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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
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अथ जयमाला।
सिरि जिणवर कहियं पाटविर हियं चतुविह दाणमनंत फलं । गणधर विछरीयं बहुगुणभरियं चंदभासदो अतिविमलं ॥१॥ दाणेन जीव आरज होय, दाणेन न वेर मंडेन कोय । दाणेन सुरेंदह भोग सार, दाणेन लहइ संसार पार ॥२॥ दाणेन णरंदह करइ सेव, दाणेण होइ पसण देव । दाणेन रोग णवि अंग होय, दाणेण पसण भुवण लोय ।३। दाणेन भोग धरासु सुख, दाणेन लहइ परम सुख, दाणेन सु वंतरणमइ पाय, दाणेन सुवर्णय होय काय ॥४॥ दाणेन अट्ठ भोगाधि सार, दाणेन पंच विमाणकार । दाणेन होय गृहकणध धार, दाणेण रयण चउदसे सु सार ।। ५॥
धत्ता। रिसेसर कहिवा तिहुयणमहिया,
दाण भावणा भय हरणी । सिरिभूषण भासि गुणपयासि,
भणण भणाण भवजलतरणी ।। ॐ ह्री दानभावनायै महाघ ।