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द. जेनक्लोद्यापन सत्रह ।
। २३७:
सुरनर करतुजु सेवा । जय जय अमर अमर पद दाता, जय जय संसार सागर याता ॥११।। जय जय एक अनेक कहाया, जय जय गणधर देव पढाया । जय जय दर्शनसे दुःख नाशे, जय जय सेव करे तुम पासे ॥१२॥ जय जय जे नर हृदय धरन्ता, जय जय मन गुप्ति ते हरन्ता । जय जय वयणे स्तवन करन्ता, जय जय वचन गुप्ति परिहन्ता ॥१३।। जय जय अष्टांगे जे नमन्ता, जय जय काय गुप्ति निगमन्ता । जय जय धर्म धुरन्धर देवा, जय जय जनम जनम कर सेवा ॥१४॥ जय जय क्षेमकीरती पद धारी, जय जय नरेन्द्रकीर्ति मनोहारी । जय जय तसपद् विजय मुनींद्रा, जय जय सरसति गुच्छ सु चन्दा ॥१५॥ जय जय तस पद पंकज भंगा, जय जय नित्य सेव सुरंगा । जय जय सेवक जन साधारी, जय जय कहे नारायण ब्रह्मचारी ॥१६॥
घत्ता
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सिरि जिणवर देवह सुरकृत सेवह,
जनम जनम तुव चरण नम्। कर पूजा सारीय अष्ट प्रकारिय,
अर्घ उतारिय दुःख गम्॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशस्वरप्रकाशकवृषभाय जिनाय महाघ ।