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________________ कि गैन बालोखापन संग्रह । तत्र दक्षिण दिग्भागे अष्टमो हि रतिकरः । तत्रस्थं श्री जिनाधीशं चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥१३॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थितअष्टमरतिकरगिरी श्री जिनाय अर्घ० ॥१३॥ जिनेन्द्रः शंकरः श्रोदः परमेष्ठी सनातनः । अलक्षः सुगतोविष्णुरुनतां वः श्रियं क्रियात् ॥१४॥ इत्याशीर्वादः। अथ जयमाला। नन्दीश्वर वरदिवहिए बावन चैत्यराय जिनेश्वरपयकमलो बहु कुसुमांजलि देहिं . सुरिंदा जे लहिया अट्टविह पूजकरेयि सुभत्तिय शुभ जाणिया ॥१॥ पंचह मेरु हेममय असिय जिणंदह धामजिणेसर पयकमलो ॥२॥ सत्तरसो विजयारधहिं कुलगिर तीस जिणेसर पयकमलो ॥३॥ असिय वखारि जिण भवणिं, वीसमहा गयंदत निणेसर पयकमलो ॥४॥ माणुस उत्तर चारि जिण, दसकर जिमगेह जिणेसर फ्यकमलो |
SR No.090154
Book TitleDigambar Jain Vratoddyapan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Surchand Doshi
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1986
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size20 MB
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