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________________ दि० जेन व्रतोद्यापन संग्रह । [ २१९ अपर्याप्तकभेदानां रक्षका विकलात्मना । संपूज० ॥ ॐ ह्रीं अपर्याप्तद्विन्द्रयादिवि कलत्रयजीवरक्षकेभ्यो जला० १२ ये प्ररांति पचाज्ञान पर्याप्तभेदभाजिनः । संपूज० ॥ ॐ ह्रीं पर्याप्तकपंचेन्द्रीयजीवरक्षक मुनिभ्यो जला० ||१३|| अपर्याप्तक पंचाक्षप्राणरक्षणवर्तिनः । संपूज० ॥ ॐ ह्रीं अपर्याप्त पंचेन्द्रीयजीवरक्षकमुनिभ्यो जला० ||१४|| द्विसप्तसंख्यवर जीवसमासरक्षानेकेन्द्रीय प्रमुख सच्च विवेकदक्षान् । सम्पूजयामि कमल प्रमुखखैमुनींद्रानद्रव्यैरहं विजयकीर्तिमुनींद्र शिष्यः । ॐ ह्रीं चतुर्दशजीवसमासरक्षकेभ्यो महाघं । X X अथ जयमाला । णासियमय ठाणे, चउविहणाणे, झाणट्टिय णियमय कमले जीउ चउद समासे. विविध पकासे, णिम्मल भासे मुणि विमले ॥ पुढवी पज्जय भेय विद्वेष कर सुकरं । वह अपन्जय भेय विवेय करं पवरं ॥ तं वन्दे सिरणामिय सामिय पापहरं । पुणु पणमामिय गणहर मुमिवर साहु भरं ॥ १६
SR No.090154
Book TitleDigambar Jain Vratoddyapan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Surchand Doshi
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1986
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size20 MB
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