा। पाति स्थितोऽपाक्पटले चतुर्थे
चतुर्दशं ब्रह्मपदं चतस्रः ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[३७५
यः कृष्ण नीलोन विमान लक्षाः
ब्रह्मन्द्रम मितमाप्तभक्तम् ॥ ॐ ह्रीं ब्रह्मोन्द्रायाऱ्या । यस्यार्थं । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ॥५॥
शालिनी । द्वैतीयेके द्वादशं लान्तवाख्य
श्रेणिवद्ध यः श्रितः प्राग्द्य चक्रे । लक्षार्ध प्राग्भानि भुङ्क विमाना
___ न्यह भक्तं तं भजे लान्तवेन्द्रम् ।। ॐ ह्रीं लान्तवेन्द्रायायं । ____ यस्यार्थ० शान्तिधारा पुष्पांजलिः ॥६॥
आर्या । शुक्रेन्द्र मैकपटलिक-चत्वारिंशत्सहस्रपीतसितद्याम् ।। दशम महाशुक्रोदक-श्रणीबद्धास्पदं यजे जिनभक्तम् ।। .. ॐ ह्रीं शुक्रेन्द्रायाय॑ । यस्यार्थ० । शांतिधारा । पुष्पांजलिः।७॥
उपजाति । . पीताजुनैकेन्द्रकषट्सहस्त्र--विमानभुक्ति जिनपूजनोक्तम् । यजे शतारेन्द्रमिहाष्टमेन्द्रम्, स्थितं सहस्त्रार उदग्विमाने । ॐ ह्रीं शतारेन्द्रायाज़ निर्न० स्वाहा ।
यस्यार्थ । शान्तिधारा । पुष्पांजलि ॥८॥
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३७६ ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
शालिनी । सप्तश्व तौकः शतं षट पटल्यां,
षष्ठयां व्येक श्रेणिया ये पटल्याम् । षष्टे तिष्ठन्त्याम्पदे दक्षिणोदक्-- श्रेण्योश्चाये तां श्चतुः कल्पशक्रान् ।।
इन्द्रवज्रा । तत्रानतेन्द्र जिनवाग्रहस्य, संस्कारविद्रावितमीहतन्द्रम् । अप्यद्भुतैभनिसुर र लुप्त, श्रामण्यशर्मस्मृतिमर्चयामि ।। ॐ ह्रीं आनतेन्द्रायायं । यस्यार्थ० शांतिधारा । पुष्पांजलिः ।।९।।
उपजातिः । स्वर्भोगवर्गप्रसिताक्षवर्गोऽप्युदीच्यदेहाक्षसुखेः प्रसक्तः अर्हत्प्रभान्व्यक्तविचित्रभावो, भजन्त्रिमा प्रापतजिष्णु
रिज्याम् ॥ ॐ ह्रीं प्राणतेन्द्रायाय !
यस्यार्थं० शांतिधारा, पुष्पांजलि ॥१०॥ स्थितोऽपि में ले चापि प्रदेश,स्तनूमुदीची मनुसंदधानः । भजत्यनन्तहितवर्जित य, स्तं पाणयाम्यहं णयामोन्द्रम् ।
ॐ ह्रीं आरणेन्द्रायाा० । यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलिम् ॥११॥ कदाचिदप्यच्युतमच्युतेश, भक्तेच्युतैदुश्चरितात्परीतम् । एकोनषष्टयप्रशत विमाना, न्यधीशितारं प्रयजेऽच्युतद्र
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ३७७ ॐ ह्रीं अच्युतेन्द्रायााँ । यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पाजलिः ।।१२।।
आर्यागीतिः । सौधर्मैशान सनत्कुमारमाहेन्द्र वासवब्रह्मन्द्राः । लान्तव शुक्रशतारा नत शक्राः प्राणतारणाच्युतशक्राः॥
शार्दूलविक्रीडितम् । बालाग्रान्तरमेरुचलिक पयोवायूभयोद्ध वंस्थदिक्श्रेणिवद्धविदिक्प्रकीर्णक परीवारेन्द्रक श्री जुषः । दिव्यज्ञानपरिच्छदाम्बरवपुः स्वगभूतिभूषाङ्गनाः कल्पेन्द्रा ! प्रददामि वोऽचिंतजिनाः! यज्ञेऽत्रपूर्णाहुतिम् ॥
ॐ ह्रीं सौधर्मेन्द्रादि कल्पेन्द्रभ्यः पूर्णाध्यं निन० स्वाहा।
ये चत्वारिंश दिन्द्र भवनदिविषदां व्यन्तराणां द्वियक्त-त्रिंशत्संख्य द्य धाम्नां त्रिगुणवसुमितैः सिंहसम्राट्शशनिः। अप्यर्च्यन्ते चतुर्भिः समवसृतिश्रित स्तन्मखारम्भमुख्या- दद्यां पूर्णाहुतिं वो भवनवनसुर ज्योतिरूध्यामरेन्द्राः ।। ॐ ह्रीं द्वात्रिशदिन्द्र भ्यः पूर्गाज़ निर्व० स्वाहा ।
वसन्ततिलका । इत्थं यथोचित विधि प्रतिपत्ति पूर्व
यज्ञांशदानभशदीपित पक्षपाताः । सर्वज्ञयज्ञपरिपूर्ति दरी हित मे--
मुख्यानुषङ्गिकफले: प्रथयन्तु शक्राः ॥ इतीष्ट प्रार्थनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
स्रग्धरा।
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३७८] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । अथ दशदिक्पाल पजा।
स्रग्धरा । इन्द्राग्निश्राद्धदेवासुरपतिकरुणा वायुरैदेश नागेटचन्द्र शा दिक्षवेद्या स्त्रिजगदधिपतेः प्राप्तरक्षाधिकाराः तद्यज्ञेऽस्मिन्नवात्मप्रयति विहरता मेत्यपल्यादियुक्ताविघ्नानघ्नन्तोयथास्ववितनुत समयोद्योतमौचित्य कृत्या इति पठित्वा दशदिक्पालानामाह्वानाय पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
अथ पृथक्पूजा। दिशीशाः शब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः । अत्रोपविशतान्यो यजे प्रत्येक मादरात् ।। ॐ ह्रीं इन्द्रादिदशदिक्पाल: ! अत्रावतरत २ तिष्ठतरसन्निहिताश्च भवत२ वषट् । इति त्रीन्वारान् पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
स्रग्धरा । रूप्याद्रिस्पर्घिघण्टायुग पटुकटु टंकार भग्नारि शुम्भ--द्भूषासख्याति चित्रोज्वल कुथ विलसलक्ष्म वष्मद्विपस्थम् । दृप्यत्सामानकादि त्रिदशपरिवृत रुच्यशच्यादि देवी-लोलाक्ष बज्रभषोद्भट सुभगरुचं प्रागिहेन्द्र यजेऽहम् ॥ ॐ आं क्रौं ह्रीं इन्द्रायाऱ्या निर्व० स्वाहा । यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलिः ॥१॥
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[ ३७९
रुक्मारु घुघुर स्रुग्गल चटुल पृथुप्रोथभङ्गाभितुङ्ग-च्छागस्थं रौद्र पिङ्गक्षणयुग ममलब्रह्मसूत्रं शिखास्त्रम् । कुण्ड वामप्रकोष्ठे दधत मितरपाण्यात्तपुष्पाक्षसूत्रं स्वान्वीत धिनोमि श्रुतिमुखरसभं प्राच्यपाश्र्चयन्त-रेऽग्निम् ॥
ॐ आं क्रौं ह्रीं अग्नयेऽध्यं ।
यस्यार्थं • शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥२॥ कल्पान्ताब्दौ जेतृ त्रिगुण फणिगुणोद्ग्राहित ग्रैवघण्टाटंकारात्युग्र शृङ्गक्रमहतक 'घर व्रातरक्ताक्ष संस्थम् । चण्डाविः काण्डण्डो डुमरकर मतिक्रूरदारादिलोककाष्ण्यद्रकं नृशंशप्रथम मथ यमं दिश्यवाच्यां यजामि ॐ आं क्रौं ह्रीं यमायाध्यं० । यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥ ३॥ आरूढं धूमधूम्रामत विकटसटास्ताग्रहग्भ्रूक्षसूक्ष्मालक्षाक्षारावशिष्टास्फुटरुदितकलापोद्र माभोगमृक्षम् । क्रूरक्रव्यात्परीत तिमिरचयरूच मुन्दरक्षुण्णरौद्रक्षुद्रौघ त्रातयाभ्या' परहरितमह नेऋतं तर्पयामि ॥ ॐ क्रीं ह्रीं ऋतायाघ्यं ० । यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥४॥ नित्याम्भःकेलिपाडूत्कटकपिल विसच्छेद सौन्दर्य दन्त-प्रोत्फुल्लत्पद्मखेलत्करकरि मकरव्योमयानाधिरूढम् । १ - पर्वतसमूह । २ - दक्षिणदिशायाम् । ३ रक्षितनैऋत्य दिशं ।
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३८०
दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
प्रेङ्खन्मुक्ताप्रवालाभरणभर मुपस्थातदाराहताक्षंस्फजेदीमाहिपाशं वरुणमपरदिनक्षिणं प्रोणयामि ।।
ॐ आं क्रौं ह्रीं वरुणायालुं० । यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलिः । ५।। वल्गच्छृङ्गाभिन्नाम्बुद पटलगलत्त यपीतश्रमाम्भःप्लूत्यस्तम्बान्तरः खुरकषिन कुलगाव सारङ्गयुग्मम् । व्यालोलगात्रयन्त्र' त्रिजगदसुधृतिव्यग्रमाद्र मास्त्रसर्वार्थानसर्गप्रभु मनिलमुदप्राम्गत प्रीणयामि ।।
ॐ आं क्रौं ह्रीं अनिलायाय॑ । यस्यार्थ. शांतिधारा, पुष्पांजलि: ६।। हंसीधेलोह्यमान पचनरिवृतत्केतुपंक्ति विमानस्वाहारूढः पुष कारख्य क्रमसखरशना दान मुक्ताकलापः। अग्राम्योदामवेषः सुललितधनदेव्यादिवत्राजभृङ्गः शक्त्या भिन्नारिमा भजन बलिमुग्भुक्तिपीरः कुबेरः ॥
ॐ आं क्रौं ह्रीं कुबेरायायी । यस्यार्थी० शांतिधाग पुष्पाञ्जलिः ।७। सास्नावाचाल किङ्किण्यनणुरणझणत्कार मञ्जीरशिञ्जारम्योद्यच्छङ्गला बहर दुरुशरच्चन्द्रशुभ्रषभस्थम् । भास्वद्भुषाभुजङ्ग भुजगसितजटाकेतुकाधन्दुचूलं 'दंघ्र शल कपालं सगनशिवमिहा_मि पूर्वोत्तरेशम् ॥
१-धारकम् ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
[३८१ ॐ आं क्रौं ह्रीं ईशानायाऱ्यां० ।
यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलिः ॥८॥ वज्रोजस्तजिपृष्ठस्वसनसमतरः कूर्मराजाधिरूढ
क्षुद्रक्षीवेभकुम्भाक्रमणचणशृणिस्कारणव्यग्रपाणि । .. संश्लिष्य हक्सहस्र दितय घणिफणारत्नफक्लुप्रबालवनौधापीठमहच्छ्रितमहिषमधोऽर्चामि पद्मासमेतम, ॐ आं क्रौं ह्रीं धरणेन्द्रायासैं० ।
यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥९॥ वैरिस्तम्बरमास्रो सदरुणसटाटोप शुभ्राङ्गभीकृतवालेन्दुरुपद्धिदंष्ट्रोत्क्रमखरनखरारक्तदृक्सिहसंस्थम् । कुन्तास्त्र रोहिणीष्ट कुवलयस्मनःस्त्रक्श्रितांसं भयुक्तं-- ज्योत्स्नायीयषवर्ष जिनयजनपरं सोममुवं महामि ॥
ॐ आं क्री ह्रीं सोमायाध्यं० । यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ।।
शार्दूलविक्रीडितम् । इत्यहन्मनसा ममायिकतयाह्वानादियोग्यक्रमदिक्पालाः कृततुष्टया परिजनोत्कृष्टश्रियो भरिभाः। दृष्टु कामदमहदध्वरमरं दिक्चक्रमाक्रामतोभव्यान् संदधतः शुभैः सहभजन्वेतर्हिपूर्णाहुतिम् ॥ ॐ ह्रीं दिवपालेभ्यः पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा ।
इति दिक्पालार्चनम् ।
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.. ३८२] दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह।
अथ चतुर्विंशतियक्षाचेनम् । नाभेयाद्यपसव्य पार्श्वविहितन्यासा स्तदाराधका. अव्युत्पन्नदृशः सदै हकमलप्राप्तीच्छयार्चान्ति यान् । आमन्त्र्य क्रमशो निवेश्य विधिवत्पत्रान्तराले तान् ।। कृत्वागदधुना धिनोमि बलिभिर्य क्षांश्चतुर्विशतिम् ।।
ॐ ह्रीं चतुर्विशातयक्षा: ! अत्रावतरत२. तिष्ठत२ सन्निहि ताश्च भवत भवेतेत्याह्वाननार्थं पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
अथ प्रत्येक पजा। यक्षाः संशब्दये युष्मा नायातसपरिच्छदाः । अत्रोपविशतैतान्यो यजे प्रत्येकमादरात् ॥
इत्याद्वाननादि पुरस्कर, प्रत्येकपूजाप्रतिज्ञानाय पत्रा तरा• लेषु पुष्पाजलिं क्षिपेत् ।
वसन्ततिलका । सव्येतरोलकर दीप्त परस्वधाक्ष
सूत्र तथाधरकराङ्कफलेष्टदानं । प्राग्गोमुखं वृषगं वृषाङ्क'
भक्तं यजे कनकभं वृषचक्रशीर्षम् ।। ॐ ह्रीं गोमुखयक्षायायः । यस्यार्थ० शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ॥१॥ चक्र त्रिशल कमलांकुश वामहस्तो
निस्त्रिंशदण्डपरशुध्वैबराप्तयपाणिः । १-आदिनाथभक्तम् ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । । ३३. चामीकरद्युति रिभाङ्क'नतो महादि-- ___यक्षोऽय॑ते गजगतश्चतुराननोऽसौ ॥ ॐ ह्रीं महायक्षायाघ्यं । यस्यार्थः । शांतिधारा । पुष्पांजलिः ॥२॥ चक्राशिशृण्युपगसव्यशयोऽन्य हस्तै
दण्डत्रिशूलमुपयन् सितकर्किकां च । बाजिध्वजप्रभुनतः शिखिगोऽज्जनाभ--
___ स्त्र्यक्षः प्रतीच्छतु बलि त्रिमुखाख्य यक्षः ॥ ॐ ह्रीं त्रिमुखयक्षायायं० । यस्या० । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ॥३॥
उपजाति । प्रेवद्ध वनत्खेटक वाम पाणि
सकङ्क पत्रास्यपसव्यहस्तम् । श्याम करिस्थ कपिकेतु भक्त
___ यक्षेश्वर यक्षमिहार्चयामि ।। ॐ ह्रीं यक्षेश्वर यक्षायाऱ्या । . यस्यार्थ० क्रियते० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥४॥ सोपवीत द्विसपनगोर्ध्व- .
करं स्फुदद्दान फलान्यहस्तम् । कोकाङ्क नम्र गरूडोरूिढम्
श्री तुम्बरु श्यामरूचिं यजामि ॥ १-अजितनतः, २-सम्भवनाथनजः, ३-अभिनन्दननाथभक्तम १४-सुमतिनाथनभ्रम ।
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___३८४] दि० जेन ब्रतोद्यापन मंग्रह।
ह्रीं तुम्बरुयक्षायध्या यस्यार्थ० शांतिधारा, पप्पांजलिः ॥५॥ मृगारह पन्तक रापसव्य वरं सखेटामयसव्व हस्तम् । श्यामाङ्गमब्ज'ध्वजदेव सेवं, पुष्पाख्य यक्ष परितर्पयामि । ॐ ह्रीं पुष्पाख्ययक्षायाय० यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥६॥
___ इन्द्रवज्रा। सिंहाधिरोहस्थ सदण्डशल
सव्यान्यपाणेः कुटिल ननस्य । कृष्णत्विषः स्वस्तिककेतु भक्ते--
मशिङ्गयक्षस्य करोमि पूजाम् ।। ॐ ह्रीं मातङ्ग यक्षायाध्यं० । यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ।७।
उपजातिः । यजेरबधित्य द्यफलाक्षमाला वरांबवामान्यकरं त्रिनेत्रम् । कपोतपत्र प्रभयाख्यया च, श्यामंकृतेन्दुध्वजदेवसेवम् । ॐ हीं श्याम यक्षायागे ।
यस्यार्थ०, शांतिधारा, एप्पांजलिः । ८॥ सहाक्षमाला रदानशक्ति, फलाएर व्यापर पाणिय उमः । स्वारूढकूर्मो कांकरतो गृह्रातु जनिजितः सिताभिः
१- पद्मप्रभदेवसेवम् , २-सुपार्श्वनाथभक्ते, ३-कृतचन्द्रप्रभदेवसेवम, ४-पुष्पदन्तभक्तः ।
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दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ३८५ ॐ ह्रीं अजितयक्षायाध्य० । यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥ ९॥
वसन्ततिलका । श्री' वृक्षकेतननतो धनुदण्डखेट
वज्राट्यभव्यशय इन्दुसिताम्बुजस्थः । ब्रह्मासुरश्च धृतखड्गवरप्रदान
___ व्यग्र न्यपाणिरुपयातु चतुमुखार्चामू ।। ॐ ह्रीं ब्रह्म यक्षायानँ । यस्यार्थी० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥१०॥
उपजातिः । त्रिशूलदण्डान्वितवामहस्तः,
करेऽक्षसूत्रं त्वपरे फलं च । विभ्रत्सितो गण्डककेतुभक्तो, . लात्वीश्वरो वृषगस्त्रिनेत्रः ॥ ॐ ह्रीं ईश्वर यक्षायार्थ्य० ।
यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः॥११॥ शुभ्रो धनुबभ्रुकलाढ्यसव्य, हस्तोऽन्यहस्तेषुगदेष्टदानः । लुलायलक्ष्मप्रणतस्त्रिवक्त्रः प्रमोदतां इंसचरः कुमारः ॥ ॐ ह्रीं कुमार यक्षायाध्य० ।
यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥१२॥ १-शीतलनाथवतः, २-श्रेयोनाथ भक्तः, ३-वासुपूज्यप्रणतः । २५
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३८६ । दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
वसन्ततिलका । यक्षो हरित्सपरशगरिमाष्टपाणिः __कौक्षेयकाक्षमणि खेटकदण्डमुद्राः । विभ्रच्चतुभिरपरैः शिखिगः किराङ्क'
_ नम्रः प्रहष्यतु यथार्थ चतुमुखाख्यः ।। ॐ ह्रीं चतुर्मुख यक्षायं । यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलि ॥१३ । पातालकः सशृनि शूलक जाप सव्य
हस्तः कशाहल फलाङ्कितसभव्यपाणिः । सेधा ध्वजैकशरणा मकराधिरुढो--
रक्तोऽर्व्यतां त्रिफणनागशिरास्त्रिवक्त्रः । ॐ ह्रीं पातालयक्षायाध्यं । यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥१४॥
उपजातिः। सचक्रवज्रांकुश वाम पाणिः--
समुद्राक्षालिवरान्यहस्तः । प्रवालवर्णस्त्रिमुखो झपस्थो--
वज्राङ्कभक्तोऽञ्चतु किन्नरोऽर्याम् ।। ॐ ह्रीं किन्नरयक्षायाज़ ।
यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥१५॥ १-विमलनाथनम्रः, २-अनन्तनाथैकशरणः, ३-धर्मनाथभक्तः ।
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
उपजातिः ।
[ ३८७
वकाननोऽद्यस्तनहस्तपद्म, फलोऽन्यहस्नार्पितवज्र चक्रः । मृग' ध्वजार्ह स्प्रणतः सपर्या श्यामः किटिस्थोगरुडोऽभ्य पैतु ।
ॐ ह्रीं गरुडयक्षायार्घ्यं ।
यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलिः ||१६|| सनागपाशोर्ध्वकरद्वयोऽध, करद्वयात्तेषुधनुः सुनीलः । गन्धर्वयक्षः स्तभकेतुभक्तः पूजामुपैतुश्रितपतक्षियानः ॥ ॐ ह्रीं गन्धर्वयक्षायाध्यं ० ।
यस्यार्थं ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥१७॥ शार्दूलविक्रीडित ं ।
आरभ्योपरिमात् करेप कलप न्वामेषु चापं पविंपाशंमुद्गदरमकुशं च वरदः षष्ठेन युज्जन परैः । बाणाम्भोज फलस्रगक्षपटलीलीलाविलासां त्रिदृकपड्वक्त्रश्चझ' षाङ्क भक्तिरसितः खेन्द्रोऽर्च्यते शंखगः ॥ ॐ ह्रीं खेन्द्रयक्षायाध्यं ० ।
यस्यार्थं शांतिधारा, पष्पांजलिः ॥ १८ ॥ पुष्यिताग्रा ।
सफलकधनुदण्डपद्मखड्ग प्रहरसुपाशवरप्रदाष्टपाणिम् । गजगमन चतुर्मुखेन्द्रचाप, द्युति कलशाङ्कनतं यजे कुबेरं । ॐ ह्रीं कुबेरयक्षायार्घ्यं ० ।
यस्यार्थ • शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥ १९ ॥
,
१ - शांतिनाथप्रणतः २ - कुन्थुनाथभक्तः, ३-अरनाथभक्तः, ४- मल्लिनाथनतं,
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दि० जैन व्रतोद्यापन सग्रह ।
इन्द्रवज्रा ।
जटाकिरीटोष्टमुखखिनेत्रो, वामान्यखेटा सिफलेष्टदानः | कुर्माङ्कनम्रो वरुणोवृषस्थ, व े तो महाकाय उपैतु तृप्ति ॥ ॐ ह्रीं वरुणयक्षायायं ० ।
यस्यार्थ० । शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ||२०|| उपजातिः ।
खेटा सिकोदण्डशरांकुशाब्ज चक्र ेष्टदानोल्ल सिताष्टहस्तं । चतुमुख नन्दिग मुलांक भक्तंजपाभं भृकुटिं यजामि | ॐ ह्रीं भृकुटियक्षायार्ध्यं ।
यस्यार्थं ० । शान्तिधारा | पुष्पांजलिः ||२१|| इन्द्रवज्रा ।
श्याम स्त्रिवक्त्रोद्र घणं कुठारं, दण्ड ं फलं वज्रवरौ च विभ्रत् । गोमेद यक्षः श्रित शंखलक्ष्मा-पूजां नृवा
3
३८८ ]
होत पुष्पयानः ||
ॐ ह्रीं गोमेद यक्षायार्घ्यं ० ।
यस्यार्थ० शांतिधारा पुष्पांजलिः ||२२|| वसन्ततिलका | ऊर्ध्वद्विहस्तघृत वासुकि रुद्भटाधः
सव्यान्य पाणि फणिपासवरः प्रणन्ता |
श्रीनागराजककुदं, धरणोऽभ्रनीलः
कर्मश्रितोभजतु वासुकिमौलि रिज्याम् ॥
१ - मुनिसुव्रतनम्र । २ - नमिनाथ भक्तम् ३ - बितनेमिनाथः, ४- श्री पार्श्वनाथ प्रणन्ता ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [३८९ ॐ ह्रीं धरणेन्द्रयक्षायाज़० । यस्यार्थ. शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥२३॥
उपजातिः । मुद्गपभो मूर्धनि धर्मचक्र विभ्रत्फलं वामकरेऽध यच्छन् । वरं करिस्थो ह'रिकेतुभक्तो मातङ्गयक्षोऽङ्गतुतष्टिमिष्टया। ॐ ह्रीं मातङ्गयक्षायाया॑ । यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥२४॥
स्रग्धरा । इत्थं योग्योपचारव्यतिकर परमोज्जागरानुग्रहानव्यापाराः शश्वदहत्प्रभुसमयमहस्तायिनो यक्षमुख्याः । तद्भक्तोद्वर्षहर्षामृत जलधिनिरुच्छ्वासलीलावगाहप्रत्यूहापोह कृद्भयः सृजतु परमसौ पर्वपूर्णाहुतिर्वः ।। ॐ ह्रीं चतुर्विंशतियक्षेभ्यः पूर्णाऱ्या निर्व० स्वाहा ।
इति चतुर्विंशतियक्षार्चनम् ।
अथ नवग्रहपूजनम्।
शार्दूलविक्रीडितम् । रक्तस्तुल्य रुगम्बरादियगिनः श्वेतः शशी लोहितोभौमो हेमनिभौ बुधामगुरु गौरः सिंत श्वासिताः । कोण स्थात नुकतवो जिनमहे हुत्वेह पूर्वादित:शश्यूद र्वेऽधिकश निवेश्य मुदमाप्यन्ते सवर्णार्चनैः ॥ १-वर्द्ध मानभक्तः, २-सूर्यः, ३-शुक्रः, ४-शनि, ५-राहुः ।
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३९० ]
दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
पूर्वादि दिक्षु सवर्णाक्षतपुज्जान् स्थापयित्वा तदुपरि सूर्यादीनां क्रमेण कुंकुमाद्यात्तदर्भासनानि विन्यसेत् ।
इतिदर्भन्यास |
( पूर्वदिशा से हरएक दिशा में दिक्पालोंकी अनुक्रमसे उड़दसे स्थापना करके उस जगहपर कुंकुम डाले और उस पर दर्भ क्षेपण करे या दर्भका आसन रखे । इसोको दर्भन्यास कहते है । )
प्रारब्धाः फणियक्षभूतपतिभिर्देहातिवित्तक्षतिस्थान 'शरसाद्यसाम्यविपदां नाशाय संकल्पिताः । येष्विष्टेषु च तापसादिषु समं यान्त्याशयित्वार्चितेध्वातन्वन्तु गुरुप्रसादवरदास्तेऽर्कादियो वः शिवम् || अनुष्टुप् । कुमारदीक्षितेष्वेक तम मर्चयतांरुजः । कुजः कुष्माद्ग्रहाः शेषाः सवर्णेषु जिनेषु वः ॥ [ आदित्यादीनां सपर्याविध्यनुवादमुखेन प्रभावस्थापनाय प्रतिदिशं पुष्पोदकाक्षतान् क्षिपेत् । ]
अथ प्रत्येक पूजा ।
ग्रहाः संशब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः । arry विशतान्यो यजे प्रत्येकमादरात् ॥
ॐ ह्रीं नवग्रहाः ! अत्रावतरत २ तिष्ठत २ सन्निहिताच भवत २ वषडितिपुष्पांजलि क्षिपेत् ।
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ३९१
स्रग्धरा। ऊर्ध्वविस्तीर्णमंशान्वसुजलधिमितान योजनस्यैकषष्टान्मुक्त्वाष्टेतच्छतावि क्षितिमनिलधृतं खे सहस्रश्चतुर्भिः । पूर्वाद्याशानुपूा पृथगिभमृगयोक्षावदेवैविमानंस्वारूढो नीयमानं दशशतशरदन्वीतपल्योत्तमायुः ।। त्वं तुष्टया तापसेष्टया कमलकर हरिद्वाहनेतो ! ग्रहाणांनैवेद्यः सोनुगोऽन्धनश्रुत परमानाद्य सर्पिगुंडाद्यः । गन्धौः पुष्पैः फलं श्चोत्तम द्य सृण जपा पक्व नारङ्गपूर्वेस्तादृ: श्चाक्षताद्य रिह हरिहरितिप्रीणितःप्रीणयास्मान् ॥
ॐ ह्रीं आदित्यग्रह ! अत्रागच्छागच्छ, तिष्ठ तिष्ठ, सन्निहिताश्च भव भव वषट् ।
ॐ ह्रीं आदित्यग्रह इदं अयं पाद्यं जलं गन्धमक्षतं पुष्पं नैवेद्यं दीपं धूपं फलम् बलि स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां२ स्वाहा । यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥ १ ॥
__ शार्दूलविक्रीडितम् । तद्विम्बादुर विम्ब मष्टमिरितो भागैश्चरद्योजनाशीत्याध न दिवाब्दलक्षयुत पल्यैकायु रग्ने दिशि । शितांशो ! शरलाज्यकिंशुकसमित्सिद्धान्त दुग्धोदिभिस्त्वं कापालिक सत्क्रियाप्रिय इह प्रार्चा गृहाण प्रभोः॥
ॐ ह्रीं सोमग्रह अत्रागच्छ २, तिष्ठ२ सन्निहितश्व भव भव वषट् । १-हस्ति, सिंह, वृषभ, हयाकारपरिणतैदेवैः २-पूर्वस्थां दिशि ।
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३९२ ] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । ॐ ह्रीं सोमबहायायं ।
यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥२॥ यूने विम्बमिताङ्क योजनशते क्रोशार्धमानं क्षितेर्बाह्य द्वि द्वि सहस्र केशरिमुखे भिक्षाप्रियः शुलभृत् । पल्यार्धायु रपाकुजात्रखदिराभृष्ट गुडाद्योत्कटः संतुष्ठो यवशक्तुभि घतयुत दुर्गादिभि धूप्यसे । __ॐ ह्रीं अङ्गारकग्रह ! अत्रागच्छागच्छ, तिष्ठर, सन्निहिताश्च भव२ वषट् । ॐ ह्रीं अङ्गारकग्रहान्द्रायज़० ।
___ यस्यार्थ० शान्तिधारा । पुष्पांजलिः ॥३।। विम्बं खं शशिनोऽष्टयोजनमतीत्योद्ध व व्रजभृ'जवतक्रोशाप्रमितं कुजथिति मितोवर्णादिमत्पुस्तकम् । विभ्रत्वं विधुजोपवीत युगपामार्गेधसिद्धोदनंक्षीरं सर्जरसाज्यधूपमज'गो रक्षोदिशि स्वीकुरुः ।
ॐ ह्रीं बुधग्रह । आगच्छ२, तिष्टत२ सन्निहिताश्च भव २ वषट् । ॐ ह्रीं बुधग्रहायय० ।
यस्यार्थ० शान्तिधारा, पुष्पांजलिः ॥४॥ तच्चारा द्रस योजनै रुपरिमात् तद्वद्विमान मनागनक्रोश मितः सपुस्तककमण्डल्ला क्ष सूत्रोऽब्जगः । पल्यैकायुरिहोपवीतरुचरोरस्कः परिबाडतः प्रत्यपिप्पल पक्षपायस हवि धपै गुरोऽभ्यासे ॥
१-मङ्गलवत्, २-अजवाहनः, ३-षट्याजनै, ४-कमण्डल, इति कमण्डलुवाचको देशी, शब्दः ।
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दि. जेन व्रतोद्यापन संग्रह । [ ३९३ ॐ ह्रीं बृहस्पतिग्रह ! अत्रागच्छागच्छ, तिष्ठर, सन्निहिताश्च भव भव वषट् । ॐ ह्रीं बृहस्पतिग्रहायाध्यं०।।
यस्यार्थ० शांतिधारा । पुष्पांजलिः ॥५॥ सौम्यात्खेऽध्युषितं त्रियोजनमतिक्रान्तोऽभ्रयानं तथाप्रेयं क्रोशततं त्रिशूलफणिभृत्याशाक्षसूत्रः स्फुरन् । प्रीतः पाशुपतैः सवर्षशतपल्यायुः प्लवस्थोमरुत्काष्ठायां गुडफल्गुपाचितयवानज्यैः कवे ! पूज्यसे ।
ॐ ह्रीं शुक्रमहाग्रह ! अत्रागच्छागच्छ, तिष्ठ तिष्ठ सन्निहितश्च भव२ वषट ।
ॐ ह्रीं शुक्रग्रहायाध्यं० । यस्यार्थ० शान्तिधारा, पुष्पांजलिः ॥६॥ . क्रोशाधू पृथु योजने स्त्रिभि रुपर्यभ्रे कु'जान्मण्डलंतद्वद्न्तृगतोद्वपल्यपरमायुष्कत्रिसूत्रीयुतः- । नीतरतृप्तिमुदकशमीन्धनश्रुतैर्माखस्तिलैरतण्डूलै:रालाज्यागुरुणज्यसे श्रमणबद्रपाल पूज्यः शने ! ॥
ॐ ह्रीं शनैश्वरमहाग्रह ! अत्रागच्छागच्छ, तिष्ठ२, सन्निक भव २ वषट । ॐ ह्रीं शनैश्वर महाग्रहायध्यं० ।
यस्यार्थ० शान्तिधारा, पुष्पांजलिः ॥७॥ त्यक्त्वारिस्ट दरोनयोजनमतः स्वं व्योमयानध्वजचत्वारि ब्रजदंगुला न्याहराहः षष्टे च मासे विधोः । बिम्बं छादयिता तदंशुनिवहै राहो ! द्विजा महेदुर्वापिष्टपयोघृताक्तजतुना धूपेन दिश्यया॑से ॥
१-मङ्गलग्रहान, २-कुबेरपूच्यः ।
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३९४ । दि. जन व्रतोद्यापन संग्रह ।
ॐ ह्रीं राहुग्रहा ! अत्रागच्छागच्छ, तिष्ठ तिष्ठ, सन्निहितश्च भव भव वषट् ।
ॐ ह्रीं राहुग्रहायाज़० । ___ यस्यार्थ० शांतिधारा, पुष्पांजलिः ॥८॥ षष्ठे षष्ठ उपेत्य मासि तपनस्पन्दस्तमो बिम्बवद्विम्बाद्विम्ब मधश्चरन्मलिनयत्यशद्गमै स्तद्वियत् । दर्शान्तेऽधिवसनिहोर्ध्वदिशि तत्वेतो ! साल्माषकस्फुर्जरकेतुसहस्रदेह सकूशं विल्बाज्य धूपं भज ॥
ॐ ह्रीं केतुग्रह ! अत्रागच्छागच्छ, तिष्ठ२ सन्निहितश्च भव भव वषट् ।
ॐ ह्रीं केतुग्रहायानँ ।
यस्यार्थ० शान्तिधारा, पुष्पांजलिः ॥९॥ एते सप्तधनुः प्रमाण वपुरुत्सेधा नवापि ग्रहाःशश्वच्चद्रबलाबलाप्य सदसद्दान स्फुरद्विक्रमाः । सत्कृत्योबहुता इमामिह महे पूर्णाहुति प्रामतप्रीतिं व्यक्तय भक्तयाजक नृपादीष्टप दानाद्नुतम् ।। ॐ ह्रीं नवग्रहदेवेभ्यः पूर्णार्यों निवंपामीति स्वाहा ।
इन्द्रवज्रा । धौतादिवर्णप्रमुखानुवर्णैः
कांचीदुकूल मृदुलाभिरामैः । देवाङ्गवासोज्वल दीप्तिमद्भिः
प्राच्छादयामो निखिलान ग्रहांस्तान् । इति ग्रहाणामुपरि वखाछादनं कुर्यात् ।
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दि० जन व्रतोद्यापन संग्रह। 1 ३९५ ॐ ह्रीं ह्रः फट आदित्यमहाग्रह ! अमुकस्य शिवं कुरु २. स्वाहा । एवं सोमादिष्वपियोज्यम् ।
(ऐसे ही सोम आदि ग्रहोंका नाम उच्चारणकर मन्त्रः पढ़ना चाहिये ।)
वसन्ततिलका । हुत्वा स्वमन्त्र चित्त मम्बुनि सप्तसप्त
मुष्टिप्रमाण तिलशालियव प्रशांतिम् । नीता घृतप्लुतसमिद्भि रथाग्निकुण्डे एकादशस्थ वदवन्तु सदा ग्रहाः वः ॥
इत्याशीर्वादः ।
अर्थशान्यां दिशि-अनावृतार्चनम् ।
स्रग्धरा । जम्बवृक्षस्य नाना मणिमय वपुषः प्राज्यजम्बवृतस्यापाक्शाखा मावसन्तं नवजलदरचं पक्षिराजाधिरूढम् । कुण्डीशङ्खक्षमालारथचरणकरं, त्रातनिः शेषजम्बद्वीपश्रीकं यजेऽस्मिन् विधुरविद्यु तयेऽनावृत व्यन्तरेन्द्र
ॐ ह्रीं दशदिशाधिनाथं रैलोक्य दण्डनायकं जम्बूद्वीपाधिपतिं गरुडपृष्ठमारूढं स्निग्धभृङ्गाज्जनाभमक्षसूकमण्डलुव्यग्रहस्त चतुर्भुज शंखचक्रवित मुजादण्ड यक्षिणीसहितं सपरिजनं सपरिवार मनावृतदेव माह्वयामीतिस्वाहा ।
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३९६ ] दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह ।
ॐ आं को ह्रीं हे अनावृतदेव ! अत्रागच्छागच्छ, तिष्ठ तिष्ठ, सन्निहितश्च भव भव वषट् । ____ॐ ह्रीं अनावृतदेवाय जल गन्ध मित्यादिकमणं निर्वपामीति स्वाहा ।
अथानन्दनस्तवनम्।
अनुष्टुप । जय देव प्रसिद्धन स्वनाम्नाङ्ग पुनीहि मे। जय शुद्धनय स्वान्तं स्वभक्त्या मेऽनुरज्जय ॥ जय दिव्याङ्ग गात्राणि, सदृष्टया मे कृतार्थय । जय तेजोनिधे स्वस्मिन् नेत्राब्जे मे विनिद्रय ॥ यदर्शन विशुद्धयादि-भावनादैवत विभो । तपस्तप्त्या जगज्ज्योति--स्तज्ज्योति स्ते न नश्यति ॥ या त्ववज्ञाहते पण्य-स्तद्रागद्वारसंगौः । स्वयि प्रयुज्यते कोपा-लक्ष्मी स्तानेव हन्ति सा ॥ साचेयं विभूतिस्ते, कापि या जगतां दृशः । लब्ध्या विशुद्धया तवृद्धया, स्वस्याहान्वयशुद्धताम् । भुजानोऽभ्युदय चाहन्, जनै भोगीव लक्ष्यसे । । बुधै ोगीव तत्त्वंतु, जानाति त्वाहगेव ते ॥ निर्मलोन्मुद्रितान्त--शक्तिचेतपितृत्त्वतः । ज्ञान निःसीब शर्मात्म विदं प्रतिपतत्पदे ।। नमस्ते परमब्रह्मन् नमस्ते परमाव्यय । नमस्ते परशान्ताय नमस्ते परमोदय ॥
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [३९७. नमस्तेऽनन्तविज्ञान नमस्ते ज्ञानमूर्तये । नमस्ते ज्ञानरूपाय नमस्ते ज्ञानगोचर ॥ नमस्ते निष्कलशम्भो नमस्ते त्रिजगत्पते । नमस्तेऽहेत्सुदेवाय नमस्ते जिनपुङ्गव ॥ नमस्ते सिद्धबुद्धाय नमस्ते नाभिनन्दन । नमस्ते मोक्षलक्ष्मीश नमस्ते शिवदायक ॥ नमस्तेऽचिन्त्यचरित नमस्ते त्रिजगद्गरो । नमस्ते त्रिजगन्नाथ नमस्तेऽन्त्यन्तनिःस्पृह ॥ नमस्ते केवलज्ञान नमस्ते केवलक्षण । नमस्ते परमानन्द नमस्तेऽनन्तविक्रम ॥ एवमानन्दतः स्तुत्वा शक्रः पूर्ववदादरात् । जन्माभिषेककल्याण--क्रियां कृत्वा स्फुटनटेत् ॥ पञ्चाङ्गविनतिकृत्वा चैत्यं पञ्चगुरुंस्तथा । साधुभक्तिभिराराध्य ध्यायेन्मनं यथाविधि ।। अथ जन्माभिषेककल्याणकक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल+ कर्मक्षयार्थ भावपूजावन्दनास्तवसमेतं चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम ।
‘णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं ।' ___इति मन्त्रस्य नववारान जाप कुर्यात् ।
( नौ वार णमोकार मंत्रका जाप करे) अढ़ाह दिवेत्यादि-ॐ नमः परमात्मने-थोस्सामीत्यादि सिद्धाः सिद्धि मम दिशन्तु ।
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दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह |
शार्दूलविक्रीडितम् ।
भौम व्यन्तरमभास्कर सुरश्रेणी विमानाश्रिताः स्वर्ज्योतिः कुलपर्वतान्तरधरा रन्ध्रप्रबन्ध स्थितीः । वन्दे तत्पुरपालमौलि विलसद्रत्न प्रतीपार्चिताः साम्राज्याय जिनेन्द्र सिद्धगणभृत्साध्याय साध्वाकृतीः ॥ मालिनी । सभवशरणवासान्मुक्तिलक्ष्मी विलासान्
सकलसमयनाथान् वाक्यविद्यासनाथान | भवनिगल विनाशोद्योग योगप्रकाशन.
३९८ ]
निरुपम गुणभावान्स्तुवेऽहं क्रियावान् ॥ इति पंचमहागुरु भवतिः क्रियते । आर्या । भवदुःखानलशान्ति, धर्मामृतवषजनितजनशान्तिः । शिव शर्माभवशान्तिः शान्तिकरः स्ताज्जिनः शान्तिः । शातिभक्तिः क्रियते ।
ॐ जिन पूजार्थं महाहंता देवाः सर्वे विहितमहा महाः 'स्वस्थानंगच्छतगच्छतेति विसर्जन मंत्रोच्चारणेन यागमण्डले पुष्पाञ्जलि वितीर्य देवान् विसर्जयेत् ।
मालिनी ।
इह हि रवतारप्रत्ययेनावबुद्धांमखविधिपरिपाद्यां भावशुद्धिविधाय । वहि रिव रविविम्ब ध्वान्तमध्यात्ममस्यस्फुरतु पुनरखण्डं तत्परं ब्रह्मनोद्यम् ||
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दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । [३९९ अनेन परब्रह्माध्यात्ममध्याक्षयेत् ।
इति देवता खंसर्जनम् ।
शार्दूलविक्रीडितम् । शश्वच्चेतयते यदुत्सवमयं ध्यायन्ति यद्योगिनोयेनप्राणिति विश्वमिन्द्रनिकरा यस्मै नमस्कुर्वते । वैचित्रिजगतो यतोऽस्तिपदवी यस्यान्तरं प्रत्ययेमुक्तिर्यत्र भयस्तनोत जगतां शांन्ति परंब्रह्मवत् ॥ इतिजिनचरणाने शांतिधारांप्रकल्ययेत् ।
. अयं दद्यात् । ॐ ह्रीं अर्हद्भयो नमः, सिद्धेभ्यो नमः, सूरिभ्यो नमः, पाठकेभ्यो नमः, सर्वसाधुभ्यो नमः । अतीतानागतवर्तमानत्रिकालगोचरानन्तद्रव्यगुणपर्यायात्मकवस्तुपरिच्छेदकः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राद्यनेकगुणगणाधारपञ्चपरमेष्ठिभ्यो नमः । पुण्याहं ३ प्रीयन्ताम् ३। वृषभादिमहावीर पर्यन्त परमतीर्थङ्करदेवास्तत्समयपा-- लिन्योऽप्रतिहतचक्रचक्रेश्वर प्रभृति चतुर्विंशतियक्षाः, आदित्य चन्द्रमङ्गलबुधबृहस्पति शुक्रशनिराहुकेतुप्रभृत्यष्टाशीतिग्रहाः, वासुकिशंखपालकर्कोटपद्म कुलिका-- नेत तक्षकमहापद्मजयविजयनागाः देवनागयक्षगन्धर्वब्रह्मराक्षसभूतव्यन्तरप्रभृतिभूताश्च सर्वेऽप्येते जिनशासनवत्सलाः, ऋष्यार्यिका श्रावकश्राविका यष्ट याजकराज मंत्रिपुरोहितसामन्तारक्षाकमभृतयः समस्त
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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह |
लोक समूहस्य शांति बुद्धि पुष्टि तुष्टि तेम कल्याण स्वायुरारोग्यप्रदाभवन्तु । सर्वसौख्यप्रदाः सन्तु । देशे राष्ट्र पुरेषु च सर्वदेव चौरारिमारीतिदुर्भिक्ष विग्रह विघ्नौ दुष्ट ग्रह भूतशा किनी प्रभृत्यशेषाण्यनिष्ठानि प्रलयं प्रयान्तु । राजा विजयो भवतु प्रजासौख्यं भवतु । राजप्रभृति समस्तलोकाः सततं जिनधर्मवत्सलाः, पूजादानव्रत शीलमहामहोत्सवप्रभृतिषूद्यता भवन्तु । चिर कालं नन्दन्तु । यत्र स्थिता भव्यप्राणिनः संसार-सागरं लीलयैवोत्तीर्यानुपमं सिद्धिसौख्यमन्तकाल मनुभवन्ति तच्चाशेष प्राणिगण शरणभूतं जिनशासनं सर्वसौख्यप्रदं भवत्विति स्वाहा |
पृथिवी ।
अनेन विधिना यथाविभव महतः स्थापनं, विधाय मह मन्वहं सृजति यः शिवाशावरः । स चक्रिहरि तीर्थकृत्पद कृताभिषेकः सुरैः, समचितपदः सदा सुखसुधाम्बुधौ मज्जति ॥ इति पूजाफलम 1 इति शान्त्यभिषेकः समाप्तः ।
संवत् १६३५ वर्षे वैशाखमा से शुक्लपक्षे ५ तिथौ श्रीमूल संघ सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्रीशुभ्र चन्द्रस्ततपट्टे श्री सुमतिकोर्तिस्तत्पट्टे श्री गुणकीति स्तस्य शिष्यो ब्रह्मचारिवस्तस्तल्लिखितमेतच्छान्ति चक्रव्रतविधानोद्यापनमेतत्
समाप्तम् ।
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________________ पूजन व व्रतोद्यापनके लिये हस्तलिखित पक्के रंगीन माउने मोटे कपड़ेपर इस प्रकार तैयार है। इसके हम सोल एजन्ट हैं। साईज 4 // 44 // फीट / पंचकल्याणक 350) तीस चौबीसी 350) समोशरण 350) तेरहद्वीप इन्द्रध्वज 360) ढाईद्वीप वर्तमान चौबीसी 350) नन्दीश्वर 350) जम्बूद्वीप 360) कर्मदहन 350) चौसठऋद्धि 360) दशलक्षण 350) नवग्रह 350) पंचपरमेष्ठी 350) सोलहकारण 350) रत्नत्रय 350) सुदर्शनमेरु वि. 360) तीन चौबीसी 350) पंचमेरु 350) भक्तामर 350) सिद्धचक्र 360) ऋषिमंडल सहस्रनाम 360) शांति विधान 350) वीस विहरमान 360) तीनलोकविधान 2 // X गजका 1500) णमोकार मंत्र विधान 360) सभी मांडने रंगीन व पक्के रंगके हैं मंदिरोंमें कायम रखनेको अवश्य मंगाईये। मांडने मंगवानेवाले 200) एडवांस भेजें एडवांस आने पर ही मांडना भेजा जायगा / _ ण्ट निवा दये गये है, इसके अलावा विटा नवाद :च,१६ विद्धादेबियों के चित्र भीमदर्भग्रंथ आचार्य गणधर अनेक काटे वार के अलावा 48 रंगी-जयमती माताजी द्वारा रण 4- त्र साधना करने के आस्रव दिये गये है, इसके अलावा 48 रंगत बताया गया है। ग्रंथमें च.१६ विद्धादेबियों के चित्र भी, मन्त्र व तंत्र चित्रों सहित दिये गये है, इसके अलावा 48 रंगीन कल रमें यक्ष यक्षणियों के व 16 विद्धादैबियों के चित्र भी दिये है। मूल्य 300) रुपये।