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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
। १०९:
अथ जयमाला ।
कृतकर्मविणासं सुगुण पयासं, सुरनरपतिसेवित चरणं जरमरणविणासण कुगइ निरासण सारशीलमानव सरणं ॥१॥ शील रयण बहुमूला सार, शीले तरइ संसार पार । शीलेन शद्धणय । सद विबोध, शीले हवइ इन्दिय निरोध ॥२॥ शीले नमइ सादुल पाय, शीले हवाइ सुरणर सहाय । शीलेन विणासय सय दुःख, शीलेन कलह नर मोक्ष सुख ॥३॥ शीलेन खग नित करइ सेव, शीलेन नमइ नित अखिलदेव । शीलेन विजय तियलोकमज्ज, शीलेन सरह सविधम्म कज्ज ॥४। शीलेन भुवन तित्थरयकीर्ति, शीलेन लहइ णर अखय वित्ति। शीलेन वन्हि जल रुव होय, शीलेन माणव बहु करइ लोय ॥५॥ शीलेन होइ इह सफल जम्म, शीलेन सरइ सविपुण कम्म। शीलेन मोक्ष पदवि णिवास, शीलेन होइ लोला विलास ॥६॥
घत्ता । भुविपार निकंद मुनिवचवृन्द, कम्म विखंडण धम्ममयं । जगजयजयकरणं शीलसुसरणं, संसारांबुद्धि शुभतरणं ॥ ॐ ह्रीं शीलवतेष्वनतिचाराय पूर्णाघ ।
॥ इति शीलभावना ॥