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________________ १०६ ] दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह । ॐ ह्रीं सम्यक्तसंयुक्तश्राविकासंजातविनयसम्पन्नतायै जला० ॥५॥ सतोयगंधैः कुसुमैः शुभाक्षतेश्वरुसुदीवरधूपसत्फलैः । सद्भावनांतां विनयादि जातां चर्ने सदाकर्मकलङ्कत्यैि ॥ ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नतायै अघं। अथ जयमाला। सिरि जिन धम्मे गुणगण हम्मे, विणय विवेक समुच्चरिय। सिरि गोयम देवे कुन्द मुणिंदे चउविह संघ समुच्चरियं ॥१॥ विनयेण हवइ संसारकाज, विनयेण लहइ सुरपुरीय राज विनयेण हवइ पंचणाण विनयेण होसि शीवपुरीय वास ॥२॥ विनयेण होइ सवि अरीयमित्र, विनयेण हवह वसणिय चित्त । विनयेण देव पसण्ण होय, विनयेण मण आनन्द लोय ॥ ३ ॥ विनयेण होइ धम्मादि काज, । विन येण पसरह बहुय लज्ज । विनयेण हवइ जिन शुद्ध जाण, विनयेण णासइ जम्म मज ।४। इय विण तिण गुणवंता मुनिजणसंता, धम्मखाण मुणिगण कहीयं । ते मवसु तारण ताप निवारण, सहीरी भूषयं सुख लहीयं ॥५॥ ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नतायै जयमाला महाध्यं ।
SR No.090154
Book TitleDigambar Jain Vratoddyapan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Surchand Doshi
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1986
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size20 MB
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