Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 02
Author(s): Bhadrabahuswami, Chaturvijay, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ श्री आत्मानन्द-जैन-ग्रन्थरतमाला-रतम् ८३ नियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् द्वितीयो विभागः पीठिका با ما प्रकाशक : श्री आत्मानन्द जैन सभा खारगेट, भावनगर (सौ.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मानन्द- जैनग्रन्थरत्नमालायाः त्र्यशीतितमं रत्नम् (८३ ) स्थविर- आर्यभद्रबाहुस्वामिप्रणीतस्वोपज्ञनिर्युक्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् । श्री सङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसङ्कलित भाष्योपबृंहितम् । जैनागम - प्रकरणाद्यनेकग्रन्थातिगूढार्थप्रकटनप्रौढटीकाविधानसमुपलब्ध 'समर्थटीकाकारे 'तिख्यातिभिः श्रीमद्भिर्मलयगिरिसूरिभिः प्रारब्धया वृद्धपोशालिकतपागच्छीयैः श्रीक्षेमकीर्त्याचार्यैः पूर्णीकृतया च वृत्त्या समलङ्कृतम् । तस्यायं द्वितीय विभागः प्रथम उद्देशः । [ प्रलम्बप्रकृत-मासकल्पप्रकृतात्मकः । ] २ तत्सम्पादकौ सकलागमपरमार्थप्रपञ्चप्रवीण- बृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीय-आद्याचार्यन्यायाम्भोनिधि-श्रीमद्विजयानन्दसूरीश ( प्रसिद्धनाम श्री आत्मारामजी महाराज ) शिष्यरत्नप्रवर्त्तक - श्रीमत्कान्तिविजयमुनिपुङ्गवानां शिष्य-प्रशिष्यौ चतुरविजय-पुण्यविजयौ । प्रकाशं प्रापयित्री - भावनगरस्था श्रीजैन - आत्मानन्दसभा | प्रथम आवृत्ति : वीर संवत २४६३, ईस्वीसन द्वितीय आवृत्ति : वीर संवत २५२८, ईस्वीसन १९३६, विक्रम संवत १९९२, आत्मसंवत ४०, प्रत ५०० २००२, विक्रम संवत २०५८, आत्मसंवत १०५, प्रत ६०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक : बृहत् कल्पसूत्रम् । मूल्य : रू.२००/ प्रकाशक : " प्रमोदकांत खीमचंद शाह - प्रमुख श्री जैन आत्मानंद सभा भावनगर - ३६४००१.० धन्य भक्ति धन्य दाता दादर जैन पौषधशाला ट्रस्ट आराधना भवन, दादर, मुंबई * श्री हीरसूरीश्वरजी जगद्गुरु श्वे. मू. पू. तप. जैन संघ ट्रस्ट, मलाड, मुंबई महुवा जैन संघ, महुवा, जि. भावनगर * शाहीबाग गीरधरनगर जैन संघ, अहमदाबाद भूतीबेन जैन उपाश्रय, शाहीबाग, अहमदाबाद * श्री जैन श्वे. मू. पू. संघ, शिव, मुंबई * PRINTERS Tejas Printers 403, Vimal Vihar Apartment, 22, Saraswati Society, Nr. Jain Merchant Society, Paldi, AHMEDABAD - 380 007. Ph.: (079) 6601045 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अर्पण) जैन छेद आगमोना प्रकाशननी ___महत्ताने समजनार अने ए आगमोना गम्भीर रहस्योने उकेलनार विद्वान् मुनिगणना करकमलमां लि. मुनि चतुरविजय तथा मुनि पुन्यविजय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दन जे महापुरुषतुं जीवन शांत सागरनी जेम सदा एकधारी शांतिथी परिपूर्ण छ, शान्तिना इच्छुक MAL तरीके जैन संघमां जेमनु अद्वितीय स्थान अने मान छे, जेमणे प्राचीन जैन ज्ञानभंडारो अने प्राचीन समग्र साहित्यनो जीर्णोद्धार अने पुनरुद्धार करवा-कराववा द्वारा भारतीय प्राचीन साहित्यनी अने ते साथे जैन धर्मनी अपूर्व सेवा करवामां ज जीवननी सार्थकता मानेली हती तेमज जेमनी शीतल छायामां वसी अमे ज्ञानलव प्राप्त करवा उपरांत जैन वाङ्मयनी अल्प-स्वल्प सेवा करवानुं सामर्थ्य, योग्यता अने सौभाग्य मेळवी शक्या छीए; ते शान्तिना अखंड धामसमा, समदर्शी, पवित्र, व्रत-ज्ञानस्थविर, दीर्घजीवी, अनेकानेकगुणविभूषित, प्रातःस्मरणीय, परमगुरुदेव प्रवर्तक श्री १००८ श्री कान्तिविजयजी महाराजश्री ना पवित्र करकमलमा बृहत् कल्पसूत्र ना आ द्वितीय विभागने सादर अर्पण करी अमे कृतकृत्य थइए छीए. . चरणोपासक शिशुओ मुनि चतुरविजय अने मुनि पुण्यविजय Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्तपागच्छान्तर्गत संविग्नशाखीय आद्याचार्य न्यायाम्मोनिधि श्री १००८ श्री विजयानन्दसूरि शिष्य प्रवर प्रवर्तक VIE :जन्म : विक्रम संवत् १९०७ वडोदरा. :दीक्षाः विक्रम संवत् १९३५अम्बाला. श्री १००८ श्री कान्तिविजयजी महाराज. प्रवर्त्तकपदः विक्रम संवत् १९५७ पाटण. Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પુનગુણાતી શિવમસ્તુ સર્વજગતઃ ચરમ તીર્થપતિ શ્રી મહાવીરસ્વામિને નમઃ શ્રી આત્મ-વલ્લભસૂરીશ્વરજી સદ્ગુરુભ્યો નમઃ પૂ. પ્રવર્તક મુનિરાજ શ્રી કાંતિવિજયજી મ. સાહેબનાં શિષ્ય પ્રશિષ્ય પૂ. મુનિરાજ શ્રી ચતુરવિજયજી મ. તથા પૂ. મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે આજથી ૬૦ વર્ષ પહેલાં પૂર્ણ કાળજીથી સંપાદન કરેલ બૃહત્કલ્પસૂત્રનાં ભાગ ૧ થી ૬ અમારી સંસ્થાએ છપાવેલ તે ઘણાં વખતથી અપ્રાપ્ય હતા. તેનું પુનર્મુદ્રણ પૂજ્યોની કૃપાથી અનેક સંઘોનાં સહકારથી અમે કરી રહ્યાં છીએ તેનો અમને અપૂર્વ આનંદ છે. પ્રથમ આવૃતિ પ્રગટ થયા પછી આગમ પ્રભાકર મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજીએ અન્ય હસ્તપ્રતોના આધારે છાપેલી નકલમાં જ અનેક સ્થળોએ શુદ્ધિવૃદ્ધિ કરી હતી તે નકલો અમદાવાદ સ્થિત લાલભાઈ દલપતભાઈ ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિરમાં સુરક્ષિત છે તેના આધારે અહીં શુદ્ધિ પત્રક ઉમેરવામાં આવ્યું છે. તેથી જિજ્ઞાસુઓને અધ્યયનમાં સરળતા રહેશે. શુદ્ધિવૃદ્ધિયુક્ત નકલો ઉપલબ્ધ કરાવી આપવા બદલ અમે ઉપયુક્ત સંસ્થાના આભારી છીએ. આ ગ્રંથનાં વાચનથી પૂજ્યો સંયમમાર્ગનાં વધુ જાણકાર બની અને મુક્તિપંથમાં આગળ વધે એજ પ્રાર્થના. - શ્રી આત્માનંદ સભા ભાવનગર Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्रसंशोधनकृते सङ्गहीतानां प्रतीनां सङ्केताः। ले. कां० भा० पत्तनस्थभाभापाटकसत्कचित्कोशीया प्रतिः । त० पत्तनीयतपागच्छीयज्ञानकोशसत्का प्रतिः । डे० अमदावादडेलाउपाश्रयभाण्डागारसत्का प्रतिः । मो० पत्तनान्तर्गतमोंकामोदीभाण्डागारसत्का प्रतिः । पत्तनसागरगच्छोपाश्रयगतलेहेरुवकीलसत्कज्ञानकोशगता प्रतिः । प्रवर्तकश्रीमत्कान्तिविजयसत्का प्रतिः । ता० ताडपत्रीया मूलसूत्रप्रतिः भाप्यप्रतिर्वा । ( सूत्रपाठान्तरस्थाने सूत्रप्रतिः, भाप्यपाठान्तरस्थाने भाप्यप्रतिरिति ज्ञेयम् ।) प्र० प्रत्यन्तरे (टीप्पणीमध्योद्धृतचूर्णिपाठान्तः वृत्तकोष्ठकगतपाठेन सह यत्र प्र० इति स्यात् तत्र प्रत्यन्तरे इति ज्ञेयम् , दृश्यतां पृष्ठ २ पंक्ति २७-३२ इत्यादि ।) मुद्यमाणेऽस्मिन् ग्रन्थेऽस्माभिर्येऽशुद्धाः पाठाः प्रतिषूपलब्धास्तेऽस्मत्कल्पनया संशोध्य ( ) एतादृवृत्तकोष्ठकान्तः स्थापिताः सन्ति, दृश्यतां पृष्ठ १० पति २६, पृ० १७ पं० ३०, पृ० २५ पं० १२, पृ० ३१ पं० १७, पृ० ४० पं० २४ इत्यादि । ये चास्माभिर्गलिताः पाठाः सम्भावितास्ते [ ] एतादृक्चतुरस्रकोष्ठकान्तः परिपूरिताः सन्ति, दृश्यतां पृष्ठ ३ पंक्ति ९, पृ० १५५०६, पृ० २८ पं० ५, पृ० ४९ पं० २६ इत्यादि । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकृताऽस्माभिर्वा निर्दिष्टानामवतरणानां स्थानदर्शकाः सङ्केताः। अनुयो० आचा० श्रु० अ० उ० आव० हारि० वृत्तौ आव०नि० गा० । आव० नियु० गा० आव० मू० भा० गा० उ० सू० उत्त० अ० गा० . ओपनि० गा० कल्पवृहद्भाष्य गा० चूर्णि जीत० भा० गा० तत्त्वार्थ दश० अ० उ० गा० दश० अ० गा० । दशवै० अ० गा० दश० चू० गा० देवेन्द्र० गा० पञ्चव० गा० पिण्डनि० गा० प्रज्ञा० पद प्रशम० आ० मल० महानि० अ० विशे० गा० विशेषचूर्णि व्य० भा० पी० गा० व्यव० उ० भा० गा० अनुयोगद्वारसूत्र आचाराङ्गसूत्र श्रुतस्कन्ध अध्ययन उद्देश आवश्यकसूत्र-हारिभद्रीय-वृत्ती आवश्यकसूत्र नियुक्ति गाथा आवश्यकसूत्र मूलभाप्य गाथा उद्देश सूत्र उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन गाथा ओघनियुक्ति गाथा वृहत्कल्पवृहद्भाप्य गाथा बृहत्कल्पचूर्णि जीतकल्पभाप्य गाथा तत्त्वार्थाधिगमसूत्राणि दशवैकालिकसूत्र अध्ययन उद्देश गाथा दशवैकालिकसूत्र अध्ययन गाथा दशवैकालिकसूत्र चूलिका गाथा देवेन्द्र-नरकेन्द्रप्रकरणगत देवेन्द्रप्रकरण गाथा पञ्चवस्तुक गाथा पिण्डनियुक्ति गाथा प्रज्ञापनोपाङ्गसटीक पद प्रशमरति आर्या मलयगिरीया टीका महानिशीथसूत्र अध्ययन विशेषावश्यकमहाभाप्य गाथा बृहत्कल्पविशेषचूर्णि व्यवहारसूत्र भाप्य पीठिका गाथा व्यवहारसूत्र उद्देश भाप्य गाथा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श० उ० शतक उद्देश श्रु० अ० उ० श्रुतस्कन्ध अध्ययन उद्देश सि० । सिद्धहेमशब्दानुशासन सिद्ध सि० हे० औ० सू सिद्धहेमशब्दानुशासन औणादिक सूत्र हैमाने० द्विस्व० हैमानेकार्थसङ्ग्रह द्विस्तरकाण्ड यत्र टीकाकृद्भिग्रन्थाभिधानादिकं निर्दिष्टं स्यात् तत्रास्माभिरुल्लिखितं श्रुतम्कन्ध-अध्ययन-उद्देश-गाथादिकं स्थानं तत्तद्ग्रन्थसत्कं ज्ञेयम् , यथा पृष्ठ १५ पं० ९ इत्यादि । यत्र च तन्नोल्लिखितं भवेत् तत्र सूचितमुद्देशादिकं स्थानमेतन्मुद्यमाणबृहत्कल्पग्रन्थसत्कमेव ज्ञेयम् , यथा पृष्ठ २ पंक्ति २.३-४, पृ० ५ पं० ३, पृ० ८ पं० २७, पृ० ११ पं० २७, पृ० ६७ पं० १२ इत्यादि । प्रमाणत्वेनोद्धृतानां प्रमाणानां स्थानदर्शक ग्रन्थानां प्रतिकृतयः। शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सुरत । आगमोदय समिति । रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । आगमोदय समिति । अनुयोगद्वारसूत्रअनुयोगद्वारसूत्र चूर्णीअनुयोगद्वारसूत्र सटीक) मलधारीया टीका आचाराङ्गसूत्र सटीकआवश्यकसूत्र चूर्णीआवश्यकसूत्र सटीक (श्रीमलयगिरिकृत टीका)। आवश्यकसूत्र सटीक (आचार्य श्रीहरिभद्रकृत टीका)। आवश्यक नियुक्तिओघनियुक्ति सटीककल्पचूर्णिकल्पबृहद्भाप्यकल्पविशेषचूर्णिकल्प-व्यवहार-निशीथसूत्राणि--- आगमोदय समिति । आगमोदय समिति प्रकाशित हारिभद्रीय टीकागत । आगमोदय समिति हस्तलिखित । जैनसाहित्यसंशोधक समिति । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिगमसूत्र सटीकदशवैकालिक नियुक्ति टीका सहदशाश्रुतस्कन्ध अष्टमाध्ययन । (कल्पसूत्र) देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरण सटीकनन्दीसूत्र सटीक । (मलयगिरिकृत टीका)। निशीथचूर्णिपिण्डनियुक्तिप्रज्ञापनोपाङ्ग सटीकबृहत्कर्मविपाकमहानिशीथसूत्रराजप्रश्नीय सटीकविपाकसूत्र सटीकविशेषणवतीविशेषावश्यक सटीकव्यवहारसूत्रनियुक्ति भाष्य टीकासिद्धप्राभृत सटीकसिद्धहेमशब्दानुशासनसिद्धान्तविचारसूत्रकृताङ्ग सटीकस्थानाङ्गसूत्र सटीक आगमोदय समिति । शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सुरत । शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । आगमोदय समिति । हस्तलिखित । शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । आगमोदय समिति । श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । हस्तलिखित । आगमोदय समिति । रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । श्रीयशोविजय जैन पाठशाला बनारस । श्रीमाणेकमुनिजी सम्पादित । श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । शेठ मनसुखभाई भगुभाई अमदावाद । हस्तलिखित । आगमोदय समिति । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रासंगिक निवेदन । xeccccecor . प्रस्तुत नियुक्ति-भाग्य-वृत्तिसहित वृहत्कल्पसूत्रना वीजा विभागना संशोधनमाटे अमे ते ज अने तेटली ज हस्तलिखित प्रतिओ कामे लीधी छे जे अने जेटली प्रतिओ पीठिका विभागना संशोधनमां कामे लीधी छे । ए प्रतिओनो विस्तृत परिचय पीठिका विभागमा (मुद्रित प्रथम विभागमां) आप्या पछी आ विभागमा पुनः ए प्रतिओनो परिचय आपवानी आवश्यकता रहेती नथी । मात्र पीठिकाविभागना 'लिखित प्रतिओनो परिचय'मां नियुक्ति-भाग्य-वृत्तिसहित बृहकल्पसूत्रना खंडो-विभागोना संबंधमां अमे जणाव्युं छे के "पाटण खंभात लींबडी जेसलमेर आदिना भंडारोमांनी ताडपत्र उपर लखाएल प्रतिओ त्रण खंडमां अने कागळ उपर लखाएल प्रतिओ चार खंडमां लखाएल नजरे पडे छ” आ संबंधमां अमारे अहीं मात्र एटलुं ज उमेरवानुं छे के चालु बृहत्कल्पसूत्रनी ताडपत्रीय प्रतिओनी जेम केटलीक वार कागळनी प्रतिओ पण त्रण खंडमां लखाएली जोवामां आवे छे अने ए रीते अमारा पासे पाटण-भाभाना पाडाना भंडारनी कागळनी जे प्रति छे ए त्रण खंडमां लखाएली छे । __ प्रतिओना खंडो केटलीक वार पुस्तक लखनार-लखावनारनी गफलतने लीधे अनियत रीते लखाएला जोवामां आवे छे । दाखला तरीके दरेक हस्तलिखित प्रतोमा प्रथमखंडनी समाप्ति मासकल्पप्रकृतनी पूर्णता थाय छे त्यां थाय छे ज्यारे भाभाना पाडानी प्रतिमा २०५० गाथाना अवतरण पछी थाय छे (जुओ मुद्रित विभाग पत्र ५९३ पंक्ति २ अने टिप्पणी १) । आ ठेकाणे खंडनी समाति थवी ए मात्र लखनार-लखावनारनी गफलतनुं ज परिणाम छे । कारण के ते पछी थोडे ज अंतरे मासकल्पप्रकृतनी समाप्ति थाय छे । मुद्रित प्रथम विभागमा पीठिकानो समावेश करवामां आव्यो छे अने ते पछीना आ वीजा विभागमा प्रथम उद्देशनी शरुआत थाय छे । ए उद्देशनां वे प्रकृतोनो-प्रकरणोनो अर्थात् 'प्रलंबप्रकृत' अने 'मासकल्पप्रकृत'नो आ विभागमा समावेश थाय छे । प्रथम उद्देशनां एकंदर पचास सूत्रो छे ए. पैकीनां नव सूत्रोनो ज मात्र आ विभागमा समावेश थयो छे । आ पछीना मुद्रित त्रीजा विभागमा प्रथम उद्देश समान थइ चूक्यो छे । ___आ विभागमा प्रलंबप्रकृत अने मासकल्पप्रकृत ए वे विभागो पाडवामां आव्या छे ए अमे पाड्या नथी परंतु भाष्यकार-चूर्णीकारना जमानाना ए विभागो छ। प्रतिओनी समविषमता-पीठिकाविभागमा प्रतिओनो परिचय आपतां अमे जणाव्युं छे के "कां० प्रति मो० ले० प्रतिओनी साथे समानता धरावे छे" परंतु अमे जेम जेम आगल चाल्या तेम तेम कां० प्रति घणी खरी वार वधीये प्रतिओथी जुदी पडी गई छे । अमने लागे छे के कां० प्रतिनो आदर्श जे प्रति उपरथी थयो छे तेमां गमे तेणे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासंगिक निवेदन । ११ गमे त्यारे अने गमे ते कारणे केटलीक वार बहुज फेरफार कयों छ । आ फेरफार केटलीक वार संगत अने ठीक पण होय छे अने केटलीक वार तद्दन साधारण पण होय छे । केटलीक वार नवो फेरफार करतां भूलथी पहेलाना पाठो काढी नाखवा रही गया छे तेवे ठेकाणे नवा-जुना पाटोनुं खीचड़े थतां गोटाळो पण थइ गयो छे । अस्तु ए गमे तेम हो पण एवा पाठो जोतां आपणने खात्री थाय छे के आ जाननो सुधारो वधारो कोइए पाछळी इरादा पूर्वक कर्या छ । कां० प्रति घणी खरी वार भा० प्रतिना पाठभेद साथे अंत सुधी मळती पण रही छे । कां० भा० प्रतिना खास खास पाठभेदोने अमे टिप्पणमां ज नोंध्या छे अने मो० ले० त० डे० प्रतिना पाठोने ज मुख्यत्वे करीने मूळमां राख्या छ । खास करी चाली शके त्यांसुधी मो० ले० प्रतिना पाठोने ज मूळमा राखवा यत्न कयों छे। प्रस्तुत प्रकाशनना संशोधन माटे नियुक्ति-भाष्य-वृत्तिसहित बृहत्कल्पसूत्र प्रथमखंडनी एकंदर अमे जे छ प्रतो भेगी करी छे तेमां मो० ले, प्रतिनो एक वर्ग छे, त. डे० नो बीजो वर्ग छे, कां० त्रीजो वर्ग छे अने भा० नो चोथो वर्ग छे । आ चारे वर्गमां केटलीये वार एवं वन्युं छे के अमुक उपयोगी पाट अमुक एक ज वर्गमां होय अने वीजा वर्गनी प्रतिओमां ए पाठ सदंतर पड़ी ज गयो होय; आवे स्थळे घणी खरी वार अमे ते ते उपयोगी पाटने A» आवा चिह्नना वचमां मूळमां आपी, कई कई प्रतोमा ए पाठ, नथी अथवा कई प्रतमा ए पाठ छे ए अमे नीचे टिप्पणीमा जणाव्युं छे । प्रस्तुत विभागना संशोधनमा तेम ज पाठान्तर वगैरेनी नोंध करवामां अमे गुरु-शिष्ये अति सावधनता राखी छे छतां ए संबंधमां जे स्वलनाओ थई होय ते बदल अमे 'मिथ्यादुष्कृत' दइए छीए । जे महाशयो अमारी स्खलनाओ तरफ अमारं ध्यान खेंचशे तेनो यथायोग्य साभार स्वीकार करीशुं एटलं कही विरमीए छीए । निवेदक-गुरु-शिष्य मुनि चतुरविजय-पुण्यविजय Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ॥ अहम् ॥ वृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । प्रथम उद्देश। गाथा पत्र २५५-३४० २५५ २५६-३१५ २५६-५७ २५७-६० २५७-५८ विषय ८०६-१०८५ १ प्रलम्बप्रकृत सूत्र १-५ अनुगमद्वार ८०६-१००० प्रलम्बसूत्र १ लं निर्ग्रन्थ-निर्माओमाटे ताल अने प्रलंब लेबानो निषेध प्रलम्बसूत्रनो संहिता, पद आदि विधिथी शब्दार्थ प्रथम प्रलम्बसूत्रनी संक्षिप्त व्याख्या 'नो' शब्द अने 'निम्रन्थ' शब्दनी व्याख्या [गाथा ८०७-तालप्रलम्बने अंगे अपवाद.] ८०९-१४ प्रथम प्रलम्बसूत्र 'नो'शब्दथी शरु थतुं होई अमं गलरूप होवाने कारणे प्रस्तुत सम्पूर्ण शास्त्र पण अमंगलरूप थई जाय छे ए प्रकारनी शिष्यनी शंका अने तेनुं समाधान ८१५-६२ प्रलम्बसूत्रनी विस्तृत व्याख्या ८१५ प्रलम्बसूत्रनी व्याख्यामाटे द्वारगाथा ८१६-२२ १ आदिनकार द्वार 'अ'कार 'मा'कार 'न'कार अने 'नो'कार द्वारा पदार्थनो निषेध करवामां अर्थनो फरक, ए फरक बताववामाटेनां उदाहरणो अने प्रस्तुत प्रथम प्रल म्बसूत्रमा रहेला 'नो' पदना अर्थनी संगति ८२३-३८ २ ग्रन्थद्वार ८२३-२४ 'ग्रन्थ' पदनी व्याख्या ८२५-३० क्षेत्र १ वास्तु २ धन ३ धान्य ४ संचय ५ मित्र ज्ञातिसंयोग ६ यान ७ शयन-आसन ८ दासी-दास ९ कुप्य १० ए दश प्रकारनो बाह्य ग्रन्थ अने तेनुं स्वरूप २५८-६० २६१-७५ २६१ २६१-६२ २६३-६७ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । १३ गाथा पत्र ८३१ २६४ ८३२-३८ २६७-७० ८३९-४६ २७०-७२ ८४७-४८ २७२ २७२-७५ . 0 ८४९-५७ ८४९ ८५० ८५१-५२ ८५३-५७ विषय [गाथा ८२८ टीका-सत्तर प्रकारनां धान्य] क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चौद प्रकारना अभ्यन्तर ग्रन्थ- स्वरूप [ टीकामां-मिथ्यात्वना प्रकारो, नयवाद, परसमय अने मिथ्यात्वनी संख्यानी समानता] 'निर्ग्रन्थ' पदनुं स्वरूप [८३४-३५-उपशमश्रेणि अने क्षपकश्रेणिर्नु वर्णन] ३ आमद्वार 'आम'पदना निक्षेपो ४ तालद्वार 'ताल'पदना निक्षेपो ५ प्रलम्बद्वार 'प्रलम्ब'पदना निक्षेपो ताल अने प्रलम्बनो अर्थ मूलप्रलम्ब अने अग्रप्रलम्बनुं स्वरूप 'प्रलम्ब' पद सूत्रमा मूकवाथी उत्पन्न थती शंका अने तेनुं समाधान ६ भिन्नद्वार 'भिन्न' पदना निक्षेपो, द्रव्यभिन्न भावभिन्नपदनी चतुर्भङ्गी अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो प्रलम्बग्रहणने लगतां प्रायश्चित्तो प्रलम्बग्रहणने लगनां प्रायश्चित्तोनी द्वारगाथा प्रलम्बग्रहणने आश्री अन्यत्रग्रहणना प्रकारो अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो। अन्यत्रप्रलम्बग्रहणना अर्थात जे स्थानमां ताड आदिनां वृक्षो होय ते करतां बीजा स्थानमा रहेल प्रलम्बादिने ग्रहण करवाने लगता प्रकारो द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावने आश्री वस्तीवाळा प्रदेशमा रहेल प्रलम्बादिना ग्रहणने लगतां प्रायश्चित्तो २७३-७५ ८५८-६२ २७५ २७६-१२ ८६३-९२३ ८६३ ८६४-८९ २७६-८३ २७६ ८६५-७१ २७६-७९ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ गाथा ८७२-७६ ८७७-८० ८८१-८४ ८८५-८९ ८९०-९२३ ८९० ८९१ ८९२-९४ ८९५-९०६ ९०७ ९०८-२३ erreपसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय ratni रहे प्रलम्बादिना ग्रहणने आश्री दिवसरात्रि, मार्ग-उन्मार्ग, उपयुक्त अनुपयुक्त अने सालम्बनिरालम्ब पदो द्वारा १६ भांगाओ अने ते भांगाओनो शुद्धाशुद्ध विभाग अटवीमां रहेल प्रलम्बादिना ग्रहणनिमित्ते बतावेल १६ भांगाओमां यथायोग्य प्रायश्वित्तोनुं निरूपण अटवीमा रहेल प्रलम्बादिना ग्रहणद्वारा एकाकी भिक्षुने ती आत्मविराधना -तेने पोताने थनां नुक शानो अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो अटवीमा रहेल प्रलम्बादिना ग्रहण निमित्ते जनार भिक्षुना सहायकोना प्रकाशे अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो तत्र प्रलम्वग्रहणं स्वरूप तलम्बग्रहण अर्थात् जे स्थानमां ताड आदिनां वृक्षो होय त्यां जइने पोतानी मेळे पडेलां अचित्त प्रलम्बादिने ग्रहण करवाने लगतां प्रायश्चित्त वगेरेनी भलामण जे स्थानमा ताड आदिनां झाडो होय त्यां जई सचित्त प्रलम्बादिना ग्रहणने लगती प्रतिपादनीय वस्तुनो निर्देश देव, मनुष्य अने तिर्यचनी मालकीवाला प्रलम्बादिनुं स्वरूप देव, मनुष्य वगेरेए स्वाधीन करेल पोतानी मेळे पडेल अचित्त प्रलम्बादिने तेना स्वामीनी सम्मति सिवाय लेवाथी भद्र-प्रान्त - सज्जन - दुर्जन मनुष्यादिद्वारा उभा थता दोषो, ए दोषोनुं स्वरूप अने तेने अंगेनां प्रायश्चित्तो सचित्त प्रलम्बादिना तत्रग्रहणने अंगे प्रतिपादनीय विषयनी भलामण अने वधाराना विषयनो निर्देश सचित्त प्रलम्बादिना तत्रग्रहणने लक्षी प्रक्षेपण, आरोहण अने पतननुं तेमज ते द्वारा थती आत्मसंयमादि विषयक विराधनानुं स्वरूप अने प्रायश्चित्तो पत्र २७९-८० २८०-८१ २८१-८२ २८२-८३ २८३-९२ २८३ २८४ २८४-८५ २८५-८७ २८८ २८८-९२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ९२४-३५ ९२४-२७ ९३६-५० ९५१-१००० ९५१-५७ ९५८ ९५९-६० ९६१-१००० ९६१-६६ ९६१-६३ ९६४ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय प्रलम्बादिना ग्रहणी लागता आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व अने आत्म-संयमविराधना ए चार दोपोनुं विस्तृत वर्णन अपराध करनार करतां आज्ञाभंग करनार वधारे दोषपात्र छे ए विषये 'राजमान्य छ पुरुषोनी रक्षामाटे राजानी घोषणा नुं उदाहरण प्रलम्बादिना ग्रहणने अंगे बतावेल विध विध प्रकानां प्रायश्चित्तो आचार्यादि गीतार्थ अगीतार्थ पैकी कोने कोने लक्षीने छे ? एनुं कथन [ गाथा ९३६ टीकामां- आचार्यविषयक अभंगी गाथा ९३७ - ३९ - गच्छनी संभाळ नहि लेनार आचार्यनो अज्ञान अने व्यसनी राजानी जेम त्याग गाथा ९४० - सात व्यसनो गाथा ९४१ - आचार्य विषयक चतुभंगी ] गीतार्थना विशिष्ट गुणो-लक्षणो गीतार्थना विशिष्ट गुणोनुं स्वरूप गीतार्थने प्रायश्चित्त नहि लागवानां कारणो 'कृतयोगी' पदनी व्याख्या उत्सर्ग अपवादना बलाबलने विचारी अपवादने सेवनार गीतार्थं योगिपणुं अने ते गीतार्थनी तीर्थकर साथै सरखामणी गीतार्थी तीर्थकर साथ सरखामणी १ श्रुतकेवली गीतार्थनी केवली साथै समानता द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावविषयक, तेम ज सचित्त, अचित्त, मिश्र, अनन्त वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति आदि प्रज्ञापनीय-वर्णवी शकाय तेवा पदार्थोनो तेनां विशिष्ट लक्षणो द्वारा निर्णय करवानी अपेक्षाए श्रुतकेवली गीतार्थ अने केवलज्ञानीनुं सरखाप प्रज्ञापनीय अप्रज्ञापनीय पदार्थोनुं प्रमाण पत्र १५ २९२-९५ २९५ - ३०० ३००-१५ ३००-२ ३०२ ३०२-३ ३०३-१५ ३०३-५ ३०३ ३०४ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ गाथा ९६५ ९६६ ९६७-८० ९८१ ९८२-८४ ९८५-१००० बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय श्रुतकेवलिनां वृद्धि हानिनां पदस्थानो पदार्थोना निर्वचन - निरूपणना प्रकारनी अपेक्षाए गीतार्थ अने केवलिनुं समानत्व २ चतुर्विध ज्ञानद्वार द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव ए चतुर्विध ज्ञाननी अपेक्षाए प्रत्येक अने अनन्त वनस्पतिनां लक्षणो अने तेना सचित्त, अचित्त, मिश्र विभागनुं निरूपण [ गाथा ९७३-७५ - लवण, हरिताल, मणसिल, खजूर, द्राक्षा वगेरेना सचित्त-अचित्तपणानो विभाग, तेनां कारणो अने तेनुं आचीर्ण-अनाचीर्णपणुं ] ३ ग्रहणद्वार प्रलम्बना ग्रहण अने प्रक्षेपक - भक्षणविषयक चतुभंगी अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो ४ तुल्ये राग-द्वेषाभावे द्वार प्रायश्चित्तो आपवामां सामान्य रीते देखाती विषमताने अंगे आचार्य उपर राग-द्वेषपणानो आक्षेप अने तेनुं समाधान ५. अनन्तकायवर्जनाद्वार अनन्तकायनो निषेध, तेनां कारणो, अचित्त प्रत्येक वनस्पति अने अनन्त वनस्पतिना ग्रहणमां अजीवत्व समान होवा छतां प्रायश्चित्तमां भेद पाडवानुं कारण वगेरे बावतोनुं उदाहरण साथे निरूपण [ गाथा ९८८-९४ - इक्षुकरण, महर्द्धिक, दारुभर, स्थली, पिशितवर्जक अने मद्यपनां दृष्टान्तो गाथा ९९५-९९ – गुरुओए आचरेला मार्ग पैकी योग्य मार्गोनुं ज अनुसरण करवानी आज्ञा अने ते प्रसंगे भगवान् महावीरे अनाचीर्ण गणेल अचित्त तलनां गाडi, द्रहनुं अचित्त पाणी अने अचित स्थण्डिलभूमीना प्रसंगनी यादगारी ] १५ पत्र ३०४ ३०५ ३०५-८ ३०८ ३०८-९ ३०९-१५ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पमत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । १७ गाथा विषय पत्र ३१५-२५ ३१५ ३१५-१६ १००१-२ १००३-११ ३१६-१८ १०१२-१७ ३१८-२० ३२०-२१ १०१८-२२ १०२३-३३ प्रलम्बसूत्र २ जु निर्ग्रन्ध-निर्ग्राओमाट भागेला ताल-प्रलम्बने ग्रहण करवा विषयक अपवाद बीजा प्रलम्बसूत्रनी व्याख्या वीजा प्रलम्बसूत्रनुं आपवादिक सूत्र तरीके समर्थन दृष्टान्त द्वारा वीजा प्रलम्बसूत्रना आपवादिक समर्थन सामे शिष्यनो विरोध अने तेनो परिहार [गाथा १००५-विपोपभोगनुं दृष्टांत ] वीजा प्रलम्बसूत्रनुं आपवादिक सूत्र तरीके महत्त्व स्थापित करवा माटे चार मरुकनुं दृष्टान्त अने तेनो उपनय अध्यद्वार निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओमाटे देशान्तर गमननां कारणो अने तेनो विधि ग्लानद्वार रोग अने आतंकनो भेद ग्लानअवस्था-मांदगीमाटे विधि ग्लानमाटे यतनाओ [गाथा १०२८-आठ प्रकारना वैद्यो गा० १०३०-भंडी अने पोतनां उदाहरणो] त्रीजुं चोथु पांचमुं प्रलम्बसूत्र निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओमादे पक्कताडप्रलंबग्रहण-निषेध विषयक सूत्रो 'पक्क' पदना निक्षेपो भिन्न अने अभिन्न पदनी व्याख्या, तद्विषयक षड्भङ्गी अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो 'अभिन्न' पढ़ना सम्बन्धमा निर्ग्रन्थीने आश्री विस्तृत व्याख्या [गा० १०५१-देवीनु-राजराणीनुं दृष्टान्त ] अविधिभिन्न अने विधिभिन्न तालप्रलंब ३२१-२४ ३२१-२२ ३२२ ३२२-२४ १०२५-२६ १०२७-३३ १०३४-८५ ३२५-४० ३२५ १०३४-३५ १०३६-४४ ३२६-२७ १०४५-५४ ३२७-३० १०५५-५८ ३३०-३१ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ गाथा पत्र १०५९-६७ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने विधिभिन्न अने अविधिभिन्न ताडप्रलंब जे प्रकारना देश काळमां जे रीते कल्पनीय अकल्पनीय छे, तेने अंगे जे जे गुण, दोष अने प्रायश्चित्तो छ ए आदिनुं विस्तृत वर्णन निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने दुकाल आदिना समयमा एक बीजाना अवगृहीत-अनुज्ञात क्षेत्रमा रहेवानो विधि, तेना १४४ भांगाओ अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो ३३१-३४ १०६८-८५ ३३४-३६ ३४१-६१० ३४१-५८८ ३४१ ३४१ ३४२-४३ ३४३ ३४३-४८ १०८६-२११४ २ मासकल्पप्रकृत सूत्र-६-९ १०८६-२०३३ मासकल्पविषयक प्रथम सूत्र .१०८६-८७ प्रलंबप्रकृत साथे मासकल्पप्रकृतनो संबंध मासकल्पविषयक प्रथम सूत्रनो संक्षिप्त अर्थ मासकल्पविषयक प्रथम सूत्रनी विस्तृत व्याख्या ग्राम, नगर, खेड, कबंटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, पुटभेदन, शंकर आदि प्रथम सूत्रान्तर्गत पदोनी व्याख्या १०९४ ग्रामपदना निक्षेपो १०९५-११११ ग्रामपदनो द्रव्यनिक्षेप अने तेनी नयो द्वारा विचारणा [गाथा ११०३-८ उत्तानकमल्लक, अवाङ्मुखमलक, संपुटकमल्लक, उत्तानकखंडमल्लक, अवाङ्मुखखण्डमल्लक, सम्पुटकखण्डमल्लक, भित्ति, पडालि, वलभी, अक्षाटक, रुचक, काश्यपक आदि गामना प्रकारो अने तेनुं स्वरूप] १११२-१३ पू० भूतप्राम, आतोद्यप्राम, इन्द्रियग्राम, पितृग्राम अने मातृप्राम निक्षेपो १११३ उ०-१९ भावप्राम निक्षेप ११२० नगर, खेड, कर्बटक आदि पदोना निक्षेपोनी भलामण ११२१-२५ परिक्षेपपदना निक्षेपो ११२६-३० मासपदना निक्षेपो [११२८-३०-नक्षत्रमास, चंद्रमास, ऋतुमास, आदित्यमास अने अभिवर्धितमासतुं स्वरूप] ३४८-५० ३५०-५१ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पत्र: ३५३-४२६ ३५३-५७ ३५७-६५ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय ११३१ मासकल्प विहारीओ ११३२-१४२४ जिनकल्पिकनुं खरूप ११३२-४२ १जिनकल्पिकनी दीक्षा धर्म, धर्मोपदेशक, धर्मोपदेशने लायक भवसिद्धिकादि जीवो अने धर्मोपदेशनो विधि-क्रम अने ए क्रमना भङ्गथी थता दोष आदिनुं निरूपण [गाथा ११४१ -वीरशुनिकानुं दृष्टान्त ] ११४३-१२१८ २ जिनकल्पिकनी शिक्षा ११४३-६१. दीक्षा लेनारे संयममार्ग- आराधन जतुं करी शामाटे अभ्यास करवो ए संबंधमा आचार्य अने शिष्यनो संवाद अने एक बीजाए स्वपक्षना समर्थनमाटे आपेलां गजनान, श्लीपदी, आतुर, अन्धस्थविर (सोमिल ब्राह्मण) अने यवराजर्षिनां दृष्टान्तो अने अंतमां शास्त्राभ्यासनी आवश्यकतानुं समर्थन ११६२-७१ शास्त्राभ्यासथी थता आत्महित, परिज्ञा-वस्तुस्वरूपनी ओळख, भावसंवर-तात्त्विकत्याग, संवेग-वैराग्य, संयममार्गमां निष्कम्पता, स्वाध्यायरूप तात्त्विक तपनी वृद्धि, निर्जरा, परतारकपणुं आदि गुणो ११७२ जिनकल्पिक क्यारे होय ? ११७३-७५ स्थविर आदिने छोडी तीर्थकरनी पासे शास्त्राभ्यास माटे रहेवामा दोषो १९७६-१२१७ समवसरणनी वक्तव्यता जैन तीर्थकरोने धर्मोपदेश आपवामाटेनुं व्यासपीठ ३५७-६२ ३६२-६४ ३६४ ३६४-६५ ३६५-७७ ११७६ ११७७-९४ १९७७-८० ३६६-७१ समवसरणवक्तव्यताविषयक द्वारगाथा १ समवसरणद्वार वैमानिक, ज्योतिष्क, भवनपति, व्यंतर आदि देवो एकीसाथे एकत्र मळ्या होय त्यारे समवसरणनी जमीन साफ करवी, सुगंधी पाणी फूल आदिनो वरसाद वरसाववो, समवसरणना प्राकार, कांगरा, दरवाजा, पताका, ध्वज, तोरण, चित्र, चैत्यवृक्ष, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा ३६७ - ३६७-६८ ३६८-६९ विषय पीठिका, देवच्छंदक, आसन, छत्र, चामर आदिनी रचना व्यवस्था वगेरे कोण अने केवा प्रकारे करे ? तेनुं वर्णन ११८१ इन्द्र वगेरे महर्द्धिक देवो एकले हाथे पण समवस रणनी रचना करे ११८२-८४ समवसरणमां तीर्थकरो क्यारे, कई दिशाथी अने केवी रीते प्रवेश करे ? तेमज कई दिशामा मुख राखी उपदेश आपे ? मुख्य गणधर क्या बेसे ? बीजी दिशाओमां भगवाननां प्रतिबिंवो केवां होय ? वगेरे ११८५-८८ गणधर, केवली, अतिशयवान् साधु, साध्वी, देव, देवी, मनुष्य वगेरे पर्षदाओ समवसरणमां क्यां वेसे अथवा उभी रहे ? तेनुं वर्णन १९८९ समवसरणमां धर्मश्रवणमाटे एकत्र थयेला देव, मनुष्य, तिर्यंच वगेरेनी मर्यादा तेमज पारस्परिक ईर्षा वैरवृत्ति वगेरेनो त्याग ११९० समवसरणमां वीजा त्रीजा प्राकारमा तेमज बहारना भागमां शुं शुं होय तेनुं वर्णन ११९१-९२ तीर्थकरनी अमोघ देशना अने तेमनुं अमूढलक्ष्य ११९३-९४ धर्मोपदेशनी आदिमां तीर्थकरोद्वारा तीर्थने नमस्कार अने तेनां कारणो ११९५ २ केवइयाद्वार समवसरणमां श्रमणे केटले दूरथी आवq जोइए ११९६-१२०० ३ रूपद्वार तीर्थकर, गणधर, आहारकशरीरी, अनुत्तर देव आदि देवो, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदिना रूपर्नु तथा तेमना संघयण, संठाण, वर्ण, गति, सत्त्व, उच्छ्वास आदिनुं तेमज शुभाशुभ प्रकृतिओनुं खरूप १२०१ ४ पृच्छाद्वार तीर्थकरतुं रूप सर्वोत्कृष्ट होबार्नु कारण ३६९ ३७०-७१ ३७१ ३७१ ३७१-७२ ३७२ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२०२-३ १२०४-६ १२०७ - १० १२११-१२ १२१३-१४ १२१५-१७ * १२१८ १२१९-२२ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय ५ व्याकरणद्वार तीर्थकरो श्रोताना संशयोनुं समाधान कई रीते करे ? ६ श्रोतृपरिणामद्वार तीर्थकरनी एक रूपे बोलाती भाषा भिन्न भिन्न भाषाभाषी श्रोताओने केवा रूपे परिणमे ? तेमज तेमनी वाणी सांभळवामां श्रोतानी रसवृत्ति केवी रहे ? तेनुं वर्णन अने ते विषे किढिवाणिजदासीनुं उदाहरण ७ दानद्वार तीर्थकरना आगमनने लगता समाचार निवेदन कर - नारने चक्रवर्त्ति, बलदेव, वासुदेव आदि तरफथी अपातुं प्रीतिदान अने तेथी थता गुणो ८ देवमाल्य - बलिद्वार समवसरणमां तीर्थकर सामे उछाळाती बलिमादे अक्षत-चोखा वगेरे कोण तैयार करे ? ९ देवमाल्यानयनद्वार समवसरणमां बलिने क्यारे लाववामां आवे ? तेने केवी रीते उछाळवामां आवे ? ते बलिने शेप तरीके कोण कोण लई जाय ? अने ए शेषने लेवाथी थता फायदाओनुं वर्णन १० उपरितीर्थद्वार तीर्थकर धर्मोपदेश आपी देवच्छंदामां जाय ते पछी गणधर उपदेश आपे, गणधरोना उपदेश आपवाधी थता लाभो अने तेमना ज्ञानादि गुणोनुं वर्णन * जिनकल्पिकनी शास्त्रविषयक शिक्षा 88 $3 जिनकल्पिकनी शास्त्रना अर्थविषयक शिक्षा [गाथा १२१९ - -वृपभ अने शालिकरणनां दृष्टान्तो गाथा १२२१ – संज्ञासूत्र, स्वसमयसूत्र, परसमयसूत्र, उत्सर्गसूत्र, अपवादसूत्र, हीनाक्षरसूत्र, अधि २१ पत्र ३७२-७३ ३७३-७४ ३७४-७५ 8 ३७५ ३७६ ३७६-७७ ३७७ ३७७ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ गाथा १२२३-४० १२४१-७९ १२४१-४९ १२५०-७९ १२८० - १३७१ १२८१-८४ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय काक्षरसूत्र जिनकल्पिकसूत्र, स्थविरकल्पिकसूत्र, आर्यासूत्र, कालसूत्र, वचनसूत्र आदि सूत्रोना प्रकारो] ४. जिनकल्पिकनो अनियतवास भावी आचार्यने देशदर्शननी आवश्यकता अने तेथी थता लाभो ५ जिनकल्पिकनी निष्पत्ति जिनकल्पिके कल्प स्वीकारवा पहेलां तैयार करेलो शिष्यसमुदाय देशदर्शनमाटे नीकळेला भावी आचार्यना गुणोनी ख्याति सांभळी तेमनी पासे अन्य समुदायना श्रमणोनी ज्ञानादिमाटे उपसंपदा उपसंपदा स्वीकारवाने लगती सामाचारी उपसंपदाना प्रकारो, उपसंपदा स्वीकारनार अने आपनारनी स्थिरता - सहनशीलता - सामर्थ्य, उपसंपदा लेनारने आलोचना अने सामाचारीनुं कथन, उपसंपदा स्वीकारनारनो स्वीकार अने तेमने वाचना, जे निमित्ते उपसम्पदा लीधी होय ते विषयमां प्रमाद करनार शिष्योने आर्द्र छगण - लीलुं छाण, घट्टना, रुञ्चना, पत्रज्ञात, दुष्ट अश्व, अने चक्षुरोगी राजानां दृष्टान्तो द्वारा तेमनी फरजनुं भान कराव अने प्रायश्चित्तो [ गा० १२४३-४९ – भावी आचार्यनी तेमना गुणो द्वारा प्रसिद्धि गा० १२५९-६० – स्रुषा - पुत्रवधूनुं दृष्टान्त ] ६ जिनकल्पिकनो विहार जिनकल्प स्वीकारवा पहेलां जिनकल्पिकनी आत्मश्रेय माटे विचारणा जिनकल्प स्वीकारवामाटे विधि अने तेनां उपकरणो १२८५ १२८६ - १३५७ जिनकल्पिकनी भावनाओ पत्र ३८१-८४ ३८४-९५ ३८४-८६ ३८६-९५ ३९५-४१६ ३९५-९६ ३९६ ३९७-९८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा विषय १२८६-९२ जिनकल्पिकनी भावनाओ, तेना प्रशस्त, अप्रशस्त वे प्रकार अने तेना व्याख्याननो क्रम । ३९८ x ३९८-४०६ ३९९ ३९९-४०० ४०१-२ ४०४-५ १२९३-१३२७ अप्रशस्त भावनाओ १२९३-९४ अप्रशस्त भावनाओ अने तेनुं फळ १२९५-१३०१ १ कान्दी भावना कंदर्प, कौत्कुच्य, द्रवशील, हास्यकर, परविस्मा पक पदोनी व्याख्या १३०२-७ २ देवकिल्विषिकी भावना ज्ञानावर्णवाद, केवल्यवर्णवाद, धर्माचार्यावर्णवाद, साध्ववर्णवाद, मायी पदोनुं व्याख्यान १३०८-१४ ३ आभियोगी भावना कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्न, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त पदोनी व्याख्या १३१५-२० ४ आसुरी भावना अनुबद्धविग्रह, संसक्ततपाः, निमित्तादेशी, निष्कृप, निरनुकंप पदोनुं स्वरूप १३२१-२६ ५ साम्मोही भावना उन्मार्गदेशना, मार्गदूषणा, मार्गविप्रतिपत्ति, मोह, परमोहक पदोनुं स्वरूप १३२७ अप्रशस्त भावनाओD फळ १३२८-५७ प्रशस्त भावनाओ १३२८ प्रशस्त भावनाओना प्रकार १३२९-३२ १ तपोभावना १३३३-३९ २ सत्त्वभावना अने नेना अभ्यासमाटे पांच प्रतिमाओ १३४०-४४ ३ सूत्रभावना १३४५-५२ ४ एकत्वभावना अने ते विपे पुष्पचूल अनगारनुं दृष्टान्त १३५३-५७ - ५ बलभावना ४०५-६ ४०७-१२ ४०७ ४०८-१ ४१०-११ ४११-१२ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय पत्र ४१३-१४ ४१७-२३ १३५८-६५ जिनकल्पविषयक वधारानो विधि जिनकल्प स्वीकारवा पूर्व जिनकल्पनी तुलनाअभ्यास जिनकल्प स्वीकारती वेळानो विधि जिनकल्प स्वीकारनार आचार्ये कल्प स्वीकारती बखते गच्छपालनमाटे नवीन आचार्यनी स्थापना, गच्छ तथा नवीन आचार्यने शिखामण अने गच्छ, संघ वगेरे साथे खामणां आदि १३७८-१४१२ ७ जिनकल्पिकनी सामाचारी १३७८-८१ जिनकल्पिकनी दशविध चक्रवाल सामाचारी पैकीनी सामाचारीओ १३८२-१४१२ श्रुन, संहनन, उपसर्ग, आतंक, वेदना, कतिजनाः, स्थण्डिल, वसति, कियञ्चिर, उच्चार, प्रश्रवण, अवकाश, तृणफलक, संरक्षणता, संस्थापनता, प्राभृतिका, अग्नि, दीप, अवधान, वत्स्यथ कति जनाः, भिक्षाचर्या, पानक, लेपालेप, अलेप, आचाम्ल, प्रतिमा, मासकल्प ए २७ द्वारवडे जिनकल्पिकनी सामाचारीनुं विस्तारथी वर्णन १४१३-२४ ८ जिनकल्पिकनी स्थिति-विद्यमानता क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिङ्ग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रवाजना, मुण्डापना, प्रायश्चित्त, कारण, निष्प्रतिकर्म, भक्त-पंथ ए १९ द्वारो वडे जिनकल्पिकनी विद्यमा नतानुं वर्णन १४२५-३७ परिहारविशुद्धिकनुं स्वरूप १४३८-४५ यथालन्दिककल्पनुं स्वरूप १४४६-१९५५ गच्छवासीओ अने तेमनो मासकल्प विषयक विधि १४४६ गच्छवासीओमाटे प्रव्रज्या १ शिक्षापद २ अर्थ ग्रहण ३ अनियतवास ४ अने निष्पत्ति ५ ए पांच द्वारोनी जिनकल्पिकनी जेम भलामण ४१७-२३ ४२३-२६ ४२७-२९ ४२९-३१ ४३१-८७ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पत्र १४४७ ४३२ ४३२ १४४७-४९ १४५०-६३ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विपयानुक्रम । विषय ६ गच्छवासीओनो विहार गच्छवासीओना विहारनो समय अने मर्यादा विहार करवा अगाउ गच्छना निवास अने निर्वाह योग्य क्षेत्रने पडिलेहवानो-तपासवानो विधि अने क्षेत्रनी पडिलेहणामाटे क्षेत्रप्रत्युपेक्षकोने मोकलवा पहेला आखा गच्छने तेनी योग्य सम्मति तेमज सलाह लेवामाटे बोलाववानो विधि उत्सर्ग अने अपवादधी योग्य-अयोग्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षको अर्थात् गच्छने-साधुसमुदायने रहेवा लायक तेमज नहि रहेवा लायक क्षेत्रना गुण-दोपोनी पडिले. हणा-परीक्षा करनाराओ गच्छने वसवा योग्य क्षेत्रनी पडिलेहणामाटे जवानो विधि अने क्षेत्रमा तपास करवा योग्य वावतो क्षेत्रनी पडिलेहणा माटे केटला जण जाय अने केवी रीते जाय ? ४३२-३५ १४६४-७० ४३६-३७ १४७१ ४३७ १४७२ ४३७ ४३८-३९ १४७३-७८ गमनद्वार, नोदकपृच्छाद्वार आदि द्वारो क्षेत्र पडिलेहणामाटे जनार क्षेत्रप्रत्युपेक्षकोए विहारना मार्गा, रस्तामा स्थंडिलभूमि, पाणी, विसामानां स्थान, भिक्षा, रहेवामाटे वसति-उपाश्रय, चोर जंगली प्राणी वगेरेनो उपद्रव आदिनी तपास करवी आदि १४७९-९३ पडिलेहणा करवा योग्य क्षेत्रमा प्रवेश करवानो विधि अने भिक्षाचर्या द्वारा क्षेत्रनी अर्थात् त्यांना निवासी लोकोनी मनोवृत्ति, भिक्षा औपध वगरे वस्तुनी सुलभता-दुर्लभता, निर्दोष वसति-उपाश्रय आदिनी पडिलेहणा-तपास १४९४-१५०४ गच्छवासीओना निवासयोग्य उपाश्रयो अने तेनी पडिलेहणानो विधि १५०५-१० महास्थंडिलनी पडिलेहणा अने तेना गुण-दोषो १५११-१२ गच्छवासी यथालंदिकोमाटे क्षेत्रनी पडिलेहणा ४३९-४२ ४४२-४५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र ४४७-४८ १५१३-२० १५२१-३० ४४९-५१ १५३१-४२ ४५१-५४ १५४५-४६ ४५५ ४५५-५६ १५४७-५० १५५१ ४५६ १५५२-५३ विषय प्रतिलिखित क्षेत्रनी अनुज्ञानो विधि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकोए आचार्यादि समक्ष क्षेत्रना गुणदोषोने निवेदन करवानो अने जवा लायक क्षेत्रनो निर्णय करवानो विधि विहार करवा अगाउ जेनी वसतिमा रह्या होय तेने पूछवानो विधि. अविधिथी पूछवामां दोष अने प्रायश्चित्तो. विहार करवा पहेला विधिपूर्वक वसतिना स्वामीने उपदेश आपवा पूर्वक विहारना समयनु सूचन गच्छवासीओए विहार करती वेळाए शुभ दिवस अने शुभ शकुन जोवानां कारणो शुभ शकुन अने अपशकुनो विहार करती वेळाए आचार्य शय्यातर-वसतिना मालीकने उपदेश देवो आदि विहार करती वेळाए आचार्य, बाळसाधु आदिना उपधिने कोण केवी रीते उपाडे ? अननुज्ञात क्षेत्रमा निवास विषयक प्रायश्चित्तो। गच्छवासीओनो पडिलेहेला क्षेत्रमा प्रवेश अने शुभाशुभ शकुनोनुं जोवू आचार्ये वसतिमा प्रवेश करवानो विधि वसतिमा प्रवेश कर्या पछी गच्छवासीओनी मर्यादा अने स्थापनाकुलोनी व्यवस्था वसतिमा प्रवेश कर्या पछी झोळी-पात्रां लीधेल अमुक साधुओने साथे लई आचार्य आदिनुं जिनचैत्यवंदनाः नीकळवू अने झोळी-पात्रां साथे लेवानां कारणो जिनचैत्योना वंदन निमित्त जतां घरजिनमंदिरना दर्शनार्थे जवु अने दानश्रद्धालु, धर्मश्रद्धालु, ईर्ष्यालु, धर्मपराङ्मुख आदि श्राद्धकुलो, ओळखq स्थापनाकुलादिनी व्यवस्था, तेनां कारणो अने वीरशुनिकानुं दृष्टान्त चार प्रकारना प्राघूर्णक-प्राहुणा साधुओ ४५६-५७ ४५७-५९ १५५५-६१ १५६२-६८ ४५९-६० ४६०-६१ १५६९-७२ १५७३-७६ ४६१-६२ १५७७-७८ ४६२ १५७९ ४६३ १५८०-८८ १५८९-९० ४६५-६६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । २७ गाथा पत्र ४६७-६९ विषय १५९१ . स्थापनाकुलोमां जवानो विधि अने एकांतरे बेआंतरे स्थापनाकुलोमां नहि जवामां दोपो तेमज ते उपर वसुकी गएली गाय अने आराम-बगीचानां दृष्टांतो १५९२-१६०१ स्थापनाकुलोमां जवा लायक अथवा मोकलवा लायक वैयावृत्यकरो-गच्छनी सेवा करनार साधुओ अने तेमना गुण-दोषो १६०२-८ वैयावृत्य करनारना गुणोनी तपास करवानां कारणो अने श्रावकोने गौचरचर्याना दोषो समजाववाथी थता लामो [गाथा १६०७-लुब्धकनुं दृष्टान्त ] १६०९-१० स्थापनाकुलोमांथी विधिपूर्वक योग्य द्रव्योनुं लेQ १६११-१४ जे क्षेत्रमा एक ज गच्छ रहेलो होय तेमने आश्री स्थापनाकुलोमांथी भिक्षा लेवानी सामाचारी १६१५-२२ जे क्षेत्रमा वे त्रण आदि गच्छो एक वसतिमां अथवा जुदी जुदी वसतिओमां रह्या होय तेमने आश्री भिक्षा लेवा आदिनी सामाचारी ४६९-७१ ४७२ ४७२-७३ ४७४-७६ १६२३-३३ ४७६-७९ ७ गच्छवासीओनी सामाचारी स्थविरकल्पिको-गच्छवासीओनी चक्रवाल सामाचारी तेमज श्रुत, संहनन, उपसर्ग, आतंक, वेदना, कतिजनाः, स्थंडिल, वसति, उच्चार, प्रस्रवण, अवकाश, तृणफलक, संरक्षणता, संस्थापनता, प्राभृतिका, अग्नि, दीप, भिक्षाचर्या, पानक, लेपालेप, आचाम्ल आदि द्वारोने लक्षीने सामाचारी ८ स्थविरकल्पिकोनी स्थिति स्थविरकल्पिकोनी अर्थात् गच्छवासीओनी क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रत्राजन, मुंडापन, कारण, प्रतिकर्म आदि द्वारोने आश्री स्थिति-विद्यमानता ४७६-७९ ४७९-८७ १६३४-५५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा विषय पत्र [गाथा १६३९-४६-लेझ्या, ध्यान, चिंता, ध्यानान्तरिका, द्रव्यलेश्या, भावलेश्या वगेरेनुं स्वरूप गाथा १६४७-स्थविरकल्पिकोना द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावविषयक अभिग्रहोर्नु स्वरूप] ४८७-५८८ ४८७ ४८८-९२ ४९२ ४९३-९७ १६५६-२०३३ गच्छवासीनी वधारानी सामाचारी १६५६-५९ गच्छवासीओनी वधारानी सामाचारीने लगतां द्वारो १६६०-६९ १ प्रतिलेखनाद्वार वस्त्रादिनी पडिलेहणानो काळ, प्राभातिक प्रतिलेखनाना समयने लगता विविध आदेशो, प्रतिलेखनाना दोपो अने प्रायश्चित्तो, प्रतिलेखनामां अपवाद अने ते विपे अंगारगर्त्तपतित पुत्रनुं उदाहरण १६७०-७३ २ निष्क्रमणद्वार गच्छवासी आदिए उपाश्रयनी वहार क्यारे अने केटली वार नीकळवू ? १६७४-९१ ३ प्राभृतिकाद्वार सूक्ष्म अने वादर प्राभृतिकानुं वर्णन, गृहस्थादिना निमित्त तैयार कराएल, लिंपाएल तेमज छापलं चळाएल घर, वसति आदिमां रहेवा न रहेवाने लगतो विधि अने प्रायश्चित्तो १६९२-१७०४ ४ भिक्षाद्वार १६९२-९५ जिनकल्पिक आदि सात पिंडैषणा-पानैपणा पैकी कई कई एपणाधी पिंड आदि ग्रहण करे ? १६९६-१७०४ गच्छवासीओनो भिक्षाने लगतो विधि। गच्छवासीओए केटली वार अने कये वखते भिक्षामाटे जq ? संघाटकरूपे-साधुयुगल मळीने भिक्षामाटे जवू, एकला भिक्षाचर्याए जवामाटेनां कल्पित कारणो अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो, भिक्षा माटेनां उपकरणो वगेरे १७०५-४७५ कल्पकरणद्वार ४९७-५०४ ४९७-९८ ४९८-५०४ ५०४-१५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १७०५ - १३ १७१४- १६ १७१७-४७ १७४८-६७ १७६८-१८१५ १७६८-७० X १७७१-१८१५ १७७१-७२ १७७३ १७७४-७७ १७७८ -८३ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय reeबासी साधु आदिने लगतो पात्रां धोवा विपयक विधि लेपकृत अलेपकृत द्रव्यो [ विकृति अविकृतिनुं स्वरूप ] पात्रानो लेप-रंग सफाइदार होवाथी थता फायदाओ अने ते विषे एक श्रमणनुं दृष्टान्त पात्रांने कल्पकरवानां धोवानां कारणो अने तेने लगती प्रश्नोत्तरी ६ गच्छशतिकादिद्वार सात प्रकारनी सौवीरिणीओ, तेना सैंकडो अवांतर भेद-प्रभेदो अने ए भेद-प्रभेद पैकीनी विशोधि अविशोधि कोटिओ वगेरे ७ परिहरणा अनुयानद्वार तीर्थकर आदिना जमानामां ज्यारे सेंकडो गच्छो एकीसाथै विद्यमान होय त्यारे आधाकर्मिकादि पिंड वगेरे लेवाधी केम बचातुं हशे ? ए प्रकारनी शिष्यनी शंका अने तेना समाधानमाटे अनुयान एटले रथयात्रादि प्रसंगनुं वर्णन X X X अनुयान - रथयात्रामां जवानो विधि रथयात्रा जे नगरमां होय त्यां तेने जोवामाटे जतां रस्तामा लागता दोपो जे नगरमां रथयात्राना ठाठमाठ भर्या मेळाओ भराता होय त्यां पहोंच्या पछी लागता दोपोनुं वर्णन करवा माटेनी द्वारगाथा १ चैत्यद्वार साधर्मिकचैत्य, मंगलचैत्य, शाश्वतचैत्य अने भक्तिचैत्य ए चार प्रकारनां चैत्योनुं स्वरूप २ आधाकर्मद्वार रथयात्राना मेलामां जनार साधुने लागतो आधाकर्मिक दोप २९ पत्र ५०४-६ ५०६ ५०७-१५ ५१५-२१ ५२१ ५२१-२३ X ५२३-३४ ५२३ ५२३ ५२३-२४ ५२५-२६ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० गाथा १७८४ १७८५ १७८६ १७८७ १७८८-८९ १७९०-१८०१ १७९० १७९१-१८०१ कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम | विषय [ तीर्थकर तेमज साधुओ तीर्थकर अने तेमनी प्रतिमाने निमित्ते करायेल संवर्त्तकमेघ, पुष्पवृष्टि आदि प्राभृतिकानो उपभोग करे के नहि ? अने करे तो तेनुं कारण ] ३-४ उद्गमदोषद्वार अने शैक्षद्वार रथयात्राना मेळामां जवाधी साधुओने लागतो उमदीप अने नवदीक्षितोनुं भ्रष्ट थयुं ५-६ स्त्रीद्वार अने नाटकद्वार रथयात्रामा जनार साधुने स्त्री, नाटक आदिना जोवाथी लागता दोषो ७ संस्पर्शनद्वार रथयात्राना मेळामां साधुने स्त्री आदिना स्पर्शथी लागता दोषो ८ तन्तुद्वार रथयात्राना मेळामां जनार साधुने मंदिर वगेरे स्थळोमां बाझेलां करोळियानां जाळां, पंखीना माळा, भमरीनां घर आदिने खेरववानुं कहेवा न कहेवाने अंगे लागता दोपो ९-१० क्षुल्लकद्वार अने निर्धर्मकार्यद्वार रथयात्राना मेळामां जवाथी पार्श्वस्थ आदिना क्षुल्लक शिष्योने अलंकृतविभूषित जोई क्षुल्लक श्रमणो पतित थइ जाय तेमज ते मेलामां जनार साधुओने पार्श्वस्थ साधुओना आपस आपसना झघडाओ पताववानां कार्यो करवां पडे तेने लगता दोपो रथयात्रामां जवामादेनां आगाढखास कारणो रथयात्राना मेलामां श्रमणोने अवश्य जवा लायक कारणोनी सूचक द्वार गाथा १ चैत्यपूजाद्वार २ राजनिमंत्रणद्वार ३ संज्ञिद्वार ४ वादिद्वार ५ क्षपकद्वार ६ कथिकद्वार ७ शङ्कितद्वार ८ पात्र पत्र ५२६ ५२७ ५२७ ५२७ ५२७-२८ ५२८-३० ५२८ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विपयानुक्रम । ३१ गाथा ५२८-३० विषय द्वार ९ प्रभावनाद्वार १० प्रवृत्तिद्वार ११ कार्यद्वार अने १२ उड्डाहद्वार चैत्यनी पूजा निमित्ते, राजा अने श्रावकना निमंत्र. णथी तेमनी श्रद्धामां वधारो करवामाटे, रथयात्राना उत्सवमां भंगाण पाडनार वादीना पराजयमाटे, तपर्नु अने ते द्वारा धर्मनुं माहात्म्य वधारवामाटे, धर्मकथा व्याख्यानादिद्वारा धर्मनी उन्नति करवामाटे, शंकित के भूलाइ गयेल सूत्रार्थने पूछवामाटे, गच्छने आधारभूत योग्य शिष्य आदिनी तपास करवामाटे, तीर्थनी प्रभावनामाटे, आचार्य-उपाध्याय आदि तेमज राज्यना उपद्रव आदिने लगता समाचार मेळववामाटे, कुल-गण-संघ आदिने लगतां कार्योमाटे तथा धर्मना उड्डाहनी र माटे साधुओए रथयात्राना समारोहभर्या-ठा का मेळामां अवश्य जq जोइये. . [गाथा १७९८ टीकामां-आठ प्रभावको] . रथयात्राना मेळामां यतनाओ चैत्यपूजा, राजा वगैरेनी विनंती आदि कारणोने लई रथयात्राना मेळामां जनार साधुओए उपाश्रय वगैरेनी पडिलेहणा केम करवी ? उपदेश क्या अने केवी रीते आपवो ? भिक्षाचर्या केम लेवी ? स्त्री नाटक वगेरेना दर्शन प्रसंगे केम वर्तवू ? मंदिर आदिमां करोळियानां जाळां, पंखीना माळा, भमरीनां घर वगेरे होय तेनी यतना केम करवी ? क्षुल्लक शिष्यो भ्रष्ट न थाय तेमाटे तेमज पार्श्वस्थ साधुओना जमीन आदिने लगता विवादो पताववा शुं करवू ? इत्यादिने लगती जयणाओ [गाथा १८१२-उरभ्रदृष्टान्त ] १८०२-१५ ५३१-३४ x x १८१६-६९ १८१६ ८ पुरस्कर्मद्वार पुरःकर्मनुं स्वरूप वर्णववामाटे द्वारगाथा ५३४-४६ ५३४ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा १८१७-२० पत्र ५३४-३५ १८२१-२९ ५३५-३७ १८३० ५३८ विषय १ द्विार पुरःकर्म एटले शुं ? २ कस्यद्वार पुरःकर्मदोष कोने लागे ?, क्यारे लागे ?, पुरःकर्मदोषविषयक अष्टभंगी, पुरःकर्म शामाटे करवामां आवे ?, पुरःकर्म कर्या पछी जे ज्यां जे रीते कल्पी शके तेनुं निरूपण, पुरःकर्म अने उदकादोपमा फरक ३ आरोपणाद्वार पुरःकर्म लेवाने लगतां प्रायश्चित्तो ४ परिहरणाद्वार पुर: लेवाना निषेधने लगता अविधिनिषेधो अमः तीषेधो Arujiरना अविधिनिषेधो | पुरःकर्म लेवाना निषेधने लगता सात प्रकारना शिष्योना सात अविधिनिषेधरूप आदेशो-प्रकारो पुरःकर्म लेवाने लगता आठ विधिनिषेधो [गाथा १८५६-पुरःकर्म विषे ब्रह्महत्यानुं लौकिक दृष्टान्त ] १८३१-६९ ५३८-४६ १८३१-४० ५३८-३९ १८४१-६९ ५४०-४६ ५४७-८२ १८७०-२०१३ ९ ग्लान्यद्वार १८७०-७३ ग्लान साधुना समाचार मळतां साधुओए ते ग्लान साधुनी खबर लेवा जदूं जोइए १८७४ ग्लानद्वारनी वक्तव्यताने लगती द्वारगाथा ५४७ १८७५-७६ ५४८ १ शुद्धद्वार ग्लान साधुनी खबर पडतां त्यां जई ते साधुनी सेवा करनार आदि छे के नहि तेनी तपास करवी. तपास नहि करनारने प्रायश्चित्त २ श्रद्धावानद्वार १८७७- ८२ ५४८-४९ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८८३-८४ १८८५ १८८६-८७ १८८८-८९ १८९०-१९ १९००- २ :: १९००-६ १९०७ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । विषय ग्लान साधुनी सेवा करवाथी महा निर्जरा थाय छे ए प्रकारनी श्रद्धाथी सेवा करवा आवनार माटे सेवाना प्रकारो ३ इच्छाकारद्वार ग्लान साधुनी सेवामाटे सामा साधुनी भलामण के विनंतीनी अपेक्षा राखनारने प्रायश्चित्तादि अने ते विषे महर्द्धिक राजानुं दृष्टान्त ४ अशक्तद्वार ग्लाननी सेवा करवामां अशक्ति जाहेर करनारने शिखामण ५ सुखितद्वार ग्लान साधुनी सेवा करवा जतां दुःख माननारने प्रायश्चित्तो ६ अवमानद्वार 'लाननी सेवा करवा जतां उगम आदि दोषो लागवानी वातने आगळ धरनारने प्रायश्चित्त ७ लुब्धद्वार ग्लान साधुनी सेवाने बहाने गृहस्थोने त्यांथी उत्कृष्ट पदार्थ, वस्त्र, पात्र आदि लावनारने तेमज क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त आदि दोषो सेवनारने तथा ते लोभी साधुने निमित्ते थती ग्लान साधु तेमज ते क्षेत्रमां वसता गृहस्थोनी हेरानगतिने कारणे लागता दोपो अने प्रायश्चित्तो ८ ' अनुवर्त्तना ग्लानस्य' द्वार · १ ग्लानानुवर्त्तना ग्लान साधुमाटे पथ्यापथ्य केम लाववुं ? क्यांधी लावुं ? क्यां राखवं ? अने ते मेळववामाटे गवेषणा - शोध केंम करवी ? २ वैद्यानुवर्त्तना पत्र ३३ :: ५५० ५५१ ५५१ ५५१ ५५२-५४ ५५४-७५ ५५४-५६ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा १९०७-१० ५५६-५७ ५५७ १९१२ विषय ग्लान साधुमाटे विशोषणसाध्य रोगमाटे उपवासनी चिकित्सा आठ प्रकारना वैद्यो अन्याचार्यनी मान्यता मुजब प्रकारान्तरे आठ प्रका. रना वैद्यो ग्लान साधु माटे वैद्य लाववामां आठ प्रकारना वैद्यो पैकी क्रमभंग करनारने प्रायश्चित्तो ग्लान साधुमाटे वैद्य पासे जवानो विधि ५५८ १९१३ १९१४-३१ ५५८ ५५९-६३ १९१४ ५५९ १९१९-२० ५६० १९२१ ५६० ग्लान साधुमाटे वैद्य पासे जवाना विधिने लगती द्वारगाथा १ नोदकपृच्छाद्वार वैद्य पासे ग्लान साधुने लइ जवो ? के ग्लान साधु पासे वैद्यने लाववो ? [गाथा १९१६-प्राभृतिकानो अर्थ ] २ गमनद्वार ग्लान साधुमाटे वैद्य पासे केवो साधु जाय ? ३-४ प्रमाणद्वार अने उपकरणद्वार ग्लान साधुमाटे वैद्य पासे केटला साधु जाय ? अने तेमणे पहेरेला कपडां केवां होय ? ५ शकुनद्वार वैद्य पासे जतां केवा शकुन जोवा ? ६ व्यापारद्वार वैद्य पासे जनार साधुए वैद्यने कयां कयां काम करतो होय त्यारे ग्लानने माटे पूछवू ? अने कयां कयां काम करतो होय त्यारे न पूछयूँ ? ७ संगारद्वार वैद्य पासे जनार साधुए वैद्यने घेर आववा श्रावकने संकेत करवो वैद्य पासे जईने ग्लान साधुनी तबीअतना समाचार केवा क्रमथी कहेवा ? १९२२-२४ ५६०-६१ १९२५ ५६१ १९२६-२७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । ३५ गाथा पत्र ५६२ १९२८-२९ १९३०-३१ विषय ८ उपदेशद्वार ग्लान साधुमाटे वैद्यनी भलामण ९ तुलनाद्वार ग्लान साधुमादे वैद्ये कहेलां पथ्यापथ्य आदि लभ्य छे के नहि एनी विचारणा अने लभ्य न होय तो वैद्यने शुं कहे ? ५६२-६३ १९३२ ग्लान साधुमाटे वैद्यनुं उपाश्रयमा आवद्यु १९३३-४७ ___ उपाश्रयमा आवेला वैद्य साथे केम वर्तवू तेनो विधि ५६३ ५६३-६७ १९३३ १९३४-३६ ५६३-६४ उपाश्रयमां आवेला वैद्य साथे केवो वर्ताव राखवो ? एने लगती द्वारगाथा १-२-३ अभ्युत्थानद्वार आसनद्वार अने दर्शनाद्वार वैद्य उपाश्रयमा आवे त्यारे आचार्य आदिए उठवानो, वैद्यने आसन आपवानो अने ग्लान साधुने देखाडवानो विधि. अविधिथी उठवा नहि उठवामां तेमज वैद्यने आसन आपवा नहि आपवामां दोपो अने प्रायश्चित्तो ४ भद्रकद्वार ग्लान साधुमाटे औषधादिनो प्रबंध कोण करशे ए माटे भद्रक वैद्यनो प्रश्न ५-६-७ भृतिद्वार, आहारद्वार अने __ ग्लानाहारद्वार धर्मभावना रहित वैद्यमाटे भोजनादिनी तेमज तेना औपध आदिना मूल्यनी व्यवस्था करवानो विधि ५६४ १९३८-४७ ५६५-६७ १९४८-६१ वहारगामथी वैद्यने वोलाववानो विधि अने तेना खानपाननी व्यवस्थानो विशिष्ट विधि ५६७-७१ १९६२ ग्लान साधु अने वैद्यनी सेवा करवानां कारणो Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १९६३ ५७१ १९६४ ५७१-७२ १९६५-७० बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनी विषयानुक्रम । विपय ग्लान साधुनी शरीरशुश्रूपाने लगता विधिनी भलामण ग्लानविपयक अने वैद्यविषयक अनुवर्तनाने लगता वनव्यनी विशालता वास्तव्य तेमज बहार गामी बोलावेल वैद्यने औपध आदिनुं मूल्य आपवा-अपाववाना विशिष्ट प्रकारो [गाथा १९६५-ऋयिकनुं दृष्टान्त ] ग्लानने तेमज तेनी सेवा करनारने अपवाद सेववा आदि कारणे प्रायश्चित्त ग्लानविषयक तेमज वैद्यविषयक अनुवर्त्तनानो उपसंहार ५७२-७४ १९७१ ५७४ १९७२ पू० ५७५-७७ ५७७-७८ १९७२ उ०-८० ९-१० चालनाद्वार अने संक्रामणद्वार ग्लान साधुने स्थानांतरमा लइ जवानां कारणो तथा एक वीजा समुदायना ग्लान साधुनी सेवामाटे फेर बदली १९८१-८८ ग्लान साधुनी उपेक्षा करनार साधुओने ग्लाननी सेवा करवामाटे शिखामण नहि आपनार आचार्यने प्रायश्चित्त १९८९-९७ जे आचार्य आदि निर्दयपणे म्लान साधुने संविग्न, असंविग्न, गीतार्थ, अगीतार्थ वगेरे जे जे जातना श्रमणोनी निश्रामा तेमज उपाश्रयमां, सेरीमां, गामनी वचमां वगेरे जुदे जुदे ठेकाणे पडता मूकी चालता थाय तेमने स्थान वगेरेने लक्षीने विधविध प्रकारनां प्रायश्चित्तो १९९८-२००१ एक गच्छ, ग्लान साधुनी सेवा केटला वखत सुधी करे अने ते पछी ते ग्लान साधुने क्या राखे-सोपे एने लगती संघ व्यवस्था २००२-१३ केवा प्रकारनां आगाढ कारणोने प्रसंगे, केटला विवेकपूर्वक, केवा प्रकारना ग्लान साधुने पडतो ५७८-७९ ५७९-८० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा वृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विपयानुक्रम । विषय मूकबो तेनुं निरूपण अने तेम करवाथी ग्लान साधु अने तेनी सेवा करनारने थता लाभो ५८०-८२ २०१४-२२ ५८३-८५ २०२३-२७ ५८५-८६ १० गच्छप्रतिवद्धयथालंदिक द्वार वाचना आदिने कारणे गच्छ साथे संबंध राखता यथालंदिककल्पधारिओनो वन्दनादि व्यवहार अने तेमना मासकल्पनी मर्यादा ११ उपरिदोषद्वार ऋतुबद्ध शेष काळमां एक क्षेत्रमा एक महिना करतां वधारे रहेवाथी लागता दोपो १२ अपवादद्वार ऋतुबद्ध काळमां एक क्षेत्रमा एक मासकल्प करतां पधारे रहेवाने लगतां आपवादिक कारणो अने ते क्षेत्रमा रहेवानो तेमज भिक्षाचर्या लेवानो विधि २०२८-३३ ५८७-८८ ५८८-९२ २०३४-४६ ७ मासकल्पविषयक बीजुं सूत्र गाम नगर आदि, किल्लानी अंदर अने बहार एम वे विभागमा वसतां होय तो ऋतुबद्ध काळमां अंदर अने वहार मळी वे मास एक क्षेत्रमा निर्ग्रन्थोथी रही शकाय २०३४-४६ गाय नगरादिनी बहार वीजो मासकल्प करता त्यां तृण फलक आदि लइ जवानो विधि अविधिथी लइ जवामां दोप अने प्रायश्चित्त आदि २०४७-२१०५ ८ मासकल्पविषयक त्रीजुं सूत्र निर्घन्धीना मासकल्पनी मर्यादा २०४७ निर्ग्रन्थीविषयक वक्तव्यतानी निर्ग्रन्थनी माफक भलामण अने विहारद्वारमा जे विशेष छे तेना कथननी प्रतिज्ञा २०४८-२१०५ विहारद्वार निर्ग्रन्थीना विहारनुं वर्णन ५८८-९२ ५९२-६०६ ५९२-६०६ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र ५९३ ५९३ ५९४ ५९४ ५९५-९६ ५९६-९७ विषय २०४८-४९ निर्ग्रन्थीना विहारद्वारना वक्तव्यने लगती द्वारगाथा २०५०-५१ १ गणधरप्ररूपणाद्वार निर्ग्रन्थीओना समुदायतुं पालन करनार गणधर अने तेना गुणो २०५२-५७ २ क्षेत्रमार्गणाद्वार २०५२ साध्वीने रहेवा लायक क्षेत्रनी पडिलेहणा गणधर करे २०५३-५५ साध्वीओ पोते पोताने रहेवा लायक क्षेत्रनी पडि लेहणा केम न करे तेनां कारणो अने भरुचमां बौद्ध श्रावक साध्वीओने उपाडी गयाना प्रसं गर्नु वर्णन २०५६-५७ साध्वीओने रहेवा योग्य क्षेत्रना गुणो २०५८-६२ ३ वसतिद्वार साध्वीओने रहेवा लायक वसतिओ-उपाश्रयो अने तेना मालीको २०६३-६८ ४ विचारद्वार निर्ग्रन्थीओने योग्य अने अयोग्य स्थंडिलभूमीओ २०६९-७१ ५ संयतीगच्छानयनद्वार श्रमणीओने तेमने रहेवा लायक क्षेत्रमा लइ जवानो विधि २०७२-७५ ६ वारकद्वार २०७६-८२ ७ भक्तार्थनाविधिद्वार साध्वीओनो आहार वहेंचवानो अने आहार करवानो विधि २०८३-८६ ८प्रत्यनीकद्वार विधर्मी आदि तरफथी साध्वीओने थता उपद्रवोनो बचाव २०८७-२१०२ ९ भिक्षानिर्गमद्वार वृद्ध, जुवान साध्वीओ पैकी केटली साध्वीओ भिक्षामाटे जाय ? अने तेणीओ क्यां कया क्रमी उभी रहे ? साध्वीओए समूहरूपे बंधाइने भिक्षाचर्यामाटे जवानां कारणो अने यतनाओ वगेरे ५९७-९८ ५९८-९९ ५९९-६०० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र द्वितीय विभागनों विषयानुक्रम । गाथा २१०३-५ २१०६-८ ६. ८ विषय १० द्विमासद्वार साध्वीओ ऋतुबद्ध शेष काळमां एक क्षेत्रमा वे महिना रही शके तेनां कारणो ९ मासकल्पविषयक चोथु सूत्र गाम नगर आदि, किल्लानी अंदर अने बहार एम वे विभागमा वसतां होय तो ऋतुबद्धकाळमां अंदर अने बहार मळी चार मास एक क्षेत्रमा साध्वीओथी रही शकाय. तेथी वधारे रहेवामां प्रायश्चित्त अने दोषो. आपवादिक कारणे रहेवामाटेनी यतनाओ गच्छवासी अने जिनकल्पिक ए बेमां महर्द्धिक कोण एर्नु कथन अने ते विषे गुहासिंह, वे स्त्रीओ अने बे गोवर्ग-वे गायोना टोळानां दृष्टांतो २१०९-२४ ६०७-१० D Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ॥ अर्हम् ॥ पूज्यश्रीभद्रबाहुस्वामिविनिर्मितस्वोपज्ञनियुक्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् । श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसूत्रितेन लघुभाष्येण भूषितम् । आचार्यश्रीमलयगिरिपादविरचितयाऽर्धपीठिकावृत्त्या तपाश्रीक्षेमकी - चार्यवरानुसन्धितया शेषसमग्रवृत्त्या समलङ्कृतम् । प्रथम उद्देशः । [ प्रलम्बप्रकृत-मासकल्पप्रकृतात्मकः द्वितीयो विभागः ] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ॥ णमो त्थु णं अणुओगमहत्तराणं सुयहराणं ॥ पूज्यश्रीभद्रवाहुस्वामिसंदृब्धस्वोपज्ञनिर्युक्तिसमेतं बृहत्कल्पसूत्रम् । श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसूत्रितेन लघुभाष्येण भूषितम् । तपाश्रीक्षेमकीर्त्त्याचार्य विहितया वृत्त्या समलङ्कृतम् । प्रथम उद्देशः । [ प्रलम्ब सू त्राधिकारः । ] अथानुगमद्वारम् । स चानुगमो द्विधा - नियुक्त्यनुगमः सूत्रानुगमश्च । निर्युक्त्यनुगमस्त्रिविधः - निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगमश्च । तत्र निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमोभिहितः, ओघनिप्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनपदस्य नामनिप्पन्ने च कल्पपदस्य निक्षिप्तत्वाद् वक्ष्यते च सूत्रालापकनिप्पन्ने सूत्रपदानां निक्षेप्स्यमानत्वात् १ । उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः पुराभ्य द्वारगाथाभ्यामनुगन्तव्यः । तद्यथा— उसे निसे, य निगमे खेत्त काल पुरिसे य । कारण पच्चय लक्खण, नए समोयारणाऽणुमए ॥ ( आव० नि० गा० १४० ) किं विहं कस कहिं, केसु कहं केच्चिरं हवइ कालं । कइ संतरमविरहियं, भवाऽऽगरिस फासणनिरुत्ती || ( आव० नि० गा० १४१ ) अनयोरर्थो मूलावश्यकादिटीकातोऽवसातव्यः २ । सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रपदव्या - 10 ख्यानरूपः, स चावसरप्राप्तोऽपि नाभिधीयते; कुतः ? इति चेत्, उच्यते— सूत्रमेव तावदद्यापि न प्राप्यते, अतः सूत्राभावात् कस्य स्पर्शनं करोत्यसौ ? इति, अतः क्रमप्राप्ते सूत्रानुगमे यदा सूत्र वक्ष्यते तदैव लाघवार्थं सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिमपि वक्ष्याम इति । ननु यदि इयमत्र प्राप्तावसराऽपि नोच्यते ततः करमात्रावसरे पठ्यते : उच्यते - ( ग्रन्थाग्रम् - २००० ) नियुक्तिमात्रसाम्या - दसावत्राभिधीयत इत्यदोषः ३ । अथ सूत्रानुगमः स चेदानीमवसरप्राप्त एवेत्यत्र सूत्रानुगमे सूत्र - 15 मुच्चारणीयम्, ततः सूत्रालापकनिक्षेपेण निक्षेपणीयम्, ततोऽपि सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्या तदेव विस्तारणीयम् । अत्र च सूत्रानुगमादीनामित्थं विपयविभागव्यवस्था दृष्टव्या - - पदच्छेदसहि 5 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ तया सहितया सूत्रमुच्चार्य सूत्रानुगमः कृतार्थों भवति, नामादिनिक्षेपविनियोगं विधाय सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपः, पदार्थ-पदविग्रह-चालना-प्रत्यवस्थानलक्षणव्याख्याचतुष्टये कृते सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिः । नैगमादयो नया अपि प्रायः सूत्रगतपदार्थादिगोचरा इति तत्त्वतो नयलक्षणं चतुर्थमनुयोगद्वारमपि सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यन्तःपाति प्रतिपत्तव्यम् । 5 तथा चाह श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यः होइ कयत्थो वोत्तुं, सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो । सुत्तालावगनासो, नामाइन्नासविणिओगं ॥ (विशे० गा० १००९) सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिनिओगो सेसओ पयत्थाई । पायं सो च्चिय नेगमनयादिमयगोअरो होइ ॥ (विशे० गा० १०१०) 10 एते च सूत्रानुगमादयः सूत्रेण समकमेव व्रजन्ति । यत उक्तम् - सुत्तं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावगकओ य निक्खेवो। सुत्तप्फासियनिजुत्ती, नया य वच्चंति समगं तु ।। तत्र प्रथमं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम् , तच्चाहीनाक्षरादि गुणोपेतम् । तद्यथा-अहीनाक्षरम् अनत्यक्षरम् अव्याविद्धाक्षरं अस्खलितम् अमिलितम् अव्यत्यानेडितं प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोषं 15 कण्ठौष्ठविप्रमुक्तं गुरुवाचनोपगतम् । एवं च सूत्रे समुच्चारिते सति केषाश्चिद् भगवतामुद्घटितज्ञानां केचिदर्थाधिकारा अधिगता भवन्ति, केचित् पुनरनधिगताः, ततोऽनधिगतार्थाधिगमनाय व्याख्या प्रवर्तते । अत्रान्तरे "निक्खेवे" (गाथा १४९) इत्यादि मूलगाथासूचितं सूत्रार्थद्वारं समापतितम् । तच्चेदं सूत्रम्---- नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंवे 20 अभिन्ने पडिगाहित्तए ॥ [सूत्रम् १] अस्य च व्याख्या षोढा । तद्यथा संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा । तत्र संहिता–नो कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा आमं तालप्रलम्बमभिन्नं प्रतिग्रहीतुम् १ । 25 अथ पदमिति पदविच्छेदः कर्त्तव्यः । स चायम् --नो इति पदं कल्पते इति पदं निम्र.न्थानामिति पदं वा इति पदं निम्रन्थीनामिति पदं वा इति पदम् आममिति पदं ताल इति पदं प्रलम्बमिति पदं अभिन्नमिति पदं प्रतिग्रहीतुमिति पदमिति गतः पदविच्छेदः २।। अथ पदार्थ उच्यते स च चतुर्की, तद्यथा-कारकविषयः समासविषयः तद्धितविषयो निरुक्तविषयश्च । तत्र कारकविषयः पचतीति पाचकः, पठतीति पाठकः, भुज्यत इति भोज30 नम् , स्वाति जनोऽनेनेति स्नानीयं चूर्णम् , दीयतेऽस्मै इति दानीयोऽतिथिः, बिभेति जनोऽस्मादिति भीमः, शेरतेऽस्यामिति शय्या इत्यादि । समासविषयो यथा-आरूढो वानरो यं वृक्षं स आरूढवानरो वृक्ष इति बहुव्रीहिः १, गङ्ग याः समीपमुपगङ्गमित्यव्ययीभावः २, राज्ञः पुरुषो १°लक्षणं तुर्यानुयो भा० ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथा ८०६-७] प्रथम उद्देशः । २५७ राजपुरुष इति तत्पुरुषः ३, नीलं च तदुत्वलं च नीलोत्पलमिति कर्मधारयः ४, चतुर्णी म सानां समाहारश्चतुर्मासी इति द्विगुः ५, धवश्च खदिरश्च पलाशश्च धव-खदिर-पलाशा इति द्वन्द्वः ६ इत्यादि । तद्धितविषयः—नाभेरपत्यं नाभेयः, जिनो देवताऽस्येति जैनः, भद्रबाहुणा प्रोक्तं शास्त्रं भाद्रवाहवमित्यादि । निरुक्तविषयः-भ्रमति च रौति चेति भ्रमरः, मह्यां शेते महिषः, जीवनस्य-जलस्य मूतः-पुटबन्धो जीमून इत्यादि, कृतं विस्तरेण । एष चतुर्विधोऽपि पदार्थः । समस्तो व्यस्तो वा यो यत्र सूत्रे सम्भवति स तत्र योजनीय इति । सम्प्रति प्रकृतसूत्रस्य पदार्थ उच्यते---नोशब्दः प्रतिषेधे, “कृपौङ सामथ्र्ये' इत्यस्य धातोर्वर्त्तमानाविभक्तरात्मनेपदीयान्यदथैकवचनान्तस्य कल्पते इति रूपम् , ततश्च 'नो कल्पते' नो समर्थीभवति, न युज्यते इत्यर्थः । एवं सर्वत्र प्रकृति-प्रत्ययविभागः शब्दशास्त्रानुसारेण स्वधिया योजनीयः । तथा ग्रन्थः-परिग्रहः, स च बाह्या-ऽऽभ्यन्तरभेदाद् द्विधा, बाह्यः क्षेत्र-वाम्त्वादिः, आभ्यन्तरः क्रोधादिः, ततो निर्गता 10 ग्रन्थादिति निर्ग्रन्थाः-साधवस्तेषाम् । एवं निर्ग्रन्थीनां' साध्वीनाम् । वाशब्दावुभयस्यापि वर्गस्य प्रलम्बकल्प्यताप्रतिषेधमधिकृत्य तुल्यकक्षतासूचकौ । 'आमम्' अपक्वम् । तल:-वृक्षविशेषस्तत्र भवं तालं–तालफलम् , प्रकर्षेण लम्बते इति प्रलम्बं–मूलम् , तालं च प्रलम्बं च तालपलम्बं समाहारद्वन्द्वः । 'अभिन्नं' द्रव्यतो अविदारितं भावतोऽव्यपगतजीवम् । किम् ? इत्याह-'प्रतिग्रहीतुम्' आदातुमिति पदार्थः ३ । पदविग्रहस्तु यानि समासभाञ्जि पदानि तेषु, पदार्थमध्य एवं वर्णित इति ४। चालना-प्रत्यवस्थाने तु भाप्यगाथाभिरेव सविस्तरं भावयिप्येते इति सूत्रसमासार्थः ॥ अंथ भाप्यकारः प्रतिपदमेव सूत्रं व्याचिख्यासुः प्रथमतो नोकारपदं निर्ग्रन्थपदं च व्याख्यानयति-- अंकार-नकार-मकारा, पडिसेहा होति एवमाईया । सहिरन्नगो सगंथो, अहिरन्न-सुवनगा समणा ॥ ८०६॥ 20 अकार-नकार-मकारा एवमादयः शब्दाः, अत्राऽऽदिग्रहणाद् नोकारो गृह्यते, एते प्रतिषेधवाचका द्रष्टव्याः, 'अकरणीयं न करोपि, मा कार्षीः, नो कुरुषे' इत्यादिप्वमीषां प्रतिषेधवाचिनां प्रयोगदर्शनात् । तथा सहिरण्यकः सग्रन्थ उच्यते, अत्र हिरण्यग्रहणं बाह्या-ऽऽभ्यन्तरपरिग्रहोपलक्षणम् , ततो यः सपरिग्रहः स सग्रन्थः । श्रमणाः पुनरहिरण्य-सुवर्णका अतो निर्ग्रन्थाः। हिरण्यं रूप्यं सुवर्ण-कनकम् । अत्र च "कल्पते" इति पदं सुगमत्वाद् भाप्यकृता न 25 व्याख्यातम् , निर्ग्रन्थीशब्दव्युत्पत्तिरपि निर्ग्रन्थशब्दवद् द्रष्टव्या, लिङ्गमात्रकृतभेदत्वादनयोरिति ॥ ८०६ ॥ अथ नोकारशब्दस्यैव भावनां करोति नोकारो खलु देसं, पडिसेहयई कयाइ कप्पिज्जा । आमं च अणण्णत्ते, तलो य खलु उस्सए होइ ॥ ८०७ ॥ नोशब्दः प्रायो देशप्रतिषेधे वर्त्तते, यथा “नोघटः' इत्युक्ते घटैकदेशः कपालादिकः प्रतीयते, 30 एवमत्रापि नोकारो देशं प्रतिषेधयति । ततश्चेदमुक्तं भवति-कदाचित् कल्पेत तालप्रलम्बम् , उत्सर्गपदरूपे देशे तावन्न कल्पते आत्यन्तिके पुनरपवादपदे कल्पतेऽपीति भावः । 'आमं च' १ अथ सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिविस्तरेण प्रति° भा० ॥ २ आकर-णकार-मकरा ता० ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ आमशब्दश्च 'अनन्यत्वे' अनन्यभावे वर्त्तते । किमुक्तं भवति?-पूर्वकालभाविनीमपक्कावस्थामपेक्ष्य तदुत्तरकालभाविनी पक्वावस्था अन्या-अपराऽभिधीयते, तदभावरूपेऽनन्यत्वे अपक्कावस्थायामामशब्दो वर्त्तते । तलशब्दश्वोच्छ्ये भवति, द्राघीयःस्कन्धरूपेणोच्छ्येणोच्छितो यो वृक्षविशेषः स तलः-तालवृक्ष इति भावः; तत्र भवं तालं-तालवृक्षफलम् ॥ ८०७ ॥ 5 अथ प्रलम्बादिपदानि व्याचष्टे पडिलंबणा पलं, अविदारिय मो वयंति उ अभिन्नं । अहवा वि दव्व भावे, तंपइगहणं निवारेइ ॥ ८०८ ॥ 'प्रतिलम्बनात्' प्रति-प्रकर्षेण लम्बत इति 'प्रलम्बम्' तस्यैव तलवृक्षस्य मूलम् । तथा यद अविदारितं 'मो' इति पादपूरणे तद् वदन्ति श्रुतवेदिनो अभिन्नम् । अथवा अभिन्नं द्विधा10 द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतो यद् अविदारितम् , भावतः पुनरव्यपगतजीवम् । 'तत्प्रतिग्रहणं' तस्य-आमतालपलम्बस्याभिन्नस्यादानं निवारयति नोकार इति । एष सूत्रपदार्थः ॥ ८०८ ॥ अथ चालना-प्रत्यवस्थाने अभिधीयते । तत्र सूत्रगोचरमर्थगोचरं वा दूषणं चाल्यते-आक्षिप्यते यया वचनपद्धत्या सा चालना । तथा प्रति इति-परोक्तदूषणप्रातिकूल्येनावस्थीयते अन्तर्भूतण्य र्थत्वादवस्थाप्यते युक्तिपुरस्सरं निर्दोषमेतदिति शिप्यवुद्धावारोप्यते येन तत् प्रत्यवस्थान-प्रति15 वचनम् । अत्र तावदियं चालना-ननु च सर्वाण्यपि शास्त्राणि माङ्गलिकाभिधानपुरस्सराणि प्रव र्तन्ते, इदं तु सूत्रं भवद्भिः प्रतिषेधकत्वात् प्रथमत एवामाङ्गलिकमारब्धम् । तथा चात्र प्रयोगःअमाङ्गलिकमेतत् सूत्रम्, प्रतिषेधरूपत्वात् , इह यद् यत् प्रतिषेधरूपं तत् तद अमाङ्गलिकम् , यथा गन्तुं प्रस्थितस्य कस्यापि पुरुषस्य ‘मा यासीः' इत्यादि वचनम् , प्रतिषेधरूपं चेदं सूत्रम् , तस्मादमाङ्गलिकम् ; एवं परेणोक्ते सति सूरिः प्रत्यवस्थानमाह जं गालयते पावं, मं लाइव कहममंगलं तं ते । जा य अणुण्णा सव्वा, कहमिच्छसि मंगलं तं तु ॥ ८०९॥ इह मङ्गलशब्दस्य निरुक्तं पूर्वसूरिभिरित्थमभिधीयते—मां 'लाति' दुर्गतौ पतन्तं गृह्णाति पापं च गालयतीति मङ्गलम् । एतच्च निरुक्तमत्रापि घटते, यत आह यदिदं "नो कप्पइ" इत्यादि सूत्रं तत् पापं सचित्तवनस्पतिग्रहणरूपं गालयति, तथा मामिति-आत्मद्रव्यं नरकादौ 25 पतन्तं लाति-धारयति तद् एवंविधमपि कथं नाम 'ते' तवामङ्गलं भणितुमुचितम् ? न कथश्चिदित्यर्थः । किञ्च-यदि प्रतिषेधमात्रमेवामङ्गलं भवत इष्टम् ततो या काचिदनुज्ञा पापस्य धर्मस्य वा सा सर्वाऽपि भवतो मङ्गलं प्राप्नोति । यदि नामैवं ततः किम् ? इत्याह-'कथं' केन प्रकारेण 'तो' सर्वामप्यनुज्ञा मङ्गलमिच्छसि । किमुक्तं भवति-यदि पापानुज्ञाऽपि प्रतिषेधविषयविद्वेषमात्रादेव भवता मङ्गलमभ्युपगम्यते तर्हि धर्म-पापानुज्ञयोः सङ्करदोषः प्रसज्येत, उभ30 योरपि मङ्गलरूपत्वात् ; ततश्चाधर्मस्यापि मङ्गलरूपतया करणीयतापत्तिः स्यात् ; न चैतद् दृष्टमिष्टं वा, ततो न सर्वाऽप्यनुज्ञा मङ्गलम् न वा प्रतिषेधः सर्वोऽप्यमङ्गलम् , किन्तु या धर्मस्यानुज्ञा यश्च पापस्य प्रतिषेध एतौ द्वावपि मङ्गलम् , तदितरावनुज्ञा-प्रतिषेधावमङ्गलमिति ॥ ८०९॥ अमुमेवार्थ द्रढयन्नाह 20 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माप्यगाथाः ८०८-१३] प्रथम उद्देशः । २५९ पाशणं समणुण्णा, न चेव सबम्मिं अत्थि समयम्मि। तं जइ अमंगलं ते, कयरं णु हु मंगलं तुझं ॥ ८१०॥ 'पापानां' प्राणिवधादीनां समनुज्ञा नैवास्ति सर्वस्मिन्नपि 'समये' सिद्धान्ते, न केवलमत्रैव सूत्रे इत्यपिशब्दार्थः, किन्तु सर्वत्रापि प्रतिषेध एव; ततो यदि ते 'तत्' तथाविधमपि पापप्रतिषेधकं सूत्रममङ्गलम् ततः कतरद् 'नुः' इति वितर्के 'हुः' निश्चये तव मङ्गलं भविष्यति ?, म5 किमपीत्यर्थः ।। ८१० ॥ किञ्च पावं अमंगलं ति य, तप्पडिसेहो हु मंगलं नियमा। निक्खेवे वा वुत्तं, जंवा नवमम्मि पुवम्मि ॥ ८११॥ पापं नियमादमङ्गलम् , तत्प्रतिषेधः पुनर्नियमाद् मङ्गलम् , यत एवं ततो माङ्गलिकमेतत् सूत्रमिति । तथा चात्र प्रयोगः-माङ्गलिकं "नो कप्पइ निग्गंथाण वा निमगंथीण वा” (उ० १ 10 सू० १) इत्यादि सूत्रम् , पापप्रतिषेधकत्वात् , इह यद् यत् पापप्रतिषेधकं तत् तद् माङ्गलिकम् , यथा “सव्वे जीवा न हंतव्वा' इत्यादि वचनम् , पापप्रतिषेधकं चेदं सूत्रम् , तस्माद् माङ्गलिकम् । अथवा 'निक्षेपे' नामनिप्पन्नलक्षणे "छबिह १ सत्तविहे या २, दसविह ३ वीसइविहे य ४ बायाला ५।" (गा० २७४) इति पञ्चविधभावकल्पसम्बन्धायातस्य पञ्चकल्पस्यादौ वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसयलसुयनाणिं । 16 सुत्तस्स कारगमिसिं, दसाण कप्पे य ववहारे ॥ (गा० १) इत्यधिकृतसूत्रकारनमस्काररूपं यद् मङ्गलमुक्तम् , यद्वा 'नवमे पूर्वे' प्रत्याख्याननामके प्रथमप्रारम्भे यद् मङ्गलाभिधानं कृतं तेनैवास्य सूत्रस्य माङ्गलिकत्वं मन्तव्यमिति ॥ ८११ ॥ अर्थत्थमपि स्थापितं सूत्रस्य माङ्गलिकत्वं खाग्रहाभिनिवेशादप्रतिपद्यमानं परमुपलभ्य सूरिरिदमाहअद्दागसमो साहू, एवं सुत्तं पि जो जहा वयइ । 20 तह होइ मंगलममंगलं व कल्लाणदेसिस्स ॥ ८१२ ॥ "अद्दाग"त्ति आदर्शः-दर्पणस्तत्समः-तत्सदृशः साधुः । किमुक्तं भवति ?—यथा दर्पणे खरूपतो निर्मलेऽपि तत्तदुपाधिवशतः सुन्दरा-ऽसुन्दररूपाणि प्रतिरूपाणि विलोक्यन्ते तथा साधुमपि परममङ्गलभूतं दृष्ट्वा मङ्गलबुद्धिं कुर्वतः प्रशस्तचेतोवृत्तेर्भव्यस्य मङ्गलं भवति, तदितरस्य संक्लिष्टकर्मणो दूरभव्यादेरमङ्गलबुद्धिं कुर्वाणस्यामङ्गलं भवति । 'एवम्' आदर्श-साधुदृष्टान्तेन 25 सूत्रमपि स्वरूपतः परममङ्गलभूतं यो यथा वदति तस्य तथैव ‘मङ्गलममङ्गलं वा भवति' मङ्गलबुद्ध्या परिगृह्यमाणं मङ्गलम् अमङ्गलबुद्ध्या तु परिगृह्यमाणममङ्गलं भवतीत्यर्थः । एवं च माङ्गलिकेऽपि सूत्रे यदि त्वममङ्गलबुद्धिं करोषि भवतु तर्हि कल्याणद्वेषिणो भवतोऽमङ्गलम् ॥ ८१२ ॥ किञ्चान्यत् जइ वा सव्वनिसेहो, हवेज तो कप्पणा भवे एसा । नंदी य भावमंगल, वुत्तं तत्तो अणनमिदं ॥ ८१३ ॥ वाशब्दः प्रत्यवस्थानस्य प्रकारान्तरोपदर्शनार्थः । यद्यत्र सूत्रे 'सर्वनिषेधः' सर्वथैव प्रतिषेधः १ अत्र टीकाकृदभिप्रायेण °म्मि वऽस्थि इति पाठः स्यात्, न चासौं क्वचिद् दृश्यत इति ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ स्यात् ततो भवेत् ताकीना प्रतिषेधकत्वादमङ्गलमित्येषा कल्पना । यस्मात् पुनरत्र नोशब्दो देशप्रतिषेध एव वर्तते अतः परिफल्गुरियं भवदीया कल्पनेति । यद्वा 'नन्दी च' पञ्चप्रकारज्ञानरूपा भावमङ्गलमुच्यते, तच्च. "नंदी य मंगलट्टा' (गा० ३) इत्यादिना ग्रन्थेन पीठिकायां प्रोक्त मेव । यदि नाम प्रोक्तं ततः किमायातम् ? इत्याह—'तस्माच्च' नन्दीरूपाद् भावमङ्गलात् 'अन5 न्यत्' अपृथग्भूतमिदं सूत्रम् , अस्यापि श्रुतत्वात् श्रुतस्य च ज्ञानपञ्चकान्तर्गतत्वादिति भाव इति; अतोऽपि माङ्गलिकमिदम् ॥ ८१३ ॥ तदेवं स्थापितमनेकधा भाप्यकृता सूत्रस्य माङ्गलिकत्वम् । संम्प्रति नियुक्तिकृद् नोशब्दाभिधेयस्य प्रतिषेधस्य निक्षेपमनन्तरोक्तमर्थं च सूचयन्नाह पडिसेहम्मि उ छकं, अमंगलं सो त्ति ते भवे बुद्धी । पावाणं जदकरणं, तदेव खलु मंगलं परमं ॥ ८१४ ॥ 10 'प्रतिषेधे' प्रतिषेधविषयं 'षट्कं' नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावलक्षणं निक्षेपणीयम् । तत्र नाम्नः प्रतिषेधः 'न वक्तव्यममुकं नाम' इतिलक्षणः, यथा-- अज्जए पज्जए वा वि, वप्पो चुल्लपिउ ति य । माउलो भायणिज त्ति, पुत्ता नत्तुणिय त्ति य ॥ (दश० अ० ७ गा० १८) हे हो हले त्ति अन्ने त्ति, भट्टा सामिय गोमिय । 15 होल गोल वसुल त्ति, पुरिसं नेवमालवे ॥ (दश० अ० ७ गा० १९) इत्यादि । स्थापना आकारो मूर्तिरिति पर्यायाः, तस्याः प्रतिषेधो यथावितहं पि तहामुत्तिं, जो नहा भासए नरो। सो वि ता पुट्टो पावेणं, किं पुणं जो मुसं वए? ॥ (दश० अ० ७ गा० ५) द्रव्यप्रतिषेधो ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तः पुनरयम् - नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंवे अभिन्ने पडिगाहित्तए त्ति । क्षेत्रप्रतिषेधो यथा--नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा [ रातो वा वियाले वा ] अद्धाणगमणं एत्तए (उ० १ सू० ४७)। कालप्रतिषेधो यथा अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए । आहारमइयं सवं, मणसा वि न पत्थए ॥ (दश० अ० ८ गा० २८) भावप्रतिषेध औदयिकभावनिवारणरूपो यथा--- कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववडणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो ॥ (दश० अ० ८ गा० ३७) इत्यादि। अत्र च सूत्रे द्रव्यप्रतिषेधेनाधिकारः । तथा 'स इति' प्रतिषेधोऽमङ्गलमिति 'ते' तव बुद्धि30 भवेत् सा चायुक्ता, यतः पापानां यदकरणं तदेव खलु परमं भङ्गलं ज्ञातव्यमिति पूर्वमेव भावि १“अथेदानीमेनमेवार्थ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या विस्तारयति' इति चूर्णौ ॥ २ "भावप्रतिषेधेनेहाधिकारः, शेषास्तदनुषङ्गेण व्याख्याताः । भावप्रतिषेधेऽपि एकेन्द्रियवनस्पतिप्रतिषेधेनाधिकारः” इति चूर्णिकाराः॥ 25 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ८१४-१८ ] प्रथम उद्देशः । २६१ तम् ॥ ८१४ || तदेवमुक्तः सङ्क्षेपतः सूत्रार्थः । सम्प्रति विस्तरार्थं सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्या प्रतिपादयितुमाह आइनकारे गंथे, आमे ताले तहा पलंबे य । भिन्नस्स वि निक्खेवो, चउक्कओ होइ एक्केके ॥। ८१५ ।। आदौ नकार आदिकारः स विचारणीयः । तथा ग्रन्थपदस्य आमपदस्य तालपदस्य पल - 5 म्बपदस्य भिन्नपदस्यापि च निक्षेपः 'चतुष्कः' नाम- स्थापना - द्रव्य भावरूपः कर्त्तव्यो भवति 'एकै - कैस्मिन्' एकैकपदविषयः ॥ ८१५ ॥ तत्राऽऽदिनकारपदं वित्रियते । शिष्यः प्रश्नयति-- योऽयमादौ प्रतिषेधः स नकारेण भवतु मा नोकारेण, तद्यथा - "न कप्पइ निम्गंथाण वा निम्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए" । एवं च क्रियमाणे सूत्रं लघु भवति, “मात्रयाऽपि च सूत्रस्य लाघवं महानुत्सवः" इति विद्वत्प्रवादः, नोशब्देन पुनः प्रतिषेधे विधीयमाने सूत्रगौरवं भवति । अत्राचार्यः प्रतिवक्ति — भद्र ! कारणमत्रास्ति यतो नोकारेण प्रतिषेधः क्रियते । आह— किं पुनस्तत् कारणम् ? उच्यतेपडिसेहो उ अकारो, मोकारो नो अ तह नकारो अ । तभाव दुविहकाले, देसे संजोगमाईसु || ८१६ ॥ प्रतिषिध्यतेऽनेनेति 'प्रतिषेधः ' प्रतिषेधको वर्णः, स चतुर्धा --अकारो माकारो नोकारस्तथा नकारश्च । तत्राऽकारस्तद्भावप्रतिषेधं करोति । माकारः पुनर्द्विविधकालविषयं प्रतिषेधम्, तद्यथा— प्रत्युत्पन्नविषयम् अनागतविषयं च । नोकारो देशप्रतिषेधम् । नकारः पुनः 'संयोगादिषु ' संयोग- समवाय-सामान्य-विशेषचतुष्टयप्रतिषेधं करोति ॥ ८१६ ॥ तत्राकार-माकार- नोकाराणामुदाहरणान्याह - : संजोगे समवाए, सामने खलु तहा विसेसे अ । कालतिए पडिसेहो, जत्थुवओगो नकारस्स ।। ८१८ ॥ .10 १ यः । " गंधे" त्ति ग्रन्थस्य भेदा वक्तव्याः । तथा आमपदस्य भा० ॥ २ कः' इति एकैकपद° भा० ॥ ३ सूत्रलाघवं भव' भा० ॥ ४ सूत्रे गौ० भा० ॥ ५ मकर- नोकार तह ता० ॥ ६- एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० त० डे० नास्ति ॥ ७°व्यं द्रव्यादिकम् मो० ले० कां० ॥ . 15 निदरिसणं अघडोऽयं मा य घडं भिंद मा य भिंदिहिसि । नो उ घडो घडदेसो, तव्विवरीयं च जं दव्वं ॥ ८१७ ॥ - निर्देर्शनमिति जातावेकवचनम्, ततोऽमीषां प्रतिषेधकवर्णानां यथाक्रमं निदर्शनानि । अकारस्य तद्भावप्रतिषेधे निदर्शनं यथा -- अघटोऽयमिति, न घटो अघटः, घटव्यतिरिक्तः पटादिकः पदार्थ इत्यर्थः । माकारो वर्तमाना - ऽनागतकालप्रतिषेधको यथा— मा घटं भिन्द्धि, मा. घटं भेत्स्यसि, चकारौ समुच्चयार्थी । नोकारो देशप्रतिषेधकस्तदन्यभावसूचको वा यथा— नोघटइत्युक्ते घटैकदेशः कपालादिकोऽवयवः, तद्विपरीतं वा अन्यद् द्रव्यं पटादिकम् ॥ ८१७ ॥ अथ संयोगादिविषयं नकारप्रतिषेधं भावयति 20 30 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ संयोगे समवाये सामान्ये विशेषे चेति चतुर्धा प्रतिषेधो नकारस्य भवति । स च प्रत्येकमतीता-ऽनागत-वर्त्तमानलक्षणकालत्रिकविषयत्वादेकैकस्त्रिविध इति सर्वसङ्ख्यया द्वादशविधो नकारप्रतिषेधः । यत्र च क्वापि नकारस्योपयोगो भवति तत्रामीषां द्वादशानां भेदानामन्यतमः प्रतिषेधः प्रतिपत्तव्य इति ॥ ८१८ ॥ अथ संयोगादिषु यथाक्रमं प्रतिषेधमुदाहरति- नत्थि घरे जिणदत्तो, पुव्वपसिद्धाण तेसि दोन्हं पि । संजोगो पडिसिज्झइ, न सव्वसो तेसि अत्थितं ॥ ८१९ ॥ समवाए खरसिंगं, सामने नत्थि चंदिमा अन्नो । नत्थि य घडप्पमाणा, विसेसओ होंति मुत्ताओ ।। ८२० ॥ 'नास्ति गृहे जिनदत्तः' इत्यत्र प्रयोगे पूर्वप्रसिद्धयोस्तयोर्गृह - जिनदत्तयोर्द्वयोरपि 'संयोगः ' 10 सम्बन्धमात्रं प्रतिषिध्यते न पुनः सर्वथैव तयोरस्तित्वमिति संयोगप्रतिषेधः ॥ ८१९ ॥ समवायप्रतिषेधे तु खरशृङ्गमुदाहरणम् — खरोऽप्यस्ति शृङ्गमप्यस्ति परं खरशिरसि श्रृङ्गं नास्तीति 'समवाय: ' एकत्र संश्लेष उभयोरपि प्रतिषिध्यते इति समवायप्रतिषेधः । सामान्यप्रति - षेधो यथा—- नास्त्यस्मिन् स्थानेऽन्य ईदृशश्चन्द्रमा इति । विशेषमाश्रित्य पुनरयं प्रतिषेधः न सन्ति घटप्रमाणाः 'मुक्ताः' मुक्ताफलानीत्यर्थः, सन्ति मुक्ताफलानि परं न घटप्रमाणानीति घट15 प्रमाणत्वलक्षणस्य विशेषस्य प्रतिषिध्यमानत्वाद् विशेषप्रतिषेधः ॥ ८२० ॥ 5 भावितः संयोगादिचतुष्टयविषयः प्रतिषेधः । सम्प्रति कालत्रयविषयं तमेव भावयति-dassi न भविस्स, नेव घडो अत्थि इति तिहा काले । पडिसेहेइ नकारो, सज्जं तु अकार - नोकारा ।। ८२१ ॥ नैवासीत् न भविष्यति नैवास्ति घट इति यथाक्रममतीता - ऽनागत - वर्त्तमानभेदात् त्रिधा काल20 विषयं वस्तु नकारः प्रतिषेधयति । अकार - नोकारौ तु 'सद्यः' वर्त्तमानकालमेव प्रायः प्रतिषेधयतः, यथा — अंकरोषि त्वम्, नो कल्पते तालप्रलम्बं प्रतिग्रहीतुमित्यादि । माकारस्य द्विधकालप्रतिषेधकत्वं पूर्वमुक्तमेवेति न पुनरुच्यते ॥ ८२१ ॥ इत्थं सप्रपञ्चं प्रतिषेधमुपवर्ण्य प्रस्तुतार्थ योजनामाह 25 जम्हा खलु पडिसेहं, नोकारेणं करेति णऽण्ोणं । तम्हा उ होज गहणं, कयाइ अववायमासज्ज ॥ ८२२ ॥ यस्मात् खलु प्रतिषेधं नोकारेणैव कुर्वन्ति भगवन्तः सूत्रकृतो नान्येन नकारादिना तत एव ज्ञायते—भवेद् ग्रहणं कदाचित् तालप्रलम्बस्यापवादपदमासाद्येति ॥ ८२२ ॥ व्याख्यातमादिनकारपदम् । अथ ग्रन्थपदम् — तस्य च नामादिभेदाच्चतुर्धा निक्षेपः । तत्र नाम-स्थापने गतार्थे । द्रव्यग्रन्थस्त्रिधा – सचित्ता - ऽचित्त - मिश्रभेदात् । तत्र सचित्तश्चम्पकमाले30 त्यादि, अचित्त एकावलिहारादिकः, मिश्रः शुष्कपत्रमिश्रिता प्रसूनमाला । भावग्रन्थस्तु स १ पस्य प्र° मो० ले० कां० ॥ २ “आह माकारस्य कालोपदेशः कृतः, यथा - द्विविधकालप्रतिषेधक इति, न तु शेषाणाम्, तस्मादुच्यतां शेषाणां कालनियम उच्चते ? ण वा ?" इत्यवतरणं चूर्णो ॥ ३ अकारोषि डे० भो० ले० ॥ ४ 'मादिनोका' मो० ले ॥ ५ °त्यादिमाला | अचि मो० ० ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथाः ८१९-२७] प्रथम उद्देशः । २६३ उच्यते येन क्षेत्र-वास्त्वादिना क्रोधादिना वा अमी जन्तवः कर्मणा सहाऽऽत्मानं ग्रन्थयन्ति । तं च भाप्यकार एव सविस्तरं व्याख्यानयति सो वि य गंथो दुविहो, बज्झो अभितरो अबोधव्यो। ___अंतो अ चोद्दसविहो, दसहा पुण बाहिरो गंथो ॥ ८२३ ॥ सोऽपि च भावग्रन्थो द्विविधः, तद्यथा-बाह्योऽभ्यन्तरश्च बोद्धव्यः । तत्राभ्यन्तरो ग्रन्थश्च-5 तुर्दशविधो वक्ष्यमाणः । वाह्यः पुनर्ग्रन्थो 'दशधा' दशप्रकारो वक्ष्यमाण एव ॥ ८२३ ॥ यदि नामैवं द्विविधो ग्रन्थस्ततो निर्ग्रन्थ इति किमुक्तं भवति ? इत्याह सहिरन्नगो सगंथो, नत्थि से गंथो त्ति तेण निग्गंथो । अहवा निराऽवकरिसे, अवचियगंथो व निग्गंथो ॥ ८२४॥ सहिरण्यक इति “एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणम्” इति न्यायाद् हिरण्य-सुवर्णादिबाह्यग्रन्थसहित 10 उपलक्षणत्वाद् आन्तरग्रन्थयुक्तश्च सग्रन्थ उच्यते । 'नास्ति' न विद्यते "से" तस्य तथाविधो द्विविधोऽपि ग्रन्थः स निर्ग्रन्थः । अथवा निर्ग्रन्थ इत्यत्र यो निशब्दः सः 'अपकर्षे' अपचये वर्तते, ततश्चापचितः-प्रतनूकृतो ग्रन्थो बाह्य आभ्यन्तरश्च येन स निर्ग्रन्थ उच्यते ॥ ८२४ ॥ अथ यदुक्तं "बाह्यो ग्रन्थो दशधा" ( गा० ८२३) इति तद् विवरीषुराहखेत्तं १ वत्थु २ धण.३ धन्न ४ संचओ ५ मित्त-णाइ-संजोगो ६। 15 दशधा बाह्यो जाण ७ सयणा-ऽऽसणाणि य ८, दासी-दासं च ९ कुवियं च १०॥ ८२५॥ 'क्षेत्रं' धान्यनिप्पत्तिस्थानम् १, 'वास्तु' भूमिगृहादि २, 'धनं' सुवर्णादि ३, 'धान्यं' बीजातिः ४, 'सञ्चयः' तृण-काष्ठादिसङ्ग्रहः ५, मित्राणि-सुहृदो ज्ञातयः-खजनाः संयोगःश्वसुरकुलसम्बन्ध इति त्रिभिरप्येक एव ग्रन्थः ६, 'यानानि' वाहनानि ७, 'शयना-ऽऽसनानि च' पल्यक-पीठकादीनि ८, दास्यश्च दासाश्च दासी-दासम् ९, 'कुप्यं च' उपस्कररूपम् १० इति । 20 एष दशविधो ग्रन्थः ॥ ८२५ ।। अथैनमेव प्रतिभेदं यथाक्रमं व्याचष्टे खेत्तं सेउं केउं, सेयरहट्टाइ केउ वरिसेणं । भूमिघर वत्थु सेउं, केउं पासाय-गिहमाई ॥८२६ ॥ क्षेत्रं द्विधा-सेतु केतु च । तत्र “सेयऽरहट्टाइ"त्ति अरहट्टादिना सिच्यमानं यद् निष्पद्यते तत् सेतु, अत्राऽऽदिशब्दात् तडागादिपरिग्रहः । यत् पुनः 'वर्षेण' मेघवृष्ट्या निप्पद्यते 25 तत् केतु । वास्त्वपि सेतु-केतुभेदाद् द्विधा । भूमिगृहं सेतु, प्रासाद-गृहादिकं केतु । तत्र नरेन्द्राध्यासितः सप्तभूमादिरावासविशेषः प्रासादः, गृहं शेषजनाधिष्ठितमेकभूमादिकम् , आदिग्रहणात् कुटी-मण्डपा-उपवरकादिकं परिगृह्यते ॥ ८२६ ॥ तिविहं च भवे वत्थु, खायं तह ऊसियं च उभयं च । भूमिघरं पासाओ, संबद्धघरं भवे उभयं ॥ ८२७ ॥ 30 अथवा वास्तु त्रिविधं भवेत् , तद्यथा-खातं तथा उच्छ्रितं च 'उभयं च' खातोच्छित१ दासो दासी य कु° ता० ॥ २ भा० कां० विनाऽन्यत्र-बीजजाति ४ डे. त. ले। बीजादि ४ मो० ॥ ३ °पवारिकामो० ले. कां ॥ ग्रन्थः Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -10 २६४ सनियुक्ति लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ मित्यर्थः । त्रिविधमपि क्रमेणोदाहरति—“भूमिघर''मित्यादि । खातं भूमिगृहम् । उच्छ्रितं प्रासादः, उपलक्षणत्वादन्यदप्येकभूम-द्विभूमादिकं गृहमुच्छ्रुितम् । यत् पुनः प्रासाद-गृहादिकं भूमिगृहेण सम्बद्धं तद् भवेत् 'उभयं' खातोच्छ्रितम् ॥ ८२७ ॥ घडिएयरं खलु धणं, सणसत्तरसा विया भवे धन्नं । तण-कट्ठन्तेल्ल-घय-मधु-वत्थाई संचओ वहुहा ॥ ८२८॥ __यद् घटितम् 'इतरद् वा' अघटितं सुवर्णादिकं तद् धनमुच्यते । तथा शणं सप्तदशं येषां तानि शणसप्तदशानि वीजानि धान्यं भवेदिति । तानि चामूनि-- धान्यसप्त व्रीहिर्यवो मसूरो, गोधूमो मुद्ग-माष-तिल-चणकाः ।। दशकम् । अणवः प्रियङ्गु-कोद्रवमकुष्ठकाः शालिराढक्यः ॥ किञ्च कलाय-कुलत्थी, शणसप्तदशानि बीजानि । इति । तथा तृण-काष्ठ-तैल-घृत-मधु-वस्त्रादीनाम् आदिशब्दाद् बुस-पलालादीनां सङ्घहरूपः सञ्चयो बहुधा द्रष्टव्य इति ॥ ८२८ ॥ सहजायगाइ मित्ता, नाई माया-पिईहिं संबद्धा । ससुरकुलं संजोगो, तिणि वि मित्तादयो छट्ठो ॥ ८२९ ॥ 15 सहजातकादयः सुहृदो मित्राणि, आदिग्रहणात् सहवर्द्धितकाः सहपांशुक्रीडितकाः सहदार दर्शिनश्चेति । ज्ञातयो मातृ-पितृसम्बद्धाः, मातृकुलसम्बद्धाः पितृकुलसम्बद्धाश्चेत्यर्थः । तत्र मातृकुलसम्बद्धाः मातुल-मातामहादयः, पितृकुलसम्बद्धाः पितृव्य-पितामहादयः । श्वसुरकुलं संयोगोऽभिधीयते, किमुक्तं भवति?-श्वसुरकुलपाक्षिका ये केचित् श्वसुर-श्वश्रू-शालकादयस्तेषां सम्बन्धः संयोग उच्यते । एते मित्रादयस्त्रयोऽपि पक्षाः षष्ठो ग्रन्थः ।। ८२९ ॥ 20 जाणं तु आसमाई, पल्लंकग-पीढिगाइ अट्ठमओ। दासाइ नवम दसमो, लोहाइउवक्खरो कुप्पं ॥ ८३० ॥ यानमिति जातावेकवचनम् , ततोऽयमर्थः-यानानि पुनरवादीनि, आदिशब्दाद् गजवृषभ-रथ-शिबिकादीनि । तथा पल्यङ्कादीनि शयनानि, पीठिकादीनि च आसनानि, एप शय ना-ऽऽसनरूपोऽष्टमो ग्रन्थः । दासादिकः सर्वोऽप्यनुजीविवर्गो नवमो ग्रन्थः । तथा लोहादिक 25 उपस्करः कुप्यमुच्यते । तत्र लोहोपस्करो लोहमयकवल्ली-कुद्दालिका-कुठारादिकः । आदिशव्दाद् मार्तिकोपस्करो घटादिकः, कांस्योपस्करः स्थाल-कच्चोलकादिक इत्यादिकः सर्वोऽपि परिगृह्यते । एष दशमो ग्रन्थः ।। ८३० ॥ प्ररूपितो दशविधोऽपि बाह्यग्रन्थः, सम्प्रति चतुर्दशविधमभ्यन्तरं ग्रन्थमाहचश- कोहो १ माणो २ माया ३, लोभो ४ पेजं ५ तहेव दोसो अ६। प्रकारो- 30मिच्छत्त ७ वेद ८ अरइ ९, रइ १० हास ११ सोगो १२ भय १३ दुगुंछा १४ ॥८३१॥ [उ.नि.२४१] क्रोधो मानो माया लोभश्चेति चत्वारोऽपि प्रतीताः ४ । प्रेमशब्देनाभिप्वङ्गलक्षणो रागोऽभिधीयते ५ । दोषशब्देन त्वप्रीतिकलक्षणो द्वेषः ६ । 'मिथ्यात्वम्' अर्हत्प्रणीततत्त्वविपरीताव१ तू रहमाई ता० ॥ २ °टारिकादि ३० ॥ ऽभ्यन्तरग्रन्थः Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यरथाः ८२८-३३] प्रथम उद्देशः । २६५ बोधरूपम् । तच्च द्विविधं वा त्रिषष्ट्यधिकशतत्रयभेदं वा अपरिमितभेदं वा । तत्रानाभिग्रहिकमाभिन हेकं चेति द्विविधम् । अनाभिग्रहिकं पृथिव्यादीनाम् । आभिग्रहिकं तु षड्विधम् नत्थि न निच्चो न कुणइ, कयं न वेएइ नत्थि निव्वाणं । नत्थि य मोक्खोवाओ, छबिह मिच्छत्तऽभिग्गहियं ॥ ( कल्पबृहद्भाप्ये) त्रिपष्टयधिकशतत्रयविधं पुनरिदम् असियसयं किरियाणं, अकिरियवाईण होइ चुलसीई । अण्णाणी सत्तट्टी, वेणइयाणं च बत्तीसा ॥ ( सूत्रकृ० नि० गा० ११९) अपरिमितभेदं तु जावइया नयवाया, तावइया चेव होंति परसमया । जावइया परसमया, तावइया चेव मिच्छत्ता ॥ ___10 एवमनेकविकल्पमपि सामान्यतो मिथ्यात्वशब्देन गृह्यते इति सप्तमो भेदः ७ । वेदस्त्रिविधः स्त्री-पुं-नपुंसकभेदात् । तत्र यत् स्त्रियाः पित्तोदये मधुराभिलाष इव पुंस्यभिलाषो जायते स स्त्रीवेदः, यत् पुनः पुंसः श्लेप्मोदयादम्लाभिलाषवत् स्त्रियामभिलाषो भवति स पुंवेदः, यत्तु पण्डकस्य पित्त-श्लेप्मोदये मजिकाभिलाषवद्रुभयोरपि स्त्री-पुंसयोरभिलाषः समुदेति स नपुंसकवेद इति त्रयोऽप्येक एव भेदः ८ । तथा यदमनोज्ञेपु शब्दादिविषयेषु संयमे वा जीवस्य चित्तो-15 द्वेगः सा अरतिः ९ । यत् पुनस्तेप्वेव मनोज्ञेषु अर्सयमे वा रमणं सा रतिः १०। यत्तु सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति तद् हास्यम् ११ । प्रियविप्रयोगादिविह्वलचेतोवृत्तिराक्रन्दनादिकं यत् करोति स शोकः १२ । सनिमित्तमनिमित्तं वा यद् बिभेति तद् भयम् १३ । यत् पुनरस्नाना-ऽदन्तपवन-मण्डलीभोजनादिकमपरं वा मृतकलेवर-विष्टादिकं जुगुप्सते सा जुगुप्सा १४ । एष चतुर्दशविधोऽप्याभ्यन्तरग्रन्थ उच्यते ॥ ८३१ ॥ प्रस्तुतयोजनामाह 20 सावजेण विमुक्का, सभितर-बाहिरेण गंथेण । [उ.नि. २ ४३] निग्गहपरमा य विदू, तेणेव य होंति निग्गंथा ।। ८३२ ॥ सावद्यः-सपापः कर्मोपादाननिबन्धनत्वाद् यो ग्रन्थस्तेन साभ्यन्तर-बाह्येन ये मुक्तास्ते निर्ग्रन्था उच्यन्ते, येऽपि चाऽऽन्तरग्रन्थेन न सर्वथा मुक्तास्तेऽपि; येन विद्वांसः क्रोधादिदोषवेदिनस्तथा 'निग्रहपरमाः' तन्निर्जयप्रधानाः, तेनैव कारणेन ते निम्रन्था भवन्ति ॥ ८३२ ॥ 25 अथाऽऽन्तरग्रन्थमधिकृत्य ये मुक्ता ये चामुक्तास्तदेतदभिधित्सुराह केई सव्यविमुक्का, कोहाईएहि केइ भइयव्वा । सेढिदुगं विरएत्ता, जाणसु जो निग्गओ जत्तो ॥ ८३३ ॥ 'क्रोधादिभिः' आन्तरग्रन्थैः केचित् ‘सर्वविमुक्ताः' सर्वैरपि विप्रमुक्ताः, केचित् पुनः 'भक्तव्याः' विकल्पनीयाः, कैश्चिद् मुक्ताः कैश्चिदपि न मुक्ता इत्यभिप्रायः । अत्र शिप्यः 30 प्राह-कथं नु नामेदं ज्ञास्यते 'अमी सर्वथा मुक्ता अमी च न मुक्ताः' ? इति, उच्यते'श्रेणिद्विकम्' उपशमश्रेणि-क्षपक श्रेणिलक्षणं 'विरचय्य' यथोक्तपरिपाट्या स्थापयित्वा ततो जानीहि १°न्यशब्देन मो० ले० ॥ २ सावजगंथमुक्का ता० ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमश्रेणिः २६६ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ यः 'यतः क्रोधादेर्निर्गतो अनिर्गतो वेति ॥ ८३३ ॥ अथ केयमुपशमश्रेणिः १ का वा क्षपकश्रेणिः ? इत्याशङ्कापनोदाय प्रथमत उपशमश्रेणिमाह अण दंस नपुंसि-स्थीवेय च्छकं च पुरिसवेयं च । दो दो एगंतरिए, सरिसे सरिसं उवसमेइ ।। ८३४ ॥ 5 इहोपशमश्रेणेः प्रारम्भकोऽप्रमत्तसंयतः, समाप्तौ पुनः प्रमत्तसंयतोऽविरतसम्यग्दृष्टिर्वा भवेत् । यत उक्तम् उवसामगसेढीए, पट्ठवओ अप्पमत्तविरओ उ। पज्जवसाणे सो वा, होइ पमत्तो अविरओ वा ॥ (विशे० गा० १२८५) अविरत-देशविरत-प्रमत्ता-ऽप्रमत्तसंयतानामन्यतमः प्रतिपद्यते इत्येके । प्रतिपत्तिक्रमश्वायम् ---- 10“अण"ति प्रथमतो युगपदन्तर्मुहूर्तेनानन्तानुबन्धिनः क्रोध-मान-माया-लोभानुपशमयति । ततः 'दर्शन' मिथ्यात्व-सम्यग्मिथ्यात्व-सम्यग्दर्शनभेदात् त्रिविधमपि युगपदुपशमयति । सर्वत्र युगपदुपशमनकालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणो द्रष्टव्यः । ततो यदि पुरुषः प्रारम्भकस्ततः प्रथमं नपुंसकवेदम् , पश्चात् स्त्रीवेदम् , ततो हास्य-रत्य-ऽरति-शोक-भय-जुगुप्साषट्कम् , ततः पुरुषवेदम् ; अथ स्त्री प्रारम्भिका ततः प्रथमं नपुंसकवेदम् , पश्चात् पुरुषवेदम् , ततो हास्यादिषट्कम् , ततः स्त्रीवेदम् ; 15 अथ नपुंसक एव प्रारम्भकस्ततः प्रथमं स्त्रीवेदम् , पश्चात् पुरुषवेदम् , ततः पटकम् , ततो नपुंसकवेदम् । तथा 'द्वौ द्वौ' अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानरूपौ क्रोधादिको 'एकान्तरितौ' सज्ज्वलनक्रोधाद्यन्तरितौ 'सदृशौ' तुल्यावुपशमय्य सदृशमेवोपशमयति । इयमत्र भावना-अप्रत्यास्त्यान-प्रत्याख्यानौ क्रोधौ क्रोधत्वेन परस्परं सदृशौ युगपदुपशमयति, ततः सञ्जवलनक्रोधमेकाकि नमेव; ततोऽप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानौ मानौ, ततः सज्ज्वलनमानम् ; ततोऽप्रत्याख्यान-प्रत्याख्याने 20 माये, ततः सज्वलनमायाम् ; ततोऽप्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानौ लोभौ, ततः सज्वलनलोभम् । तं चोपशमयस्त्रिधा करोति, आद्यौ द्वौ भागौ युगपदुपशमयति, तृतीयं भागं सद्ध्येयानि खण्डानि करोति, तान्यपि पृथक् पृथक् कालभेदेनोपशमयति, पुनः सङ्ख्येयखण्डानां चरमखण्डमसङ्ख्येयानि खण्डानि करोति, ततः समये समये एकैकं खण्डमुपशमयति । इह च दर्शनसप्तके उपशान्ते सति निवृत्तिबादरः, तत ऊर्द्धमनिवृत्तिबादरो यावद् लोभस्य द्विचरमं सङ्ख्येयखण्डम् , 25 चरमसङ्ख्येयखण्डस्य पुनरसहोयखण्डान्युपशमयन् सूक्ष्मसम्पराय उच्यते । स्थापना १ "ततो अपच्चक्खाणं च लोभं पच्चक्खाणावरणं च लोभं जुगवं उवसामेति, ततो संजलणं लोभं संखेजाणि खंडाणि करोति, पढमेल्लं च खंडं पउवसामितो बादरसंपरायो य उवसामओ लब्भति, एगेगं खंडं उवसातो जाधे संखेजतिमं अंतिल्लं खंडं पत्तो भवति ताधे ते असंखेजाणि खंडाणि करोति, पढमिलं च खंडयं च पउवसामितो सुहमसंपराओ य उवसामओ लब्भति, ममए समए एक्केवं खंडं उवसामेति, जदा तं अंतिहं असंखेज्जतिमं खंडं उवसामियं भवति तदा उवसामियणियंठो भवति" इति चूर्णिः॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ८३४-३५ ] | सं० लोभ | | अप्र० लोभ | प्र० लोभ अप्र० माया | प्र० भाया सं० मान एवं समापितोपशम श्रेणीक उपशान्तमोहवीतराग गुणस्थानकमनुभवन् यथाख्यातचारित्री भवति । स च यदि बद्धायुः प्रतिपद्यते तदवस्थश्च म्रियते ततो नियमादनुत्तरविमानवासिषूपपद्यते, श्रेणिप्रच्युतस्य पुनरनियमः । 5 अथावद्धायुस्ततो जघन्येनैकसमयमुत्कर्षतोऽन्तमुहूर्त्तमुपशमकनिर्ग्रन्थो भूत्वा नियमतः कापि वस्तुनि लुब्धः पुनरप्युदितकषायः श्रेणिप्रतिलोममावर्त्त्य देशप्रतिपातेन सर्वप्रतिपातेन वा प्रतिपतति, यतो नासौ जघन्यतोऽपि तद्भव 10 पुंवे ० हास्य | रति | अरति भय | शोक | जुगुप्सा स्त्री० न० वे० मि० | मिश्र स० अन० क्रोध | अन० मान | अन० माया | अन० लोभ | एव निःश्रेयसपदमश्नुते, उत्कर्षतः पुनर्देशोनापार्द्धपुद्गलपरावर्त्तं संसारं संसरति । यत उक्तम् तमि भवे निवाणं, न लहइ उक्कोसओ वि संसारं । प्रथम उद्देशः । अप्र० मान प्र० मान | सं० क्रोध अप्र० क्रोध । प्र० क्रोध २६७ पोग्गलपरियदृद्धं देणं कोइ हिंडेज्जा ॥ ( विशे० गा० १३०८ ) अस्यां चोपशमश्रेण्यां प्रविष्टेन येन यद् अनन्तानुबन्ध्यादिकमुपशमितं स उपशमनां प्रतीत्य 15 तेन विप्रमुक्त उच्यते ॥ ८३४ ॥ प्ररूपिता उपशमश्रेणिः । क्षपक श्रेणिमाहअण ४ मिच्छ ५ मीस ६ सम्म ७, अट्ठ १५ नपुंसि १६ त्थिवेय १७ छकं च २३ । मवेयं च २४ खवेई, कोहाईए अ संजलणे २८ ॥। ८३५ ॥ इह क्षपकश्रेणिमविरत- देशविरत-प्रमत्ता-ऽप्रमत्तसंयतानामन्यतम उत्तमसंहननः प्रशस्तध्यानोपगतमानसः प्रतिपद्यते । तदुक्तं क्षपकश्रेणिप्रक्रमे— 20 पडिवत्तीए अविरय-देस-पमत्ता - ऽपमत्तविरयाणं । अन्नयरो पडिवज्जइ, सुद्धज्झाणोवगयचित्तो ॥ ( विशे० गा० १३१४ ) तत्र पूर्वविदप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि प्रतिपद्यते, शेषास्तु धर्मध्यानोपगता एवेति । प्रतिपत्तिक्रमश्चायम् - प्रथममन्तर्मुहूर्तेनानन्तानुबन्धिनः क्रोधादींश्चत्वारोऽपि युगपत् क्षपयति । तद्नन्तभागं तु मिथ्यात्वे प्रक्षिप्य तेन सह मिथ्यात्वं क्षपयति । तस्याप्यनन्तभागं सम्यग्मिथ्यात्वे 25 प्रक्षिप्य तदपि सावशेषं क्षपयति । आह किं पुनः कारणं सावशेषं क्षपयति ? इति उच्यतेयथा खल्वतिसम्भृतो दावानलो दरदग्धेन्धन एवेन्धनान्तरमासाद्योभयमपि दहति एवमसावपि क्षपकस्तीत्रशुभपरिणामत्वात् प्राक्तने कर्मण्येनिःशेषित एवापरं क्षपयितुमारभते एवं सम्यग्मिथ्यात्वस्यावशेषं सम्यक्त्वे प्रक्षिप्य तेन सह सम्यक्त्वं निरवशेषमेव क्षपयति । यदाह चूर्णिकृत् - जं तं सेसं तं सम्मत्ते छुभित्ता निरवसेसं खवेइ त्ति । 30 एतच्च बद्धायुष्कापेक्षं सम्भाव्यते, आवश्यकादौ तमेवाधिकृत्य सम्यक्त्वनिरवशेषक्षपणस्योक्तत्वात् । इह च यदि वद्धायुः प्रतिपद्यते अनन्तानुबन्धिक्षये च व्युपरमते ततो मिथ्यादर्शनोद १ यदुक्तं डे० त० ॥ २ ण्यल्पशे डे० त० ॥ ३ हारिभद्रीयटीका पत्र ८४ - १ ॥ क्षपक श्रेणिः Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् ? यतस्तान् पुनरप्यनुचिनोति, मिथ्यात्वे तद्वीजसम्भवात् ; क्षीणमिथ्यात्वस्तु नोपचिनोति, मूलाभावात् ; तदवस्थश्च मृतोऽवश्यमेव त्रिदशेषूपपद्यते । क्षीणदर्शनसप्तकोऽप्यप्रतिपतितपरिणामो म्रियमाणः सुरगतावेवोपपद्यते । प्रतिपतितपरिणामस्तु नानामतित्वात् सर्वगतिभाग भवति । तथा चोक्तम् बद्धाऊ पडिवन्नो, पढमकसायक्खए जइ मरिज्जा । तो मिच्छत्तोदयओ, चिणिज्ज भुज्जो न खीणम्मि ॥ (विशे० गा० १३१६) तम्मि मओ जाइ दिवं, तप्परिणामो य सत्तए खीणे । उवरयपरिणामो पुण, पच्छा नाणामइ-गईओ ॥ ( विशे० गा० १३१७ ) स च यदि बद्धायुः प्रतिपद्यते ततो नियमाद् दर्शनसप्तके क्षीणे सत्युपरमते । अबद्धायुप्कः 10 पुनरनुपरत एव समस्तां श्रेणिं समापयति । स च खल्पसम्यग्दर्शनावशेष एवाप्रत्याख्यान-प्रत्या ख्यानावरणकषायाष्टकं क्षपयितुं युगपदारभते । एतेषां च सङ्ख्येयतमं भागं क्षपयन् एताः पोडश प्रकृतीः क्षपयति । तद्यथा-नैरयिकगतिनाम तिर्यग्गतिनाम एकेन्द्रियजातिनाम द्वीन्द्रियजातिनाम त्रीन्द्रियजातिनाम चतुरिन्द्रियजातिनाम नरकानुपूर्वीनाम तिर्यगानुपूर्वीनाम अप्रशस्त विहायोगतिनाम स्थावरनाम सूक्ष्मनाम अपर्याप्तनाम साधारणनाम निद्रानिद्रां प्रचलाप्रचलां 15 स्त्यानगृद्धिमिति । ततोऽष्टानां कषायाणामवशेष क्षपयति । ततो नपुंसकवेदम् । ततः स्त्रीवेदम् । ततो हास्यादि षट्कम् । ततः पुरुषवेदं त्रिधा कृत्वा खण्डद्वयं युगपत् क्षपयति, तृतीयं तु खण्डं सञ्वलनक्रोधे प्रक्षिपति, पुरुषे प्रतिपत्तर्ययं क्रमः । स्त्री-नपुंसकयोः प्रतिपत्रोरुपशमश्रेणिन्यायो वक्तव्यः । क्रोधादींश्च सज्वलनान् प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तनानेनैव खण्डत्रयरचनान्यायेन क्षपयति । श्रेणिपरिसमाप्तिकालोऽप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाण एव द्रष्टव्यः । केवलं बृहत्तरमत्रान्तर्मुहूर्तम् , अन्तर्मु20 हू नामसङ्ख्येयमेदत्वात् । लोभचरमखण्डं तु सङ्ख्येयानि खण्डानि कृत्वा पृथक् पृथक् क्षपयति । चरमसङ्ख्येयखण्डं पुनरसङ्ख्येयानि खण्डानि करोति । तेषामपि समये समये एकैकं क्षपयति । इह च क्षीणदर्शनसप्तको निवृत्तिवादरसम्पराय उच्यते, तत ऊर्ध्वमनिवृत्तिबादरसम्परायो यावत् सज्वलनलोभस्य द्विचरमसङ्ख्येयखण्डम् , चरमसङ्ख्येयखण्डस्य पुनरसङ्ख्येयानि खण्डानि क्षपयन् सूक्ष्मसम्पराय उच्यते, तत ऊर्द्ध क्षीणमोहच्छद्मस्थवीतरागो यथाख्यातचारित्री भवति । ततो यथा 25 कश्चिद् महापुरुषो बाहुभ्यामपारगम्भीरां महानदीं ती| स्ताघमासाद्य क्षणमेकं विश्राममादत्ते एवमयमपि दुस्तरं मोहसागरं तीर्खा सञ्जातपरिश्रमो विश्राम्यतीति । ततश्छद्मस्थवीतरागत्वसम्बन्धिनि समयद्वयेऽवशिष्यमाणे प्रथमे समये निद्रां १ प्रचला २ देवगति ३ देवानुपूर्वी ४ वैक्रियशरीरनामकर्म ५ वर्षभनाराचसंहननं मुक्त्वा शेषाणि संहननानि १० षष्णां संस्थानानां मध्ये यस्मिन् व्यवस्थितस्तदेकं मुक्त्वा शेषाणि संस्थानानि १५ आहारकशरीरनाम १६ यद्यती30 र्थकरः प्रतिपत्ता ततस्तीर्थकरनामकर्मापि १७ इत्येवं सप्तदश प्रकृतीः क्षपयति । ततो द्वितीये समये पञ्चप्रकारं ज्ञानावरणं चतुर्विधं दर्शनावरणं पञ्चविधमन्तरायं च क्षपयित्वा विमलकेवलश्रियमवाप्नोतीति । स्थापना चेयम्--- Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भाप्यगाथाः ८३६-३७] प्रथम उद्देशः । २६९ सं० लोभ सं० माया । सं० मान |सं० क्रोध पु. वेद हास्य रति अरति भय शोक जुगुप्सा स्त्रीवेद । न० वेद | अप्र० क्रोध | प्र. क्रोध | अप्र० मान | प्र० मान अप्र० माया | प्र. माया | अग्र० लोभ प्र० लोभ | सम्यक्ल मिश्र मिथ्याल । | अन० क्रोध अन० मान अन० माया | अन० लोभ | एनां च क्षपकश्रेणिमध्यासीनेन येन यदनन्तानुबन्ध्यादिकं क्षपितं स तेन मुक्त इत्यवसातव्यम् । येऽपि श्रेणिद्वयमद्यापि न प्रतिपद्यन्ते किन्तु सामायिक-च्छेदोपस्थापनीय-परिहारविशुद्धिकानामन्यतमस्मिन् संयमे वर्तन्ते तेऽपि सज्वलनचतुष्टयवर्जीदशभिः कपायैर्मुक्ता इत्यवगन्तव्यम् । यत उक्तम् बारसविहे कसाए, खविए उत्सामिए व जोगेहिं । लभइ चरित्तलंभो, तस्स विसेसा इमे पंच ॥ ( आव०नि० गा० ११३ ) ॥८३५॥ ततश्च जे वि अ न सव्वगंथेहिं निग्गया होंति केइ निग्गंथा । ते वि य निग्गहपरमा, हवंति तेसिं खउज्जुत्ता ॥ ८३६ ॥ येऽपि च सरागसंयमवर्तिनः सर्वेभ्य आन्तरग्रन्थेभ्यो न निर्गताः तेऽपि 'तेषां सज्वलनक-10 पायादीनां 'क्षयोद्युक्ताः' उदयनिरोधोदयप्राप्तविफलीकरणाभ्यां क्षयकरणायोद्यताः सन्तः 'निग्रहपरमाः' आन्तरग्रन्थनिग्रहप्रधाना भवन्ति इत्यतो निर्ग्रन्था उच्यन्ते ।। ८३६ ॥ अपि च कलुसफलेण न जुज्जइ, किं चित्तं तत्थ जं विगयरागो। संते वि जो कसाए, निगिण्हई सो वि तत्तुल्लो ।। ८३७ ॥ कलुषयन्ति-सहजनिर्मलं जीवं कर्मरजसा मलिनयन्तीति “अच्” (सिद्ध० ५-१-४९) 15 इति अच्प्रत्यये कलुषाः-कषायास्तेषां यत् फलं-परुषभाषण-नयनमुखविकार-रौद्रध्यानानुबन्धादिकं तेन सह यद् “न युज्यते' न सम्वन्धमुपयाति 'विगतरागः' विशेषेण-अपुनर्भावेन गतो रागो यस्मात् स विगतरागः, क्षीणमोह इत्यर्थः । तत्र 'किं चित्रम् ?' किमाश्चर्यम् ? कषायलक्षणकारणाभावाद् न किञ्चिदित्यर्थः । यस्तु 'सतोऽपि' विद्यमानानपि कषायान् 'निगृहाति' उदीयमानानेव प्रथमतो निरुणद्धि कथञ्चिदुदयप्राप्तान् वा विकलीकरोति सोऽपि 'तत्तुल्यः' 20 वीतराग इव निकषायो मन्तव्यः, सतामपि कषायाणामसत्कल्पताकरणात् । अतः सरागसंयतोऽपि निर्ग्रन्थोऽभिधीयते इति ।। ८३७ ॥ अथ परः प्रश्नयति Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ जइ अभितरमुक्का, बाहिरगंथेण मुक्या किह णु। गिण्हंता उवगरणं, जम्हा अममत्तया तेसु ॥ ८३८ ॥ यद्यनन्तरोक्तप्रकारेणाऽभ्यन्तरग्रन्थमुक्तास्ततो वस्त्र-पात्रादिकमुपकरणं गृह्णन्तः कथं 'नुः' इति वित बाह्यग्रन्थेन मुक्ता उच्येरन् ?, वस्त्रादेरपि ग्रन्थरूपत्वादित्यभिप्रायः । सूरिराह—यस्मात् 5 'तेषु' वस्त्र-पात्रादिषु न विद्यते ममत्वं-मूर्छा येषां ते 'अममत्वकाः' "शेषाद्वा” (सिद्ध० ७ ३-१७५) इति कच्प्रत्ययः मूर्छारहितास्तेन बाह्यग्रन्थमुक्ता अप्यभिधीयन्ते । इयमत्र भावनामूर्छा परिग्रहो गीयते न तूपकरणादिधारणमात्रम् , “मुच्छा परिग्गहो वुत्तो" (दशवै० अ० ६ गा० २१) इति वचनात् । अतः संयमोपष्टम्भादिनिमित्तमुपकरणं धारयन्नपि विशुद्धचेतोवृत्तिरपरिग्रह एव ज्ञातव्यः । तदुक्तं परमगुरुभिः-- अज्झत्थविसोहीए, उवगरणं वाहिरं परिहरंतो । __ अपरिग्गहो त्ति भणिओ, जिणेहिँ तेलोक्कदंसीहिं॥(ओघनि० गा० ७४५) ॥ ८३८॥ गतं ग्रन्थपदम् । अथाऽऽमपदं विवरीषुराह---- नामं ठवणा आमं, दव्वामं चेव होइ भावामं । उस्सेइम संसेइम, उवक्सडं चेव पलियामं ॥ ८३९ ॥ [नि. ४७०८-२२॥ 15 आमं चतुर्धा, तद्यथा--नामामं स्थापनामं द्रव्यामं भावामम् । तत्र नाम-स्थापने गतार्थे । द्रव्यामं पुनश्चतुर्धा, तदेव दर्शयति----“उस्सेइम' इत्यादि । उत्-ऊर्दू निर्गच्छता बाप्पेण यः खेदः स उत्स्वेदः, उत्खेदेन निवृत्तमुत्स्वेदिमम् , "भावादिमः” (सिद्ध० ६-४-२१) इति सूत्रेण इमप्रत्ययः, उत्खेदिमं च तदामं च उत्स्वेदिमामम् १ । सम्-एकीभावेन खेदः संवेदः, तेन निवृत्तं संखेदिमम्, तदेवामं संखेदिमामम् २ । तथोपस्कृता-राद्धा ये वल्ल-चणकादयः, 20 तेषां मध्ये यदामं तदुपस्कृतामम् ३ । पर्यायः-स्वाभाविक औपाधिको वा फलानां पाकपरिणामः, तस्मिन् प्राप्तेऽपि यदामं तत् पर्यायामम् ४ ॥ ८३९ ॥ अथोत्स्वेदिमादिचतुष्टयमेव व्याचष्टे उस्सेइम पिटाई, तिलाइ संसेइमं तु णेगविहं । कंकडयाइ उवक्खड, अविपक्करसं तु पलियामं ॥ ८४०॥ उत्खेदिमं 'पिष्टादि' पिष्टं-सूक्ष्मतन्दुलादिचूर्णनिप्पन्नम् , तद्धि वस्त्रान्तरितमधःस्थितस्यो25 प्णोदकस्य बाप्पेणोत्विद्यमानं पच्यते, तत्र यदामं तद् उत्स्वेदिमामम् , आदिग्रहणाद् भरोलादिपरिग्रहः । संखेदिमं पुनस्तिलादिकमनेकविधम् , इह क्वचित् पिठरादौ पानीयं तापयित्वा पिठरिकायां प्रक्षिप्तास्तिलास्तेनोप्णोदकेन सिच्यन्ते ततस्ते तिलाः संविद्यन्ते, तेषां संखिन्नानां मध्ये ये आमास्तत् संखेदिमामम् , आदिग्रहणेन यदन्यदप्येतेन क्रमेण संखिद्यते तत् संखेदिमामम् । तथा चणक मुद्गादीनामुपस्कृतानां ये कङ्कटुकादय आमास्ते उपम्कृतामम् । पर्यायाम पुनरविपक्करर्स 30 फलादिकमुच्यते ॥ ८४० ॥ तच्चतुर्विधम् , तद्यथा--- इंधण धूमे गंधे, वच्छप्पलियामए अ आमविही । एसो खलु आमविही, नेयबो आणुपुबीए ॥ ८४१॥ १ सिध्यन्ते ई० त० का .. || Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ८३८ - ४५ ] प्रथम उद्देशः । २७१ इन्धनपर्यायामं धूमपर्यायामं गन्धपर्यायामं वृक्षपर्यायाममित्येवं पर्यायाने आमविविश्चतुःप्रकारः । एष खलु आमविधिर्ज्ञातव्यः 'आनुपूर्व्या' यथोक्तया परिपाट्या । यद्वा आनुपूर्वी नाम वक्ष्यमाणलक्षणा पलालवेष्टन - गर्त्ताखनन - करीषप्रक्षेपणादिका यथायोगमामफलपाचनाय रचना तया ज्ञातव्य आमविधिरिति ॥ ८४१ ॥ अथेन्धन - धूमपर्यायामे विवृणोति कोवपलालभाई, धूमेणं तिंदुगाइ पचते । मज्झऽगडाऽगणि पेरंत हिंदुया छिद्दधूमेणं ।। ८४२ ॥ 5 कोद्रवपलालादिकमिन्धनमुच्यते, आदिग्रहणेन शालिपलालपरिग्रहः, तेन चाऽऽम्रफलादीनि फलानि वेष्टयित्वा पाच्यन्ते, तत्र यान्यपक्कानि फलानि तद् इन्धनपर्यायामम् । तथा धूमेन तिन्दुकादीनि फलानि पाच्यन्ते, कथं पाच्यन्ते : इत्याह - " मज्झऽगडाइ " चि प्रथमतो गर्त्ताया मध्ये करीषः प्रक्षिप्यते, तस्याश्च गर्त्तायाः पार्श्वेष्वपरा गर्त्ताः खन्यन्ते, तासु च गर्तासु तिन्दु- 10 कादीनि फलानि प्रक्षिप्य मध्यमायां करीषगर्त्तायां “अगणि"त्ति अग्निर्दीयते, तासां च “पेरंत” त्ति पर्यन्तगर्त्तानां श्रोतांसि मध्यमगर्त्तया सह मीलितानि क्रियन्ते, ततस्तस्याः करीषगर्त्तायाः सकाशाद् धूमस्तैः श्रोतोभिः पर्यन्तगर्त्तासु प्रविशति, ततस्तच्छिद्रसम्बन्धिना धूमेन प्रसरता तानि फलानि पाच्यन्त इति, तेषां मध्ये यदामं तद् धूमपर्यायामम् ॥ ८४२ ॥ अथ गन्ध-वृक्षपर्यायामे भावयति 15 अंग-चिभिडमाई, गंधेणं जं च उवरि रुक्खस्स । कालप्पत्त न पच्चर, वत्थप्पलियामगं तं तु ॥ ८४३ ॥ आम्रक-चिर्भटादीनि आदिशब्दाद् बीजपूरकादीनि यान्यपक्कानि फलानि तेषां मध्ये पक्कानि प्रक्षिप्यन्ते, तेषां गन्धेन प्राक्तनान्यामकानि पच्यन्ते, तत्र यद् अपक्कं फलं तद् गन्धपर्यायामम् । तथा "जं च "त्ति चशब्दस्य पुनरर्थत्वाद् यत् पुनर्वृक्षस्योपरि शाखायां वर्त्तमानं काले -- वसन्ता - 20 दिलक्षणे पाकसमये प्राप्तेऽपि परिपक्केष्वप्यपरफलेषु न पच्यते तद् वृक्षपर्यायामम् ॥ ८४३ ॥ व्याख्यातं चतुर्विधमपि पर्यायामम् । तद्व्याख्याने च समर्थितं द्रव्यामम् । अथ भावामस्वरूपं निरूपयति चोपयुक्तः, उपयोगस्य भावरूपत्वाद् ज्ञानस्य चागमरूपत्वात् ॥ ८४५ ॥ तदेवाह — भावापि यदुविहं, वयणामं चैव नो य वयणामं । वयणाम अणुमयत्थे, आमं ति हि जो वदे वकं ॥ ८४४ ॥ नोवयणामं दुविहं, आगमतो चेव नो अ आगमतो । आगमें नाणुवउत्तो, नोआगमओ इमं होइ ।। ८४५ ॥ भावाममपि द्विविधम्---वचनामं चैव नोवचनामं च । वचनरूपमामं वचनामम्, अनुमतार्थे 'आम्' इति यः 'वाक्यं' वचनं वदेत् तद् वचनामम् । यथा— कोऽपि साधुर्गुरूणां कार्येण गच्छन्नपरेण पृष्टः – आर्य ! किं गुरुकार्येण गम्यते ?, स प्रत्याह -- आमम्, एवमेतदित्यर्थः ॥ ८४४ ॥ ३० नोवचनामं द्विविधम्-आगमतश्चैव नोआगमतश्च । तत्रागमत आमपदार्थज्ञानयुक्तस्तत्र नोआगमतो भावाममिदं भवति 25 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ उग्गमदोसाईया, भावतों अस्संजमो अ आमविही । अन्नो वि य आएसो, जो वरिससयं न पूरेइ ।। ८४६ ॥ उद्गमदोषाः-आधाकर्मादयः, आदिग्रहणाद् उत्पादनादोषा एषणादोषाश्च, एतद् भावामं प्रतिपत्तव्यम् । तथा च आचाराङ्गसूत्रम् सवामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिवए (श्रु० १ अ० २ उ० ५)। 'असंयमश्च' पृथिव्याधुपमर्दलक्षणो भावतः आमविधिरेव ज्ञातव्यः, चारित्रापकताकरणात् । यद्वाऽन्योऽपि 'आदेशः' प्रकारो भण्यते-यो वर्षशतायुः पुरुष आयुप्कोपक्रमेण वर्षशतमपूरयित्वा म्रियते सोऽपि भावत आमः, आयुषः परिपाकमन्तरेण मरणात् । अत्र च द्रव्यामेणाधि कारः, तत्रापि वृक्षपर्यायामेण, शेषाणामुच्चारितसदृशतया विनेयव्युत्पादनार्थं प्रसङ्गतः प्ररूपित10 त्वात् ॥ ८४६ ॥ व्याख्यातमामपदम् । अथ तालपदं विवृणोति नामं ठवणी दविए, तालो भावे य होइ नायव्यो । जो भविओ सो तालो, दब्वे मूलुत्तरगुणेसु ॥ ८४७॥ नामतालः स्थापनातालो द्रव्यतालो भावतालश्च भवति ज्ञातव्यः । तत्र नाम-स्थापने क्षुण्णे । द्रव्यतालः पुनरयम्-"जो भविउ" ति यः खलु 'भव्यः' भावितालपर्यायः । स च त्रिधा• 15 एकभविको बद्धायुप्कोऽभिमुखनाम-गोत्रश्च । तत्रैकभविको नाम यो विवक्षितभवानन्तरं तालत्वे नोत्पत्स्यते, बद्धायुप्को येन तालोत्पत्तिप्रायोग्यमायुःकर्म बद्धम् , अभिमुखनाम-गोत्रः पुनर्विपाकोदयाभिमुखतालसम्बन्धिनाम-गोत्रकर्मा तालत्वेनोत्पित्सया विक्षिप्तजीवप्रदेशः । यद्वा द्रव्यतालो द्विविधः-मूलगुणनिर्वर्तित उत्तरगुणनिर्वर्तितश्च । तत्र खायुषः परिक्षयादपगतजीवो यः स्कन्धादिरूपस्तालः स मूलगुणनिर्वर्तितः, यस्तु काष्ठ-चित्रकर्मादिप्वालिखितः स उत्तरगुणनि20वर्तितः । एष द्रव्यतालः ॥ ८४७ ॥ सम्प्रति भावतालमाह भावम्मि होति जीवा, जे तस्स परिग्गहे समक्खाया। बिइओ वि य आदेसो, जो तस्स विजाणओ पुरिसो ॥८४८॥ 'भावे' भावविषयस्तालो ये जीवाः 'तस्य' तालस्य परिग्रहे मूल-कन्दादिगतास्ते सर्वेऽपि समुदिताः सन्तो भावताल इति समाख्याताः, नोआगमत इति भावः । द्वितीयोऽप्यत्रादेशोऽस्ति25 यः तस्य' तालस्य 'विज्ञायकः' उपयुक्तः पुरुषः सोऽपि भावताल उच्यते, आगमत इत्यर्थः । अत्र च नोआगमतो भावतालेनाधिकारः, तस्य सम्बन्धि यत् फलं तदिह तालशब्देन प्रत्येतव्यम् ।। ८४८॥ गतं तालपदम् । अथ प्रलम्बपदं विवृणोति नाम ठवण पलंब, दव्वे भावे अ होइ बोधव्वं । अट्टविह कम्मगंठी, जीवो उ पलंबए जेणं ॥ ८४९ ॥ 30 नामप्रलम्बं स्थापनाप्रलम्ब द्रव्यप्रलम्बं भावप्रलम्यं च भवति बोद्धव्यम् । नाम-स्थापने सुगमे । द्रव्यप्रलम्बमेकभविक-बद्धायुष्का-ऽभिमुखनामगोत्रभेदभिन्नं मूलोत्तरगुणभेदभिन्नं च द्रव्यतालवद् भावप्रलम्बं च भावतालवद् वक्तव्यम् । यद्वा अष्टविधः कर्मग्रन्थि वप्रलम्बमुच्यते । कुतः ? १°णातालो दन्ने भावे ता० ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ८४६-५४ ] प्रथम उद्देशः । २७३ इत्याह---येन कर्मणा जीवः तुशब्दः संसारीति विशेषणार्थः 'प्रलम्बते' नैरयिकादिकां गतिं गति प्रति लम्बत इति तद् भावतः प्रलम्बम् ॥ ८४९ ॥ अत्र परः प्राह तालं तलो पलंब, तालं तु फलं तलो हवइ रुक्खो । पलं च होइ मूलं, झिझिरिमाई मुणेयव्वं ॥ ८५० ॥ किमिदं तालम् ? को वा तलः ? किं वा प्रलम्बम् ? । अत्र सूरिराह—तालं तावत् फलं तल-5 वृक्षसम्बन्धि, तच्चाग्रप्रलम्बमुच्यते । तल: पुनस्तदाधारभूतो वृक्षः । प्रलम्ब पुनर्मूलं भवति, प्रलम्बशब्देनेह मूलप्रलम्ब गृहीतमिति भावः । तच्च 'झिज्झिर्यादिकं' झिज्झिरिप्रभृतिवृक्षसम्बन्धि "मुणेयवं" ज्ञातव्यम् ॥ ८५० ॥ तदेव मूलप्रलम्बमाह झिझिरि सुरभिपलंबे, तालपलंवे अ सल्लइपलंबे । एतं मूलपलंब, नेयव्वं आणुपुवीए ॥ ८५१॥ 10 झिझिरी-वल्लीपलाशकः सुरभिः-सिग्गुकः तयोः प्रलम्ब-मूलम् । एवं तालप्रलम्बं च सल्लकीप्रलम्बम् , चशब्दादन्यदपि मूलं यद् लोकस्योपभोगमायाति तदेतद् मूलप्रलम्बं ज्ञातव्यमानुपूर्व्या ॥ ८५१ ॥ अथाग्रप्रलम्ब विवृणोति __ तल नालिएर लउए, कविट्ठ अंबाड अंबए चेव।। एअं अग्गपलंब, नेयव्वं आणुपुवीए ॥ ८५२ ॥ तलफलं नालिकेरफलं लकुचफलं कपित्थफलम् आम्रातकफलम् आम्रफलं चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वाद् अन्यदपि कदलीफल-वीजपूरादिकम् एतदअप्रलम्ब ज्ञातव्यमानुपूा ॥ ८५२॥ अथ परः प्राह जइ मूल-ऽग्गपलंबा, पडिसिद्धा न हु इयाणि कंदाई । कप्पंति न वा जीवा, को व विसेसो तदग्गहणे ॥ ८५३ ॥ 20 यदि मूलप्रलम्बा-ऽअप्रलम्बे प्रतिषिद्धे न पुनः 'इदानीम्' अस्मिन् सूत्रे 'कन्दादयः' कन्दस्कन्ध-त्वक्-शाखा-प्रवाल-पत्र-पुष्प-बीजानि प्रतिषिद्धानि, यतश्चैतेषां प्रतिषेधं न करोति सूत्रं ततो मदीयायां मतौ प्रतिभासते-अवश्यमेते कन्दादयः कल्पन्ते प्रतिग्रहीतुं जीवा अपि सन्तः, अथवा तत्त्वतो नाऽमी जीवा भवन्ति, यदि हि जीवा भवेयुस्ततः प्रतिषेधोऽप्यमीषामस्मिन् सूत्रे कृतः स्यात् ; अथेत्थं भणिप्यन्ति भवन्तः—जीवा एवामी न च कल्पन्ते ततः सूत्रं 25 दुर्वद्धम् ; अथ ब्रवीध्वम्-जीवा अमी न च कल्पन्ते सूत्रं च सुबद्धम्, ततः को वा विशेषहेतुस्तेषां-कन्दादीनामग्रहणे येन ते न गृहीताः ? इति ॥ ८५३ ।। अत्र सूरिः प्रतिवचनमाह चोयग! कन्नसुहेहिं, सद्देहिँ अमुच्छितो विसह फासे । मज्झम्मि अट्ट विसया, गहिया एवष्ट कंदाई ॥ ८५४ ॥ हे नोदक ! यथा दशवैकालिके१°दन्यदप्येवंविधमेतद् मूलप्रलम्ब ज्ञातव्यमानुपूर्व्या । आह किमन्येषां सहकारादीनां मूलानि न भवन्ति येनैतान्येवाभिधीयन्ते ? उच्यते-भवन्ति, परमेतेषामेव .बाहुल्येन लोकस्य भक्षणोपयोगितेत्येतान्येवोपात्तानीति ॥ ८५१ ॥ अथाम भा० ॥ __30 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 २७४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ कण्णसोक्खेहिँ सद्देहिं, पेमं नाभिनिवेसए । दारुणं कक्कसं फासं, कारण अहियासए ॥ (अ० ८ गा० २६) . इत्यस्मिन् श्लोके “कर्णसुखैः' सुश्रवैः शब्दरमूछितो भवेत्" इति शब्दविषयो रागः प्रतिषिद्धः, "विषहेत स्पर्श दारुणम्" इत्यनेन तु स्पर्शविषयो द्वेष इति शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शानामिष्टा5 निष्टरूपतया दशविधानां मध्यादिष्टशब्दा-ऽनिष्टस्पर्शयोराद्यन्तयोरेव सूत्रलाघवार्थ ग्रहणं कृतम् , अन्यथा ह्येवमभिधातव्यं स्यात् कन्नसोक्खहिँ सद्देहि, पेमं नाभिनिवेसए । दारुणं कक्कसं सइं, सोएण अहियासए ॥ चक्खुसोक्खेहिं रूवेहिं, पेमं नाभिनिवेसए । 10 दारुणं कक्कसं रूवं, चक्खुणा अहियासए ॥ इत्यादि, परम् “आद्यन्तग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणम्" इति न्यायादष्टावपि मध्यवर्तिनोऽनिष्टशब्दाद्या इष्टस्पर्शान्ता विषया गृहीता भवन्ति; एवमत्रापि 'सूत्रं बृहत्तरं मा भूत्' इति हेतोराद्यान्त्ययोरग्रमूलपलम्बयोर्ग्रहणे मध्यवर्तिनः कन्दादयोऽष्टावपि गृहीता द्रष्टव्याः । एतेषां मूल-कन्दादीनां दशानामपि मेदानां सुखप्रतिपत्त्यर्थमियं गाथा लिख्यते मूले कंदे खंधे, तया य साले पवाल पत्ते य । पुप्फे फले य बीए, पलंबसुत्तम्मि दस भेया ॥ ॥ ८५४ ॥ प्रकारान्तरेण प्रतिवचनमाह अहवा एगग्गहणे, गहणं तजातियाण सव्वेर्सि। तेणऽग्गपलंबेणं, तु सूइया सेसगपलंबा ॥ ८५५ ॥ 20 अथवा "एकाहणे तज्जातीयानां सर्वेषां प्रणं भवति" इति न्यायो यतः समस्ति तेनाग्रप्रलम्बग्रहणेन तुशब्दाद् मूलपलम्बग्रहणेन च शेषाणि-कन्दादीनि प्रलम्बानि सूचितानि ॥ ८५५॥ अथ पुनरपि परः प्राह तलगहणाउ तलस्सा, न कप्पें सेसाण कप्पई नाम । एगग्गहणा गहणं, दिटुंतो होइ सालीणं ॥ ८५६ ॥ 25 'तलग्रहणात्' इति उपलक्षणत्वात् तालप्रलम्बग्रहणात् तालस्यैव सम्बन्धीनि मूल-कन्दादीनि प्रल म्बानि न कल्पन्ते शेषाणां पुनः' आम्रादीनां प्रलम्बानि कल्पन्त इत्यर्थादापन्नम् । 'नाम' इति सम्भावनायाम् , सम्भाव्यते अयमर्थ इति भावः । सूरिराह-एकग्रहणात् तज्जातीयानां सर्वेषां ग्रहणं भवति, दृष्टान्तः शालिसम्बन्धी अत्र भवति । यथा 'निष्पन्नः शालिः' इत्युक्ते नैक एव शालि कणो निप्पन्नः प्रतीयते किन्तु शालिजातिः, तथाऽत्रापि तालपलम्बग्रहणेन न केवलस्यैव तालस्य 30 किन्तु सर्वेषां वृक्षजातीयानां प्रलम्बान्युपात्तानि प्रतिपत्तव्यानि ॥ ८५६॥ अथ पुनरपि प्रश्नयति को नियमो उ तलेणं, गहणं अन्नेसि जेण न कयं तु । १°योरेतत्सूत्र त० डे० ॥ २°द्यान्तयो' मो० ले० विना ॥ ३ °व्याः । मूलादीनां दशानामपि सुखावबोधाय इयं सङ्ग्रहगाथा-मूले भा० ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाप्यगाथाः ८५५-६२] प्रथम उद्देशः । उभयमवि एइ भोगं, परित्त साउं च तो गहणं ॥ ७॥ को नाम नियमस्तलेन येन तस्यैव ग्रहणं कृतं नान्येषां वृक्षाणाम् ? । सूरिराह-तालस्य सम्बन्धि मूला-ऽअप्रलम्बरूपमुभयमपि ‘भोगम्' उपयोगमेति, तथा 'परीत्तं' प्रत्येकशरीरं 'खादु च' मधुरं तद् भवति, अतस्तस्य प्रतिषेधे सुतरामनन्तकायिकादीनां प्रतिषेधः कृतो भवति, ततस्तालस्य ग्रहणं कृतमिति ॥ ८५७ ॥ गतं प्रलम्वपदम् । अथ भिन्नपदं व्याचिख्यासुराह-5 नामं ठवणा (ग्रन्थानम्-२५००) भिनं, दव्वे भावे अ होइ नायव्वं । दव्वम्मि घड-पडाई, जीवजढं भावतो मिन्नं ॥८५८॥ [नि. ४७१९-४८६०) नामभिन्न स्थापनाभिन्नं द्रव्यभिन्नं भावभिन्नं च भवति बोद्धव्यम् । नाम-स्थापने क्षुण्णे। द्रव्यभिन्नं घट-पटादिकं वस्तु यद् भिन्न-विदारितम् । भावतो भिन्नं तु यद् जीवेन जढं-परित्यतं तद् मन्तव्यम् ।। ८५८ ।। अत्र चतुर्भङ्गीमाह भावेण य दव्वेण य, मिन्ना-मिन्ने चउक्कभयणा उ । पढमं दोहि अभिन्नं, विइयं पुण दव्वतो मिन्नं ॥ ८५९ ॥ तइयं भावतों मिन्नं, दोहि विभिन्नं चउत्थगं होइ । एएर्सि पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए ॥ ८६० ॥ भावेन च द्रव्येण च भिन्ना-ऽभिन्नयोः 'चतुष्कभजना' चतुर्भङ्गीरचना कर्तव्या । तत्र 'प्रथम' 15 प्रथमभङ्गवर्ति प्रलम्बं 'द्वाभ्यामपि' भावेन द्रव्येण च अभिन्नम् । द्वितीयं पुनर्द्रव्यतो भिन्नं भावतस्त्वभिन्नम् ॥ ८५९ ॥ तृतीयं भावतो भिन्नं द्रव्यतः पुनरभिन्नम् । चतुर्थ 'द्वाभ्यामपि' भावतो द्रव्यतश्च भिन्नं भवति । एतेषां' चतुर्णामपि प्रायश्चित्तं 'यथाऽऽनुपूर्व्या' यथोक्तपरिपाट्या 'वक्ष्यामि' भणिष्यामि ॥ ८६० ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति लहुगा य दोसु दोसु य, लहुओ पढमम्मि दोहि वी गुरुगा। तवगुरुअ कालगुरुओ, दोहि वि लहुओ चउत्थो उ ॥ ८६१ ॥ प्रथम-द्वितीययोर्द्वयोर्भङ्गयोश्चत्वारो लघुकाः, मावतोऽभिन्नतया सचेतनत्वात् । 'द्वयोस्तु' तृतीय-चतुर्थयोर्मासलघु । तथा प्रथमे भङ्गे ये चत्वारो लघुकास्ते द्वाभ्यामपि गुरवः तपसा कालेन च । द्वितीये भङ्गे ये चत्वारो लघवस्ते तपसा गुरवः कालेन लघवः । तृतीयभङ्गे यद् मासलघु 25 तत् कालेन गुरु तपसा लघु । चतुर्थस्तु भङ्गो द्वाभ्यामपि लघुकः तपसा कालेन च । लघुकं तत्र ( त्वत्र ) मासलघु द्रष्टव्यमित्यर्थः ॥ ८६१ ॥ उग्घाइया परित्ते, होति अणुग्याइया अणंतम्मि । आणाऽणवत्थ मिच्छा, विराहणा कम्मऽगीयत्थे ।।८६२ ॥ एतानि प्रायश्चित्तानि 'उद्घातिकानि' लघुकानि 'परीत्त' प्रत्येकप्रलम्बे भणितानि । 'अनन्ते' 30 अनन्तकाये पुनरेतान्येव 'अनुद्धातिकानि' गुरुकाणि ज्ञातव्यानि, प्रथम-द्वितीययोश्चत्वारो गुरुकाः तृतीय-चतुर्थयोस्तु भङ्गयोर्मासगुरु प्रायश्चित्तं तपः-कालविशेषितं पूर्ववद् वक्तव्यमिति भावः । . १°वति ज्ञातव्यम् भा० ॥ 20 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ तथा प्रलम्बं गृह्णता तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गः कृतो भवति, अनवस्था मिथ्यात्वं विराधना च संयमाऽऽत्मविषया कृता भवति । शिप्यः पृच्छति-कस्यैतत् प्रायश्चित्तमाज्ञादयश्च दोषाः ? । गुरु-. राह-अगीतार्थस्य भिक्षोरिति । एतच सप्रपञ्चमुपरिष्टाद् भावयिप्यते ॥ ८६२ ॥ अथ प्रलम्बग्रहणे विस्तरेण प्रायश्चित्तं वर्णयितुकाम इमां द्वारगाथामाह अन्नत्थ-तत्थगहणे, पडिते अच्चित्तमेव सचित्ते । छुभणाऽऽरुहणा पडणे, उवही तत्तो य उड्डाहो ॥ ८६३ ॥ प्रलम्बग्रहणं द्विधा-अन्यत्रग्रहणं तत्रग्रहणं च । वृक्षादन्यत्र-अन्यस्मिन् प्रदेशे ग्रहणम् अन्यत्रग्रहणम् , तत्रैव-वृक्षप्रदेशे ग्रहणं तत्रग्रहणम् । तथा पतितं वृक्षस्याधस्ताद् यद् गृह्णाति तद् द्विधा-अचित्तं सचित्तं च । तस्य पतितस्याप्राप्तौ वृक्षोपरिस्थितप्रलम्वपातनाय "छुभण"नि 10 काष्ठादेः प्रक्षेपणम् । तथाऽप्यप्राप्ती "आम्हण" त्ति तस्मिन् वृक्षे आरोहणं करोति । आरूढस्य च कदाचित् पतनं भवेत् । प्रलम्बं गृह्णन्तं दृष्ट्वा च प्रान्तेन केनचिदुपधिरपहियेत । ततश्चोड्डाहः सञ्जायेतेति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ८६३ ।। विस्तरार्थं प्रतिद्वारं विभणिषुः प्रथमतोऽन्यत्रग्रहणं विवृणोति अण्णगहणं तु दुविहं, वसमाणेऽडवि वसंति अंतों नहिं । अंताऽऽवण तव्बजे, रच्छा गिह अंतों पासे वा ॥ ८६४ ॥ अन्यत्रग्रहणं द्विविधम् , तद्यथा-वसति अटन्यां च । तत्र यद् वसति प्रदेशे तद् द्विधा--- ग्रामादीनामन्तो बहिश्च । यद् ग्रामादीनामन्तन्तत् पुनर्द्विविधम् ----आपणे तद्वर्जे च । आपणःहट्टः, तत्र स्थितस्य प्रलम्बस्य यद् ग्रहणं तद् आपणविषयम् । यत् पुनरापणवर्जे गृहे वा रथ्यायां वा गृह्णाति तत् तद्वर्जविषयम् । तत्र यद् आपणविषयं तद् आपणस्यान्तर्वा भवेत् पार्श्वतो वा । यत् 20 तद्वर्जविषयं तदपि रथ्याया गृहस्य वा अन्तर्वा भवेत् पार्श्वतो वेति । एतच्च सर्वमपि द्विधा अपरिग्रहं सपरिग्रहं च । तत्रापणे तद्वर्जे वा अपरिग्रहे गृह्णानस्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभेदात् चतुर्विधं प्रायश्चित्तम् ॥ ८६४ ॥ तत्र द्रव्यतम्तावदाह कबट्ठदिढे लहुओ, अटुप्पत्तीय लहुग ते चेव । परिवड्डमाणदोसे, दिट्ठाई अन्नगहणम्मि ॥ ८६५ ॥ ॐ कल्पस्थः समयपरिभाषया बालक उच्यते, तेन प्रलम्बमचित्तं गृह्णानो यदि दृष्टस्तदा मासलघु । अथ संयतं प्रलम्ब गृह्णन्तं दृष्ट्वा कल्पस्थकम्यार्थः-प्रयोजनं तस्योत्पत्तिः-'अहमपि गृह्णामि' इत्येवंलक्षणा भवति ततश्चतुर्लघवः । अथ न कल्पस्थेन किन्तु महता पुरुषेण प्रलम्बं गृह्णानो दृष्टस्तदा "ते चेव" ति त एवं चत्वारो लघवः । अथ तस्याप्यर्थोत्पत्तिः-'अहमपि गृह्णामि' इतिलक्षणा जायते ततोऽपि चत्वारो लघवः । अत्र च ये दृष्टादयः परिवर्द्धमाना दोषा अन्यत्रग्रहणे 30 भवन्ति ताननन्तरगाथया वक्ष्यमाणान् शृणुत ॥ ८६५ ॥ तानेवाह दिद्वे संका भोइय-घाडि-निआ-ऽऽरक्खि सेट्टि-राईणं । चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ८६६ ॥ १ वसंते ता० ॥ २ अंत पा ता० ॥ ३ इति ततो भा० त. डे० ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ८६३ - ६८ ] प्रथम उद्देशः । २७७ युवादिना महता पुरुषेण प्रलम्बानि गृह्णन् दृष्टः चतुर्लघु । ततस्तस्य शङ्का जायते ' किं सुवर्णादिकं गृहीतम् ? उत प्रलम्बम् ?' तदाऽपि चतुर्लघु । निःशङ्किते चत्वारो गुरवः । अथासौ "भोइय" त्ति भोजयति भर्त्तारमिति भोजिका - भार्या तस्याः कथयति — "प्रिये ! मया संयतः फलानि गृह्णानो दृष्टः' इत्युक्ते यदि तया प्रतिहतः ' मैवं वादीः, न सम्भवत्येवेदृशं महात्मनि साधो' इति ततश्चतुर्गुरुकमेव । अथ तया न प्रतिहतस्ततः षड् लघवः । आसन्नतरः सम्बन्ध इति 5 कृत्वा प्रथमं भोजिकाया अग्रे कथयतीति, एवं मित्रादिष्वपि मन्तव्यम् । ततः " घाडि" त्ति घाटः सङ्घाः सौहृद मित्येकोsर्थः, स विद्यतेऽस्येति 'घाटी' सहजातकादिः वयस्य इत्यर्थः, तस्याग्रे तथैव कथयति, तेनापि यदि प्रतिहतस्तदा षड् लघव एव । अथ न प्रतिहतस्ततः षड् गुरवः । ततो निजाः - माता- पित्रादयस्तेषां कथयति, तैः प्रतिहतः षड् गुरव एव । अप्रतिहते पुनश्छेदः । तत आरक्षिकेण आरक्षिकपुरुषैर्वा तस्य सकाशादन्यतो वा प्रलम्बग्रहणवृत्तान्ते श्रुते ततः प्रतिहते 10 छेद एव । अप्रतिहते पुनर्मूलम् । ततः श्रेष्ठिनः श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गस्य ततोऽन्यतो वा वृत्तान्तश्रवणे तेन च प्रतिहते मूलमेव । अप्रतिहतेऽनवस्थाप्यम् । ततो राज्ञा उपलक्षणत्वाद् अमात्येन च ज्ञाते ततः प्रतिहतेऽनवस्थाप्यम् । अप्रतिहते पाराञ्चिकम् । पश्चार्द्धे यथाक्रमममीषामेव प्रायश्चित्तान्यभिहितानि तानि च भावितान्येव । नवरं “दुगं" ति अनवस्थाप्य - पाराञ्चिकद्वयम् ॥ ८६६ ॥ 15 एवं ता अदुगुछिएँ, दुछिए लसुणमाइ एमेव । नवरिं पुण चउलहुगा, परिग्गहे गिण्हणादीया || ८६७ ॥ एवं तावद् 'अजुगुप्सिते' आम्रादौ प्रलम्बे गृह्यमाणे प्रायश्चित्तं दृष्टव्यम् । जुगुप्सिते पुनरिदं नानात्वम् । जुगुप्सितं द्विधा – जातिजुगुप्सितं स्थानजुगुप्सितं च । तत्र जातिजुगुप्सितं लशुनादि, आदिग्रहणेन पाण्डुप्रभृतिपरिग्रहः । स्थानजुगुप्सितं पुनरशुचिस्थाने कर्दमादौ 20 पतितम् । द्विविधेऽपि जुगुप्सिते 'एवमेव ' अजुगुप्सितवत् प्रायश्चित्तं वक्तव्यम् । 'नवरं' केवलं पुनः कल्पस्थकदृष्टं जुगुप्सितं गृह्णानस्य चतुर्लघवोऽत्र ज्ञातव्याः । अजुगुप्सिते पुनः “कब्बट्टदि हैं। लहुओ" ( गा० ८६५ ) त्ति लघुमास एवोक्त इति विशेषः । एतच्च सर्वमप्यपरिग्रहमधिकृत्योतम् । “परिग्गहे गिण्हणादीय" ति यत् पुनः प्रलम्बं कस्यापि परिग्रहे वर्त्तते तस्मिन् जुगुप्सिते वा अजुगुप्सिते वा प्रायश्चित्तं तथैव वक्तव्यम्, परं यस्य श्रेष्ठ्यादेः परिग्रहे तानि प्रलम्बानि 25 वर्त्तन्ते तत्कृता ग्रहणा -ऽऽकर्षण-व्यवहारादयो दोषा अत्राधिका भवन्तीति ॥ ८६७ ॥ गतं द्रव्यतः प्रायश्चित्तम् । अथ क्षेत्रतः कालतश्च प्ररूपयति * खेत्ते निवेसणाई, जा सीमा लहुगमाइ जा चरिमं । सिंची विati, काले दिन मे सपदं ॥ ८६८ ॥ क्षेत्रतो निवेशनमादौ कृत्वा यावद् ग्रामस्य सीमा एतेषु स्थानेषु गृह्णानस्य लघुकादिकं यावत् 30 'चरिमं' पाराञ्चिकम् । किमुक्तं भवति ? – निवेशने - महागृहपरिवारभूत गृहसमुदायरूपे गृह्णाति १ °देव्यध्या° डे॰ ॥ २ गाथेयं चूर्णो “भावऽट्टवार सपदं०” ८७० गाथाऽनन्तरं व्याख्याताऽस्ति ॥ ३ आदिशब्देन पला कां० ॥ ४ खेत्ततो नि° ता० ॥ ५ अट्ठहिं सप° ता० चूर्णि विना ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ सनियंक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पमुत्रे [ प्रलम्वाधिकारे सूत्रम् १ चत्वारो लघवः, पाटके गृह्णाति चत्वारो गुरवः, साहिकायां - गृहपाकरूपायां गृह्णाति षड् लघवः, एवं ग्राममध्ये षड् गुरवः, ग्रामद्वारे च्छेदः, ग्रामस्य बहिर्मूलम् उद्यानेऽनवस्थाप्यम्, ग्रामसीमायां पाराञ्चिकम् । केषाञ्चिदाचार्याणां मतेन 'विपरीतम् उक्तविपयस्त प्रायश्चित्तम् । तद्यथा--सीमायामन्यग्रामे वा गृह्णाति चतुर्लघु उद्याने च चतुर्गुरु, ग्रामचाहः षड्लघु, ग्रामद्वारे षड्गुरु, 5 ग्राममध्ये च्छेदः, साहिकायां मूलम्, पाटकेऽनवस्थाप्यम निवझने पाराञ्चिकमिति । तथा 'काले' कालविषयं प्रायश्चित्तमष्टमे दिने 'खपदं' पाराञ्चिकम् । इयमत्र भावना - - प्रलम्बानि गृह्णतः प्रथमे दिवसे चत्वारो लघवः, द्वितीये चत्वारो गुरवः तृतीये षड् लघवः, चतुर्थे षड्गुरवः, पञ्चमे च्छेदः, षष्ठे मूलम्, सप्तमेऽनवस्थाप्यम्, अष्टमे पाराञ्चिकम् ॥ ८६८ ॥ अथ प्रकारान्तरेण क्षेत्रत एव प्रायश्चित्तमाह- निवेसण वाडग साही, गाममज्झे अ गामदार अ । जाणे सीमाए, अन्नग्गामे य खेत्तम्मि || ८६९ ॥ क्षेत्रे प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमिदम् -- निवेशने चतुर्लघु, पाटके चतुर्गुरु, साहिकायां षड्लघु, ग्राममध्ये षड्गुरु, ग्रामद्वारे च्छेदः, उद्याने मूलम्, सीमायामनवस्थाप्यम्, अन्यग्रामे पारा - ञ्चिकम् ॥ ८६९ || अथ भावतः प्रायश्चित्तमाह 10 4 15 भाववार सपदं, लहुगाई मीस दसहिँ चरिमं तु । एमेव य बहिया वी, सत्थे जत्ताइठाणेसु || ८७० ॥ भावे अष्टाभिर्वारै: 'खपदं' पाराञ्चिकम् । किमुक्तं भवति ? – एकं वारं प्रलम्बानि गृह्णाति चत्वारो लघवः, द्वितीयं वारं चत्वारो गुरवः, तृतीयं वारं षड् लघवः, चतुर्थं वारं षड् गुरवः, पञ्चमं वारं छेदः, षष्ठं वारं मूलम्, सप्तमं वारमनवस्थाप्यम्, अष्टमं वारं गृह्णतः पाञ्चिकम् । 20 एतच्च सर्वमपि सचित्तप्रलम्बविषयं भणितम् । मिश्रप्रलम्बे तु गृह्यमाणे लघुमासादिकं दशभिः स्थानैः 'चरमं' पाराञ्चिकम् । तद्यथा - मिश्रप्रलम्बं गृह्णाने कल्पस्थकेन दृष्टे मासलघु, महता पुरुषेण दृष्टे शङ्कायां मासलघु, निःशङ्के मासगुरु, भोजिकायाः कथने चतुर्लघु, घाटिनो निवेदने चतुर्गुरु, ज्ञातीनां ज्ञापने षड्लघु, आरक्षिकाणां निवेदने पड्गुरु, सार्थवाहज्ञाते च्छेदः श्रेष्ठिकथने मूलम्, अमात्यनिवेदिते अनवस्थाप्यम् राज्ञो ज्ञापिते पाराञ्चिकम् । एतद् द्रव्यतः प्रायश्चित्तम्, 25 क्षेत्रतः पुनरिदम् — निवेशने मासलघु, पाटके मासगुरु, साहिकायां चतुर्लघु ग्राममध्ये चतुर्गुरु, ग्रामद्वारे षड्लघु, ग्रामबहिः षड्गुरु, उद्याने च्छेदः, उद्यानसीम्नोरन्तरे मूलम्, सीमायामनवस्थाप्यम्, सीमायाः परतोऽन्यग्रामादौ पाराञ्चिकम् । कालतः पुनः प्रथमे दिवसे मासलवु, द्वितीये मासगुरु, एवं यावद् दशभिर्दिवसैः पाराञ्चिकम् । भावतः प्रथमं वारं गृह्णतो मासलघु, द्वितीयं मासगुरु, एवं यावद् दशभिवरैः पाराञ्चिकम् । गतमापण - तद्वर्ज भेदाद् द्विविधमपि ग्रामान्तर्व30षयं ग्रहणम् । अथ ग्रामबहिर्भावग्रहणमाह – “एमेव य" इत्यादि पश्चार्द्धम् । एवमेव बहिरपि ग्रामस्य ग्रहणं भणितव्यम् । तत् पुनर्वहिर्ग्रहणं "सत्थे” त्ति सार्थावासस्थाने वा भवेद् यात्रादिस्थाने वा । यात्रास्थानं यत्र लोक उद्यानिकादियात्रया गच्छति, आदिशब्दादन्यस्याप्येवंविवस्थानस्य परिग्रहः || ८७० || अथ बहिर्ग्रहणे प्रायश्चित्तमतिदिशन्नाह Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ८६९-७४ ] प्रथम उद्देशः । २७९ अंतो आवणमाईगहणे जा वणिया सवित्थारा । बहिया उ अन्नगहणे, पडियम्मि उ होइ स च्चेव ॥ ८७१ ॥ ग्रामादीनाम् 'अन्तः' मध्ये आपणादौ-आपणे आपणवर्जे वा जुगुप्सितेऽजुगुप्सिते वा सपरिग्रहेऽपरिग्रहे वा ग्रहणे या सविस्तरा “दिट्टे संका भोइय' ( गा० ८६६ ) इत्यादिलक्षणप्रपञ्चसहिता वर्णिता शोधिरित्युपस्कारः सैव ग्रामादीनां बहिः पतितप्रलम्बविषयेऽन्यत्रग्रहणे छ निरवशेषा द्रष्टव्या ॥ ८७१ ॥ उक्तं बहिर्ग्रहणम् , तद्भणने च समर्थितं वसत्प्रदेशविषयं ग्रहणम् । अथाटवीविषयमाह कोट्टगमाई रन्ने, एमेव जणो उ जत्थ पुंजेइ । तहियं पुण वच्चंते, चउपयभयणा उ छद्दसिया ॥ ८७२ ॥ 'जनः' लोकः प्रचुरफलायामटव्यां गत्वा फलानि यावत्पर्याप्तं गृहीत्वा यत्र गत्वा शोषयति, 10 पश्चाद् गन्त्री-पोट्टलकादिभिरानीय नगरादौ विक्रीणाति तत् कोट्टकमुच्यते । ततश्चारण्ये कोट्टकादौ प्रदेशे यत्र जनः फलानि शोषणार्थ 'पुञ्जयति' पुञ्जीकरोति तत्र प्रलम्बग्रहणे 'एवमेव' यथा वसिमे “दिट्टे संका भोइय' ( गा० ८६६) इत्यादिकमुक्तं तथैव प्रायश्चित्तमवसातव्यम् । विशेषः पुनरयम्-"तहियं पुण" इत्यादि । 'तत्र पुनः' कोट्टकादौ व्रजतः चतुर्भिः पदैः 'भजना' भङ्गकरचना 'षड्दशिका' षोडशभङ्गप्रमाणा कर्तव्या ।। ८७२ ॥ कथम् ? इति चेद् उच्यते- 15 वच्चंतस्स य दोसा, दिया य रातो य पंथ उप्पंथे । उवउत्त अणुवउत्ते, सालंब तहा निरालंबे ॥ ८७३ ॥ तत्र व्रजतो बहवो दोषा भवन्ति, ते चोपरिष्टाद् भणिप्यन्ते । दिवा च रात्रिश्च पन्था उत्पथश्च उपयुक्त अनुपयुक्तः सालम्बस्तथा निरालम्बश्चेति अक्षरयोजना । अथ भावार्थ उच्यते-दिवा गच्छति पथा उपयुक्तः सालम्बः १ दिवा गच्छति पथा उपयुक्तो निरालम्बः २ दिवा गच्छति 20 पथा अनुपयुक्तः सालम्बः ३ दिवा गच्छति पथा अनुपयुक्तो निरालम्बः ४, एवमुत्पथपदेनापि चत्वारो भङ्गाः प्राप्यन्ते, जाता अष्टौ भङ्गाः ८, एते दिवापदममुञ्चता लब्धाः, एवं रात्रिपदममुञ्चताऽप्यष्टौ भङ्गा लभ्यन्ते, सर्वसङ्ख्यया षोडश भङ्गाः ॥ ८७३ ॥ अमीषां रचनोपायमाह अट्ठग चउक्क दुग एकगं च लहुगा य होति गुरुगा य । सुद्धा एगंतरिया, पढमरहिय सेसगा तिण्णि ॥ ८७४ ॥ 25 इहाक्षाणां चतस्रः पतयः स्थाप्यन्ते । तत्र प्रथमपतौ प्रथममष्टौ लघुकास्ततोऽप्यष्टौ गुरुका इत्येवं षोडशाक्षा निक्षेपणीयाः, द्वितीयपतौ चत्वारः प्रथमं लघुकास्ततश्चत्वारो गुरुकाः पुनश्चत्वारो लघुकास्तदनु चत्वारो गुरुकाः, तृतीयपतावपि षोडशाक्षा द्वौ लघुकौ द्वौ गुरुकावित्य १ “कोहगं णाम जत्थ भिल्ला लोगो वा अडवीए पउरफलाए गंतुं फलाणि पुंजेति" इति चूर्णिः॥ २०प्यन्ते । एकैकस्यां च पती षोडश षोड़शाक्षाः स्थाप्याः । तत्र च प्रथमपतौ दिवा. ग्रहणं कुर्वद्भिरघोऽधोऽक्षान् निक्षिपद्भिरष्टौ लघुका अक्षाः स्थापनीयाः तेषामघो रात्रि वाणैरष्टौ गुरुका अक्षा निक्षेपणीयाः। द्विती° भा०॥ ३°यपी द्वौ लघुकौ द्वी गुरुको पुनद्वौ लघुकौ द्वौ गुरुकावित्यनेन क्रमेण षोडशाक्षा निक्षेप्याः। चतुर्थ भा०॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ नेन क्रमेण निक्षेप्याः, चतुर्थपङ्कावेको लघुक एको गुरुक इत्येकान्तरितलघु-गुरुरूपाः षोडशैवाक्षाः स्थापयितव्याः । एवमन्यत्रापि भङ्गकप्रस्तारे यत्र यावन्तो भङ्गकास्तत्र तावदायामः चरमपकावेकान्तरितानाम् अक्तिनपतिषु पुनर्द्विगुणद्विगुणानां लघु गुरूणामक्षाणां निक्षेपः कर्तव्यः । उक्तञ्च भंगपमाणायामो, लहुओ गुरुओ य अक्खनिक्खेवो । आरओं दुगुणा दुगुणो, पत्थारे होइ निक्वेवो ॥ (कल्पबृहद्भाष्ये) एतेष्वेव शुद्धा-ऽशुद्धस्वरूपं दर्शयति--"सुद्धा एगंतरिया" इत्यादि । प्रथमे भङ्गकाष्टके प्रथमभङ्गरहिताः शेष स्त्रयो भङ्गका एकान्तरिताः शुद्धाः । इदमुक्तं भवति-प्रथमो भङ्गकश्चतु वपि पदेषु निरवद्यत्वादेकान्तेन शुद्ध इति न काचित् तदीया विचारणा, तं मुक्त्वा ये प्रथ10 माष्टके शेषा भङ्गकस्ते एकान्तरितास्तृतीय-पञ्चम-सप्तमरूप.स्त्रयः कचिदुत्पथादौ पदेऽशुद्धा अपि सालम्बनत्वाच्छुद्धाः प्रतिपतव्याः । अर्थादापन्नं द्वितीय-चतुर्थ-षष्ठा-ऽष्टमा भङ्गका दिवादौ पदे शुद्धा अपि निरालम्बनत्वादशुद्धाः । एवं द्वितीयाष्टकेऽपि प्रथमो भङ्गः शुद्धः शेषास्त्रयः एकान्तरिताः शुद्धाः, सालम्बनत्वात् ॥ ८७४ ॥ अत एवाह पढमो एत्थ उ सुद्धो, चरिमो पुण सबहा असुद्धो उ । अवसेसा वि य चउदस, भंगा भइयधगा होति ॥ ८७५ ॥ प्रथमो भगः 'अत्र' एषां षोडशानां भङ्गानां मध्ये 'शुद्धः' सर्वथा निर्दोषः, चरमश्च भङ्गः सर्वथा अशुद्धः, अवशेषाश्चतुर्दश भङ्गाः 'भक्तव्याः' विकल्पयितव्या भवन्ति, केचित् शुद्धाः केचित् पुनरशुद्धा इति भावः ॥ ८७५ ॥ कथम् ? इति चेद् उच्यते आगादम्मि उ कजे, सेस असुद्धो वि सुज्झए भंगो। 20 न विसुज्झें अणागाढे, सेसपदेहि जइ वि सुद्धो ॥ ८७६ ।। 'आगाढे कार्ये' पुष्टे आलम्बने गच्छतः ‘शेषैः' राव्युत्पथानुपयुक्तलक्षणैः पदैरशुद्धोऽपि भङ्गः शुध्यति । 'अनागाढे' आलम्बनाभावे शेषैः-दिवापथोपयुक्तलक्षणैः पदैर्यद्यपि शुद्धस्तथापि न विशुध्यति ।। ८७६ ॥ अथ किं कुत्र प्रायश्चित्तं भवति ? इत्युच्यते-- लहुगा य निरालंबे, दिवसतों रत्तिं हवंति चउगुरुगा । लहुगो य उप्पहेणं, रीयादी चेवऽणुव उत्ते ॥ ८७७॥ यत्र यत्र निरालम्बस्तत्र तत्र दिवसतो गच्छतः चत्वारो लघुकाः, रात्रौ चत्वारो गुरुकाः । यत्र यत्र दिवसत उत्पथेन गच्छति तत्र तत्र मासलघु । यत्र यत्र दिवसत ईर्याप्रभृतिसमितिप्वनुपयुक्तो गच्छति तत्र तत्र मासलघु । रात्रावुत्पथगमनेऽनुपयुक्तगमने च मासगुरु ॥ ८७७ ॥ १°व्याः। “सुद्धा एगंतरिया" इत्य दिना पश्चाद्धेन भङ्गकानां शुद्धा-ऽशुद्धस्वरूपं निर्धारितम् । तथाहि-प्रथमे भङ्ग काटके भा० ॥ २ एतद् थानन्तरं चूर्णिकृद्भिः “इदाणिं एतेसि पच्छितं भण्णति" इत्यवतीर्थ "दिव-रातो लहु-गुरुगा." ८७८ गाथा खीकृताऽस्ति, तदनन्तरम् “अस्य व्याख्या" इत्युल्लिस्यैतद्गाथाव्याख्यानरूपेण "लहुगा य णिरालंबे०" ८७७ गाथा व्याख्याता वर्तते ।। ३:वसे ग त• डे० ॥ 25 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ भाष्यगाथाः ८७५-८२ । प्रथम उद्देशः । अथ प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमाह---- दिय-राओ लहु-गुरुगा, आणा चउ गुरुग लहुग लहुगा य । संजम-आयविराहण, संजमें आरोवणा इणमो ।। ८७८ ।। अशुद्धेषु भङ्गेषु सर्वेप्वपि दिवसतो गच्छतश्चत्वारो लघुकाः, रात्रौ पुनश्चत्वारो गुरुकाः । तीर्थकराणामाज्ञाभङ्गे चतुर्गुरुकाः । अनवस्थायां चत्वारो लघुकाः 1 मिथ्यात्वेऽपि चत्वारो । लघुकाः । अत्र चानवस्था-मिथ्यात्वे प्रक्रमाद् द्रष्टव्ये । विराधना द्विविधा-संयमे आत्मनि च । तत्र संयमविराधनायाम् ‘इयं' वक्ष्यमाणा 'आरोपणा' प्रायश्चित्तम् ॥ ८७८ ।। तामेवाह छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे । संघट्टण परितावण, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं ॥ ८७९ ॥ 'षट्कायाः' पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरूपाः । तेषां मध्ये 'चतुर्यु' पृथिव्यप्तेजोवायुषु सङ्घ-10 दृनादौ लघुकपर्यन्तं प्रायश्चित्तम् । 'परीत्ते' प्रत्येकवनस्पतिकायेऽपि लघुकान्तम् । 'साधारणे' अनन्तवनस्पतौ गुरुकान्तम् । तथा द्वीन्द्रियादीनां सङ्घट्टने परितापने च यथायोगं लघुका गुरुकाश्च प्रायश्चित्तम् , 'अतिपातने' विनाशने मूलम् । इयमत्र भावना-पृथिवीकायं सङ्घट्टयति मासलघु, परितापयति मासगुरु, अपद्रावयति चतुर्लघु; एवमप्काये तेजःकाये वायुकाये प्रत्येकवनस्पतिकाये च द्रष्टव्यम् ; अनन्तवनस्पतिं यदि सङ्घट्टयति तदा मासगुरु, परित पयति चतुर्लघु, 15 अपद्रावयति चतुर्गुरु; द्वीन्द्रियं सङ्घट्टयति चतुर्लघु, परितापयति चतुर्गुरु, जीविताद् व्यपरोपयति षड्लघु; त्रीन्द्रियं सङ्घयतश्चतुर्गुरु, परितापयतः षड्लघु, जीवित.द् व्यपरोपयतः षड्गुरु; चतुरिन्द्रियं सङ्घयतः षड्लघु, परितापयतः षड्गुरु, जीवित द् व्यपरोपयतः छेदः; पञ्चेन्द्रियं सट्टयतः षड्गुरु, परितापयतो लघुमासिकच्छेदः, अपद्रावयतो मूलम् ॥ ८७९ ॥ अथैतदेव प्रायश्चित्तं रात्री विशेषयन्नाह - जहिँ लहुगा तहिं गुरुगा, जहिँ गुरुगा कालगुरुग तहिँ ठाणे। छेदो य लहुय गुरुओ, काएसाऽऽरोवणा रत्तिं ॥ ८८० ॥ यत्र दिवसतः 'लघुकानि' मासलघु-चतुर्लघु-षडलघुरूपाणि तत्र रात्रावेतान्येव 'गुरुकाणि' मासगुरु-चतुर्गुरु-षड्गुरुरूपाणि कर्त्तव्यानि । यत्र पुनरग्रेऽपि गुरुकाणि मासादीनि तत्र स्थाने तान्येव कालगुरुकाणि दातव्यानि । यत्र च च्छेदो लघुकस्तत्र स एव गुरुकः कर्तव्यः । 'काये' 25 कायविषया एषा आरोपणा रात्रौ ज्ञातव्या ॥ ८८० ॥ अथाऽऽत्मविराधनामाह कंट-ट्टि खाणु विजल, विसम दरी निन्न मुच्छ-मूल-विसे । वाल-ऽच्छभल्ल-कोले, सीह-विग-वराह-मेच्छित्थी ।। ८८१ ॥ तेणे देव-मणुस्से, पडिणीए एकमाइ आयाए। मास चउ छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ८८२ ॥ स साधुः कोट्टकादौ व्रजन् कण्टकेन वा अस्ना वा स्थाणुना वा पदयोः परिताप्येत । 'विजलं' पकिलम् 'विषमं' निनोन्नतम् 'दरी' कुसारादिका 'निम्नं' गम्भीरा गा; एतेषु पतितस्य मूर्छा वा भवेत् , शूलं वा अनुधावेत, “विसं" ति विषकण्टकेन वा विध्येत, विषफलं वा भक्षयेत् , तथा 20 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १. व्यालेन-सर्पादिना अच्छभल्लेन वा-ऋक्षेण कोलेन वा-महाशूकरेण सिंहेन वा वृकेण वा वराहेण वा उपद्रूयेत, म्लेच्छः पुरुषः प्रान्ततया प्रहारादिकं दद्यात् , स्त्री वा तं साधुमुपसर्गयेत् , अथवा म्लेच्छस्त्री-पुलिन्दीप्रभृतिका तमुपसर्गयेत्, तन्निमित्तं म्लेच्छः कुपितो वध-बन्धादि कुर्यात्॥८८१ ॥ 5 स्तेनो द्विविधः-शरीरस्तेन उपधिस्तेनश्च, तेनोपद्रवः क्रियेत, देवता वा प्रान्ता तं साधु प्रमत्तं दृष्ट्वा च्छलयेत् , अपरो वा कोऽपि प्रत्यनीको मनुष्यो विजनमरण्यं मत्वा मारणादि कुर्यात् , एवमादिका आत्मनि विराधना भवति । तत्रेदं प्रायश्चित्तम्-- “मास चउ' इत्यादि पश्चार्द्धम् । कण्टकादिभिरनागाढं परिताप्यते चतुर्लघु, आगाढं परिताप्यते चतुर्गुरु, अथ महादुःखमुत्पद्यते ततः षड्लघु, मूर्छामूळे षड्गुरु, कृच्छ्रमाणे च्छेदः, कृच्छोच्छासे मूलम् , मारणान्तिकसमुद्धातेऽ10 नवस्थाप्यम् , कालगते पाराञ्चिकम् ।।८८२॥ अथाऽऽत्मविराधनायामेव सामान्यतः प्रायश्चित्तमाह कंट-ट्टिमाइएहिं, दिवसतों सव्वत्थ चउगुरू होति । रतिं पुण कालगुरू, जत्थ व अन्नत्थ आयवहो ॥ ८८३ ॥ कण्टका-ऽस्थिकादिभिः परितापनायां सर्वत्र दिवसतश्चतुर्गुरवो भवन्ति । रात्रौ पुनस्त एव चतुर्गुरवः कालगुरवो ज्ञातव्याः । अन्यत्रापि यत्र 'आत्मवधः' आत्मविराधना भवति तत्र सर्वत्रापि 15 चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तम् ॥ ८८३ ॥ तथा पोरिसिनासण परिताव ठावणं तेण देह उवहिगतं । पंतादेवयछलणं, मणुस्सपडिणीयवहणं च ॥ ८८४ ॥ कण्टकादिना पीडितः सन् सूत्रपौरुषीं न करोति मासलघु, अर्थपौरुषीं न करोति मासगुरु, सूत्रं नाशयति चतुर्लघु, अर्थ नाशयति चतुर्गुरु । “परिताव" त्ति अनागाढपरितापे चतुर्लघु, 20 आगाढपरितापे चतुर्गुरु । "ठावण" त्ति अनाहारं स्थापयति चतुर्लघु, आहारं स्थापयति चतुर्गुरु, परीत्तं स्थापयति चतुर्लघु, अनन्तं स्थापयति चतुर्गुरु, अस्नेहं स्थापयति चतुर्लघु, सस्नेहं स्थापयति चतुर्गुरु । तथा "तेण" ति उपधिस्तेनाः, तैः उपधौ ह्रियमाणे उपधिगतं जघन्यमध्यमोस्कृष्टोपधिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । “देह" त्ति देहस्तेनाः-शरीरापहारिणस्तैरेकः साधुः ह्रियते मूलम् , द्वयोहियमाणयोरनवस्थाप्यम् , त्रिषु ह्रियमाणेषु पाराञ्चिकम् । प्रान्तया देवतया यदि च्छलनं 25 क्रियते ततश्चतुर्गुरु । प्रत्यनीकमनुष्येण पुरुषेण स्त्रिया नपुंसकेन वा हन्येत चत्वारो गुरवः ॥८८४॥ अथ प्रकृतमर्थमुपसंहरन्नान्तरमुपन्यस्यन्नाह एवं ता असहाए, सहायसहिए इमे भवे भेदा। जय अजय इत्थि पंडे, अस्संजइ संजईहिं च ॥ ८८५ ॥ एवं तावत् 'असहायस्य' एकाकिनो व्रजतो दोषा उक्ताः । सहायसहिते व्रजति विचार्यमाणे 30 एते सहायस्य भेदा भवन्ति । तद्यथा-'यताः' संयताः 'अयताः' असंयताः "इत्थि" ति पाषण्डिस्त्रियः 'पण्डकाः' नपुंसकाः 'असंयत्यः' गृहस्थस्त्रियः 'संयत्यः' साध्व्यः, एतैः सार्धं गच्छति ॥ ८८५ ॥ इदमेव व्याचष्टे१ गाथेयं चूर्णौ नास्त्यादृता ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ८८३-९०] प्रथम उद्देशः । २८३ संविग्गाऽसंविग्गा, गीया ते चेव होंति अग्गीया । लहुगा दोहि विसिट्ठा, तेहिं समं रत्ति गुरुगा उ ॥ ८८६ ॥ संविमा गीतार्थाः, असंविग्ना गीतार्थाः, संविग्ना अगीतार्थाः, असंविना अगीतार्थाः; एतैः समं गच्छतः 'द्वाभ्यां' तपः-कालाभ्यां विशिष्टा लघुकाः प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-संविनीताथैः समं व्रजति चत्वारो लघवस्तपसा कालेन च लघुकाः, असंविग्नैर्गीतार्थैः समं गच्छति चतुर्लघवः । तपसा लघुकाः कालेन गुरुकाः, संविग्नैरगीतार्थेः सार्द्ध याति चतुर्लघु कालेन लघु तपसा गुरु, असंविगैरगीतार्थैः समं ब्रजति चतुर्लघु तपसा कालेन च गुरु । एतद् दिवसतो ज्ञातव्यम् । रात्रौ तैः समं व्रजतः एवमेव तपः-कालविशेषिताश्चतुर्गुरुकाः ॥ ८८६ ॥ अस्संजय-लिंगीहिँ उ, पुरिसागिइपंडएहिँ य दिवा उ । अस्सोय सोय छल्लहु, ते चेव उ रत्ति गुरुगा उ ॥ ८८७॥ 10 असंयता द्विविधाः-गृहिणो लिङ्गिनश्च । लिङ्गमेषां विद्यत इति लिङ्गिनः-अन्यपाषण्डिन इत्यर्थः । तथा पुरुषाकृतयः-पुरुषनेपथ्यधारिणः पण्डकाः । एते त्रयोऽपि प्रत्येकं द्विविधाःशौचवादिनोऽशौचवादिनश्च । तत्राशौचवादिभिर्गृहिभिः समं व्रजति षड्लघु उभयलघुकम् , शौचवादिभिः समं व्रजति षड्लघु कालगुरुकम् । अन्यलिङ्गिभिरशौचवादिभिः सार्द्ध ब्रजति षड्लघु कालगुरुकम् , शौचवादिभिः समं व्रजति षड्लघु तपोगुरुकम् । पुरुषाकृतिभिः पण्डकैरशौच-16 वादिभिः समं ब्रजति षड्लघु तपोगुरुकम् , शौचवादिभिः समं व्रजति षड्लघु तपसा कालेन च गुरुकम् । एतद् दिवसतः प्रायश्चित्तमुक्तम् । रात्रौ तु ‘त एव' षण्मासाः गुरुकाः, षड् गुरवस्तपःकालविशेषिता एवमेव दातव्या इति भावः ॥ ८८७ ॥ पासंडिणित्थि पंडे, इत्थीवेसेसु दिवसतो छेदो। तेहिं चिय निसि मूलं, दिय-रत्ति दुगं तु समणीहि ॥ ८८८॥ 20 तापसी-परित्राजिकादिभिः पापण्डिनीभिः "इत्थि" त्ति गृहस्थस्त्रीभिः स्त्रीवेषधारिभिश्च पण्डकैरशौचवादिभिः सह दिवसतो गच्छतो लघुकश्छेदः शौचवादिभिः सह गुरुकश्छेदः । तैरेव सह 'निशि' रात्रौ गच्छतो मूलम् । श्रमणीभिः समं दिवा गच्छतोऽनवस्थाप्यम् । रात्रौ श्रमणीभिः सह गच्छति पाराञ्चिकम् ॥ ८८८ ॥ प्रकारान्तरेणात्रैव प्रायश्चित्तमाह___अहवा समणा-ऽसंजय-अस्संजइ-संजईहिँ दियराओ। 25 चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च ॥ ८८९ ॥ 'अथवा' इति प्रकारान्तरद्योतने । 'श्रमणाः' संयतास्तैः सार्द्ध दिवा गच्छति चतुर्लघु, रात्रौ गच्छति चतुर्गुरु । असंयतैः सार्द्ध दिवा गच्छति षड्लघु, रात्रौ गच्छति षड्गुरु । असंयतीभिः समं दिवा व्रजति च्छेदः, रात्रौ गच्छति मूलम् । संयतीभिः सह दिवसतो गच्छति अनवस्थाप्यम् , रात्रौ गच्छति पाराञ्चिकम् ॥ ८८९ ॥ तदेवमुक्तमटवीविषयं ग्रहणम् । तदुक्तौ चावसित-30 मन्यत्रग्रहणम् । अथ तत्रग्रहणं बिभावयिषुरुक्तार्थसदृशं विधिमतिदिशन्नाह जह चेव अन्नगहणेऽरण्णे गमणाइ वणियं एयं । तत्थगहणे वि एवं, पडियं जं होइ अचित्तं ॥ ८९० ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ 15 सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ यथैवान्यत्रग्रहणेऽरण्यविषयं षोडशभङ्गरचनया गमनम् आदिशब्दात् संयमा-ऽऽत्मविराधनासमुत्थं दोषजालं प्रायश्चित्तं च 'एतद्' अनन्तरमेव वर्णितं 'तत्रग्रहणेऽपि' विवक्षितप्रलम्बाधारभूतवृक्षस्याधःपतितं यदचित्तं प्रलम्बं तद् गृह्णानस्याप्येवमेव निरवशेषं वर्णनीयं यावत् श्रमणीभिः सह गमनमिति ॥ ८९० ॥ यस्तु विशेषस्तमुपदिदर्शयिषुराह---- तत्थग्गहणं दुविहं, परिग्गहमपरिग्गहं दुविहभेयं । दिट्ठादपरिग्गहिए, परिगहिएँ अणुग्गहं कोइ ॥ ८९१ ॥ तत्रग्रहणं द्विविधम् , तद्यथा--सपरिग्रहमपरिग्रहं च । यद् देवतादिभिः परिगृहीतं वृक्षादि तद्विषयं सपरिग्रहम् , तद्विपरीतमपरिग्रहम् । तदुभयमपि 'द्विविधभेदं' द्विविधेन-सचित्ता-ऽचित्त भेदद्वयेन भेदः-पार्थक्यं यस्य तद् द्विविधभेदम् , सचित्ता-ऽचित्तभेदभिन्नमिति भावः । 10 तत्र यदपरिगृहीतमचित्तं तद् गृह्णानस्य "दिट्ठाइ" त्ति "दिट्टे संका भोइय" (गा० ८६६) इत्यादिका आरोपणा सर्वाऽपि प्राग्वद् द्रष्टव्या । यत् पुनः परिगृहीतमचित्तं तद् गृह्णतः कश्चिद् भद्रकः परिग्रहीता अनुग्रहं मन्येत । एतदग्रतो भावयिष्यते (गा० ८९५) ॥ ८९१ ॥ अर्थ सपरिग्रहस्यैव खरूपं निरूपयति तिविह परिग्गह दिव्बे, चउलहु चउगुरुग छल्लहुकोसे । __ अहवा छल्लहुग चिय, अंत गुरू तिविह दिव्यम्मि ।। ८९२ ॥ सपरिग्रहं त्रिविधम् , तद्यथा-देवपरिगृहीतं मनुष्यपरिगृहीतं तिर्यकारिगृहीतं [च] । तत्र यद् दिव्यं-देवपरिगृहीतं तद् त्रिविधम्-जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । व्यन्तरपरिगृहीतं जघन्यम् , भवनपति-ज्योतिष्कपरिगृहीतं मध्यमम् , वैमानिकपरिगृहीतमुत्कृष्टम् । तत्र जघन्यपरिगृहीतं प्रलम्ब गृह्णाति चत्वारो लघवः, मध्यमपरिगृहीतं गृह्णाति चत्वारो गुरवः, उत्कृष्टपरिगृहीतं गृह्णाति षड् 20 लघवः । अथवा त्रिष्वपि जघन्य-मध्यमोत्कृष्टेषु षड् लघव एव प्रायश्चित्तम् , केवलं तपः-कालविशेषितम्-जघन्ये तपोलघु कालगुरुकम् , मध्यमे काललघु तपोगुरुकम् , 'अन्त्ये च' उत्कृष्ट द्वाभ्यामपि गुरुकं कर्त्तव्यमिति त्रिविधदिव्यविषयं प्रायश्चित्तम् ॥ ८९२ ।। गतं देवपरिगृहीतम् । अथ मनुष्यपरिगृहीतमाह सम्मेतर सम्म दुहा, सम्मे लिंगि लहु गुरुओं गिहिएसुं । मिच्छा लिंगि गिही वा, पागय-लिंगीसु चउलहुगा ॥ ८९३ ॥ गुरुगा पुण कोडुबे, छल्लहुगा होंति दंडियारामे ।। मनुष्यपरिगृहीतं द्विधा-सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं "इयर" त्ति मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतं च । तत्र यत् सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं तद् द्विधा-पार्श्वस्थादिलिङ्गस्थपरिगृहीतं गृहस्थपरिगृहीतं च । लिङ्गस्थपरि गृहीते मासलघु, गृहिभिः सम्यग्दृष्टिभिः परिगृहीते मासगुरु । यत् पुनर्मिथ्यादृष्टिपरिग्रहीतं तद 30 द्विविधम् --"लिंगि" त्ति अन्यपाषण्डिपरिगृहीतं गृहस्थपरिगृहीतं च । तत्र गृहस्थपरिगृहीतं १ धमेद्वाभ्यां विधाभ्यां-सच्चित्ता-ऽचित्तरूपाभ्यां भेदः भा०॥ २°मांचत्तं पचित्तं वा तद भा० ॥ ३व्या । नवरं सचित्ते कायप्रायश्चित्तम् । तत्र प्रत्येकसञ्चित्ते चतुर्लघु, अनन्तसचित्ते चतुर्गुरु । यत् पुनः परिगृहीतं सच्चित्तमचित्त वा तत्र कश्चिद् भा० ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ८९१-९८] प्रथम उद्देशः । २८५ त्रिधा-प्राकृतपरिगृहीतं कौटुम्बिकपरिगृहीतं दण्डिकपरिगृहीतं च । तत्र प्राकृतपरिगृहीते लिङ्गिपरिगृहीते च चतुर्लघुकाः ॥ ८९३ ॥ कौटुम्बिकपरिगृहीते पुनश्चत्वारो गुरुकाः । 'दण्डिकारामे' दण्डिकपरिगृहीते उद्याने षड् लघुकाः । गतं मनुष्यपरिगृहीतम् । अथ तिर्यक्परिगृहीतं भाव्यते तिरिया य दुगु- दुट्ठा, दुढे गुरुगाइरे(गेयरे) लहुगा ॥ ८९४ ॥ 5 तिर्यञ्चश्च द्विविधाः-दुष्टा अदुष्टाश्च । दुष्टाः हस्ति-शुनकादयः, अदुष्टाः रोझ-हरिणादयः। दुष्टतिर्यकपरिगृहीते चतुर्गुरुकाः, 'इतरैः' अदुष्टैः परिगृहीते चतुर्लघुकाः ॥ ८९४ ॥ गतं तिर्यक्परिगृहीतम् । अथ यदुक्तम् "परिगहिए अणुग्गहं कोई" (गा० ८९१) त्ति तदेतद् भावयति भदेतर सुर-मणुया, भदो पिप्पंति दट्टणं भणइ। अने वि साहु ! गिण्हसु, पंतो छण्हेगयर कुजा ॥ ८९५॥ 10 यस्य सुरस्य मनुजस्य वा परिग्रहे स अरामो वर्तते स भद्रो वा भवेत् 'इतरो वा' प्रान्तः ।। तत्र भद्रः प्रलम्बं गृह्यमाणं दृष्ट्वा तं साधु भणति-साधु त्वया कृतम् , तारिता वयं संसारसागरात् , अन्यान्यपि हे साधो ! पर्याप्तानि गृहाण इत्यादि । प्रान्तः पुनः षण्णां प्रकाराणामेकतरं कुर्यात् ॥ ८९५ ॥ अथ क एते षट् प्रकाराः ? उच्यते-- पडिहणा खरंटण, उबलभ पंतारणा य उबहिम्मि । गिण्हण-कढण-ववहार-पच्छकडुड्डाह-निधिसए ॥ ८९६ ॥ प्रतिषेधनं प्रतिषेधना-निवारणेत्यर्थः १ 'खरण्टना' खर-परुषबचनैर्निर्भर्त्सना २ 'उपालम्भः' सपिपासवचनैः शिक्षा ३ 'प्रान्तापना' यष्टि-मुश्यादि भस्त,डना ४ "उवहिम्मि" ति उपधिहरणम् ५ इति पञ्च भेदाः, ग्रहणाकर्षणव्यवहारपश्चात्कृतोड्डाहनिर्वेषय इत्यक एव षष्ठो भेदः ६ इति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ८९६ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह जं गहियं तं गहियं, बिइयं मा गिण्ह हरइ वा गहियं । जायसु ममं व कज्जे, मा गिण्ह सयं तु पडिसेहो ॥ ८९७॥ __ 'यद् गृहीतं प्रलम्बं तद् गृहीतं नाम, द्वितीयं पुनर्वारं मा ग्रहीः' इति वचनं यद् वक्ति, यद्वा गृहीतं सत् प्रलम्बं तस्य प्रव्रजितस्य हस्ताद 'हरति' उद्दालयति, भणति वा 'कार्ये समापतिते मामेव याचस्व, स्वयं पुनर्मा गृहाण' इत्येष सर्वोऽपि प्रतिषेध उच्यते ॥ ८९७ ॥ अथ खरण्टनामाह धी मुंडितो दुरप्पा, धिरत्थु ते एरिसस्स धम्मस्स । अन्नत्थ वा वि लब्भिसि, मुक्को सि खरंटणा एसा ॥ ८९८॥ धिग् मुण्डितो दुरात्मा । धिगस्तु 'ते' तव सम्बन्धिन ईदृशस्य धर्मस्य, यत्र चौर्य क्रियत इति भावः । यद्वा मया मुक्तोऽसि परमन्यत्रापि त्वमीदृशश्चेष्टितेविडम्बना लप्स्यसे । एषा निष्पि-30 पासनिर्भर्त्सना खरण्टना भण्यते ॥ ८९८ ॥ उपालम्भमाह १°गाइ इतरे लहुगा उ ता० ॥ २°पाः शुनाल-हरि' मो० ले. विना ॥ ३ उच्यन्त मो. ले. कां.॥ ४ उलंभ ता०॥ 20 25 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ आमफलाणि न कप्पंति तुम्ह मा सेसए वि दूसेहिं । मा य सकजे मुज्झसु, एमाई होउवालंभो ॥ ८९९ ॥ आमफलानि युष्माकं ग्रहीतुं न कल्पन्ते, अतः शेषानपि साधून 'मा दूषय' निजदुश्चरितेन मा कलङ्कितान् कुरु, मा च 'स्वकार्ये' निरवद्यप्रवृत्त्यात्मके चारित्रे मुहः, एवमादिकः सपिपास5 शिक्षारूप उपालम्भो भवति ॥ ८९९ ॥ प्रान्तापनोपधिहरणे भावयति कर-पाय-दंडमाइसु, पंतावणगाढमाइ जा चरिमं । अप्पो अ अहाजाओ, सव्वो दुविहो विजं च विणा ॥ ९००॥ कर-पाद-दण्डादिभिः आदिशब्दाद् लतादिभिश्च ताडनं प्रान्तापना । तस्यां चानागाढपरि10 तापादिषु 'चरमं पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तम् । अल्पं वा बहुं वा स उपधिं हरेत् । अल्पो नाम यथाजातः, निषद्याद्वयोपेतं रजोहरणं मुखवस्त्रिका चोलपट्टकश्चेत्यर्थः । बहुः पुनः ‘सर्वः' चतुदेशविध उपधिः । अथवा 'द्विविधः' औधिकौपग्रहिकरूपः । यच्च तृणग्रहणादिकमुपधिं विना भवेत् तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ ९०० ॥ सम्प्रत्यनुग्रहादिपदेषु प्रायश्चित्तमाह लहुगा अणुग्गहम्मी, अप्पत्तिय गुरुग तीस ठाणेसु । पंतावणे चउगुरुगा, अप्प बहुम्मी हिए मूलं ॥९०१ ॥ यस्य सम्बन्धी स आरामः स यदि चिन्तयति 'अनुग्रहो मे यद् मदीयानि प्रलम्बानि साधवो गृह्णन्ति' इत्यनुग्रहे मन्यमाने चतुर्लघवः । अथाप्रीतिकं करोति तूष्णीकश्च तिष्ठति ततश्चतुर्गुरुकाः । अथाप्रीतिकवशात् प्रतिषेधं खरण्टनामुपालम्भं वा कुर्यात् ततस्त्रिप्वपि स्थानेषु प्रत्येकं चतुर्गुरवः । प्रान्तापनेऽपि चतुर्गुरुकाः । अल्पे वा बही वा उपधौ हृते मूलम् । यद्वोपधिनिप्पन्नम् , तद्यथा-- 20 उत्कृष्ट उपधौ चतुर्लघवः, मध्यमे मासलघु, जघन्ये रात्रिन्दिवपञ्चकम् । आह कथमेकत्रैव मूलम् ? उपधिनिप्पन्नं वा ? उच्यते-प्रमादतः प्रलम्बानि गृह्णत उपधिहरणे उपधिनिष्पन्नम् , दर्पतस्तु प्रलम्बानि गृह्णानस्योपकरणापहारे मूलम् ॥ ९०१ ॥ अथ “पंतावणगाढमाइ चरिमं पि (जा चरिमं)" (गा० ९००) पदं व्याचष्टे परितावणाइ पोरिसि, ठवणा महय मुच्छ किच्छ कालगए । मास चउ छच्च लहु गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च ॥९०२ ॥ प्रान्तापितस्य सतोऽनागाढा परितापना भवति चतुर्लघु, आगाढा भवति चतुर्गुरु, परितापनाभिभूतः सन् सूत्रपौरुषीं न करोति मासलघु, अर्थपौरुषीं न करोति मासगुरु, सूत्रं नाशयति चतुर्लघु, अर्थ नाशयति चतुर्गुरु, प्राशुकं स्थापयति चतुर्लघु, अप्राशुकं स्थापयति चतुर्गुरु, प्रत्ये कस्थापने चतुर्लधु, अनन्तस्थापने चतुर्गुरु इत्यादि प्राग्वद् वक्तव्यम् । “महय" त्ति महादुःखे षड्30 लघु, मूर्छाय षड्गुरु, कृच्छ्रमाणे च्छेदः, कृच्छ्रोच्छासे मूलम् , समवहतेऽनवस्थाप्यम् , कालगते पाराञ्चिकम् ।। २०२ ॥ अथ “यच्च तृणग्रहणादिकमुपधिना विना भवेत्” (गा० ९००) इति पदं विवृणोति १ प्रतापना मो. ले० ॥ 25 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । तणगहणे सिरेतर, अग्गी सट्ठाण अभिनवे जं च । एसपेल्लण गहणे, काया सुत मरण ओहाणे ॥ ९०३ ॥ वर्षाकल्पादावुपकरणे हृते शीतभिभूतास्तृणानि गृह्णन्ति - सेवन्ते । तत्र शुषिरतृणसेवने चतुलघु, अशुषिरतृणसेवने मासलघु । अग्निं सेवन्ते तत्र स्वस्थानप्रायश्चित्तम्, चतुर्लघु इत्यर्थः अथाभिनवमग्निं जनयन्ति मूलम्, यच्चाग्निसमारम्भेऽन्येषां जीवानां विराधनं तन्निष्पन्नमपि प्राय-5 श्चित्तम् । अथोपकरणाभावे उद्गमादिदोषदुष्टं वस्त्रादि गृह्णन्त एषणां प्रेरयन्ति ततस्तन्निप्पन्नम् ; “गहणे” त्ति शीतादिभिः परिताप्यमाना गृहस्थैरदैत्तमपि वस्त्रादि गृह्णीयुस्तन्निप्पन्नम् । निशीथचूर्णिकृता तु "गमणे" त्ति पाठो गृहीतः, तत्र चोपधिं विना शीतादिपरीषहमविषहमाणो यद्यन्यतीर्थिकेष्वेकः साधुर्गच्छति मूलम्, द्वयोर्गच्छतोरनवस्थाप्यम्, त्रिषु पाराञ्चिकम् । “काय” त्ति अग्निं सेवमाना एषणां प्रेरयन्तो वा यत् पृथिव्यादिकायान् विराधयन्ति तन्निष्पन्नम् । 10 “सुत" त्ति 'श्रुतं' सूत्रं तस्य पौरुषीं न कुर्वन्ति, उपलक्षणत्वाद् अर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति सूत्रं नाशयन्ति अर्थ नाशयन्ति तन्निप्पन्नम् । "मरण" त्ति उपकरणं विना यद्येकोऽपि म्रियते तथापि पाराञ्चिकम्, “ओहाण" त्ति यद्येकः साधुरवधावति मूलम्, द्वयोरनवस्थाप्यम्, त्रिषु पाराञ्चिकम् ॥ ९०३ ॥ अथ ग्रहणाकर्षणादिरूपं षष्ठं प्रकारं भावयति भाप्यगाथाः ८९९-९०६ ] २८७ गेहण गुरुगा छम्मास कढणे छेदों होइ ववहारे । पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डहण विरंगणे नवमं ।। ९०४ ॥ उद्दवणे निव्विसए, एगमणेगे पदोस पारंची । अवटुप्पो दोसु य, दोसु य पारंचिओ होइ ॥ ९०५ ॥ लम्बानि गृह्णानो यदि प्रलम्बखामिना दृष्ट्वा गृहीतस्ततो ग्रहणे चतुर्गुरुकाः । अथ तेनोपकरणे हस्ते वा गृहीत्वा राजकुलाभिमुखमाकृष्टस्तत आकर्षणे षण्मासा गुरवः । अथ कारणिकानां 20 समीपे व्यवहारं कारयितुमारब्धः ततश्छेदः । व्यवहारे विधीयमाने यदि पश्चात्कृतः' पराजितस्ततो मूलम् । अथ चतुष्क- चत्वरादिषु 'एष प्रलम्बचौरः' इतिघोषणापुरस्सरमुद्दग्धः हस्त-पादादौ वा अवयवे व्यङ्गितस्तत एवमुद्दहने “विरुंगणे" त्ति व्यङ्गने वा 'नवमम्' अनवस्थाप्यम् ॥ ९०४ ॥ अथान्यायोदीर्णकोपानलेन राजादिना अपद्रावितो निर्विषयो वा आज्ञप्तस्ततोऽपद्रावणे निर्विषये वा कृते पाराञ्चिकम् । अथवा एकस्यानेकेषां वा साधूनामुपरि प्रद्वेषं यदि व्रजति तदा पाराञ्चि - 25 कम् । अत्र च 'द्वयोः' उद्दहन-व्यङ्गनयोरनवस्थाप्यो भवति, 'द्वयोश्व' अपद्रावण-निर्विषययोः पाराचिक इति ॥ ९०५ ॥ अथ परिग्रहविशेषेण प्रायश्चित्तविशेषमाह - आराम मोल्लकीए, परतित्थिय भोइएण गामेण । वणि-घड-कुटुंबि-राउलपरिग्गहे चैव भद्दितरा ॥ ९०६ ॥ sssरामः कश्चिदादित एवाऽऽत्मीयो वा भवेद् मूल्येन क्रीतो वा । यो मूल्येन क्रीतः स 30 केन क्रीतो भवेत् ? उच्यते - परतीर्थिकेन वा १ भोगिकेन वा २ ग्रामेण वा ३ वणिजा वा ४ घट्या वा गोष्ठ्येत्यर्थः ५ कौटुम्बिकेन वा ६ आरक्षिकेण वा ७ राज्ञा वा ८ एतद् द्वयमपि राज - १ 'तादिभिरभिभू° मो० ले० ॥ २ 'हने (ने) षणां प्रेरयति भा० ॥ ३ 'दत्तानि वस्त्रादीनि गृह तनि भा० ॥ ४ °यन्तो यावत् पृ' त०डे० कां० ॥ 15 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ कुलशब्देन गृहीतम् । एतेषां परिग्रहे वर्तमानादारामात् प्रलम्बानि गृहृतो यथाक्रमं प्रायश्चित्तं चतुर्लघु १ चतुर्गुरु २ षड्लघु ३ षड्गुरु ४ छेदः ५ मूलं ६ अनवस्थाप्यं ७ पाराश्चिकम् ८ । अत्रापि त एव 'भद्रेतराः' भद्रक-प्रान्तकृता अनुग्रह-प्रतिषेधादयो दोषा वक्तव्याः । एतत् सर्वमयाचिते प्रलम्बे द्रष्टव्यम् । याचिते तु ग्रहणा-ऽऽकर्षणादिदोषान् विना शेषमिति ॥ ९०६ ॥ 5 एतावता वृक्षस्याधःप्रपतितमचित्तं व्याख्यातम् । अथ सचित्तादिद्वारचतुष्टयमभिधित्सुराह एमेव य सचित्ते, छुमणा आरोहणा य पडणा य । जं इत्थं नाणतं, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ ९०७॥ यथा अचित्ते "दिढे संका भोइय" (गा० ८६६) इत आरभ्य "आराम मोल्लकीए" (गा० ९०६) इति पर्यन्तं भणितम् एवमेव सचित्तेऽपि द्रष्टव्यम् । प्रक्षेपणमारोहणं पतनमित्येतान्यपि 10 द्वाराणि तथैव वक्तव्यानि । यत् पुनरत्र 'नानात्वं' विशेषस्तदहं वक्ष्ये समासेन ॥ ९०७ ॥ तत्र सचित्ते तावद् विशेषमाह तं सच्चित्तं दुविहं, पडियाऽपडियं पुणो परित्तियरं । पडितऽसति अपावंते, छुभई कट्ठाइए उवरिं ॥९०८॥ तत् पुनः सचित्तं द्विविधम्-पतितमपतितं च । पुनरेकैकं द्विधा-'परीत्तं' प्रत्येकम् 'इत15 रद्' अनन्तं च । तत्र पतितस्य 'असति' अभावे वृक्षप्रतिष्ठितेऽपि हस्तादिना अप्राप्यमाणे ततः प्रलम्बपातनार्थ काष्ठादीन्युपरि क्षिपति ॥ ९०८॥ तत्र यद् वृक्षोपरिस्थितं भूमिस्थितो हस्तेन गृह्णाति तत्र प्रायश्चित्तमाह सजियपयट्टिएँ लहुगो, सजिए लहुगा य जत्तिया गाहा । गुरुगा होति अणंते, हत्थप्पत्तं तु गेण्हते ॥ ९०९॥ 20 सजीववृक्षप्रतिष्ठितमचित्तफलं गृह्णाति मासलघु । अत्र च यावतो ग्राहान् करोति तावन्ति मासलघुकानि । अथ सजीवं सचित्तवृक्षप्रतिष्ठितं गृह्णाति चतुर्लघु, सच्चित्तप्रतिष्ठितप्रत्ययं च मासलघु, तत्रापि यावतो ग्राहान् करोति तावन्ति चतुर्लघूनि मासलघूनि च । एतत् प्रत्येके भणितम् । अनन्ते पुनरेतान्येव प्रायश्चित्तानि 'गुरुकाणि' मासगुरु-चतुर्गुरुखरूपाणि भवन्ति । एवं भूमिस्थितस्य वृक्षस्थितं हस्तप्राप्तं प्रलम्बं गृह्णतः प्रायश्चित्तमुक्तम् ॥९०९॥ 25 अथ यदुक्तम् "छुभई कट्ठाइए उवरिं" (गा० ९०८) ति तदेतद् विवरीषुराह छुभमाण पंचकिरिए, पुढवीमाई तसेसु तिसु चरिमं । तं काय परिचयई, आवडणे अप्पगं चेव ॥ ९१० ॥ प्रलम्बपातनाथ काष्ठ-लेष्ठु-शुष्कगोमयादिकं गवेषयति चतुर्लघु । काष्ठादिकं लब्ध्वा वृक्षाभिमुखं क्षिपति चतुर्लघव एव । स च क्षिपन्नेव 'पञ्चक्रियः' पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः, तद्यथा30 कायिक्या १ आधिकरणिक्या २ प्राद्वेषिक्या ३ पारितापनिक्या ४ प्राणातिपातक्रियया ५ चेति । पृथिव्यादिषु च जीवेषु सङ्घटना-परितापना-ऽपद्रावणैर्ल घुमासादिकं प्रायश्चित्तं यथास्थानं ज्ञातव्यम् । "तसेसु तिसु चरिमं" ति त्रिषु पञ्चेन्द्रियरूपेषु त्रसेषु व्यपरोपितेषु 'चरमं' पाराञ्चिकम् । तथा १ "पुढविकायादिसु तसावसाणेसु जीवेसु संघट्टणाए परियावणाए उद्दवणाए एतेसु तिसु ठाणेसु मासादी आढत्तं चरिमं पावति” इति चूर्णिकाराः ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ९०७-१४ ] प्रथम उद्देशः । २८९ काष्ठादिकं क्षिपन् 'तं कायं' वनस्पतिलक्षणं नियमादेव परित्यजति । स च लगुडादिरुर्द्धं क्षिप्तः शाखादौ प्रतिस्खल्य निवृत्तस्तस्यैव शरीराभिमुखमापतति, तस्यापतने आत्मानं च परित्यजतीति ॥ ९१० ॥ कथं पुनः पृथिव्यादिकायानां विराधको भवति ? इत्युच्यते---- पावंते पत्तम्मिय, पुणोपडंते अ भूमिपत्ते अ । रय-वास - विजयाई, वाय-फले मच्छिगाइ तसे ॥ ९११ ॥ 5 तत् काष्ठादिकं हस्तात् च्युतं सद् यावद् वृक्षेनाssस्फलति तावत् प्राप्नुवद् भण्यते तस्मिन् प्रामुवति, तथा वृक्षं प्राप्ते पुनःपतति च भूमिप्राप्ते च षट्कायविराधना ज्ञातव्या । कथम् ? चेद् इत्याह – “रय” इत्यादि । आदिशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते, ततश्च रजःप्रभृतिकं पृथिवीकायं वर्षोदकादिकमप्कायं विद्युदादिकं तेजःकायं 'वातं च' तत्रैव वातं फलानि तस्यैव वृक्षस्य सत्कानि उपलक्षणत्वात् पत्रादीन्यपि मक्षिकादींश्च त्रसान् विराधयति ॥ ९९९ ॥ इदमेव स्पष्टयन्नाह - खोल तयाई रओ, महि-वासोस्साइ अग्गि दरदडे | तत्थेवऽनिल वणस्सइ, तसा उ किमि - कीड - सउणाई ।। ९१२ ।। 10 " “खोल्लं" ति देशीशब्दत्वात् कोटरम् त्वक् प्रतीता, तदादिषु स्थानेषु वृक्षे रजः सम्भवेत् ततः पृथिवीकायविराधना । महिकायां निपतन्त्यां वर्षे अवश्याये वा निपतति आदिग्रहणेन हरतनुकादिसम्भवेऽप्कायविराधना । वनदवादिना दरदग्धे वृक्षे उपलक्षणत्वाद् विद्युति वाऽग्निकाय - 15 विराधना । तत्रैवाभौ नियमाद् 'अनिल' वायुः सम्भवतीति वायुकायविराधना । वनस्पतिः स एव प्रलम्बलक्षणः पत्र-पुष्पादिर्वा । त्रसास्तु कृमि - कीट- शकुनादिका विराध्यन्ते । कृमयः - विष्ठादिसमुद्भवाः, कीटकाः- धुणादयः, शकुनाः - काक - कपोतादयः, आदिग्रहणेन सरटादिपरिग्रहः । एवं वृक्षमप्राप्ते काष्ठादौ षट्कायविराधना । एवमेव प्राप्ते पुनः पतति भूमिप्राप्तेऽपि ज्ञातव्यम् ॥ ९१२ ॥ 20 यत आह--- अप्पत्ते जो उगमो, सो चेव गमो पुणोपडंतम्मि । सो चैव य पडियम्मि वि, निकंपे चेव भोमाई ॥ ९१३ ।। एवाप्राप्ते 'गमः' प्रकारः स एव गमः पुनः पतति उपलक्षणत्वात् प्राप्तेऽपि, भूयो गमशब्दोच्चारणं षट्कायविराधनां प्रतीत्याऽऽत्यन्तिकतुल्यताख्यापनार्थम् स एव भूमौ पतितेऽपि काष्ठादौ प्रकारः प्रतिपत्तव्यः । केवलं "निक्कंपे चेव भोमाइ" त्ति तत् काष्ठादिकं महता भारगौ-25 रवेण ‘निष्कम्पं’ निस्सहं पृथिव्यां यद् निपतति तेन 'भौमादीनां' पृथिव्यादीनां महती विराधनेति चूर्णिकृदभिप्रायः । निशीथचूर्णिकाराभिप्रायेण तु “निकंपे चेव भूमीए” इति पाठः व्याख्या - यस्यां भूमौ स्थितः काष्ठादिक्षेपणाय विशिष्टं स्थानबन्धमध्यास्ते तत्रापि पादयोर्निष्कम्पत्वेन षण्णां कायानां विराधको भवति ॥ ९९३ ॥ अस्य एवं दव्वतों छण्हं, विराधओ भावओ उ इहरा वि । चिज हु घणं कम्मं, किरियरगहणं भयनिमित्तं ॥ ९१४ ॥ १ “णिकंपे चेव भोमादि" त्ति जत्थ तं कट्ठादि णिकंपेणं ति णिज्जामेण पडति तत्थ भोमादि छक्कायां बिराधेज्जा, एवं तं कातं परिचयति" इति चूर्णिः ॥ 30 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० 15 सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ 'एवम्' एतेन प्रकारेण चतुर्वप्यप्राप्तादिपदेषु द्रव्यतः षण्णां कायानां विराधकः प्रतिपत्तव्यः । भावतस्तु 'इतरथाऽपि' द्रव्यतो विराधनां विनाऽप्यसौ षट्कायविराधको लभ्यते, संयमं प्रति निरपेक्षतया तस्य भावतः प्राणातिपातसद्भावात् । भावप्राणातिपातेन च यथा 'धन' निबिडं कर्म चीयते न तथा द्रव्यप्राणातिपातेन । आह यदुक्तं “पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः” (गा० ९१०) 5 तत् कथं संवादमश्नुते ? यावता यदि न विराधयति तदा कायिकी आधिकरणिकी च क्रिये सम्भवतः पारितापनिक-प्राणातिपातिकक्रिययोस्तु कुतः सम्भवः ?, अथ विराधयति तदेताश्वतस्रोऽपि भवेयुः प्राद्वेषिकी पुनः कथं भवेत् । सूरिराह-क्रियाग्रहणं 'भयनिमित्तं' भयजननार्थ क्रियते, येन साधवः क्रियापञ्चकापत्तिदोषमीता मूलत एव प्रलम्बग्रहणे न प्रवर्तन्ते; यद्वा दृष्टिवादनयाभिप्रायनैपुण्याद् यत्रैका क्रिया तत्र पञ्चापि क्रियाः सम्भवन्तीति न दोषः । 10 यदाह निशीथचूर्णिकद अहवा जत्थ एगा किरिया तत्थ दिट्टिवायनयसुहुमत्तणतो पञ्च किरियाओ भवंति, अतो पंचकिरियम्गहणे न दोसो। [नि.भा. ४७७३ च.] ॥ ९१४ ॥ एवं तावत् संयमविराधना भाविता । अथाऽऽत्मविराधनां भावयति. कुवणय पत्थर लेट्ट, पुव्वच्छूढे फले व पवडते । पञ्चुप्फिडणे आया, अच्चायामे य हत्थाई ॥ ९१५ ॥ अन्येन केनचित् प्रलम्बार्थिना पूर्व "कुवणउ' त्ति लगुडः क्षिप्तः, स तत्रैव वृक्षशाखायां विलमः सन् वायुप्रयोगेण विवक्षितसाधुक्षिप्तकाष्ठादिप्रयोगेण वा सञ्चालितस्तस्यैव साधोरुपरि निपतन् विराधनां कुर्यात् । एवं 'प्रस्तरः' पाषाणः 'लेष्ठुः' इष्टकाशकलं मृत्तिकापिण्डो वा पूर्व क्षिप्तः पतेत्, फलं वृन्तच्युतं वृक्षात् प्रपतेत् । तस्यैव काष्ठादेः प्रतिनिवृत्त्य स्खसम्मुखं प्रत्यास्फलने -20 आत्मविराधना भवेत् । 'अत्यायामेन च' अतीवहस्तसमुच्छ्यणेन काष्ठादौ क्षिप्यमाणे हस्तादेः परितापना भवेदिति ॥ ९१५ ॥ गतं क्षेपणाद्वारम् । अथाऽऽरोहणद्वारमाह खिवणे वि अपावंतो, दुरुहइ तहिं कंट-विच्छ-अहिमाई। पक्खि-तरच्छाइवहो, देवयखेत्ताइकरणं च ॥९१६ ।। तत्थेव य निट्ठवणं, अंगेहिँ समोहएहिँ छक्काया ।। आरोवण स च्चेव य, गिलाणपरितावणाईया ॥९१७ ॥ काष्ठादेः क्षेपणे कृतेऽपि यदा प्रलम्बानि न पतन्ति तदाऽधःस्थितस्तानि 'अप्रामुवन्' अलभमानस्तं वृक्षं "दुरुहइ" त्ति आरोहति । स च यावद्भिर्बाहुक्षेपकैरारोहति तावन्ति चतुर्लघुकानि, अनन्ते पुनश्चतुर्गुरुकाणि । 'तत्र' वृक्षे आरोहन् यत् कण्टकैर्विध्यते, यच्च वृश्चिकेनाऽहिना वा आदिशब्दाद् नकुलादिना वा दश्यते, यच्च पक्षिभिः-श्येनादिभिः तरक्षादिभिश्च-आटव्यजीवैर्वधो 30 भवति, यया वा देवतया अधिष्ठितोऽसौ वृक्षस्तया यदसौ साधुः क्षिप्तचित्तः क्रियते, आदिग्रहणेनापरया कयाचिद् विडम्बनया विडम्ब्यते ॥ ९१६ ॥ यद्वा सा देवता खाधिष्ठितवृक्षारोहणकुपिता तत्रैव 'निष्ठापनम्' आयुषः समापनं तस्य यत् १ यदि निवारयति त. डे० कां० ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ९१५ - २१] प्रथम उद्देशः । मागगर कुर्यात्, अथवा तं साधुमारोहन्तमेव यत् पातयेद् एषा सर्वाऽप्यात्मविराधना । पातितस्य च तस्याङ्गानि 'समवहन्यन्ते' भज्यन्त इत्यर्थः, तैरङ्गैर्हस्त पादादिभिः समवहतैर्यत्र भूमावसौ पतति तत्र षट् काया विराध्यन्ते । तेषां च सङ्घट्टनादिभिरारोपणा सैव द्रष्टव्या या "छक्काय चउसु लहुगा" इत्यादि ( ८७९ ) गाथायामुक्ता । आत्मविराधनायां च ग्लानविषया परितापनादिनिपन्ना या आरोपणा साऽपि प्राग्वदवसातव्या ॥ ९९७ ॥ गतमारोहणद्वारम् । अथ पतनद्वारमाह – 5 मरण- गिलाणाईया, जे दोसा होंति दूहमाणस्स । ते चैव य सारुवणा, पवडते होंति दोसा उ ।। ९१८ ॥ कदाचिदसौ तं वृक्षमारोहन् पतेत्, ततश्च मरण - ग्लानत्वादिका ये दोषा आरोहतो भवन्ति प्रपततोऽपि त एव दोषाः 'सारोपणाः' सप्रायश्चित्ता निरवशेषा वक्तव्याः । " पवडंते होंति सविसेसा” इति निशीथचूर्णिलिखितः पाठः, तत्रायमर्थः -- आरोहतो दोषाणां सम्भव एव भणितः, 10 पततः पुनरवश्यम्भाविनो गात्रभङ्गादयो दोषा इति सविशेषग्रहणम् ॥ ९९८ ॥ गतं पतनद्वारम् । अथोपधिद्वारं विवृणोति तंमूल उवहिगहणं, पंतो साहूण कोइ सव्वेसिं । तण-अग्गिगहण परितावणा य गेलन पडिगमणं ।। ९१९ ।। यस्य परिग्रहे तानि प्रलम्बानि सः 'तन्मूलं' प्रलम्बग्रहणनिमित्तं तस्यैव साधोरुपधिग्रहणं कुर्यात्, 15 यद्वा कश्चित् प्रान्तः सर्वेषां साधूनामुपधिं गृह्णीयात् । तत्र यथाजाते रजोहरणादिके उपधौ हृते मूलम्, शेषे पुनरुत्कृष्टे चतुर्लघु, मध्यमे मासलघु, जघन्ये पञ्चकम् । उपधिं विना तृणानि गृह्णीयात्, अग्रहणं वा कुर्यात्, अग्निं सेवेतेति भावः, अथाग्निं न सेवते ततः शीतेन परितापना तस्य भवेत्, शीतेन वा भुक्ते अजीर्यमाणे ग्लानत्वं भवेत्, शीताभिभूता वा साधवः पार्श्वस्थादिषु प्रतिगमनं कुर्युः ॥ ९९९ ॥ सम्प्रत्यत्रैव प्रायश्चित्तमाह तणगहण अग्गिसेवण, लहुगा गेलन्ने होइ तं चैव । मूलं अणवटुप्पो, दुग तिग पारंचिओ होइ ।। ९२० ॥ अशुषिरतृणानि गृह्णाति मासलघु, शुषिरतृणानि गृह्णाति चतुर्लघु । परकृतममिं सेवते चतुर्लघु, अभिनवमग्निं जनयति मूलम्, अग्निशकटिकायां वा तापयन् यावतो वारान् हस्तं वा पादं वा सञ्चालयति तावन्ति चतुर्लघूनि । यस्तु धर्मश्रद्धालुरमिं न सेवते स शीतेन ग्लानः सञ्जायते, 25 ग्लानत्वे चानागाढपरितापनादौ तदेव प्रायश्चित्तम् । अथ शीतपरीषहमसहिष्णुः पार्श्वस्थादिषु जति चतुर्लघु, यथाच्छन्देषु व्रजति चतुर्गुरु । यद्येकोऽवधावते अन्यतीर्थिकेषु वा याति ततो मूलम्, द्वयोरनवस्थाप्यम्, त्रिषु पाराञ्चिकम् ॥ ९२० ॥ गतमुपधिद्वारम् । अथोड्डाहद्वारं विवृणोति - अपरिग्गहिय पलंबे, अलभंतो समणजोगमुक्कधुरो | रसगेही पडिबद्धो, इतरे गिण्हंतों गहिओ य ।। ९२१ ॥ " 30 अपरिगृहीतानि प्रलम्बान्यलभमानः 'श्रमणयोगमुक्तधुरः ' परित्यक्तश्रमणव्यापारभार इंति भावः, रसगृद्धिप्रतिबद्धः ‘इतराणि' परिगृहीतप्रलम्बानि गृह्णन् प्रलम्बखामिना दृष्ट्वा गृहीतः ॥ ९२९ ॥ १ गृह्णीयात् चतु त० ॥ 20 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ ततश्च महजणजाणणया पुण, सिंघाडग-तिग-चउक्क-गामेसु । उड्डहिऊण विसजितें, महजणणाए ततो मूलं ॥ ९२२ ॥ तेन प्रलम्बखामिना गृहीत्वा शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्कस्थानेषु ग्रामेषु वा बहुषु नीत्वा महाजनस्य5 पौर-जानपदरूपस्य ज्ञापना कृता, यथा 'एतेन मदीयानि प्रलम्बानि चोरितानि' इत्यादि महाजनस्य पुरत उद्दह्य 'विसर्जितः' मुक्तः तत एवं महाजनज्ञाते सति मूलं नाम प्रायश्चित्तम् ॥ ९२२ ॥ कथमुद्दग्धः ? इत्याह एस उ पलंबहारी, सहोढ गहिओ पलंबठाणेसु । सेसाण वि छाधाओ, सविहोढ विलंबिए होइ ॥ ९२३ ॥ 10 येनाऽऽरामाधिपतिना स प्रलम्बानि गृह्णानो गृहीतः स [तं] रासभारोपितं शृङ्गाटक-त्रिक-चतुप्कादिषु सर्वतः परिभ्रामयन्नेवमुद्घोषयति---'भो भोः पौराः ! श्रूयतामस्य प्रवजितकस्य दुश्चरितम्-एषः 'प्रलम्बहारी' मदीयारामसत्कप्रलम्बचौरः 'सहोढः' सलोप्तो गृहीतो मया दुरात्मा 'प्रलम्बस्थानेषु' आरामप्रदेशेषु इत्यादिघोषणापुरस्सरमितश्चेतश्च नीयमानो महाजनेन सखेद मवलोक्यमानः खकृतेन कर्मणा विडम्ब्यते । ततश्च 'सविहोढं' सजुगुप्सनीयं यथा भवत्येवं 15 विडम्बिते तस्मिन् शेषाणामपि साधूनां 'छायाघातः' 'सर्वेऽप्यमी एवंविधा एव' इति प्रभापरिअंशो भवतीति ॥ ९२३ ॥ व्याख्यातमुड्डाहद्वारम् । तद्व्याख्याने च समर्थिता "अन्नत्थ-तत्थगहणे" (८६३ ) इत्यादिद्वारगाथा । अथ यदुक्तमधस्तात् “आणाऽणवत्थ मिच्छा, विराहणा कस्सऽगीयत्थे" (गा० ८६२) तदिदानी प्राप्तावसरं व्याख्यायते । तत्र आज्ञेति द्वारम्-भगवता प्रतिषिद्धं यत् 20 "प्रलम्बं न कल्पते" तद्ब्रहणं कुर्वता भगवतामाज्ञाभङ्गः कृतो भवति, तस्मॅिश्चाज्ञाभङ्गे चतुर्गुरुकाः । अत्र परः प्राह __ अवराहे लहुगतरो, आणाभंगम्मि गुरुतरो किह णु । आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु ॥ ९२४ ॥ 'अपराधे' चारित्रातिचारे लघुतरो दण्डो भवद्भिः पूर्वं भणितः; तथाहि-अचित्ते प्रलम्बे 25 मासलघु, सचित्ते तु चतुर्लधु; इह पुनराज्ञाभङ्गे चतुर्गुरुकमिति गुरुतरो दण्डः 'कथं' कस्मात् ?, 'नुः' इति वितर्के; अपि च अपराधे जीवोपघातो दृश्यते तेन तत्र गुरुतरो दण्डो युक्तियुक्तः, आज्ञायां पुनर्नास्ति जीवोपघात इति लघुतर एवात्र भणितुमुचित इति । आचार्यः प्राह-आज्ञायामेवे भागवत्यां 'चरणं' चारित्रं व्यवस्थितम् , अतः 'तद्भङ्गे' तस्याः-आज्ञाया मैने 'किम् ? इति परिप्रश्ने आचार्यः शिष्यं प्रश्नयति—किं तद् मूलोत्तरगुणादिकं वस्तु समस्ति यदाज्ञाभङ्गे 30 न भनम् ? अपि तु सर्वमपि भममिति, अत आज्ञायां गुरुतरो दण्ड उच्यते ॥ ९२४ ॥ १°घु इत्येतावदेव प्रायश्चित्तमुक्तम्, अतो लघुतर एव तत्र दण्डः; इह भा० ॥ २°व भगवतां तीर्थकृतां सम्बन्धिन्यां 'चरणं' भा० ॥ ३ भङ्गे किं तद् मूलोत्तरगुणादिकं वस्तु [यद्] न भन्नम् ? अपि तु त० डे० का० ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ९२२ - २८ ] प्रथम उद्देशः । २९३ अस्यैवार्थस्य प्रसाधनार्थं दृष्टान्तमाह सोऊण य घोसणयं, अपरिहरंता विणास जह पत्ता । एवं अपरिहरंता, हियसव्वस्सा उ संसारे ।। ९२५ ॥ राज्ञाकारितां घोषणां श्रुत्वा घोषणया च निवारितमर्थमपरिहरन्तो यथा द्रव्यापहारलक्षणं विनाशं प्राप्ताः, एवं तीर्थकरनिषिद्धं प्रलम्बग्रहणमपरिहरन्तः 'हृतसर्वखाः' अपहृतसंयमरूप - 5 सर्वसाराः संसारे दुःखमवाप्नुवन्ति । एषा श्रीभद्रबाहुखामिविरचिता गाथा ॥ ९२५ ॥ अथास्या एव भाष्यकारो व्याख्यानं करोति छप्पुरिसा मज्झ पुरे, जो आसादेज ते अजाणतो । तं दंडेमि अकंडे, सुर्णेतु पउरा ! जणवया ! य ॥ ९२६ ॥' आगमिय परिहरंता, निद्दोसा सेसगा न निद्दोसा । जिणआणागमचारि, अदोस इयरे भवे दंडो ॥ ९२७ ॥ जह कोइ नरवई, सो छहिं पुरिसेहिं अन्नतरे कज्जे तोसितो इमेणऽत्थेण घोसणं कारेइ'इमे छ प्पुरिसा मज्झ पुरे अप्पणो इच्छाए विहरमाणा महाजणेणं अदिट्ठपुवा अणुवद्धविभवनेवत्था अच्छंति, जो ते छिवइ वा पीडेइ वा मारेइ वा तस्स उम्गं दंड केरेमि, हंदि सुणंतु एअं पउरा ! य जणवया ! य' त्ति । एयं घोसणयं सोऊण ते पउरा जणवया य दंडभीता ते पुरिसे 15 पयतेण वन्न रुवाईहिं चिंधेहिं आगमिऊणं पीडापरिहारकयबुद्धी तेसिं छण्हं पुरिसाणं पीडं परिहरति ते निद्दोसा । जे पुण अणायारमंता न परिहरंति ते रन्ना सबस्सावहारदंडेणं दंडिया । एस दितो । अयमत्थोवणओ —रायत्थाणीया तित्थयरा । पुरत्थाणीओ लोगो । छप्पुरिसत्थाणीया छक्काया । घोसणत्थाणीया छक्कायरक्खणपरूवणपरा छज्जीवणियादओ आगमा । छिवणाइत्थाणीया संघट्टणादी । पउर - जणवयत्थाणीया साहू | दंडत्थाणीओ संसारो । तत्थ जे पयत्तेण 20 छहं कायाणं सरूवं रक्खणोवायं च आगमेऊण जहुत्तविहीए पीडं परिहरंति ते कम्मबंधदंडेणं न दंडिज्जंति, इयरे पुण संसारे पुणो पुणो सारीर - माणसेहिं दुक्खसयसहस्सेहिं दंडिज्जंति ति ॥ अथाक्षरगमनिका - " षट् पुरुषा मम पुरे वर्त्तन्ते, यस्तानजानन्नपि 'आशातयेत्' स्पर्शादिनाऽपि पीडयेत् तमहं दण्डयामि ‘अकाण्डे' अकाले, शृण्वन्तु एतत् 'पौराः !' पुरवासिनः ! 'जानपदाश्च' ग्रामवासिनो लोकाः !" इति राज्ञा कारितां घोषणां श्रुत्वा तान् पुरुषान् 'आगम्य' उपलक्ष्य 25 परिहरन्तः सन्तो निर्दोषाः, ( ग्रन्थाग्रम् - ३०००) 'शेषाः' पुनर्ये पीडां न परिहरन्ति ते न निर्दोषा इति दण्डिताः । एवमत्रापि जिनाज्ञया यः षट्कायानामागमः - परिज्ञानं तत्पूर्वक - चारिणः–संयमाध्वगामिनः सन्तोऽदोषाः, इतरेषां 'भवे' संसारे शारीर मानसिकदुः खलक्षणो दण्डः ॥ ९२६ ॥ ९२७ ॥ गतमाज्ञाद्वारम् । अथानवस्थाद्वारमाह एगेण कयमकजं, करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो । सायाबहुल परंपर, वोच्छेदो संजमै तवाणं ।। ९२८ ॥ १ भा० पुस्तके एतद्द्वाथानन्तरं ग्रन्थानम् ३००० इति वर्तते ॥ २ करेमि ।' एयं घोसणयं भा० विना ॥ ३ भगुणाणं ता० ॥ 10 30 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ इह प्रायः सर्वेऽपि प्राणिनः कर्मगुरुकतया दृष्टमात्रसुखाभिलाषिणः, न दीर्घसुखदर्शिनः, ततः सातलम्पटतया » 'एकेन' केनचिदाचार्यादिना किमपि 'अकार्य' प्रमादस्थानं 'कृतं' प्रतिसेवितं ततोऽन्योऽपि तत्प्रत्ययाद् ‘एष आचार्यादिः श्रुतधरोऽप्येवं करोति नूनं नास्त्यत्र दोषः' इति तदेवाकार्य करोति, ततोऽपरोऽपि तथैव करोति, तदन्योऽपि तथैव इत्येवं 'सातबहुलानां' सात5 गौरवप्रतिबद्धानां प्राणिनां परम्परया प्रमादस्थानमासेवमानानां संयम-तपसोर्व्यवच्छेदः प्राप्नोति । यद्धि संयमस्थानं तपःस्थानं वा पूर्वाचार्येण सातगौरवगृनुतया वर्जितं तत् पाश्चात्यैरदृष्टमिति कृत्वा व्यवच्छिन्नमेवेति ॥ ९२८ ॥ गतमनवस्थाद्वारम् । अथ मिथ्यात्वद्वारं विवृणोति मिच्छत्ते संकाई, जहेय मोसं तहेव सेसं पि।। मिच्छत्तथिरीकरणं, अब्भुवगम वारणमसारं ॥ ९२९ ॥ 10 मिथ्यात्वे विचार्यमाणे शङ्कादयो दोषा वक्तव्याः । शङ्का नाम-किं मन्ये अमी यथावादिनस्तथाकारिणो न भवन्ति येन प्रलम्बानि गृह्णन्ति ?, आदिशब्दात् काडादयो दोषाः । तथा यथैतद् मृषा तथैव 'शेषम्' अन्यदप्येतेषां मिथ्यारूपमेवेति चित्तविप्लुतिः स्यात् । मिथ्यात्वाद् वा चलितभावस्य सम्यक्त्वाभिमुखस्य प्रलम्बग्रहणदर्शनात् पुनरपि मिथ्यात्वे स्थिरीकरणं भवति । अभ्युपगमं वा प्रव्रज्याया अणुव्रतानां सम्यग्दर्शनस्य वा कर्तुकामस्यापरः कश्चिद् वारणं कुर्यात्15 मा एतेषां समीपे प्रतिपद्यस्ख, 'असारं' निस्सारममीषां प्रवचनम् , मयेद चेद च दृष्टमिति ॥ ९२९ ॥ • गतं मिथ्यात्वद्वारम् । अथ विराधना, सा च द्विविधा-संयमे आत्मनि च । द्वे अपि प्रागेव सप्रपञ्चं भाविते, तथापि विशेषमुपदर्शयितुमाह तं काय परिचयई, नाणं तह दंसणं चरित्तं च । बीयाईपडिसेवग, लोगो जह तेहिं सो पुट्ठो॥ ९३० ॥ 20 प्रलम्बं गृह्णन् 'तं कायं' वनस्पतिलक्षणं परित्यजति, तथा ज्ञानं दर्शनं चारित्रं चेति । बीजादिप्रतिसेवको लोको यथा असंयमेन स्पृष्टस्तथा सोऽपि साधुस्तैः प्रलम्बैरासेवितैरसंयमेन स्पृष्ट इति नियुक्तिगाथाक्षरार्थः ॥ ९३० ॥ अथैनामेव विवरीषुराह कायं परिच्चयंतो, सेसे काए वए वि सो चयई। __णाणे णाणुवदेसे, अवट्टमाणो उ अन्नाणी ॥ ९३१॥ 25 प्रलम्बानि गृहानो वनस्पतिकायं परित्यजति, तं च परित्यजन् शेषानपि कायानसौ भावतः परित्यजति, तत्परित्यागे च प्रथमव्रतपरित्यागः, प्रथमव्रतपरित्यागे च शेषव्रतपरित्यागोऽप्युपजायत इति "नतान्यप्यसौ परित्यजति" इत्युक्तम् । तथा 'ज्ञाने' ज्ञानविषये परित्यागे चिन्त्यमाने ज्ञानोपदेशे क्रियाद्वारेणाऽवर्चमानोऽसौ ज्ञान्यपि अज्ञानी मन्तव्यः ॥ ९३१ ॥ ...... सण-चरणा मूढस्स नत्थि समया व नत्थि सम्मं तु । विरईलक्खण चरणं, तदभावे नत्थि वा तं तु ॥ ९३२॥ ज्ञानाभावादसौ मूढो भवति, मूढस्य दर्शन-चारित्रे न स्तः । यद्वा प्रलम्बग्रहणादस्य जीवेषु समता न विद्यते । समताया अभावाच सम्यक्त्वमपि नास्ति, तस्यापि सामायिकभेदतया समता १ एतचिहान्तर्गतः पाठः मो० ले पुस्तकयोरेव विद्यते ॥ 30 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माप्यगाथाः ९२९-३६ ] प्रथम उद्देशः । २९५ रूपत्वात् । विरतिलक्षणं चरणं भणितम्, तच लक्षणं प्रलम्बानि गृह्णतो न विद्यते । ' तदभावे ' लक्षणाभावे ' तत्तु' तत् पुनश्चारित्रं नास्ति । वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतकः ॥ ९३२ ॥ अथ "वीयाई " ( गा० ९३० ) इत्यादि व्याख्यायते - फलादू बीजं भवतीति कृत्वा बीज - ग्रहणम्, आदिशब्दात् फल- पुप्प - पत्र - प्रवाल- शाखा - त्वक्-स्कन्ध-कन्द-मूलानि गृह्यन्ते । शिष्यः प्राह —– सर्वेऽपि वनस्पतयस्तावद् मूलादय एव भवन्ति अतः “मूलाईपडिसेवग " इति कर्तु - 5 मुचितम् किमिति “बीयाईपडिसेवग " त्ति कृतम् ? सूरिराह पाएण बीयभोई, चोयग ! पच्छाणुपुव्वि वा ऐवं । जोणिग्या व हतं, तदादि वा होइ वणकाओ ॥ ९३३ ॥ लोकः प्रायेण बीजभोजी, तेन कारणेन बीजमादौ कृतम् । यद्वा हे नोदक ! खसमये त्रिवि - धाऽऽनुपूर्वी प्ररूप्यते, तद्यथा- - पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी च । त्रिविधाऽपि च यथावसरं 10 व्याख्याङ्गमित्यत्र पश्चानुपूर्वी गृहीता । अथवा बीजं वनस्पतीनां योनिः - उत्पत्तिस्थानम् अतस्तस्य घाते - विनाशे सर्वमपि मूलादिकं निरपेक्षतया हतं भवति । यदि वा तदादिर्वनस्पतिकायो भवति । तद् - बीजमादिर्यस्य स तदादिः, सर्वेषामपि वनस्पतीनां तत एव प्रसूतेः । अतो बीजादिग्रहणं कृतम् ॥ ९३३ ॥ ततश्च विरइसभावं चरणं, बीयासेवी हु सेसघाती वि । अस्संजमेण लोगो, पुट्ठो जह सो वि हु तहेव ॥ ९३४ ॥ यो बीजासेवी स नियमात् ' शेषाणां ' मूलादीनामपि घानी विज्ञेयः । यश्च मूलादीनि घात - यति तस्य विरतिस्वभावं यत् 'चरणं' चारित्रं तन्न भवति । यथा च बीजादिप्रतिसेवको लोकोऽसंयमेन स्पृष्टस्तथैवासावपि तैः प्रलम्बैरासेवितैरसंयमेन स्पृष्ट इति ॥ ९३४ ॥ गता संयमविराधना । अथाऽऽत्मविराधनामाह - तं चैव अभिहणेजा, आवडियं अहव जीहलोलुपता ( यया) । बहुगाई भुंजित्ता, विसूचिकाईहि आयवहो ।। ९३५ ॥ 15 १ एणं सा० ॥ २ 'यति - कस्य 'एतत्' पूर्वोक्तं प्रायश्चित्तं भवति ? भा० । “कस्सेतं • गाधा । अह कस्सेतं पच्छित्तं ? उच्यते – गणिणो गच्छं असावेंतस्स” इति चूर्णिः ॥ 20 तद् लगुडादिकं क्षिप्तं पुनरापतितं सत् 'तमेव' साधुमभिहन्यात् । इदं च प्रागुक्तमपि स्थानाशून्यामोपात्तमिति न पुनरुक्तदोषः । अथवा जिह्वालोलुपतया बहुकानि प्रलम्बानि भुक्त्वा विसू'चिकादिभिः आदिशब्दाद् ज्वरा - ऽतीसारादिभी रोगैरुत्पन्नैरात्मवधो भवति ॥ ९३५ ॥ उक्ताऽऽत्मविराधना । तदुक्तौ च व्याख्याता आज्ञादयश्चत्वारोऽपि दोषाः । अथ "क अगीयत्थे" ( गा० ८६२ ) ति पदं व्याचिख्यासुराह कस्सेयं पच्छित्तं, गणिणो गच्छं असारविंतस्स । अवा वि अगीयत्थस्स भिक्खुणो विसयलोलस्स ।। ९३६ ॥ शिष्यः प्रश्नयेति – यद् 'एतद्' अन्यत्रग्रहणादावनेकधा प्रायश्चित्तमुक्तं तत् कस्य भवति ? | 30 सूरिराह – 'गणिनः ' आचार्यस्य गच्छम् असारयतः सतः । असारणा नाम अगवेषणा – कः 25 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ कुत्र गतः ? को वा मामापृच्छ्य गतः ? को वा अनापृच्छया ? यद्वा प्रलम्बं गृहीत्वा आगत्या - लोचितेऽन्येन वा निवेदिते यत् प्रायश्चित्तं तन्न ददाति, दत्त्वा वा न कारयति, न वा नोदनादिना खरण्टयति; एषा सर्वाऽप्यसारणाऽभिधीयते । आह किं कारणमाचार्यस्य षट्कायानविराधयतोऽपिः प्रायश्चित्तम् ? उच्यते - स्वसाधूनुत्पथे प्रवर्त्तमानानसास्यन्नसौ गच्छस्य विराध5 नायां वर्त्तते । तथा चोक्तमिदमेव सहेतुकं बृहद्भाष्ये किं कारणं तु गणिणो, असारवेंतस्स होइ पच्छित्तं ? | कृति जेण गणहरो, विराहणाए उ गच्छस्सं ॥ हि पुण विराहणाए, गच्छस्स गणी उ वट्टती स खलु ? । भन्नइ सुणसु जह गणी, विराहओ होइ गच्छस्स ॥ जह सरणमुवगयाणं, जीवियववरोवणं णरो कुणइ | एवं सारणियाणं, आयरिओं असारओ गच्छे ॥ हि सरणमुवगया पुण?, पक्खे पक्खम्मि जं उवठ्ठेति । इच्छामि खमासमणो !, कतकितिकम्मा उ जं अम्हे ॥ अत आचार्यस्य सर्वमेतत् प्रायश्चित्तम् । अथवा यो भिक्षुरगीतार्थः अपिशब्दाद् गीतार्थो15 ऽपि विषयलोलः–सुखादुरसाखादलम्पटो भूत्वा प्रलम्बानि गृह्णाति तस्यैतत् प्रायश्चित्तम् । अत्र चाssचार्यविषया अष्टौ भङ्गाः - अगीतार्थ आचार्यो गच्छं न सारयति विषयलोलश्च १ अगीतार्थ आचार्यो गच्छं न सारयति विषयनिस्पृहश्च २ इत्यादि । अत्र चान्तिमो भङ्गः शुद्धः, शेषाः सप्त परित्यक्तव्याः ॥ ९३६ ॥ यत आह देसो व सोवसग्गो, वसणी व जहा अजाणगनरिंदो । रजं विलुत्तसारं, जह तह गच्छो वि निस्सारो ॥ ९३७ ॥ 10 20 25 30 भङ्गसप्तकवर्ती आचार्यो देश इव सोपसर्गो व्यसनी वा यथा अज्ञायकनरेन्द्रः परित्यज्यते तथा परित्याज्यः । यथा च राज्ञा अचिन्त्यमानं राज्यं विलुप्तसारं भवति तथा गच्छोऽप्याचायेणाऽसार्यमाणो निस्सारो भवतीति परिहरणीय इति सङ्ग्रहगाथाक्षरार्थः ॥ ९३७ ॥ अथैनामेव विवरीषुः प्रथमतो "देसो व सोवसग्गो” इति पदं व्याचष्टे ओमोदरिया य जहिं, असिवं च न तत्थ होइ गंतव्वं । उपपन्नें न वसियव्वं, एमेव गणी असारणीओ ॥ ९३८ ॥ यत्र देशेऽवमौदरिका अशिवं च उपलक्षणत्वाद् अपरोऽप्युपद्रवो भवति तत्र गन्तव्यं न भवति, अथ तत्र देशे वसतामेवाऽवमौदर्यादिकमुत्पन्नं तत उत्पन्ने सति तत्र न वस्तव्यम्, एवमेव 'गणी' आचार्यः 'असारणिकः' गच्छसारणाविकलो नानुगन्तव्यः ॥ ९३८ ॥ अथ "वसणी व जहा अजाणगनरिंदो" ( गा० ९३७ ) ति व्याख्याति - -- सत्तण्हं वसणाणं, अन्नयरजुतो न जाणई रजं । अंतेउरे व अच्छर, कजाइँ सयं न सीलेइ ।। ९३९ ॥ १ चिट्ठति येण त० डे० ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ भाष्यगाथाः ९३७-४२] प्रथम उद्देशः । यथा सप्तानां व्यसनानामन्यतरेण व्यसनेन युतो राजा राज्यं पालयितुं न जानाति, यो वा शेषव्यसनैरनभिभूतोऽपि विषयलोलुपतया नित्यमन्तःपुरे आस्ते सोऽपि 'कार्याणि' व्यवहारादीनि खयमात्मना 'नशीलयति' नावलोकत इत्युक्तं भवति, ततश्च यथेच्छमुच्छृङ्खलाः प्रजाः सञ्जायन्ते। एवमाचार्योऽप्यगीतार्थो गीतार्थो वा सातगौरवादिव्यसनोपहततया यदि खगच्छं न सारयति तदा गच्छः सर्वोऽपि निरङ्कुशः सञ्जायते । यतश्चैवमतोऽसारणिक आचार्यों दूरंदूरेण परिहर्त्तव्यः । ॥ ९३९ ॥ अथ व्यसनसप्तकमाह--- __ इत्थी जूयं मजं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य । दंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाई ॥ ९४० ॥ यद् राजा अन्तःपुरस्त्रीषु नित्यमासक्तस्तिष्ठति तत् स्त्रीव्यसनम् । यत्तु द्यूतविनोदेनानवरतं दीव्यति तद् द्यूतव्यसनम् । यत् पुनर्मद्यपानकेन नित्यं मूछित इवाऽऽस्ते तद् मद्यव्यसनम् । यत्तु 10 मृगया-आखेटकस्तत्रानेकेषां मृगादिजन्तूनां वधं करोति तद् मृगयाव्यसनम् । एतेषु चतुर्वप्यासक्तो राज्यकार्याणि न शीलयति । तथा यत् खर-परुषवचनैः सर्वानपि जनान् निर्विशेषमाक्रोशति तद् क्चनपरुषताव्यसनम् , अत्र वचनदोषेण दुरधिगमनीयो भवति । यत् पुनरनपराधे खल्पे वाऽपराधे अत्युग्रं दण्डं निवर्तयति तद् दण्डपारुप्यव्यसनम् , अत्र च पौर-जानपदानामत्युग्रदण्डभयेन नश्यतां क्रमेण च प्रजाया अभावे कीदृशं राज्यम् ? इति । अर्थोत्पत्तिहेतवो ये सामाधुपाय-15 चतुष्टयप्रभृतयः प्रकारास्तेषां यद् दूषणं तद् अर्थदूषणव्यसनम्, अत्र चार्थोत्पत्तिहेतून् दूषयतो न तथाविधोऽर्थ उत्पद्यते, अर्थोत्पत्त्यभावे चाचिरादेव कोशः परिहीयते, परिहीणकोशस्य च विनष्टमेव राज्यम् । एतानि सप्त व्यसनानि ॥ ९४० ॥ अथ प्रकारान्तरेण भङ्गानाह अहवा वि अगीयत्थो, गच्छं न सारेइ इत्थ चउभंगो। बिइए अगीयदोसो, तइतों न सारेतरो सुद्धो ॥ ९४१ ॥ अथवा अगीतार्थो गच्छं न सारयतीत्यत्र चतुर्भङ्गी। गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । सा चेयम्-अगीतार्थों गच्छं न सारयति १ अगीतार्थो गच्छं सारयति २ गीतार्थों गच्छं न सारयति ३ गीतार्थो गच्छं सारयति ४ । अत्र प्रथमस्य द्वौ दोषौ अगीतार्थत्वदोषः असारणादोषश्च । द्वितीयस्य पुनरेक एवागीतार्थत्वदोषः । तृतीयस्तु यन्न सारयति स एकस्तस्याऽसारणादोषः । 'इतरः' चतुर्थो भङ्गः शुद्धः ॥ ९४१ ॥ आद्यानां त्रयाणां भङ्गानां भावनामाह- 25 देसो व सोवसग्गो, पढमो तइओ तु होइ वसणी वा। बिइओ अजाणतुल्लो, सारो दुविहो दुहेकेको ॥ ९४२॥ प्रथमः' प्रथमभङ्गवर्ती आचार्यः सोपसर्गदेश इव परित्यक्तव्यः । 'तृतीयः' गीतार्थोऽप्यसारणिकत्वाद् व्यसनीव राजा परिहर्त्तव्यः । द्वितीयः' सारणिकोऽप्यगीतार्थत्वादज्ञनरेन्द्रतुल्य इति कृत्वा परिहार्य इति चूर्ण्यभिप्रायः । १ यद्वा भा० ॥ २ आस्ते, यस्तु राज्यनीतेरशायको नरेन्द्रः सः 'कार्याणि' भा० ॥ ३ परित्यक्तव्यः त० डे० ॥ ४ यद्यपि वृत्तिद्भिः “चूर्ण्यभिप्रायः” इत्यावेदितं तथापि चौँ किल निशीथचूर्ण्यभिप्रायानुसारिण्येव व्याख्या वरीयत्यते । तथाहि चूर्णिपाठः-“तत्थ जो पढमो अगीतत्थो 20 30 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 २९८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ अथ निशीथचूर्ण्यभिप्रायेण व्याख्यायते--प्रथमः सोपसर्गदेश इव परिहार्यः । द्वितीयः पुनरगीतार्थः परं सारणिकः स च व्यसनीव ज्ञातव्यः । किमुक्तं भवति ?--सोऽगीतार्थः सन् यत् किमपि वशिप्यान् नोदयति सा नोदना तस्य व्यसनमिव द्रष्टव्यम् , अतो व्यसनाभिभूतभूपति वदसौ परिहार्यः । तृतीयः पुनरसारणिकत्वाद् गीतार्थोऽप्यज्ञनृपतुल्य इति कृत्वा परित्याज्यः । 5 आस्मिंश्च व्याख्याने "देसो व सोवसम्गो, पढमो बिइओ उ होइ वसणी वा । तइओ अजाणतुल्लो" त्ति पाठो द्रष्टव्यः । पुस्तकेष्वपि बहुष्वयमेव दृश्यत इति । यदुक्तं "रजं विलुत्तसारं, जह तह गच्छो वि निस्सारो" (गा० ९३७) त्ति तदेतद् भावयति-"सारो दुविहो दुहेक्केको" सारो द्विविधः-लौकिको लोकोत्तरिकश्च । पुनरेकैको द्विधा-~-बाह्य आभ्यन्तरश्च ॥ ९४२ ॥ एतदेव व्याचष्टे--- गो-मंडल-धन्नाई, बज्झो कणगाइ अंतों लोगम्मि। लोगुत्तरिओ सारो, अंतो बहि नाण-वत्थाई ॥ ९४३ ॥ गोशब्देन गावो बलीवर्दाश्चोच्यन्ते, उपलक्षणत्वाद् हस्त्यश्वादीनामपि परिग्रहः; मण्डलमिति देशखण्डम् , यथा—षण्णवतिमण्डलानि सुराष्ट्रादेशः; अथवा गोमण्डलं नाम गोवर्गः, उपलक्ष णत्वाद् महिष्यादिवर्गोऽपि; धान्यानि शालिप्रभृतीनि, आदिशब्दाद् वास्तु-कुप्यादिपरिग्रहः; एष 13 लौकिको बाह्यः सारः । कनकं-सुवर्णम् , आदिग्रहणेन रूप्य-रत्नादीनि; एषः 'अन्तः' इति आभ्यन्तरः सारः 'लोके' लोकविषयो मन्तव्यः । एतेन द्विप्रकारेणापि सारेण राज्यं पार्थिवेनाsचिन्त्यमानं निस्सारं भवति । लोकोत्तरिकः सारो द्विधा-अन्तर्बहिश्च । तत्रान्तःसारो ज्ञानम् , आदिशब्दाद् दर्शन-चारित्रे च । बहिःसारो वस्त्रादिकः, आदिग्रहणेन शय्या पात्रादीनि गृह्यन्ते । अनेन च द्विविधेनापि लोकोत्तरिकसारेणाऽऽचार्येणाऽसार्यमाणो गच्छो निस्सारो भवतीति प्रकृ20 तम् । तस्माद् गणिनो गच्छमसारयत एतत् प्रायश्चित्तम् । अथवा यो भिक्षुरगीतार्थो गुरूणामनुपदेशेन प्रलम्बानि गृह्णाति तस्य सर्वमेतत् प्रायश्चित्तम् । गीतार्थोपदेशमन्तरेण वाऽगीतार्थस्य खयमेव कार्येषु प्रवर्त्तमानस्याऽयं दोषो भवति ॥ ९४३ ॥ सुहसाहगं पि कजं, करणविहूणमणुवायसंजुत्तं । अन्नायऽदेस-काले, विवत्तिमुवजाति सेहस्स ॥ ९४४ ॥ 25 सुखेन साधः-साधनं यस्य तत् सुखसाधकम् , “शेषाद्वा" (सिद्ध० ७-३-१७५ ) इति कच्प्रत्ययः, सुखसाध्यमित्यर्थः । तदपि कार्य करणम्-आरम्भैः प्रयत्न इत्येकोऽर्थस्तद्विहीनम् , तथा यस्य कार्यस्य यः साधनोपायस्तद्विपरीतेनानुपायेन संयुक्तम् , “अन्नाय" ति यद् यस्य कार्यमज्ञातं तत् तेनाऽऽरभ्यमाणम् , 'अदेश-काले च' अनवसरे विधीयमानं शैक्षस्याऽज्ञस्य विपत्तिमुपयाति । विपत्तिशब्देन कार्यस्याऽसिद्धिरत्राभिधीयते । तदुक्तम्गच्छं ण सारेति सो देसो व सोवसग्गो चइतव्यो । बिइओ जो अगीतत्यो गच्छं सारेति सो वसणीव राता चइतव्वो । ततिओ जो गीतत्थो गच्छं ण सारेति सो अजाणगणरिंदो ब्व चइतव्वो।" इत्यादि । १°ल्य एवेति । अस्मिंश्च भा० ॥ २ “मंडलं जधा-णावोतयमंडलं बंभाणमंडलं कोट्टयमंडलमित्यादि। अधवा गोमंडलं गोउलं, आदिग्गहणेणं कुवियं" इति चूर्णौ ॥ ३°म्भः तद्वि मो• ले• विना ।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ९४३-४८] प्रथम उद्देशः । २९९ सम्प्राप्तिश्च विपत्तिश्च, कार्याणां द्विविधा स्मृता । सम्प्राप्तिः सिद्धिरर्थेषु, विपत्तिश्च विपर्यये ॥ ततो न निप्पद्यत इत्युक्तं भवति ॥ ९४४ ॥ अत्रैव निदर्शनमाह-.. नक्खेणावि हु छिअइ, पासाए अभिनवुद्वितो रुक्खो। दच्छेजो वढतो, सो चिय वत्थुस्स भेदाय ॥ ९४५॥ जो य अणुवायछिन्नो, तस्सइ मूलाई वत्युभेदाय । अहिनव उवायछिन्नो, वत्थुस्स न होइ मेदाय ॥ ९४६॥ प्रासादे वट-पिप्पलादिवृक्षः 'अभिनवोत्थितः' अधुनोद्गतः सन् नखेनाऽपि 'हुः' निश्चितं 'छिद्यते' छेत्तुं शक्यते इति, अनेन कार्यस्य सुखसाध्यतोक्ता । स एव वृक्षः 'वर्धमानः' शाखाप्रशाखाभिः प्रसरन् दुश्छेद्यो भवति, कुठारेणापि च्छेत्तुं न शक्यत इति भावः । अपरं च 'वास्तुनः' 10 प्रासादस्य भेदाय जायते ॥ ९४५ ॥ यश्चानुपायेन-मूलोद्धरणलक्षणोपायमन्तरेण च्छिन्नः तस्यापि मूलान्यनुद्धतानि वास्तुभेदाय जायन्ते । एतेन चानारम्भे अदेश-कालारम्भेऽनुपायारम्भे च सुखसाध्यस्यापि कार्यस्य विपत्तिः क्लेशसाध्यता चोक्ता । अथ देश-काले उपायेन विधीयमानस्य यथा निष्पत्तिर्भवति तथा निदर्शयति-“अहिनव" इत्यादि उत्तरार्द्धम् । यस्तु वृक्षः 'अभिनवः' उद्गतमात्र उपायेन-प्रयत्नपूर्वकं 15 छिन्नो मूलान्यपि तस्योद्धृत्य करीषामिना दग्धानि स वास्तुनो भेदाय न भवति ॥ ९४६ ॥ एष दृष्टान्तः । अयमस्यैवोपनयः पडिसिद्ध त्ति तिगिच्छा, जो उ न कारेइ अभिनवे रोगे। किरियं सो उ न मुञ्चइ, पच्छा जत्तेण वि करतो ॥ ९४७॥ सहसुप्पइअम्मि जरे, अट्ठम काऊण जो वि पारेइ । सीयल-अंबदवाणी, न हु पउणइ सो वि अणुवाया ॥९४८॥ यस्य साधोरादिको रोग उत्पन्नः स यदि "तेगिच्छं नाभिनंदेजा, संचिक्खऽत्तगवेसए । एवं खु तस्स सामन्नं, जं न कुज्जा न कारवे ॥” (उत्त० अ० २ गा० ३३) इति सूत्रमनुश्रित्य “प्रतिषिद्धा चिकित्सा" इति कृत्वा अभिनवे रोगे 'क्रियां' चिकित्सां न कार-25 यति स पश्चात् तस्मिन् रोगे प्रवर्षिते सति 'यलेनापि' महताऽप्यादरेण क्रियां कुर्वाणो न मुच्यते रोगात् । यदि पुनरधुनोत्थित एव रोगे क्रियामकारयिष्यत् ततो नीरुगभविष्यत् ॥ ९४७ ॥ यो वा अनुपायेन क्रियां करोति सोऽपि न प्रगुणीभवति, यथा सहसोत्पन्ने ज्वरेऽन्यस्मिन् वा अजीर्णप्रभवे रोगे “सहसुप्पन्न रोग, अट्ठमेण निवारए" इति वचनादष्टमं कृत्वा योऽपि न केवलं क्रियाया अकारक इत्यपिशब्दार्थः “सीयलअंबदवाणि" त्ति शीतलकूरा-ऽम्लद्रवादीनि पारयति 30 'मा पेया कारणीया भवतु' इति कृत्वा सोऽपि न प्रगुणीभवति ‘अनुपायात्' उपायाभावात् , प्रत्युत तेन शीतलकूरादिना स रोगस्तस्य गाढतरं प्रकुप्यति । यदि पुनस्तेन पेयादिनोपायेनाऽपार१°वाणि उ न ता० ॥ २ प्रवृद्धि गते सति डे० त० ॥ 20 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ३०० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ यिप्यत् ततः पटुरभविष्यत् , यच्चानेषणीयपारणकसमुत्थं पापं तत् पश्चात् प्रायश्चित्तेनाऽशोधयिष्यद् इत्युपाया-ऽनुपायस्वरूपमगीतार्थो न जानाति । ततश्च "अज्ञातमदेशकाले वा कार्यं कुर्वतस्तस्य शैक्षस्य विपत्तिमुपयाति" (गा० ९४४) इति प्रकृतम् ॥ ९४८ ॥ अत्रैव तात्पर्यमाह संपत्ती य विपत्ती, य होज कजेसु कारगं पप्प । अणुवायतो विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहि ॥ ९४९ ॥ सम्प्राप्तिश्च विपत्तिश्च कार्येषु 'कारकं' कर्तारं प्राप्य भवति । यदि अज्ञः कर्ता ततस्तेनाऽदेश-काले अनुपायत आरब्धस्य कार्यस्य विपत्तिर्भवति । अथासौ ज्ञस्ततस्तेन कालोपायाभ्यां देशकाले उपायेन चारब्धस्य कार्यस्य 'सम्प्राप्तिः' सिद्धिर्भवति ॥ ९४९ ॥ उपसंहरन्नाह---- इय दोसा उ अगीए, गीयम्मि उ कालहीणकारिम्मि । 10 गीयत्थस्स गुणा पुण, होति इमे कालकारिस्स ॥ ९५० ॥ "इय" एवमगीतार्थे कार्यकर्तरि दोषा भवन्ति । गीतार्थेऽपि कालहीनकारिणि हीने वा अधिके वा काले कार्यकारिणि एत एव दोषाः । यः पुनर्गीतार्थ उपायेनाऽन्यूनातिरिक्त काले कार्य करोति तस्य गीतार्थस्य कालकारिण इमे गुणा भवन्ति ॥ ९५० ॥ तानेवाह __ आयं कारण गाढं, वत्थु जुत्तं ससत्ति जयणं च । सव्वं च सपडिवक्खं, फलं च विधिवं वियाणाइ ॥ ९५१ ॥ 'आय' लाभं 'कारणम्' आलम्बनं 'गाढम्' आगाढग्लानत्वं 'वस्तु' द्रव्यं दलिकमित्यनर्थान्तरं 'युक्तं' योग्यं 'सशक्तिकं समर्थ 'यतनां' त्रिःपरिभ्रमणादिलक्षणाम् ; एतदायादिकं सर्वमपि सप्रतिपक्षं गीतार्थो विजानाति । तत्राऽऽयस्य प्रतिपक्षोऽनायः, कारणस्याऽकारणम् , आगाढस्याऽना गाढम् , वस्तुनोऽवस्तु, युक्तस्याऽयुक्तम् , सशक्तिकस्याऽशक्तिकः, यतनाया अयतनेति यथाक्रम 20 प्रतिपक्षाः । तथा फलं चैहिकादिकं विधिवान्' गीतार्थो विजानातीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ९५१ ॥ अथ प्रतिपदं विस्तरार्थमाह सुंकादीपरिसुद्धे, सइ लाभे कुणइ वाणिओ चिलु । एमेव य गीयत्थो, आयं दटुं समायरइ ॥ ९५२ ॥ शुल्कं-राजदेयं द्रव्यम् , आदिशब्दाद भाटक-कर्मकरवृत्त्यादिपरिग्रहः, यथा शुल्कादिभिर्द्र25 व्योपक्षयहेतुभिः परिशुद्धः-निर्वटितो यदि कोऽपि लाभ उत्तिष्ठते तत एवं शुल्कादिपरिशुद्धे लामे सति वाणिजो देशान्तरं गत्वा वाणिज्यचेष्टां 'करोति' आरभते, अथ लाभमुत्तिष्ठमानं न पश्यति ततो नारभते । एवमेव च गीतार्थोऽपि ज्ञानादिकम् 'आय' लाभं दृष्ट्वा प्रलम्बायकल्पप्रतिसेवां समाचरति नान्यथा ॥ ९५२ ॥ इदमेव स्पष्टयन्नाह असिवाईसुंफत्थाणिएसु किंचिखलियस्स तो पच्छा। वायण वेयावच्चे, लाभो तव-संजम-ऽज्झयणे ॥ ९५३ ॥ ___ १. फलं च विधिवं ऐहिकादिकं गीतार्थो विजानातीति समासार्थः भा० । “फलं च विविधं बियाणाइ” इति पाठानुसारेणेयं टीका, न चासो पाठः कस्मिंश्चिदपि पुस्तक उपलभ्यते । “विधिवानिति गीतार्थः” इति चूर्णौ ॥ 30 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ भाष्यमाथाः ९४९-५६] प्रथम उद्देशः । । स हि गीतार्थः प्रलम्बादिकं प्रतिसेवमान एवं चिन्तयति-अशिवादिषु शुल्कस्थानीयेषु अकल्प्यप्रतिसेवया केभ्योऽपि संयमस्थानेभ्यः स्खलितस्यापि मम 'ततः पश्चात्' अशिवादिषु व्यतीतेषु वाचनां ददत आचार्यादीनां वैयावृत्त्ये तपः-संयमा-ऽध्ययनेषु वा उद्यमं कुर्वाणस्य भूयानन्यो लाभो भविष्यति, अकल्प्यप्रतिसेवाजनितं चातीचारं प्रायश्चित्तेन शोधयिष्यामि-इति बहुतरं लाभमल्पतरं व्ययं परिभाज्य गीतार्थः समाचरति । अगीतार्थः पुनरेतदाय-व्ययखरूपं न जाना-5 तीति ॥ ९५३ ॥ गतमायद्वारम् । अथ कारणा-ऽऽगाढद्वारद्वयमाह नाणाइतिगस्सट्ठा, कारण निकारणं तु तव्वजं । अहिडक विस विसूइय, सज्जक्खयमूलमागाढं ॥ ९५४ ॥ गीतार्थः कारण एव प्रतिसेवते नाकारणे । आह किमिदं कारणम् ? किं वा अकारणम् ? इत्याह-'ज्ञानादित्रयस्य' ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपस्याऽर्थाय यत् प्रतिसेवते तत् कारणम् , 'तद्वर्ज' 10 ज्ञानादित्रयवर्ज सेवमानस्य निष्कारणमुच्यते । तथा गीतार्थों यादृशमागाढे प्रतिसेव्यं तादृशमागाढ एव यादृशं पुनरनागाढे तादृशमनागाढ एव प्रतिसेवते । अथ किमिदमागाढम् ? किं वा अनागाढम् ? उच्यते-अहिना-सर्पण दष्टः कश्चित् साधुः, विषं वा केनचिद् भक्तादिमिश्रितं दत्तम् , विसूचिका वा कस्यापि जाता, सद्यःक्षयकारि वा कस्यापि शूलमुत्पन्नम् , एवमादिकमाशुषाति सर्वमप्यागाढम् ; एतद्विपरीतं तु चिरघाति कुष्ठादिरोगात्मकमनागाढम् ॥ ९५४ ॥ 15 अथ वस्तु-युक्तद्वारे व्याचष्टे आयरियाई वत्थु, तेसिं चिय जुत्त होइ जं जोग्गं । गीय परिणामगा वा, वत्थु इयरे पुण अवत्थु ॥ ९५५ ॥ आचार्यादिः प्रधानपुरुषो यद्वा गीतार्थः सामान्यतो वस्तु भण्यते, परिणामका वा साधवो वस्तु । एतादृशमात्मानं परं वा वस्तुभूतं ज्ञात्वा प्रतिसेवते प्रतिसेवाप्यते वा । 'इतरे' प्रतिपक्ष-20 भूताः पुनरनाचार्यादिरगीतार्थो वा अपरिणामका-ऽतिपरिणामका वा सर्वेऽप्यवस्तु भण्यन्ते । एतेषामेवाचार्यादीनां यद् योग्यं भक्त-पानौषधादिकं तद् युक्तम् , तद्विपरीतं पुनरयुक्तम् । एतद् युक्ताऽयुक्तखरूपं गीतार्थ एव जानाति नेतर इति ॥ ९५५ ॥ अथ सशक्तिक-यतनाद्वारद्वयमाह घिइ सारीरा सत्ती, आय-परगता उ तं न हावेति । जयणा खलु तिपरिरया, अलंमें पच्छा पणगहाणी ॥.९५६ ॥ 25 शक्तिद्वेषा, धृति-संहननभेदात् । तत्र धृतिरूपां शारीरां च संहननरूपामात्मगतां पस्गतां च शक्तिं ज्ञात्वा आचार्योऽन्यो वा गीतार्थस्तां न हापयतीत्यत्र चतुर्भङ्गी सूचिता । सा चेयम्आत्मगता शक्तिर्विद्यते न परगता १ परगता नात्मगता २ आत्मगताऽपि परगताऽपि ३ नात्मगता न परगता ४ । तत्र प्रथमभङ्गे आचार्य आत्मनः शक्ति न हापयति, परस्य पुनरशक्तत्वाद यथायोगं प्रतिसेवनामनुजानीते । द्वितीयभङ्गे अशक्तत्वादात्मना प्रतिसेवते, परस्य तु समर्थत्वाद 30 नानुजानाति । तृतीयभने उभयोरपि शक्तिसद्भावादात्मनाऽपि न प्रतिसेवते परस्यापि न वितरति। चतुर्थभने पुनरुभयोरप्यशक्तत्वादात्मनाऽपि प्रतिसेवते परेणापि प्रतिसेवापयति । तथा यतना १°ण्यते भा० ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ सनियुक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ खलु त्रिपरिरया द्रष्टव्या, "री गतौ” परि-समन्ताद रयणं परिरयः-परिभ्रमणमित्यर्थः, त्रयः परिरया यस्यां सा त्रिपरिरया । किमुक्तं भवति ?–एषणीयाहारान्वेषणार्थ स्वग्रामादौ तिस्रो वाराः सर्वतः पर्यट्य यद्येषणीयं न लभते ततः पश्चाद् ‘अलाभे' अप्राप्तौ पञ्चकपरिहाण्या यतते ॥ ९५६॥ अथ फलद्वारम्-गीतार्थः प्रथममेव कार्य प्रारभमाणः परिभावयति-एवमनु5 तिष्ठतो ममान्यस्य वा फलं भविष्यति ? न वा ? । तच्च फलं द्विविधम् । तदेवाह इह-परलोगे य फलं, इह आहाराइ इक्कमेक्कस्स । सिद्धी सग्ग सुकुलता, फलं तु परलोइयं एयं ॥ ९५७ ॥ इहलोकफलं परलोकफलं चेति फलं द्विधा । तत्रेहलोकफलमाहारादि, आदिशब्दाद् वस्त्रपात्रादि । तथा सिद्धिगमनं स्वर्गगमनं सुकुलोत्पत्तिश्च एतत् पारलौकिकं फलम् । 'एतद' द्वयमपि 10 'एकैकस्य' आत्मनः परस्य च परस्परोपकारेण यथा भवति तथा गीतार्थः समाचरति । यच्च गीतार्थोऽरक्त-द्विष्टः प्रतिसेवते तत्र नियमादप्रायश्चित्ती भवति ॥ ९५७ ॥ आह केन पुनः कारणेनाप्रायश्चित्ती ? उच्यते खेत्तोयं कालोयं, करणमिणं साहओ उवाओऽयं । कत्त त्ति य जोगि त्ति य, इय कडजोगी वियााहि ॥९५८॥ 15 यो न रागे न द्वेषे किन्तु तुला दण्डवद् द्वयोरपि मध्ये वर्तते स ओजा भण्यते । क्षेत्रे अध्वादौ ओजाः क्षेत्रौजाः, काले-अवमौदर्यादौ ओजाः कालौजाः, क्षेत्रे काले च प्रतिसेवमानो न राग-द्वेषाभ्यां दूप्यते इत्यर्थः । कथम् ? इत्याह-यतः स गीतार्थः 'करणमिदं' 'सम्यक्क्रियेयम् , एवं क्रियमाणे महती कर्मनिर्जरा भवति' इति विमृशति । तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि साधनीयानि, तेषां च साधकोऽयमुपायः, यद् असंस्तरणे यतनया प्रलम्बसेवनम् । तथा 'कृतयोगी' 20 गीतार्थः स कर्तेति च योगीति च भण्यते, "इय" एवं विजानीहि इति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ९५८ ॥ अथैनामेव विवृणोति ओयम्भूतो खित्ते, काले भावे य जं समायरइ । कत्ता उ सो अकोप्पो, जोगीव जहा महावेजो ॥ ९५९ ॥ यः 'ओजोभूतः' राग-द्वेषविरहितो गीतार्थः 'क्षेत्रे' अध्वादौ 'काले' दुर्भिक्षादौ 'भावे च' 25 ग्लानत्वादौ प्रलम्बादिप्रतिसेवारूपं यत् किमपि समाचरति सः 'सम्यक्क्रियेयम् , साधकोऽयमुपायः' इत्यालोच्यकारी कर्ता 'अकोप्यः' अकोपनीयः, अदूषणीय इत्युक्तं भवति । क इव ? इत्याह-'योगीव यथा महावैद्यः' इति, 'यथा' इति दृष्टान्तोपन्यासे, 'योगी' धन्वन्तरिः, तेन च विभङ्गज्ञानबलेनाऽऽगामिनि काले प्राचुर्येण रोगसम्भवं दृष्ट्वा अष्टाङ्गायुर्वेदरूपं वैद्यकशास्त्रं चक्रे, तच्च यथाम्नायं येनाधीतं स महावैद्य उच्यते । स च आयुर्वेदप्रामाण्येन क्रियां कुर्वाणो 'योगीव' 30 धन्वन्तरिरिव न दूषणभाग् भवति, यथोक्तक्रियाकारिणश्च तस्य तत् चिकित्साकर्म सिध्यति; १ "रीश् गति-रेषणयोः” इति हैमधातुपाठे ॥ २°णाति ता० ॥ ३ लम्बादिप्रतिसेवनम् । 'कर्तेति च योगीति च' इतिशब्दौ स्वरूपपरामर्श एवमर्थे वा, 'इति' अमुना प्रकारेण 'कृतयोगी' गीतार्थो भवति 'इति' एवं विजानीहि इति गाथास भा० ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ९५७-६३] प्रथम उद्देशः । एवमत्रापि योगी तीर्थकरः, तदुपदेशानुसारेणोत्सर्गा-ऽपवादाभ्यां यथोक्ता क्रियां कुर्वन् गीतार्थोऽपि न वाच्यतामर्हति ॥ ९५९ ॥ अथ “कत्त त्ति य जोगि त्ति य" (गा० ९५८) पदद्वयमेव प्रकारान्तरेण व्याख्याति अहवण कत्ता सत्था, न तेण कोविजती कयं किंचि । कत्ता इव सो कत्ता, एवं जोगी वि नायव्वो ॥ ९६० ॥ "अहवण" त्ति अखण्डमव्ययं अथवार्थे वर्तते । कर्ता 'शास्ता' तीर्थकर उच्यते । यथा 'तेन' तीर्थकरेण कृतं कार्य किश्चिदपि न कोप्यते एवमसावपि गीतार्थो विधिना क्रियां कुर्वन् 'कर्ता इव' तीर्थकर इवाकोपनीयत्वात् कर्ता द्रष्टव्यः । एवं योग्यपि ज्ञातव्यः । किमुक्तं भवति ?यथा तीर्थकरः प्रशस्तमनोवाक्काययोगं प्रयुञ्जानो योगी भण्यते, एवं गीतार्थोऽप्युत्सर्गा-ऽपवादबलवेत्ता अपवादक्रियां कुर्वाणोऽपि प्रशस्तमनोवाक्काययोगं प्रयुञ्जानो योगीव ज्ञातव्यः ॥ ९६० ॥ 10 एवमाचार्येणोक्ते शिप्यः प्राह किं गीयत्थो केवलि, चउविहे जाणणे य गहणे य । तुलेऽराग-दोसे, अणंतकायस्स वजणया ॥ ९६१॥ किं गीतार्थः केवली येन तीर्थकृत इव तस्य वचनं करणं चाकोपनीयम् ? । सूरिराहओमिति ब्रूमः । तथाहि-द्रव्यादिभेदाद् यत् चतुर्विधं ज्ञानं तद् यथा केवलिनस्तथा गीतार्थ-15 स्यापि; तथा यत् प्रलम्बानामेकानेकग्रहणविषयं विषमप्रायश्चित्तप्रदानम् , यश्च तत्र तुल्येऽपि जीवत्वे राग-द्वेषाभावः, या चाऽनन्तकायस्य वर्जना एतानि यथा केवली प्ररूपयति तथा गीतार्थोऽपीति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ९६१ ॥, विस्तरार्थं प्रतिपदं बिभणिषुराह-- सव्वं नेयं चउहा, तं वेइ जिणो जहा तहा गीतो । चित्तमचित्तं मीसं, परित्तऽणंतं च लक्खणतो ॥ ९६२ ॥ 'सर्वमपि' जगत्रयगतं ज्ञेयं चतुर्धा । तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । 'तत्' चतुविधमपि यथा 'जिनः' केवली ब्रूते तथा गीतार्थोऽपि । यद्वा "तं वेइ" ति 'तत्' चतुर्विधं ज्ञेयं यथा जिनः 'वेत्ति' जानाति तथा गीतार्थोऽपि श्रुतज्ञानी जानात्येव । तथाहि-यथा केवली सचित्तमचित्तं मिश्रं परीत्तमनन्तं च लक्षणतो जानाति प्रज्ञापयति वा तथा श्रुतधरोऽपि श्रुतानुसारेणैव सचित्तलक्षणेन सचित्तं एवमचित्त-मिश्र-परीत्ता-ऽनन्तान्यपि स्वस्खलक्षणावैपरीत्येन जानाति प्ररू-25 पयति चेति केवलीव द्रष्टव्यः ॥ ९६२ ॥ आह केवली समस्तवस्तुस्तोमवेदी, श्रुतकेवली पुनः केवलज्ञानानन्ततमभागमात्रज्ञानवान् ततः कथमिव केवलितुल्यो भवितुमर्हति ? इत्याह कामं खलु सव्वन्नू, नाणेणहिओ दुवालसंगीतो। पन्नत्तीइ उ तुल्लो, केवलनाणं जओ मूयं ॥ ९६३ ॥ काममनुमतं खल्वस्माकं 'सर्वज्ञः' केवली 'द्वादशाङ्गिनः' श्रुतकेवलिनः सकाशाद् ज्ञानेनाs-30 १°षयं तुल्ये जीवत्वेऽजीवत्वे वा विषमप्रायश्चित्तप्रदानम्, यश्च तत्र राग-द्वेषा भा०॥ २तुल्ला भा०॥ ३“कामं खलु० गाधा कण्ठ्या । काममत्रावधृतार्थे, कामाभिधानसर्थद्वये भवति-कामायेऽवधृतार्थे च । तत्र कामार्थे यथा-कामं जानामि ते मूलं, सङ्कल्पातू किल जायसे।न लां सङ्कल्पयिष्यामि. 20 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ३०४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ धिकः परं 'प्रज्ञप्त्या' प्रज्ञापनया श्रुतकेलिनः केवली 'तुल्यः' सदृशवाक्पर्यायः । कुतः ? इत्याहयतः केवलज्ञानं 'मूकं' अमुखरम् । किमुक्तं भवति ?-यावतः पदार्थान् श्रुतकेवली भाषते तावत एव केवल्यपि, ये तु श्रुतज्ञानस्याऽविषयभूता भावाः केवलिनाऽवगम्यन्ते तेषामप्रज्ञापनीयतया केवलिनाऽपि वक्तुमशक्यत्वात् ॥ ९६३ ॥ आह कियन्तः प्रज्ञापनीयाः ? कियन्तोवा 5 अप्रज्ञापनीया भावाः ? इति तावद् वयं जिज्ञासामहे अतो निरुच्यतामेतद् भगवद्भिरित्याशङ्कयाह पनवणिजा भावा, अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं । पन्नवणिजाणं पुण, अणंतभागो सुअ निबद्धो ॥ ९६४ ॥ ये प्रज्ञापयितुं-वक्तुं शक्यन्ते ते प्रज्ञापनीयाः अभिलाप्या इत्येकोऽर्थः, ते च भू-भूधरविमान-ग्रह-नक्षत्रादयः । एतद्विपरीता अप्रज्ञापनीयाः । द्वावपि च राशी अनन्तौ, परं महान् पर10 स्परं विशेषः । तथाहि-प्रज्ञापनीया भावाः सर्वेऽपि समुदिताः सन्तोऽनभिलाप्यानां भावानामनन्तभागो भवति, अनन्ततमे भागे वर्तन्त इति भावः । तेषामपि प्रज्ञापनीयानां भावानामनन्ततम एव भागः 'श्रुते' द्वादशाङ्गलक्षणे सूत्ररचनया निबद्धः, अनन्तकस्याऽनन्तभेदभिन्नत्वादित्यभिप्रायः ॥ ९६४ ॥ आह कथमेतत् प्रतीयते यथा 'प्रज्ञापनीयानामनन्तभागः श्रुते निबद्धः' ? उच्यते जं चउदसपुव्वधरा, छट्ठाणगया परोप्परं होति ।। तेण उ अणंतभागो, पनवणिजाण जं सुत्तं ॥ ९६५ ॥ 'यद्' यस्मात् चतुर्दशपूर्वधराः 'षट्स्थानगताः' अनन्तभागादिषट्स्थानवर्तिनः परस्परं भवन्ति । कथम् ? इति चेद् उच्यते-इह चतुर्दशपूर्वी चतुर्दशपूर्विणः किं तुल्यः ? किं वा हीनः ? किं वाऽभ्यधिकः ? इति चिन्तायां निर्वचनं तुल्यो वा हीनो वा अभ्यधिको वा । यदि तुल्यस्तदा तुल्यत्वादेव नास्ति विशेषः । अथ हीनस्ततो यदपेक्षया हीनस्तमुद्दिश्याऽनन्तभागहीनो वा अस20 हयेयभागहीनो वा सङ्ख्येयभागहीनो वा सङ्ख्येयगुणहीनो वा असङ्ख्येयगुणहीनो वा अनन्तगुण हीनो वा । अथाभ्यधिकस्ततो यदपेक्षयाऽभ्यधिकस्तं प्रतीत्याऽनन्तभागाभ्यधिको वा असङ्ख्येयभागाभ्यधिको वा सङ्ख्येयभागाभ्यधिको वा सङ्ख्येयगुणाभ्यधिको वा असङ्ख्येयगुणाभ्यधिको वा अनन्तगुणाभ्यधिको वा । आह समाने सर्वेषामप्यक्षरलाभे षट्स्थानपतितत्वमेव कथं जाघटीति ? उच्यते-एकस्मात् सूत्रादनन्ता-ऽसङ्ख्येय-सङ्ख्येयगम्यार्थगोचरा ये मतिविशेषाः श्रुतज्ञानाभ्यन्तर25 वर्तिनस्तैः परस्परं षट्स्थानपतितत्वं न विरुध्यते । तदुक्तम् अक्खरलंमेण समा, ऊणहिया हुंति मइविसेसेहिं । नि.भा. गा. ४८२५] ते पुण मईविसेसे, सुयनाणभंतरे जाण ॥ (विशे० गा० १४३) ततो मे न भविष्यति ॥ १ ॥ अवधृतार्थे तु यद् नियतं निश्चितं वा तदपि काममित्युच्यते । इह लवधृतार्थे दृष्टव्यः ॥” इति चूर्णिः ॥ १°वलि केवलिनौ परस्परं द्वावपि तुल्यौ । कुतः? इत्याह-यतः केवलज्ञानं 'मूकं' स्वखरूपप्रतिपादनेऽप्यमुखरं श्रुतज्ञानं तु स्वपरखरूपप्रत्यायनपटीय इति कृत्वा यावतः पदार्थान् श्रुतकेवली भाषते तावत एव केवलीति । ये तु भा० ॥ २ °न्ततम एव भागो भा० ॥ ३°ग एव क्षु भा० ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ९६४-६९] प्रथम उद्देशः । .३०५ एवंविधं च षट्स्थानपतितत्वं प्रज्ञापनीयानामनन्ततमभागमात्र एव श्रुतनिबद्धे घटमानकं भवति । यदि हि सर्व एव प्रज्ञापनीया भावाः श्रुते निबद्धा भवेयुस्तर्हि चतुर्दशपूर्विणोऽपि परस्परं तुल्या एव भवेयुर्न षट्स्थानपतिता इति । अत एवाह-'तेन' कारणेन यत् किमपि 'श्रुतं' चतुर्दशपूर्वरूपं तत् प्रज्ञापनीयानामनन्ततमो भागो वर्त्तते इति ॥ ९६५ ।। अथ यदुक्तं "प्रज्ञापनया द्वावपि तुल्यौ" (गा० ९६३) तद्भावनामाह केवल विन्नेयत्थे, सुयनाणेणं जिणो पगासेइ । सुयनाणकेवली वि हु, तेणेवऽत्थे पगासेइ ॥ ९६६ ॥ केवलेन विज्ञेया येऽर्थास्तान यावतः श्रुतज्ञानेन 'जिनः' केवली प्रकाशयति । इह च केवलिनः सम्बन्धी वाग्योग एव श्रोतृणां भावश्रुतकारणत्वात् कारणे कार्योपचारात् श्रुतज्ञानमुच्यते, न पुनस्तस्य भगवतः किमप्यपरं केवलज्ञानव्यतिरिक्तं श्रुतज्ञानं विद्यते, “नट्ठम्मि उ छाउमथिए 10 नाणे" ( आव० नि० गा० ५३९) इति वचनात् । श्रुतज्ञानकेवल्यपि तानेव तावतः 'तेनैव' श्रुतज्ञानेन 'अर्थान्' जीवादीन् प्रकाशयति । अतः "श्रुतकेवलि-केवलिनौ द्वावपि प्रज्ञापनया तुल्यौ” इति स्थितम् । तदेवं यथा केवली द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैर्वस्तु जानाति तथा गीतार्थोऽपि जानीते ॥ ९६६ ॥ अत्र पुनः प्रलम्बाधिकाराद् द्रव्यतः परीत्तमनन्तं वा येन लक्षणेन जानाति तदभिधित्सुराह 15 गूढछिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं । [आ.नि. १४०] जं पि य पणद्वसंधि, अणंतजीवं वियाणाहि ॥ ९६७ ॥ यत् पत्रं सक्षीरं निःक्षीरं वा 'गूढशिराकं भवति' गूढाः-गुप्ता अनुपलक्ष्याः शिराः-स्नायवो यस्य तद् गूढशिराकम् , तथा यदपि च 'प्रनष्टसन्धिकं' सर्वथाऽनुपलक्ष्यमाणपत्राद्वयसन्धि, तदेवंविधं पत्रम् 'अनन्तजीवम्' अनन्तकायिकं विजानीहीति ॥ ९६७ ॥ 20 __ अथ मूल-स्कन्धादीनां सर्वेषामप्यनन्तकायत्वे लक्षणमाह चक्कागं भजमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे । (आ.नि. १३९] पुढविसरिसेण भेएणं, अणंतजीवं वियाणाहि ॥९६८॥ ___ यस्य मूलादेर्भज्यमानस्य चक्राकारो भङ्गो भवति सम इत्यर्थः । तथा 'ग्रन्थिः' पर्व सामान्यतो भङ्गस्थानं वा स यस्य चूर्णघनो भवति । कोऽर्थः ?—यस्य भज्यमानस्य अन्र्घनश्चूर्ण उड्डी-25 यमानो दृश्यते । पृथिवी नाम केदाराद्युपरिवर्तिनी शुष्ककोप्पटिका श्लक्ष्णखटिकानिर्मिता वा, यथा तस्या भिद्यमानायाः समो भेदो भवति एवं समभेदेन भिद्यमानं तदेवंविधं मूलादिकमनन्तजीवं विजानीहि ॥ ९६८ ॥ इदमेव स्पष्टयन्नाह जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसई । अणंतजीवे उ से मूले, जे याऽवग्ने तहाविहे ॥ ९६९॥ 30 १°न् प्रज्ञापनायोग्यान् श्रुत° भा० ॥ २ °ल्यपि 'हुः' निश्चितं तेनैव' भा० ॥ ३°त्यर्थः । यस्य चाकादिग्रन्थिकस्य भिद्यमानस्य चूर्णघनो मेदो भवति, चूर्णघनो नाम धनीकृतो लोलीकृतो यस्तन्दुलादीनां चूर्णस्तत्समानो भेदो भवतीति; यद्वा 'ग्रन्थिः' भा० ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ यस्य मूलस्य भग्नस्य समो भङ्गः प्रदृश्यते अनन्तजीवं तु तद् मूलम् । यश्च 'अन्योऽपि' स्कन्धादिकस्तथाविधः समभङ्गेन भज्यते सोऽप्यनन्तजीवो ज्ञातव्य इति ॥ ९६९ ॥ जस्स मूलस्स भग्गस्स, हीरो भंगे पदिस्सए। परित्तजीवे उ से मूले, जे याऽवऽन्ने तहाविहे ॥ ९७० ॥ । यस्य मूलस्य भग्नस्य 'हीरः' तन्तुकविशेषो भङ्गे वंशस्येव प्रदृश्यते परीत्तजीवं तु तद् मूलम् । यश्च 'अन्योऽपि' स्कन्धादिकस्तथाविधो भङ्गे दृश्यमानहीरः सोऽपि प्रत्येकजीव इति ॥ ९७० ॥ जस्स मूलस्स कट्ठातो, छल्ली बहलतरी भवे । अणंतजीवा उ सा छल्ली, जा याऽवऽन्ना तहाविहा ॥ ९७१॥ यस्य मूलस्य सम्बन्धिनः 'काष्ठात्' सारात् 'छल्ली' बाह्या त्वक् 'बहलतरा' स्थूलतरा भवेत् , 10 वथा शतावर्याः, अनन्तजीवा तु सा छल्ली । या चान्याऽपि तथाविधा । काष्ठमपि तस्यानन्तजीवं द्रष्टव्यम् ॥ ९७१ ॥ जस्स मूलस्स कट्ठातो, छल्ली तणुयतरी भवे । परित्तजीवा तु सा छल्ली, जा याञ्चऽण्णा तहाविहा ॥ ९७२ ॥ यस्य मूलस्य काष्ठात् छल्ली 'तनुकतरा' श्लक्ष्णतरा भवेत् परीत्तजीवा तु सा छल्ली, यथा 15 सहकारादेः, या चान्याऽपि तथाविधा ॥ ९७२ ॥ गतं द्रव्यतो लक्षणम् । अथ क्षेत्रत आह जोअणसयं तु गंता, अणहारेणं तु भंडसंकंती। वाया-ऽगणि-धूमेण य, विद्धत्थं होइ लोणाई ॥९७३ ॥ लवणादिकं खस्थानाद् गच्छत् प्रतिदिवसं बहुबहुतरादिक्रमेण विध्वस्यमानं योजनशतात् परतो मत्वा सर्वथैव 'विध्वस्तम्' अचित्तं भवति । आह शस्त्राभावे योजनशतगमनमात्रेणैव कथमचित्ती20 भवति ? इत्याह- अनाहारेण, यस्य यद् उत्पत्तिदेशादिकं साधारणं तत् ततो व्यवच्छिन्नं खोपष्टम्भकाहारव्यवच्छेदाद् विध्वस्यते । तच्च लवणादिकं भाण्डसङ्क्रान्त्या पूर्वस्मात् पूर्वस्माद् भाजनादपरापरभाजनेषु, यद्वा पूर्वस्या भाण्डशालाया अपरस्यां भाण्डशालायां सङ्कम्यमाणं विध्वस्पते । तथा वातेन वा अग्मिना वा महानसादौ धूमेन वा लवणादिकं विध्वस्तं भवति ॥ ९७३ ॥ ___"लोणाई" इत्यत्र आदिशब्दादमी द्रष्टव्याः25 हरियाल मणोसिल पिप्पली य खजूर मुद्दिया अभया । आइन्नमणाइन्ना, ते विहु एमेव नायव्वा ॥९७४ ॥ हरितालं मनःशिला पिप्पली च खर्जूरः एते प्रतीताः, 'मुंद्रिका' द्राक्षा 'अमया' हरीतकी । एतेऽपि 'एवमेव' लवणवद् योजनशतगमनादिभिः कारणैरचित्तीभवन्तो ज्ञातव्याः । परमेकेऽत्राचीर्णा अपरेऽनाचीर्णाः । तत्र पिप्पली-हरीतकीप्रभृतय आचीर्णा इति कृत्वा गृह्यन्ते । खजूर-मुद्रि30 कादयः पुनरनाचीर्णा इति न गृह्यन्ते ॥ ९७४ ॥ अथ सर्वेषां सामान्येन परिणमनकारणमाह १ "वाया-ऽऽयव-धूमेण य" इति पाठः चूर्णिकृतोऽभिमतः, भा० पुस्तकेऽप्येतदनुसारेणैव टीका वर्तते, (दृश्यतां टिप्पणी २), न चायं पाठोऽस्मत्पार्श्वस्थादर्शेषु क्वचिद् दृश्यते ॥ २ वा आतपेन वा अग्नि भा० । “वाया-ऽऽतव-धूमेण य विद्धत्थं भवति लोणादी" इति चूर्णौ ॥ ३ 'मृद्धीका' मो० ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ९७०-७९] प्रथम उद्देशः । आरुहणे ओरुहणे, निसियण गोणादिणं च गाउम्हा । भुम्माहारच्छेदे, उवक्कमेणं च परिणामो ॥ ९७५ ॥ शकटे गवादिपृष्ठेषु च लवणादीनां यद् भूयो भूय आरोहणमवरोहणं च, तथा यत् तस्मिन् शकटादौ लवणादिभरोपरि मनुष्या निषीदन्ति, तेषां गवादीनां च यः कोऽपि पृष्ठादिगात्रोष्मा तेन च परिणामो भवति । तथा यो यस्य भौमादिकः-पृथिव्यादिक आहारस्तव्यवच्छेदे तस्य छ 'परिणामः' उपक्रमः शस्त्रम् , उपक्रम्यन्ते जीवानामायूंषि अनेनेति व्युत्पत्तेः । तच्च शस्त्रं त्रिधाखकायशस्त्रं परकायशस्त्रं तदुभयशस्त्रं चेति । तत्र खकायशस्त्रं यथा-लवणोदकं मधुरोदकस्य, कृष्णभूमं वा पाण्डुभूमस्येति । परकायशस्त्रं यथा-अग्निरुदकस्य, उदकं वा अग्नेरिति । तदुभयशस्त्रं यथा-उदकमृत्तिका शुद्धोदकस्येत्यादि । एवमादीनि सचित्तवस्तूनां परिणमनकारणानि मन्तव्यानि ॥ ९७५ ॥ चोएई वणकाए, पगए लोणादियाण किं गहणं । आहारेण हिगारो, तस्सुवकारी अतो गहणं ॥ ९७६ ।। शिष्यो नोदयति-'वनस्पतिकाये' प्रलम्बलक्षणे प्रकृते लवणादीनां पृथिवीकायिकानां किमर्थमत्र ग्रहणं क्रियते ? इति । सूरिराह-आहारेण तावदत्र सूत्रेऽधिकारः, तस्य चाहारस्य लवणमतिशयेनोपकारि, तद्विरहितस्याऽऽहारस्य नीरसत्वात् , अतस्तद्रहणमिति ॥ ९७६ ॥ 15 यद्येवं ततः छहिँ निप्फजइ सो ऊ, तम्हा खलु आणुपुन्वि किं न कया। पाहनं बहुयत्त, निप्फत्ति सुहं च तो न कमो ॥ ९७७॥ 'षड्भिः' पृथिवीकायादिभिः ‘सः' आहारो निप्पद्यते अतः षडपि कायाः किं नानुपूर्त्या सूत्रे 'कृताः' गृहीताः ?, यथा-"नो कप्पइ निग्गंथाण वा निम्गंथीण वा पुढविकाइए गिण्हित्तए" 20 इत्यादि । आचार्यः प्राह-तस्मिन्नाहारे वनस्पतेः प्राधान्यम् , मुख्यतया तस्यैवाऽऽहरणीयत्वात् । तथा 'बहुत्वम्' उपयोगबाहुल्यं वनस्पतिरागच्छति । वनस्पतिकायेन च यथा सुखमाहारस्य निष्पतिर्न तथा पृथिव्यादिभिः कायैः । तत एभिः कारणैर्न ‘क्रमः' पृथिव्यादीनामानुपूर्वीग्रहणलक्षणः कृतः, किन्तु केवलस्यैव वनस्पतेः सूत्रे ग्रहणं कृतमिति ।। ९७७ ।। गतं क्षेत्रतो लक्षणम् । अथ कालत आह उप्पल-पउमाई पुण, उण्हे दिन्नाइँ जाम न धरिती । मोग्गरग-जूहियाओ, उण्हे छूढा चिरं होति ॥ ९७८ ॥ मगदंतियपुप्फाई, उदए छूढाइँ जाम न धरिती । उप्पल-पउमाइं पुण, उदए छूढा चिरं होंति ॥ ९७९ ॥ उत्पलानि पद्मानि च 'उप्णे' आतपे दत्तानि 'याम' प्रहरमानं कालं 'न ध्रियन्ते' नावति-30 १°न वा परि त. डे० विना ॥ २ °मने का मो० ले० ॥ ३°कायिकादिभिः मो.॥ ४ मो• ले• विनाऽन्यत्र-च उदकयोनिकत्वात् 'उष्णे' भा० त० डे० । च शीतयोनिकत्वात् 'उणे'कां०॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ३०८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ ष्ठन्ते किन्तु प्रहरादर्वागेवाचित्तीभवन्ति । 'मुद्गरकाणि' मगदन्तिकापुष्पाणि यूथिकापुष्पाणि चोप्णयोनिकत्वाद् उप्णे क्षिप्तानि चिरमपि कालं भवन्ति, सचित्तान्येव तिष्ठन्तीति भावः ॥ ९७८ ॥ मदन्तिकाप्पाणि उदके क्षिप्तानि 'यामं' प्रहरमपि न प्रियन्ते । उत्पल - पद्मानि पुनरुदके क्षिप्तानि चिरमपि भवन्ति, उदकयोनिकत्वात् ॥ ९७९ ॥ गतं कालतो लक्षणम् । अथ भावत आह— पत्ताणं पुप्फाणं, सरडुफलाणं तहेव हरियाणं । विटम्मि मिलाणम्मी, नायव्वं जीवविप्पजनं ॥ ९८० ॥ पत्राणां पुष्पाणां 'सैरडुफलानाम्' अबद्धास्थिकफलानां तथैव 'हरितानां' वास्तुलादीनां सामान्यतस्तरुणवनस्पतीनां वा ‘वृन्ते' मूलनाले म्लाने सति ज्ञातव्यम्, यथा – जीवविप्रमुक्तमेतत् 10 पत्रादिकम् ॥ ९८० ॥ उक्तं भावतोऽपि लक्षणम् । तदुक्तौ च समर्थितं चतुर्विधज्ञानद्वारम् । अथ ग्रहणद्वारमाह 25 चउमंगों गहण पक्खेवए अ एगम्मि मासियं लहुयं । गणे पक्खेवम्मि, होंति अणेगा अणेगेसु ।। ९८१ ।। चतुर्भङ्गी ग्रहणे प्रक्षेपके च द्रष्टव्या । तद्यथा - एकं ग्रहणं एकः प्रक्षेपकः १ एकं ग्रहणम15 नेके प्रक्षेपकाः २ अनेकानि ग्रहणानि एकः प्रक्षेपकः ३ अनेकानि ग्रहणानि अनेके प्रक्षेपकाः ४ । अत्र च हस्तेन यत् प्रलम्बानामादानं तद् ग्रहणम्, यत् पुनर्मुखे प्रवेशनं स प्रक्षेपकः । तत्र प्रथमभङ्गे एकस्मिन् ग्रहणे प्रक्षेपके च प्रत्येकं मासलघु । द्वितीयभङ्गे एकस्मिन् ग्रहणे मासलघु, प्रक्षेपस्थाने यावतः प्रक्षेपकान् करोति तावन्ति मासलघूनि । तृतीयभङ्गे तु यावन्ति ग्रहणानि तावन्ति मासलघुकानि, प्रक्षेपविषयस्त्वेको लघुमासः । चतुर्थभङ्गेऽनेकेषु ग्रहणेप्यनेकेषु प्रक्षेप20 केषु चानेकान्येव मासलघुकानि । एतच्चासामाचारीनिप्पन्नं मन्तव्यम् । यत् पुनर्जीवघातनिप्पन्नं चतुर्लघुकादिकं तत् स्थितमेव । एतच्च ग्रहण - प्रक्षेपकनिप्पन्नं प्रायश्चित्तं यथा केवली जानाति तथा गीतार्थोऽपीति ॥ ९८१ ॥ गतं ग्रहणद्वारम् । अथ तुल्ये राग-द्वेषाभाव इति द्वारम् । तत्र शिष्यः प्राह पडिसिद्धा खलु लीला, विइए चरिमे य तुल्लदव्वेसु । नियता विहु एवं, बहुधाए एगपच्छितं ।। ९८२ ॥ अहो ! भगवन्तो राग-द्वेषाध्यासितमनसः । तथाहि —– 'तुल्यद्रव्येषु' समानेऽपि प्रलम्बद्रव्याणां जीवत्वे इत्यर्थः द्वितीयभङ्गे एकफलस्य चरमभङ्गे तु बहूनां फलानां बहून् वारान् प्रक्षेपं करोतीति बहूनि मासिकानि दत्थ, तृतीयभङ्गे तु बहूनि वनफलानि गृहीत्वा छित्त्वा वा एकः प्रक्षेपक इति कृत्वैकं मासिकं ददध्वे, तद् मम मनसि प्रतिभासते नूनं लीलयैव युष्माभिः प्रतिषिद्धा न 30 पुनर्जीवोपघातः । एवं च भगवतां द्वितीयभङ्गे प्रलम्बजीवानामुपरि रागो बहुमासिकदानात् तृती - यभङ्गे तु द्वेषः एकस्यैव मासिकस्य दानात्; यद्वा द्वितीयभङ्गे गृह्णतां शिष्याणामुपरि द्वेषः, तृतीये १ मो० ले० विनाऽन्यत्र - 'वन्तीति ॥ गतं भा० । 'वन्ति ॥ गतं त० डे० कां• ॥ २ " सरडुफलाणि णाम जाणि आमयाणि तरुणगाणि अवद्धद्विगाणि” इति चूर्णौ ॥ ३' कानि मा० भा० ॥ ४ तु यद् व° भा० ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ९८०-८६] प्रथम उद्देशः । तु रागः, कारणं प्राग्वदेव । किञ्च युप्माकमेवं 'बहुधाते' युगपद बहूनां मुखे प्रक्षिप्य भक्षणे एकमेव मासिकं [प्रायश्चित्तं] ददतां निर्दयता भवति ॥९८२ ॥ अथ राग-द्वेषाभावं समर्थयन् सूरिः परिहारमाह चोयग! नियतं चिय, णेच्छंता विडसणं पि नेच्छामो । निव मिच्छ छगल सुरकुड, मता-ऽमताऽऽलिंप भक्खणता ॥ ९८३ ।। । हे नोदक! निर्दयतामेवानिच्छन्तो वयं विदशनमपि नेच्छामः, विविधं दशनं-भक्षणं विदशनं लीला इत्यर्थः । अत्र चाचार्या म्लेच्छयदृष्टान्तं वर्णयन्ति जहा एगस्स रन्नो दो मिच्छा ओलग्गगा । तेण रन्ना तेसिं मिच्छाणं तुट्टेण दो सुरकुडा दो य छगला दिन्ना। ते तेहिं गहिया । तत्थ एगेणं छगलो एगप्पहारेणं मारितूण खइओ दोहिं तिहिं वा दिणेहिं । बितिओ एक्केकं अंग छेत्तुं खायति, तं पि सो छेदथामं लोणेणं आसुरीहिं वा छग-10 णेण वा लिंपइ । एवं तस्स छगलस्स जीवंतम्सेव गाताणि छेत्तुं खइयाणि, मतो य । पढमस्स एगप्पहारेण एको वधो । बितियस्स जत्तिएहिं छेदेहिं मरति तत्तिया वधा, लोगे य पावो गणिज्जति । एवं जेण पलंबस्स एक्को पक्खेवो कओ तस्स एक्कं मासियं, जो विडसंतो खायति तस्स तत्तिया पच्छित्ता, घणचिक्कणाए य पारितावणियाए किरियाए वति । विडसणा णाम आसादेंतो थोवं थोवं खायइ ॥ 15 ___ अत एवाह-"निव मेच्छ” इत्यादि । कस्यचिद नृपस्य द्वौ म्लेच्छाववलगको । तेन तुष्ठेन तयोः छगलको सुराकुटौ च दत्तौ । तत्रैकेन च्छगलकस्य मृतस्य द्वितीयेन पुनरमृतस्यैवैकैकमङ्गं छित्त्वा लवणादिभिरालिम्प्य भक्षणं कृतमिति ।। ९८३ ॥ किञ्च अचित्ते वि विडसणा, पडिसिद्धा किमु सचेयणे दव्वे । कारणे पक्खेवम्मि उ, पढमो तइओ अ जयणाए । ९८४॥ 20 अचित्तेऽपि द्रव्ये विदशना प्रतिषिद्धा किं पुनः सचेतने द्रव्ये ?, सचित्तं प्रलम्ब सुतरां विदशनया न भक्षणीयमिति भावः । यत्र पुनः कारणे सचित्तं मुखे प्रक्षिपति तत्रापि 'प्रथमभङ्गः' एकग्रहणैकप्रक्षेपरूपः 'तृतीयभङ्गश्च' अनेकग्रहणैकप्रक्षेपरूपो यतनया सेवितव्यः ॥ ९८४ ॥ अथानन्तकायस्य वर्जनेति द्वारम् । तत्र प्रथमतो द्वारगाथामाह पायच्छित्ते पुच्छा, उच्छुकरण महिड्ढि दारु थली य दिलुतो। 25 चउत्थपदं च विकडुभं पलिमंथो चेवऽणाइन्नं ।। ९८५ ॥ प्रथमं प्रायश्चित्ते पृच्छा कर्त्तव्या । ततः 'इक्षुकरणेन' इक्षुवाटेन 'महर्द्धिकेन' राज्ञा "दारु" त्ति दारुभारेण 'स्थल्या च' देवद्रोण्या दृष्टान्तः कर्त्तव्यः । चतुर्थं च-द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि भिन्नमिति यत् पदं तत्र त्रीणि द्वाराणि-विकटुभं परिमन्थः अनाचीर्णमिति समासार्थः ॥९८५॥ अथ विस्तरार्थमाह 30 चोएइ अजीवत्ते, तुल्ले कीस गुरुगो अणंतम्मि । कीस य अचेयणम्मी, पच्छित्तं दिजए दव्वे ॥ ९८६ ॥ शिष्यो नोदयति-भावतो भिन्नं द्रव्यतोऽभिन्नं भावतो भिन्नं द्रव्यतोऽपि भिन्नमिति तृती Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ य-चतुर्धयोर्भङ्गयोः परीत्ते अनन्ते च अजीवत्वे तुल्येऽपि कस्माद् अनन्ते गुरुमासः परीत्ते लघुमासो दीयते ? कस्माच्चाचेतने द्रव्ये परीत्तेऽनन्ते वा जीवोपघातं विनाऽपि प्रायश्चित्तं दीयते ? | अपरं च राग-द्वेषवन्तो भवन्तः, यदचेतने परीत्ते मासलघु अनन्तेऽचेतनेऽपि मासगुरु प्रयच्छत ॥ ९८६ ॥ तत्र यत् तावद् नोदितम् " कस्मात् परीत्ते मासलघु अनन्ते मासगुरु ?” तद्वि5 षयं समाधानमाह साऊ जिणपडिकुट्टो, अनंतजीवाण गायनिप्पन्नो । ही पसंगदोसा, अनंतकाए अतो गुरुगो ।। ९८७ ॥ परीत्ताद् अनन्तकायः खादुः स्वादुतरः । तथा जिनैः - तीर्थकरैः प्रतिकुष्टः, 'कारणेऽपि परीत्तं ग्रहीतव्यं नानन्तम्' इति जिनोपदेशात् । अनन्तानां च जीवानां गात्रेण स निष्पन्नः । सुखादु10 त्वाच्चाधिकतरा तत्र गृद्धिर्भवति । तस्याश्च प्रसङ्गेनानेषणीयमपि गृह्णीयादित्यादयो बहवो दोषाः, अतोऽनन्तकायेऽचित्तेऽपि गुरुको मासः प्रायश्चित्तम् । एवं च द्रव्यानुरूपं प्रायश्चित्तं ददतामस्माकं राग-द्वेषावपि दूरापास्तप्रसराविति ॥ ९८७ ॥ योक्तम् " कस्मादचित्ते प्रायश्चित्तं प्रयच्छत ?” ( गा० ९८६ ) इति तत्रापि समाधीयतेअनवस्थाप्रसङ्गनिवारणार्थं सजीवग्रहणपरिहारार्थं चाचित्तेऽपि प्रायश्चित्तप्रदानमुपपन्नमेव । तथा 15 चात्राचार्या इक्षुकरणदृष्टान्तमुपदर्शयन्ति नविखाइयं न विवई, न गोण-पहियाइए निवारेइ । इति करणभई छिन्नो, विवरीय पसत्थुवणओ य ॥ ९८८ ॥ - एगेण कुटुंबिणा उच्छुकरणं रोवियं । तस्स परिपेरंतेण तेण न वि खाइया कया, न वि वईए फलिहियं, न वि गोणाई निवारेइ, नावि पहिए खायंते वारेइ । ताहें तेहिं गोणाईहिं अवारि20 ज्जमाणेहिं तं सर्व्वं उच्छाइयं । एवंकरितो सो कम्मकराण भईए छिन्नो । जं च पराययं खेत्तं वाचिंतेणं वृत्तं 'एत्तियं ते दाहं' ति तं पि दायवं । एवं सो उच्छुकरणे विणट्टे मूलच्छिन्ने जं जस्स देयं तं अदेतो बद्धो विणट्टो य । एस अप्पसत्थो || 1 अवि उच्छुकरणं कयं । सो विवरीओ भाणियो । खाइयादि सवं कयं । जे य गोणाई पतित तहा उत्रासयति जहा अन्ने वि न दुक्कंति । एस पसत्थो || अथाक्षरार्थः——कश्चित् कुटुम्बी इक्षुकरणं रोपयित्वा नापि खातिकां नापि वृतिं कृतवान्, न या गो-पथकादान् खादतो निवारयति । 'इति' एवं कुर्वन् इक्षुकरणस्य सम्बन्धिनी या भृतिः - कर्मकरादिदेयं द्रव्यं तया 'छिन्नः ' त्रुटितः सन् विनष्टः । एतद्विपरीतश्च प्रशस्तदृष्टान्तो वक्तव्यः । उपनयश्च द्वयोरप दृष्टान्तयोर्भवति ॥ ९८८ ॥ स चायम् को दोसों दोहिं भिन्ने, पसंगदोसेण अणरुई भत्ते । भिन्नाभिन्नग्गहणे, न तरइ सजिए वि परिहरिउं ॥ ९८९ ॥ कश्चिद निर्धर्मा प्रलम्बानि ग्रहीतुकामः “ को दोषः स्यात् 'द्वाभ्यां' द्रव्य-भावाभ्यां भिन्ने प्रलम्बे गृह्यमाणे ?" इति परिभाव्य द्रव्य-भावभिन्नानि प्रलम्बान्यानीतवान् । यदि च तस्य प्रायश्चित्तं न दीयते तदा स निर्विशङ्कं भूयो भूयस्तानि गृह्णाति । ततश्च लब्धप्रलम्बरसास्वादस्य प्रसङ्गदोषेण 25 30 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ९८७-९२] प्रथम उद्देशः । ३११ तैः प्रलम्बैरलभ्यमानैस्तस्य भक्ते 'अरुचिः' अरोचको भवति । ततो यानि भावतो भिन्नानि द्रव्यतोऽभिन्नानि तेषां ग्रहणे प्रवर्तते । यदा तान्यपि न लभते तदाऽसौ प्रलम्बरसगृद्धः सजीवान्यपि प्रलम्बानि न शक्नोति परिहर्तुमिति । विशेषयोजना त्वेवम्-कुटुम्बिस्थानीयः साधुः, इक्षुकरणस्थानीयं चारित्रम् , परिखास्थानीया अचित्तप्रलम्बादिनिवृत्तिः, वृतिस्थानीया गुर्वाज्ञा, गो-पथिकादिस्थानीया रसगौरवादयः, तैरुपद्यमाणं प्रलम्बग्राहिणश्चारित्रमचिरादेव विनश्यति, 5 यथा चासौ कर्षक एकभविकं मरणं प्राप्तस्तथाऽयमप्यनेकानि जन्म-मरणानि प्रामोतीत्येष अप्रशस्त उपनयः । प्रशस्तः पुनरयम्--यथा तेन द्वितीयकर्षकेण कृतं सर्वमपि परिखादिकम् , उत्रासिता गवादयः, रक्षितं खक्षेत्रम् , सञ्जातोऽसावैहिकानां कामभोगानामाभागी; एवमत्रापि केनापि साधुना द्रव्यभावभिन्नं प्रलम्बमानीतमाचार्याणामालोचितम् , तैराचार्यः स साधुरत्यर्थं खरण्टितः ॥९८९ ॥ ततश्च छड्डाविय-कयदंडे, न कमेति मती पुणो वि तं घेत्तुं । न य से बड्डइ गेही, एमेव अणंतकाए वि ॥ ९९० ॥ स साधुराचार्यैः प्रलम्बानि च्छर्दापितः-त्याजितः प्रायश्चित्तदण्डश्च तस्य कृतः, ततश्च च्छर्दापित-कृतदण्डस्य पुनरपि. 'तत्' प्रलम्बजातं ग्रहीतुं मतिः 'न क्रमते' नोत्सहते, 'न च' नैव "से" तस्य प्रलम्बे गृद्धिर्वर्धते, ततश्चासौ विरतिरूपया परिखया गुर्वाज्ञारूपया वृत्या परिक्षिप्तमिक्षुक-15 रणकल्पं चारित्रं रसगौरवादिगो-पथिकैरुपद्रूयमाणं सम्यक् परिपालयितुमीष्टे, जायते चैहिकाऽऽमुष्मिककल्याणपरम्पराया भाजनम् । एवं तावत् प्रत्येके भणितम् , अनन्तकायेऽप्येवमेव द्रष्टव्यमिति ॥ ९९० ॥ अथ महर्द्धिक-दारुभरदृष्टान्तद्वयमाह कन्नतेपुर ओलोयणेण अनिवारियं विणटुं तु । दारुभरो य विलुत्तो, नगरद्दारे अवारिंतो ॥ ९९१ ॥ बितिएणोलोयंती, सव्वा पिंडित्तु तालिता पुरतो । भयजणणं सेसाण वि, एमेव य दारुहारी वि ॥ ९९२ ॥ महिड्डिओ राया भण्णइ । तस्स कन्नतेपुरं वायायणेहिं ओलोएइ तं न को वि वारेइ । ताहे तेण पसंगेणं निग्गंतुमाढत्ताओ तह वि ण कोति वारेइ । पच्छा विडपुत्तेहिं समं आलावं काउमाढत्ताओ। एवं अवारिजंतीओ विणट्ठाओ ॥ दारुभरदिटुंतो एगस्स सेट्ठिस्स दारुभरिया भंडी पविसति । णगरदारे एगं दारु सयं पडियं तं चेडरूवेण गहितं । तं पासित्ता 'न वारियं' ति (ग्रन्थानम्-३५०० ) काउं अण्णेण चेडरूवेण भंडीओ चेव गहियं । तं अवारिज्जमाणं पासित्ता सबो दारुभरो विलुतो लोगेणं । एते अपसत्था । ___इमे पसत्था-बितिएणं अंतेपुरवालगेण एगा ओलोयंती दिट्ठा, ताहे तेण सबाओ पिंडित्ता 30 तासिं पुरओ सा तालिता। ताहे सेसियाओ वि भीयाओ ण पलोएंति । एवं अंतेउरं रक्खियं ॥ एवं पढमदारुहारी वि पिट्टित्ता दारुभरो वि रक्खितो ॥ अथाक्षरगमनिका-कन्यान्तःपुरम् 'अवलोकनेन' वातायनेनाऽवलोकमानमनिवारितं सत् Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ क्रमेण विटपुत्रैः सार्द्धमालापकरणाद् विनष्टम् । एवं दारुभरोऽपि नगरद्वारे दारूणि गृहन्ति चेटरूपाण्यवारयति शाकटिके सर्वोऽपि 'विलुप्तः' मुषितः । द्वितीयेन पुनरन्तःपुरपालकेनैका कन्यका अवलोकमाना दृष्टा, ततः सर्वा अपि कन्यकाः पिण्डीकृत्य तासां पुरतः ताडिता, यथा शेषाणामपि भयजननं भवति । एवमेव च दारुहार्यपि प्रथमः कुट्टितो यथा शेषा बिभ्यतीति ॥ ९९१ ॥ 5९९२ ॥ स्थलीदृष्टान्तमाह थलि गोणि सयं मुय भक्खणेण लद्धपसरा थलिं तु पुणो । घातेसुं वितिएहिँ उ, कोट्टग बंदिग्गह नियत्ती ॥ ९९३ ॥ थली नाम देवद्रोणी । ततो गावीणं गोयरं गयाणं एका जरग्गवी मया । सा पुलिंदेहिं 'सयं मय' त्ति खइया । कहियं गोवालएहिं देवद्रोणीपरिचारगाणं । ते भणंति-जइ खंइया 10 खइया नाम । पच्छा ते पसंगणं अवारिजंता अप्पणा चेव मारेउमारद्धा । पच्छा तेहिं लद्धप सरेहिं थली चेव घातिता । एस अपसत्थो ॥ ___ इमो पसत्थो-तहेव गावीणं गोयरं गयाणं एका मया । सा पुलिंदेहिं खइया । गोवालेहिं सिट्ठ परिचारगाणं । तेहिं गंतूणं बिइयदिवसे तं कोठें भग्गं ‘मा पसंगं काहिन्ति' ति काउं । तत्थ बंदिग्गहो कओ॥ 15 अथाक्षरार्थः-स्थलीसम्बन्धिनीनां गवां गोचरगतानामेका जरद्वी स्वयं मृता । तस्या भक्षणेन लब्धप्रसराः पुलिन्दाः पुनः खयमेवागम्य स्थली घातितवन्तः । द्वितीयैः पुनर्देवद्रोणीपरिचारकैः ‘कोट्टकं' पुलिन्दपल्ली तद् गत्वा भग्नं 'मा भूत् प्रसङ्गः' इति कृत्वा, तेषां पुलिन्दानां बन्दिगृहे निवृत्तिः कृता । उपनययोजना "को दोसों दोहिँ भिन्ने, पसंगदोसेण अणई भत्ते" (गा० ९८९) इत्यादि प्रागुक्तानुसारेण सर्वत्रापि द्रष्टव्या ॥ ९९३ ।। 20 अथ विकडुभ-पलिमन्थद्वारे व्याख्यानयति विकडुभमग्गणे दीहं, च गोयरं एसणं च पिल्लिज्जा । निप्पिसिय सोंड नायं, मुग्गछिवाडीऍ पलिमंथो ॥ ९९४ ॥ इह प्रलम्बरसभिन्नदाढतया प्रलम्बैर्विना केवलः कूरो यदा न प्रतिभासते, ततोऽन्यस्मिन् भक्तपाने लब्धेऽपि विकटुभं-शालनकं तद् मार्गयन् अलभमानो दीर्घ गोचरं करोति, एषणीयं वा अल25 भमानोऽनेषणीयं विकटुभं गृह्णन्नेषणां प्रेरयेत् ।। अत्र चे 'निष्पिशितः पिशितवर्जी 'शौण्डः' मद्यपः 'ज्ञातम्' उदाहरणम्जहा एगो अमंसभक्खी पुरिसो । तस्स य मज्जपाएहिं सह संसम्गी । अन्नया तेहिं भणिओ-मजे णिज्जीवे को दोसो ? । तेहिं य सो सवहं गाहितो । तओ लज्जमाणो एगते परेण आणियं पिबइ । पच्छा लद्धपसरो बहुजणमज्झे वीहीए वि चत्तलज्जो पाउमाढत्तो । तेसिं पुण मंसं 30 विलंको उपदंश इत्यर्थः । इयरस्स पुण चिब्भिड-चणय-पप्पडगाईणि । ताणि य सबकालं न १°चरं गता भा० ॥२ अथ "विकडुभं पलिमंथो चेव" (गा०९८५)त्ति व्याख्यानयति भा० ॥ ३ निव्विस्स सोंड भा० ता० । भा० पुस्तके एतत्पाठानुसारेणैव टीका वर्तते, दृश्यतां . टिप्पणी ५॥ ४ प्रेरयति । अत्र मो० ले० ॥५च "निर्विनः' विलं-मांसं तद्वर्जी भा० ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ९९३-९५] प्रथम उद्देशः । ३१३ भवंति । पुणो तेहिं भणियं-केरिसं मज्जपाणं विणा विलंकेणं ? परमारिए य मंसे को दोसो ? खायसु इमं । तत्थ वि सो सवहं गाहितो। 'परमारिए नत्थि दोसो' त्ति खायइ । पच्छा लद्धरसो कढिणचित्तीभूतो निद्धंधसपरिणामो अप्पणा वि मारेउं खायइ । निस्सूगो जाओ। । उक्तं च करोत्यादौ तावत् सघृणहृदयः किञ्चिदशुभं द्वितीयं सापेक्षो विमृशति च कार्यं च कुरुते । तृतीयं निःशङ्को विगतघृणमन्यत् प्रकुरुते ततः पापाभ्यासात् सततमशुभेषु प्ररमते ॥ » जहा सो सोंडओ विलंकेण विणा न सकेइ अच्छिउं, एवं तस्स 'वि पलंबेहिं विणा कूरो न पडिहाइ । तस्स एरिसी गेही तेसु जायइ जीए एगदिणमवि तेहिं विणा न सकेइ अच्छिउं । 10 पच्छा सणियं सयं चेव रुक्खेहितो गिण्हइ ति ॥ ___तथा मुग्गछिवाडी-कोमला मुद्गफली, उपलक्षणत्वाद् इक्षुखण्ड-तिन्दुकादिकमन्यदपि यत् तुच्छौषधिरूपं तस्मिन् भक्ष्यमाणे 'परिमन्थः' सूत्रार्थव्याघातो भवति, न पुनः काचित् तृप्तिमात्रा सञ्जायते । अपि च कदाचिदात्मविराधनाऽपि भवेत् । तथा चात्र दृष्टान्तः एका अविरइया मुग्गखेत्ते कोमलाओ मुग्गफलियाओ खायंती रन्ना आहेडएणं वचंतेण दिट्टा, 15 एतेण वि दिट्टा सा तहेव । तस्स कोउयं जायं 'केत्तियाओ पुण खतिया होज ?' चि पोट्टे से फाडियं । जाव नवरं दिटुं फेणरसो । एवं विराहणा होज्जा ॥ ॥९९४ ॥ गते विकटुभ-परिमन्थद्वारे । अथानाचीर्णद्वारमाह अवि य हु सव्व पलंबा, जिण-गणहरमाइएहऽणाइना। लोउत्तरिया धम्मा, अणुगुरुणो तेणे ते वजा ॥ ९९५ ॥ 'अपि च' इति दूषणाभ्युच्चये, पूर्वोक्ता दोषास्तावत् स्थिता एव दूषणान्तरमप्यस्तीति भावः । 'हुः' निश्चितं 'सर्वाणि' सचित्ता-ऽचित्तादिभेदभिन्नानि मूल-कन्दादिभेदाद् दशविधानि वा प्रलम्बानि जिनैः-तीर्थकरैः गणधरैश्च-गौतमादिभिः आदिग्रहणेन जम्बू-प्रभव-शय्यम्भवादिभिः स्थविरैरपि 'अनाचीर्णानि' अनासेवितानि । लोकोत्तरिकाश्च ये केचन 'धर्माः' समाचारास्ते सर्वेऽपि 'अनुगुरवः' यद् यथा पूर्वगुरुभिराचरितं तत् तथैव पाश्चात्यैरप्याचरणीयमिति, गुरुपारम्पर्यव्यव-25 स्थया व्यवहरणीया इति भावः । येनैवं तेन 'तानि' मलम्बानि 'वानि' परिहर्चव्यानीति ॥९९५॥ अत्र परः प्राह-यदि यद् यत् प्राचीनगुरुभिराचीर्ण तत् तत् पाश्चात्यैरप्याचरितव्यं तर्हि तीर्थकरैः प्राकारत्रय-च्छत्रत्रयप्रभृतिका प्राभृतिका तेषामेवार्थाय सुरैर्विरचिता यथा समुपजीविता तथा वयमप्यस्मन्निमित्तकृतं किं नोपजीवामः ? । सूरिराह १ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः त० डे० कां० पुस्तकादर्शेषु न विद्यते ॥२ वि पलंबे खायंतस्स पच्छा गिद्धस्स पलं° भा० । “सो पलंबे खायंतो पच्छा तेहिं गिद्धस्स पलंबेण विणा कूरो ण पडिभाति" इतिं चूर्णौ ॥ ३°घातलक्षणःन पुनः भा० ॥ ४ °या सुन्नखेत्ते मो० ले. ॥५°ण वजा उ ता० ॥ ६ तद [व] यम भा० विना ॥ 30 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ३१४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् १ कामं खलु अणुगुरुणो, धम्मा तह वि हुन सव्वसाहम्मा । गुरुणो जंतु अइसए, पाहुडियाई समुपजीवे ॥ ९९६ ॥ _ 'कामम्' अनुमतं खल्वस्माकं यद् अनुगुरखो धर्माः, तथापि न सर्वसाधात् चिन्त्यते किन्तु देशसाधादेव । तथाहि-'गुरवः' तीर्थकराः 'यत् तु' यत् पुनः ‘अतिशयान्' प्राभृतिकादीन् 6 प्राभृतिका सुरेन्द्रादिकृता समवसरणरचना आदिशब्दादवस्थितनख-रोमा-ऽधोमुखकण्टकादिसुरकृतातिशयपरिग्रहः तान् समुपजीवन्ति 'स तीर्थकरजीतकल्पः' इति कृत्वा न तत्रानुधर्मता चिन्तनीया । यत्र पुनस्तीर्थकृतामितरेषां च साधूनां सामान्यधर्मत्वं तत्रैवानुधर्मता चिन्त्यते ॥९९६।। सा चेयमनाचीर्णेति दय॑ते सगड-दह-समभोमे, अवि य विसेसेण विरहियतरागं । तह वि खलु अणाइन्न, एसऽणुधम्मो पवयणस्स ॥९९७ ॥ यदा भगवान् श्रीमन्महावीरस्वामी राजगृहनगराद् उदायननरेन्द्रप्रव्राजनाथ सिन्धुसौवीरदेशवतंसं वीतभयं नगरं प्रस्थितस्तदा किलाऽपान्तराले बहवः साधवः क्षुधास्तृिषार्दिताः संज्ञाबाधिताश्च बभूवुः । यत्र च भगवानावासितस्तत्र तिलभृतानि शकटानि पानीयपूर्णश्च हृदः 'समभौमं च' गर्ती-बिलादिवर्जितं स्थण्डिलमभवत् । अपि च विशेषेण तत् तिलोदकस्थण्डिल15 जातं 'विरहिततरं' अतिशयेनाऽऽगन्तुकैस्तदुत्थैश्च जीवैर्वर्जितमित्यर्थः तथापि खलु भगवता 'अनाचीर्ण' नानुज्ञातम् । एषोऽनुधर्मः 'प्रवचनस्य' तीर्थस्य, सर्वैरपि प्रवचनमध्यमध्यासीनैरशस्त्रोपहतपरिहारलक्षण एष एव धर्मोऽनुगन्तव्य इति भावः ॥ ९९७ ॥ अथैतदेव विवृणोति वकंतजोणि थंडिल, अतसा दिन्ना ठिई अवि छुहाए । तह वि न गेण्डिंसु जिणो, मा हु पसंगो असत्थहए ॥९९८ ।। यत्र भगवानावासितस्तत्र बहूनि तिलशकटान्यावासितान्यासन् । तेषु च तिलाः 'व्युत्क्रान्तयोनिकाः' अशस्त्रोपहता अप्यायुःक्षयेणाचित्तीभूताः । ते च यद्यस्थण्डिले स्थिता भवेयुस्ततो न कल्पेरन्नित्यत आह-स्थण्डिले स्थिताः । एवंविधा अपि त्रसैः संसक्ता भविष्यन्तीत्याह'अत्रसाः' तदुद्भवा-ऽऽगन्तुकत्रसविरहिताः । तिलशकटस्वामिभिश्च गृहस्थैर्दत्ताः, एतेन चादत्ता25 दानदोषोऽपि तेषु नास्तीत्युक्तं भवति । अपि च ते साधवः क्षुधा पीडिता आयुषः स्थितिक्षयमकार्युः तथापि 'जिनः' वर्द्धमानखामी नाऽग्रहीत् , 'मा भूदशस्त्रहते प्रसङ्गः, 'तीर्थकरेणापि गृहीतम्' इति मदीयमालम्बनं कृत्वा मत्सन्तानवर्तिनः शिप्या अशस्त्रोपहतं मा ग्राहिषुः' इति भावात् , व्यवहारनयबलीयस्त्वख्यापनाय भगवता न गृहीता इति हृदयम् ; युक्तियुक्तं चैतत् प्रमाणस्थपुरुषाणाम् । यत उक्तम् पमाणानि प्रमाणस्थै, रक्षणीयानि यत्नतः । विषीदन्ति प्रमाणानि, प्रमाणस्थैर्विसंस्थुलैः ॥ ॥९९८ ॥ १ मो० ले. विनाऽन्यत्र-इति परिभाव्य व्यवहारनयबलीयस्त्वख्यापनाय भगवता नानुक्षाता इति हृदयम्, युक्ति भा० । इति भावः, युक्ति त० डे० कां० ॥ 30 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ९९६-१००२] प्रथम उद्देशः । ३१५ एमेव य निञ्जीवे, दहम्मि तसवजिए दए दिने । समभोम्मे य अवि ठिती, जिमिता सन्ना न याऽणुन्ना ॥ ९९९ ॥ एवमेव च हृदे 'निर्जीवे' यथायुप्कक्षयादचित्तीभूतेऽचित्तपृथिव्यां च स्थिते त्रसवर्जिते च 'दके' पानीये हृदखामिना च दत्ते तृषार्दितानां च साधूनां स्थितिक्षयकरणेऽपि भगवान्नानुजानीते स्म ‘मा भूत् प्रसङ्गः' इति । तथा स्वामी तृतीयपौरुप्यां जिमितमात्रैः साधुभिः सार्ध-5 मेकामटवीं प्रपन्नः, “सन्न"त्ति संज्ञाया आबाधा, यद्वा “आसन्न"त्ति भावासन्नता साधूनां समजनि, तत्र च समभौमं गर्ता-गोप्पद-बिलादिवर्जितं यथास्थितिक्षयव्युत्क्रान्तयोनिकपृथिवीकं त्रसप्राणविरहितं स्थण्डिलं वर्तते, अपरं च शस्त्रोपहतं स्थण्डिलं नास्ति न वा प्राप्यते, अपि च ते साधवः संज्ञाबाधिताः स्थितिक्षयं कुर्वन्ति तथापि भगवान् नानुज्ञां करोति यथा 'अत्र व्युत्सृजत' इति, ‘मा भूदशस्त्रहते प्रसङ्गः' इति । एष अनुधर्मः प्रवचनस्येति सर्वत्र योज्यम् ॥ ९९९ ॥ 10 एष सर्वोऽपि विधिर्निर्ग्रन्थानाश्रित्योक्तः । अथ निम्रन्थीरधिकृत्यामुमेवातिदिशन्नाह एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्यो । सविसेसतरा दोसा, तासिं पुण गिण्हमाणीणं ॥ १०००॥ एष एव सर्वोऽपि 'गमः' प्रकारो निम्रन्थीनामपि भवति ज्ञातव्यः । तासां पुनर्ग्रहतीनां प्रलम्बेन हस्तकर्मकरणादिना सविशेषतरा दोषा वक्तव्या इति ॥ १००० ॥ सूत्रम् कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए २॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् । नवरं 'भिन्नं' भावतो व्यपगतजीवम् द्रव्यतो भिन्नमभिन्नं वा, तृतीय-चतुर्थभगवर्तीत्यर्थः । एवं च सूत्रेणानुज्ञातम् , यथा-आमं भिन्नं कल्पते, अर्थतः पुनः 20 प्रतिषेधयति-न कल्पते ॥ - आह यदि न कल्पते ततः किं सूत्रे निबद्धं "कल्पते" इति ? उच्यते जइ वि निबंधो सुत्ते, तह वि जईणं न कप्पई आमं । जइ गिण्हइ लग्गति सो, पुरिमपदनिवारिए दोसे ॥ १००१॥ यद्यपि सूत्रे निबन्धः “कल्पते भिन्नम्" इतिलक्षणस्तथापि यतीनां न कल्पते आमं भिन्नमपि, 25 यदि गृह्णाति ततः स पूर्वपदे-पूर्वसूत्रे निवारिता ये दोषास्तान 'लगति' प्रामोति ॥१००१ ॥ आह यदि सूत्रेऽनुज्ञातमपि न कल्पते तर्हि सूत्रं निरर्थकम् , सूरिराह सुत्तं तू कारणियं, गेलन-ऽद्धाण-ओममाईसु ।। जह नाम चउत्थपदे, इयरे गहणं कहं होजा ॥१००२ ॥ सूत्रं कारणिकम् । तानि च कारणान्यमूनि-लानत्वम् अध्वा अवमौदर्यम् , एवमादिषु कार-30 गेषु कल्पते । तत्र प्रथमतश्चतुर्थभने तदलाभे तृतीय-द्वितीय-प्रथमभङ्गेष्वपि । आह यथा १ सुत्तं णिरत्थयं कारणियं ता० । “सुत्तं णिरत्थयं० गाहा । कधं पुण सुत्तं णिरत्ययं ? उच्यतेपुवमभिन्ना० गाधा" इति चूर्णौ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् २ नाम 'चतुर्थपदे' चतुर्थभङ्गे ग्रहणं तथा 'इतरस्मिन्' भङ्गत्रये कथं ग्रहणं भवेत् ? उच्यतेतत्रापि कारणतो ग्रहणं भवत्येव । यथा च भवति तथोत्तरत्राभिधास्यते ॥ १००२ ॥ अथ पुनरप्याह पुन्वमभिन्ना भिन्ना, य वारिया कहमियाणि कप्पंति । सुण आहरणं चोयग!, न कमति सव्वत्थ दिटुंतो ॥१००३ ॥ पूर्वसूत्रे भवद्भिरभिन्नानि भिन्नानि च 'वारितानि' प्रतिषिद्धानि, कथम् 'इदानीम्' अस्मिन् सूत्रे "कल्पन्ते" इति भणत ? न युक्तं पूर्वापरव्याहतमीदृशं वक्तुमिति भावः । अत्राचार्यः प्राह'शृणु' निशमय 'आहरणं' दृष्टान्तं हे नोदक ! यथा कल्पन्ते । अत्र नोदको गुरुवचनमनाकर्ण्य दुर्विदग्धतादध्मातः प्रतिवक्ति-आचार्य ! न सर्वत्राप्यर्थे दृष्टान्तः क्रमते, दृष्टान्तमन्तरेणाप्य10 र्थप्रतिपत्तेः ॥ १००३ ॥ तथाहि जइ दिटुंता सिद्धी, एवमसिद्धी उ आणगेज्झाणं । अह ते तेसि पसिद्धी, पसाहए किन्नु दिद्रुतो ॥१००४ ।। यदि दृष्टान्तादर्थानां सिद्धिस्तर्हि 'आज्ञाग्राह्याणां' निगोद-भव्या-ऽभव्यादीनामर्थानामसिद्धिः प्रसज्येत । अथ 'ते' तव आज्ञया तेषां प्रसिद्धिस्ततः 'किन्नु' इति वितर्के 'हुः' एवमर्थे किमेवं 15 दृष्टान्ततोऽर्थसिद्धिः क्रियते ? ॥ १००४ ॥ किञ्चान्यत् कप्पम्मि अकप्पम्मि य, दिटुंता जेण होति अविरुद्धा। तम्हा न तेसि सिद्धी, विहि-अविहिविसोवभोग इव ॥१००५ ॥ दृष्टान्तेन यद् यद् आत्मन इष्टं तत् तत् सर्वं यदृच्छया प्रसाध्यते, यथा-कल्पते हिंसा कर्तुं विधिनेति प्रतिज्ञा १, निष्प्रत्यपायत्वादिति हेतुः २, यथा विधिना विषोपभोग इति 20 दृष्टान्तः, अस्य च भावना-यथा विधिना मन्त्रपरिगृहीतं विषं खाद्यमानमदोषाय भवति, अविधिना पुनः खाद्यमानं महान्तमनर्थमुपढौकयति ३, एवं हिंसाऽपि विधिना विधीयमाना न दुर्गतिगमनाय प्रभवति, अविधिना तु विधीयमाना दुर्गतिगमनायोपतिष्ठते ४, यतश्चैवमतो निप्प्रत्यपायत्वात् कल्पते कत्तुं हिंसेति निगमनम् ५। एवं कल्प्येऽकल्प्ये च येन कारणेन दृष्टान्ता अवि रुद्धा भवन्ति, कल्प्यमप्यकल्प्यम् अकल्प्यमपि कल्प्यं यदृच्छया दृष्टान्तबलेन क्रियत इति भावः, 25 तस्माद् नैतेभ्यो दृष्टान्तेभ्योऽर्थानां सिद्धिर्भवति । गाथायां पञ्चम्यर्थे षष्ठी । विधिना अविधिना च विषोपभोग इवेति ॥ १००५ ॥ इत्थं नोदकेन वपक्षे स्थापिते सति सूरिराह असिद्धी जइ नाएणं, नायं किमिह उच्यते । अह ते नायतो सिद्धी, नायं किं पडिसिज्झती ॥१००६ ॥ यदि 'ज्ञातेन' दृष्टान्तेनार्थानामसिद्धिस्ततस्त्वया 'ज्ञातं' विषदृष्टान्तः इह 'किमुच्यते' किमे30 बमभिधीयते ? । अथ 'ते' तव 'ज्ञाततः' दृष्टान्ततः सिद्धिः ततोऽस्माभिरुच्यमानं ज्ञातं किं प्रतिषिध्यते ? ॥ १००६ ॥ किञ्च १ "कीरइ हु किन्नु दिद्वैता” इति पाठानुसारेण वृत्तिकृता वृत्तिविहिता, नासो पाटः कस्मिंश्चिदपि पुस्तकादशें लभ्यत इति ॥ २उच्चते ता० ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः १००३-१०] प्रथम उद्देशः । अंधकारो पदीवेण, वजए न उ अन्नहा। तहा दिटुंतिओ भावो, तेणेव उ विसुज्झई ॥१००७॥ अन्धकारशब्दस्य पुनपुंसकलिङ्गत्वाद् यथाऽन्धकारो रात्रौ प्रदीपेनैव 'वय॑ते' विशोध्यते 'न तु' नैवान्यथा, विशोधिते च तस्मिन् घटादिकं वस्तु परिस्फुटमुपलभ्यते; तथाऽत्रापि 'दागन्तिकः' दृष्टान्तग्राह्यः 'भावः' पदार्थोऽन्धकारवदतिगहनोऽपि 'तेनैव' दृष्टान्तेन प्रदीपकल्पेन 5 'विशुध्यते' निर्मलीभवति, विशुद्ध च तस्मिन् परिस्फुटा विवक्षितार्थप्रतिपत्तिर्भवतीति दृष्टान्तोपदर्शनमत्र क्रियते । किञ्च सौम्य ! प्रीणिता वयं खवाक्येनैव भवता यद् दृष्टान्तेनार्थप्रसाधनमभ्युपगतम् । अस्माकमपि त्वदीय एव दृष्टान्तः सूत्रस्य सार्थकत्वं प्रसाधयिष्यति ॥ १००७ ॥ कथम् ? इति चेद् उच्यते-- एसेव य दिलुतो, विहि-अविहीए जहा विसमदोस । होइ सदोसं च तथा, कजितर जया-ऽजय फलाई ॥१००८॥ 'एष एव' त्वदुक्तो दृष्टान्तोऽस्माभिः प्रस्तुतसूत्रार्थेऽवतार्यते-यथा विधिना विषमुपभुज्यमानमदोषम् , अविधिना भुज्यमानं तदेव सदोषम् ; तथा कार्ये यतनया फलादीनि आसेव्यमानानि न दोषायोपतिष्ठन्ते, “इयरे" त्ति इतरस्मिन्-अकार्ये यतनया वा अयतनया वाऽऽसेव्यमानानि दोषायोपकल्पन्ते ॥१००८॥ अपि च आयुहे दुन्निसम्मि , परेण बलसा हिए । वेताल इव दुजुत्तो, होइ पचंगिराकरो ॥ १००९॥ यथा केनापि शारीरबलदोद्धतेन परवधायाऽऽयुधं निसृष्टं-मुक्तम् , तच दुर्निसृष्टं कृतं येन तदेव परेण 'हृतं' गृहीतम् , यद्वा अनिसृष्टमेवायुधं परेण "बलस" ति छान्दसत्वाद् बलात्कारेण हृतम् , ततस्तस्मिन्नायुधे दुर्निसृष्टे परेण बलात्कारेण वा हृते सति तस्यैव तेन प्रतिघातः क्रियते । 20 एवं त्वयाऽप्यस्मदभिप्रेतदृष्टान्तप्रतिघाताय विषदृष्टान्त उपन्यस्तः, अस्माभिस्तु तेनैव दृष्टान्तेन "न सर्वत्र दृष्टान्तः क्रमते" (गा० १००३) इति भवत्प्रतिज्ञायाः प्रतिघातः कृतः, खाभिप्रेतश्वार्थः प्रसाधित इति । तथा केनचिद् मन्त्रवादिना होम-जापादिभिर्वेताल आहूत आगतश्च, स च वेतालः किश्चित् तदीयस्खलितं दृष्ट्वा 'दुर्युक्तः' दुःसाधितो न केवलं तस्य साधकस्याभीष्टमर्थ न साधयति किन्तु कुपितः सन् 'प्रत्यङ्गिराकरः' प्रत्युत तस्यैव साधकस्योन्मत्ततादिलक्षणापकार-25 कारी भवति; एवं भवताऽपि खपक्षसाधनार्थं विषदृष्टान्त उपात्तः स च दुःप्रयुक्तत्वात् प्रत्युत भवत एव प्रतिज्ञोपघातलक्षणमपकारमादधाति स्मेति ॥ १००९ ॥ किञ्च निरुतस्स विकडुभोगो, अपत्थओ कारणे य अविहीए । इय दप्पेण पलंबा, अहिया कज्जे य अविहीए ॥१०१०॥ यथा नीरुजस्य विशेषेण कटुकं विकटुकम्-औषधमित्यर्थः तस्य यो भोगः-उपयोगः, तथा 30 'कारणे च' रोगादौ यस्तस्यैवाऽविधिना भोगः, स उभयोऽपि 'अपथ्यः' अहितः-विनाशकारणं जायते । 'इति' एवं 'दर्पण' कारणाभावेनाऽऽसेव्यमानानि प्रलम्बानि 'अहितानि' संसारवर्द्धनानि . १ चूर्णिकृद्भिर्नेयं गाथाऽऽटता ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ३१८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् २ भवन्ति, 'कार्ये च' अवमौदर्यादौ 'अविधिना' अयतनया गृहीतानीह परत्र चाहितानि जायन्ते ॥ १०१० ॥ अथ दृष्टान्तमेव समर्थयन्नाह--- जइ कुसलकप्पिताओ, उवमाओं न होज जीवलोगम्मि । छिन्नब्भं पिव गगणे, भमिज लोगो निरुवमाओ ॥१०११॥ 5 कुशलै:--पण्डितैः कल्पिता:-तेषु तेषु ग्रन्थेषु विरचिताः 'उपमाः' दृष्टान्ता अस्मिन् जीवलोके यदि न भवेयुस्तर्हि 'छिन्नाभ्रमिव' छिन्नं-व्यवच्छिन्नमेकीभूतं यद् अनं तद् यथा प्रचण्डपवनेन गगने इतस्ततो भ्राम्यते एवमयमपि लोकः 'निरुपमाकः' तत्तदर्थप्रसाधकदृष्टान्तविकलो दोलायमानमानसः संशयादिभिरितस्ततो भ्राम्येत, न कस्याप्यर्थस्य निर्णयं कुर्यादिति भावः । उक्तं च10 तावदेव चलत्यर्थो, मंन्तुर्विषयमागतः । यावन्नोत्तम्भनेनेव, दृष्टान्तेनावलम्ब्यते ॥ ॥ १०११ ॥ एवं च बहुभिः प्रकारैर्व्यवस्थापितं दृष्टान्तं प्रमाणयन् शिष्यः प्राह-भगवन् ! यद्येवं ततः क्रियतां दृष्टान्तः । उच्यते, कुर्मः, आकर्ण्यतां दत्तकर्णेन भवता-- मरुएहि य दिटुंतो, कायव्यो चउहिँ आणुपुवीए । एवमिहं अद्धाणे, गेला तहेव ओमम्मि ॥१०१२ ॥ _ 'मरुकैः' ब्राह्मणैश्चतुर्भिदृष्टान्तः कर्त्तव्य आनुपूर्व्या । ‘एवं' मरुकदृष्टान्तानुसारेण इह अध्वनि ग्लानत्वे तथैवावमे द्वितीयपदं द्रष्टव्यमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ १०१२ ॥ अथ पूर्वाद्धं तावद् व्याख्याति चउमरुग विदेसं साहपारए सुणग रन सत्थवहे । ततियदिण पूतिमुदगं, पारगों सुणयं हणिय खामो ॥१०१३॥ परिणामओऽत्थ एगो, दो अपरिणया तु अंतिमो अतीव । परिणामो सद्दहती, कन्नऽपरिणमतों मतो वितितो॥१०१४॥ तइओ एयमकिच्चं, दुक्खं मरिउं ति तं समारद्धो । किं एच्चिरस्स सिटुं, अइपरिणामोऽहियं कुणति ॥ १०१५ ॥ पच्छित्तं खु वहिजह, पढमों अहालहुस धाडितो तइतो। चउथो अ अतिपसंगा, जाओ सोवागचंडालो ॥१०१६॥ जहा चत्तारि मरुआ 'अज्झाइस्सामो' त्ति काउं विदेसं पत्थिता । तेहि य एगो साहापारओ दिट्ठो, पुच्छिओ-कत्थ वच्चसि ? । सो भणइ-जत्थेव तुन्भे । ताहे ते एगम्मि पच्चंते अद्धाण सीसए सत्थं पडिच्छंति, सो य । सत्थो मिलइ । साहापारगो एंगं सुणगं सारवेइ । तेहिं 30भणियं-किं तुब्भं एएणं । सो भणइ-अहमेयं जाणामि कारणं । तओ ते सत्थेण समं अडविं पविट्टा । तेसिं तत्थ रण्णे पवन्नाणं सो सत्थो मुट्टो दिसोदिसिं पलातो । इतरे वि मरुया पंच १ "मनसाऽप्यवधारितः” चूर्णिप्रवन्तरे ॥ २ “यावन्नोपष्टम्भकेन" चूर्णिप्रत्यन्तरे ॥ ३ "दृष्टान्तेन प्रसाध्यते” चूर्णिप्रत्यन्तरे ॥ 20 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ भाष्यगाथाः १०११-१७] प्रथम उद्देशः, । जणा सुणगछट्टा एकतो पट्टिता अतीवतिसिय-भुक्खिया तइयदिणे पेच्छंति पूइमुदगं मयगकलेवराउलं । तत्थ ते साहापारगेण भणिता-एयं सुणगं मारे खामो, एयं च सरुहिरं पाणियं पिबामो, अण्णहा विवज्जामो, एयं च वेदरहस्सं आवतीए भणियं चेव, न दोसो । एवं तेण ते भणिता । तेसिं मरुयाणं एको परिणामतो, दो अपरिणामगा, चउत्थतो अतिपरिणामओ । तत्थ जो सो परिणामगो तेण तं साहापारगवयणं सद्दहियं अब्भुवगयं च । जे ते दो अपरिणामगा: तेसिं एक्केण साहापारवयणं सोउं कण्णा ठइया 'अहो ! अकजं, कण्णा वि में सुणंति' सो अपरिणामगो तिसिय-भुक्खिओ मओ । जो सो बितिओ अपरिणामगो सो भणइ-'एयं एयवस्थाए वि अकिच्चं, किं पुण दुक्खं मरिज्जति ?' त्ति काउं खईयं णेण । जो सो अतिपरिणामो सो भणति-किह चिरम्स सिटुं ? वंचिया मो अतीते काले ज ण खौतियं । सो अण्णाणि वि गावि-गद्दभमंसाणि खादिउमाढत्तो, मजं च पाउं । तत्थ जेहिं खतियं ते साहापारगेण भणिता-10 इतो णित्थिन्ना समाणा पच्छित्तं वहेजह । तत्थ जो सो परिणामगो तेण अप्पसागारियं एगस्स अज्झावगस्स आलोइयं । तेण 'सुद्धो त्ति भणिय, पंचगवं वा दिन्नं । तत्थ जो सो अपरिणामओ सो णित्थिण्णो समाणो सैंणगकत्तिं सिरे काउं माहणे मेलित्ता चाउवेजस्स पादेहिं पडित्ता साहइ, सो चाउवेजेण 'धिद्धि'कतो णिच्छूढो । जो सो अइपरिणामगो ‘णत्थि किंचि अभक्खं अपेयं वा' अतिपरिणामपसंगेण सो मायंगचंडालो जाओ ॥ 15 अथाक्षरार्थः- चत्वारो मरुका विदेशं प्रस्थिताः । ततः 'शाखापारगः' वेदाध्ययनपारगतो मरुकस्तेषां मिलितः, तेन च शुनकः सार्द्ध गृहीतः । अरण्ये च गतानां सार्थस्य वधः-मोषणं । ततस्तैर्मरुकैरेकां दिशं गृहीत्वा पलायितैः तृतीयदिने 'पूति' कुथितं मृतकडेवराकीर्णमुदकं दृष्टम् । शाखापारगो वक्ति-एनं शुनकं हत्वा भक्षयामः । अत्र चैकः परिणामकः, द्वौ 'अपरिणतौ' अपरिणामको, 'अन्तिमः' चतुर्थोऽतीवपरिणामकः । तत्र परिणामकः शाखापारगवचनं श्रद्धत्ते । 20 'द्वितीयः पुनः' अपरिणतः कर्णो स्थगितवान् 'न शृणुमः एनां वार्तामपि' इति कृत्वा मृतः । तृतीयोऽप्यपरिणतत्वात् चिन्तयति- 'एतद् एतस्यामप्यवस्थायामकृत्यम् , परं किं क्रियते ? दुःख मत्तुम् इति 'तत्' शुनकभक्षणं कर्तुं समारब्धः । चतुर्थस्त्वतिपरिणामकः किमियतः कालात् 'शिष्टं' कथितम् ? इत्युक्त्वा 'अधिकं करोति' गो-गर्दभादिमांसान्यपि भक्षयतीति । शाखापारगेण च ते भाणिताः-अटव्या उत्तीर्णाः प्रायश्चित्तं वहध्वम् । तत्र यः प्रथमः परिणामकः स 25 यथालघुकप्रायश्चित्तेन शुद्धः । द्वितीयस्तु मृत एव । तृतीयो निर्धाटितश्चातुर्विद्यैः, पङ्केर्बहिःकृत इत्यर्थः । चतुर्थश्चातिप्रसङ्गात् 'नास्ति किञ्चिदभक्ष्यमपेयं च' इति श्वपाकरूपश्चण्डालो जात इति ॥१०१३ ॥ १०१४ ॥ १०१५ ॥ १०१६ ॥ अथोपनययोजनामाह जह पारगो तह गणी, जह मरुगा एव गच्छवासीओ। १ मे ण सु भा० त० डे० ॥ २ इयं तेण मो० ले० ॥ ३ खातियं । एवं तेहिं फाडित्ता खइओ । तत्थ जेहिं खतियं भा० विना । “जो सो अतिपरिणामओ सो ‘एचिरस्स सिटुं? वंचिता मो अतीतं कालं' ति भणति । एवं तेहिं फाडिउं खतिओ,तं च असुति पाणियं पीयं । साहापारगेण" इत्यादि ४ सुणगकत्तिं शुनककृत्तिं श्वचर्म इत्यर्थः ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् २ सुणगसरिसा पलंबा, मडतोयसमं दगमफासुं ॥ १०१७॥ यथा शाखापारगस्तथा 'गणी' आचार्यः । यथा चत्वारो मरुकाः 'एवम्' अमुना प्रकारेण 'गच्छवासिनः' साधवः । शुनकसदृशानि अत्र प्रलम्बानि, विकृष्टाध्वादिकारणं विना साधूनामभक्षणीयत्वात्। 'मृततोयसमं' मृतकडेवराकुलोदकतुल्यमप्राशुकोदकं ज्ञातव्यम् , अपेयत्वात् ॥१०१७॥ 5 अथ यदुक्तं "एवमिहं अद्धाणे, गेलन्ने तहेव ओमम्मि ।" ( गा० १०१२ ) तत्राध्वद्वारं विवृणोति उद्दद्दरे सुभिक्खे, अद्धाणपवजणं तु दप्पेण । लहुगा पुण सुद्धपदे, जं वा आवजती तत्थ ॥१०१८ ॥ ऊर्ध्वं दराः पूर्यन्ते यत्र काले तद् ऊर्द्धदरम् , प्राकृतशैल्या उद्दद्दरम् । ते च दरा द्विविधाः10 धान्यदरा उदरदराश्च । धान्यानामाधारभूता दरा धान्यदराः कट-पल्यादयः, उदराण्येव दरा उदरदराः; ते उभयेऽपि यत्र पूर्यन्ते तद् ऊर्द्धदरम् । तथा सुभिक्षं-भिक्षाचरैः सुलभभिक्षम् । अत्र चतुर्भङ्गी-ऊर्द्धदरं सुभिक्षं च १ ऊर्द्धदरं न सुभिक्षं २ सुभिक्षं नोर्द्धदरं ३ नोर्द्धदरं न सुभिक्षम् ४ । तेत्र प्रथमभङ्गे तृतीयभङ्गे वा यद्यध्वानं दर्पण प्रतिपद्यते तदा यद्यपि न मूलोत्तरगुणविराधनादिकं किमप्यापद्यते तदाऽपि शुद्धपदे चत्वारो लघुकाः प्रायश्चित्तम् , कस्मात् ? दर्पणाध्वानं 15 प्रतिपद्यते इति हेतोः । 'यद् वा' आत्मविराधनादिकं यत्रापद्यते तत्र तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अर्थादापन्नम्-शेषभङ्गद्वये दुर्भिक्षत्वादध्वगमनं प्रतिपत्तव्यमिति । प्रथम-तृतीययोरपि भङ्गयोः कारणतो भवेदध्वगमनम् ॥ १०१८ ॥ आह किं तत् कारणम् ? उच्यते असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व आगाढे । गेलन उत्तिमढे, नाणे तह दंसण चरित्ते ॥ १०१९ ॥ एएहि कारणेहिं, आगाढेहिं तु गम्ममाणेहिं । उवगरणपुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं ॥१०२० ॥ विवक्षितदेशे आगाढमशिवमवमौदर्य राजद्विष्टं भयं वा प्रत्यनीकादिसमुत्थम् , आगाढशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, तथा तत्र वसतां ग्लानत्वं भूयोभूय उत्पद्यते, यद्वा देशान्तरे ग्लानत्वं कस्यापि समुत्पन्नं तस्य प्रतिजागरणं कर्त्तव्यम् , उत्तमार्थ वा कोऽपि प्रतिपन्नस्तस्य निर्यापन 25 कार्यम् । तथा विवक्षिते देशे ज्ञानं वा दर्शनं वा चारित्रं वा नोत्सर्पति ॥ १०१९ ॥ १ जत्थ ता० ॥ २ तत्र प्रथमभङ्गे यद्यध्वानं दर्पण प्रतिपद्यते तदा यद्यपि शुद्धं शुद्धन गच्छति न मूलोत्तरगुणविराधनादिकं किमप्यापद्यते तदाऽपि शुद्धपदे चत्वारो लघुकाः प्रायश्चित्तम् , कस्मात् ? दर्पण अध्वानं प्रतिपद्यत इति हेतोः। 'यद्वा' अन्यदापद्यते 'यत्र' मूलोत्तरगुणविराधनादौ तत्र तनिष्पन्न प्रायश्चित्तम् । अर्थादापन्नम्-शेषभङ्गत्रयेऽध्वगमनं प्रतिपत्तव्यमिति चूर्ण्यभिप्रायः । निशीथचूर्ण्यभिप्रायेण तु तृतीयेऽपि भङ्गेऽ. ध्वानं यदि प्रतिपद्यते ततस्तदेव प्रायश्चित्तम्, सुभिक्षत्वात् । द्वितीय-चतुर्थयोस्तु भङ्गयोर्दुर्भिक्षत्वाद्ध्वानं प्रतिपद्यते । प्रथम-सृतीययोरपि भङ्गयोः कारणतो भवेद् अध्वगमनम् ॥ १०१८ ॥ इति भा० पुस्तके पाठः। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १०१८-२३ ] प्रथम उद्देशः । ३२१ ‘एतैः’ अनन्तरोक्तैः कारणैरागादैरुत्पन्नैः सद्भिर्गम्यते । गच्छद्भिश्वाध्वप्रायोग्यमुपकरणं गुलि - कादिकं गृहीत्वा सार्थः पूर्वमेव प्रत्युपेक्षणीयः, तेन पूर्वप्रत्युपेक्षितेन सार्थेन सार्द्धं गन्तव्यम् ॥ १०२० ॥ अत्र विधिमाह - अद्धाणं पविसंतो, जाणगनीसाए गाहए गच्छं । अह तत्थ न गाहेजा, चाउम्मासा भवे गुरुगा ।। १०२१ ॥ अध्वानं प्रविशन्नाचार्यो ज्ञायकः - गीतार्थस्तन्निश्रया गच्छं सकलमप्यध्वकल्पस्थितिं ग्राहयति । अथ ‘तत्र' अध्वप्रवेशेऽध्वकल्पस्थितिमाचार्या न ग्राहयेयुस्ततश्चतुर्मासा गुरवः प्रायश्चित्तं भवेयुः || १०२१ ॥ स्यान्मतिः - कः कथं वा गच्छमध्वकल्पं ग्राहयति ? इति उच्यतेगीयत्थेण सयं वा, गाहइ छड़ितों पच्चयनिमित्तं । सारंति तं सुत्था, पसंग अप्पच्चओ इहरा ॥। १०२२ ॥ यद्याचार्य आत्मना केनापि कार्येण व्यापृतस्ततोऽन्येनोपाध्यायादिना गीतार्थेन, अथ न व्याटतस्ततः ‘स्वयम्’ आत्मनैवान्यगीतार्थान् पुरतः कृत्वा अध्वकल्पसामाचारीं गच्छं ग्राहयति । स च कथको ग्राहयन्नन्तराऽन्तरा अर्थपदजातं ' छर्दयन् परित्यजन् कथयति । ततो ये ते 'श्रुतार्थाः ' गीतार्थास्ते ‘तद्' अर्थपदजातं त्यक्तं सत् स्मारयन्ति, यथा-- विस्मृतं भवतामेतच्चैतच्चार्थपदमिति । किंनिमित्तमेवं क्रियते ? इत्याह- अगीतार्थानां प्रत्ययनिमित्तम्, यथा सर्वेऽप्येते 15 यदेनां सामाचारीमित्थमेव जानन्ति तन्नूनं सत्यैवेयमिति । ' इतरथा' यद्येवं न क्रियते ततस्तेषामगीतार्थानां मध्ये येऽतिपरिणतास्ते अध्वन उत्तीर्णा अपि तत्रैव प्रसङ्गं कुर्युः, ये त्वपरिणामकास्तेषामप्रत्ययो भवेत्, यथा-1 - एते इदानीमेव खबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितामेवंविधां स्थितिं कुर्वन्तीति ॥ १०२२ ॥ शिप्यः प्राह — या काचिदध्वनि मैलम्बग्रहणे सामाचारी तामिदानीमेव भणत । गुरुराह 20 अद्धाणे जयणाए, परूवणं वक्खती उवरि सुत्ते । aisgari aोच्छ, रोगाऽऽयंकेसिमा जयणा 5 "एत्थ पढमभंगे जति वि मुद्धं मुद्धेण गच्छति, अणावजंत इत्यर्थः, तो वि हृ ( एक ) । कीस ? दप्पेण अद्धाणं पवज्जति । जं वा अण्णं मूलगुण-उत्तरगुणाणं विराधणं करेति तण्णिप्पण्णं पच्छित्तं । अर्थात् प्राप्तम्सेसेहिं तिहिं भंगेहिं पवज्जितव्वं । भवे कारणं पढमेण वि भंगेण गमेजा ॥ किं तं कारणं ? उच्यते - अतिवे० गधा ॥” इति चूर्णिः ॥ १ द्वाण पविसमाणो ता० ॥ २ गीतार्थास्ते तान्यर्थपदानि त्यक्तानि सन्ति स्मारयन्ति भा० ॥ ३-४ उभयत्रापि भा० पुस्तके प्रलम्बग्रहणे इति नास्ति ॥ 10 १०२३ ॥ अध्वनि गच्छतां या प्रैलम्बग्रहणे यतना - सामाचारी तस्याः प्ररूपणमुपरि अध्वसूत्रे इहैवोदेशके वक्ष्यति । अवमेऽपि यः कोऽपि विधिः स सर्वोऽप्युपरि इहैव प्रलम्बप्रकृते वक्ष्यते । अत्र पुनर्यद् ग्लानत्वद्वारं तद् अभिधीयते । तच्च ग्लानत्वं द्विधा – रोग आतङ्कश्च । तयो रोगा- 25 ssaङ्कयोर्द्वयोरपि 'इयं' वक्ष्यमाणलक्षणा यतना ॥ १०२३ ॥ तत्र तिष्ठतु तावद् यतना, रोगाssतङ्कयोरेव कः परस्परं विशेष: : उच्यते- Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ सनियुक्ति-लधुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् २ गंडी-कोढ-खयाई, रोगो कासाइगो उ आयंको । दीहरुया वा रोगो, आतंको आसुघाती उ॥१०२४ ।। गण्डी-गण्डमालादिकः, कुष्ठं–पाण्डुरोगो गलत्कोष्ठं वा, क्षयः-राजयक्ष्मा, आदिशब्दात् श्लीपद-श्वयथु-गुल्मादिकः सर्वोऽपि रोग इति व्यपदिश्यते । कासादिकस्तु आतङ्कः, आदिग्रह5णेन श्वास-शूल-हिक्का-ज्वरा-ऽतीसारादिपरिग्रहः । अथवा दीर्घकालभाविनी सर्वाऽपि रुग् रोग उच्यते । यस्तु आशुधाती विसूचिकादिकः स आतङ्कः ॥ १०२४ ॥ ___ अथ सामान्यतो ग्लानत्वे विधिमाह गेलन्नं पि य दुविहं, आगाढं चेव नो य आगाढं । आगाढे कमकरणे, गुरुगा लहुगा अणागाढे ॥ १०२५ ॥ 10 ग्लानत्वमपि द्विविधम् --आगाढं चैव नोआगाढं च अनागाढमित्यर्थः । आगाढे यदि क्रमेणपञ्चकपरिहाण्या करोति ततश्चत्वारो गुरवः, अनागाढे तु यद्यागाढकरणीयं करोति तदा चत्वारो लघवः ॥ १०२५ ।। एतदेव स्पष्टयन्नाह आगाढमणागाढं, पुव्युत्तं खिप्पगहणमागाढे । फासुगमफासुगं वा, चउपरियÉ तऽणागाढे ॥ १०२६ ॥ 15 आगाढमनागाढं च 'पूर्वोक्तम्' “अहिडक विस विसूइय" (गा० ९५४) इत्यादिना पूर्वमेव व्या ख्यातम् । तत्रागाढे शूल-विसूचिकादौ ग्लानत्वे समुत्पन्ने प्राशुकमप्राशुकं वा एषणीयमनेषणीयं वा क्षिप्रमेव ग्रहीतव्यम् । अथागाढे त्रिःपरिवर्तनरूपया पञ्चकपरिहाणिरूपया वा यतनया क्रमेण गृह्णाति ततश्चत्वारो गुरवः । अनागाढे पुनस्विकृत्वः परिवर्तने कृतेऽपि यदि शुद्धं न प्राप्यते ततश्चतुर्थे परिवर्ते पञ्चकादियतनया अनेषणीयं गृह्णाति । अथानागाढे त्रिःपरिवर्तनं पञ्चकपरिहाणिं 20 वा न करोति ततश्चतुर्लघवः ।। १०२६ ॥ अथ ग्लानत्वविषयां यतनामाह विजे पुच्छण जयणा, पुरिसे लिंगे य दव्वगहणे य । पिट्ठमपिढे आलोयणा य पत्रवण जयणा य ।। १०२७ ।। प्रथमतो वैद्यखरूपं वक्तव्यम् । ततस्तस्य पार्श्वे यथा प्रच्छने यतना क्रियते तथा वाच्यम् । 'पुरुषः' आचार्यादिकोऽभिधातव्यः । “लिंगे य" त्ति खलिङ्गेनाऽन्यलिङ्गेन वा यथा प्रलम्बग्रहणं 25 भवति तथा वक्तव्यम् । 'द्रव्यग्रहणं वा' लेपादिद्रव्योपादानमभिधानीयम् । पिष्टस्यापिष्टस्य च प्रलम्बस्य ग्रहणे विधिर्वक्तव्यः । तत आलोचना प्रज्ञापना यतना चाभिधातव्येति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ १०२७ ॥ अथास्या एव भाष्यकृद् व्याख्यानमाह वेजहग एगद्गादिपुच्छणे जा चउक्कउवएसो। इह पुण दव्वें पलंबा, तिनि य पुरिसाऽऽयरियमाई ॥१०२८ ॥ 30 'वैद्याष्टकम्' अष्टौ वैद्याः संविग्ग १ मसंविग्गा २, लिंगी ३ तह सावए ४ अहाभद्दे ५ । अणभिग्गहमिच्छे ६ तर ७, अट्ठमए अन्नतित्थी य ८॥ इति गाथोक्ताः प्रष्टव्याः । एते च मासकल्पप्रकृते ग्लानद्वारे व्याख्यास्यन्ते । एतेषां च प्रच्छने Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १०२४-३० ] प्रथम उद्देशः । ३२३ इयं यतना - वैद्यस्य समीपे एकः प्रच्छको न गच्छति, मा 'यमदण्ड आगतः' इति निमित्तं ग्रहीत् ; द्वावपि न व्रजतः, 'यमदूतावेतौ' इति मननात् ; आदिशब्दात् चत्वारोऽपि न व्रजन्ति, 'नीहरणकारिण एते' इति कृत्वा ; यत एवं ततस्त्रयः पञ्च वा गच्छन्ति इत्यादिको विधिस्तावद् ज्ञेयो यावत् 'किमस्मिन् रोगे प्रतिकर्तव्यम् ?' इति पृष्टः सन् स वैद्यश्चतुष्कोपदेशं दद्यात् । तद्यथा— द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । एते च ग्लानद्वार एव व्याख्यास्यन्ते । इह पुनर्द्रव्यतः प्रलम्बानि, पुरुषाश्च त्रयः 'आचार्यादयः' आचार्योपाध्याय - भिक्षुरूपा द्रष्टव्या इति । तंत्र वैद्यः पृष्टः कदाचिदेवमभिदध्यात् - यादृशं रोगं यूयं कथयत ईदृशस्योपशमनार्थमिदं वनस्पतिजातं ग्लानस्य दातव्यम् ॥ १०२८ ॥ स च वनस्पतिर्यो यस्य रोगस्योपशमनाय प्रभवति तद्विषयं तमभिधित्सुराह - पउमुप्पलें माउलिंगे, एरंडे चैव निंबपत्ते य । पित्तुदय सन्निवाए, वायक्कोवे य सिंभे यं ।। १०२९ ॥ पित्तोदये पद्मोत्पलमौषधम्, सन्निपाते 'मातुलिङ्गं' बीजपूरकम्, वातप्रकोपे एरण्डपत्राणि "सिंभे "त्ति श्लेष्मोदये निम्बपत्राणि ॥। १०२९॥ अथ यदुक्तं “तिन्नि य पुरिसाऽऽयरियमाइ " ( गा० १०२८ ) ति तदेतद् भावयति — गणि-वसभ-गीत- परिणामगा य जाणंति जं जहा दव्वं । इयरे सिं वाउलणा, नायम्मि य भंडि - पोउवमा ।। १०३० ।। योऽसौ ग्लानः स गणी - आचार्यो वृषभः - उपाध्यायो भिक्षुश्चेति त्रयः पुरुषाः । अत्र भिक्षुद्विधा - गीतार्थोऽगीतार्थश्च परिणामकोऽपरिणामको वा । तत्र गणि वृषभ-गीतार्थभिक्षूणां त्रयाणां पुरुषाणां प्राशुकेपणीयेन द्रव्येणाऽऽलेपनादि कर्त्तव्यम् ; यदा प्राशुकमेषणीयं वा न प्राप्यते तदा तदितरेणापि कर्त्तव्यम् । एतेषां च यद् यथा गृहीतं तत् तथैव निवेद्यते, निवेदिते च ते 20 तथैवागमप्रामाण्येन सचित्तमचित्तं वा शुद्धमशुद्धं वा द्रव्यं यद् यस्मिन्नवसरे कल्पते तद् यथावद् जानन्ति । यस्त्वगीतार्थः परं पारिणामिकः सोऽपि यद् यथा क्रियते तत् तथैव परिणामकत्वात् कथितं सद् जानीते | ‘इतरे' अपरिणामकाः सन्तो येऽगीतार्थास्तेषां न कथ्यते, यथा 'अप्राशुकमनेषणीयं वा गृहीतम्' किन्तु तेषां व्याकुलना क्रियते, यथा 'अमुकगृहादात्मार्थं कृतमानीतमिदम्' । अथ कथमपि तैर्ज्ञातं यथा 'एतदप्राशुकमनेषणीयं वा' ततो ज्ञाते सति भण्डी - गन्त्री 25 पोतः - प्रवहणं तदुपमा कर्त्तव्या । यथा जा एगदेसे अददा उ मंडी, सीलप्पए सा उ करेति कज्जं । जा दुब्बला सीलविया वि संती, न तं तु सीलेंति विसिन्नदारुं ॥ [नि.भा.४८९३ ] (कल्पबृहद्भाष्ये ) 'शीलाप्यते' समारच्यते इत्यर्थः । तथा— जो गदेसे अदढो उ पोतो, सीलप्पए सो उ करेइ कज्जं । 10 १ एतश्च भा० ॥ २ स्यते भा० ॥ ३ स च वै भा० ॥ ४ 'त्राणि । एतानि चतुर्ष्वपि रोगेषु यथासङ्ख्यमौषधानि ॥ १०२९ ॥ भा० ॥ 15 30 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् २ जो दुब्बलो सीलविओ वि संतो, न तं तु सीलेंति विसिन्नदारुं ॥ __ (कल्पबृहद्भाष्ये) एवं त्वमपि यदि जानीषे-- 'अहं प्रगुणीभविष्यामि, प्रगुणीभूतश्च प्रायश्चित्तं वोढास्मि, अपरं च खाध्याय-वैयावृत्य-तपःप्रभृतिभिरधिकं लाभमुपार्जयिष्यामि' इति तत इदं प्रतिसेवख 5 अकल्पनीयम् ; अर्थतेषामसमर्थस्ततो मा प्रतिसेवखेति ॥ १०३० ॥ गतं वैद्यप्रच्छन-यतनापुरुषलक्षणं द्वारत्रयम् । अथ लिङ्गादीनि सर्वाण्यपि द्वाराणि गाथाद्वयेन भावयति सो पुण आलेवो वा, हवेज आहारिमं व मिस्सियरं ।। पुव्वं तु पिट्ठगहणं, विगरण जं पुव्वछिन्नं वा ॥ १०३१ ॥ भावियकुलेसु गहणं, तेसऽसति सलिंगें गेण्हणाऽवन्नो।। 10 विकरणकरणालोयण, अमुगगिहे पच्चओ गीते ॥ १०३२॥ यो वनस्पतिभेदो व्रणादौ पित्तोदयादौ वा उपयुज्यते स पुनरालेपो वा स्यात् , बहिः पिण्डीप्रदानादिक इत्यर्थः, 'आहारिमं वा' बीजपूरादिकम् । तच्चोभयमपि प्रथमतोऽचित्तम् , तदलाभे मिश्रम् , तस्याप्यभावे 'इतरत्' सचित्तम् । अथवा 'मिथ' नाम यद् आलेप आहारयितव्यं च भवति, 'इतरत्' नाम यन्नालेपो नाहारयितव्यम् । तच्च स्पर्शेन स्पर्शनीयं वा स्यात् पद्मोत्पलवद, 15 नासिकया आघ्रातव्यं वा भवेत् पुप्पादिवत् । एतावता द्रव्यग्रहणद्वारं व्याख्यातम् । अथ पिष्टापिष्ट द्वारम्-तत्राऽऽलेपादिकं सर्वमपि यत् पूर्वपिष्टं लभ्यते तस्य ग्रहणं कर्त्तव्यम् , पूर्वपिष्टस्यालाभे तृतीयेनापि भङ्गेन, तस्याप्यलाभे द्वितीयेन, तस्याप्यसति प्रथमभङ्गेन यत् पूर्वच्छिन्नं तद् विकरणं कृत्वा ग्राह्यम् , विविधम्-अनेकप्रकारं करणं-खण्डनं यस्य तद् विकरणम् , तत् तादृशं चानीय पेषणीयम् । एतेन च यदधस्तादुक्तं "इयरे गहणं कहं होजा' (गा० १००२) 20 इति तद् एवं भवेदिति प्रतिपत्तव्यम् ॥ १०३१ ॥ ___अथ पूर्वच्छिन्नं न लभ्यते तत आत्मनाऽपि च्छिन्दन्ति । तच्च पूर्वच्छिन्नं भावितकुलेषु ग्रहीतव्यम् । तत्र यानि श्राद्धकुलानि माता-पितृसमानानि साधूनामपवादपदेऽप्राशुकादिकं गृह्णतामनुड्डाहकारीणि तानि भावितकुलान्युच्यन्ते । तेषामसति यद्यभावितकुलेषु वलिङ्गेन गृह्णाति ततो महानवों भवति, अतस्तेप्वन्यलिङ्गेन ग्रहीतव्यमिति लिङ्गद्वारमपि व्याख्यातम् । अथवा भावि25 तकुलानामभावे यानि सुप्रज्ञापनीयानि कुलानि तानि प्रज्ञाप्य मार्गयति गृह्णाति च, एषा प्रज्ञापना मन्तव्या । एतानि पुनः प्रथम-द्वितीयभङ्गवर्तीनि प्रलम्बानि यत्र गृहीतानि तत्रैव विकरणानि कृत्वा आनीय गुरुसमीपे आलोचयति अगीतार्थप्रत्ययनिमित्तम् , यथा-अमुकस्य गृहे स्वार्थ कृतानि मया लब्धानीत्येषा आलोचना । यतना तु सर्वथा पूर्वच्छिन्नानामलामे खयमपि च्छेत्तव्यानि, तानि च प्रथमं परीत्तानि, ततोऽनन्तान्यपि, पूर्व स्वलिङ्गेन, तत इतरेणापि 30॥ १०३२ ॥ एतच्च निर्ग्रन्थानाश्रित्य भणितम् । अथ निम्रन्थीनां विधिमतिदिशन्नाह एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि नवरि छ भंगा। आमे भिन्नाभिन्ने, जाव उ पउमुप्पलाईणि ॥ १०३३ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथाः १०३१--३५ ] प्रथम उद्देशः । ३२५ एष एव गमो नियमाद् निर्ग्रन्थीनामपि ज्ञातव्यो यावत् पद्मोत्पलादीनि “पउमुप्पल माउ - लिंगे” ( गा० १०२९ ) इत्यादिगाथां यावत् । एतच्च निर्युक्तिमङ्गीकृत्योक्तम्, भाष्यमाश्रित्य तु — “अमुगगिहे पच्चओ गीए" ( गा० १०३२) त्ति पर्यन्तं द्रष्टव्यम् | नवरं तासामा प्रलम्बे भिन्ना-ऽभिन्नपदाभ्यां विधिभिन्नाऽविधिभिन्नपदसहिताभ्यां षड् भङ्गाः कर्त्तव्याः, ते चानन्तरसूत्रे स्वस्थान एव भावयिष्यन्ते || १०३३ || सूत्रम् atus निग्गंथाणं पक्के तालपलंबे भिन्ने वा अभिन्ने वा पडिगाहित्तए ३ ॥ तथा- नो कous निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए ४ ॥ atus निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए, से विय विहिभिन्ने नो चेव णं अविह्निभिन्ने ५ ॥ नाठवणा पकं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं । [ नि. ४८९८-४९४८ ] उस्सेइमाइ तं चिय, पक्किंधणजोगतो पक्कं ।। १०३४ ॥ नामपक्कं स्थापनापकं द्रव्यपक्कं भावपक्कं च भवति ज्ञातव्यम् । तत्र नाम - स्थापने गतार्थे । द्रव्यपक्कं तदेवोत्खेदिमादिकं यद् आमं भणितम् । किमुक्तं भवति ? - यद् द्रव्यामं उत्खेदिमसंखेदिमोपस्कृतपर्यायामभेदात् चतुर्द्धा भणितम् तदेव यदा इन्धनसंयोगात् पक्कमुपजायते तदा द्रव्यपकं मन्तव्यम् ॥ १०३४ ॥ गतं द्रव्यपक्वम् । भावपकमाह तानि त्रीणि सूत्राणि समकमेव व्याख्यायन्ते —— कल्पते निर्ग्रन्थानां पक्कं तालप्रलम्बं द्रव्यतो भिन्नं वा अभिन्नं वा प्रतिग्रहीतुम् ३ । नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां पक्कं तालप्रलम्बमभिन्नं प्रतिग्रही - 15 तुम ४ । कल्पते निर्ग्रन्थीनां पक्कं तालप्रलम्वं द्रव्यतो भिन्नं प्रतिग्रहीतुम्, तदपि च 'विधिभिन्नं' विधिना - वक्ष्यमाणलक्षणेन भिन्नं विदारितम्, नैव 'णं' वाक्यालङ्कारे अविधिभिन्नमिति सूत्रार्थः ५ || अथ निर्युक्तिविस्तरः संजम - चरित्तजोगा, उग्गमसोही य भावपकं तु । अन्नो वि य आएसो, निरुवकमजीव मरणं तु ॥ १०३५ ।। संयमयोगाः -प्रत्युपेक्षणादयश्चारित्रं च मूलोत्तरगुणरूपं सुविशुद्धं भावपकमुच्यते । गाथायां बन्धानुलोम्येन चारित्रशब्दस्य व्यत्यासेन निर्देशः । यद्वा या उद्मादीनां दोषाणां शुद्धिस्तद् भाव 5 त्ति १ " एसेव० गाथा | जथा णिग्गंथाणं तथा णिग्गंथीण वि जाव 'जाव उपमुप्पलादीणि' ( गा० १०३३ ) ति पुरातना गाथा, साम्प्रत पुनर्विभाषागाथाभियावत् जतणा यत्ति सम्मत्ता ||" इति चूर्णिः ॥ २ "एतं सुत्ते एगठ्ठे चेव भण्णति । मुत्तत्थो पुव्ववण्णितो । णिज्जुत्तिअत्थो इमो - णामं० गाधा" इति चूर्णो ॥ ३ वा भा० विना ॥ ४ 'नुलोम्यात्तु चा' भा० ॥ 10 20 25 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् ३-५ पक्कम् । अन्योऽप्यादेशो वर्त्तते—येन यद् आयुष्कं निर्वर्तितं तत् सर्वमनुपाल्य प्रियमाणस्य निरुपक्रमायुर्जीवस्य यद मरणं तद् भावपक्कम् । अत्र च द्रव्यपक्केणाधिकारः, तत्रापि पर्यायपक्केण, तत्रापि वृक्षपर्यायपक्केणेति ॥ १०३५॥ गतं पक्कपदम् । अथ भिन्ना-ऽभिन्नपदे व्याचष्टे पक्के भिन्ना-भिन्ने, समणाण वि दोसों किं तु समणीणं । समणे लहुओ मासो, विकडुमाई य ते चेव ॥ १०३६ ॥ 'पक्वं' यद् निर्जीवं तद् द्रव्यतो भिन्नं वा स्यादभिन्नं वा, तत्रोभयेऽपि श्रमणानामपि दोषो भवति 'किं तु किं पुनः श्रमणीनाम् ? । श्रमणा यदि गृह्णन्ति ततो मासलघु द्वाभ्यामपि तपः-कालाभ्यां लघुकम् , विकटुभ-पलिमन्थादयश्च त एव दोषाः ॥ १०३६ ॥ इदमेव स्फुटतरमाह10 आणादि रसपसंगा, दोसा ते चेव जे पढमसुत्ते । इह पुण सुत्तनिवाओ, ततिय-चउत्थेसु भंगेसु ॥ १०३७ ॥ आज्ञादयो रसप्रसङ्गादयश्च दोषास्त एव पक्कप्रलम्बग्रहणेऽपि भवन्ति ये प्रथमसूत्रे अभिहिताः । यद्येवं ततः सूत्रमपार्थकमित्याह-इह पुनः सूत्रनिपातस्तृतीय-चतुर्थयोर्भङ्गयोर्भवति, भावतो भिन्नमिति कृत्वा तृतीय-चतुर्थरूपं भङ्गद्वयमधिकृत्य सूत्रं प्रवृत्तमिति भावः ॥ १०३७ ॥ एमेव संजईण वि, विकडुभ-पलिमंथमाइया दोसा। कम्माईया य तहा, अविभिन्ने अविहिभिन्ने य ॥१०३८ ॥ - एवमेव संयतीनामपि विकटुभ-पलिमन्थादयो दोषाः । तथा अविभिन्नेऽविधिभिन्ने च प्रलम्बे हस्तकर्मादयः सविशेषा दोषा मन्तव्याः, अतस्तासां विधिभिन्नमेव कल्पते नाविधिभिन्नम् ।।१०३८॥ ___अत्र च षड्भङ्गीमाह- . विहि-अविहीभिन्नम्मि य, समणीणं होंतिमे उ छ भंगा। पढमं दोहि अभिन्नं, अविहि-विही दव्य विइ-तइए ॥ १०३९ ॥ एमेव भावतो वि य, भिन्ने तत्थेक्क दव्वओं अभिन्न । पंचम-छट्टे दोहि वि, नवरं पुण पंचमे अविही ॥ १०४० ॥ "से वि य विहिभिन्ने नो चेव णं अविहिभिन्ने" ( उ० १ सू० ५) इत्यत्र श्रमणीनां 25 सूत्रे इमे षड् भङ्गा भवन्ति । “पढमं" इत्यादि, प्रथमं 'द्वाभ्यामपि' भावतोऽपि द्रव्यतोऽप्यभिन्नम् , द्वितीयं भावतोऽभिन्नं द्रव्यतोऽविधिभिन्नम् , तृतीयं भावतोऽभिन्नं द्रव्यतो विधिभिन्नम् ॥१०३९॥ ____ एवमेव भावतो भिन्नेऽपि भङ्गत्रयम् । तत्रैकं चतुर्थ भावतो भिन्नं द्रव्यतोऽभिन्नम् , पञ्चमषष्ठौ भङ्गो द्वाभ्यामपि भिन्नौ, 'नवरं' केवलं पञ्चमेऽविधिभिन्नम् , भावतो भिन्नं द्रव्यतोऽविधिभिन्नमिति भावः । अर्थादापन्नं षष्ठे भावतो भिन्नं द्रव्यतो विधिभिन्नमिति ॥ १०४० ॥ 30 अर्थ षट्खपि भनेषु यथाक्रमं प्रायश्चित्तमाह लहुगा तीसु परित्ते, लहुओ मासो उ तीसु भंगेसु । गुरुगा होति अणंते, पच्छित्ता संजईणं तु ॥ १०४१ ॥ १य छ मंगा होंतिमे उ समणीणं ता० ॥ २ य ता०॥ 20 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १०३६-४५] प्रथम उद्देशः । ३२७ आयेषु त्रिषु भङ्गेषु परीत्तवनस्पतौ चत्वारो लघुकाः प्राग्वत् तपः-कालविशेषिताः, भावतोऽभिन्नत्वात् । उत्तरेषु त्रिषु भङ्गेषु परीत्तवनस्पतावेव लघुको मासस्तपः-कालविशेषितः प्राग्वत् , भावतो भिन्नत्वात् । अनन्तवनस्पतौ तु त एव गुरुकाः कर्तव्याः, चत्वारो गुरवो गुरुमासाश्चेति भावः । इत्थं पट्खपि भङ्गेषु संयतीनां प्रायश्चित्तानि द्रष्टव्यानि ॥ १०४१ ॥ अथ हस्तकर्मसम्भवा-ऽसम्भवौ चेतसि व्यवस्थाप्य प्रकारान्तरेणात्रैव प्रायश्चित्तमाह- 5 अहवा गुरुगा गुरुगा, लहुगा गुरुगा य पंचमे गुरुगा । छट्ठम्मि हवति लहुतो, लहुगत्थाणे गुरूऽणते ॥ १०४२ ॥ अथवा प्रथमे भने गुरुकाः, अभिन्नत्वात् । द्वितीयेऽपि गुरुकाः, अविधिभिन्नत्वात् । तृतीये लघुकाः, विधिभिन्नत्वात् । चतुर्थे गुरुकाः, अभिन्नत्वात् । पञ्चमेऽपि गुरुकाः, अविधिभिन्नत्वात् । षष्ठे लघुको मासः, विधिभिन्नत्वाद् अचित्तत्वाच्च । एतच्च परीत्ते भणितम् । अनन्ते तु लघुक-10 स्थाने गुरुकम् , यत्र चतुर्लघवस्तत्र चतुर्गुरवो यत्र लघुमासस्तत्र गुरुमास इत्यर्थः ॥ १०४२ ॥ आयरिओं पवत्तिणीए, पवित्तिणी भिक्खूणीण न कहेइ। गुरुगा लहुगा लहुओ, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ १०४३ ॥ गेण्हंतीणं गुरुगा, पवत्तिणीए पवत्तिणी जइ वा । न सुणेती गुरुगाती, मासलहू भिक्खुणी जाव ॥ १०४४ ॥ 18 एतत् प्रलम्बसूत्रमाचार्यः प्रवर्त्तिन्या न कथयति चत्वारो गुरवः । प्रवर्तिनी भिक्षुणीनां न कथयति चत्वारो लघवः । यदि भिक्षुण्यो न शृण्वन्ति ततो लघुमासः । 'तत्रापि' अकथनेऽश्रवणे वा आज्ञादयो दोषाः ॥ १०४३ ॥ यदि भिक्षुणीनां प्रलम्बं गृह्णतीनां प्रवर्तिनी सारणादिकं न करोति तदा प्रवर्तिन्याश्चत्वारो गुरवः । प्रवर्तिनी यद्याचार्याणां कथयतां न शृणोति तदा चत्वारो गुरवः । प्रवर्त्तिन्याः पार्श्वे 20 गणावच्छेदिनी न शृणोति चत्वारो लघवः । अभिषेका न शृणोति मासगुरु । भिक्षुणी न शृणोति मासलघु ॥ १०४४ ॥ अथ निम्रन्थीरधिकृत्य द्वारगाथामाह अभिन्ने महव्वयपुच्छा, मिच्छत्त विराहणा य देवीए ।। किं पुण ता दुविहाओ, भुत्तभोगी अभुत्ता य ॥१०४५॥ अभिन्ने महाव्रतपृच्छा कर्तव्या । तथा अङ्गादानसदृशमभिन्नं प्रलम्बं गृह्णती निर्ग्रन्थीं दृष्ट्वा 25 कश्चिद् मिथ्यात्वं व्रजेत्--यदेषा अङ्गादानाकारमेवंविधं फलं गृह्णाति तद् नूनमेतेषां तीर्थकृता नैष दोषो दृष्टः, असर्वज्ञ एवामीषां गुरुरित्यादि । विराधना भवेत् । तत्र च देव्या दृष्टान्तो वक्तव्यः । यदि च तस्या अपि देव्याः प्रतिसेवनाकौतुकं समजनि किं पुनः श्रमणीनाम् ? इति वक्तव्यम् । ताश्च श्रमण्यो द्विविधाः-भुक्तभोगिन्योऽभुक्तभोगिन्यश्चेति समासार्थः ॥ १०४५ ॥ ___ अथ विस्तरार्थोऽभिधीयते-तत्र प्रथममभिन्ने महाव्रतपृच्छाद्वारम् , शिष्यः पृच्छति--30 निम्रन्थानां भिन्नमभिन्नं वा पक्कं कल्पते, निर्ग्रन्थीनां पुनर्भिन्नमेव कल्पते नाभिन्नम् तदपि विधिभिन्नमित्यत्र यथा भेदस्तथा किमेवं महाव्रतेष्वपि तासां भेदः ?; यथा किल तच्चन्निकानां मते मिथूणामर्द्धतृतीयानि शिक्षापदशतानि भिक्षुणीनां पञ्च शिक्षापदशतानि, एवं किं निम्रन्थी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ३२८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् ३-५ नामपि षण्महाव्रतानि दश वा येनैवमभिधीयते ? उच्यते __न वि छम्महव्वया नेव दुगुणिया जह उ भिक्खुणीवग्गे । ____ बंभवयरक्खणट्ठा, न कप्पती तं तु समणीणं ॥१०४६ ॥ नापि निर्ग्रन्थीनां षड् महाव्रतानि, नैव साधूनां सम्बन्धिभ्यः पञ्च महाव्रतेभ्यः 'द्विगुणि5 तानि' दशेत्यर्थः, यथा सौगतानां मते भिक्षुणीवर्गे द्विगुणानि शिक्षापदानि भवन्ति न तथाऽत्र किन्तु पञ्चैवेति भावः । यद्येवं तर्हि किमर्थमत्र निर्ग्रन्थीनामभिन्नं न कल्पते ? उच्यते-ब्रह्मव्रतरक्षणार्थ 'तत्तु' अभिन्नं श्रमणीनां न कल्पते, मा करकर्मादिकमनेन कार्युरिति कृत्वा ॥ १०४६ ॥ न केवलमत्रैव प्रलम्बे श्रमणीनां विशेषः किन्त्वन्यत्रापीति दर्शयति अन्नत्थ वि जत्थ भवे, एगयरे मेहुणुब्भवो तं तु ।। तस्सेव उ पडिकुटुं, विइयस्सऽन्नेण दोसेणं ॥१०४७॥ अन्यत्रापि यत्र भुक्ते स्पृष्टे वा “एगयरे" इति षष्ठी-सप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदात् 'एकतरस्य' साधुपक्षस्य साध्वीपक्षस्य वा मैथुनोद्भवो भवति तत्तु' वस्तु तस्यैव' विवक्षितपक्षस्य, तुशब्दो मैथुनोद्भवदोषपरिहारार्थमित्यस्यार्थस्य सूचनार्थः, 'प्रतिक्रुष्टं' प्रतिषिद्धम् । द्वितीयस्य तु पक्षस्य तदेव 'अन्येन' असंयमलक्षणेन दोषेण प्रतिषिध्यते ॥ १०४७ ॥ निदर्शनमाह निल्लोम-सलोमऽजिणे, दारुगदंडे सवेंट पाए य। बंभवयरक्खणट्ठा, वीसुं वीसुं कया सुत्ता ॥ १०४८॥ यथा निम्रन्थानां निर्लोमाजिनं स्मृतिकरण-कौतुकादिदोषपरिहारार्थं प्रतिषिद्धम् , निम्रन्थीनां पुनः प्राणिदयानिमित्तमतिरिक्तोपधिभारपरिहारार्थं च तदेव प्रतिषिध्यते; एवं सलोमाजिनं निम्रन्थीनां स्मृतिकरणादिदोषनिवारणार्थम् , निर्ग्रन्थानां पुनस्तदेव प्राणिदयानिमित्तं प्रतिषिद्धम् । 20 दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं सवृन्तपात्रं च निर्ग्रन्थीनां ब्रह्मव्रतानुपालनार्थं निर्ग्रन्थानां पुनरतिरिक्तोपधिदोषपरिहरणार्थं नानुज्ञातम् । एवं ब्रह्मव्रतरक्षणार्थं निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च 'विप्वग् विष्वक्' पृथक् पृथक् सूत्राणि कृतानि ॥ १०४८ ॥ आह कर्मोदयादेव प्राणिनां मैथुनोद्भवो भवति, ततः किमेवं सलोमादिपरिहारः क्रियते ? उच्यते नत्थि अनिदाणओ होइ उब्भवो तेण परिहर निदाणं । ते पुण तुल्ला-ऽतुल्ला, मोहनिदाणा दुपक्खे वि ॥ १०४९ ॥ निदानं कारणमित्येकोऽर्थः, तच्चेहेष्टशब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शात्मकं यत् प्रतीत्य पुरुषवेदादिमोहनीयमुदयमासादयति । तदुक्तम् दबं खेत्तं कालं, भावं च भवं तहा समासज्ज । तस्स समासुद्दिट्टो, उदओ कम्मस्स पंचविहो । 30 ततश्च 'नास्ति' न विद्यते एतद् यद् 'अनिदानकः' निदानमन्तरेण मोहनीयोद्भवो भवति, 'तेन' कारणेन परिहर 'निदानम्' इष्टशब्दादिरूपम् । 'ते पुनः' शब्दादयो मोहनिदानभूता १ भा० विनाऽन्यत्र-तत्तु 'तस्यै त । तत्तत्र वस्तु मो० ले० कां० ॥ २°यादिनि भा० ॥ ३ भवं च भावं तहा मो० ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ भाष्यगाथाः १०४६-५१] प्रथम उद्देशः । द्वयोः पक्षयोः समाहारो द्विपक्षं-स्त्री-पुरुषवर्गद्वयं तस्मिन् द्विपक्षेऽपि मोहोद्भवं प्रति केचित् तुल्याः केचित् त्वतुल्याः ॥ १०४९॥ तानेवाह रस-गंधा तहिं तुल्ला, सद्दाई सेस भय दुपक्खे वि। सरिसे वि होइ दोसो, किं पुण ता विसम वत्थुम्मि ।। १०५० ॥ स्त्रीणां पुरुषाणां च 'तत्र' मोहोद्भवे रस-गन्धास्तुल्याः । किमुक्तं भवति?—यथा स्निग्ध-5 मधुरादिरसैः सक्-चन्दनादिगन्धैश्च पुरुषाणामिन्द्रियाणि मोहोद्रेकभाञ्जि भवन्ति तथा स्त्रीणामपीति मोहोद्भवं प्रति रस-गन्धास्तुल्याः । 'शेषान्' शब्द-रूप-स्पर्शान् ‘भज' विकल्पय 'द्विपक्षेऽपि' उभयपक्षयोरपि । यतः पुरुषस्य पुरुषसम्बन्धिनि शब्दे श्रुते रूपे दृष्टे स्पर्शे च स्पृष्टे मोहोदयो भवेद् वा न वा, यदि भवेन्न तादृशस्तीत्रः, स्त्रीसम्बन्धिनि तु प्रायो भवत्येव तीत्रश्च जायते; स्त्रियास्तु स्त्रीसम्बन्धिषु शब्द-रूप-स्पर्शेपु गोचरमुपागतेषु मोहोडेको भवेद् वा न वा, यदि भवेन्न 10 तादृशस्तीत्रः, पुरुषसम्बन्धिषु तु प्रायो भवत्येव तीव्रश्च भवति । तदेवं सदृशेऽपि स्पर्शादौ वस्तुनि दोषो भवति, किं पुनस्तावद् 'विषमे' विसदृशे वस्तुनि ? इति । यतश्चैवमतः सलोम-निर्लोमादीन्यतुल्यनिदानानि विशेषतः परिहियन्ते; अत एव चात्राभिन्नमविधिभिन्नं च न कल्पते॥१०५०॥ गतमभिन्ने महाव्रतपृच्छेति द्वारम् । मिथ्यात्वंद्वारं तु सुबोधत्वाद् भाष्यकृता न भावितम् । अथ विराधनाद्वारम्-अभिन्नं गृह्णतीनां निर्ग्रन्थीनामात्मनो ब्रह्मव्रतस्य वा विराधना भवेत् । 15 अत्र च देव्या दृष्टान्तः । तमेवाह चीयत्त कक्कडी कोउ कंटक विसप्प समिय सत्थे य । पुणरवि निवेस फोडण, किमु समणि निरोह भुत्तितरा ॥ १०५१ ॥ एगस्स रन्नो महादेवी । तीसे कक्कडियाओ पियाओ । ताओ अ एगो णिउत्तपुरिसो दिणे दिणे आणेति । अण्णया तेण पुरिसेण अहापवित्तीए अंगादाणसंठिया ककडिया आणिता । 20 तीसे देवीए तं कक्कडियं पासेत्ता कोतुयं जायं--पेच्छामि ताव केरिसो फासो त्ति एयाए पडिसेवियाए ? । ताहे ताए सा कक्कडिया पादे बंधिउं सागारियट्ठाणं पडिसेविउमाढत्ता । तीसे कक्कडियाए कंटओ आसी, सो तम्मि सागारिए लग्गो । विसप्पियं च तं । ताहे वेज्जस्स सिढें । ताहे वेज्जेणं समिया मद्दिया, तत्थ निवेसाविया, उट्ठवेत्ता सुसियप्पदेसं चिंधियं । तम्मि पदेसे तीए अपेच्छमाणीए सत्थयं उप्परामुहधार खोहियं । पुणो तेणेवागारेण णिवेसाविया । फोडियं । 25 पूएण समं निग्गओ कंटओ । पउणा जाया । जति ताव तीसे देवीए दंडिएण पडिसेविजमाणीए कोउयं जायं, किमंग पुण समणीणं णिच्चणिरुद्धाण भुत्तभोगीणं अभुत्तभोगीण य?॥ अथ गाथाक्षरार्थ:---राज्ञः कस्यचिद् देव्याः कर्कटिकाः “चीयत्ता” इति प्रीतिकराः, रुच्या इत्यर्थः । अङ्गादानाकारां च कर्कटिकां दृष्ट्वा कौतुकमुत्पन्नम् । ततः प्रतिसेवमानायास्तस्याः कण्टकः सागारिके लग्नः । विसर्पितं च तत् सागारिकम् । ततो वैद्येन 'समिता' कणिका तस्यां 30 मर्दितायां निवेशिता । ततः शुष्कप्रदेशे शस्त्रकं प्रक्षिप्तम् । ततः पुनरपि तथैव निवेश्य तेन शस्त्रकेण सागारिकस्य पाटने कृते पूयेन समं कण्टके निर्गते प्रगुणीकृता । यदि तस्या अप्येवं१फोडण ता. विना ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० 10 सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् ३-५ विधं कौतुकमजनिष्ट, किं पुनः श्रमणीनां नित्यनिरोधानां भुक्तानाम् 'इतरासां वा' अभुक्तानाम् ॥ १०५१ ॥ इदमेव स्पष्टयन्नाह कसिणाविहिभिन्नम्मि य, गुरुगा भुत्ताण होइ सइकरणं । इयरासि कोउगाई, धिप्पंते जं च उड्डाहो ॥ १०५२ ॥ 5 कृत्स्नम्-अभिन्नं तत्र अविधिभिन्ने च श्रमणीनां चत्वारो गुरुकाः, भुक्तभोगिनीनां स्मृतिकर णम् इतरासां कौतुकादयो दोषा भवन्ति । तस्मिंश्चाङ्गादानाकारे गृह्यमाणे यश्चोड्डाहो भवति यथा 'नूनमेतेनैषा पादकर्म करिष्यति' तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तम् ॥ १०५२ ॥ तेन च प्रलम्बेन सा पादकर्म कृत्वा चिन्तयति जइ ताव पलंबाणं, सहत्थणुनाण एरिसो फासो । किं पुण गाढालिंगण, इयरम्मि उ निद्दओच्छुद्धे ॥१०५३ ॥ यदि तावत् प्रलम्बानां खहस्तेन नुन्नानां-"गुदंत् प्रेरणे" प्रेरितानामित्यर्थः ईदृशः स्पर्शः, किं पुनर्गाढालिङ्गनेन 'इतरस्मिन्' अङ्गादाने पुरुषेण “निद्दओच्छुद्धे" ति निर्दयं यथा भवत्येवम् उत्-प्राबल्येन क्षिप्ते सति स्पर्शो भविष्यति ? इति ॥ १०५३ ॥ ततश्चेत्थं विचिन्त्योदीर्णप्रबलमोहनीयकर्मा सा इदं कुर्यात्15 __ पडिगमणमन्नतिथिग, सिंद्धे संजय सलिंग हत्थे य । वेहाणस ओहाणे, एमेव अभुत्तभोगी वि ॥ १०५४ ॥ काचित् पार्श्वस्थादिभ्यः समागता भवेत् साऽपि तत्रैव प्रतिगच्छेत् , अन्यतीर्थिकेन वा सिद्धपुत्रेण वाऽऽत्मानं प्रतिसेवयेत् , संयतं वा उपसर्गयेत् , एतानि खलिङ्गे स्थिता कुर्यात् । हस्तकर्म वा भूयोभूयः कुर्यात् , यद्वा 'मैया व्रतानि भग्नानि' इति कृत्वा 'कथङ्कारं वा द्राधीयःकालपरि20 पालितं शीलरत्नमहं भङ्ख्यामि ?' इति निर्वेददूनमानसा वैहायसं मरणं विदध्यात्, अथवा प्रबलमोहपरवशा अवधावनं विदध्यात् । एतानि पदानि भुक्तभोगिनी कुर्यात् । अभुक्तभोगिन्यप्येवमेव कुर्यात् ॥ १०५४ ॥ शिष्यः प्रश्नयति-न जानीमहे वयं कीदृशमविधिभिन्नम् ? कीदृशं वा विधिभिन्नम् ! इति । सूरिराह भिन्नस्स परूवणया, उजुत तह चक्कली विसमकोट्टे । ते चेव अविहिमिन्ने, अभिनें जे वन्निया दोसा ।। १०५५ ॥ असंयमदोषनिवर्त्तनार्थमविधिना विधिना च भिन्नस्य प्ररूपणा क्रियते । तत्र यत् चिर्भटादिकं विदार्य ऊर्द्ध फालिरूपाः पेश्यः कृतं तद् ऋजुकभिन्नम् , यत् पुनस्तिर्यग् बृहत्यः कत्तलिकाः कृतं तत् चक्कलिकाभिन्नम् , एते द्वे अप्यविधिभिन्ने मन्तव्ये । यत् तु पेश्यः कृत्वा पुनः श्लक्ष्णश्लक्ष्णत रादिभिः खण्डैरनेकशश्छित्त्वा तथा कृतं यथा भूयस्तदाकारं कर्तुं न पार्यते तदेवंविधं विषमकुट्ट30भिन्नमुच्यते, विषमैः-पुनस्तथाकर्तुमशक्यैः कुट्टैः-श्लक्ष्णखण्डैर्भिन्नमिति व्युत्पत्तेः । एतच्च विधि भिन्नम् । अत्र चाविधिभिन्ने त एव दोषा द्रष्टव्या येऽभिन्ने देवीदृष्टान्तेन वर्णिताः ॥१०५५ ॥ ___ कथम् ? इति चेद् उच्यते १फरिसो मो० ले० ॥ २ “वयाणि मे भग्गाणि त्ति काउं 'कहं वा उडाहं काहं ?' ति वेहाणसं करेज्जा, उदन्धनमित्यर्थः । 'खंडितव्वता मि' त्ति काउं ओहाइजा, उप्पव्वएज त्ति भणितं होति" 25 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १०५२-६०] प्रथम उद्देशः । ३३१ कद्वेण व सुत्तेण व, संदाणिते अविहिभिन्न ते चेव । सविसेसतर व्व भवे, वेउव्वियभुत्तइत्थींणं ।। १०५६ ॥ 'काष्ठेन वा' शलाकादिना ‘सूत्रेण वा' दवरकादिना 'सन्दानिते' सङ्घातिते पूर्वाकारं स्थापिते इत्यर्थः, अविधिभिन्ने त एव दोषा ज्ञातव्या येऽभिन्ने भणिताः । सविशेषतरा वा भवेयुः, कथम् ? इत्याह-'विकुर्वितं' बेण्टकाद्याभरणेनालङ्कृतं यदङ्गादानं तेन याः स्त्रियो भुक्तपूर्वास्तासां प्रत्र-5 जितानां तत्र काष्ठादिसन्दानितप्रलम्बे विकुर्विताङ्गादानकल्पे दृष्टे समधिकतरा दोषा उपढौकन्ते (ग्रन्थानम्-४०००) ॥ १०५६ ॥ अथार्थतः कारणिकं सूत्रमुपदर्शयन्नाह विहिभिन्नं पि न कप्पइ, लहुओ मासो उ दोस आणाई । तं कप्पती न कप्पइ, निरत्थगं कारणं किं तं ॥१०५७ ॥ यदपि सूत्रे विधिभिन्नमनुज्ञातं तदपि न कल्पते । यदि गृहन्ति ततो मासलघु आज्ञादयश्च 10 दोषाः । आह ननु सूत्रे भणितं 'तद्' विधिभिन्नं कल्पते ? गुरुराह-यद्यपि सूत्रे अनुज्ञातं तथापि न कल्पते । यद्येवं तर्हि निरर्थकं सूत्रम् , नैवम् , कारणिकं सूत्रम् । आह किं पुनः तत् कारणं यदद्यापि नाभिधीयते ॥ १०५७ ॥ उच्यते, ब्रूमः गेलन्नद्धाणोमे, तिविहं पुण कारणं समासेणं । गेलन्ने पुन्बुत्तं, अद्धाणुवरि इमं ओमे ॥ १०५८॥ 15 म्लानत्वम् अध्वा अवमौदर्यम् , एतत् 'समासेन' सङ्केपेण त्रिविधं कारणम् । तत्र ग्लानत्वे इहैव प्रलम्बप्रकृते "विजे पुच्छण जयणा" (गा० १०२७) इत्यादि पूर्वोक्तं द्रष्टव्यम् । अध्वनि तु 'उपरि' अध्वसूत्रे इहैवोद्देशके भणिष्यते । 'इदम्' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणम् अवमे द्रष्टव्यम् ॥ १०५८ ॥ निग्गंथीणं भिनं, निग्गंथाणं च भिन्न भिन्नं तु । 20 जह कप्पइ दोण्हं पी, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ १०५९ ॥ निर्ग्रन्थीनां नियमाद् विधिना षष्ठे भङ्गे भिन्नम् , निम्रन्थानां च चतुर्थ-तृतीययोर्भङ्गयोभिन्नमभिन्नं वा, यथा द्वयोरपि वर्गयोः कल्पते तदहं वक्ष्ये समासेन ॥ १०५९ ॥ यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-- ओमम्मि तोसलीए, दोण्ह वि वग्गाण दोसु खेत्तेसु । जयणट्टियाण गहणं, भिन्नाभिन्न व जयणाए ॥१०६०॥ अवमकाले साधवः साध्व्यश्च तोसलिविषयं गत्वा स्थिताः । तत्र द्वावपि वर्गों द्वयोः क्षेत्रयोः स्थितौ, एकस्मिन् क्षेत्रे संयता द्वितीयस्मिन् संयत्य इत्यर्थः । तथा यदुत्सर्गत एकत्र क्षेत्रे मिलितो नावतिष्ठेते एषैव यतना तया स्थितौ यतनास्थितौ, यद्वा साधु-साध्वीप्रायोग्यं विधिं ग्राहयित्वा यौ स्थितौ तौ यतनास्थितौ, तयोरेवंस्थितयोः 'यतनया' वक्ष्यमाणया भिन्नस्याभिन्नस्य वा ग्रहणं 30 कल्पते ॥ १०६० ॥ आह कोऽयं नियमो येन तोसलेरेव ग्रहणं कृतम् ? उच्यते __ आणुग जंगल देसे, वासेण विणा वि तोसलिग्गहणं । . १°दर्यम् इति 'समा मो० ॥ 25 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् ३-५ पायं च तत्थ वासति, पउरपलंबो उ अन्नो वि ।। १०६१ ॥ देशो द्विघा - अनूपो जङ्गलश्च । नद्यादिपानीयबहुलोऽनूपः, तद्विपरीतो जङ्गलः निर्जल इत्यर्थः । यद्वा अनूपो अजङ्गल इति पर्यायौ । तत्रायं तोसलिदेशो यतोऽनूपो यतश्चास्मिन् देशे वर्षेण विनाऽपि सारणीपानीयैः सस्यनिप्पत्तिः; अपरं च 'तत्र' तोसलिदेशे 'प्रायः ' बाहुल्येन वर्षति ततोऽतिपानीयेन विनष्टेषु सस्येषु प्रलम्बोपभोगो भवति; अन्यच्च तोसलिः प्रचुरप्रलम्बः, तत एतैः कारणैस्तोसलिग्रहणं कृतम् । अन्योऽपि य ईदृशः प्रचुरप्रलम्बस्तत्राप्येष एव विधिः ॥ १०६१ ॥ पुच्छ सहु-भीयपरिसे, चउभंगे पढमए अणुन्नाओ । सेस तिए नाणुन्ना, गुरुगा परियट्टणे जं च ॥ १०६२ ॥ "पुच्छ" ति शिष्यः पृच्छति — यदुक्तं भवद्भिः 'द्वयोर्वर्गयोः क्षेत्रद्वये स्थितयोः ' ( गा० 10 १०६० ) इत्यादि तत्र संयतीनां पृथक् क्षेत्रे स्थितानां व्यापारो वोढुं दुःशको भवति, दोषदर्शिनश्च यूयं पृथक्षेत्रे स्थापयथ, यतश्च दोषाः समुत्पद्यन्ते तत् प्रेक्षावतां नोपादातुमुचितम्, प्रवचने च तत्र तत्र प्रदेशे संयत्यः प्रत्राजनीया उक्ता एव, अतः पर्यनुयुज्यते किं परिवर्त्तयितव्याः संयत्यः ? उत न ? इति । गुरुराह- - नास्त्यत्र कोsपि नियमो यदवश्यमेव परिवर्त्तयितव्या न वेति, यदि पुनः प्रव्राज्य न्यायतः परिवर्तयति ततो महतीं कर्मनिर्जरामासादयति, अथान्यायतः परि16 वर्त्तयति ततो महामोहमुपचित्य दीर्घसंसारसम्पातभाग् भवति । तर्हि कीदृशेन परिवर्त्तयितव्याः ? उच्यते-- “ सहु - मीयपरिसे" त्ति सहिष्णुर्भीतपर्षदिति पदद्वयेन चतुर्भङ्गी, सा चेयम् - सहिष्णुरपि मीतपर्षदपि १, सहिष्णुर्न मीतपरिषत् २, असहिष्णुः परं भीतपरिषद् ३, असहिष्णुरभीतपरिषच्चेति ४ । तत्रेन्द्रियनिग्रहसमर्थः संयतीप्रायोग्य क्षेत्र-वस्त्र- पात्रादीनामुत्पादनायां प्रभविष्णुः सहिष्णुरुच्यते । यस्य तु सर्वोऽपि साधु-साध्वीवर्गो भयान्न कामप्यक्रियां करोति स भीतपरि20 षत् । तत्र प्रथमभङ्गे वर्त्तमानः परिवर्तनायामनुज्ञातः, शेषेषु त्रिषु भङ्गेषु वर्त्तमानो नानुज्ञातः, यदि परिवर्त्तयति तदा चत्वारो गुरुकाः । "जं च " ति द्वितीये भने आत्मना सहिष्णुः परमभीतपरिषत्तया स्वच्छन्दप्रचाराः सत्यो यत् किमपि ताः करिष्यन्ति तत् सर्वमयमेव प्राप्नोति । तृतीयभङ्गे तु स्वयमसहिष्णुतया तासामङ्गप्रत्यङ्गादीनि दृष्ट्वा यदाचरति तन्निप्पन्नम् । चतुर्थे भने द्वितीयतृतीयभङ्गदोषानवाप्नोतीति ॥ १०६२ ॥ प्रथमभङ्गवर्त्तिनमुद्दिश्याह 25 --- जइ पुण पव्वावेती, जावजीवाऍ ताउ पालेह | अन्नासति कप्पे वि हु, गुरुगा जं निजरा विउला ।। १०६३ ॥ यदीत्यभ्युपगमे, ततश्चायमर्थः: -- ताः प्रथमतोऽपि यतस्ततः प्रत्राजयितुं न कल्पन्ते । यदि पुनः प्रव्राजयति ततो यथोक्तविधिना यावज्जीवं ताः पालयति, योगक्षेमविधानेन सम्यग् निर्वायतीत्यर्थः । स प्रथमभङ्गवर्ती यदि जिनकल्पं प्रतिपित्सुः अपरं चाऽऽर्यिका : परिवर्त्तयितव्याः 30 ततः किं करोतु ? इति चिन्तायां यद्यस्ति तदीये गच्छे कोऽप्यार्यिकाणां विधिना वर्त्तापकस्ततस्तस्य समर्प्य निकल्पं प्रतिपद्यताम्, अथ नास्त्यन्यो वर्त्तापकस्तर्हि मा जिनकल्पप्रतिपत्तिं करोतु किन्त्वार्यिका एव परिवर्तयतु । कुतः ? इत्याह- अन्यस्य वर्त्तापकस्य असति - अभावे जिनकल्पेsपि प्रतिपद्यमाने 'हुः' निश्वये चत्वारो गुरुकाः । आह सकलकर्मक्षयाक्षूणकारणे जिनकल्पेऽपि Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १०६१-६६] प्रथम उद्देशः । ३३३ प्रतिपद्यमाने किमेवं प्रायश्चित्तम् ? इत्याह-'यद्' यस्मात् कारणाद् जिनकल्पं प्रतिपन्नस्य या निर्जरा तस्याः सकाशाद् विपुला निर्जरा यथावत् संयतीः परिपालयतो भवतीति युक्तियुक्तमेव प्रायश्चित्तम् ॥ १०६३ ॥ अथ “जयणट्ठियाण गहणं" ति (गा० १०६०) यदुक्तं तत्र यया यतनया स्थितास्तामाह उभयगणी पेहेङ, जहिँ सुद्धं तत्थ संजती णेति ।। __ असती व जहिं भिन्ना, अभिन्न अविही इमा जयणा ॥१०६४॥ उभयः-साधु-साध्वीवर्गद्वयरूपो गणोऽस्यास्तीत्युभयगणी, स आचार्योऽवमकाले तोसलिप्रभृतिके प्रचुरप्रलम्बे देशे गत्वा गीतार्थेनाऽऽत्मना वा क्षेत्रद्वयं प्रत्युपेक्ष्य ययोः शुद्धं भक्तं लभ्यते न प्रलम्बमिश्रितमित्यर्थः तयोः क्षेत्रयोः पृथग् द्वावपि वर्गौ स्थापयति । यदि द्वे क्षेत्रे ईदृशे न स्तस्ततो यत्र शुद्धं भक्तं प्राप्यते तत्र संयतीः 'नयति' स्थापयति, यत्र पुनः प्रलम्बमिश्रितं तत्रा-10 ऽऽचार्या आत्मना तिष्ठन्ति । अथ नास्ति सर्वथा निर्मिश्रभक्तक्षेत्रं ततो यत्र प्रलम्बमिश्रितं भक्तं लभ्यते तत्र साध्वीः स्थापयन्ति, खयं तु निर्मिश्रप्रलम्बक्षेत्रे तिष्ठन्ति । अथ सर्वेष्वपि क्षेत्रेषु निर्मिश्रप्रलम्बानि प्राप्यन्ते ततः "असई" ति प्रलम्बमिश्रस्याभावे यत्र विधिभिन्नानि प्राप्यन्ते तत्र संयत्यः स्थापनीयाः, खयं पुनरभिन्ना-ऽविधिभिन्नक्षेत्रे तिष्ठन्ति । अथ सर्वेष्वपि क्षेत्रेवभिन्नान्यविधिभिन्नानि वा प्राप्यन्ते लत इयं यतना कर्तव्या ॥ १०६४ ॥ तामेवाह 15 भिन्नाणि देह भित्तूण वा वि असति पुरतो सि भिंदति । ठाविति ताहें समणी, ता चेव जयंति तेसऽसती ॥१०६५॥ यत्र क्षेत्रे संयतीः स्थापयितुकामास्तत् क्षेत्रं साधवः पूर्वमेवेत्थं भावयन्ति–यदा गृहस्थैः प्रलम्बान्यानीतानि भवन्ति तदा साधवो भणन्ति—यानि भिन्नानि तान्यस्मभ्यं दत्त । अथ न सन्ति भिन्नानि, सन्ति वा परं स्तोकानि, तैश्च संस्तरणं न भवतीति परिभाव्य साधवो भणन्ति-20 अस्मभ्यमेतानि भित्त्वा प्रयच्छत, न कल्पन्तेऽस्माकमीदृशानीति । अथ ते गृहस्थाः 'यदि रोचते तत ईशान्येव गृह्णीत' इत्युक्त्वा अभिन्नान्येव प्रयच्छन्ति ततः 'असति' अभावे "सिं" ति तेषां गृहस्थानां पुरतस्तानि प्रलम्बानि भिन्दन्ति भित्त्वा च गृह्णन्ति । एवंविधीयमाने गृहस्थानां चेतसि गाढतरं निश्चय उत्पद्यते, यथा-नूनं न कल्पन्ते अमीषामभिन्नानीति, ततस्ते भिन्नान्येव प्रयच्छन्तीति । एवं यदा तत् क्षेत्रं भावितं भवति तदा तत्र श्रमणीः स्थापयन्ति । 'तेषां' संय- 25 तानाम् 'असति' अभावे व्याप्तेषु वा तेषु क्वापि प्रयोजनान्तरे 'ता एव' संयत्यो यास्तत्र स्थवि. रास्ता एवमेव यतन्ते ॥ १०६५ ॥ भिन्नासति वेलातिकमे व गेहंति थेरिया मिन्ने । दारे भित्तु अतिंति व, ठाणासति भिंदती गणिणी ॥ १०६६ ॥ विधिना भिन्नानामसति, यावद् वा गृहस्थैर्भेदयन्ति आत्मना वा यावत् तत्र भिन्दन्ति तावद् 30 वेलातिक्रमो भवति, ततो याः स्थविरास्ता अभिन्नानि अविधिभिन्नानि वा यास्तु तरुण्यस्ता विधिभिन्नानि गृह्णन्ति । ततः प्रतिनिवृत्ताः स्थविरा अभिन्ना-प्रविधिभिन्नान्युपाश्रयद्वारे भित्त्वा १ भविष्यतीति डे० त० ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् ३-५ विधिभिन्नानि कृत्वा वसतिम् 'अतियान्ति' प्रविशन्तीत्यर्थः । अथ बहिः स्थानं नास्ति ततः स्थानस्य 'असति' अभावे 'गणिनी' प्रवर्त्तिनी तस्यास्तानि समर्प्यन्ते, ततः सा गणिनी तानि ' भिनत्ति ' विधिभिन्नानि करोतीत्यर्थः, कृत्वा च तरुणीनां समुद्देष्टुं ददाति ॥ १०६६ || आह किं कारणं तरुणीनां प्रतिग्रहीतुं समुद्देष्टुं वा अभिन्ना - विधिभिन्नानि न दीयन्ते ! उच्यतेकक्खंतरुक्खवेगच्छियाइस मा हु णूमए तरुणी । 5 'तो भिन्नं छुभति पडिग्गहेसु न य दिजए सयलं ।। १०६७ ।। कक्षाया अन्तरं कक्षान्तरम्, “उक्खो” त्ति परिधानवस्त्रैकदेशः, आह च निशीथचूर्णिकृत् — परिधाणवत्थस्स अब्भितरचूलाए उवरिकण्णो नाभिट्टा उक्खो भणइ ।। वैकक्षिकी-संयतीनामुपकरणविशेषः, एतेषु आदिशब्दादन्यस्मिन्नपि वस्त्रान्तरे तरुणी "मा 10 णूमए” त्ति “छदेर्णेर्णुम-णूम ० " ( सिद्ध० ८-४-२१ ) इति प्राकृतलक्षणाद् मा च्छादयेत् । ततो भिक्षाग्रहणकाले तस्याः प्रतिग्रहेषु भिन्नं प्रक्षिप्यते, न च 'सकलम्' अभिन्नमविधिभिन्नं वा तस्या भोजनकाले दीयते ॥ १०६७ ॥ एवं एसा जयणा, अपरिग्गहिए होइ खेतेसु । तिविहेहिं परिग्गहिए, इमा उ जयणा तहिं होइ ॥ १०६८ ।। 15 एवम् 'एषा' अनन्तरोक्ता यतना अपरिगृहीतेषु क्षेत्रेषु कर्त्तव्या भवति । 'त्रिविधैः ' संयतसंयली- तदुभयैः परिगृहीते “इमा" वक्ष्यमाणा यतना तत्र क्षेत्रे भवति ॥ १०६८ ॥ 20 इदमेव स्फुटतरमाह पुव्वोहि खेते, तिविहेण गणेण जइ गणो तिविहो । जाहि तयं खेत्तं, ओमे जयणा तहिं का णू ॥ १०६९ ।। 'त्रिविधेन' संयत- संयती - तदुभयरूपेण गणेन त्रिविधस्य वाऽन्यतरेण पूर्वमवगृहीते क्षेत्रे यदि त्रिविध एव गणो अवमकाले असंस्तरन् तकं क्षेत्रम् 'एयात्' आगच्छेत्, ततस्तेषामागतानां स्थातव्ये वास्तव्यानां वा अवग्रहे दातव्ये का 'नुः' इति वितर्के यतना ? ||१०६९॥ अत आह— आयरिय-वसभ-अभिसेग - भिक्खुणो पेल्ल लंभे न य देंति । गुरुगा दोहि विसिट्ठा, चउगुरुगाइ व्व जा लहुगो ।। १०७० ॥ यत् संयतपरिगृहीतं क्षेत्रं तदेषामन्यतरेण परिगृहीतं भवेत् । तद्यथा - आचार्येण वा वृषभेण वा अभिषेकेण वा भिक्षुणा वा । ये आगन्तुकास्तेऽप्येवमेव चत्वारो द्रष्टव्याः । संयत्योऽपि वास्तव्याः आगन्तुकाश्चैवमेव चतुर्विधाः । नवरमाचार्यस्थाने प्रवर्त्तिनी वृषभस्थाने गणावच्छेदिनी वक्तव्या । अत्र चाऽऽचार्यः प्रसिद्धः । उपाध्यायो वृषभानुग इति कृत्वा वृषभ उच्यते । यः 25 - १ तासिं न छुभंति पडि भा० । एतत्पाठानुसारेणैव भा० पुस्तके वृत्तिर्वर्त्तते । दृश्यतां टिप्पणी २ ॥ २ तरुण्यः " मा णूमए" त्ति "छदेर्णेणुम-णूम० " ( सिद्ध० ८-४-२१ ) इति प्राकृतलक्षणाद् माच्छादयेयुः तत एतेन कारणेन भिक्षाग्रहणकाले 'तासां' तरुणीनां प्रतिग्रहेषु ‘संकलम्' अभिन्नमविधिभिन्नं वा न क्षिपन्ति न वा तासां भोजनकाले दीयते भा० पुस्तके ॥ ३ 'हेसु परि° ता० ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १०६७-७१ ] प्रथम उद्देशः । ३३५ पुनरित्वराभिषेकेणाऽऽचार्यपदेऽभिषिक्तः स इहाभिषेकः, अथवा गणावच्छेदक इहाभिषेकः । शेषाः सामान्यसाधवो भिक्षवः । एतेषां चेयं चारणिका - आचार्यपरिगृहीते क्षेत्रे यदन्य आचार्य आगतो यदि च स वास्तव्य आचार्यः क्षेत्रे पूर्यमाणे भक्त पाने वा लभ्यमाने आगन्तुकस्य स्थातुं न ददाति तदा चत्वारो गुरवः, अथ न पूर्यते क्षेत्रं स चागन्तुको बलात् प्रेर्य तिष्ठति तस्याप चतुर्गुरुकाः, एतच्च प्रायश्चित्तं तपसा कालेन च द्वाभ्यामपि गुरुकम् ; स एव वास्तव्यक आचार्यो वृषभस्यागन्तुकस्य न ददाति वृषभो वा बलात् तिष्ठति उभयोरपि चत्वारो गुरुकाः तपसा गुरवः कालेन लघवः; स एव वास्तव्य आचार्योऽभिषेकस्यागतस्य स्थानं न ददाति स वा अभिषेको वास्तव्यमाचार्यमवगणय्य तिष्ठति उभयत्रापि चतुर्गुरु तपसा लघु कालेन गुरुकम् ; स एव वास्तव्य आचार्य आगन्तुकस्य भिक्षोरवस्थातुं न प्रयच्छति स वा भिक्षुत्रस्तव्यमाचार्यं बलादवज्ञाय तिष्ठति द्वयोरपि च चत्वारो गुरवस्तपसा कालेन च लघवः । एवमाचार्ये पूर्वस्थिते भणितम् । एवं वृषभा - 10 ऽभिषेक-भिक्षुभिरपि पूर्वस्थितैः प्रत्येकं चत्वारो गमाः कर्त्तव्याः, प्रायश्चित्तमप्येवमेव तपः-कालविशेषितम् । एवमेते सर्वसङ्ख्यया षोडश गमाः । अथवैतेष्वेव षोडशसु गमेषु प्रायश्चित्तप्ररूपणायामयमादेशः ——“चउगुरुगादि व जा लहुगो " त्ति अस्य भावना – आचार्य आचार्यस्यागतस्य स्थातुं न ददाति आगन्तुको वा प्रेरयति द्वयोरपि चत्वारो गुरवः उभयगुरुकाः । आचार्यो वृषभस्य न प्रयच्छति वृपभो वा बलात् तिष्ठति चतुर्लववः तपसा गुरुकाः । आचार्य एवाभिषेकस्य 15 न ददाति अभिषेको वा बलात् प्रेरयति मासगुरु कालेन गुरु । आचार्यः सामान्यभिक्षोरायातस्य स्थातुं नानुजानीते आगन्तुको वा भिक्षुर्वलादेवावतिष्ठते मासलघु उभयलघुकम् । एवं शेषेष्वपि द्वादशसु गमेषु चतुर्गुरुकादिकं लघुमासान्तं तपः - कालविशेषितमेवमेव प्रायश्चित्तम् ॥ १०७० ॥ तदेवं संयतानां संयतैः सह चारणिकया षोडश विकल्पा उक्ताः । अथ शेषविकल्पप्रदर्शनायाहएमेव य भयणा वी, सोलसिया एकमेक पक्खम्मि | उभयम्मि विनायव्वा, पेलमदेते व जं पावे ॥ १०७१ ॥ एवमेवैकैकस्मिन् पक्षे षोडशिका 'भजना' भङ्गरचना कर्त्तव्या । यस्तदुभयरूपो गणो न भवति किन्तु केवल एव संयतपक्षः संयतीपक्षो वा स एकैकपक्षोऽभिधीयते । तत्र संयतानां संयतैः सह प्रथमा षोडशभङ्गी, सा च सप्रपञ्चं भाविता । अथ संयतीभिः परिगृहीते क्षेत्रे अपराः संयत्यः समागच्छन्ति तत्रापि प्रवर्त्तिनी - गणावच्छेदिन्यभिषेका भिक्षुणीभिः पूर्वस्थताभिः सह प्रत्येकमा - 25 गन्तुकप्रवर्त्तिनी-गणावच्छेदिन्यभिषेका भिक्षुणीरूपाणां चतुर्णां पदानां चारणिकां कुर्वाणैरेवमेव षोडश भङ्गा रचयितव्याः, प्रायश्चित्तं चादेशद्वयेनापि तपः- कालविशेषितं तथैव वक्तव्यम् । एषा द्वितीया षोडशभङ्गी । एवं संयतानां चतुर्विधानां पूर्व स्थतानां संयतीभिः चतुर्विधाभिरागच्छन्तीभिरेवमेव तृतीया षोडशभङ्गी । संयतीनां चतुर्विधानां पूर्व स्थितानां संयतैश्चतुर्विधैरेवागच्छद्भिरेवमेव तुरीया षोडशभङ्गी । सर्वसङ्ख्यया जाता भङ्गानां चतुःषष्टिः । एते च केवलसंयत- 30 संयतीपक्षचारणिकया लब्धाः । अथोभयपक्षमधिकृत्याह --- "उभयम्मि वि नायव" ति उभय-शब्देनोभयगणाधिपतिः परिगृह्यते, तत्राप्येवमेव भङ्गरचना ज्ञातव्या । तथाहि - चतुर्विधोभयगणाधिपतिभिः परिगृहीते क्षेत्रे चतुर्विधैरेवागन्तुकसंयतैरागच्छद्भिः पूर्वोक्तनीत्यैव षोडश भङ्गाः, 20 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् ३-५ तथा तैरेव परिगृहीते प्रवर्त्तिन्यादिभेदात् चतुर्विधाः संयत्यो यद्यागच्छेयुस्तदाऽपि षोडश भङ्गाः, चतुर्विधेषु तदुभयगणाधिपतिषु पूर्वस्थितेषु चतुर्विधानामेवोभयगणाधिपतीनामागमनेऽप्येवमपि षोडश भङ्गाः, चतुर्विधसंयतेषु पूर्वस्थितेषु चतुर्विधा उभयगणाधिपतय आगच्छेयुः अत्रापि षोडश भङ्गाः, एवं चतुर्विधसंयतीषु चतुर्विधानामेवोभयगणाधिपतीनामागमने षोडश भङ्गाः । एवमेताः 5 पञ्च षोडशभङ्ग्यः सञ्जाताः, पञ्चभिश्च षोडशभङ्गीभिर्लब्धा भङ्गानामशीतिः । एषा चोभयगणविषया भङ्गकानामशीतिः पूर्वोक्तयैकैकपक्षविषयया भङ्गकचतुःषष्ट्या सह मील्यते जातं चतुश्चत्वारिंशं शतं भङ्गानाम् । प्रायश्चित्तं च सर्वत्र प्राग्वद् द्रष्टव्यम् । “पेल्लमदिंते य ज पावे" ति एतत् पदं सर्वभङ्गानुपाति प्रतिपत्तव्यम् । अपूर्यमाणे क्षेत्रे आगन्तुका यदि बलात् प्रेर्य तिष्ठन्ति ततो वास्तव्या निर्गच्छन्तो अवमौदर्यसमुत्थामात्म-संयमविराधनां यत् प्राप्नुवन्ति तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्त10 मागन्तुकानाम् । अथ वास्तव्याः पूर्यमाणे क्षेत्रे आगन्तुकानां स्थातुं न ददति ततो यद् आगन्तुका बहिःपर्यटन्तो भक्तादिकमलभमाना विराधनां प्राप्नुवन्ति तन्निप्पन्नं वास्तव्यानामापद्यते ॥१०७१॥ आह यद्येवंकुर्वतामेतावत् प्रायश्चित्तकदम्बकमुपढौकते तर्हि साम्प्रतं स्वपक्षस्य दूर दूरेणैव स्थातुं युक्तम् , अत्रोच्यते चउवग्गो वि हु अच्छउ, असंथराऽऽगंतुगा य वचंतु । 15 वत्थव्वा व असंथरे, मोत्तु गिलाणस्स संघाडं ॥ १०७२ ॥ 'चतुर्वर्गः' नाम वास्तव्याः संयताः संयत्यश्च आगन्तुकोः संयताः संयत्यश्च । एते चत्वारोऽपि वर्गा एकस्मिन् क्षेत्रे यदि संस्तरन्ति तर्हि तिष्ठन्तु न कोऽपि परस्परं मत्सरः कर्त्तव्यः । यदि संस्तरणं न भवति तत आगन्तुका वजन्तु । अथागन्तुकभद्रकं तत् क्षेत्रमागन्तुका वा अदेशिका अखेदज्ञा वा ततो वास्तव्या आत्मनस्तेषां वा असंस्तरणे निर्गच्छन्ति । एवमागन्तुका वास्तव्या 20वा ये निर्गच्छन्ति तेषां यदि कश्चिद् ग्लानो भवेत् ततो ग्लानः ससङ्घाटकस्तिष्ठति, तं मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽपि गच्छन्ति ॥ १०७२ ॥ एमेव संजईणं, वुड्डी-तरुणीण जुंगितकमाई। पायादिविगल तरुणी, य अच्छए वुड्डिओ पेसे ॥१०७३ ॥ 'एवमेव' संयतवत् संयतीनां निर्गमनविधिरभिधातव्यः, परमत्र द्विकभेदः कर्तव्यः । कथम् ? 25 इत्याह-वृद्धानां तरुणीनां च मध्ये यदि निप्पत्यपायं ततस्तरुण्यो गच्छन्ति वृद्धा आसते । तथा जुङ्गितानामजुङ्गितानां च जुङ्गितास्तिष्ठन्ति अजुङ्गिता ब्रजन्ति । जुङ्गिता द्विविधाः---जातिजुङ्गिताः शरीरजुङ्गिताश्च । तत्र जातिजुङ्गिता गच्छन्ति शरीरजुङ्गिताः पादादिविकलास्तत्रैवाऽऽसते । तरुण्योऽपि यदि सप्रत्यपायं मार्गादौ ततस्तत्रैवाऽऽसते वृद्धास्तु प्रेषयेत् ॥ १०७३ ॥ एवं तेसि ठियाणं, पत्तेगं वा वि अहव मिस्साणं । ओमम्मि असंथरणे, इमा उ जयणा जहिं पगयं ॥ १०७४ ॥ 'एवम्' अनन्तरोक्तप्रकारेण 'तेषाम्' आचार्यादीनां तत्र क्षेत्रे 'प्रत्येकं वा' एकतरवर्गरूपेण १ का अपि सं° मो० ॥ 30 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ भाष्यगाथाः १०७२-७७] प्रथम उद्देशः । 'मिश्राणां वा' द्विवर्ग-त्रिवर्ग-चतुर्वर्गरूपतया स्थितानां अवमकाले असंस्तरणे इयं यतना यस्यामिदं प्रलम्बसूत्रं प्रकृतम् ॥ १०७४ ॥ तामेवाह-- ओयण-मीसे-निम्मीसुवक्खडे पक्क-आम-पत्तेगे । साधारण सग्गामे, परगामे भावओ वि भए ॥ १०७५ ।। ओदनं १ मिश्रोषस्कृतं २ निर्मिश्रोपस्कृतं ३ पक्कं ४ आमं ५ प्रत्येकं ६ साधारणं ७, एतानि । सप्तापि यथाक्रमं प्रथमं स्वग्रामे ततः परग्रामे ग्रहीतव्यानि । भावतोऽपि यान्यभिन्नानि तान्यपि यतनापरिपाटिप्राप्तानि 'भजेत्' सेवेत गृह्णीयादित्यर्थ इति द्वारगाथासमासार्थः ॥ १०७५ ॥ अथ प्रतिद्वारं विस्तरार्थमभिधित्सुरोदनद्वारमाह. बत्तीसाई जा एक घास खवणं व न वि य से हाणी । आवासएसु अच्छउ, जा छम्मासे न य पलंवे ॥ १०७६ ॥ 10 ओदनस्य द्वात्रिंशत् कवलाः पुरुषस्य प्रमाणप्राप्त आहारः । यदि ते एकेन कवलेन न्यूनाः प्राप्यन्ते ततस्तैरेव तिष्ठतु, यदि 'से' तस्य साधोः 'आवश्यकेपु' अवश्यकृत्ययोगेषु हानिः 'नापि' नैव भवति न च प्रलम्बानि गृह्णातु । एवं द्वाभ्यां कवलाभ्यां न्यूना द्वात्रिंशत् कवला लभ्यन्ते तैस्तिष्ठतु यदि तस्यावश्यकयोगा न परिहीयन्ते । एवमेकैकं कवलं परिहापयता तावद् वक्तव्यं यावद् यद्येकः 'ग्रासः' कवलः प्राप्यते ततस्तेनैवास्ताम् , यदि तस्यावश्यकयोगा न परिहीयन्ते मा 15 च प्रलम्बानि गृह्णातु । अथैकोऽपि कवलो न प्राप्यते तत एक दिवसं 'क्षपणम्' उपवासं कृत्वा आस्ताम् , द्वितीये दिवसे द्वात्रिंशत्कवलैः पारयतु । यदि तावन्तो न लभ्यन्ते तत एकैककवलपरिहाण्या तावद् वक्तव्यं यावद् यद्येकोऽपि कवलो न लब्धस्ततः षष्ठं कृत्वा समाधिसौधमध्यास्ताम् , षष्ठस्य च पारणके प्रमाणप्राप्तमाहारमुपादत्ताम् । अथ न लभ्यते ततः पूर्वोक्तयुक्त्या यावदेकोऽपि कवलो न लभ्यते ततोऽष्टमं कृत्वा तिष्ठतु मा च प्रलम्बान्याददीत । एवमनयैव दिशा 20 दशमादिकमुत्तरोत्तरक्षपणं वर्द्धयता तावद् नेतव्यं यावत् षण्मासक्षपणम् । अथ षण्मासक्षपणे धर्मावश्यकयोगाः परिहीयन्ते तत एकदिनन्यूनं षण्मासक्षपणं करोतु । तदपि न शक्नोति निर्वोढुं तत एकैकं क्षपणं परिहापयता तावद् वक्तव्यं यावदेकमपि क्षपणं कर्तुं न शक्नोति ॥ १०७६ ॥ ततः किं करोति ? इत्याह जावइयं वा लब्भइ, सग्गामे सुद्ध सेस परगामे । मीसं च उवक्खडियं, सुद्धज्झवपूरगं गेण्हे ॥ १०७७ ।। वाशब्दः पातनायाम् , सा च कृतैवेति । यावत् शुद्धोदनं खग्रामे लभ्यते यदि तावता न संस्तरति ततो यावता न्यूनं तावत् परग्रामात् 'शेष' शुद्धोदनमानयति । गतमोदनद्वारम् । अथ मिश्रोपस्कृतद्वारमाह-"मीसं च” इत्यादि । यदा स्वग्राम-परग्रामयोः पर्याप्तं शुद्धोदनं न प्राप्यते तदा यद ओदनं प्रलम्बैर्मिश्रमुपस्कृतं तत् शुद्धोदनस्याध्यवपूरकं गृह्णाति ॥ १०७७ ।। 30 इदमेव विशेषयन्नाह तत्थ वि पढमं जं मीसुवक्खडं दव्व-भावतो भिन्नं । १°यन्ते, न च प्रलम्बानि गृहीताम् । एव भा० ॥ २ को लम्बनः कवलः भा० ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्र [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् ३-५ दव्वाभिन्नविभिस्तं, तस्सऽसति उवक्सडं ताहे ॥ १०७८ ॥ ‘तत्रापि' मिश्रोपस्कृते गृह्यमाणे प्रथमं यद् द्रव्यतो भावतश्च भिन्नैः प्रलम्बैर्मिश्रमुपस्कृतं तत् स्वग्राम-परग्रामयोर्गृह्णाति । तस्यापि 'असति' अलाभे यद् ओदनं द्रव्यतोऽभित्रैर्भावतो भिन्नैः प्रलम्बैर्विमिश्रमुपस्कृतं तत् तदा शुद्धोदनस्याध्यवपूरकं प्रथमं स्वग्रामे ततः परग्रामे गृह्णाति ॥ १०७८॥ गतं मिश्रोपस्कृतम् । अथ निर्मिश्रोपस्कृतमाह 5 15 ३३८ येषु सूक्ष्मप्राभृतिकादिदोषेषु पञ्चकप्रायश्चित्तं तेषु आदिशब्दाद् दशरात्रिन्दिवादिस्थानेषु च यतित्वा यदा भिन्नमासमतिक्रान्तो लघुमासं च प्राप्तो भवति तदा यद् द्रव्यतो भावतश्च भिन्नं 10 निर्मिश्रं प्रलम्बजातमुपस्कृतं तत् शुद्धोदनस्य मिश्रोपस्कृतस्य चाध्यवपूरकं स्वग्राम - परग्रामयोर्गृह्णाति । यदा चरमभङ्गे न लभ्यते तदा निर्मिश्रोपरकृतमेव तृतीयभङ्गे द्रव्यतोऽभिन्नं गृह्णाति ॥१०७९ ॥ गतं निर्मिश्रोपस्कृतम् । अथ पकमामं च व्याख्यानयति — 25 एमेव पउलियाऽपउलिए य चरिम- तइया भवे भंगा | ओस हि - फलमाईसुं, जं चाऽऽईनं तगं नेयं ॥। १०८० ॥ एवमेव पक्का-ऽपकयोश्चरम-तृतीयो भङ्गौ भवतः । पक्कं नाम यद् अमिना संस्कृतम्, यथा इङ्गुदीबीज - बिल्वादि । अपक्कं यद् अग्निनाऽन्येन वा इन्धन - धूमादिना प्रकारेण न पक्कं परं निर्जीवावस्थम्, यथा परिपक्ककदलीफल -त्रपुषादि । तत्र निर्मिश्रोपस्कृतस्यालाभे प्रथमं पक्कं चतुर्थभङ्गे ततस्तृतीयभङ्गे, ततोऽपक्कमपि चतुर्थ- तृतीयभङ्गयोः । एवमेव अध्यवपूरकं गृह्णाति । अत्र चौषधिफलादिषु यच्च पूर्वसाधुभिरवमादिकारणं विनाऽप्याचीर्णं तद् 'नेयं' नयनीयं ग्रहीतव्यमित्यर्थः, 20 यद्वा तद् 'ज्ञेयं' ज्ञातव्यम् । तत्रौषधयो धान्यानि, तेप्वाचीर्णं यथा चणका माषा वा, फलेषु आचीर्ण यथा त्रिफलादि, आदिशब्दाद् मूल- कन्दादिप्वपि यथायोगमाचीर्णा ऽनाचीर्णव्यवस्थाऽनुसर्त्तव्या || १०८० ॥ अत्रौषधिषु यद् आची तद् व्याचष्टे - पणगाइ मासपत्तो, ताहे निम्मीसुत्रक्खडं भिन्नं । निम्मीस उवक्खडियं, गिण्हति ताहे ततियभंगे ।। १०७९ ।। 30 सगला - सगलाइने, मीसोत्रक्खडिय नत्थि हाणी उ । जइउं अमिस्सग्रहणं, चरिमदुए जं अणाइनं ।। १०८१ ॥ चणक- माषादिषु पूर्वाचार्यैराचीर्णेषु सकलेप्वसकलेषु वा मिश्रेषु निर्मिश्रेषु वा उपस्कृतेषु नास्ति पञ्चकपरिहाणिः । यच्च पूर्वाचार्यैरनाचीर्णं तत्र पञ्चकपरिहाण्या यतित्वा लघुमासं प्राप्तः 'चरमद्वये ' चतुर्थ-तृतीयभङ्गयोरमिश्रस्य निर्मिश्रोपस्कृतस्य ग्रहणं कार्यं नार्वागिति । १०८१ ॥ आह यद् निर्जीवं तत् कथमनाचीर्णम् ? उच्यते जड़ ताव पिहुगमाई, सत्थोवहया वि होंतऽणाइण्णा । किं पुण असत्वहया, पेसी पव्वायसरडू य ॥। १०८२ ॥ इह ये व्रीहयः परिपक्काः १ अभावे यद् मो० ले० ॥ सन्तो भ्रष्ट्रादौ भृज्यन्ते, ततः स्फटिता अपनीतत्वचः पृथुका २. जं न आइनं ता० ॥ ३ स्फुटिताः त०] दे० कां० ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ भाप्यगाथाः १०७८-८४ ] प्रथम उद्देशः । इत्युच्यन्ते, आदिग्रहणेनान्यदपि यदेवं निष्पद्यते तत्परिग्रहः । यदि तावत् पृथुकादयोऽग्निशस्त्रोयहता अप्यनाचीर्णा भवन्ति किं पुनरशस्त्रोपहताः 'पेश्यः' प्रलम्बानामूर्द्धायताः फालयः · ? तथा प्रम्लानानि - म्लानवृन्तानि यानि 'सरडूनि' अवद्धास्थिकफलानि ?, तान्यशस्त्रोपहतानि कथमाची - र्णानि भविष्यन्तीत्यर्थः । एतत् सर्वमपि परीत्तविषयमुक्तम् || १०८२ ॥ गतं परीत्तद्वारम् । अथ साधारणद्वारमाह साधारणे वि एवं मीसा-मीसे वि होंति भंगाओ । पण गादी गुरुपत्तो, सव्वविसोहीय जय ताहे ॥। १०८३ ॥ साधारणम्–अनन्तं तत्रापि ' एवं ' प्रत्येकवद् मिश्रोपस्कृते निर्मिश्रोपस्कृते च चतुर्थ-तृतीयौ भङ्गौ भवतः । नवरं यदा तृतीयभङ्गे प्रत्येक प्रलम्बं निर्मिश्रोपस्कृतं न लभ्यते तदा मासलघुकादुपरि यत्रोमादौ लघुपञ्चरात्रिन्दिवान्यभ्यधिकान्यापद्यन्ते तत् स्वग्रामे वा परग्रामे वा गृह्णाति 110 एवं यदा पञ्चकादिहान्या गुरुमासं प्राप्तो भवति तदा साधारणं निर्मिश्रोपस्कृतं प्रथमं चतुर्थभङ्गे तदलाभे तृतीयभङ्गे स्वग्राम परग्रामयोगृह्णाति । यदा तृतीयभङ्गेनापि न प्राप्यते तदा सर्वेषु विशोधिकोटिदोषेषु ' यतस्व ' प्रयत्नं कुरु । तत्राऽऽधाकर्मिकमौद्देशिकत्रिक- आहारपूतिकर्म-मिश्रजातान्त्यद्विक - बादरप्राभृतिका - अध्यवपूरकचरमद्विकरूपान् अविशोधिकोटिदोषान् मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽप्योघौद्देशिकादय उद्गमदोषा विशोधिकोटयः । तेष्वपि गुरु - लाघवालोचनतो यद् यद्ं 15 अल्पदोषतरं तत् तत् पूर्वं पूर्वं प्रतिसेवमानस्तावद् यतते यावत् चतुर्लघुस्थानानि ॥ १०८३ ॥ तेष्वपि यदा न लभ्यते तदा चतुर्लघुकादुपरि पञ्चकपरिहाण्या यतित्वा यदा चतुर्गुरुप्राप्तो भवति तदा किमाधाकर्म गृह्णातु ? उत प्रथमद्वितीयभङ्गौ ? इति, अत्रोच्यते कम्मे आदेसदुगं, मूलुत्तरें ताहे वि कलि पत्तेगे । दावर कली अणते, ताहे जयणाऍ जुत्तस्स ।। १०८४ ॥ अत्राधकर्मणि प्राप्ते आदेशद्विकं वक्तव्यम् । तद्यथा-- आधाकर्मणि चत्वारो गुरवः, प्रत्येकप्रथमद्वितीययोर्भङ्गयोश्चत्वारो लघवः । एवं च प्रायश्चित्तानुलोम्येनाधाकर्म गुरुकम्, व्रतानुलोम्येन तु प्रथमद्वितीयभङ्ग गुरुकौ तयोः प्रतिसेव्यमानयोः प्राणातिपातत्रतस्य लोपसद्भावादिति । अथवा आधाकर्म उत्तरगुणोपघातित्वाद् लघुतरम्, प्रथम- द्वितीयभङ्गौ मूलगुणोपघातित्वाद् गुरुतरौ । एवमादेशद्वये कृतेऽप्याधाकर्मैव प्रथमतो ग्रहीतव्यं न प्रथम द्वितीयभङ्गौ । कुतः ? इति चेद् 25 उच्यते — आधाकर्मणि जीवाः परेण व्यपरोपिता इति तत्र गृह्यमाणे न तादृशी निःशूकतोपजाते याशी प्रथम द्वितीययोर्भङ्गयोरध्यक्षवीक्ष्यमाणानां जीवानामात्मनैव मुखे प्रक्षिप्य भक्ष्यमा - णानां व्यपरोपणे भवति, अत आधाकर्मैव प्रथमतो ग्राह्यं न प्रथम द्वितीयभङ्गाविति स्थितम् । " ताहे विकलि पत्तेगि" त्ति यदा आधाकर्मापि न लभ्यते तदा प्रत्येकद्वितीयभङ्गे ग्रहीतव्यम्, तदभावे 'कलिः' प्रथमो भङ्गः तत्रापि ग्राह्यम् । “द्रावर कली अणंते" त्ति यदा प्रत्येकस्यापि प्रथमो 30 भो न प्राप्यते तदा 'द्वापर : ' इति समयपरिभाषया द्वितीयः, 'कलिः' इति तु प्रथम उच्यते । १ तस्य गोधूम-धानादेः परि° भा० ॥ २ वावर ता० ॥ 2) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ प्रलम्बाधिकारे सूत्रम् ३-५ ततश्च प्रथममनन्तकायिके द्वितीयेन भङ्गेन, तदभावे प्रथमेनापि ग्रहीतव्यम् । यदा अनन्तस्यापि प्रथमो भङ्गो न प्राप्यते तदा यतनया युक्तस्य यत्र यत्राल्पतरः कर्मबन्धो भवति तत् तद् गृह्णानस्याशठपरिणामस्य संयम एव भवतीति वाक्यशेषः ॥ १०८४ ॥ एवं तावत् संयतानधिकृत्य यतनोक्ता । अथ संयतीरुद्दिश्याह एमेव संजईण वि, विहि अविही नवरि तत्थ नाणतं ।। सव्वत्थ वि सग्गामे, परगामे भावओ वि भए ॥ १०८५ ॥ यथा संयतानां खग्राम-परप्रामादिविभाषापुरस्सरं भिन्ना-ऽभिन्नयोर्यतना भणिता एवमेव संयतीनामपि वक्तव्या । नवरं तासां 'नानात्वं' विशेषो विधिभिन्नानि अविधिभिन्नानि च भवन्ति । विधिभिन्नानि मुख्यपदे सर्वत्रापि गृह्यन्ते स्वग्राम-परग्रामयोश्च । प्रथमं षष्ठो भङ्गः, तदभावे 10 पञ्चमः, तस्याप्यलाभे चतुर्थः, तस्याप्यप्राप्तौ भावतोऽप्यभिन्नानि तृतीय-द्वितीय-प्रथमभङ्गवर्तीनि यथाक्रमं 'भजेत्' प्रतिसेवेत, न कश्चिद्दोषः ॥ १०८५ ॥ ॥ इति कल्पटीकायां प्रलम्बप्रकृतं समाप्तम् ॥ दुर्गस्थानबहुत्वमीरुकतया मन्दाऽपि दातुं पदा न्येतचूर्णि-निशीथचूर्णिसुवचःश्रेणीसुयष्ट्या भृशम् । प्रेर्य प्रेर्य पदे पदे निजगवी क्षिप्रप्रचारं मया कल्पे यत् प्रकृतं प्रलम्बविषयं तद्गोचरे चारिता ।। १ जन्मापूर्वभुवोऽवलोकनवशान्मन्दाऽपि भा० ॥ २°चूर्णियुगलीयष्टिद्वयीदर्शनात् त० डे० कां० ॥ ३°ष्ट्या स्फुटम् भा० ॥ ४ °गवी मुग्धाऽपि सम्यग मया भा० ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मा सकल्प प्र कृतम् ] सूत्रम् से गामंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा निगमंसि वा रायहाणिसि वा आसमंसि वा निवेसंसि वा संबाहंसि वा घोसंसि वा अंसियंसि वा पुडभेयणंसि वा संकरंसि वा > सपरिक्खेवंसि रे अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंत गिम्हासु एगं मासं वत्थए १ - ६॥ एवमग्रेतनमपि सूत्रत्रयमुच्चारणीयम् । अथास्य सूत्रचतुष्टयस्य कः सम्बन्ध इत्याहतो खलु आहारो, इयाणि वसहीविहिं तु वन्ने । सो वा कत्थुवभुज, आहारो एस संबंधो ॥। १०८६ ॥ उक्तः खल्वनन्तरसूत्रे आहारः । ' इदानीं तु' अस्मिन् सूत्रे वसतेर्विधिं भगवान् भद्रबाहुखामी वर्णयति । यद्वा स आहारो गृहीतः सन् व ग्रामादौ उपभुज्यते ? इति निरूपणार्थमिदमारभ्यते एष द्वितीयप्रकारेण सम्बन्धः || १०८६ ॥ भूयोऽपि सम्बन्धमाह--- तेसु सपरिग्गहेसुं, खेत्ते साहुविरहिएसुं वा । किच्चिरकालं कप्पर, वसिउं अहवा विकप्पो उ ॥। १०८७ ॥ तेषु क्षेत्रेषु ‘सपरिग्रहेषु' साधुपरिगृहीतेषु साधुविरहितेषु वा कियन्तं कालं निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा वस्तुं कल्पते ? इत्यस्मिन् सूत्रे चिन्त्यते, अयं सम्बन्धस्यापरो विकल्प इति ॥१०८७॥ 5 10 15 अॅमीभिः सम्बन्धैरायातस्यास्य व्याख्या – अत्र च संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्रं व्याख्याने महद् 20 ग्रन्थगौरवमिति कृत्वा पदार्थादिमात्रमेवाभिधास्यते, संहितादिचर्चस्तु पूर्ववद् वक्तव्य इति । सेशब्दो मागधदेशे प्रसिद्धः अथशब्दार्थे, अथशब्दश्च प्रक्रियादिष्वर्थेषु वर्त्तते । यत उक्तम्"अथ प्रक्रिया-प्रश्ना-Sऽनन्तर्य - मङ्गलोपन्यास-प्रतिवचन - समुच्चयेषु" इति । 25 इहोपन्यासार्थे द्रष्टव्यः, ततश्च यथा साधूनामेकत्र क्षेत्रे वस्तुं कल्पते तथा उपन्यस्यते इत्यर्थः । ग्रामे वा नगरे वा खेटे वा कर्बटे वा मडम्बे वा पत्तने वा आकरे वा द्रोणमुखे वा निगमे वा राजधान्यां वा आश्रमे वा निवेशे वा सम्बाधे वा घोषे वा अंशिकायां वा पुटभेदने वा 'सपरिएतविहान्तर्गतोऽ यं पाठः आचार्यान्तरमतेन ज्ञेयः । दृश्यतां गाथा १०९३ ॥ ३ °यम् । तच्च यथास्थानमेवोच्चारयिष्यते । अथा' डे० ॥ ४ अनेन सम्ब न्धेनायात भा० । “ एभिः सम्बन्धैरायातस्यास्य सूत्रस्य पदविभागं कृत्वा पदार्थमभिधास्यामः” इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ १ वा सन्निवे ता० मु० ॥ २ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ मनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिक बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृत सूत्रम् १ क्षेपे वृत्यादिरूपपरिक्षेपयुक्ते 'अबाहिरिके' बहिर्भवा बाहिरिका "अध्यात्मादिभ्य इकण्" (सिद्ध० ६-३-७८ ) इति इकण्प्रत्ययः, प्राकारबहिर्वत्तिनी गृहपद्धतिरित्यर्थः, न विद्यते वाहिरिका यत्र तद् अबाहिरिकं तस्मिन् कल्पते निर्ग्रन्थानां 'हेमन्त-ग्रीप्मेषु' ऋतुबद्धकालसम्बन्धिषु अष्टसु मासेप्वित्यर्थः, एकं मासं 'वस्तुम्' अवस्थातुम् । वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः खगतानेकभेद5 सूचका वा द्रष्टव्या इति सूत्रसमासार्थः ॥ अथ विस्तरार्थं प्रतिपदं भाष्यकृदाह आदिपदं निदेसे, वा उ विभासा समुच्चये वा वि । गम्मो गमणिज्जो वा, कराण गसए व बुद्धादी ॥ १०८८ ॥ "से" इत्येतद् आदिपदं 'निर्देशे' उपन्यासे वर्तते । वाशब्दो विभाषायां स्वगतानामनेक10 भेदानां समुच्चयार्थे वा । गम्यो गमनीयो वा अष्टादशानां कराणामिति व्युत्पत्त्या ग्रसते वा बुद्ध्यादीन् गुणानिति व्युत्पत्त्या वा पृषोदरादित्वाद् निरुक्तविधिना ग्राम उच्यते ॥ १०८८ ॥ नत्थेत्थ करो नंगरं, खेडं पुण होइ धूलिपागारं । कब्बडगं तु कुनगरं, मडंबगं सव्वतो छिन्नं ॥ १०८९ ॥ 'नास्ति' न विद्यतेऽत्राष्टादशकराणामेकोऽपि कर इति नकरम् , नखादित्वाद् नञोऽकारा15 भावः । खेटं पुनधूलीप्राकारपरिक्षिप्तम् । कर्वटं तु कुनगरमुच्यते । मडम्बं नाम यत् 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'छिन्नम्' अर्द्धतृतीयगव्यूतमर्यादायामविद्यमानग्रामादिकमिति भावः । अन्ये तु व्याचक्षते---यस्य पार्श्वतोऽर्द्धतृतीययोजनान्तामादिकं न प्राप्यते तद् मडम्बम् ॥ १०८९ ॥ जलपट्टणं च थलपट्टणं च इति पट्टणं भवे दुविहं ।। अयमाइ आगरा खलु, दोणमुहं जल-थलपहेणं ॥ १०९० ॥ 20 पत्तनं द्विधा---जलपत्तनं च स्थलपत्तनं च । यत्र जलपथेन नावादिवाहनारूढं भाण्डमुपैति तद् जलपत्तनं, यथा द्वीपम् । यत्र तु स्थलपथेन शकटादौ स्थापितं भाण्डमायाति तत् स्थलपत्तनम् , यथा आनन्दपुरम् । अयः-लोहं तदादय आकरा उच्यन्ते । यत्र पाषाणध,तुधमनादिना लोहमुत्पाद्यते स अयआकरः, आदिशब्दात् ताम्र-रूप्याद्याकरपरिग्रहः । यस्य तु जलपथेन स्थलपथेन च द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भाण्डमागच्छति तद् द्वयोः पथोर्मुखमिति निरुत्या द्रोण25 मुखमुच्यते, तच्च भृगुकच्छं ताम्रलिप्ती वा ॥ १०९० ॥ निगम नेगमवग्गो, वसइ जहिं रायहाणि जहिं राया । __ तावसमाई आसम, निवेसों सत्थाइजत्ता वा ॥ १०९१ ।। __निगमं नाम यत्र नैगमाः-वाणिजकविशेषास्तेषां वर्गः-समूहो वसति, अत एव निगमे भवा नैगमा इति व्यपदिश्यन्ते । यत्र नगरादौ राजा परिवसति सा राजधानी । आश्रमो यः प्रथ30 मतस्तापसादिभिरावासितः, पश्चादपरोऽपि लोकस्तत्र गत्वा वसति । निवेशो नाम यत्र सार्थ आवासितः, आदिग्रहणेन ग्रामो वा अन्यत्र प्रस्थितः सन् यत्रान्तरावासमधिवसति; यात्रायां वा गतो लोको यत्र तिष्ठति एष सर्वोऽपि निवेश उच्यते ॥ १०९१ ॥ .१ "जत्ताए वा जत्थ लोगो गतो, जधा सरस्सतीए” इति चूर्णी विशेषचूर्णी च ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १०८८-९५] प्रथम उद्देशः । ३४३ संवाहो संवोढुं, वसति जहिं पव्वयाइविसमेसु । घोसो उ गोउलं अंसिया उ गामद्धमाईया ॥ १०९२ ॥ सम्बाधो नाम यत्र कृषीवललोकोऽन्यत्र कर्षणं कृत्वा वणिग्वर्गों वा वाणिज्यं कृत्वाऽन्यत्र पर्वतादिषु विषमेषु स्थानेषु 'संवोढुम्' इति कणादिकं समुह्य कोष्ठागारादौ च प्रक्षिप्य वसति । तथा 'घोषस्तु' गोकुलमभिधीयते । 'अंशिका तु' यत्र ग्रामस्यार्धम् आदिशब्दात् त्रिभागो वा चतुर्भागो वा गत्वा स्थितः सा ग्रामस्यांश एवांशिका ॥ १०९२ ॥ नाणादिसागयाणं, मिजंति पुडा उ जत्थ भंडाणं । पुडभेयणं तगं संकरो य केसिंचि कायव्वो ॥१०९३ ॥ नानाप्रकाराभ्यो दिग्भ्य आगतानां 'भाण्डानां' कुङ्कुमादीनां पुटा यत्र विक्रयार्थ भिद्यन्ते तत् पुटभेदनमुच्यते । केषाञ्चिदाचार्याणां मतेन सङ्करश्च कर्तव्यः, “संकरंसि वा" इत्यधिकं पदं 10 पठितव्यमित्यर्थः । सङ्करो नाम-किञ्चिद् ग्रामोऽपि खेटमपि आश्रमोऽपीत्यादि ॥ १०९३ ॥ एष सूत्रार्थः । अथ नियुक्तिविस्तरः । तत्र ग्रामपदनिक्षेपमाह नामं ठवणागामो, दव्वग्गामो य भूतगामो य । आउजिंदियगामो, पिउ-माऊ-भावगामो य ॥१०९४ ॥ . नामग्रामः स्थापनाग्रामो द्रव्यग्रामश्च भूतग्रामश्च आतोद्यग्राम इन्द्रियग्रामः पितृप्रामो मातृप्रामो 16 भावग्रामश्चेति गाथासमुदयार्थः ॥ १०९४ ॥ अथावयवार्थमभिधित्सुर्नाम-स्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यग्रामं व्याचष्टे जीवा-ऽजीवसमुदओ, गामो को कं नओ कहं इच्छे । आदिणयोऽणेगविहो, तिविकप्पो अंतिमनओं उ ॥१०९५ ॥ जीवानां-गो-महिषी-मनुष्यादीनाम् अजीवानां च-गृहादीनां यः समुदयः स द्रव्यग्राम 20 उच्यते । इह च सर्वज्ञोपज्ञप्रवचने प्रायः सर्वमपि सूत्रमर्थश्च नयैर्विचार्यते । यत उक्तम् नत्थि नएहि विहणं, सुत्तं अत्थो य जिणमए किंचि । ___आसज उ सोयारं, नए नयविसारओ बूया ॥ (आव०नि० गा० ७६१) अत एषोऽपि द्रव्यग्रामो नयैर्विचार्यते-को नाम नयः कं द्रव्यग्रामं कथमिच्छति ? इति, तत्र नयाः सामान्यतः सप्त नैगम-सङ्ग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरुदैवम्भूतभेदात् ; इह तु 25 समभिरूदैवम्भूतयोः शब्दप्राधान्याभ्युपगमपरतया शब्दनय एवान्तर्भावो विवक्ष्यते । ततश्च 'आदिनयः' नैगमः सोऽविशुद्ध-विशुद्ध-विशुद्धतरादिभेदाद् अनेकविधः । 'अन्तिमनयस्तु' शब्दः सः [ 'त्रिविकल्पः' ] त्रिविधः शब्द-समभिरूदैवम्भूतभेदात् ॥ १०९५ ॥ १ "केइ घोसं पढंति, घोसो गोउलं । अण्णे अंसितंसि वा पढंति, अंसिया जत्थ गामस्स अद्धं तिभागो चउभागो वा ठितओ। पुडभेदणं पि केयि पढंति ॥ तत्थ-णाणादि० गाधा कण्ठ्या ॥ संकरो णाम.एतेसि गामादीणं कंचि गामो वि खेडं पि आसमो वि इत्यादि जधासंभवं वक्तव्यम् । सह परिक्खेवेण सपरिक्खे। नाऽस्य बाहिरिका विद्यत इत्यबाहिरिकम ॥ एस सुत्तत्थो, इदाणी णिजुत्तीए वित्थारेति । तत्य गामोनामं० गाहा ।" इति चूर्णिकृतः। विशेषचूर्णी प्राय एतत्तुल्य एव पाठः ॥२ करोऽपि क° भा० ॥ ३°माउय-भाव ता.॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ तत्रानेकविधनगमानामन्योऽन्यनिरपेक्षाणि यानि वक्तव्यानि तानि नामग्राहं सफ़लन्नाह गावो तणाति सीमा, आरामुदपाण चेडरूवाणि । वाडी य वाणमंतर, उग्गह तत्तो य आहिपती ॥१०९६ ॥ गावः १ "तणाइ" त्ति उपलक्षणत्वात् तृणहारकादयः २ सीमा ३ आरामः ४ 'उदपानं' कूपः 5५ चेडरूपाणि ६ 'वाटिः' वृतिः ७ 'वानमन्तरं देवकुलं ८ अवग्रहः ९ ततश्चाधिपतिः १० इति नियुक्तिगाथाक्षरार्थः ॥ १०९६ ॥ अथ भावार्थ उच्यते, प्रथमनैगमः प्राह-यावन्तं भूभागं गावश्चरितुं व्रजन्ति तावान् सर्वोऽपि ग्राम इति व्यपदेशं लभते १॥ ततो विशुद्धनैगमः प्रतिभणति गावो वयंति दूरं, पि जं तु तण-कट्ठहारगादीया । 10 सूरुट्टिए गता एंति अत्थमंते ततो गामो ॥ १०९७ ॥ परिस्थूरमते ! गावः 'दूरमपि' परग्राममपि चरितुं व्रजन्ति ततः किमेवं सोऽप्येक एव ग्रामो भवतु ?, अपि च एवंब्रुवतो भवतो भूयसामपि परस्परमतिदवीयसां ग्रामाणामेकपामतैव प्रसजति, न चैतदुपपन्नम् , तस्माद् नैतावान् ग्रामः किन्तु 'यत्तु' यावन्मानं क्षेत्रं तृणहारक-काष्ठहारकादयः सूर्ये उत्थिते तृणाद्यर्थं गताः सन्तः सूर्ये अस्तमयति तृणादिभारकं बद्ध्वा पुनरायान्ति एतावत् 15 क्षेत्रं ग्रामः २ ॥ १०९७ ॥ परसीमं पिवयंति हु, सुद्धतसे भणति जा ससीमा तु । उजाण अवचा वा, उकीलंता उ सुद्धयरो॥ १०९८ ॥ शुद्धतरो नैगमो भणति-यद्यपि गवां गोचरक्षेत्रादासन्नतरं भूभागं तृण-काष्ठहारका व्रजन्ति खथापि ते कदाचित् परसीमानमपि ब्रजन्ति तस्माद् नैतावान् ग्राम उपपद्यते, अहं ब्रवीमि20 यावत् स्वा-आत्मीया सीमा एतावान् ग्रामः ३ । ततोऽपि विशुद्धतरः प्राह—मैवमतिप्रचुरं क्षेत्रं ग्राम इति वोचः, किन्तु यावत् तस्यैव ग्रामस्य 'उद्यानम्' आरामस्तावद् ग्राम इति भण्यते ४ । विशुद्धतमः प्रतिभणति-एतदपि भूयस्तरं क्षेत्रम् , न प्रामसंज्ञा लब्धुमर्हति, अहं भणामियावद् ‘उदपानं' तस्यैव ग्रामस्य सम्बन्धी कूपः ताचद् ग्राम इति ५। ततोऽपि विशुद्धतरो ब्रूते इदमप्यतिप्रभूतं क्षेत्रम् अतो यावत् क्षेत्रं 'अव्यक्तानि' चेटरूपाणि रममाणानि गच्छन्ति तावद् 25 ग्रामः ६ । ततोऽपि विशुद्धतरः प्रतिवक्ति-एतदप्यतिरिक्ततया न समीचीनमाभाति ततो यावन्तं भूभागमतिलघीयांसो बालकाः 'उत्क्रीडन्तः' रिङ्गन्तः प्रयान्ति तावान् ग्राम इति ७ ॥१०९८॥ एवं विसुद्धनिगमस्स वइपरिक्खेवपरिवुडो गामो । ववहारस्स वि एवं, संगहों जहिँ गामसमवाओ ॥ १०९९ ॥ 'एवं विचित्राभिप्रायाणां पूर्वनैगमानां सर्वा अपि प्रतिपत्तीळपोह्य सर्वविशुद्धनैगमस्य यावान् १ तृणादि २ सीमा ३ भा० ॥२ इति सङ्ग्रहगाथा भा० ॥ ३ उदिते मो० ले० ॥ ४ °लंतो उ भा० । भा पुस्तके एतत्पाठानुसारेणैव टीका वर्त्तते । दृश्यता टिप्पणी ६ ॥५°म इत्युच्यते ६। ततो भा०॥६ लघीयान् बालकः 'उत्क्रीडन्' रिङ्गन प्रयाति तावान् भा० ॥७ एवं तु सुद्ध ता० ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १०९६-११०३] प्रथम उद्देशः । ३४५ वृतिपरिक्षेपपरिवृतो भूभागस्तावान् ग्राम उच्यते । अथ सङ्ग्रहं व्यतिक्रम्य लाघवार्थमत्रैव व्यवहारमतमतिदिशति-“ववहारस्स वि एवं" ति यथा नैगमस्यानेके प्रतिपत्तिप्रकाराः प्ररूपितास्तथा व्यवहारस्याप्येवमेव प्ररूपणीयाः, तस्य व्यवहाराभ्युपगमपरायणत्वाद् बाल-गोपालादिना च लोकेन सर्वेषामप्यनन्तरोक्तभेदानां यथावसरं ग्रामतया व्यवहरणीयत्वात् । सङ्ग्रहस्तु सामान्यग्राहित्वाद् यत्र ग्रामस्य-ग्रामवास्तव्यलोकस्य समवायः-एकत्र मीलनं भवति तद् वानमन्तरदेव-5 कुलादिकं ग्राम इति ब्रूते ॥ १०९९ ॥ इदमेव प्रकारान्तरेणाह जं वा पढम काउं, सेसग गामो निविस्सइ स गामो । तं देउलं सभा वा, मज्झिम गोट्टो पवा वा वि ॥ ११००॥ यद् वा प्रथमं 'कृत्वा' निवेश्य शेषः सर्वोऽपि ग्रामो निविशते स सङ्ग्रहनयाभिप्रायेण ग्रामः । तच्च देवकुलं वा भवेत् सभा वा ग्राममध्यवर्ती वा गोष्ठः प्रपा वा ॥ ११०० ॥ 10 अथावग्रहपदं विवृण्वन् ऋजुसूत्रनयमतमाह उज्जुसुयस्स निओओ, पत्तेयघरं तु होइ एकेकं । उद्देति वसति व वसेण जस्स सदस्स सो गामो ॥ ११०१॥ ऋजुसूत्रस्य खकीयार्थग्राहकत्वात् परकीयस्य च सतोऽप्यनभ्युपगमाद् यस्य यत् प्रत्येकमा.त्मीयावग्रहरूपमेकैकं गृहं तद् नियोग इति प्रतिपत्तव्यम् । नियोग इति प्राम इति चैकोऽर्थः । 15 आह च विशेषचूर्णिकृत् गामो त्ति वा निओउ त्ति वा एगटुं । "तत्तो य आहिवई" (गा० १०९६) इति व्याख्यानयन् शब्दनयमतमाह- "उद्वेति" इत्यादि। 'शब्दस्य' शब्दाख्यनयस्य यस्य कस्यापि वशेन ग्रामः 'उत्तिष्ठते' उद्वसीभवति 'वसति वा' भूयोऽप्यवस्थानं करोति स ग्रामस्याधिपतिर्गम इति शब्दमुद्रोढुमर्हति, ये तु तत्र तदनुवर्तिनः 20 शेषास्तेऽशेषा अप्युपसर्जनीभूतत्वान्ने ग्रामसंज्ञां लभन्त इति भावः ॥ ११०१॥ चिन्तितं नयमार्गणया ग्रामखरूपम् । अथ ग्रामस्यैव नयैः संस्थानचिन्तां चिकीर्षुराह तस्सेव उ गामस्सा, को कं संठाणमिच्छति नओ उ । तत्थ इमे संठाणा, हवंति खलु मल्लगादीया ।। ११०२॥ तस्यैव ग्रामस्य संस्थान को नयः किमिच्छति ? इति चिन्त्यते । तत्र तावद् इमानि मल्लका-25 दीवि ग्रामस्य संस्थानानि भवन्ति ॥ ११०२ ॥ तान्येवाह . उत्ताणग ओमंथिय, संपुडए खंडमल्लए तिविहे । भित्ती पडालि वलभी, अक्खाडग रुयग कासवए ॥ ११०३ ॥ अस्ति ग्राम उत्तानकमल्लकाकारः, अस्ति ग्रामोऽवाड्मुखमल्लकाकारः, एवं सम्पुटकमल्लकाकारः। खण्डमल्लकममि त्रिविधं वाच्यम् । तद्यथा-उत्तानकखण्डमल्लकसंस्थितः अवामुखखण्डमल्ल- 30 १ तस्यापि व्यव° भा० ॥ २°थायोगं ग्राम भा० ॥ ३त्वादिति भावः। सङ्ग भा० ॥ ४°शते तत् स° भा०॥ ५न मुख्यतो ग्राम भा० ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ कसंस्थितः सम्पुटकखण्डमल्लकसंस्थितश्च । तथा भित्तिसंस्थितः पडालिकासंस्थितः वलभीसंस्थितः अक्षपाटकसंस्थितः रुचकसंस्थितः काश्यपसंस्थितश्चेति ॥ ११०३ ॥ अथैषामेव संस्थानानां यथाक्रमं व्याख्यानमाह - मज्झे गामस्सगडो, बुद्धिच्छेदा ततो उ रतओ। निक्खम्म मूलपादे, गिण्हतीओ वई पत्ता ॥ ११०४॥ ___ इह यस्य ग्रामस्य मध्यभागे 'अगडः' कूपस्तस्य बुद्ध्या पूर्वादिषु दिक्षु च्छेदः परिकल्प्यते, ततश्च कूपस्याधस्तनतलाद् बुद्धिच्छेदेन रज्जवो दिक्षु विदिक्षु च निष्क्राम्य गृहाणां मूलपादान् उपरि कृत्वा गृहत्यस्तिर्यक् तावद् विस्तार्यन्ते यावद् ग्रामपर्यन्तवर्तिनी वृतिं प्राप्ता भवन्ति, तत उपर्यभिमुखीभूय तावद् गता यावद् उच्छ्येण हर्म्यतलानां समीभूताः तत्र च पटहच्छेदेनोपरताः, 10 एष ईदृश उत्तानमल्लकसंस्थितो ग्राम उच्यते, ऊर्धाभिमुखस्य शरावस्यैवमाकारत्वात् ॥११०४॥ ओमंथिए वि एवं, देउल रुक्खो व जस्स मज्झम्मि । कूवस्सुवरि रुक्खो, अह संपुडमल्लओ नाम ॥ ११०५॥ अवाड्मुखमल्लकाकारेऽप्येवमेव वाच्यम् , नवरं यस्य ग्रामस्य मध्ये देवकुलं वृक्षो वा उच्चैस्तरस्तस्य देवकुलादेः शिखराद् रज्जवोऽवतार्य तिर्यक् तावद् नीयन्ते यावद् वृतिं प्राप्ताः, ततोऽधो15 मुखीभूय गृहाणां मूलपादान् गृहीत्वा पटहच्छेदेनोपरताः, एषोऽवाङ्मुखमल्लकसंस्थितः । तथा यस्य ग्रामस्य मध्यभागे कूपः, तस्य चोपर्युच्चतरो वृक्षः, ततः कूपस्याधस्तलाद रज्जवो निर्गत्य मूलपादानधोऽधस्तावद् गता यावद् वृतिं प्राप्ताः, तत ऊर्धाभिमुखीभूय गत्वा हर्म्यतलानां समश्रेणीभूताः, वृक्षशिखरादप्यवतीर्य रज्जवस्तथैव तिर्यग् वृतिं प्राप्नुवन्ति, ततोऽधोमुखीभूय कूपसम्बन्धिनीनां रज्जूनामग्रभागैः समं सङ्घटन्ते, अथैष सम्पुटकमल्लकाकारो नाम ग्रामः ॥ ११०५॥ जइ कूवाई पासम्मि होति तो खंडमल्लओ होइ। . पुव्वावररुक्खेहिं, समसेढीहिं भवे मित्ती ॥ ११०६ ॥ यदि 'कूपादीनि' कूप-वृक्ष-तदुभयानि 'पार्श्वे' एकस्यां दिशि भवन्ति ततः खण्डमल्लकाकारस्त्रिविधोऽपि ग्रामो यथाक्रमं मन्तव्यः । तत्र यस्य ग्रामस्य बहिरेकस्यां दिशि कूपः तामेवैकां दिशं मुक्त्वा शेषासु सप्तसु दिक्षु रज्जवो निर्गत्य तिर्यग् वृतिं प्राप्योपरि हर्म्यतलान्यासाद्य पटहच्छेदे25 नोपरमन्ते, एष उत्तानकखण्डमल्लकाकारः । अवाङ्मुखखण्डमल्लकाकारोऽप्येवमेव, नवरं यस्यैकस्यां दिशि देवकुलमुच्चैस्तरो वा वृक्षः । सम्पुटकखण्डमल्लकाकारस्तु यस्यैकस्यां दिशि कूपस्तदुपरिष्टाच वृक्षः, शेषं प्राग्वत् । “पुवावर" इत्यादि, पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि समश्रेणिव्यवस्थितैर्वृक्षैमित्तिसंस्थितो ग्रामो भवेत् ॥ ११०६॥ . पासहिए पडाली, वलभी चउकोण ईसि दीहा उ। चउकोणेसु जइ दुमा, हवंति अक्खाडतो तम्हा ॥ ११०७ ॥ पडालिकासंस्थितोऽप्येवमेव, नवरमेकस्मिन् पार्श्वे वृक्षयुगलं समश्रेण्या व्यवस्थितम् । तथा यस्य ग्रामस्य चतुर्वपि कोणेषु ईषद्दीर्घा वृक्षा व्यवस्थिताः स वलभीसंस्थितः । 'अक्षवाटः' मल्लानां युद्धाभ्यासस्थानम् , तद् यथा समचतुरस्रं भवति एवं यदि ग्रामस्यापि चतुर्षु कोणेषु द्रुमा भवन्ति 30 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाप्यगाथाः ११०४-११] प्रथम उद्देशः । ३४७ ततोऽसौ चतुर्विदिग्वर्तिभिवृक्षैः समचतुरस्रतया परिच्छिद्यमानत्वादक्षपाटकसंस्थितः ॥ ११०७॥ वट्टागारठिएहिं, रुयगो पुण वेढिओ तरुवरेहि। तिकोणो कासवओ, छुरघरगं कासवं विती ॥ ११०८॥ यद्यपि ग्रामः स्वयं न समस्तथापि यदि रुचकवलयशैलवद् वृत्ताकारल्यवस्थितैर्वृक्षवेष्टितस्तदा रुचकसंस्थितः । यस्तु ग्राम एव त्रिकोणतया निविष्टो वृक्षा वा त्रयो यस्य बहिन्यस्राः स्थिताः । एकतो द्वावन्यतस्त्वेक इत्यर्थः, एष उभयथाऽपि काश्यपसंस्थितः । काश्यपं पुनर्नापितस्य सम्बन्धि क्षुरगृहं ब्रुवते, तद् यथा व्यस्रं भवत्येवमयमपि ग्राम इति ॥ ११०८॥ भावितानि सर्वाण्यपि संस्थानानि । अथ को नयः किं संस्थानमिच्छति ? इति भाव्यते पढमेत्थ पडहछेदं, आ कासव कडग-कोट्टिमं तइओ। नाणिं आहिपतिं वा, सद्दनया तिनि इच्छंति ॥ ११०९ ॥ 10 प्रथमोऽत्र नैगमनयः, स पटहच्छेदलक्षणं संस्थानं प्रतिपद्यते । सङ्ग्रहोऽप्येवमेव मन्यत इत्यत्रैवान्तर्भाव्यते । व्यवहारस्तु भित्तिसंस्थानादारभ्य आ काश्यपसंस्थानं मन्यते । 'तृतीयः' ऋजुसूत्रः, सः कटकानां-तृणादिमयानां कुट्टिमानां वा-पाषाणादिबद्धभूमिकानां यत् संस्थानं तद् मन्यते । 'त्रयस्तु' शब्दनया ज्ञानिनमधिपतिं वा ग्रामसंस्थानस्वामित्वेनेच्छन्ति ॥ ११०९ ॥ एनामेव नियुक्तिगाथा व्यक्तीकुर्वन्नाह संगहियमसंगहिओ, संगहिओ तिविह मल्लयं नियमा। . भित्तादी जो कासवों, असंगहो बेति संठाणं ॥ १११०॥ नैगमो द्विधा-साङ्ग्रहिकोऽसाङ्ग्रहिकश्च । सङ्ग्रहणं सङ्ग्रहः-सामान्यमित्यर्थः, स प्रयोजनमस्येति साङ्घहिकः, सामान्याभ्युपगमपर इत्यर्थः । तद्विपरीतोऽसावहिकः । तत्र यः सावहिकः . स नियमात् 'त्रिविधम्' उत्तानका-ऽवाङ्मुख-सम्पुटकभेदभिन्नं सम्पूर्ण वा खण्डं वा मल्लकं तस्य 20 यत् पटहच्छेदलक्षणं संस्थानं तैद् मन्यते । असामहिकस्तु भित्तिसंस्थानमादौ कृत्वा. यावत् काश्यपसंस्थानम् एतानि सर्वाण्यपि 'ब्रूते' प्रतिपद्यत इत्यर्थः । सङ्ग्रह-व्यवहारौ तु सामहिकाऽसावहिकयोरेव नैगमयोर्यथासङ्ख्यमन्तर्भावनीयाविति न पृथक् पँपञ्च्येते इति ॥ १११० ॥ निम्मा घर वइ धूभिय, तइओ दुहणा वि जाव पावंति । नाणिस्साहिपइस्स व, जं संठाणं तु सद्दस्स ॥ ११११॥ 25 'तृतीयः' सूत्रक्रमप्रामाण्येन ऋजुसूत्रः, सः “निम्म" ति मूलपादानां "घर वइ" ति गृहाणां घृतेर्वा स्तूपिकानां वा उपलक्षणत्वात् कटकानां कुट्टिमानां वा यत् संस्थानं माले वा भूमिकादायसम्पादनार्थमवकुट्यमाने 'द्रुघणाः' मुद्रा ऊर्द्धमुत्क्षिप्यमाणा यावद् आकाशतलं प्रामुवन्ति तावन्मर्यादीकृत्य यत् संस्थानमेतत् सर्वमपि प्रत्येकं ऋजुसूत्रो मन्यते । तथा 'ज्ञानिनः' ग्रामप १ एतदेव व्यक्ती भा० ॥ २ जा कसवो ता० ॥ ३ तदेव मन्यते न भित्त्यादिकं संस्थानम् । असान भा० ॥ ४ प्रपद्येते भा० विना ॥ ५ °न्यते । त्रयः शब्दनया: 'शानिनः' प्रामपदार्थशस्य ग्रामाधिपतेर्वा यत् संस्थानं तदेव प्रतिपद्यन्ते, न शेषम् , अतिविशुद्धतमत्वादेषामिति भा० । “तिन्नि सद्दणया गामत्याधियारजाणयस्स गामाहिपयस्स वा जे संठाणं तं इच्छति" इति चूर्णो विशेषचूर्णौ च । “जं संठाणं तु सद्दणया" इति पाठानुसारेणेयं व्याख्या, न चासौ पाठोऽसत्पार्श्वस्थादर्शषु क्वचिदपीक्ष्यते ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ दार्थज्ञस्य ग्रामाधिपतेर्वा यत् संस्थानं तदेव शब्दनयस्य ग्रामसंस्थानतयाऽभिप्रेतमिति ॥११११॥ गतं द्रव्यग्रामद्वारम् । अथ भूतादिप्रामभेदान् भावयति चउदसविहो पुण भवे, भूतग्गामो तिहा उ आतोजो। सोतादिदियगामो, तिविहा पुरिसा पिउग्गामो ॥ १११२ ॥ B भूताः-प्राणिनस्तेषां ग्रामः-समूहो भूतग्रामः, स चतुर्दशविधः । तथा चाह एगिदिय सुहुमियरा, सन्नियर पणिंदिया य सबि-ति-चऊ । पज्जत्ताऽपज्जत्ता, भेएणं चउदस ग्गामा ॥ एकेन्द्रिया द्विविधाः-सूक्ष्मा बादराश्च । सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिनः सूक्ष्माः । बादरनामकर्मोदयवर्तिनो बादराः । द्वीन्द्रियाः-कृम्यादयः । त्रीन्द्रियाः-कुन्थु-पिपीलिकादयः । चतुरिन्द्रिया 10 भ्रमरादयः । पञ्चेन्द्रिया द्विविधाः-संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च । संज्ञिनः-गर्भजतिर्यङ्-मनुष्या देव-नार काश्च । असंज्ञिनः सम्मूच्छिमास्तिर्यङ्-मनुष्याः । एते च खयोग्यपर्याप्तिभिः पर्याप्ता वा स्युरपर्याप्ता वा । पर्याप्ति म शक्तिः, सा चाहार-शरीरेन्द्रिय-प्राणापान-भाषा-मनःपर्याप्तिभेदात् पोढा । तत्र यया शक्त्या करणभूतया भुक्तमाहारं खल-रसरूपतया करोति सा आहारपर्याप्तिः । यया तु रसीभूतमाहारं धातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः । यया धातुरूपतया परिणमितादाहा15 रादिन्द्रियप्रायोम्यद्रव्याण्युपादायैकद्वित्र्यादीन्द्रियरूपतया परिणमय्य स्पर्शादिविषयपरिज्ञानसमर्थों भवति सा इन्द्रियपर्याप्तिः । यया पुनरुच्छास-भाषा-मनःप्रायोग्याणि दलिकान्यादाय यथाक्रममुच्छ्वासरूपतया भाषात्वेन मनस्त्वेन वा परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा क्रमेण प्राणापानपर्याप्ति षापर्याप्तिर्मनःपर्याप्तिः । एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां चतस्रः, द्वीन्द्रियादीनां सम्मूच्छिमतिया-मनुष्यान्तानां पञ्च, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च षड् भवन्ति । एवं च पूर्वोक्ताः सप्तापि भेदाः 20 पर्याप्तापर्याप्तभेदाद् द्विधा भिद्यमानाश्चतुर्दश भवन्ति । एष चतुर्दशविधो भूतग्रामः ॥ आतोद्यनामस्तु विधा—षड्जग्रामो मध्यमग्रामो गन्धारग्रामश्च । एतेषां च खरूपमनुयोगद्वारशास्त्राद् अवसेयम् (पत्र १३०-१)। इन्द्रियग्रामः श्रोत्रादीनामिन्द्रियाणां समुदायः, स च पञ्चेन्द्रियाणां सम्पूर्णः, चतुस्त्रिोकेन्द्रियाणां यथाक्रममेकद्वित्रिचतुःसद्ध्यैरिन्द्रियै,न इति । पितृग्रामस्तु त्रिविधाः पुरुषाः । तद्यथा-तिर्यग्योनिकपुरुषा मनुष्यपुरुषा देवपुरुषाश्चेति ॥१११२॥ तिरिया-ऽमर-नरइत्थी, माउग्गामं पि तिविहमिच्छंति । नाणाइतिगं भावे, जओ व तेसिं समुप्पत्ती ॥१११३॥ तिर्यम्योनिकस्त्रियोऽमराः-देवास्तेषां स्त्रियो नराः-मनुष्यास्तेषां च स्त्रिय इति मातृप्राममपि त्रिविधमिच्छन्ति पूर्वसूरयः । आह किमेवं स्त्री-पुरुषाणां मातृ-पितृप्रामसंज्ञा विधीयते ? उच्यतेसंज्ञासूत्रोपयोगार्थम् । तथा चाऽऽचारप्रकल्पाध्ययने षष्ठोद्देशके सूत्रम्30 "जे भिक्खू माउग्गामं मेहुणवडियाए विण्णवेइ" (सूत्रम् १) इत्यादि । तथा-"जा भिक्खुणी पिउग्गामं विष्णवेइ" इत्यादि । भावनामस्तु नो आगमतः 'ज्ञानादित्रिकं' ज्ञान-दर्शन-चारित्रसमवायरूपम् ; यतो वा 'तेषां' ज्ञानादीनामुत्पत्तिर्भवति ते भावग्रामतया ज्ञातव्याः ॥ १११३ ॥ के पुनस्ते ? उच्यते Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । तित्थगरा जिण चउदस, दस भिन्ने संविग्ग तह असंविग्गे । सारूविय वय दंसण, पडिमाओ भावगामो उ ॥ १११४ ‘तीर्थकराः’ अर्हन्तः, ‘जिनाः ' सामान्यकेवलिनः अवधि - मनः पर्यायजिना वा, चतुर्दशपूर्विणो दशपूर्विणश्च प्रतीताः, “भिन्ने” त्ति असम्पूर्णदशपूर्वघारिणः, 'संविग्नाः ' उद्यतविहारिणः, 'असंविग्नाः' तद्विपरीताः, 'सारूपिकाः नाम' श्वेतवाससः क्षुरमुण्डितशिरसो भिक्षाटनोपजीविनः पश्चात्कृतविशेषाः, "वय" त्ति प्रतिपन्नाणुव्रताः श्रावकाः, "दंसण" त्ति दर्शन श्रावकाः - अविरत - सम्यग्दृष्टय इत्यर्थः, ‘प्रतिमाः' अर्हद्विम्बानि । एष सर्वोऽपि भावग्रामः, एतेषां दर्शनादिना ज्ञानादिप्रसूतिसद्भावात् । अत्र परः प्राह – ननु युक्तं तीर्थकरादीनां ज्ञानादिरत्नत्रयसम्पत्समन्वितायां भावप्रामत्वम्, ये पुनरसंविग्नादयस्तेषां कथमिव भावग्रामत्वमुपपद्यते ? नैष दोष:, तेषामपि यथावस्थितप्ररूपणाकारिणां पार्श्वतो यथोक्तं धर्ममाकर्ण्य सम्यग्दर्शनादिलाभ उदयते, अतस्तेषामपि 10 भावग्रामत्वमुपपद्यत एवेति कृतं प्रसङ्गेन ।। १११४ ॥ तीर्थकरा इति पदं विशेषतो भावयति - चरण- करणसंपन्ना, परीसहपरायगा महाभागा । तित्थगरा भगवंतो, भावेण उ एस गामविही ॥ १११५ ॥ चरण-करणसम्पन्नाः परीषहपराजेतारो महाभागास्तीर्थकरा भगवन्तो दर्शनमात्रादेव भव्यानां सम्यग्दर्शनादिबोधिबीजप्रसूतिहेतवो भावग्रामतया प्रतिपत्तव्याः । एवं जिनादिष्वपि भावनीयम् । 15 एष सर्वोऽपि भोवग्रामविधिर्मन्तव्यः ॥ १११५ ।। प्रतिमा अधिकृत्य भावनामाह-जा सम्मभावियाओ, पडिमा इयरा न भावगामो उ । भावो जइ नत्थि तर्हि, नणु कारण कज्जउवयारो ॥। १११६ ॥ याः ‘सम्यग्भाविताः’ सम्यग्दृष्टिपरिगृहीताः प्रतिमास्ता भावग्राम उच्यते, न 'इतराः ' मिथ्यादृष्टिपरिगृहीताः । आह सम्यम्भाविता अपि प्रतिमास्ताव [ द्] ज्ञानादिभावशून्याः, ततो यदि 20 ज्ञानादिरूपो भावस्तत्र नास्ति ततस्ताः कथं भावग्रामो भवितुमर्हन्ति : उच्यते-ता अपि दृष्ट्वा भव्यजीवस्याऽऽर्द्रककुमारादेरिव सम्यग्दर्शनाद्युदीयमानमुपलभ्यते ततो ननु कारणे कार्योपचार इति कृत्वा ता अपि भावग्रामो भण्यन्ते ॥ १११६ ।। अत्र परः प्राह एवं खु भावगामो, णिण्हगमाई वि जह मयं तुब्भं । अमवच्चं को णु हु, अव्विवरीतो वदिजाहिं ।। १११७ ॥ यथा सम्यग्भावितप्रतिमानां कारणे कार्योपचाराद् भावग्रामत्वं युष्माकं 'मतम्' अभिप्रेतम्, एवमेव निह्नवादयोऽपि भावग्राम एव भवतां प्राप्नुवन्ति तेषामपि दर्शनेन कस्यचित् सम्यग्दर्शनोत्पादात् । सूरिराह – 'एतत्' त्वदुक्तमवाच्यवचनं भवन्तमसमञ्जसप्रलापिनं विना को नु भाप्यगाथाः १११२-१७] ३४९ १ यदा सम्यग्दर्शनादिलाभ उदयते तदा तेषामपि भा० ॥ २ "जा सम्म० गाहा । सम्मभावियातो य पडिमाओ ण वि इतरीओ | आह कहं मिच्छद्दिीपरिग्गहिताओ पडिमातो भावगामो ग भवति ? उच्यते—तत्र ज्ञानादिभावो नास्ति । आह् ननु कारणे कार्यवदुपचार इति कृत्वा ताओ विद कस्सइ सम्मुप्पातो होजा तो कथं ताओ भावगामो ण भवन्ति ? । आयरिओ भणति — एवं खु भाव० गाधाद्वयं कण्ठ्यम् ॥” इति चूर्णौ । विशेषचूर्णावपि प्राय एतत्सम एव पाठः ॥ ३ एव खलु भा ता० ॥ 25 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ 'अविपरीतः' सम्यग्वस्तुतत्त्ववेदी वदेत् ? अपि तु नैवेत्यभिप्रायः ॥१११७॥ कुतः ? इत्याह जइ वि हु सम्मुप्पाओ, कासइ दद्गुण निण्हए होजा । मिच्छत्तहयसईया, तहावि ते वजणिज्जा उ ॥ १११८ ॥ यद्यपि हि निह्नवानपि दृष्ट्वा कस्यचित् सम्यग्दर्शनोत्पादो भवेत् तथापि ते मिथ्यात्वम्-अतत्त्वे 5 तत्त्वाभिनिवेशः तेन हता-दूषिता स्मृतिः-सर्वज्ञवचनसंस्कारलक्षणा दुर्वातेन सस्यवद् येषां ते मिथ्यात्वहतस्मृतिका (ग्रन्थानम्-४५००) एवंविधाश्च बह्वीभिरसद्भावोद्भावनाभिरस्तोकलोकचेतांसि विपरिणामयन्तः पूर्वलब्धमपि बोधिबीजमात्मनोऽपरेषां चोपनन्तो दूरंदूरेण वर्जनीया इति । यतश्चैवमतो नैते भावग्रामतया भवितुमर्हन्तीति प्रकृतम् ॥ १११८ ॥ ___ अथात्र कतरेण ग्रामेणाधिकारः ? उच्यते10 आहार-उवहि-सयणा-ऽऽसणोवभोगेसु जो उ पाउग्गो । एयं वयंति गाम, जेणऽहिगारो इहं सुत्ते ॥ १११९ ॥ आहारोपधी प्रतीतौ, शयनं-संस्तारकः, आसनं-पीठादि, एतेषामुपभोगेषु यः प्रायोग्यः । किमुक्तं भवति ?–एतानि यत्र कल्प्यानि प्राप्यन्ते तमेनं ग्रामं वदन्ति' प्ररूपयन्ति सूरयः, येन 'अत्र' सूत्रे 'अधिकारः' प्रकृतमिति ॥ १११९ ॥ 15 व्याख्यातं ग्रामपदम् । अथ नगरादिपदान्यतिदिशन्नाह __एमेव य नगरादी, नेयव्या होंति आणुपुवीए । जं जं जुजइ जत्थ उ, जोएअव्वं तगं तत्थ ॥ ११२० ॥ यथा ग्रामपदं प्ररूपितम् एवमेव नगरादीन्यपि पदान्यानुपूर्व्या नेतव्यानि । एतदेव व्याचष्टेयद् यद् नाम-स्थापना-द्रव्य-भावादिकं यत्र नगरादौ युज्यते तत् तत्र योजयितव्यमिति ॥११२०॥ 20 अथ परिक्षेपपदं निक्षिपन्नाह नामं ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उ परिक्खेवे, निक्खेवो छव्विहो होइ ॥ ११२१ ॥ नामपरिक्षेपः स्थापनापरिक्षेपो द्रव्यपरिक्षेपः क्षेत्रपरिक्षेपः कालपरिक्षेपो भावपरिक्षेपः । एष परिक्षेपे निक्षेपः षड्विधो भवति ॥ ११२१ ॥ 25 तत्र नाम-स्थापने गतार्थे । द्रव्यपरिक्षेपं प्रतिपादयति सचित्तादी दव्वे, सञ्चित्तो दुपयमायगो तिविहो । मीसो देसचियादी, अचित्तो होइमो तत्थ ॥ ११२२ ॥ द्रव्यपरिक्षेपस्त्रिविधः----'सच्चित्तादिः' सच्चित्तोऽचित्तो मिश्रश्चेत्यर्थः । सच्चित्तस्त्रिविधो द्विपदचतुष्पदा-ऽपदभेदात् । तत्र ग्राम-नगरादेर्यद् मनुष्यैः परिवेष्टनं स द्विपदपरिक्षेपः, यत्तु तुरङ्गम30 हस्त्यादिभिः स चतुप्पदपरिक्षेपः, यत् पुनर्वृक्षैः सोऽपदपरिक्षेपः । मिश्रोऽप्येवमेव त्रिविधः, परं "देसचितादि" त्ति देशे-एकदेशे उपचितः-सचेतनः, आदिशब्दाद् देशे अपचितः-व्यपगतचैतन्यः । किमुक्तं भवति ?-यत्रैके मनुष्या-ऽश्व-हम्त्यादयो जीवन्ति, अपरे तु मृताः परं १कल्पानि मो• विना ॥ २ °न्यप्यानु° मो० ले. कां० ॥ ३ °सवि॰ कां० त० विना ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 भाष्यगाथाः १११८-११२७] प्रथम उद्देशः । ३५१ ग्रामादिकं परिक्षिप्य व्यवस्थिताः, स मिश्रपरिक्षेपः । अचित्तपरिक्षेपस्त्वयं भवति ॥ ११२२ ॥ तमेवाह पासाणिदृग-मट्टिय-खोड-कडग-कंटिगा भवे दव्वे । खाइय-सर-नइ-गड्डा-पव्यय-दुग्गाणि खेत्तम्मि ॥ ११२३ ।। पाषाणमयः प्राकारो यथा द्वारिकायाम् , इष्टकामयः प्राकारो ययाऽऽनन्दपुर, मृत्तिकामयो 5 यथा सुमनोमुखनगरे, “खोड' त्ति काष्ठमयः प्राकारः कस्यापि नगरादेर्भवति, कटकाः-वंशदलादिमयाः कण्टिकाः-बुब्बूलादिसम्बन्धिन्यः तन्मयो वा परिक्षेपो ग्रामादेर्भवति, एष सर्वोऽपि द्रव्यपरिक्षेपः । क्षेत्रपरिक्षेपम्तु खतिका वा सरो वा नदी वा गर्ता वा पर्वतो वा दुर्गाणि वा-जलदुर्गादीनि पर्वता एव दुर्गाणि वा, एतानि नगरादिकं परिक्षिप्य व्यवस्थितानि क्षेत्रपरिक्षेप उच्यते ॥ ११२३ ॥ कालपरिक्षेपमाह वासारत्ते अइपाणियं ति गिम्हे अपाणियं नचा। कालेण परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरंति ॥ ११२४ ॥ वर्षारात्रेऽतिपानीयमिति कृत्वा 'ग्रीमे' उप्णकाले अपानीयमिति कृत्वा रोद्धं न शक्यत इति ज्ञात्वा तेन कारणेन तद् नगरादिकम् 'अन्ये' परराष्ट्रराजानः परिहरन्ति तत् कालपरिक्षिप्तम् ॥ ११२४ ॥ भावपरिक्षेपमाह----- नचा नरवइणो सत्त-सार-बुद्धी-परकमविसेसे । भावेण परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरंति ॥ ११२५ ॥ सत्त्वं-धैर्यम् ; सारो द्विधा--बाह्य आभ्यन्तरश्च, बाह्यो बल-वाहनादिः, आभ्यन्तरो रत्न-सुवर्णादिः; बुद्धिरौत्पत्तिक्यादिभेदाच्चतुर्विधा यथा अभयकुमारस्य; पराक्रमः-औरसबलात्मकः, एतान् सत्त्व-सार-बुद्धि-पराक्रमविशेषान् विवक्षितनरपतेः सम्बन्धिनो ज्ञात्वा 'यद्यनेन सार्द्ध विग्र-20 हमारप्स्यामहे तत उत्खनिष्यन्ते सपुत्रगोत्राणामस्माकमनेन कन्दाः' इति परिभाव्य तदीयं नगरं यद् 'अन्ये' राजानः परिहरन्ति तत् तदीयेन सत्त्व-सारादिना भावेन परिक्षिप्तं प्रतिपत्तव्यम् ॥ ११२५ ॥ व्याख्यातं परिक्षेपपदम् । अत्र द्रव्यपरिक्षेपेण प्रकृतम् । अथ मासपदनिक्षेपमाह नाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य । [स.नि. १४३] मासपमासस्स परूवणया, पगयं पुण कालमासेणं ॥११२६ ॥ पणम् नाममासः स्थापनामासो द्रव्यमासः क्षेत्रमासः कालमासो भावमासश्चेति षड्डिधा मासस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या । प्रकृतं पुनरत्र सूत्रे कालमासेन ॥ ११२६ ॥ तत्र नाम-स्थापने क्षुण्णत्वाद् व्युदस्य द्रव्यमासमाह दव्वे भवितो निव्वत्तिओ उ खेत्तं तु जम्मि वण्णणया । कालो जहि वणिजइ, नक्खत्तादी व पंचविहो ॥ ११२७॥ 30 १ नद त• कां० ॥ २ °मस्य भव भा० ॥. ३ खातिका-पानीयपरिपूर्णा परिखा, सरोनदी-गर्ताः प्रतीताः, पर्वता एव दुरारोहतया दुर्गाणि-विषमस्थानानि, एतानि भा० ॥ ४ रोढुं न भा. मो० ले० ॥ 25दनिरू Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र चन्द्रमासादीनां निरूपणम् सनिर्युक्ति-लघुभाग्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ द्रव्यमासः “भविउ " ति माषत्वेन य उत्पत्स्यते, स चैकभविको बद्धायुप्कोऽभिमुखनामगोत्रश्चेति त्रिधा, एष त्रिविधोऽपि प्राकृतशैल्या द्रव्यमासो भण्यते, एवमुत्तरत्रापि । अथवा द्रव्य - मासो द्विधा मूलोत्तरगुणनिर्वर्त्तितभेदात् । तत्र यो जीवविप्रमुक्तो माषः स मूलगुणनिर्वर्तितः, यस्तु चित्रकर्मादौ माषस्तम्ब आलिखितः स उत्तरगुणनिर्वर्तितः । क्षेत्रमासस्तु यस्मिन् क्षेत्रे मासB कैल्पस्य वर्णना क्रियते माषो वा वाप्यते । कालमासः पुनर्यस्मिन् काले माषो वाप्यते मासकल्पो वा वर्ण्यते । अथवा कालमासः श्रावणादिः । यद्वा कालमासो नक्षत्रादिकः पञ्चविधः । तद्यथानक्षत्रमासश्चन्द्रमासः ऋतुमासः आदित्यमासः अभिवर्द्धितमासः ॥ ११२७ ॥ अमीषामेव परिमाणमाह नक्खतो खलु मासो, सत्तावीसं हैवंतऽहोरत्ता । भागा य एकवीसं, सत्तट्ठिकरण एणं ।। ११२८ ॥ अणत्तीसं चंदो, विसट्ठि भागा य हुंति बत्तीसा । कम्मो तीसइदिवसो, तीसा अद्धं च आइचो ॥ ११२९ ॥ अभिवढि इकतीसा, चउवीसं भागसयं च तिगहीणं । भावे मूलाइजुओ, पगयं पुण कम्ममासेणं ।। ११३० ॥ 15 नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः, स खलु मासः सप्तविंशतिरहोरात्राणि सप्तषष्टीकृतेन च्छेदेन च्छिन्नस्याहोरात्रस्यैकविंशतिः सप्तषष्टा भागाः । तथाहि-- चन्द्रस्य भरण्याद्री - श्लेषा-स्वाति ज्येष्ठा-शतभिषग्नामानि षड् नक्षत्राणि पञ्चदशमुहूर्त्तभोगीनि, तिस्र उत्तराः पुनर्वसू रोहिणी विशाखा ि षट् पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तभोगीनि, शेषाणि तु पञ्चदश नक्षत्राणि त्रिंशन्मुहूर्त्तानीति जातानि सर्वसङ्ख्यया मुहूर्त्तानामष्ट शतानि दशोत्तराणि; एतेषां च त्रिंशन्मुहूर्तेरहोरात्रमिति कृत्वा त्रिंशता 20भागो ह्रियते लब्धानि सप्तविंशतिरहोरात्राणि, अभिजिद्भोगश्चैकविंशतिः सप्तषष्टा भागा इति तैरम्यधिकानि सप्तविंशति रहोरात्राणि सकलनक्षत्रमण्डलोपभोगकालो नक्षत्रमास उच्यते १ ॥ ११२८ ॥ चन्द्रे भवश्चान्द्रः कृष्णपक्षप्रतिपद आरभ्य यावत् पौर्णमासी परिसमाप्तिस्तावत्कालमानः; स च एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य २ । कर्ममासः ऋतुमास इत्येकोऽर्थः, त्रिंशदिवसप्रमाणः ३ । आदित्यमास स्त्रिंशदहोरात्राणि रात्रिन्दिवस्य चार्द्धम्, दक्षिणायनस्यो25 सरायणस्य वा षष्ठभागमान इत्यर्थः ४ ॥ ११२९ ॥ 10 ३५२ 30 अभिवर्द्धितो नाम मुख्यतः त्रयोदशचन्द्रमासप्रमाणः संवत्सरः परं तद्वादशभागप्रमाणो मासोऽप्यवयवे समुदायोपचाराद् अभिवर्द्धितः, स चैकत्रिंशदहोरात्राणि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागी - कृतस्य चाहोरात्रस्य त्रिकहीनं चतुर्विंशं शतं भागानां भवति, एकविंश[ शत]मिति भावः ५ । एतेषां चानयनाय इयं करणगाथा -- जुगमासेहिँउ भइए, जुगम्मि लद्धं हविज्ज नायव्वं । मासाणं पंचह वि, एयं इंदियपमाणं ॥ इह सूर्यस्य दक्षिणमुत्तरं वा अयनं त्र्यशीत्यधिकदिनशतात्मकम् । द्वे अयने वर्षमिति कृत्वा १ कल्पः क्रियते वर्ण्यते वा । काल भा० ॥ २ हवंति अहो' डे० ता० विना ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ११२८-३३] प्रथम उद्देशः । . . ३५३ वर्षे षट्षष्ट्यधिकानि त्रीणि शतानि भवन्ति । पञ्च संवत्सरा युगमिति कृत्वा तानि पञ्चभिर्गुण्यन्ते जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशानि दिवसानाम् । एतेषां नक्षत्रमासदिवसानयनाय सप्तषष्टियुगे नक्षत्रमासा इति सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्रा एकविंशतिरहोरात्रस्य सप्तषष्टिभागाः १। तथा चन्द्रमासदिवसानयनाय द्वाषष्टियुगे चन्द्रमासा इति द्वाषष्ट्या तस्यैव युगदिनराशेर्भागो हियते, लब्धान्येकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागाः २ । एवं युग-5 दिवसानामेवैकषष्टियुगे कर्ममासा इत्येकषष्ट्या भागे हृते लब्धानि कर्ममासस्य निशदिनानि ३ । तथा युगे षष्टिः सूर्यमासा इति षष्ट्या युगदिनानां भागे हृते लब्धाः सूर्यमासदिवसास्त्रिंशदहोरात्रस्याद्धं च ४ । तथा युगदिवसा एव अभिवर्द्धितमासदिवसानयनाय त्रयोदशगुणाः क्रियन्ते जातानि त्रयोविंशतिसहस्राणि सप्त शतानि नवत्यधिकानि, एषां चतुश्चत्वारिंशैः सप्तभिः शतैर्भागो ह्रियते लब्धा एकत्रिंशदिवसाः, शेषाण्यवतिष्ठन्ते षड्विंशत्यधिकानि सप्तशतानि चतुश्चत्वा-10 रिंशसप्तशतभागानाम्, ३१ ४३६ नंत उभयेषामप्यानां पझिरपवर्तना क्रियते जातमेकविंशं शतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानामिति ५॥ उक्ताः पञ्चापि कालमासाः । भावमासो नोआगमतः 'मूलादियुतः' मूल-कन्द-स्कन्धादिरूपतया माषप्रायोग्याणि कर्माणि वेदयन् माषजीवोऽवगन्तव्यः । प्रकृतं पुनरत्र 'कर्ममासेन' ऋतुमासेनेत्यर्थः । ततः "अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं एकं मासं वत्थए" ति (सू० ६) 15 किमुक्तं भवति ?--त्रिंशदहोरात्रमानमेकं ऋतुमासं कल्पते वस्तुमिति ॥ ११३० ॥ प्ररूपितं मासपदम । अथ येषां मासकल्पेन विहारो भवति तान् नामग्राहं गृहीत्वा तद्विधिमभिधित्सुराह, जिण सुद्ध अहालंदे. गच्छे मासो तहेव अजाणं । एएसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुबीए ॥ ११३१ ।। पविहाजिनकल्पिकानां शुद्धपरिहारकाणां यथालन्दकल्पिकानां ‘गच्छवासिनां स्थविरकल्पिकाना- 20 मित्यर्थः । तथैव 'आर्याणां' साध्वीनां यथा येषां मासकल्पो भवति तथैतेषां सर्वेषामपि नानात्वं वक्ष्यामि 'यथानुपूर्व्या यथोद्दिष्टपरिपाट्या ॥ ११३१ ॥ तत्र प्रथमं जिनकल्पिकानाश्रित्याहपव्वजा सिक्खापयमत्थग्गहणं च अनियओ वासो।। जिनकनिष्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव ॥ ११३२ ॥ ल्पिकाः प्रथमं प्रव्रज्या वक्तव्या, कथमसौ जिनकल्पिकः प्रव्रजितः ? इति । ततः 'शिक्षापदं' ग्रह-25 णा-ऽऽसेवनाविषयम् । ततो ग्रहणशिक्षयाऽधीतसूत्रस्यार्थग्रहणम् । ततो नानादेशदर्शनं कुर्वतो यथा अनियतो वासो भवति । ततः शिष्याणां निष्पत्तिः । तदनन्तरं विहारः । ततो जिनकल्पं प्रतिपन्नस्य सामाचारी । ततस्तस्यैव 'स्थितिः' क्षेत्र-कालादिकाऽभिधातव्येति गाथासमुदायार्थः ॥ ११३२ ॥ अवयवार्थ प्रतिद्वारमभिधित्सुः प्रथमतः प्रत्रज्याद्वारमाहसोचाऽभिसमेचा वा, पव्यज्जा अभिसमागमो तत्थ । 30जनकजाइस्सरणाईओ, सनिमित्तमनिमित्तओ वा वि ॥ ११३३ ॥ हिपकानां 'श्रुत्वा तीर्थकर-गणधरादीनां धर्मदेशनां निशम्य 'अभिसमेत्य वा' सह सन्मत्यादिना स्वय- अत्रज्या १ भागो ह्रियते भा० ॥ २ शत्सप्त भा० बिना ॥ ३ तनाम भा. विना ॥ मारक रिणः Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ मेवावबुध्य प्रव्रज्या भवेत् । तत्राल्पवक्तव्यत्वात् प्रथममभिसमागम उच्यते-सो अभिसमागमो जातिस्मरणादिकः सनिमित्तकोऽनिमित्तको वा द्रष्टव्यः । तत्र यद् बाह्यं निमित्तमुद्दिश्य जातिस्मरणमुपजायते तत् सनिमित्तकम् , यथा वल्कलचीरिप्रभृतीनाम् । यत् पुनरेवमेव तदावारककर्मणां क्षयोपशमेनोत्पद्यते तदनिमित्तकम् , यथा खयम्बुद्ध-कपिलादीनाम् । एतेन जातिस्मरणेन 5 आदिग्रहणात् श्रावकम्य गुणप्रत्ययप्रभवेणावधिज्ञानेन अन्यतीर्थिकस्य वा विभङ्गज्ञानेन प्रव्रज्याप्रतिपत्तिः सम्भवति ॥ ११३३ ॥ गतमभिसमेत्यद्वारम् । अथ श्रुत्वेति द्वारं विवरीषुराह सोचा उ होइ धम्मं, स केरिसो केण वा कहेयव्यो। के तस्स गुणा वुत्ता, दोसा अणुवायकहणाए ॥११३४ ॥ धर्ममाचार्यादीनामन्तिके श्रुत्वा प्रव्रज्या भवति । अत्र शिप्यः पृच्छति-स धर्मः कीदृशः ? 10 केन वा कथयितव्यः ? के वा तस्योपायकथने गुणाः प्रोक्ताः ? के वा अनुपायकथने दोषाः ? इति ॥ ११३४ ॥ तत्र कीदृशः ? केन वा कथयितव्यः ? इति प्रश्ने निर्वचनमाहउपदेष्टव्यो संसारदुक्खमहणो, वियोहओ भवियपुंडरीयाणं । धर्मः धर्मोपदेशाधि धम्मो जिणपन्नत्तो, पगप्पजइणा कहेयव्यो । ११३५ ॥ कारिणश्च ____ संसार एव जन्म-जरा-मरणादिदुःखनिबन्धनत्वाद् दुःखं संसारस्य वा दुःखानि-शारीर-मान 15 सिकलक्षणानि तस्य तेषां वा मथनः-विनाशकः, तथा भव्या एव विनयादिविमलगुणपरिमल योगाद् ज्ञानादिलक्ष्मीनिवासयोग्यतया च पुण्डरीकाणि-श्वेतसरोरुहाणि तेषां विशेषेण मिथ्यात्वादिनिद्राविद्रावणलक्षणेन बोधकः-सम्यग्दर्शनादिविकाशकारी, ईदृशो जिनप्रज्ञप्तो धर्मः 'प्रकल्पयतिना' निशीथाध्ययनसूत्रार्थधारिणा साधुना कथयितव्यः । स हि संविमगीतार्थतयोत्स र्गा-ऽपवादपदानि स्वस्थाने स्वस्थाने विनियुञ्जानो न विपरीतप्ररूपणयाऽऽत्मानं परं वा दीर्घभव20 भ्रमणभाजनमातनोतीति ॥ ११३५ ॥ ____ परः प्राह–किमेवंविधोऽपि भागवतो धर्म उपदिश्यमानः केषाञ्चिद् बोधं न जनयति येनैवमभिधीयते "भव्यपुण्डरीकाणां विबोधकः' ? इति, अत्रोच्यते जह सूरस्स पभावं, द₹ वरकमलपोंडरीयाई । बुझंति उदयकाले, तत्थ उ कुमुदा न चुझंति ॥ ११३६ ॥ एवं भवसिद्धीया, जिणवरसूरस्सुतिप्पभावेणं । बुझंति भवियकमला, अभवियकुमुदा न बुझंति ॥ ११३७ ॥ यथा सूर्यस्य 'प्रभावं' प्रभापटलरूपं दृष्ट्वा सरसि स्थितानि वरकमलपुण्डरीकाणि 'उदयकाले' प्रभाते बुध्यन्ते । तत्रैव च सरसि कुमुदान्यपि सन्ति परं तानि न बुध्यन्ते ॥ ११३६ ॥ 'एवम्' अनेनैव दृष्टान्तेन जिनवरसूर्यस्य या श्रुतिः-आगमः प्रभापटलकल्पस्तत्प्रभावेन 30 भव्यकमलानि 'बुध्यन्ते' सम्यक्त्वादिविकाशमासादयन्ति । तानि च ___"भव्या वि ते अणंता, जे मुत्तिसुहं न पावंति ।" इति वचनादसम्भावनीयसिद्धिगमनान्यपि भवेयुरित्यतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह-भवा-भाविनी सिद्धि १ धर्म तीर्थकगदीनामन्तिके भा० ॥ २ °लजनितं दृ' भा० ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ११३४-४०] प्रथम उद्देशः । ३५५ र्येषां तानि भवसिद्धिकानि । यस्मिंश्च जीवलोकसरसि भगवतः प्रभावेन भव्यकमलानि बोधमनुवते तस्मिन् अभव्यकुमुदान्यपि कालसौकरिकप्रभृतीनि सन्ति परं तानि न प्रतिबुध्यन्ते, तथाखाभाव्यात् । यदवादि वादिमुख्येन सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेप्विह तामसेषु, सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥ (सिद्धसेनीया द्वितीया द्वात्रिंशिका श्लोक १३ ) ॥ ११३७ ॥ अत्र परः प्राह पुव्व तु होइ कहओ, पच्छा धम्मो उ उक्कमो किन्नु । तेण वि पुवं धम्मो, सुओ उ तम्हा कमो एमो ॥ ११३८ ॥ पूर्वं तावत् 'कथकः' धर्मोपदेष्टा भवति, पश्चात् तदुपदेशं श्रुत्वा धर्म उत्पद्यते, अतः 10 किमेवं 'स कीदृशः' इति प्रथमं धर्मखरूपमुद्दिश्य 'केन वा कथयितव्यः' इति कथकखरूपं पश्चादुद्दिशद्भिरुत्क्रमः क्रियते ? । गुरुराह-तेनापि कथकेन पूर्व गुरूणां समीपे धर्मः श्रुत एवं तस्मात् क्रम एषः नोत्कम इति ॥ ११३८ ॥ अयं च धर्म उपायेनैव कथयितव्यो नानुपायेन । आह के दोषा अनुपायकथने ? उच्यतेजइधर्म अकहेत्ता, अणु दुविधं सम्म मंसविरइं वा ।। 15 अविधिना अणुवासए कहिंते, चउजमला कालगा चउरो ॥ ११३९ ॥ धर्मकथने दोषाः यः खलु मिथ्याप्टिरनुपासकस्तत्प्रथमतया धर्मश्रवणार्थमुपतिष्ठते तस्य यतिधर्मः कथयितव्यः । यदि यतिधर्ममकथयित्वा श्रावकसम्बन्धिनमणुधर्म कथयति तदा चत्वारो गुरवः तपसा कालेन च द्वाभ्यामपि गुरुकाः । यदा यतिधर्म प्रतिपत्तुं नोत्सहते तदा मूलोत्तरगुणभेदाद् द्विविधः श्राद्धधर्मः कथनीयः, सम्यक्त्वमूलानि द्वादश व्रतानीत्यर्थः । यदि श्राद्धधर्ममकथयित्वा सम्यग्दर्शनमात्रं कथ- 20 यति तदाऽपि चत्वारो गुरवः तपसा गुरवः कालेन लघवः । यदा श्राद्धधर्मं ग्रहीतुं न शक्नोति तदा यदि सम्यग्दर्शनमनुपदिश्य मद्य-मांसविरतिं कथयति तदा चत्वारो गुरवः तपसा लघवः कालेन गुरवः । यदा सम्यग्दर्शनमप्यङ्गीकर्तुं न शक्ष्यते तदा यदि मद्य-मांसविरतिमप्ररूप्यहिकमामुप्मिकं वा तद्विरतिफलं कथयति तदाऽपि चत्वारो गुरवः तपसा कालेन च लघवः । “चउजमला कालगा चटरो" ति चत्वारि यमलानि तपः-कालयुगललक्षणानि येषु ते चतुर्यमलाः, 25 चत्वारः कालकाश्चत्वारश्चतुर्गुरुका इत्यर्थः, आज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः ॥ ११३९ ॥ अपि च-- जीवा अब्भुट्टिता, अविहीकहणाइ रंजिया संता। अभिसंछ्ढा होती, संसारमहनवं तेणं ॥ ११४०॥ ते जीवाः प्रव्रज्यायामभ्युत्तिष्ठन्तोऽपि तदीयया अविधिकथनया रञ्जिताः सन्तश्चिन्तयन्ति– यदि श्रावकधर्मेणापि कामभोगान् भुञ्जानैः सुगतिरवाप्यते ततः किमनया सिकताकवलनिराखादया 30 प्रत्रज्यया ?, एवं यदि सम्यग्दर्शनमात्रेणापि सुगतिरासाद्यते तर्हि को नामात्मानं विरतिशृङ्खलायां १ नेयं गाथा विशेषचूर्णिकृताऽऽहता ॥ २°धं मजमंस ता० ॥ ३°धोऽणुधर्मः भा० ॥ ४ मते मो. डे० विना ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ प्रक्षेप्स्यति ? इत्यादि एवं ते विपरिणामिताः प्रव्रज्यामगृह्णन्तः षट् कायान् विराधयेयुः, अतः 'तेन' कथकेन संसारमहार्णवम् अभि-आभिमुख्येन प्रक्षिप्ता भवन्ति, चिरेण मुक्तिपदप्राप्तेः ॥११४०॥ एसेव य नूण कमो, वेरग्गगओ न रोयए तं च । दुहतो य निरणुकंपा, सुणि-पयस-तरच्छअट्ठवमा ॥११४१ ॥ 5. ते जीवा इत्थं चिन्तयेयुः-नूनमेष एवात्र 'क्रमः' परिपाटिः यत् पूर्व श्रावकधर्म स्पृष्ट्या पश्चाद् यतिधर्मः प्रतिपद्यते, अथवा पूर्व सम्यग्दर्शनमात्रमुररीकृत्य ततो देशविरतिरुपादीयते, यद्वा मद्य-मांसविरतिं स्पृष्ट्वा पश्चात् सम्यक्त्वं गृह्यते इति । स चारम्भबहुलतया गृहवासस्योपरि वैराग्यमुपगतः प्रव्रज्यां प्रतिपत्तुमायातः, स च धर्मकी श्राद्धधर्म प्ररूपयितुं लमः, तं चासौ वैराग्याधिरूढमानसत्वाद् न रोचयति, ततो विपरिणम्य तच्चन्निकादिषु गच्छेत् । ते चैवमविधिना 10 धर्म कथयन्तः 'द्विधाऽपि निरनुकम्पाः' षण्णां कायानां तस्य चोपर्यनुकम्पारहिताः । "सुणि" त्ति वीरशुनिकादृष्टान्तः-यथा सा वीरशूनिका पूर्वमालमालैः परिखेदिता पश्चात् सद्भूतमपि नेच्छति, एवमत्रापि पूर्व श्राद्धधर्मे कथिते पश्चाद् यत्नतोऽभिधीयमानमपि श्रमणधर्ममसौ न प्रतिपद्यते । तथा “पयस" ति यथा कस्यापि प्राघूर्णकस्य पूर्व वासितभक्तं दत्तं ततः स उदरपूर तद् भुक्तवान् , पश्चाद् घृत-मधुसंयुक्तं पायसमपि दीयमानं तस्य न रोचते । “तरच्छ अढुवम" 15 त्ति यथा तरक्षः-व्याघ्रविशेषः स पूर्वमम्नां ध्राणः पश्चादामिषमपि न रोचयति, एवमस्यापि श्रावकधर्मध्राणस्य यतिधर्मो न प्रतिभासते । यत एते दोषा अतो विधिनैव कथनीयम् ॥११४१।। के पुनर्विधिकथने गुणाः ? उच्यतेविधिना तित्थाणुसजणाए, आयहियाए परं समुद्धरनि । धर्मोपदेशदाने मग्गप्पभावणाए, जइधम्मकहा अओ पढमं ।। ११४२ ॥ गुणाः 20 यतिधर्मकथा प्रथमतः क्रियमाणा तीर्थस्यानुसजनायै भवति, बहूनां जन्तूनां प्रव्रज्याप्रतिपत्तेः । तीर्थानुषजना च कृता आत्महिताय जायते । परं च प्रव्रज्याप्रदानेन संसारसागरादसौ समुद्धरैति । अत एव मार्गस्य-सम्यग्दर्शनादेः प्रभावनायै सा प्रभवति । यत एते गुणा अतो यतिधर्मकथा प्रथमं वरूपतो गुणतश्च कर्त्तव्या । तत्र स्वरूपतो यथा-"खंती य मद्दवऽजव, मुत्ती०" (दशवै० १० अ० नि० गा० २४८) इत्यादि । गुणतो यथा नो दुष्कर्मप्रयासो न कुयुवति-सुत-स्वामिदुर्वाक्यदुःखं, राजादौ न प्रणामोऽशन-वसन-धन-स्थानचिन्ता न चैव । ज्ञानाप्तिलोकपूजा प्रशमसुखरसः प्रेत्य मोक्षाद्यवाप्तिः, श्रामण्येऽमी गुणाः स्युस्तदिह सुमतयः ! किं न यनं कुरुध्वम् ? ॥ इत्यादि । १°धर्म प्रति भा० विना ॥ २ “जहा सा वीरसुणिया अलिकमलिकेहि निरत्थीकया पच्छा सन्तयं पि नेच्छति, चिंतेइ-अलिक्कयं एयं; उवसंघारो वक्तव्यः । ‘पयस' त्ति जहा वा कस्सति पाहुणयस्स पुञ्वं दोसीणो दिण्णो, पच्छा घय-महसंजुत्तो पायसो, सो से न रोयति; उवसंहारो वक्तव्यः । अहवा 'सुणिपयस' त्ति जहा चम्मगारमुणिया पलिच्छेयाणं कया पच्छा पायसं पि नेच्छति; उवसंहारो वक्तव्यः । अहवा जहा 'तरच्छ” इति चूर्णौ ॥ ३ उच्यन्ते मो० ले० कां० त० ॥ ४ रति । एवं च भगवदुपदर्शितस्य मार्गम्य-सम्यग्दर्शनरूपम्य प्रभावनायै भवति । यत भा०॥ 25 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 02॥ भाष्यगाथाः ११४१-४७] प्रथम उद्देशः । ३५७ यदा यतिधर्ममङ्गीकर्तुं न शक्नोति तदा सम्यक्त्वमूलः श्राद्धधर्मः कथयितव्यः, यदा तमपि न प्रतिपद्यते तदा सम्यग्दर्शनम् , तस्याप्यप्रतिपत्तौ मद्य-मांसविरतिः । एवं चानुपासकस्य पुरतो धर्मकथायां विधिः । उपासकस्य तु यथावरुचि धर्मकथां करोतु, न कश्चिद्दोषः ॥ ११४२ ॥ गतं प्रवज्याद्वारम् । अथ शिक्षापदद्वारमाहपव्वइयस्स य सिक्खा, गयोहाय सिलीपती य दिटुंतो। जिनक ल्पिकानां तइयं च आउरम्मी, चउत्थगं अंधले थेरे ॥ ११४३ ॥ शिक्षा प्रव्रजितस्य च सतोऽस्य शिक्षा दातव्या । सा च द्विधा---ग्रहणशिक्षा आसेवनशिक्षा च । तत्र ग्रहणशिक्षा सूत्राध्ययनरूपा, आसेवनाशिक्षा प्रत्युपेक्षणादिका । तत्र कोऽपि प्रवजितः सन् आसेवनाशिक्षा सम्यगभ्यस्यति न पुनर्ग्रहणशिक्षाम् । तत्राचार्यैः स्नातेन गजेन श्लीपदिना च दृष्टान्तः क्रियते, तृतीयं चोदाहरणमातुरविषयं चतुर्थमन्धस्थविरविषयं कर्त्तव्यमिति गाथासमा- 10 सार्थः ॥ ११४३ ॥ अथ विस्तरार्थोऽभिधीयते-तत्रासौ गुरुभिरादिष्टः-सौम्य ! गृहाण त्वमेनां ग्रहणशिक्षाम् , अधीप्व विधिवद यथाक्रममाऽऽचारादिश्रुतम् । स प्राह-- पव्वइओऽहं समणो, निक्खित्तपरिग्गहो निरारंभो। इति दिक्खियमेकमणो, धम्मधुराए दढो होमि ॥ ११४४ ॥ समितीसु भावणासु य, गुत्ती-पडिलेह-विणयमाईसु । 15 लोगविरुद्धेसु य बहुविहेसु लोगुत्तरेसुं च ॥॥ ११४५ ॥ जुत्त विरयस्स सययं, संजमजोगेसु उजयमइस्स । किं मज्झं पढिएणं, भण्णइ सुण ता इमे नाए ॥ ११४६॥ भदन्त ! प्रव्रजितोऽहं 'श्रमणः' तपस्वी निक्षिप्तपरिग्रहो निरारंम्भश्च सञ्जात इत्यतः 'दीक्षिते' दीक्षायां मकारोऽलाक्षणिकः एकाग्रमना 'धर्मधुरायां' धर्मचिन्तायां 'दृढः' निष्कम्पो भवामि 20 ॥ ११४४ ॥ किञ्च-- 'समितिषु' ईर्यादिषु 'भावनासु' द्वादशसु पञ्चविंशतिसङ्ख्याकासु वा 'गुप्तिपु' मनोगुप्त्यादिषु प्रत्युपेक्षणायां प्रतीतायां 'विनये' अभ्युत्थानादिरूपे आदिशब्दाद् वैयावृत्त्यादिषु व्यापारेषु 'युक्तस्य' प्रयत्नवतः, तथा 'लोकविरुद्धेषु' जुगुप्सितकुलभिक्षाग्रहणादिषु 'बहुविधेषु' नानाप्रकारेषु 'लोकोत्तरविरुद्धेषु' नवनीत-चलितान्नग्रहणादिषु चशब्दाद् उभयविरुद्धेषु मद्यादिषु 'विरतस्य' 25 प्रतिनिवृत्तस्य 'संयमयोगेषु च' आवश्यकव्यापारेषु उद्यतमतेः एवंविधस्य किं मम 'पठितेन' पाठेन कार्यम् ? न किञ्चिदिति भावः । भण्यते गुरुभिरत्रोत्तरम् -वत्स ! यदर्थं भवान् प्रवजितः स एवार्थो न सेत्स्यतीति । तथा चात्र शृणु तावदमू 'ज्ञाते' द्वे निदर्शने ॥ ११४५॥ ११४६ ॥ ते एव यथाक्रममाह जह ण्हाउत्तिण्ण गओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे। सुट्ट वि उञ्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ ॥ ११४७॥ १°हुत्तरं भा० ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजरात आतुर सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्र [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ जं सिलिपई निदायति, तं लाएति चलणेहि भूमीए । श्लीपदिदृष्टान्ती एवमसंजमपंके, चरणसई लाइ अमुर्णितो ॥ ११४८ ॥ यथा गजः सरो-नद्यादौ मलापनयनार्थ स्नात्वोत्तीर्णः सन् बहुतरां रेणुं करेण गृहीत्वा स्वकीयेऽङ्गे क्षिपति, तथास्वाभाव्यात् ; तथा 'सुष्टुपि' अतिशयेनापि 'उद्यच्छमानः' उद्यम कुर्वाणः अज्ञानी 5 जीवः 'मलं' कर्मरजोलक्षणं चिनोति । एवं त्वमपि कर्ममलनिर्घातनार्थं प्रवजितः परं श्रुताध्ययन. मन्तरेण प्रवचनविरुद्धानि समाचरन् प्रत्युत भूयस्तरेण कर्मरजसाऽऽत्मानं गुण्डयिप्यसि ॥११४७॥ तथा श्लीपदनाम्ना रोगेण यस्य पादौ शूनौ-शिलावद् महाप्रमाणौ भवतः स एवंविधः श्लीपदी यथा क्षेत्रं 'निदायति' निदिणतीत्यर्थः, स च यदल्पमात्रं सस्यं निदायति तद भूयस्तरं 'चलनाभ्यां' पादाभ्यामाक्रम्य भूमौ लगयति मर्दयति च । एवं श्रुतपाठं विना "अमुणंतो" अजानन् 10 "चरणसयं" ति चरणसस्यम् 'असंयमपङ्के' पृथिव्याधुपमर्दकर्दमे लगयति, लगयित्वा च सकलमपि मर्दयति ॥ ११४८ ॥ एवमाचार्यैरुक्ते शिप्य आतुरदृष्टान्तमाह भणइ जहा रोगत्तो, पुच्छति वेजं न संघियं पढइ । दृष्टान्तः इय कम्मामयवेजे, पुच्छिय तुज्झे करिस्सामि ॥ ११४९ ।। स शिप्यो भणति-भगवन् ! यथा रोगातः पुरुषो वैद्यमेव पृच्छति न पुनर्वैद्यकसंहिता 15 पठति, एवमहमपि युप्मान् ‘कर्मामयवैद्यान्' कर्मरोगचिकित्सकान् पृष्ट्वा सर्वामपि क्रियां करिप्यामि, न पुनः श्रुतं पठिप्यामीति ॥ ११४९ ॥ गुरुराह--- भण्णइ न सो सयं चिय, करेति किरियं अपुच्छिउँ रोगी । नायचो अहिगारो, तुमं पि नाउं तहा कुणसु ॥ ११५० ॥ भण्यते अत्रोत्तरम्-यद्यपि नासौ रोगी वैद्यमपृष्ट्वा स्वयमेव क्रियां करोति तथाऽपि तस्य 20 'ज्ञातव्ये' क्रियायाः परिज्ञानेऽधिकारोऽस्ति यथा स वैद्यो भूयो भूयः प्रष्टव्यो न भवति । एवं यद्यपि त्वमस्मान् पृष्ट्वा सर्वामपि क्रियां करिष्यसि तथापि सूत्रमधीत्य षट्कायरक्षणविधि जानीहि, ज्ञात्वा च तथा कुरु यथा बहुशः प्रष्टव्यं न भवति ॥११५०॥ शिप्यः प्रतिभणति दूरे तस्स तिगिच्छी, आउरपुच्छा उ जुजए तेणं ।। सारेहिंति सहीणा, गुरुमादि जतो न हिज्जामि ॥ ११५१ ॥ 25 'तस्य' आतुरस्य 'दूरे' दूरवर्ती सः ‘चिकित्सी' वैद्यः अत आतुरस्य क्रियाया अपरिज्ञाने वैद्यान्तिके पृच्छा युज्यते, मम पुनर्गुरव आदिशब्दाद् उपाध्यायादयः खाधीना एव, अतो ज्ञास्यन्ति ते भगवन्तः खयमेव मदीयं मुखलितम् , ज्ञात्वा च सम्यग् मां सारयिप्यन्ति, यत एवमत एवाहं 'नाधीये' न पठामीति ॥ ११५१ ॥ सूरिराह आगाढकारणेहिं, गुरुमादी ते जया न होहिंति । तइया कहं नु काहिसि, जहा व सो अंधलो थेरो ॥ ११५२ ॥ आगाद्वैः कुलादिभिः कारणैर्यदा 'ते' गुर्वादयस्तव स्वाधीना न भविष्यन्ति तदा कथं नाम त्वं करिष्यसि ? यथा वाऽसावन्धः स्थविरः ॥ ११५२ ॥ तथाहि.. १ वति, अतस्त्वमपि सूत्रमधीय प° भा० ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ११४८-५६] प्रथम उद्देशः । ३५९ सोमिलअट्ट सुय थेर अंधल्लगत्तणं अत्थि मे बहू अच्छी । स्यान्धस्थ__ अप्पद्दण्ण पलित्ते, डहणं अपसत्थग पसत्थे ॥ ११५३ ॥ विरस्योदाउज्जेणी नाम नगरी । तत्थ सोमिलो नाम बंभणो परिवसइ, सो य अंधलीभूओ । तस्स हरणम् य अट्ठ पुत्ता, तेसिं अट्ट भज्जाओ । सो पुत्तेहिं भन्नति-अच्छीणं किरिया कीरउ । सो पडिभणइ--तुभ अट्टण्हं पुत्ताणं सोलस अच्छीणि, सुण्हाण वि सोलस, बंभणीए दोन्नि, एते. चउत्तीसं, अन्नस्स य परियणस्स जाणि अच्छीणि ताणि सवाणि मम, एते चेव पभूया । अन्नया घरं पलित्तं । तत्थ तेहिं अप्पद्दन्नेहिं सो न चतिओ नीणि तत्थेव रडंतो दड्डो । एस अपसत्थो दिटुंतो । मा एवं डज्झिहिसि संसारे असुभकम्मेहिं ॥ ___ इमो पसत्थो-तत्थेव अंधलयथेरो । नवरं तेण कारिया किरिया । सो मणुस्साणं भोगाणं द्वितीयमआभागी जाओ । एवं तुम पि पढित्ता कज्जाकजं वियाणित्ता संसारातो नित्थरिहिसि ॥ 10न्धस्याह रणम् ___ अथ गाथाक्षरार्थ:-सोमिलस्थविरस्याष्टौ सुताः । परं तस्यान्धत्वं बभूव । गाथायामन्धशब्दाद् "विद्युत्पत्रपीतान्धालः" (सिद्ध० ८-२-१७३) इति प्राकृते स्वार्थिको लप्रत्ययः । स च पुत्रैश्चक्षुश्चिकित्साकारणार्थमुक्तः सन् वक्ति-सन्ति मे पुत्रादीनां बहून्यक्षीणि, तैरेव मदीयं कार्य सेत्स्यति । अन्यदा च गृहे प्रदीपनकं लग्नं ततस्ते पुत्रादयः "अप्पद्दन्न" त्ति आत्मरक्षणपरास्त्वरितं प्रणष्टाः । स्थविरान्धस्य प्रदीप्ते गृहे दहनम् । एषोऽप्रशस्तो दृष्टान्तः । प्रश- 15 स्तस्तु विपरीतः, स चोपदर्शित एव । उपनययोजनाऽपि कृतैवेति ॥ ११५३ ।। इत्थमप्युक्तोऽसौ न प्रतिपद्यते श्रुताध्ययनम् , अतो भूयोऽपि' करुणापरीतचेतसः सूरयः प्राहुः मा एवमसग्गाहं, गिण्हसु गिण्हसु सुयं तइयचक्टुं । . किं वा तुमेऽनिलसुतो, न स्सुयपुवो जवो राया ॥ ११५४ ॥ सौम्य ! मैवमसदाहं गृहाण, गृहाण सूक्ष्म-व्यवहितादिष्वतीन्द्रियार्थेषु तृतीयचक्षुःकल्पं 20 श्रुतम् । किं वा त्वया न श्रुतपूर्वोऽनिलनरेन्द्रसुतो यवो राजा ? ॥ ११५४ ॥ कः पुनर्यवः ? इत्याहजव राय दीहपट्ठो, सचिवो पुत्तो य गद्दभो तस्स । यवराजर्षि धूता अडोलिया गद्दमेण छूढा य अगडम्मि ॥११५५ ॥ कथानकम् पव्ययणं च नरिंदे, पुणरागमऽडोलिखेलणं चेडा। जवपत्थणं खरस्सा, उवस्सओ फरुससालाए ॥ ११५६ ॥ यवो नाम राजा । तस्य दीर्घपृष्ठः सचिवः । गर्दभश्च पुत्रः । दुहिता अडोलिका । सा च गर्दभेण तीव्ररागाध्युपपन्नेन 'अगडे' भूमिगृहे विषयसेवार्थ क्षिप्ता ॥ ११५५ ॥ तच्च ज्ञात्वा वैराग्योत्तरङ्गितमनसो नरेन्द्रस्य प्रव्रजनम् । पुत्रस्नेहाच तस्योजयिन्यां पुनः पुनरागमनम् । अन्यदा च चेटरूपाणामडोलिकया क्रीडनं खरस्य च यवप्रार्थनम् । ततश्चोपाश्रयः 30 परुषः-कुम्भकारस्तस्य शालायामित्यक्षरार्थः ॥ ११५६ ॥ भावार्थः पुनरयम् उजेणी नगरी । तत्थ अनिलसुओ जवो नाम राया । तस्स पुत्तो गद्दभो नाम जुवराया। १°पि परमकरुणा मो० ले० ॥ 25 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ तस्स धूया गद्दभस्स जुवरन्नो भइणी अडोलिया णाम, सा य अतीवरूववती । तस्स य जुवरन्नो दीहपट्ठो अमच्चो । ताहे सो जुवराया तं अडोलियं भगिणिं पासित्ता अज्झोववन्नो दुब्बलीभवति । अमच्चेण पुच्छिओ । निब्बंधे सिढें । अमच्चेण भन्नति—सागारियं भविस्सति तो एसा भूमिघरे छुब्भति, तत्थ भुंजाहि ताए समं भोए, लोगो जाणिस्सति ‘सा कहिं पि विनट्ठा'। 5 ‘एवं होउ' त्ति कयं । अन्नया सो राया तं' कजं नाउं निबेदेण पवतिओ । गद्दभो राया जातो। सो य जवो नेच्छति पढिउं, पुत्तनेहेण य पुणो पुणो उज्जेणिं एति । अन्नया सो उजेणीए अदूरसामंते जवखेत्तं, तस्स समीवे वीसमति । तं च जवखेत्तं एगो खेत्तपालओ रक्खति । इओ य एगो गद्दभो तं जवखेत्तं चरिउं इच्छति ताहे तेण खेत्तपालएण सो गद्दभो भन्नति आधावसी पधावसी, ममं वा वि निरिक्खसी। लक्खिओ ते मया भावो, जवं पत्थेसि गद्दभा!॥११५७ ॥ अयं भाष्यान्तर्गतः श्लोकः कथानकसमाप्त्यनन्तरं व्याख्यास्यते, एवमुत्तरावपि श्लोकौ । तेण साहुणा सो सिलोगो गहिओ । तत्थ य चेडरूवाणि रमंति अडोलियाए, उंदोइयाए ति भणियं होइ । सा य तेसिं रमंताणं अडोलिया नट्ठा बिले पडिया । पच्छा ताणि चेडरूवाणि इओ इओ य मग्गंति तं अडोलियं, न पासंति । पच्छा एगेण चेडरूवेण तं बिलं पासित्ता 15 णायं-जा एत्थ न दीसति सा नूणं एयम्मि बिलम्मि पडिया । ताहे तेणं भन्नति इओ गया इओ गया, मग्गिजंती न दीसति । अहमेयं वियाणामि, अगडे छूढा अडोलिया ॥११५८ ॥ सो वि णेणं सिलोगो पढिओ । पच्छा तेण साहुणा उज्जेणिं पविसित्ता कुंभकारसालाए उवस्सओ गहिओ । सो य दीहपट्ठो अमच्चो तेणं जवसाहुणा रायत्ते विराहिओ । ताहे 20 अमञ्चो चिंतेति-'कहं एयस्स वेरं निजाएमि?' त्ति काउं गद्दभरायं भणति-एस परी सहपरातिओ आगओ रजं पेल्लेउकामो, जति न पत्तियसि पेच्छह से उवस्सए आउहाणि । तेण य अमच्चेण पुत्वं चेव ताणि आउहाणि तम्मि उवस्सए नूमियाणि पत्तियावणनिमित्तं । रन्ना दिट्टाणि । पत्तिजिओ । तीए अ कुंभकारसालाए उंदुरो दुक्किउं ढुकिङ ओसरति भएणं । ताहे तेणं कुंभकारेणं भन्नति सुकुमालग! भद्दलया!, रत्तिं हिंडणसीलया। भयं ते नत्थि मंमूला, दीहपट्ठाओ ते भयं ॥ ११५९ ॥ सो वि णेण सिलोगो गहिओ । ताहे सो राया तं पियरं मारेउकामो रहं मग्गइ । 'पगासे उड्डाहो होहि' त्ति काउं अमच्चेण समं रतिं फरुससालं अल्लीणो अच्छति । तत्थ तेण साहुणा पढिओ पढमो सिलोगो १तं अकजं डे० ॥ २ जासि एसि पुणो चेव, पासेसु टिरिटिल्लसि । लक्खितो ते मया भावो इति रूपा गाथा चूर्णौ । ओसकसि य अइसकसि य, बहुसो य जं पलोएसि । लक्खिओ ते मया भावो इति रूपा गाथा विशेषचूर्णी ॥ ३ बिले पडिता अडोलिया इति चूर्णिकृद्विशेषचूर्णिकृदादृतः पाठः ॥ ४ दीहपटुस्स वीमेहि, णत्थि ते ममतो भयं इति चूर्णी विशेपचूर्णौ च पाठः ॥ 25 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ 5 भाष्यगाथाः ११५७-६१] प्रथम उद्देशः । आधावसी पधावसी, ममं वा वि णिरिक्खसी । लक्खिओ ते मया भावो, जवं पत्थेसि गद्दभा! ।। (गा० ११५७) रन्ना नायं-वेतिया मो, धुवं अतिसेसी एस साधू । तओ बितिओ पढिओ इओ गता इओ गता, मग्गिजंती ण दीसई । अहमेयं विजाणामि, अगडे छूढा अडोलिया ॥ (गा० ११५८) तं पिणेणं परिगयं, जहा-नातयं एतेण । तओ ततिओ पढिओ सुकुमालग! भद्दलया !, रत्तिं हिंडणसीलगा!। भयं ते णत्थि मंमूला, दीहपट्टाओ ते भयं ॥ (गा० ११५९) ताहे जाणति-एस अमच्चो ममं चेव मारेउकामो, कओ ममं पिता राता होउं संते भोए परिच्चइत्ता पुणो ते चेव पत्थेति ?, एस अमच्चो मं मारेउकामो एवं जतं करेइ । ताहे राया 10 अमच्चस्स सीसं छेत्तुं साहुस्स उवगंतुं सव्वं कहेइ खामेइ य ॥ अथ श्लोकत्रयस्याक्षरार्थः-आ-ईषद् आभिमुख्येन वा धावसि आधावसि, प्रकर्षेण पृष्ठतो वा धावसि प्रधावसि, मामपि च निरीक्षसे, लक्षितस्ते मया 'भावः' अभिप्रायो यथा 'यवं' यवधान्यं चरितुं प्रार्थयसि भो गईभ ! । द्वितीयपक्षे यवनामानं राजानं मारयितुं भो गर्दभनृपते ! प्रार्थयसीति प्रथमश्लोकः ॥ ११५७ ॥ 15 इतो गता इतो गता, मृग्यमाणा न दृश्यते, अहमेतद् विजानामि 'अगडे' भूमिगृहे गर्तयां वा क्षिप्ता 'अडोलिका' उन्दोयिका नृपतिदुहिता वा । द्वितीयश्लोकः ॥ ११५८ ॥ मूषकस्य राज्ञश्च शरीरसौकुमार्यभावात् सुकुमारक ! इत्यामन्त्रणम् , “भद्दलग" त्ति भद्राकृते !, रात्रौ हिण्डनशील ! मूषकस्य दिवा मानुषावलोकनचकिततया राज्ञस्तु वीरचर्यया रात्रौ पर्यटनशीलत्वात् , भयं 'ते' तव नास्ति 'मन्मूलात्' मन्निमित्तात् किन्तु 'दीर्घपृष्ठात्' एकत्र सर्पात् अपरत्र 20 तु अमात्यात् 'ते' तव भयमिति तृतीयश्लोकः ॥ ११५९ ॥ ततः स राजर्षिश्चिन्तयति सिक्खियव्वं मणसेणं, अवि जारिसतारिसं। पेच्छ मुद्धसिलोरोहिं, जीवियं परिरक्खियं ॥ ११६० ॥ शिक्षितव्यं मनुष्येण अपि यादृशतादृशम् , पश्य मुग्धैरपि श्लोकैर्जीवितं परिरक्षितम् ॥ ११६० ॥ तथा पुत्वविराहियसचिवे, सामच्छण रत्ति आगमो गुणणा। नाओ मि सचिवघायण, खामण गमणं गुरुसगासे ॥ ११६१ ॥ पूर्व विराधितो यः सचिवस्तस्य राज्ञा सह 'सामच्छणं' पर्यालोचनम् । ततस्तयो रात्रौ तत्रागमः । तस्य च राजर्षेस्तदानीं पूर्वपठितश्लोकत्रयस्य गुणना । ततः 'ज्ञातोऽस्म्यहम् , नूनमतिशयज्ञानी मदीयः पिता, कुतो वा एष महात्मा पटप्रान्तलग्नतृणवद् लीलयैव राज्यं परित्यज्य भूय-30 स्तदङ्गीकारं कुरुते ? तदेष सर्वोऽप्यस्यैवाऽमात्यस्य कूटरचनाप्रपञ्चः' इति परिभाव्य सचिवघातनं कृत्वा खपितुः क्षामणं कृतवान् । ततस्तस्य राजर्षेः 'अहो! ते भगवन्तो मामनेकशो भणन्ति १ नायं मो० ले० ॥ २ राया होउं मो० ले० ॥ ३-४ एतद्गाथाद्विकं विशेषचूर्णी न दृश्यते ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ३६२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ स्म—आर्य ! अधीष्वाधीष्व सूत्रम् , परमहमात्मवैरिकतया नापाठिषम् , यदि नाम ईदृशानामपि मुग्धश्लोकानां पठितानामीदृशं फलमाविरभूत् किं पुनः सर्वज्ञोपज्ञश्रुतस्य भविष्यति ?' इति विचिन्त्य गुरुसकाशे गमनम् । ततो मिथ्यादुष्कृतं दत्त्वा सम्यक् पठितुं लम इति ॥ ११६१ ॥ किञ्च श्रुताध्ययनेऽमी. अभ्यधिका गुणाःश्रुताध्य आयहिय परिण्णा भावसंवरो नवनवो अ संवेगो। यने गुणाः निकंपया तवो निजरा य परदेसियत्तं च ॥ ११६२ ॥ आत्महितं १ परिज्ञा २ भावसंवरः ३ नवनवश्व संवेगः ४ निष्कम्पता ५ तपः ६ निर्जरा च ७ परदेशिकत्वं च ८ इति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ११६२ ॥ अथ विस्तरार्थमाह आयहियमजाणंतो, मुज्झति मूढो समादिअति कम्मं । कम्मेण तेण जंतू, परीति भवसागरमणंतं ॥ ११६३ ॥ अनधीतश्रुतः सन् आत्मनो हितम्-इह-परलोकपथ्यमजानन् मुह्यति, हितेऽप्यहितबुद्धिम् अहितेऽपि हितबुद्धिं करोतीति भावः । मूढश्च 'कर्म' ज्ञानावरणीयादिकं निबिडतरं समादत्ते । तेन च कर्मणा जन्तुः 'पर्येति' परिभ्रमति भवसागरमनन्तम् ॥ ११६३ ॥ अथात्महिते परिज्ञाते को गुणः ? इत्याह15 आयहियं जाणंतो, अहियनिवित्तीऍ हियपवित्तीए । हवइ जतो सो तम्हा, आयहियं आगमेयव्वं ॥ ११६४ ॥ आत्महितं जानानः अहिताद्-आत्म-संयम-प्रवचनोपघातकाद् निवृत्तौ हिते-संयमाद्युपकारिणि प्रवृत्तौ यतः प्रयत्नवानसौ भवति, तस्माद् आत्महितम् ‘आगमयितव्यम्' आगमनं आगमःपरिज्ञानं तद्गोचरमानेतव्यमिति ॥ ११६४ ॥ गतमात्महितद्वारम् । अथ परिज्ञाद्वारमाह सज्झायं जाणंतो, पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य।। होइ य एक्कग्गमणो, विणएण समाहिओ साहू ॥११६५ ॥ 'स्वाध्याय' श्रुतं जानानः साधुः पञ्चखिन्द्रियेषु इष्टा-ऽनिष्टविषयराग-द्वेषपरिहारेण संवृतः पञ्चेन्द्रियसंवृतः, त्रिषु-मनोवाक्काययोगेषु गुप्तस्त्रिगुप्तः, भवति च 'एकाग्रमनाः' शुभध्यानैकमानसः 'विनयेन' गुर्वादिषु शिरोनमना-ऽञ्जलिबन्धादिलक्षणेन 'समाहितः' सम्यगुपयुक्त इति । अत्र च 25 "सज्झायं जाणंतो' इत्यनेन ज्ञपरिज्ञा “पंचिंदियसंवुडो" इत्यादिना तु प्रत्याख्यानपरिज्ञाऽभिहितेति द्रष्टव्यम् ॥ ११६५॥ गतं परिज्ञाद्वारम् । अथ भावसंवरमाह नाणेण सव्वभावा, नजंते जे जहिं जिणक्खाया। - नाणी चरित्तगुत्तो, भावेण उ संवरो होइ ॥ ११६६ ॥ 30 ज्ञानेन सर्वेऽपि-अशेषा हिता-हितरूपा भावा ज्ञायन्ते ये यत्रोपयोगिनो जिनैराख्याताः । अत एव ज्ञानी चारित्रगुप्तः 'भावेन' तत्त्ववृत्त्या संवरो भवति । गुण-गुणिनोरभेदविवक्षणादेवं निर्देशः ॥ ११६६ ॥ अथ “नवनवो य संवेगो" (गा० ११६२) इति व्याख्यानयन्नाह१°ष्कृतं कृत्वा सम्य° भा० ॥ 20 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ 15 भाष्यगाथाः ११६२-७०] प्रथम उद्देशः । जह जह सुयमोगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं ।। तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ ॥ ११६७॥ यथा यथा 'श्रुतम्' आगममपूर्वमवगाहते, कथम्भूतम् ? 'अतिशयरसप्रसरसंयुतम्' अतिशयाः-अर्थविशेषास्तेषु यो रसः श्रोतृणामाक्षेपकारी गुणविशेषस्तस्य यः प्रसरः-अतिरेकस्तेन संयुतं-युक्तम् । यद्वा श्रवणं श्रुतम् , तत् कथम्भूतम् ? अतिशयस्य-अर्थस्य रसः-आस्वादनं तत्र यः प्रसरः-गमनं तेन संयुतम् । अपूर्व यथा यथाऽवगाहते तथा तथा मुनिः 'प्रहादते' शुभभावसुखासिकया मोदते । कथम्भूतः ? इत्याह-नवनवः-अपूर्वापूर्वो यः संवेगः-वैराग्यं तद्गर्भा श्रद्धा-मुक्तिमार्गाभिलाषलक्षणा यस्य स नवनवसंवेगश्रद्धाक इति ॥ ११६७ ॥ गतं नवनवसंवेगद्वारम् । अथ निष्कम्पताद्वारमाह__णाणाणत्तीऍ पुणो, दंसणतवनियमसंजमे ठिच्चा। विहरइ विसुज्झमाणो, जावजीवं पि निकंपो ॥११६८॥ ज्ञानस्य या आज्ञप्तिः-आदेशः "जाए सद्धाए निक्खंतो तमेवमणुपालए" ( आचाराङ्ग श्रु० १ अ० १ उ० ३) इत्यादिकस्तया दर्शनप्रधाने तपोनियमरूपे संयमे स्थित्वा कर्ममलेन विशुध्यमानः सन् यावज्जीवमपि 'निष्कम्पः' स्थिरचित्तवृत्तिः 'विहरति' संयमाध्वनि गच्छतीति ॥ ११६८ ॥ गतं निष्कम्पताद्वारम् । अथ तपोद्वारमाह बारसविहम्मि वि तवे, सभितरबाहिरे कुसलदिटे । [दश.नि. १८७] न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥११६९ ॥ द्वादशविधेऽपि तपसि 'साभ्यन्तरबार्बी' सहाऽऽभ्यन्तरेण यद् बाह्यं तत् साभ्यन्तरबाह्यम् । तत्राभ्यन्तरं तपः पोढाप्रायश्चित्त-ध्याने, वैयावृत्त्य-विनयावथोत्सर्गः । ____20 'खाध्याय इति तपः षट्प्रकारमाभ्यन्तरं भवति ॥ (प्रशम० आ० १७६) बाह्यमपि बोढा अनशनमूनोदरता, वृत्तेः सङ्केपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनतेति बाह्यं तपः प्रोक्तम् ॥ (प्रशम० आ० १७५) तथा कुशाः-द्रव्यतो दर्भादयो भावतः कर्माणि तान् कर्मरूपान् कुशान् लुनन्ति-समूलानुत्पाट-25 यन्तीति कुशलाः, "पृषोदरादयः" (सिद्ध०३-२-१५५) इति रूपनिष्पत्तिः, तीर्थकरा इत्यर्थः; तैर्दष्टे-कर्मक्षपणकारणतया केवलदृष्ट्या वीक्षिते, परं वाचनादिरूपो यः स्वाध्यायस्तत्समं तत्तुल्यं तपःकर्म नास्ति नापि भविष्यति चशब्दाद् न चाभूत् , प्रभूततरकर्मक्षपणहेतुत्वादिति ॥११६९॥ गतं तपोद्वारम् । अथ निर्जराद्वारमाह जं अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुयाहिँ वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो. खवेड़ ऊसासमत्तेण ।।११७०॥ [पत्र. समु. पद. आव. नियु. पंचवस्तुक] __ यद् अज्ञानी जीवो नैरयिकादिभवेषु वर्तमानो बहीभिर्वर्षकोटीभिः कर्म क्षपयति 'तत्' कर्म १ परवाच त• हे. कां०॥ 30 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ज्ञानी 'त्रिषु' मनोवाक्कायेषु गुप्तः सन् उच्छासमात्रेणापि कालेन क्षपयति ॥ ११७० ॥ गतं निर्जराद्वारम् । अथ परदेशकत्वद्वारमाह आय-परसमुत्तारो, आणा वच्छल्ल दीवणा भत्ती। होति परदेसियत्ते, अव्वोच्छित्ती य तित्थस्स ॥ ११७१ ॥ । पठितः सन् परेषां देशकत्वं मार्गदेशित्वं करोति, तस्मिन् आत्मनः परस्य च समुत्तारो भवति । तथाहि—स साधुरधीतश्रुतः सन् अपरान् साधून अध्यापयन् आत्मनो ज्ञानावरणीयं कर्म उपहन्ति, ते च साधवो ज्ञानोपदेशेनाऽचिरादेवापारसंसारमहोदधेरुत्तरन्ति । एवं च कुर्वता तीर्थकृतामाज्ञा अध्याप्यमानसाधूनां च वात्सल्यं तथा दीपना-प्रभावना भक्तिश्च पारमेश्वरप्रवचनस्य एतानि कृतानि भवन्ति, तीर्थस्य चाऽव्यवच्छित्तिरासूत्रिता भवति । एते गुणाः परदेशकत्वे 10 भवन्तीति ॥ ११७१ ॥ गतं परदेशकत्वद्वारम् । ततश्चावसिता "आयहिय" (गा० ११६२) इत्यादि द्वारगाथा । अथ प्रकृतयोजनां कुर्वन्नाह जिणकप्पिएण पगयं, जिणकाले सो उ केवलीणं वा । सो भणइ एव भणितो, कत्थ अहीयं भयंतेहिं ॥११७२ ॥ अत्र जिनकल्पिकेन प्रकृतम् । 'स तु' जिनकल्पिको नियमाद् जिनस्य-तीर्थकरस्य काले वा 15 स्याद् अपरेषां वा गणधरादीनां केवलिनां काले । ततः 'सः' शिष्यः ‘एवं' हेतु-दृष्टान्तैः 'भणितः' प्रज्ञापितो भणति-भगवन् ! यद्येवं ततः पठाम्यहम् परमाचक्षतां पूज्याः-कुत्र 'भदन्तैः' भगवद्भिरधीतं यस्मादसौ शिप्यो जिनकल्पिको भविष्यति स च जिनकाले वा भवेत् केवलिकाले वा ? ॥ ११७२ ॥ अतः स आचार्यः प्रतिब्रूयात्.-- अंतरमणंतरे वा, इति उदिए धूलिनायमाहंसु । 20 चिक्खल्लेण य नायं, तम्हा उ वयामि जिणमूलं ॥ ११७३ ॥ ____ अन्तरं-परम्परकेण मयाऽधीतम् अनन्तरं वा । तत्र यदि स आचार्यों गणधरशिप्यस्तस्याप्याराद्धा ततः 'परम्परकेणाधीतम्' इत्यभिदध्यात् । अथासौ गणधर एव ततः 'अनन्तरं जिनसकाश एव मयाऽधीतम्' इति ब्रूयात् । 'इति' एवम् ‘उदिते' आचार्येणाऽभिहिते स शिप्यो धूलिज्ञातं धूलिचिक्खल्लज्ञाते चिक्खल्लज्ञातं चाख्यातवान् यथा धूलिरेकत्र स्थापयित्वा तत उद्धृत्यान्यत्र यत्रास्तीर्यते तत्रावश्यं 25 किञ्चित् परिशटति, ततोऽप्यन्यत्र प्रस्तीर्यमाणा भूयस्तरा परिशटति; यथा वा प्रासादे लिप्यमाने मनुष्यपरम्परया चिक्खल्लः प्रत्यर्यमाणो बहुपरिशटितः स्तोकमात्रावशेष एव सर्वान्तिममनुष्यस्य हस्तं प्रामोति; एवमेतावपि सूत्रार्थो परम्परया गृह्यमाणौ परिशटतः, तस्मात्तु 'जिनमूलं' तीर्थकरोपकण्ठमेव व्रजामि, तत्राविनष्टमेव सूत्रं भविष्यतीति ॥ ११७३ ॥ कैः पुनस्तत् परिशटति ? इत्याह30 पय-पाय-मक्खरेहि, मत्ता-घोसेहिं वा वि परिहीणं । अवि य रवि-राय-हत्थी, पगास सेवा पया चेव ॥ ११७४ ॥ पदैः पावरक्षरैर्मात्रया घोषैर्वा अपिशब्दाद् बिन्दुना वा परिहीणं भवति परम्परया अधीयमानं १°धीतः साधून डे० मो० कां० ॥ २ भवद्भि भा० त० डे० ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ११७१-७६] प्रथम उद्देशः । ३६५ श्रुतमिति प्रक्रमः । 'अपि च' इत्यभ्युच्चये, भगवतः समीपे अधीयमानानां कारणान्तरमप्यस्तीति भावः । किं यादृशो रखेः-आदित्यस्य प्रकाशः ईदृशः किं खद्योतादीनां सम्भवी ? यादृशं वा राज्ञः सेवा विधीयमाना फलमुपढौकयति ईदृशं किममात्यादीनां सेवा सम्पादयति ? यादृशानि वा महान्ति हस्तिनः पदानि ईदृशानि किं कुन्थूनां सम्भवन्ति ? एवं यादृशानि महार्थानि भगवतस्तीर्थकृतो वचनानि ईदृशान्यपरेषां किं कदाचिद् भवन्ति ? इत्यतस्तीर्थकरोपकण्ठमेव व्रजामि 5 ॥ ११७४ ॥ इत्थं शिष्येणोक्ते सूरिराह कोट्ठाइबुद्धिणो अत्थि संपर्य एरिसाणि मा जंप । अवि य तहिं वाउलणा, विरयाण वि कोउगाईहिं ॥ ११७५ ॥ ___ यथा कोष्ठके धान्यं प्रक्षिप्तं तदवस्थमेव चिरमप्यवतिष्ठते न किमपि कालान्तरेऽपि गलति, एवं येषु सूत्रा-ऽौँ निक्षिप्तौ तदवस्थावेव चिरमप्यवैतिष्ठेते ते कोष्ठबुद्धयः । आदिशब्दात् पदा-10 नुसारिबुद्धयो बीजबुद्धयश्च गृह्यन्ते । तत्र ये गुरुमुखादेकसूत्रपदमनुसृत्य शेषमश्रुतमपि भूयस्तैरं पदनिकुरम्बमवगाहन्ते ते पदानुसारिखुद्धयः, ये त्वेकं बीजभूतमर्थपदमनुसृत्य शेषमवितथमेव प्रभूततरमर्थपदनिवहमवगाहन्ते ते बीजबुद्धयः, एवंविधाः कोष्ठादिबुद्धयः साम्प्रतमपि सन्ति येषु सूत्रार्थो न परिशटत इति भावः । तद् ईदृशानि धूलिज्ञातादीनि ‘मा जल्प' मा ब्रूहि । अपि च 'तत्र' भगवतः समीपे अधीयमानानां 'विरतानामपि' साधूनामपि कौतुकादिभिः 'व्याकुलना' 15 व्याकुलीकरणं भवति, सकलस्यापि लोकस्य कौतुकहेतुत्वात् । कौतुकं-समवसरणम् , आदिग्रहणेन भगवतो धर्मदेशनाश्रवणादिपरिग्रहः ॥ ११७५ ॥ ___ अथ किमिदं समवसरणम् ? इति तद्वक्तव्यतां प्रतिपिपादयिषुरगाथामाहसमवसरणवक्तव्यता समोसरणे केवइया, रूव पुच्छ वागरण सोयपरिणामे । दाणं च देवमल्ले, मल्लाणयणे उवरि तित्थं ॥ ११७६ ॥ [आव नि. ५४३] समवसरणविषयो विधिर्वक्तव्यः । “केवइय" ति कियतो भूभागाद् अपूर्वसमवसरणे अदृष्टपूर्वेण साधुना आगन्तव्यम् ? । “रूवं" ति भगवतो रूपं वर्णनीयम् । “पुच्छ" त्ति किमुत्कृष्टरूपतया भगवतः प्रयोजनम् ? इति पृच्छा प्रतिवचनं च वाच्यम् । “वागरणं" ति व्याकरणं भगवतो वक्तव्यम् , यथा युगपदेव सङ्ख्यातीतानामपि पृच्छतां व्याकरोति । तथा श्रोतृषु परि- 25 णामः श्रोतृपरिणामः स वक्तव्यः, यथा भागवती वाणी सर्वेषां खखभाषया परिणमते । वृत्तिदानं प्रीतिदानं वा कियत् प्रयच्छन्ति चक्रवर्त्यादयस्तीर्थकरप्रवृत्तिनिवेदकेभ्यः ? । तथा 'देवमाल्यं' बलिः, देवा अपि तत्र गन्धादि प्रक्षिपन्तीति कृत्वा तत् कः कथङ्कारं करोति ? इति । "मल्लाणयणे" त्ति तस्य च माल्यस्यानयने यो विधिः । “उवरि तित्थं" ति उपरि प्रथमपौरुष्यां व्यतीतायां 'तीर्थ' प्रथमगणधरो धर्मदेशनां करोति । तदेतत् सर्वमभिधातव्यमिति द्वारगाथा-30 सङ्केपार्थः ।। ११७६ ॥ अथैनामेव प्रतिद्वारं विवरीषुराह१°वतिष्ठते ते डे० विना ॥ २ °स्तरपद त० डे० कां० ॥ 20 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ जत्थ अपुव्वोसरणं, जत्थ व देवो महिड्डिओ एइ । [आव.नि. ५४४] वाउदय पुप्फ बद्दल, पागारतियं च अभिओगा ॥ ११७७ ॥ __ 'यत्र' क्षेत्रे समवसरणम् 'अपूर्वम्'-अवृत्तपूर्व यत्र वा भूतपूर्वसमवसरणेऽपि देवो महर्द्धिको वन्दितुम् ‘एति' आगच्छति तत्र नियमतः समवसरणं भवतीति वाक्यशेषः, अर्थादापन्नम् अन्यत्र 5न नियम इति । तच्च कथं कुर्वन्ति ? इत्याह-“वाउदय" इत्यादि । शकादेः सम्बन्धिन आभियोग्या देवाः खखामिनो नियोगाद् भगवता समवसरिप्यमाणां भुवमागम्य योजनपरिमण्डलं संवर्तकवातं विकुर्वन्ति, तेन च सर्वतः प्रसर्पता रेणु-तृग-काष्ठादिकः कचवरनिकरः सर्वोऽपि बहिः क्षिप्यते, ततो भाविरेणुसन्तापोपशान्तये उदकवर्दलं विकुळ तेच सुरभिगन्धोदकवर्ष कुर्वन्ति, ततः पुष्पवर्दलं विकुळ जानुदनीमधोनिक्षिप्तवृन्तां पुप्पवृष्टिं निसृजन्ति, ततश्चामी प्राकारत्रयं 10 कुर्वन्ति ॥ ११७७ ॥ कथम् ? इत्याह . अभितर-मज्झ-बहि, विमाण-जोइ-भवणाहिवकयाओ । [आव.नि. ५४९] पायारा तिनि भवे, रयणे कणगे य रयए य ॥११७८ ॥ आभ्यन्तर-मध्यम-बाह्या यथाक्रमं विमान-ज्योति-भवनाधिपकृताः प्राकारास्त्रयो भवन्ति । तत्राभ्यन्तरः प्राकारो रलैर्निवृत्तः 'रानः' -रत्नमयः, तं विमानाधिपतयः कुर्वन्ति । मध्यमः .15 प्राकारः 'कानकः' कनकमयः, तं ज्योतिष्का देवाः कुर्वन्ति । बाह्यः प्राकारः 'राजतः' रूप्यमयः, तं भवनाधिपतयः कुर्वन्तीति ॥ ११७८ ॥ मणि-रयण-हेमया वि य, कविसीसा सव्वरयणिया दारा । [आव.नि. ५५०] सव्वरयणामय च्चिय, पडाग-झय-तोरणा चित्ता ॥११७९ ॥ आभ्यन्तरप्राकारस्य मणिमयानि कपिशीर्षकाणि, मध्यमप्राकारस्य रत्नमयानि । अथ मणीनां 20 रत्नानां च कः प्रतिविशेषः ? उच्यते-चन्द्रकान्तादयो मणयः, इन्द्रनीलादीनि रत्नानि; अथवा स्थलसमुद्भवा मणयः, जलसमुद्भवानि रत्नान्युच्यन्ते । बाह्यप्राकारस्य हेममयानि-जात्यसुवर्णमयानि कपिशीर्षकाणि । एतानि च यथाक्रमं वैमानिक-ज्योतिष्क-भवनपतयः खखप्राकारेषु कुर्वन्ति । प्राकारत्रयेऽपि प्रत्येकं सर्वरत्नमयानि चत्वारि चत्वारि द्वाराणि, तथा सर्वरत्नमयान्येव पताका-ध्वजप्रधानानि तोरणानि भवन्ति । कथम्भूतानि ? 'चित्राणि' चन्दनकलश-खस्तिक-मुक्ता25 दामादिभिरनेकरूपाणि आश्चर्यकारीणि वा ॥ ११७९ ॥ व्यन्तरकृत्यमाह-- चेइदुम पेढ छंदग, आसण छत्तं च चामराओ य । [आव.नि. ५५३] जं चऽनं करणिजं, करिंति तं वाणमंतरिया ॥ ११८० ।। 'चैत्यद्रुमम्' अशोकवृक्षमभ्यन्तरप्राकारस्य बहुमध्यदेशभागे भगवतः प्रमाणाद् द्वादशगुणसमुच्छ्यम् । तस्याधस्तात् पीठं सर्वरत्नमयम् । तस्यापि पीठस्योपरि चैत्यवृक्षस्याधस्ताद् देवच्छन्द30 कम् । तस्य देवच्छन्दकस्याभ्यन्तरे सिंहासनम् । तस्योपरि च्छत्रातिच्छत्रम् । 'चः' समुच्चये । उभयपार्श्वतश्चामरे यक्षहस्तगते । चशब्दाद् भगवतः पुरतो धर्मचक्र पद्मप्रतिष्ठितम् । यच्च 'अन्यद्' १ "जत्थ अपुव्वं नगरं गामो वा जत्थ वा देवो महिडिओ वंदगो एति तत्थ णियमेण भवति" इति चूर्णौ ॥ २ विकृत्य तेन मो० ले० ॥ ३ अभ्यन्तरकृ॰ डे० त० कां०॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ११७७-८३ ] प्रथम उद्देशः । ३६७ वातोदकादिकं ‘करणीयं’ कर्त्तव्यं कुर्वन्ति तद् वानमन्तरा देवा इति ॥ ११८० ॥ आह किं. यद् यत् समवसरणं भवति तत्र तत्रायमित्थं नियोगः ? उत न इति, अत्रोच्यतेसाहारण ओसरणे, एवं जत्थिडिमं तु ओसरई । [आव. नि. ५५४ ] एकोच्चि तं सव्वं, करेइ भयणा उ इयरेसिं ॥। ११८१ ॥ साधारणं - यत्र बहवो देवेन्द्रा आगच्छन्ति तत्र समवसरणे 'एवम्' अनन्तरोक्तो नियोगः 15 यत्र तु 'ऋद्धिमान् ' कश्चिदिन्द्रसामानिकादिः 'समवसरति' आगच्छति तत्रैक एवासौ 'तत्' प्राकारादिकं सर्वमपि कैरोति । " भयणा उ इयरेसिं" ति यदीन्द्रादयो महर्द्धिका नागच्छन्ति ततः 'इतरे' भवनवास्यादयः कुर्वन्ति वा न वा समवसरणमित्येवं भजना कार्येति ॥ 1 अत्र विशेषचूर्णावित्थं विशेषो दृश्यते – चाउक्कोणा तिन्नि पागारा रइज्जति चउद्दारा । अभितरिलो लोहियक्खेहिं, मज्झिल्लो पीयएहिं, बाहिरिल्लो सेयएहिं । सबो समोसरणभागो 10 जोयणं । अभितर-मज्झिमाणं पागाराणं अंतरं जोयणं । मज्झिम - बाहिराणं पागाराणं अतरं गाउ ति ॥ ॥ ११८१ ॥ इत्थं देवैः समवसरणे विरचिते सति यथा भगवान् तत्र प्रविशति तथाऽभिधातुकाम आह— सूरुदय पच्छिमार, ओगाहिंतीऍ पुव्वओ एति । [ आव.नि. ५५५ ] दोहिं परमेहिं पाया, मग्गेण य होंति सत्तने ।। ११८२ ॥ 'सूर्योदये' प्रथमायां पौरुप्याम् अपराह्णे तु पश्चिमायाम् 'अवगाहमानायाम्' आगच्छन्त्यामित्यर्थः ‘पूर्वतः’ पूर्वद्वारेण भगवान् 'एति' आगच्छति प्रविशतीत्यर्थः । कथम् ? इत्याह-द्वयोः 'पद्मयोः ' सहस्रपत्रयोर्देवपरिकल्पितयोः पादौ स्थापयन्नित्युपस्कारः । " मग्गेण य" त्ति प्राकृतत्वाद् विभक्तिव्यत्यये ‘मार्गतः’ पृष्ठतो भगवतः सप्तान्यानि पद्मानि भवन्ति तेषां च यद् यत् पाश्चात्यं तत् तत् पादन्यासं कुर्वतो भगवतः पुरतस्तिष्ठतीति ॥ ११८२ ॥ ततः प्रविश्य किं करोति ? इत्याह 15 १ करोति । अत एवाऽऽवश्यक चूर्णिकृताऽभ्यधायि - असोगपायवं जिणउच्चन्त्ताओ बारसगुणं सक्को विउव्वति इत्यादि । "भयणा उ भा० पुस्तके ॥ २ त्थं पठ्यते भा० ॥ ३ या जिणवरस्स । जेट्ठ° ता० ॥ ४ 'दति इति क्रियाध्याहारः । शेषा भा० ॥ 20 आयाहिण पुव्वमुहो, तिदिसिं पडिरूवयाँ य देवकया । [ आव.नि. ५५६ ] जेट्ठगणी अन्नो वा, दाहिणपुव्वे अदूरम्मि ।। ११८३ ॥ “आयाहिण” त्ति भगवान् चैत्यद्रुमस्य प्रदक्षिणां विधाय पूर्वमुखः सिंहासनमध्यास्ते । यासु च दिक्षु भगवतो मुखं न भवति तासु तिसृष्वपि तीर्थकराकारधारकाणि सिंहासन - चामर - च्छत्र- 25 धर्मचत्रालंकृतानि प्रतिरूपकाणि देवकृतानि भवन्ति, यथा सर्वोऽपि लोको जानीते 'भगवानस्माकं पुरतः कथयति' । भगवतश्च पादमूलं जघन्यत एकेन गणिना - गणधरेणाऽविरहितं भवति, स च ज्येष्ठोऽन्यो वा भवेत्, प्रायो ज्येष्ठ एव । स च ज्येष्ठगणिरन्यो वा पूर्वद्वारेण प्रविश्य दक्षिणपूर्वे दिग्भागे 'अदूरे' प्रत्यासन्न एव भगवतो भगवन्तं प्रणिपत्य निषीर्देति । शेषा अपि गणधरा एवमेवाभिवन्द्य ज्येष्ठगणधरस्य मार्गतः पार्श्वतश्च निषीदन्तीति ॥ ११८३ ॥ 30 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ आह भुवनगुरुरूपस्य सकलत्रिभुवनातिशायित्वात् त्रिदशकृतानां प्रतिरूपकाणां तेन सह साम्यम् ? असाम्यं वा ? इत्याशङ्कानिरासार्थमाह- जे' ते देवेहिं कया, तिदिसिं पडिरूवगा जिणवरस्स । सिं पि तप्पभावा, तयाणुरूवं हवइ रूवं ।। ११८४ ॥ [ आव.नि. ५५७ ] 5 यानि तानि देवैः कृतानि तिसृषु दिक्षु जिनवरस्य प्रतिरूपकाणि तेषामपि 'तत्प्रभावात् ' तीर्थकरप्रभावात् ‘तदनुरूपं' तीर्थकररूपानुरूपं रूपं भवति ॥ ११८४ ॥ अथ ये यथा भगवतः समवसरणे निषीदन्ति तिष्ठन्ति वा तानभिधित्सुः सङ्ग्रहगाथामाहतित्थाऽइसेससंजय, देवी वेमाणियाण समणीओ । भवण व वाणमंतर - जोइसियाणं च देवीओ ।। ११८५ ।। [ आव.नि. ५५८ ] ‘तीर्थं' गणधरस्तस्मिन् उपविष्टे सति अतिशायिनः संयता उपविशन्ति, ततो देव्यो वैमानि - कानाम्, ततः श्रमण्यः, तथा भवनपति - व्यन्तर - ज्योतिष्काणां च देव्य इति ॥ ११८५ ॥ अथैतदेव विवृणोति - ३६८ 15 केवलिणो तिउण जिणं, तित्थपणामं च मग्गओ तस्स । मणमाई विनमंता, वयंति सद्वाण सट्ठाणं ।। ११८६ ।। [ आव.नि. ५५९ ] केवलिनः पूर्वद्वारेण प्रविश्य जिनं 'त्रिगुणं' त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य 'नमस्तीर्थाय ' इति वचसा तीर्थप्रणामं च कृत्वा 'तस्य' तीर्थस्य - प्रथमगणधररूपस्य शेषगणधराणां च 'मार्गतः' पृष्ठतो दक्षिणपूर्वस्यां निषीदन्ति । तथा "मणमाई वि" त्ति मनः पर्यवज्ञानिन आदिशब्दाद् अवधि ज्ञानिनः चतुर्दशपूर्विणो दशपूर्विणो नवपूर्विण आमर्षैषध्यादिविविधलब्धिमन्तश्च प्राच्यद्वारेण प्रविश्य भगवन्तं त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य च 'नॅमस्तीर्थाय नमो गणधरेभ्यः, नमः केवलिभ्यः' 20इत्यभिधाय केवलिनां पृष्ठत उपविशन्ति । शेषसंयता अपि प्राचीनद्वारेणैव प्रविश्य भुवनगुरुं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा च 'नमैस्तीर्थाय नमो गणभृद्भ्यः, नमः केवलिभ्यः, नमोऽतिशयज्ञानिभ्यः' इति भणित्वा अतिशयिनां पृष्ठतो निषीदन्ति । एवं मनः पर्यायज्ञान्यादयोऽपि नमन्तः सन्तो व्रजन्ति स्वस्थानं स्वस्थानमिति । तथा वैमानिकानां देव्यः पूर्वद्वारेण प्रविश्य भुवनबान्धवं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा च 'नमस्तीर्थाय नमः सर्वसाधुभ्यः' इत्यभिधाय निरतिशयसाधूनां पृष्ठत25 स्तिष्ठन्ति न निषीदन्ति । श्रमण्योऽपि पौरस्त्यद्वारेण प्रविश्य तीर्थकृतं प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च "तीर्थस्य साधूनां च नमस्कारं विधाय वैमानिकदेवीनां पृष्ठतस्तिष्ठन्ति न निषीदन्ति । ( ग्रन्थानं ५००० आदितः ९६०० ) भवनपतिदेव्यो ज्योतिष्कदेव्यो व्यन्तरदेव्यश्च दाक्षिणात्यद्वारेण १ गाथेयं चूर्णो विशेषचूर्णो च नास्त्यादृता ॥ २ “तित्थाति• गाधा । जो तित्थं सो पुग्वदारेण पविसित्ता तित्थकरं तिक्खुत्तो वंदित्ता दाहिणपुरत्थिमे दिसीभागे णिसीयति । सेसा गणधरा एवं चैव काउं तित्थस्स मग्गतो पासेसु णिसीयंति ।" इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ ३ इति गाथा समुदायार्थः ॥११८५॥ अथावयवार्थमाह- भा० ॥ ४ " नमो तित्थस्स, नमो केवलीणं ति भणित्ता" इति चूर्णौ ॥ ५ ‘णमो तित्थस्स, णमो अतिसेसियाणं ति भणित्ता” इति चूर्णो ॥ ६° नतिलकं प्रद° मो० ० ॥ ७" णमो तित्थस्स, णमो अइसेसियाणं, नमो साहूणं ति भणिता" इति विशेषचूर्णो ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १९८४-८९] प्रथम उद्देशः । प्रविश्य तीर्थकरादीनभिवन्द्य दक्षिणपश्चिमदिग्भागे यथाक्रममेव तिष्ठन्ति ॥ ११९८६ ॥ भवणवई जोइसिया, बोधव्वा वाणमंतरसुरा य । वेमाणिया य मणुया, पयाहिणं जं च निस्साए ।। ११८७ ।। [आव.नि. ५६०] भवनपतयो ज्योतिष्का वानमन्तरसुराश्च एंते भगवन्तमभिवन्द्य यथोपन्यासमेव पृष्ठतः पृष्ठत उत्तरपश्चिमे दिग्भागे तिष्ठन्तीति बोद्धव्याः । वैमानिका देवा मनुष्याः चशब्दाद् मनुष्यस्त्रियश्चं प्रदक्षिणां कृत्वा तीर्थकरादीनभिवन्द्योत्तरपूर्वे दिग्भागे यथाक्रममेव तिष्ठन्तीति । "जं च निस्साए " त्ति यः परिवारः 'यं' देवं मनुजं वा 'निश्राय' निश्रां कृत्वा आगतः स तस्यैव पार्श्वे तिष्ठति ॥ ११८७ ॥ अत्रान्तरे भाष्यादर्शेषु केषुचिदेता गाथा दृश्यन्ते ३६९ अणगारा वैमाणियवरंगणा साहुणी य पुव्वेणं । पविसंति विविहमणि-रयणकिरणनिकरेण दारेणं ॥ १ ॥ [ प्र० ] जोइसिय-भवण - वणयरदयिता लायन्न रूवकलियाओ । पविसंति दक्खिणं, पडाय-झयपंतिकलिएणं ॥ २ ॥ [ प्र० ] जोइसिय भवण वणयर, ससंभ्रमा ललियकुंडलाहरणा । पविसंति पच्छिमेणं, वि तुंगदिप्पंतसिहरेणं ॥ ३ ॥ [ प्र० ] समहिंदा कप्पोवगदेवा राया नरा य नारीओ । पविसंति उत्तरेणं, पवरमणिमऊ ओहेणं || ४ || [प्र० ] एताश्च द्वयोरपि चूर्ण्योरगृहीतत्वात् प्रक्षेपगाथाः सम्भाव्यन्ते । उक्तार्थाः सुगमाश्चेति ॥ अभिहितार्थोपसङ्ग्रहायाह- 10 15 एकेकी दिसाए, तिगं तिगं होइ सन्निविद्धं तु । आइ-चरिमे विमिस्सा, यी - पुरिसा सेस पत्तेयं ॥ ११८८ ।। [आव.नि. ५६१] 20 एकैकस्यां दिशि त्रिकं त्रिकं 'सन्निविष्टम्' उपविष्टमूर्ध्वस्थितं वा भवति । तथाहि — दक्षिणपूर्वस्यां दिशि संयता वैमानिकाङ्गनाः संयत्यश्चेति त्रयम्, अपरदक्षिणस्यां भवनपति-ज्योतिष्कव्यन्तरदेवीनां त्रयम्, उत्तरापरस्यां भवनपति - ज्योतिष्क व्यन्तरदेवानां त्रयम्, उत्तरपूर्वस्यां वैमानिकदेव-मनुष्य-मनुष्यीणां त्रयमिति । अत्र चाद्ये चरमे च त्रिके विमिश्राः स्त्री-पुरुषाः, स्त्रियः पुरुषाश्चोभयेऽपि भवन्तीति भावः । 'शेषयोस्तु' मध्यमयोर्द्वयोस्त्रिकयोः स्त्रियः पुरुषाश्च 'प्रत्येकमिति' ॐ निर्मिश्रा एव भवन्तीति ॥ ११८८ ॥ तेषां चेत्थं स्थितानां सुर-नराणां स्थितिमाहइंतं महिड्डियं पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता । न वि जंतणा न विकहा, न परोष्परमच्छरो न भयं ॥ ११८९ ।। [आव.नि. ५६२] येऽल्पर्द्धयः पूर्वं भगवतः समवसरणे स्थितास्ते आगच्छन्तं महर्द्धिकं 'प्रणिपतन्ति' नमस्कुर्वन्ति । अथ महर्द्धिकः प्रथमं स्थितः ततो येऽल्पर्द्धयः पश्चादागच्छन्ति ते महर्द्धिकं पूर्वस्थित - 30 मपि प्रणमन्तो व्रजन्ति यथास्थानम् । तथा नापि तेषां तत्रस्थितानां 'यत्रणा' 'न गन्तव्यं भवता १ " एते अवरदारेणं पविसित्ता" इत्यधिकं चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ २ " उत्तरेणं पविसित्ता” इत्यधिकं चूर्णो विशेष चूर्णो च ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ अतः स्थानात्' इति लक्षणा, न 'विकथा' स्त्रीकथादिरूपा सामान्यतो वार्ता प्रबन्धात्मका वा, न परस्परं 'मत्सरः' प्रद्वेषः, न 'भयं' सन्त्रासः कुतोऽपि बलवतो वैरिणः सकाशात् , प्रत्युत भगवतः साम्यसुधासिन्धुपूरेण प्लावितमनसां तेषां विलीयन्ते विरोधानुबन्धविषोर्मय इति ॥ ११८९ ॥ आह प्राकाराणां बाह्ययोर्द्वयोरन्तरयोः के तिष्ठन्ति ? इत्याह-- 5 बिइयम्मि होंति तिरिया, तइए पागारमंतरे जाणा। - पागारजट तिरिया, वि होति पत्तेय मिस्सा वा ॥ ११९० ॥ [आव.नि. ५६३] द्वितीये प्राकारान्तरे भवन्ति 'तिर्यञ्चः' सिंह-हस्त्यादयः । तृतीये तु प्राकारान्तरे 'यानानि' वाहनानि भवन्ति । 'प्राकारजढे' प्राकाररहिते बहिरित्यर्थः तिर्यश्चः, अपिशब्दाद् मनुष्य-देवा अपि प्रत्येकं मिश्रा वा भवन्ति ॥ ११९० ॥ एवं समवसरणे विरचिते सति किं भवति ? इत्याह सव्वं व देसविरई, सम्म घेच्छइ व होइ कहणा उ । इहरा अमूढलक्खा , न कहइ भर्भावस्सइ न तं च ॥ ११९१ ॥ [आव.नि. ५६४] सर्वविरतिं वा देशविरतिं वा सम्यग्दर्शनं वा कश्चिद् ग्रहीप्यतीति ज्ञात्वा भगवतः 'कथना' धर्मदेशना भवति । 'इतरथा' सम्यक्त्वग्रहणस्याप्यभावे मूढं-विपर्ययमुपगतं लक्ष्य-ज्ञेयवस्तु यस्य स मूढलक्ष्यो न तथा अमूढलक्ष्यो यथावस्थितवस्तुवेदीति भावः, एवंविधो भगवान् 'न कथयति' 15 न करोति धर्मदेशनाम् । आह यद्येवं तर्हि समवसरणकरणप्रयासो विबुधानामपार्थकः प्राप्नो तीत्याह-भविष्यति न तच्च यद् भगवत्यपि धर्मकथां कुर्वाणेऽन्यतमोऽप्यन्यतमत् सामायिकं न प्रतिपद्यते, भगवतः सातिशयत्वात् । भविष्यत्कालनिर्देशस्त्रिकालोपलक्षणार्थः ॥ ११९१ ॥ आह यद्येवं तर्हि कियन्ति सामायिकानि मनुष्यादयः प्रतिपद्यन्ते ? इत्याह मणुए चउमन्नयरं, तिरिए तिनि व दुवे व पडिवजे । 20 जइ नत्थि नियमसा च्चिय, सुरसु सम्मत्तपडिवत्ती ।। ११९२ ॥ [आव.नि. ५६५] ___ मनुष्यश्चतुर्णा सामायिकानां सम्यक्त्व-श्रुत-देशविरति-सर्वविरतिरूपाणामन्यतरत् प्रतिपद्यते। तिर्यञ्चः 'त्रीणि वा' सम्यक्त्व-श्रुत-देशविरतिरूपाणि, द्वे वा सम्यक्त्व-श्रुतसामायिके प्रतिपद्यन्ते । यदि मनुष्य-तिरश्चां मध्ये कश्चित् प्रतिपत्ता नास्ति ततो नियमत एव 'सुरेषु' देवेषु कस्यापि सम्यक्त्वप्रतिपत्तिर्भवति ॥ ११९२ ॥ स च भगवानित्थं धर्ममाचष्टे तित्थपणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं । सव्वेसिं सन्नीणं, जोयणनीहारिणा भगवं ॥ ११९३ ॥ [आव.नि. ५६६] 'नमस्तीर्थाय' इत्यभिधाय प्रणामं च कृत्वा सर्वेषां सुर-नरादीनां संज्ञिनां जीवानां 'साधारणेन' खस्वभाषापरिणमनसमर्थेन 'योजननीहारिणा' योजनव्यापिना शब्देन भगवान् धर्म कथयति । किमुक्तं भवति ?--भगवतो दिव्यध्वनिरशेषाणामपि समवसरणवर्तिनां संज्ञिजन्तूनां जिज्ञासि30 तार्थप्रतिपत्तिनिबन्धनमुपजायते ॥ ११९३ ॥ आह कृतकृत्योऽपि भगवान् किमिति तीर्थप्रणामं करोति ? इति उच्यते तप्पुब्बिया अरहया, पूड़यपया य विणयमूलं च । कयकिच्चो वि जह कह, कहेइ नमए तहा तित्थं ॥ ११९४ ॥ [आव.नि. ५६७] 25 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ११९०-९७] . प्रथम उद्देशः। 'तीर्थ' श्रुतज्ञानं तत्पूर्विका ‘अर्हत्ता' तीर्थकरता, न खलु भवान्तरेषु श्रुताभ्यासमन्तरेण भगवत एवमेवाऽऽर्हन्त्यलक्ष्मीरुपढौकते । तथा पूजितस्य पूजा पूजितपूजा, सा च तीर्थस्य कृता भवति, पूजितपूजको हि लोकः, ततो यद्यहं तीर्थं पूजयामि ततस्तीर्थकरस्यापि पूज्यमिदमिति कृत्वा लोकोऽपि पूजयिष्यति । तथा विनयमूलं धर्म प्ररूपयिष्यामि, अतः प्रथमतो विनयं प्रयुञ्ज, येन लोकः सर्वोऽपि मद्वचनं सुतरां श्रद्दधीत । अथवा कृतकृत्योऽपि भगवान् यथा कथां । कथयति तथा तीर्थमपि नमति । आह नन्वेतदप्यसमीचीनं यत् कृतकृत्यः सन् धर्मदेशनां करोति, नैवम् , अभिप्रायापरिज्ञानाद्, भगवता हि तीर्थकरनामगोत्रं कर्मावश्यवेदयितव्यम् , तस्य च वेदनेऽयमेवोपायो यद् अग्लान्या धर्मदेशनादिकरणम्, "तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाईहिं" ति ( आव० नि० गा० १८३) वचनात् ॥ ११९४ ॥ . गतं समवसरणद्वारम् । अथ "केवइय" ति द्वारम् । कियतो भूभागादवश्यं समवसरणे 10 आगन्तव्यम् ? इत्याह जत्थ अपुरोसरणं, न दिट्टपुव्वं व जेण समणेणं । बारसहिँ जोयणेहिं, सो एइ अणागमे लहुगा ॥ ११९५ ॥ [आब.नि. ५६८] - यत्र नगरादौ 'अपूर्व समवसरणं' विवक्षिततीर्थकरापेक्षया अभूतपूर्वं येन वा श्रमणेन न दृष्टपूर्व स द्वादशभ्यो योजनेभ्यो नियमतः 'एति' आगच्छति । यदि त्ववज्ञया नागच्छति तदा 15 चत्वारो लघवः प्रायश्चित्तम् ॥ ११९५ ॥ अथ रूपद्वारमाह सव्वसुरा जइ रूवं, अंगुट्ठपमाणयं विउविजा।। जिणपायंगुटुं पइ, न सोहए तं जहिंगालो ॥ ११९६ ॥ [आव.नि. ५६९] कीदृग् भगवतो रूपम् ? इत्याह-'सर्वसुराः' वैमानिकादयः सम्भूय यदि सार-सारतरसारतमान् पुद्गलान् गृहीत्वा अङ्गुष्ठप्रमाणकं रूपं विकुर्वेयुः (विकुर्युः ) तथापि जिनपादाङ्गुष्ठं 20 प्रति उपमीयमानं तद् न शोभते, यथाऽङ्गार इति ॥ ११९६ ॥ साम्प्रतं विनेयजनानुग्रहाय प्रसङ्गतो गणधरादीनामपि रूपसम्पदभिधित्सयाऽऽह गणहर आहार अणुत्तरा य जाव वण-चकि-वासु-बला । मंडलिया जा हीणा, छट्ठाणगया भवे सेसा ॥ ११९७ ॥ [आव.नि. ५७०] तीर्थकररूपसम्पदः सकाशाद् अनन्तगुणहीना गणधरा रूपतो भवन्ति । गणधररूपाद् अन-25 न्तगुणहीनाः खल्वाहारकदेहाः । आहारकदेहरूपाद् अनन्तगुणहीना अनुत्तरोपपातिनां देहाः । ततोऽप्यनन्तगुणहीना उपरितनोपरितनौवेयकदेवदेहाः । एवं यावदीशानकल्पदेवरूपाद् अनन्तगुणहीनाः सौधर्मकल्पदेवदेहाः । ततो भवनपति-ज्योतिष्क-वनचर-चक्रवर्ति-वासुदेव-बलदेवमहामण्डलिका अपि. रूपतो यथाक्रममनन्तगुणहीना द्रष्टव्याः । ततः शेषराजानो जनपदलोकाश्च षटस्थानगताः परस्परं भवन्ति । तद्यथा-अनन्तभागहीना वा १ असङ्ख्येयभागहीना वा २ 30 सधेयभागहीना वा ३ संख्येयगुणहीना वा ४ असहयेयगुणहीना वा. ५ अनन्तगुणहीना बा ६ १ यदि नाग° भा० त० विना ॥ २ गतं केवइय त्ति द्वारम्, अथ डे० ॥ ३. उपनीयमानं भा० विना ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ॥ ११९७ ॥ अथ भगवत एव रूपसौन्दर्यनिबन्धनं संहननादिकं वर्णयन्नाह — संघयण - रूव-संठाण - वन्न - गइ - सत्त-सार ऊसासा । मादणुत्तराई, हवंति नामोदया तस्स ।। ११९८ ।। [आव.नि. ५७१ ] ‘संहननं’ वज्रऋषभनाराचम्, 'रूपम्' अनन्तरोक्तरूपम्, 'संस्थानं' समचतुरस्रम्, 'वर्णः ' 5 देहच्छाया, 'गतिः' भद्रगजेन्द्रानुकारिणी सुललिता, 'सत्त्वं' धैर्यम्, सारो द्विधा – बाह्य आभ्यन्तरश्च, बाह्यो गुरुत्वम्, आभ्यन्तरो ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूपः, " ऊसास" त्ति उच्छ्रास- निःश्वाससौरभ्यम्, एवमादीनि वस्तूनि तस्य भगवतः 'अनुत्तराणि' अनन्यसामान्यानि भवन्ति, आदिशब्दाद् गोक्षीरगौरं रुधिरा-ऽऽमिषं चर्मचक्षुषामगोचरावाहार - नीहारौ इत्यादि । एतानि च ' नामोदयाद्' नामनाम्नः कर्मणः शुभरूपस्योदयात् 'तस्य' भगवतोऽनुत्तराणि भवन्ति ॥ ११९८॥ किञ्चपडणं अन्नासऽवि, पसन्थ उदया अणुत्तरा होंति । खयरवसमे विय तहा, खयम्म अविगप्पमाहंसु ।। ११९९ ।। [आव. नि. ५७२ ] प्रकृतीनाम् ‘अन्यासामपि' नामव्यतिरिक्तानां गोत्रादीनां प्रशस्ता उदया उच्चैर्गोत्रत्वादयो भवन्ति । अपिशब्दाद् नाम्नोऽपि ये उक्तव्यतिरिक्ताः सौभाग्य-सौन्दर्य - यशः कीर्त्तिप्रभृतयस्तेऽपि परिगृह्यन्ते । एते च किमितरजनस्येव प्रशस्ताः ? उत न ? इत्यत आह- 'अनुत्तराः ' अनन्यस15 दृशाः । “खयउवसमे वि य तह" त्ति कर्मणां क्षयोपशमेऽपि सति ये दान - लाभादयः कार्यविशेषास्तेऽपि तथैव भगवतोऽनुत्तराः । 'क्षये' क्षायिके पुनर्भावे वर्त्तमानस्य भगवतः केवलज्ञानादिकं गुणसमुदयम् ‘अविकल्पं’ वर्णनादिविकल्पातीतं सर्वोत्तमम् " आहंसु” त्ति आख्यातवन्तः श्रुतधरा इति ॥ ११९९ || आह केवलिकालेऽप्यसाताद्याः प्रकृतयो नाम्नो वा या अशुभास्ताः कथं तस्य दुःखदा न भवन्ति ? इति अत्रोच्यते — 20 10 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ अस्सायमाइयाओ, जा वि य असुहा हवंति पगडीओ । निंबरसलवु व्व पए, न होंति ता असुहया तस्स || १२०० || [आव.नि. ५७३] 'असाताद्याः' असातावेदनीयादयो या अपि चाशुभा भवन्ति प्रकृतयस्ता अपि निम्बरसलव इव 'पयसि' दुग्धे न भवन्ति अशुभदा असुखदा वा तस्य भगवत इति ॥ १२०० ॥ अथ पृच्छाद्वारम् । आह उत्कृष्टरूपतया भगवतः किं प्रयोजनम् ? इति अत्रोच्यतेधम्मोदएण रूवं, करेंति रूवस्सिणो वि जइ धम्मं । गज्झवओ य सुरुवो, पसंसिमो रूवमेवं तु ॥ १२०१ ।। [आय. नि. ५७४ ] धर्मस्य-पुण्यप्रकृतिरूपस्योदयेन रूपं भवतीति परिभाव्य श्रोतारोऽपि धर्मे प्रवर्तन्ते । तथा कुर्वन्ति ‘रूपस्विनोऽपि' रूपवन्तोऽपि यदि धर्मं ततः शेषैः सुतरां कर्त्तव्य इति श्रोतृबुद्धिः प्रवर्त्तते । 'ग्राह्मवाक् च' आदेयवाक्यः सुरूपः पुरुषो भवति, चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् श्रोतॄणां 30 रूपाद्यभिमानापहारी च । अतः प्रशंसामो वयं भगवतो रूपमेवमिति ॥ १२०१ ॥ गते रूप-पृच्छाद्वारे । अथ व्याकरणद्वारम् । भगवान् देव-नर-तिरश्चां प्रभूतसंशयिनां व्याकरणं कुर्वन् कथं संशयव्यवच्छित्तिं करोति : इत्युच्यते — युगपदेकेनैव निर्वचनेन । आह यद्येकैके - १ कस्य संश° डे० कां० ॥ 25 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ११९८-१२०५] प्रथम उद्देशः । ३७३ स्यैकैकं संशयं परिपाट्या व्यवच्छिन्द्यात् ततः को दोषः स्यात् ? इत्याह कालेण असंखेण वि, संखाईयाण संसईणं तु । मा संसयवांच्छित्ती, न होज कमवागरणदोसा ।। १२०२ ।। [आव.नि. ५७५] कालेन 'असङ्ख्येयेनापि' पल्योपमादिना सङ्ख्यातीतानां संशयिनां संशयव्यवच्छित्तिः क्रमव्याकरणदोषाद् न भवेत् , अंत एतद् मा भूदिति भगवान् युगपद् व्यागृणातीति ॥ १२०२ ॥5 अथ युगपद्ध्याकरणे गुणानाह सव्वत्थ अविसमत्तं, रिद्धिविसेसो अकालहरणं च सव्वन्नुपच्चओ वि य, अचिंतगुणभूइओ जुगवं ॥ १२०३॥ [आव.नि. ५७६] 'सर्वत्र' सर्वसत्त्वेषु 'अविषमत्वं' युगपन्निर्वचनेन तुल्यत्वं भगवतो भवति, राग-द्वेषरहितस्य तुल्यकालसंशयिनां युगपजिज्ञासतां कालभेदेन कथने राग-द्वेषगोचरचित्तवृत्तिसम्भावनाप्रसङ्गात् । 10 ऋद्धिविशेषश्चायं भगवतः, यद् युगपत् सर्वसंशयिनामशेषसंशयव्यवच्छित्तिं करोति । तथा परिपाट्या कथने कस्यापि संशयिनोऽनिवृत्तसंशयस्यैव कालेन-मृत्युना हरणं स्यात् , अतोऽकालहरणं युगपनिर्वचने भवति । तथा सर्वज्ञप्रत्ययोऽपि च तेषामित्थमेव भवति, क्रमव्याकरणे तु कस्यचिदनपनीतसंशयस्य सर्वज्ञप्रतीतिरपि न स्यात् । तथा अचिन्त्या-अप्रमेया गुणभूतिः-गुणसम्पदियं भगवतः, यदेकहेलयैव सर्वेषामपि संशयव्यपनयनम् । एतैः कारणैभगवान् युगपत् ।। कथयतीति ॥ १२०३ ॥ गतं व्याकरणद्वारम् । अथ श्रोतृपरिणामद्वारम् । तत्र यथा सा पारमेश्वरी वाग् अशेषसंशयोन्मूलनेन परिणमते तथा प्रतिपादयन्नाह वासोदगस्स व जहा, वन्नादी होति भायणविसेसा । सव्वेसि पि सभासं, जिणभासा परिणमे एवं ॥ १२०४ ॥ [आव.नि. ५७७] 'वर्षोदकस्य' वृष्टिपानीयस्य वाशब्दाद् अन्यस्य वा यथैकरूपस्य सतः 'वर्णादयः' वर्ण-गन्ध- 20 रस स्पर्शाः 'भाजनविशेषाद्' भूमिकाद्याधारविशेषाद् विचित्रा भवन्ति । यथा कृष्ण-सुरभिमृत्तिकायां वर्षोदकं पतितं स्वच्छं सुगन्धं सरसं च भवति, ऊपरभूमिकायां विपरीतम् ; एवं सर्वेषामपि श्रोतृणां स्वस्खभाषां प्रति 'जिनभाषा' जैनी वाणी परिणमते । उक्तञ्च परमर्षिभिः सा वि य णं भगवओ अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आयरियमणायरियाणं दुपय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सिरीसिवाणं अप्पप्पणो भासत्ताए परिणमइ ॥ ( समवायाङ्गे ३४ 25 समवाये)॥ ॥१२०४ ॥ भगवद्वाच एव सौभाग्यगुणप्रतिपादनायाहसाहारणा-ऽसवत्ते, तओवओगो उ गाहगगिराए । न य निविजड़ माया, किाढवाणियदाासआहरणा ।। १२०५ ॥ [आव.नि. ५७८] 'साधारणा' सर्वसंज्ञिनां भाषासु सामान्या; यद्वा क्षीर-खण्डादीनि मधुरद्रव्याण्येकत्र मीलितानि यथा सुखादुतया साधारणानि भवन्ति एवमसावप्यतीवसुस्वादुतया साधारणा; नरकादो पततो वा 30 जन्तून् या सम्यग् धारयति साधारं-परित्राणं करोतीति साधारणा । 'असपत्ना' अनन्यसदृशी, यस्या वा अपरवाग्भिाघातो न क्रियते । ग्राहिका-अर्थपरिच्छेदकारिणी सा चासौ गीश्च १ अतो भग' भा० ॥ २ °यति सा साधारणा भा० त० डे० कां० ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ग्राहकगीः । एवंविधायां तस्यामुपयोगः - एकाग्रता तदुपयोगः, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् तदुप योग एव श्रोतुर्भवति, नानुपयोगो न चान्यत्रोपयोग इति । उपयोगे सत्यप्यन्यत्र निर्वेददर्शनात् तस्यामपि निर्वेदः स्यादित्याह - न च निर्विद्यते श्रोता भागवतीं वाचं शृण्वन् । कुतः खल्वयमर्थोऽवगन्तव्यः ? इत्याह--- किढिवाणिजदास्युदाहरणात् 5 एगस्स वाणियगस्स किढी दासी किढी थेरी । सा गोसे कट्टाणं गया । तण्हा - छुहाकिलंता मज्झण्हे आगता । ‘अतिथेवा कट्टा आणिय' त्ति पिट्टित्ता भुक्खिय-तिसिया पुणो पट्टविया । सा य वड्डुं कट्टभारं गहाय ओगाहंतीए पच्छिमार पोरिसीए आगच्छइ । को कालो ? जेट्ठामूलमासो । अह ताए य थेरीए कट्टभाराओ एवं कट्टं पडियं । ताए ओणमित्ता तं गहियं । तंसमयं च भगवं तित्थगरो धम्मं कहियाइओ जोयणनीहारिणा सरेणं । सा थेरी तं सद्दं सुर्णेती 10 तहेव ओणया सोउमादत्ता । उन्हं खुहं पिवासं परिस्समं च न विंदइ । सूरत्थमणेतित्थरो धम्मं कहेउमुट्टितो । थेरी गता ॥ ॥ १२०५ ॥ सव्वाअं पि सोया, झविज जइ हु सययं जिणो कहए । सी- उण्ह-खु-प्पिवासा- परिस्सम भए अविगणितो ।। १२०६ ।। [आव.निं. ५७९] अनेनैव दृष्टान्तेन यदि 'हुः' निश्चितं सततं 'जिनः' तीर्थङ्करः कथयेत्, ततः श्रोता 'शीतोष्ण15 क्षुत्पिपासापरिश्रमभयान्यविगणयन्' शीतं - हिमम् उष्णम् - आतपः क्षुत्पिपासे प्रतीते परिश्रमःमार्गगमनादिसमुत्थः भयं - प्रतिपक्षादिजनितम् एतान्यविन्दमानो भगवतो धर्मदेशनां शृण्वन् सर्वायुष्कमपि क्षपयेदिति ॥ १२०६ ॥ गतं श्रोतृपरिणामद्वारम् । अथ दानद्वारम् । भगवान् येषु नगरा - ssकरादिषु विहरति तेभ्यो दिवसदैवसिकीं वार्तां ये खल्वानयन्ति यथा 'भगवान् अद्यामुत्र क्षेत्रे विहरति' इति तेषां यद् 20 भगवत्किंवदन्तीनिवेदनवृतिकल्पं परिभाषितं संवत्सरनियतं दानं दीयते तद् वृत्तिदानम्, यत् पुनः खनगरे भगवदागमननिवेदकाय नियुक्तायानियुक्ताय वा हर्षप्रकर्षाधिरूढमानसैर्दीयते तत् प्रीतिदानम्, एतद् द्वयमपि यथा चक्रवर्त्त्यादयः प्रयच्छन्ति तथा प्रतिपादयन्नाह — वित्ती उ सुवन्नस्सा, बारस अद्धं च सयसहस्साईं । तावइयं चि कोडी, पीईदाणं तु चक्कीणं ॥ १२०७ ।। [आव.नि. ५८०] वृत्तिदानं सुवर्णस्य ‘द्वादश अर्द्ध च शतसहस्राणि' अर्द्धत्रयोदश सुवर्णलक्षा इत्यर्थः । एव' अर्द्धत्रयोदशप्रमाणा एव सुवर्णस्य कोटयः प्रीतिदानम् । केषाम् : इत्याह - चक्रवर्त्तिनाम् ॥ १२०७ ॥ 25 एतं चैव पमाणं, नवरं रययं तु केसवा दिति । मंडलियाण सहस्सा, वित्ती पीई सयसहस्सा ।। १२०८ ।। [ आव.नि. ५८१ ] 30 एतदेव प्रमाणं वृत्ति प्रीतिदानयोः, 'नवरं' केवलं 'रजतं' रूप्यं 'केशवाः' वासुदेवा ददति । ‘मण्डलिकानां' राज्ञां सहस्राण्यर्द्धत्रयोदशप्रमाणानि रूप्यस्य वृत्तिदानम्, प्रीतिदानं पुनरर्द्धत्रयोदशशतसहस्राणि इति ॥ १२०८ ॥ १ चक्किस्स ता० ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १२०६-१२] प्रथम उद्देशः । ३७५. किमेत एव महापुरुषाः प्रयच्छन्ति ? आहोश्चिदन्येऽपि ? इत्याह--- ___ भत्ति-विभवाणुरूवं, अन्ने वि य दिति इब्भमाईया । ___ सोऊण जिणागमणं, निउत्तमनिओइएसुं वा ॥१२०९ ।। आय.नि. ५८२] 'भक्ति-विभवानुरूपं' यावती यस्य भगवद्विषया भक्तिः यावती च यस्य विभूतिः स सदनमानेनेत्यर्थः, अन्येऽपि च ददति 'इभ्यादयः' इभमर्हतीति इभ्यः, यस्य सत्कसुवर्णादिद्रव्यपु नान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते सः, अभ्यधिकद्रव्यो वेत्यर्थः, आदिशब्दाद् नगर-आमभोगिकादयः । कदा? इत्याह-श्रुत्वा 'जिनस्य' तीर्थकृत आगमनं नियुक्तेभ्योऽनियुक्तेभ्यो बा ॥ १२.०९ ॥ आह तेपामित्थं वृत्ति-प्रीतिदाने प्रयच्छतां के गुणाः ? इति उच्यते देवाणुवित्ति भत्ती, पूया थिरकरण सत्तअणुकंपा। साओदय दाणगुणा, पभावणा चेव तित्थस्स ॥ १२९० ॥ [आव.नि. ५८३] 10 चक्रवर्त्यादिभिरित्थं प्रयच्छद्भिर्देवानामनुवृत्तिः कृता भवति, देवा अपि भगवतः भूनां कुर्वन्तीति कृत्वा भगवति पूज्यमाने तेषामपि महान् परितोषो भवतीत्यर्थः । तथा भक्तिभावतः कृता भवति । तीर्थकरपूजायां च स्थिरीकरणमभिनवश्राद्धानां भवति । सत्त्वामां भगवत्मवृत्तिनिवेदकानामनुकम्पा विहिता भवति । 'सातोदयं' सातवेदनीयं कर्म विशिष्टदिव्य-मानुष्यसुखोपभोगफलं बध्यते । एतेऽनन्तरोक्ता दानगुणाः । प्रभावना चैव तीर्थस्य कृता भवति-अहो !15 अमीषां धर्मः श्रेयान् यत्र स्वदेव-गुरुभक्तिसम्भारसुभगमीदृशमौदार्यमिति ॥ १.२१.० ॥ ___ गतं दानद्वारम् । अथ देवमाल्यद्वारम् । भगवान् प्रथमां सम्पूर्णपौरुषी धर्ममाचष्टे । भवान्तरे देवमाख्यं प्रविशति, बलिरित्यर्थः । आह कस्तं करोति ? इत्याह राया व रायमच्चो, तस्सासइ पर जणचओ चा:वि । दुब्बलिकडिय वलिछडिय तंदुलाणाढगं कलमा । १२११॥ [आव.नि. ५८४] 20 __ 'राजा वा' चक्रवर्ति-माण्डलिकादिः, 'राजामात्यो वा राज्ञो मन्त्री। तस्य' राज्ञो राजामात्यस्य या 'असति' अभावे 'पौरं' नगरनिवासिविशिष्टलोकसमुदायः 'जनपदो वा' प्रामादिवास्तव्यजनसमुदायो दुर्बलिकया कण्डितानां खण्डीकर्तुमशक्तत्वाद् बलवत्या च्छटितानां निःशेषतुषामनयमान तन्दुलानाम् ‘आढकम्' दो असईओ पसई, दो पसईओ य सेइआ होइ । . चउसेइओ उ कुडवो, चउकुडवो पत्थओ नेओ ।। एवंविधैश्चतुर्भिः प्रस्थैरेक आढको निप्पद्यते, एवंपरिमाणं "कलम" ति आर्षवाद विभक्तिव्यस्पये 'कलमानां' शालिविशेषाणां बलिं करोति ॥ १२११ ॥ किंविशिष्टानाम् ? इत्याह __ भाइयपुणाणियाणं, अखंड-ऽफुडियाण फलगसरियाणं । कीरइ बली सुरा वि य, तत्थव छुहंति गंधाई ॥ १२:१२ ।। [आव.नि. ५८५] 30 भाजिताश्च ते पुनरानीताश्च भाजितपुनरानीतास्तेषाम् । तत्र भाजनम्-ईश्वरादिगृहस सीनतार्थभर्पणम् , तेभ्यः प्रत्यानयनं पुनरानयनम् । तथा 'अखण्डा-ऽस्फुटितानाम्' अखण्डाः-सम्पूर्णा१ फलं तद् व भा ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ वयवाः अस्फुटिताः-राजीरहिताः, "फलकसरिताणं" फलकवीनितानाम् , एवम्भूतानां तन्दुलानां बलिः क्रियते । सुरा अपि च 'तत्रैव' बलौ प्रक्षिपन्ति गन्धादीनिति ॥ १२१२ ॥ गतं देवमाल्यद्वारम् । अथ माल्यानयनद्वारम् । तमित्थं तन्दुलाढकपरिमाणं सिद्धं बलिमुपादाय राजादिस्त्रिदशगणपरिवृतो महता पटुपटहादितूर्यनिनादेन सकलमपि दिध्मण्डलमापूरयन्नागत्य 5 पूर्वद्वारेण प्रवेशयति । आह च चूर्णिकृत्-- तं आढगं तंदुलाणं सिद्धं देवमलं राया व रायमच्चो वा पउरं वा गामो वा जणवओ वा गहाय महयातूरियरवेणं देवपरिवुडो पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं पविसइ त्ति । ___ तस्मिंश्च प्रवेश्यमाने भगवानपि धर्मदेशनामुपसंहरतीति । आह च बलिपविसणसमकालं, पुबद्दारेण ठाइ परिकहणा । 10. तिगुणं पुरओ पाडण, तस्सद्धं अवडियं देवा ॥ १२१३ ॥ [आव.नि. ५८६) _पूर्वद्वारेण बलिप्रवेशनसमकालं तिष्ठति' उपरमते 'परिकथना' धर्मकथा । ततश्च स राजादिः प्रविश्य बलिव्यग्रहस्तो भगवन्तं त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य बलिं तत्पादान्तिके पुरतः पातयति । तस्य चार्द्धमपतितमेव देवा गृह्णन्ति ॥ १२१३ ॥ अद्धद्धं अहिवइणो, तदद्ध मो होइ पागयजणस्स । सव्वामयप्पसमणी, कुप्पइ नऽन्नो य छम्मासे ॥ १२१४ ॥ आव.नि. ५८७) देवगृहीतोद्वरितस्यार्द्धस्यार्द्धमधिपतेर्भवति, राजादेर्बलिखामिन इत्यर्थः । तदर्द्ध' चतुर्भागलक्षणं 'मो' पादपूरणे यद् बलेरास्ते तद् भवति 'प्राकृतजनस्य' प्रकृतिषु भवः प्राकृतो जनस्तस्य, इतरलोकस्येत्यर्थः । तस्य चायं प्रभावः-~-यदि तत एकमपि सित्थं शिरसि प्रक्षिप्यते ततः पूर्वोत्पन्नो रोगः सपदि विलीयते, अपूर्वश्च षण्मासान् यावन्न प्रादुर्भवतीति । आह च-'सर्वामयप्रशमनः' 20 सर्वरोगोपशमनोऽयं बलिः, गाथायां प्राकृतत्वात् स्त्रीत्वम् , कुप्यति न 'अन्यश्च' अपूर्वो रोगः षण्मासान् यावदिति ॥ १२१४ ॥ गतं माल्यानयनद्वारम् । अपरे त्वनन्तरोक्तं द्वारद्वयमप्येकद्वारीकृत्य व्याचक्षते तथाप्यविरोधः । इत्थं बलौ प्रक्षिप्ते भगवानुत्थाय प्रथमप्राकारान्तरादुत्तरद्वारेण निर्गत्य पूर्वस्यां दिशि स्फटिकमये देवच्छन्दके यथासुखं समाधिना व्यवतिष्ठते । अथ 'उपरि तीर्थम्' इति द्वारम्-भगवत्यु25 त्थिते उपरि-द्वितीयपौरुप्यां तीर्थ-प्रथमगणधरोऽपरो वा धर्ममाचष्टे । आह भगवानेव किमिति नाचष्टे ? किं तत्कथने केऽपि गुणाः सन्ति ? उच्यते, सन्तीति ब्रूमः । के पुनस्ते ? इत्याह खेयविणोओ सीसगुणदीवणा पञ्चओ उभयओ वि।। सीसा-ऽऽयरियकमो वि य, गणहरकहणे गुणा होति ।। १२१५ ।। [आव.नि. ५८८] भगवतः खेदविनोदो भवति, परिश्रमविश्राम इत्यर्थः । तथा 'अहो ! अस्य भगवतः शिप्या 30 अप्येवंविधव्याख्यानलब्धिमन्तः' इति शिप्यगुणदीपना कृता भवति । प्रत्ययश्चोभयतोऽपि श्रोतणामुपजायते, यथा भगवताऽभ्यधायि तथा गणधरोऽप्यभिधत्ते, न शिष्या-ऽऽचार्ययोः परस्परं १ "पच्चयो उभयतो वि ति गिहत्थाण य पव्वइयाण य, जारिसयं तित्थयरो कति तारिस सिस्सो वि कधेति: अधवा पचयो उभयतो वि त्तिन शिष्याचार्ययोः परस्परविरुद्धं वचनम्" इति Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १२१३-१९] प्रथम उद्देशः । ३७७ वचनविरोध इति; गणधरे वा तदनन्तरं भगवदुक्तानुवादिनि प्रत्ययो भवति भगवद्विषयः श्रोतॄणां यथा नान्यथावादीति । तथा शिष्या - ssचार्यक्रमोऽपि च दर्शितो भवति, आचार्यादुप श्रुत्य योग्यशिष्येण तदुक्तार्थव्याख्यानं कर्त्तव्यम् । एते 'गणधरकथने' गणभृतो धर्मदेशनायां गुणा भवन्तीति ॥ १२१५ || आह स गणधरः क निषण्णः कथयति ? इत्युच्यतेरावणीय सीहासेणोवविट्ठो व पायवीढम्मि । 5 जो अनयरो वा, गणहारि कहेइ वीयाए ।। १२१६ ।। [ आव. नि. ५८९ ] राज्ञा उपनीते-ढौकिते सिंहासने वा तदभावे भगवतः पादपीठे वा उपविष्टः 'ज्येष्ठः' प्रथम गौतमस्वाम्यादिस्तदभावेऽन्यतरो वा गणं- साध्वादिसमुदायं गुणसमुदयं वा धारयितुं शीलमस्येति गणधारी कथयति द्वितीयायां पौरुप्यामिति ॥ १२१६ ॥ आह स कथयन् कथं कथयति : इत्युच्यते संखाईए विभवे, साहइ जं वा परो उ पुच्छिजा । न य णं अणाइसेमी. वियाणई एस छउमत्थो ।। १२१ ७ ।। [आव.नि. ५९०] भगवान् गणधरः सङ्ख्यातीतानपि भवान् " साहइ" त्ति कथयति । इदमुक्तं भवतिअसङ्ख्येयेषु भवेषु यद् बभूव भविष्यति वा तत् सर्वमपि कथयति । 'यद् वा' वस्तुजातं दुरवगममपि परः पृच्छेत् तदशेषमपि कथयतीति, अनेनाऽशेषाभिलाप्यपदार्थप्रतिपादनशक्तिमाह । 15 किं बहुना ? 'न च' नैव "णं" इति तं गणधरम् 'अनतिशयी' अवधि - मनः पर्यायाद्यतिशयरहितो विजानाति यथा 'एषः ' गणधर : छद्मस्थः, किन्तु निःशेषप्रश्नोत्तरदानसमर्थतया सर्वज्ञोऽयमिति मन्यत इति भावः ॥ १२१७ ॥ एवं तावत् समवसरणवक्तव्यता प्रसङ्गत उक्ता । अथ प्रकृतयोजनामाहतित्थयरस्स समीवे, वक्खेवो तत्थ एवमाईहिं । सुरगणं ताहे, करेइ सो बारस समाओ ॥ १२१८ ॥ तीर्थकरस्य समीपे ‘तत्र' समवसरणे एवमादिभिः प्रकारैरध्ययनस्य व्याक्षेपो भवतीत्युक्ते स शिष्यः प्राह – 'भगवन् ! सत्यमेवैतद् यद् आदिशत यूयं अत इहैव पठामि' इत्युक्त्वा सूत्रयहणं द्वादश 'समाः' वर्षाणि करोति, द्वादशभिर्वर्षेः सकलस्यापि सूत्रस्याध्ययनं विदधातीत्यर्थः ॥ १२१८ ॥ गतं शिक्षापदद्वारम् । अथार्थग्रहणद्वारं विवरीषुराह - 10 सुत्तम्मिय गहियम्मी, दिट्ठतो गोण-सालिकरणेणं । उवभोगफला साली, सुत्तं पुण अत्थकरणफलं ।। १२१९ ॥ सूत्रे गृहीते सति अवश्यं तस्यार्थः श्रोतव्यः । किं कारणम् ? इति चेद् उच्यते — दृष्टान्तोऽत्र 'गवा' बलीवर्देन 'शालिकरणेन च' शालिक्षेत्रेण । 20 25 अर्थग्रहण द्वारम् तत्र गोदृष्टान्तो यथा —— कश्चिद् बलीवर्दः सकलमपि दिवस वाहयित्वा हलाद् अरघट्टाद् 30 गोदृष्टान्तः वा मुक्तः सन् सुन्दरामसुन्दरां वा चारिं यां प्राप्नोति तां सर्वामनावाद्रयन् चरत्येव । पश्चाद् प्रातः सन्नुपविश्य प्राक् चीर्णं रोमन्थायते, रोमन्थायमानश्च तदास्वादमुपलभते, ततोऽसौ १ 'सणे व विट्ठो मो० ले० ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिकरण दृष्टान्तः संज्ञासूत्रादिकाः सूत्रप्रकाराः शालिकरणदृष्टान्तः पुनरयम् — यथा कर्षकः शालीन् महता परिश्रमेण निप्पाद्य ततो लबन-मलन - पवनादिप्रक्रियापुरस्सरं कोष्ठागारे प्रक्षिप्य यदि तैः शालिभिः खाद्य-पेयादीनामुपभोगं न करोति ततः शालिसङ्ग्रहस्तस्य फल : सम्पद्यते । अथासौ करोति तैः शालिभिः यथायोगमुपभोगं ततः शालिसङ्ग्रहः सफलो जायते । एवं द्वादशवार्षिके सूत्राध्ययनपरिश्रमे कृतेऽपि 10 यदि तदीयमर्थं न शृणुयात् तदा स सर्वोऽपि परिश्रमो निष्फल एव भवेत् । अर्थे तु श्रुते सम्यगवधारिते च सफलः स्यात् ॥ अत एवाह - उपभोगफलाः शालयः, सूत्रं पुनः 'अर्थकरणफलं' चरण-करणादिरूपसूत्रार्थावरणफलम्, तच्च सूत्रोक्तार्थाचरणं श्रुत एवार्थे भवति नान्यथा ॥ १२१९ ॥ अतः - ज बारस वासाई, सुत्तं गहियं सुणाहि से अहुणा । बारस चैव समाओ, अत्थं तो नाहिसि न वा णं ।। १२२० ।। यदि द्वादश वर्षाणि त्वया सूत्रं गृहीतम्, अतः 'तस्य' सूत्रस्यार्थमधुना द्वादशैव 'समाः ' वर्षाणि शृणु । ततोऽर्थं शृण्वन् स्वज्ञानावास्ककर्मक्षयोपशमानुसारेण ज्ञास्यसि वा न वा "णं" इति 'तं' विवक्षितमर्थम् ॥ १२२० ॥ किञ्च - ३७८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ नीरस ववरं परित्यजति । एवमयमपि गृहवासारघट्टाद् मुक्तः प्रथमं यत् किमपि सूत्रं चारिकल्पं गुरुसकाशादधिगच्छति तत् सर्वमर्थाखादनविरहितं गृह्णाति । ततः सूत्रे गृहीतेऽर्थग्रणं करोति । यदि पुनरर्थं न गृह्णीयात् तदा तत् सूत्रं निराखादमेव सज्जायेत । अर्थे तु श्रुते सम्यक् तदर्थमवबुध्यमानः सन्नसौ यथावदाचरत्युपदेशम् परिहरति बिन्दु - मात्राभेदादिदोषदु5 ष्टान् कचवरकल्पानभिलापानिति ॥ 15 सन्नाइसुत्त ससमय, परसमय उस्सग्गमेव अववाए । हणा-हिय जिण थेरे, अज्जा काले य वयणाई ।। १२२१ ।। - इह मौनीन्द्रप्रवचनेऽनेकधा सूत्राणि भवन्ति । तत्र किञ्चित् संज्ञासूत्रम्, यथा – “जे छेए से सागारियं न सेवे ।" (आचा० श्रु० १ अ० ५ उ० १) यः 'छेक : ' पण्डितः सः 'सागारिक" मैथुनं न सेवेत । अथवा – “सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए ।” ( आचा० श्रु० १ अ० २ उ० ५ ) आमम् - अविशोधिकोटिः, गन्धं- विशोधिकोटिः । तथा — “आरं 25 दुगुर्णेणं पारं एगगुणेणं ।" "आरं ' संसारस्तं 'द्विगुणेन' राग-द्वेषयुगलेन 'पारं' निर्वाणं तद् 'एकगुणेन' राग-द्वेषपरिहारलक्षणेन जीवः प्राप्नोतीति गम्यते । आदिग्रहणाद् देशी भाषानियतं सूत्रं गृह्यते, यथा--" - " दिगिंछापरीसहे" (उत्त० अ० २ गद्यसूत्रम् ) । ' दिगिंछा' इति बुभुक्षा || स्वसमयसूत्रं यथा----" करेमि भंते! सामाइयं" ( सामायिकाध्ययनम् ) इत्यादि ॥ 20 30 परसमयसूत्रं यथा— पंच खंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोइणो । ( सूत्रकृ० श्रु० १ अ० १ उ० १ ) उत्सर्गसूत्रं यथा—''अभिक्खणं निव्विगई गया य" ( दश० चू० २ गा० ७ ) इत्यादि । अपवादसूत्रं यथा- तिहमन्नरागस्स, निसिज्जा जम्स कपई । जराए अभिभूयस्स, वाहियस्सा तवस्सिणो ॥ ( दश० अ० ६ गा० ५९ ) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाप्यगाथाः १२२०-२२] प्रथम उद्देशः । 'हीनम्' इति हीनाक्षरं यैरक्षरैर्विना सूत्रस्यार्थो न पूर्यते, 'अधिकम्' इत्यधिकाक्षरम् , एवंविधं यत् पूर्वमजानता सूत्रमधीतं तस्यार्थं सम्यगवगम्य हीनं प्रतिपूरयति अधिकं परित्यजतिः ।। जिनकल्पिकसूत्रं यथा तेगिच्छं नाभिनंदिजा, संचिक्खऽत्तगवेसए । एवं खु तम्स सामन्नं, जं न कुज्जा न कारवे ॥ (उत्त० अ० २ गा० ३३)5 स्थविरकल्पिकसूत्रं यथा- भिक्खू अ इच्छिज्जा अन्नयरिं तेगिच्छि आउंटित्तए । अथवा जिनकल्पिक-स्थविरकल्पिकयोः सामान्यसूत्रमिदम्--- "संसट्टकप्पे ण चरिज भिक्खू" (दश० चू० २ गा० ६)। आर्यासूत्रं यथा--"कप्पइ निग्गंथीणं अंतोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए' (उ० १ सू० १६)॥ "कालि" त्ति कालविषयं किमपि सूत्रं भवति, यथा अनागतं कालमङ्गीकृत्य"न या लभेजा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । (दश० चू० २ गा० १०) इत्यादि। "वयणाई" ति 'वचनम्' एक-द्वि-बहुवचनादिकं पोडशधा यथा पीठिकायाम् (गा० १६४), तत्प्रतिपादकं सूत्रं यथा आचाराङ्गे भापाध्ययने एगवयणं वयमाणे एगवयणं वएज्जा, दुवयणं वयमाणे दुवयणं वएज्जा, बहुवयणं वयमाणे 15 बहुवयणं वएज्जा, इत्थीवयणं वयमाणे इर्थावयणं वएज्जा । (पत्र ३८६-१) इत्यादि । आदिशब्दाद् भयसूत्रादिपरिग्रहः । इत्थमनेकधा सूत्राणां सम्भवे तदर्थश्रवणमन्तरेण न शक्यते "कीदृशम् ?' इति विवेकः कर्तुमिति कर्त्तव्यमर्थग्रहणम् ॥ १२२१॥ __ अथ ते शिप्या ब्रूयुः---'यः कण्ठतः सूत्रे निबद्धोऽर्थस्तेनैव वयं तुष्टाः किमस्माकं दुरधिगमत्वाद बहुपरिक्लेशेन "मज्जण निसिज्ज अक्खा" (गा० ७७२) इत्यादिप्रक्रियापुस्स्सस्मर्थ- 20 ग्रहणप्रयासेन?' इति, ते इत्थंब्रुवाणाः प्रज्ञापयितव्याः । कथम् ? इत्याह जे सुत्तगुणा खलु लक्खणम्मि कहिया उ सुत्तमाईया । अत्थग्गहणमराला, तेहिं चिय पनविनंति ॥ १२२२ ॥ पीठिकायां लक्षणद्वारे ये सूत्रस्य गुणाः “निद्दोसं सारवंतं च" (गा० २८२) इत्यादिना कथिताः, यद्वा "सुत्तमाईय" ति "सुतं तु मुत्तमेव उ" (गा० ३१०) इत्यादिना प्रतिपा- 25 दिताः, 'तेरेव' हेतुभिरर्थग्रहणे मरालाः-अलसाः शिप्याः प्रज्ञाप्यन्ते । यथा-भो भद्राः ! निर्दोप-सारवद-विश्वतोमुखादयः सूत्रस्य गुणा भवन्ति, ते च यथाविधि गुरुमुखादर्थे श्रूयमाण एव प्रकटीभवन्ति । किञ्च यथा द्वासप्ततिकलापण्डितो मनुप्यः प्रसुप्तः सन्न किञ्चित् तासां कलानां जानीते एवं सूत्रमप्यर्थेनाऽबोधितं सुप्तमिव द्रष्टव्यम् । विचित्रार्थनिबद्धानि सोपस्काराणि च सूत्राणि भवन्ति, अतो गुरुसम्प्रदायादेव यथावदवसीयन्ते न यतस्ततः । इत्थं युक्तियुक्तैर्वचोभिः 30 प्रज्ञापितास्ते विनेयाः प्रतिपद्यन्ते गुरूणामुपदेशम् , गृह्णन्ति द्वादश वर्षाणि विधिवदर्थमिति ॥ १२२२ ॥ गतमर्थग्रहणद्वारम् । अथानियतवासद्वारम्-तत्रार्थग्रहणे समापिते सति यो १°कल्पस्थ त० डे० ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ विनेय आचार्यपदयोग्यः स नियमाद् द्वादश वर्षाणि देशदर्शनं कारयितव्यः । शिष्यः पृच्छति-तेन द्वादश वर्षाणि सूत्रग्रहणं कृतं द्वादशभिर्वरैर्थः समग्रोऽपि गृहीतः, अतो देश दर्शनेन विना किमिवास्य न सिध्यति ? इति उच्यते-- अनियत जइ वि पगासोऽहिगओ, देसीभासाजुओ तहा वि खलु । वासद्वारम् । उंदुय सिया य वीसुं, एरगमाई य पच्चक्खं ॥ १२२३ ॥ यद्यपि तेन 'प्रकाशः' अर्थः सूत्रस्य 'अधिगतः' सम्यग् विज्ञातस्तथापि 'खलु निश्चयेनासो विनेयो देशदर्शनेन देशीभाषायुतः कर्तव्यः । कुतः ? इत्याह-"उंदुय" इत्यादि । 'उन्दुकम्' इति स्थानम् । "सिय" ति स्यात्शब्दो भवत्यर्थे आशङ्कायां भजनायां वा । तत्र भवत्यर्थे सुप्रसिद्धः । आशङ्कायां यथा- “दव्वथओ भावथओ दव्वथओ बहुगुण त्ति बुद्धि सिया।" (आव० 10 भा० १९२) भजनायां यथा--"सिय तिभागे सिय तिभागतिभागे" (प्रज्ञा०प० ६ पत्र २१६-२) इत्यादि । “वीसुं" ति विप्वक् पृथगित्यर्थः । ‘एरका' गुन्द्रा भद्रमुस्तक इत्यर्थ एते आदिग्रहणात् पयः पिच्चं नीरमित्यादयश्च शास्त्रप्रसिद्धाः शब्दास्तेषु तेषु देशेषु लोकेन तथातथा व्यवहियमाणा देशदर्शनं कुर्वता 'प्रत्यक्षम्' इति प्रत्यक्षत उपलभ्यन्ते ॥ १२२३ ॥ आह यद्यसौ तान् प्रत्यक्षतो नोपलभेत ततः का नाम न्यूनता भवेत् ? उच्यते जो वि पगासो बहुसो, गुणिओ पञ्चक्खओ न उवलद्धो । ___ जचंधस्स व चंदो, फुडो वि संतो तहा स खलु ॥ १२२४ ॥ योऽपि 'प्रकाशः' अर्थों बहुशः 'गुणितः' स्वभ्यस्तीकृतः परं न प्रत्यक्षत उपलब्धः स जात्यन्धस्येव चन्द्रः स्फुटोऽपि सन् ‘खलुः' अवधारणे तथैवास्फुट एव मन्तव्यः । इदमत्र हृदयम्-यथा चन्द्रः प्रकटोऽपि साक्षाद्दर्शनं विना जात्यन्धस्य न परिस्फुटाकारः प्रतिभासते एव20 मस्यापि शास्त्रानुसारतः प्रकटा अपि प्रत्यक्षदर्शनमन्तरेण न परिस्फुटा व्यवहारोपयोगिनोऽर्थाः प्रतिभासन्ते ॥ १२२४ ॥ यतश्चैवं ततः आयरियत्तअभविए, भयणा भविओ परीइ नियमेणं । अप्पतइओ जहन्ने, उभयं किं चाऽऽरियं खेत्तं ॥ १२२५ ॥ आचार्यत्वस्य-आचार्यपदस्य अभव्यः-अयोग्यस्तस्मिन् 'भजना' अर्थग्रहणानन्तरं देशदर्शनं 25 कार्यते वा न वा, यस्तु 'भव्यः' आचार्यपदयोग्यः स नियमेन 'पर्येति' देशदर्शनाय पर्यटति । स चाऽऽत्मतृतीयो जघन्येनावश्यन्तया कृत्वा प्रेषणीयः । किञ्च 'उभयम्' इति किं ऋतुबद्धकालपायोग्यमिदं क्षेत्रम् ? उत वर्षावासयोग्यम् ? तथा किमेतद् 'आर्य' सार्द्धपञ्चविंशतिजनपदमध्यवर्ति ? आहोश्चिदनार्यम् ? एतत् सर्वमपि देशदर्शनं विदधानो जानाति ॥ १२२५ ॥ अथ देशदर्शनस्यैव गुणान्तराभिधित्सया द्वारगाथामाह१°काशः' सूत्रार्थः 'अ° भा० ॥ २ यथा जात्यन्धस्य चक्षुष्मदुपदेशेन 'लोचनानन्ददायी सौम्यः शशी भवति' इत्यादिकं स्वरूपं जानतोऽपि दर्शनमन्तरेण न परिस्फुटाकारश्चन्द्रः प्रतिभासते एवमस्यापि गुरूपदेशानुसारतः शास्त्रार्थमववुध्यमानस्यापि प्रत्यक्षदर्शनमन्तरेण भा० पुस्तके ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ भाष्यगाथाः १२२३-३०] प्रथम उद्देशः । दंसणसोही थिरकरण देस अइसेस जणवयपरिच्छा। काउ सुयं दायव्वं, अविणीयाणं विवेगो य ॥ १२२६ ॥ देशदर्शने देशदर्शनं कुर्वतो दर्शनशुद्धिरात्मनः स्थिरीकरणं चान्येषां भवति, "देस" ति नानादेश- गुणाः भाषासु कौशलम् 'अतिशेषाः' अतिशयाः जनपदपरीक्षा च जायन्ते । तत एतानि दर्शनशुयादीनि कृत्वा विनीतेभ्यः श्रुतं दातव्यम् , अविनीतानां 'विवेकः' परित्यागः कर्त्तव्य इति । द्वारगाथासमासार्थः ॥ १२२६ ॥ अथ विस्तरार्थं विभणिषुराह जम्मण-निक्खमणेसु य, तित्थयराणं महाणुभावाणं । इत्थ किर जिणवराणं, आगाढं दंसणं होइ ॥ १२२७ ॥ जन्म-निष्क्रमणशब्दाभ्यां तदाधारभूता भूमयो गृह्यन्ते । जन्मभूमिषु अयोध्यादिषु, निष्कमणभूमिषु उज्जयन्तादिषु, चशब्दाद् ज्ञानोत्पत्तिभूमिषु पुरिमतालादिषु, निर्वाणभूमिषु सम्मे- 10 तशैल-चम्पादिषु तीर्थकराणां 'महानुभावानां' सातिशया-ऽचिन्त्यप्रभावाणां सम्बन्धिनीषु विहरतः 'अत्र किल भगवतां जिनवराणां जन्म जज्ञे, अत्र तु भगवन्तो दीक्षां प्रतिपन्नाः, इह केवलज्ञानमासादितवन्तः, इह पुनः परिनिवृताः' एवं बहुजनमुखेन श्रुत्वा स्वयं च दृष्ट्वा निःशकितत्वभावाद् 'आगाढम्' अतीवविशुद्धं 'दर्शनं' सम्यक्त्वं भवतीति ॥ १२२७ ॥ गतं दर्शनशुद्धिद्वारम् । अथ स्थिरीकरणद्वारमाह 15 संवेगं संविग्गाण जणयए सुविहिओ सुविहियाणं । आउत्तो जुत्ताणं, विसुद्धलेसो सुलेस्साणं ॥ १२२८ ॥ 'संविमानां' साधूनां संवेगं जनयति, 'अहो ! अयं भव्याचार्योऽवगाहितसमम्तसिद्धान्तसिधुरभ्यस्तचरणकरणसामाचारीक इत्थं देशदर्शनं करोति' इति भावनया स्थिरीकरणं करोतीत्यर्थः । स्वयं 'सुविहितः' शोभनविहितानुष्ठानस्तेषामपि सुविहितानाम् , स्वयम् 'आयुक्तः' 20 विकथा-निद्रादिप्रमादैरप्रमत्तस्तेषामपि 'युक्तानाम्' अप्रमादिनाम् , स्वयं विशुद्धलेश्यः तेषामपि - सुलेश्यानामिति ॥ १२२८ ॥ ___ गतं स्थिरीकरणद्वारम् । अथ देशद्वारम् । अत्र च विशेपचूर्णिकृता दर्शनशुद्धिद्वारमेव विवृण्वतेयं गाथा गृहीता, संवेगस्य सम्यग्दर्शनलक्षणत्वात् संवेगजनने दर्शनशुद्धिः कृता भवतीति कृत्वा; स्थिरीकरणद्वारं तु मूलत एव नोपात्तम् । द्वारगाथायामपि "दसणसोही देसप्पवेस 25 अइसेस जणवयपरिच्छा' इत्येष एव पाठो गृहीतः, अतस्तदभिप्रायेण गतं दर्शनशुद्धिद्वारम् , अथ देशप्रवेशद्वारं व्याचष्टे नाणादेसीकुसलो, नाणादेसीकयस्स सुत्तस्स । अभिलावअत्थकुसलो, होइ तओ णेण गंतव्वं ॥ १२२९ ॥ कहयति अभासियाण वि, अभासिए आवि पव्ययावेइ ।। 30 सव्वे वि तत्थ पीई, बंधंति सभासिओ णे त्ति ॥ १२३० ॥ १"संवेगं संविग्गाण गाहा । एस किर आयरियो होहिति त्ति तो देसदसणं करेइ । तं संजमजुत्तायारं तिव्वसद्धासंपन्नं पासित्ता अन्नेसि पि संविग्गाणं तिव्वतरं सद्धं जणेइ ॥ दंसणसोहि त्ति गयं । इदाथि देसपवेसि ति दारं-नाणादेसीकुसलो गाहाओ तिन्नि ।” इति विशेषचूर्णौ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ३८२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ पियधम्मध्वजभीरू, साहम्मियवच्छलो असढभावो । संविग्गावेइ परं, परदेसपवेसणे साहू ॥ १२३१ ॥ नानाप्रकारा-मगध-मालव-महाराष्ट्र-लाट-कर्णाट-द्रविड-गौड-विदर्भादिदेशभवा या देशीभाषा तस्यां कुशलः सन् 'नानादेशीकृतस्य नानादेशभाषानिबद्धस्य सूत्रस्य अभिलापे-उच्चारणे 5 अर्थकथने च कुशलो भवति, यत एवं ततोऽनेन देशदर्शनार्थ गन्तव्यम् ॥ १२२९॥ तथा नञः कुत्सार्थत्वात् कुत्सिता-अव्यक्तवर्णविभागा भाषा येपां तेऽभाषिकास्तेषामप्यसौ धर्म कथयति, निःशेषदेशभाषानिष्णातत्वात् । अभाषिकाँश्चापि तद्देशभाषया प्रतिबोध्य प्रव्राजयति । सर्वेऽपि च शिष्याः 'तत्र' आचार्ये प्रीतिं बध्नन्ति, स्वभाषिकः ‘णे' अस्माकम् अयमिति कृत्वा ॥ १२३० ॥ तथा10 'प्रियधर्मा' धर्मश्रद्धालुः, अवयं--पापकर्म तस्माद् भीरुरवद्यभीरुः, साधर्मिकाः-साधवस्तेषां वत्सलो द्रव्यतो भक्त-पानादिना भावतस्तु म्खलितादिपु सारणादिना, 'अशठभावः' मातृस्थानरहितः, एवंविधोऽसौ साधुः परदेशप्रवेशने वर्तमानः 'परम्' अन्यं संयमयोगेषु सीदन्तमपि 'संविग्नयति' सदुपदेशदानादिना संविग्नं करोतीति ॥ १२३१ ।। गतं देशद्वारं देशप्रवेशद्वारं वा । अथातिशयद्वारमाह सुत्त-ऽत्थथिरीकरणं, अइसेसाणं च होइ उवलद्धी । आयरियदंसणेणं, तम्हा सेविज आयरिए ॥ १२३२ ॥ आचार्याणां दर्शनेन सेवनेनेति यावत् सूत्रार्थस्थिरीकरणमतिशयानां च अपूर्वाणाम् 'उपलब्धिः' प्राप्तिर्भवति । यत एवं तस्मात् 'सेवेत' पर्युपासीताऽऽचार्यान् ॥ १२३२ ॥ एतदेव व्याख्यानयति उभए वि-संकियाई, पुचि जाई सि पुच्छमाणस्स । होइ जओ सुत्तत्थे, बहुस्सुए सेवमाणस्स ॥ १२३३ ।। 'उभये' सूत्रेऽर्थे च यानि पूर्वं 'से' तस्य शकितानि पदानि तानि आचार्याणां समीपे पृच्छतो निःशङ्कितानि जायन्ते । एवं च बहुश्रुतान् सेवमानस्य 'जयः' सूत्रार्थविषयोऽभ्यासातिशयो भवति, अतो बहुश्रुतपर्युपासनं विधेयम् ॥ १२३३ ॥ अपि च भवियाइरिओ देसाण दंसणं कुणइ एस इय सोउं । अन्ने वि उजमंते, विणिक्खमंते य से पासे ॥ १२३४ ॥ ___ 'भव्याचार्य एष देशानां दर्शनं करोति' इति श्रुत्वा 'अन्येऽपि' पर्युपास्यमानाचार्यसम्बन्धिनः शिप्याः 'उद्यच्छन्ते' सूत्रार्थग्रहणादौ उद्यमं कुर्वन्ति । गृहिणोऽपि च तद्गुणग्रामरञ्जितमनसः 'विनिष्कामन्ति' दीक्षां प्रतिपद्यन्ते 'से' तस्य भविष्यदाचार्यस्य पार्थे इति ॥ १२३४ ॥ अतिशयानामुपलब्धिः कथं भवति ? इत्याह सुत्तत्थे अइसेसा, सामायारी य विज जोगाई। विजा जोगा य सुए, विसंति दुविहा अओ होंति ॥ १२३५॥ इहातिशयास्त्रिविधाः, तद्यथा-सूत्रातिशयाः १ सामाचार्यतिशयाः २ विद्या-योगाः १°कारमग डे० त० ॥ २ विजा-जोगाइ सुए ता० विना ॥ 25 30 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १२३१-३९] प्रथम उद्देशः । ३८३ आदिशब्दाद् मन्त्राश्च ३ इति त्रयोऽतिशयाः । तत्र विद्या स्त्रीदेवताधिष्ठिता पूर्वसेवादिप्रक्रिया - साध्या वा, योगाः पादलेपप्रभृतयो गगनगमनादिफलाः, मन्त्राः पुरुषदेवताधिष्ठिताः पठितसिद्धा वा । यद्वा विद्या योगाः चशब्दाद् मन्त्राश्च श्रुते एव 'विशन्ति' अन्तर्भवन्ति, अतो द्विविधा अतिशया भवन्ति - सूत्रार्थातिशयाः सामाचार्यतिशयाश्चेति । एषामतिशयानामुपलब्धिरपूर्वाचार्य पर्युपासनायां भवति || १२३५ || अथ सामाचार्याी अतिशयं विभावयिपुराह--- निक्खमणे य पवेसे, आयरियाणं महाणुभावाणं । सामाया कुसलो, अ होइ गणसंपवेसेणं ।। १२३६ ॥ स देशदर्शनं कुर्वाणस्तेषु तेषु नगरादिषु बहुश्रुतानामाचार्याणां महानुभावानां सम्बन्धी यो गणः–गच्छस्तन्मध्ये यः सम्यग् - एकीभावेन एकत्रावस्थानलक्षणेन प्रवेशस्तेन बहुशो गणान्तरेषु निष्क्रमणे प्रवेशे च सामाचारीकुशलो भवति ।। १२३६ ॥ कथम् ? इत्याहआगंतुसाहुभावम्मि अविदिए धन्नसालमाइठिया । उप्पत्तियाउ थेरा, सामायारीउ ठाविंति ।। १२३७ ॥ आगन्तुकाः- प्राघुणका उपसम्पन्ना वा तेषां साधूनां भावे 'अविदिते' 'कीदृशेनाभिप्रायेणाssगताः ? के वाऽमी ?' इत्यपरिज्ञाते केचित् 'स्थविरा:' आचार्याी धान्यशालायाम् आदिशब्दाद् घृतशालादिषु च स्थिताः ‘'औत्पत्तिकी:' अनुत्पन्नपूर्वाः सामाचारी ः स्थापयन्ति ॥ १२३७ || 15 कथम् ? इत्याह --- 5 10 सव्वे वि पडिग्गहए, दंसेउं नीह पिंडवायट्ठा । अहिमरमायासंका, पडिलेहेउं व पविसंति ।। १२३८ ।। ते आचार्याः ‘पिण्डपातार्थं' भिक्षानिमित्तं साधून् निर्गच्छतो भणन्ति - आर्याः ! सर्वेऽपि प्रतिग्रहान् दर्शयित्वा निर्गच्छत, अदर्शितप्रतिग्रहैर्न गन्तव्यम् । कुत इत्थं कुर्वन्ति : इत्याह - 20 ‘अभिमराद्याशङ्कया' मा कश्चिदभिमर उदायिनृपमारकवत् श्रमणवेषेणाऽऽगतो भवेत्, आदिग्रहणेन चौरो वा मा धान्यादिमोषणायाऽऽगतो भवेदित्याद्याशङ्कयाऽपूर्वी सामाचारीं स्थापयन्ति । भिक्षाप्रतिनिवृत्ता अपि च गुरूणां पुरतः सर्वं प्रत्युपेक्ष्य ततः प्रविशन्ति, तैरेवाभिमरादिभिः कारणैरिति ॥ १२३८ ॥ गतमतिशयद्वारम् । अथ जनपदपरीक्षाद्वारमाह १ एतेषा त० डे० मो० ० ॥ २ भागाणं ता० ॥ ३ 'वानां ये गणाः गच्छास्त भा० ॥ ४ “उत्तरापधे अरघहिं” इति चूर्णो ॥ ५ एतचिह्नमध्यगतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव दृश्यते ॥ अब्भे नदी तलाए, कुबे अइपूरए य नाव वणी । मंस-फल- पुप्फभोगी, वित्थिने खेत कप्प विही ॥। १२३९ ।। स देशदर्शनं कुर्वन् जनपदानां परीक्षां करोति — कस्मिन् देशे कथं धान्यनिप्पत्तिः ? । तत्र क्वचिद् देशेऽभ्रैः सस्यं निप्पद्यते वृष्टिपानीयैरित्यर्थः, यथा लाटविषये । क्वापि नदीपानीयैः, यथा सिन्धुदेशे । क्वचित्तु तडागजलैः, यथा द्रविडविषये । क्वापि कूपपानीयैः, यथा उत्तरापथे । कचिदतिपूरकेण, यथा बन्नासायां पूरादवरिच्यमानायां तत्पूरपानीयभावितायां क्षेत्रभूमौ 30 धान्यानि प्रकीर्यन्ते; √ यैथा वा डिम्भरेल के महिरावणपूरेण धान्यानि वपन्ति । "नाव" 25 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ इति यत्र नावमारोप्य धान्यमानीतमुपभुज्यते, यथा काननद्वीपे । "वणि" ति यत्र वाणिज्येनैव वृत्तिरुपजायते न कर्षणेन, यथा मथुरायाम् । “मंस" त्ति यत्र दुर्भिक्षे समापतिते मांसेन कालोऽतिवाह्यते । तथा यत्र पुष्प-फलभोगी प्राचुर्येण लोकः, यथा कोङ्कणादिषु । तथा कानि विस्तीर्णानि क्षेत्राणि ? कानि वा सङ्क्षिप्तानि ? । "कप्पे" त्ति कस्मिन् क्षेत्रे कः कल्पः ?, यथा सिन्धुविषयेऽनिमिषाद्याहारोऽगर्हितः । “विहि" त्ति कस्मिन् देशे कीदृशः समाचारः ? यथा सिन्धुषु रजकाः सम्भोज्याः, महाराष्ट्रविषये कल्पपाला अपि सम्भोज्या इति ॥ १२३९ ॥ अपि च सज्झाय-संजमहिए, दाणाइसमाउले सुलभवित्ती। कालुभयहिए खेत्ते, जाणइ पडणीयरहिए य ॥ १२४०॥ 10 स्वाध्यायहितं यत्राखण्डे सूत्राऽर्थपौरुप्यौ भवतः । संयमहितं-स्त्रीदोषरहितमल्पबीज-हरितादि वा । "दाणाइ" ति दानश्राद्धैः आदिग्रहणादभिगमश्राद्धैर्वा समाकुलम् । अत एव सुलभा-सुप्रापा वृत्तिः-प्राणवर्तनहेतुराहारसम्पत्तिर्यत्र तत् सुलभवृत्तिकम् , तथा किमिदमागन्तुकभद्रकम् ? उत वास्तव्यभद्रकम् ? इत्याद्युपलक्षणाद् द्रष्टव्यम् । “कालुभयहिए खेते" त्ति अमूनि वर्षावासप्रायोग्याणि अमूनि ऋतुबद्धकालयोग्यानीत्युभयकालहितानि क्षेत्राणि जानाति । तथा प्रत्यनीकः15 साध्वादीनामुपद्रवकारी तद्रहितानि च क्षेत्राणि सम्यग् जानातीति ॥ १२४० ॥ गतं जनपदपरीक्षाद्वारम् । यस्मादेते गुणास्तस्मादवश्यं देशदर्शनं कर्त्तव्यम् । गतं “पबज्जा सिक्खावय" (गा० ११३२ ) इत्यादिमूलद्वारगाथाप्रतिबद्धमनियतवासद्वारम् । अथ निप्पत्तिद्वारम् । तच्चानन्तरोक्तेऽनियतवासद्वारे वक्ष्यमाणे विहारद्वारे च सम्भवति । तत्रानियतवासद्वारे तावद् दर्यते-इत्थं तेन देशदर्शनं कुर्वता शिप्याः प्रतीच्छकाश्च सामाचार्यां सूत्राऽर्थग्राहणायां 20 च निष्पादयितव्या इत्यत्रान्तरे यदुक्तं प्रतिद्वारगाथायां "काउ सुयं दायत्वं, अविणीयाणं विवेगो य।" (गा० १२२६) तदिदानीमभिधित्सुरगाथामाह--- __उवसंपज थिरतं, पडिच्छणा वायणोल्लछगणे य । निष्पत्तिद्वारम् घट्टण-रुंचण-पत्ते, दुहासें तहिं गए राया ॥ १२४१॥ प्रथमं प्रतीच्छका यथा तमुपसम्पद्यन्ते तथा वक्तव्यम् । तत आत्मनः प्रतीच्छकानां च यथा 26 स्थिरत्वं तुलनया करोति । ततस्तेषां प्रतीच्छना वाचना च यथा भवति । ततः प्रमाद्यतां आईच्छगणदृष्टान्तो घट्टना रुञ्चना पत्रदृष्टान्ताश्च यथाऽभिधीयन्ते । दुष्टाश्वविषयं दृष्टान्तं यथा साधव आचार्यानुद्दिश्य दर्शयन्ति । "तहिं गए" त्ति यत्राऽऽचार्यास्तिष्ठन्ति तत्र गतानां यथा राजदृष्टान्तः सूरिभिरुदाहियते । तदेतत् सर्वं वक्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः ॥ १२४१॥ . १ "मंस त्ति जत्थ मंसेण दुभिक्खे लंघिज्जति कालो, जधा सिंधूए सुभिक्खे वि । पुप्फ त्ति जधा पुप्फविक्कएणं वित्ती भवति, एवं फलविक्कएण वि; अधवा पुप्फफलभोयणं जत्थ, जधा तोसलि-कोङ्कणेसु" इति चूर्णौ ॥ २ “विहि त्ति कम्मि देसे केरिसो आयारो ? जधा सिंधूए णिल्लेवगा संभोइया” इति चूर्णौ । “विहि त्ति जम्मि देसे जो जारिलो आयारो, जधा सिंधुविसए वियडभायणेसु पाणयं अगरहितं भवति, कच्छविसए गिहत्यसंसट्टे वि उवस्मए वसंताणं नत्थि दोसो” इति विशेपचूर्णौ ॥ ३ °ला असम्भो° भा० मो० ले० ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १२४०-४५ ] प्रथम उद्देशः । अथ विस्तरार्थं विभणिषुः प्रथमद्वारमधिकृत्याह - काहिइ अव्वोच्छित्तिं, सुत्त -त्थाणं ति 'सो तदट्ठाए । अभिगम्मइ पेगेहिं, पडिच्छएहिं विहरमाणो ॥। १२४२ ॥ एष महाभागः सूत्रार्थयोरव्यवच्छित्तिं करिष्यतीति बुद्ध्या 'सः' भव्याचार्यः 'तदर्थं ' सूत्रार्थ - ग्रहणनिमित्तमभिगम्यतेऽनेकैः प्रतीच्छकैः 'विहरमाण:' देशदर्शनं कुर्वन्निति ॥ १२४२ ॥ 5 आह किमसौ डिण्डिमाडम्बरेण घोषयति यथा 'अहं बहुश्रुतोऽहं बहुश्रुतः' इति यदेव - मनेकैः प्रतीच्छकैरभिगम्यते ?, नैवम्, न खलु सद्विवेकसुधाधाराधौतचेतसः सन्तः सन्तः कदाचनापि स्वगुणविकत्थने प्रवृत्तिमातन्वते, मिथ्याभिमानाख्यप्रबलतमतमस्तिरस्कृतसज्ज्ञानलोचनप्रसराणामितरजन्तूनामेव तत्र प्रवृत्तिसम्भवात् । उक्तञ्च मोहस्य तदपि विलसितमभिमानो यः परप्रणीतायाः । तत् तमसोऽपि तमिस्रं, याऽऽत्मस्तुतिरात्मना क्रियते ॥ यद्येवं ततः कथमिवासावेवमेव प्रसिद्धिमारोहति ? इति उच्यतेवासावजविहारी, जड़ वि य न विकंथए गुणे नियए । अभणतो वि मुणिज, पगइ च्चिय सा गुणगणाणं ।। १२४३ ॥ वर्षावर्जविहारी, वर्षासु चतुरो मासानेकत्रस्थायी अन्यदा पुनरनियतविहारीत्युक्तं भवति । स 15 एवंविधो यद्यपि न विकत्थते 'निजकान्' आत्मीयान् गुणान् तथापि 'अभणन्नपि' खगुणान् अकीर्त्तयन्नपि ज्ञायते । कुतः ? इत्याह- प्रकृतिरेव सा 'गुणगणानां' ज्ञानादिगुणसमूहानाम् । तदुक्तम् - ३८५ अभणता विहु नजंति सुपुरिसा गुणगणेहिं नियएहिं । किं बोलंत मणीओ, जाओ लक्खेहिं धिप्पंति ? ॥ एतदेवान्योक्तिदृष्टान्तेन द्रढयति उपसम्पत् 10 ॥ १२४३ ॥ २७ भमरेहिं महुयरीहिं य, सहज अप्पणो य गंधेणं । पाउस कालकलंबो, जइ वि निगूढो वणनिगुंजे ॥। १२४४ ॥ इह किल कदम्बकवृक्षाः प्रावृषि जलधरधाराभिहताः पुष्पन्ति । ततः प्रावृट्काले यः कदम्बः स यद्यपि वननिकुञ्जे ‘निगूढ : ' गुप्तस्तिष्ठति तथापि भ्रमरैर्मधुकरीभिश्चात्मनः सम्बन्धिना गन्धेन 25 'च प्रसरता 'सूच्यते' ज्ञाप्यते यथा 'अत्र कदम्बवृक्षस्तिष्ठति' । एवमयमपि भ्रमर - मधुकरीकल्पाभिः साधु-साध्वीभिः परिमलकल्पेन च निजगुणनिकुरम्बेन प्रसर्पता कदम्बवद् उद्यानादावत्यन्तनिगूढोऽपि तिष्ठन् सूच्यते ॥ १२४४ ॥ यदि वा 30 कत्थ व न जलइ अग्गी, कत्थ व चंदो न पायडो होइ । कत्थ वरलक्खणधरा, न पायडा होंति सप्पुरिसा ।। १२४५ ।। कुत्र वा 'न ज्वलति' न दीप्यतेऽग्निः ? कुत्र वा चन्द्र उदयप्राप्तः प्रकटो न भवति ? कुत्र वा वराणि- उत्तमानि लक्षणानि - अभ्यन्तरतो ज्ञानादीनि बाह्यतः शरीरसौन्दर्यादीनि शङ्ख-चक्रादीनि १ सो य उट्ठाए ? ता० ॥ भविष्यदाचार्यस्य प्रसिद्धिः Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसम्पदः प्रकाराः 10 ३८६ सनियुक्ति-लघुभान्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे वा धारयन्तीति वरलक्षणधराः सत्पुरुषाः प्रकटा न भवन्ति ? || १२४५ ॥ अत्र परोऽनुपपत्तिमुद्भावयन्नाह उदए न जल अग्गी, अन्भच्छन्नो न दीसई चंद्रो । मुक्खे महाभागा, विजापुरमा न भायंति ।। १२४६ ॥ 5 उदके न ज्वलत्यग्निः किन्तु विध्यायति, अभ्रच्छन्नश्चन्द्रो न दृश्यते, 'मूर्खेषु' मूर्खाणां पुरतो महाभागा विद्याप्रधानाः पुरुषा विद्यापुरुषास्तेऽपि 'न भान्ति' न शोभन्ते; ततः “कत्थ व न जलइ अग्गी” (गा० १२४५ ) इत्यादि नोपपद्यते, तदयुक्तम्, अभिप्रायापरिज्ञानात्, इह हि स्वविषय एवाग्नि-चन्द्र-सत्पुरुषाणां ज्वलनादि सामर्थ्यं चिन्त्यते न त्वविषये ।। १२४६ ॥ कः पुनरमीषां स्वविषयः ? इत्याह सुकिंधणम्मि दिप्पड़, अग्गी मेहरहिओ ससी भाइ । व्हिजणेय निउणे, विजापुरिमा वि भायंति ।। १२४७ ।। 'शुन्धने' शुष्ककाष्ठा दीप्यतेऽग्निः, 'मेघरहितः ' शरदादिकालेऽभैरच्छन्नः शशी 'भाति' प्रकाशते, 'तद्विधजने च ' तादृशे सहृदयलोके 'निपुणे' व्याकरण- प्रमाणादिशास्त्रकुशले विद्यापुरुषा अपि 'भान्ति' शोभां लभन्ते । एष त्रयाणामप्यमीषां स्वविषयः, अत्र च सर्वत्राप्यमी 15 दीप्यन्ते, अतो न किञ्चिदनुपपन्नम् ॥ १२४७ ॥ अत्रैवापरं दृष्टान्तमाहकुमुओयररसमुद्धा, किं न विवोहिंति पुंडरीयाई । सूरकिरणा सस्सिव, कुमुयाणि अपंकयरसन्ना ।। १२४८ ॥ न य अपगासगत्तं, चंदा -ऽऽइच्चाण सविसए होइ । इय दिप्पंति गुणड्डा, मुक्खेसु हसिजमाणा वि ।। १२४९ ॥ कुमुदानामुदराणि कुमुदोदराणि तेषु रसः - मकरन्दः तस्मिन् मुग्धाः - अनभिज्ञाः, तदानीं तेषामप्रबुद्धत्वाद् ईदृशोऽमीषां मकरन्द इति न विदन्तीत्यर्थः ; एवंविधाः सूर्यकिरणा यद्यविषयत्वात् कुमुदानि न विबोधयन्ति ततः किं स्वविषयभूतानि पुण्डरीकाणि न विबोधयन्ति ? बोधयन्त्येव । शशिनो वा किरणा यदि 'अपङ्कजरसज्ञाः पङ्कजरसाखादमुग्धास्ततः किं स्वविषयभूतानि कुमुदानि नबोधयन्ति ? । ततश्च 'न च' 'नैवाऽप्रकाशकत्वं चन्द्रा - ऽऽदित्ययोः स्वविषये भवति किन्तु 25 प्रकाशकत्वमेव, 'इति' अमुनैव प्रकारेण गुणैः- ज्ञानादिभिराढ्याः - समृद्धाः 'मूर्खेषु' पशुप्रायेषु हस्यमाना अपि 'दीप्यन्ते' सहृदयहृदयेषु प्रकाशन्ते ।। १२४८ ।। १२४९ ॥ उक्तमानुषङ्गिकम् । प्रकृतमनुसन्धीयते 20 [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ सो चरणसुट्ठियप्पा, नाणपरो सहओ अ साहूहिं । उवसंपया य तेसिं, पडिच्छणा चेव साहूणं ॥ १२५० ।। 30 'सः' इति भविष्यदाचार्यः चरणसुस्थितात्मा तथा 'ज्ञानपर : ' सूत्रा - ऽर्धपौरुपीकरणं प्रति उद्युक्तः परां निष्ठां प्राप्तो वा, दर्शनाविनाभावित्वाद् ज्ञानस्य दर्शनपर इत्यपि द्रष्टव्यम्, सच साधुभिः स्वपरिवारवर्त्तिभिरपरेषां साधूनां पुरतः 'सूचितः ' श्लाघितः ततस्तेषां साधूनां तस्यान्तिके १ ततः 'किम्' इति काक्वा प्रश्ने, किं स्व° भा० ॥ २ 'मूर्खे:' पशुप्रायैः हस्य भा० ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथाः १२४६-५३] प्रथम उद्देशः । ३८७ उपसम्पद् भवति, तेन च तेषां यथाविधि प्रतीच्छना कर्त्तव्या इति । एष एक उपसम्पदः प्रकार उक्तः ॥ १२५० ॥ अथ द्वितीयं प्रकारमाह हाणाइ समोसरणे, परियतिं सुणित्तु सो साहुं । अत्ति पडिचोयण, उवसंपय दीवणा अत्थे ।। १२५१ ।। 1 स्नानादौ आदिशब्दाद् रथयात्रादो 'समवसरणे' साधुमीलके “अड्डे लोए" इति व्यञ्जन-5 ददूषितं सूत्रं परिवर्त्तयन्तं साधुं कमपि श्रुत्वा स प्रतिनोदनां करोति - " अट्टे लोए" ( आचारांग श्रु० १ ० १ उ० २ ) इति पठ । स प्राह- - किम् ? इति । गीतार्थो ब्रूते - " अट्टे" इति अर्थो न मिलति । इतरः प्राह – किम् अस्यार्थोऽप्यस्ति ? । [ गीतार्थः प्राह - ] बाढम् नमस्कारमादिं कृत्वा सर्वस्यापि श्रुतस्यार्थो विद्यते । स आह— यद्येवं तर्हि "अट्टि" त्ति पदस्य कोऽर्थः ? उच्यते – 'आर्त्तश्चतुर्द्धा नाम-स्थापना- द्रव्य भावभेदात्, नाम-स्थापने सुगमे, द्रव्यतः 10 सचित्तादिद्रव्यैरप्राप्तैः प्राप्तवियुक्तैर्वा य आतः स द्रव्यातः, कोधादिभिरभिभूतो भावार्त्तः, एवं प्रकारद्वयेनायं लोक आर्त्तो वर्त्तते ।' इत्याकर्ण्य प्रमुदितः स साधुश्चिन्तयति - 'अहो ! अस्य सूत्रलवस्यापीदृग् हृदयङ्गमोऽर्थस्ततो यदि सर्वस्याधीतस्यार्थमवबुध्ये ततः सुन्दरं भवति' इत्यभिसन्धायाऽर्धग्रहणार्थं तस्यैव पार्श्वे उपसम्पदं प्रतिपद्यते । ततोऽसौ विधिना तस्यार्थे दीपनं करोति, अर्थं कथयतीत्यर्थः । एष द्वितीयः प्रकारः || १२५१ ।। अथ तृतीयमपि प्रकारमाहहवा वि गुरुसमीवं, उवागए देसदंसणम्मि कए । उवसंपय साहूणं, होइ कयम्मी दिसाबंधे ।। १२५२ ।। अथवा देशदर्शने कृते सति यदाऽसौ गुरूणां समीपमुपागतो भवति तदा गुरुभिराचार्यपदे प्रतिष्ठाप्य दिग्बन्धे 'कृते' अनुज्ञाते सति विहारं कुर्वतोऽस्य पार्श्वे प्रतीच्छकसाधूनामुपसम्पद् भवतीति ॥१२५२॥ व्याख्यातं त्रिभिः प्रकारैरुपसम्पद्वारम् । अथ स्थिरत्वद्वारमभिधातुकाम आहआयपरोभयतुलणा, चउन्विहा सुत्तसारणित्तरिया । 15 20 तिuesडा संविग्गे, इयरे चरणेहरा नेच्छे ।। १२५३ ॥ तत्रासावात्मपरोभयविषयां तुलनां करोति । सा च प्रत्येकं चतुर्विधा वक्तव्या । तथा ये केचित् तद्गुणावर्जिता अगारिणः प्रव्रजन्ति तेषामुपसम्पन्नानां चासौ सूत्रसारणां करोति, सूत्रं पाठयतीत्यर्थः; उपलक्षणं चैतत्, तेनाऽऽसेवनाशिक्षामपि ग्राहयति । तथा तेषामुभयेषामप्यसौ 25 इत्वरां दिशं बध्नाति, यथा-‍ - यावदाचार्याणां सकाशं व्रजामस्तावदहमेवाचार्योऽहमेवोपाध्यायः, तत्रगतानामाचार्या ज्ञायका इति । "तिण्हट्टा संविग्गि” त्ति ये संविग्नाः साधवस्ते ' त्रयाणां ' ज्ञानदर्शनचारित्राणामर्थाय उपसम्पद्यमानाः प्रत्येष्टव्याः । " इयरे चरणि" त्ति इतरे' पार्श्वस्थादयो यदि चरणार्थमुपसम्पद्यन्ते ततस्तेऽपि सङ्ग्राह्याः, “इहरा नेच्छे" त्ति इतरथा ज्ञान- दर्शननिमित्तम्, सूत्रार्थग्रहण-दर्शनप्रभावकशास्त्राध्ययनार्थमिति भावः, यद्युपसम्पद्यन्ते ततः 'नेच्छेत्' नोपसम्पदं 30 माहयेदित्यर्थः ॥ १२५३ ॥ अथ यदुक्तम् “आत्मपरोभयतुलना चतुर्विधा " इति तत्रात्मतुलनां तावद् भावयति - १ 'स्यार्थदी' त० डे० कां० ॥ २ पुणरवि गुरुस्समीवं ता० । चूर्णिकृताऽयमेव पाठ आदृतः ॥ उपसम्पनानां स्थिरत्वम् Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ आहाराई दवे, उप्पाएउं सयं जइ समत्थो । उपसम्पनानां ख खेत्तओं विहारजोग्गा, खेत्ता विहतारणाईया ॥ १२५४ ॥ परसाम कालम्मि ओममाई, भावे अतरंतमाइपाउग्गं । र्थ्यावेदनम् कोहाइनिग्गहं वा, जं कारण सारणा वा वि ॥ १२५५ ॥ 5 इहाऽऽत्मतुलना चतुर्विधा- (ग्रन्थानम्-५५००) द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । तत्र द्रव्यत एषामुपसम्पन्नानां यद्येषणीयान्याहारादीनि खयमुत्पादयितुं समर्थः, आदिग्रहणाद् उपधिशय्यापरिग्रहः । क्षेत्रत ऋतुबद्धविहारयोग्यानि वर्षावासयोग्यानि वा क्षेत्राण्युत्पादयितुं शक्नोमि न वा, "विहं" इत्यध्वा तस्मात् तारणं-पारनयनम् , आदिशब्दाद् राजद्विष्टादितारणानि कर्तु महं समर्थो न वेति ॥ १२५४ ॥ 10 काले अवमं-दुर्भिक्षं तत्र आदिग्रहणाद् अशिव-भयादौ निर्वाहयितुं शक्तोऽस्मि न वेति । भावे "अतरंत" त्ति ग्लानीभूतानाम् आदिशब्दाद् बाल-वृद्धादीनां वा एषां प्रायोग्यमुत्पादयितुं समर्थोऽहं न वेति, अथवा शक्नोमि क्रोधनिग्रहं कर्तुं न वेति आदिग्रहणाद् मान-माया-लोभनिग्रहपरिग्रहः, यद्वा यत् 'कारणं' ज्ञानादिकं निमित्तमुद्दिश्यैते उपसम्पद्यन्ते तस्याहं सारणां कर्तुमीशो न वेति ।। १२५५ ॥ 15 गतमात्मतुलनाद्वारम् । अथ परतुलनाद्वारमाह-- आहाराइ अनियओ, लंभो सो विरसमाइ निजूढो । उन्भामग खुलखेत्ता, अरिउहियाओ अ वसहीओ ॥ १२५६ ॥ ऊणाइरित्त वासो, अकाल भिक्ख पुरिमड्ड ओमाई । भावे कसायनिग्गह, चोयण न य पोरुसी नियया ॥ १२५७ ॥ 20 ते प्रतीच्छकाः प्रथममेवोच्यन्ते-द्रव्यत आहारादीनां लाभः 'अनियतः' कदाचिद् भवति कदाचिन्नेति, योऽपि भवति सोऽपि विरसः-पुराणौदनादिः, आदिशब्दाद् अरसस्य हिग्वाद्यसंस्कृतस्य रूक्षस्य च वल्ल-चणकादेर्ग्रहणम् , सोऽपि 'नियूंढः' उज्झितप्रायः । क्षेत्रत उद्भामकभिक्षाचर्यया गन्तव्यम् , बहिामेषु भिक्षार्थं यत् पर्यटनं सा उद्धामकभिक्षाचर्या; तथा 'खुल क्षेत्राणि' नाम यत्राल्पो लोको भिक्षाप्रदाता, सोऽपि च स्तोकमेव ददाति तत्र विहर्त्तव्यम् ; अऋ25 तुहिताश्च प्रायो वसतयः प्राप्यन्ते, यो यदा ऋतुर्वर्तते तस्य तदाऽननुकूला इत्यर्थः ॥ १२५६ ॥ कालतः कदाचिद मासकल्पस्थाने वर्षावासस्थाने वा ऊनमतिरिक्तं वा कालं कारणे वासःअवस्थानं भवेत् , कापि क्षेत्रे 'अकाले' सूत्रपौरुप्या अर्थपौरुप्या वा वेलायां भिक्षा प्राप्येत, ततः सूत्रार्थहानिरपि भाविनी, कुत्रापि पूर्वार्द्धऽपि पूर्णे अवमं-खोदरपूरकाहारमात्राया न्यून लभ्येत, आदिग्रहणात् पानमपि सम्पद्येत । 'भावे' भावतः कषायनिग्रहः खरपरुपनोदनायामपि 30 कर्तव्यः । न च 'नियता' अवश्यम्भाविनी सूत्रार्थयोः पौरुपी, कदाचिदस्माकं धर्मकथादिव्य ग्रतया सूत्रार्थयोाघातोऽपि भवतां भवेदित्यर्थः । तदेतत् सर्वमपि यद्यङ्गीकर्त्तमुत्सहथ ततः प्रतिपद्यध्वमुपसम्पदमिति ॥ १२५७ ॥ १°चर्यायां गन्त° भा० विना ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ भाष्यगाथाः १२५४-६१] प्रथम उद्देशः । अत्तणि य परे चेवं, तुलणा उभय थिरकारणे वुत्ता। पडिवजंते' सव्, करिंति सुहाए दिद्वंतं ॥ १२५८ ॥ आत्मविषया परविपया च तुलना उभयोरपि 'स्थिरताकारणे' स्थिरीकरणार्थमेवमुक्ता । गतं स्थिरत्वद्वारम् , अथ प्रतीच्छनाद्वारमाह-'पडिवजंते" इत्याद्युत्तरार्द्धम् । 'सर्वम्' अनन्तरोक्तमर्थ यदि प्रतीच्छकाः प्रतिपद्यन्ते तदा 'सुषया' वध्या दृष्टान्तमाचार्याः कुर्वन्ति ॥१२५८॥ तमेवाह आस-रहाई ओलोयणाइ भीया-ऽऽउले अ पेहंती । सकुलघरपरिचएणं, वारिजइ समुरमाईहिं ॥ १२५९ ॥ खिसिजइ हम्मइ वा, नीणिजइ वा घरा अठाइती । नीया पुण से दोसे, छायंति न निच्छुभंते य ॥ १२६० ॥ 10 यथा काचिद् वधूः खकुलगृहस्य-खकीयपितृगृहस्य सम्बन्धी यः परिचयः-रमणीयवस्तुदर्शनहेवाकस्तेन अश्व-रथान् आदिग्रहणेन हम्त्यादीन् , अवलोकनं-गवाक्षस्तेन आदिशब्दाद् अपरेण वा जालकादिना भीतान् आकुलाँश्च जनान् प्रेक्षमाणा सती 'वार्यते' 'पुत्रि ! माऽवलोकिष्ठाः' इति प्रतिनिषिध्यते श्वसुरादिभिः, मा भूद् अस्याः प्रसङ्गतः परपुरुषविषयोऽप्यवलोकनहेवाक इति ॥ १२५९ ॥ 15 __ यदि वारिता सती नोपरमते ततः "खिसिज्जइ" ति निन्द्यते 'आः कुलपांसने ! किमेवं करोषि ?' इत्यादि । तथापि यदि न निवर्तते ततः 'हन्यते' कशादिभिस्ताड्यते । एवमपि यदि न तिष्ठति ततोऽतिष्ठन्ती गृहान्निष्काश्यते, मा भूदपरासामपि गृहमहेलानामस्याः प्रसङ्गजनित एवंविध एव कुहेवाक इति कृत्वा । ये तु तस्याः 'निजकाः' पितृगृहसम्बद्धाः खजनास्ते 'से' तस्या दोषाँ छादयन्ति, कथञ्चिदुपालम्भप्रदानादिनाऽनाच्छादयन्तोऽपि न गृहाद् निष्काशयन्ति, 20 गौरवार्हत्वात् तत्र तस्याः ॥ १२६० ॥ एप स्नुषादृष्टान्तः । अथार्थोपनयमाह __मरिसिजइ अप्पो वा, सगणे दंडो न यावि निच्छुभणं । अम्हे पुण न सहामो, ससुरकुलं चेव सुण्हाए ॥ १२६१ ॥ ते आचार्या भणन्ति-आयर्याः ! पितृगृहस्थानीयो युप्माकं खगच्छः, श्वसुरकुलस्थानीया वयम् , अश्व-रथाद्यवलोकनस्थानीयं प्रमादासेवनम् , गवाक्षादिस्थानीयान्यपुष्टालम्बनानि; ततो युप्माकं 25 'खगणे' वगच्छे प्रमादासेवनं कृतमपि 'मृप्यते' क्षम्यते, अल्यो वा 'दण्डः' प्रायश्चित्तलक्षणः प्रमादप्रत्ययो भवतां तत्र दीयते, न च महत्यप्यपराधे गच्छान्निप्कासनं गौरवार्हतया भवतां भवति वयं पुनः स्वल्पमप्यपराधं भवतां न सहामः श्वसुरकुलमिव 'सुषायाः' वध्वाः सम्बन्धिनमपराधम् इत्युक्ते यदि ते प्रतीच्छका भणेयुः---'एवमेतद् यदादिशन्ति भगवन्तः' ततस्ते प्रतीच्छयन्ते । एते च द्विधा-पार्श्वस्थादयो वा भवेयुः संविमा वा । तत्र ये पार्श्वस्थादयस्ते पार्श्वस्थादिमुण्डिता 30 वा संविनमुण्डिता वा । येऽपि संविनास्तेऽपि समनोज्ञा वा अमनोज्ञा वा ॥ १२६१ ॥ १ ते चेवं क° ता. विना ॥ २ पञ्चएणं ता० ॥ ३ मा विलो मो० ले. कां० ॥ ४ वाऽपि समनोभा. विना ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानामा. 10 ३९० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके दृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ सर्वेषामप्येषां विधिमाहउपसम्प पासत्थाईमुंडिएँ, आलोयण होइ दिक्खपभिईओ। लोचना संविग्गपुराणे पुण, जप्पभिई चेव ओसन्नो ॥ १२६२॥ खसामा समणुन्नमसमणुन्ने, जप्पभिई चेव निग्गओ गच्छा। चारीकथनं च सोहिं पडिच्छिऊणं, सामायारिं पयंसंति ॥ १२६३ ॥ यः पार्श्वस्थादिः पार्श्वस्थादिभिरेव मुण्डितस्तस्य 'दीक्षाप्रभृति' दीक्षादिनादारभ्य आलोचना भवति । यस्तु संविनमुण्डितत्वात् पूर्वं संविग्नः पश्चाद् अवसन्नीभूतः स पुराणसंविग्न उच्यते, गाथायां प्राकृतत्वाद् व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः, सः 'यत्प्रभृति' यद्दिनादारभ्याऽवसन्नः सञ्जातस्तत्प्रभृत्येवालोचनां दाप्यते ॥ १२६२॥ 10 यन्तु संविग्नः स द्विधा--'समनोज्ञः' साम्भोगिकः 'असमनोज्ञः' असाम्भोगिकः । स द्विविधोऽपि यत्प्रभृति खगच्छान्निर्गतस्तत एव दिनादारभ्यालोचनां दापयितव्यः । ततः 'शोधिम्' आलोचनां प्रतीच्छय यो यत् तपः छेदं मूलं वा प्रायश्चित्तमापन्नस्तस्य तद् दत्त्वा खकीयां सामाचारीमाचार्याः प्रदर्शयन्ति ॥ १२६३ ॥ किं कारणम् ? इति चेदित्याह अवि गीय-सुयहराणं, चोइजंताण मा हु अचियत्तं । मेरासु य पत्तेयं, माऽसंखड पुवकरणेणं ॥ १२६४॥ __ ये गीतार्थाः श्रुतधराः, बहुश्रुता गणि-वाचकादिशब्दाभिधेया इत्यर्थः, तेषामपि, किं पुनरितरेषाम् ? इत्यपिशब्दार्थः, वितथसामाचारीकरणे नोद्यमानानां 'मैवं सामाचारीमन्यथाकारं कार्षीः' इत्यादिवचनैर्मा भृद् “अचियत्तं' अप्रीतिकम् , यतोऽन्योऽन्यं गच्छानां काश्चिदनीदृश्यः सामा चार्यस्ततः 'प्रत्येकं' पृथक् पृथग् 'मर्यादासु' सामाचारीषु वर्तमानासु प्रवाहतः पूर्वाभ्यस्ताया एवं 20 सामाचार्याः करणेन प्रतिनोदितानां मा 'असंखडं' कलहो भवेदित्यात्मीया चक्रवालसामाचारी कथयितव्या ॥ १२६४ ॥ आह कथं पुनरभिधीयमानेऽप्रीतिकं भवेद् ? उच्यते-- गच्छइ वियारभूमाइ वायओ देह कप्पियारं से । तम्हा उ चक्कवालं, कहिंति अणहिंडिय निसिं वा ॥ १२६५ ॥ अयं वाचको विचारभूभ्याम् आदिशब्दाद भक्त-पानग्रहणादी गच्छति अतो ददत 'कल्पितारं' 25 कमपि कल्पिकं साधु 'से' तस्य वाचकस्य येन स सामाचारी दर्शयति । तत एवमभिधीयमाने तस्य वाचकस्य महदप्रीतिकं भवति, यथा-अहो ! स्वगणं विमुच्य परगणमुपसम्पन्ना वयमप्येवं परिभूयामहे इति । यत एवं तस्मात् चक्रवालसामाचारी-प्रतिदिनक्रियाकलापरूपां तेषां पुरत आचार्याः कथयन्ति यथा ते कल्पिका भवन्ति । यावच्च सा तेषां प्ररूप्यते तावत् “अहिंडय" ति ते मिक्षार्थं न हिण्डाप्यन्ते, मा भूत् तेषां सामाचारीशिक्षणव्याघातः । अथ न संस्तरति ततः 30 'निशि' रात्री ते सामाचारी ग्राहयितव्या इति ।। १२६५ ॥ गतं प्रतीच्छनाद्वारम् । अथ वाचनाद्वारम् । तेषां गृहीतसामाचारीकाणां सूत्रार्थवाचना दातव्या । वाच्यमानानां च तेषां सामाचारीकरणे प्रमाद्यतां यो विधिस्तमभिधित्सुर श्लोकमाह १ पूर्वपर° त० दे० ॥ २ पुचपत्तेणं ता० ॥ ३ रणेनोद्यच्छमाना त० डे० ।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १२६२-६९] प्रथम उद्देशः । ३९१ उवएसो सारणा चेव, नइया पडिसारणा । ___ छंदे अवट्टमाणं, अप्पछंदेण वजेज्जा ॥ १२६६ ॥ उपदेशः स्मारणा चैव तृतीया प्रतिस्मारणा, ततः 'छन्दे' उपदेशेऽवर्तमानं विनेयं गुरुरपि 'आत्मच्छन्देन' आत्माभिप्रायेण 'वर्जयेत्' परित्यजेदिति नियुक्तिश्लोकसमासार्थः ॥ १२६६॥ अथ विस्तरार्थः, तत्र गुरुभिस्तान् प्रति वक्तव्यम् --अस्माकमेषा सामाचारी यद् निद्रा-5 विकथादयः प्रमादाः परिहर्त्तव्याः, एष उपदेशः । अथ स्मारणामाह निदापमायमाइसु, सई तु खलियस्स सारणा होइ । नणु कहिय ते पमाया, मा सीयसु तेसु जाणतो ॥१२६७॥ निद्रव प्रमादो निद्राप्रमादः, आदिशब्दाद् अप्रत्युपेक्षित-दुष्प्रत्युपेक्षितादिपरिग्रहः, तेषु 'सकृद' एकवारं स्खलितस्य स्मारणा कर्तव्या भवति । यथा-भो महाभाग ! नन्वेते पूर्वमेवास्माभिस्तव 10 प्रमादाः कथिताः ततो जानन्नपि 'तेषु' प्रमादेषु मा सीदेत्येषा स्मारणा ॥ १२६७ ॥ अथ प्रतिस्मारणामाह फुड-रुक्खे अचियत्त, गोणो तुदिओ व मा हु पेल्लेजा। सजं अओ न भन्नइ, धुव सारण तं वयं भणिमो ॥ १२६८॥ स्फुटं नाम-यस्तेन प्रमादः कृतः स परिस्फुटं नाभिधीयते किन्त्वन्यव्यपदेशेन भणितव्यम् , 15 लक्षं नाम-निप्पिपासम् , यथा---'निर्धर्म ! निरक्षर ! निःशुक !' इत्यादि तदपि न वक्तव्यम् , यतः स्फुट-रूक्षेऽभिधीयमानेऽप्रीतिकं भवति । अत्र च गोदृष्टान्तः-यथा 'गौः' बलीवो महता भारेण लहितो हलं वा वहमानः प्रतादेनाऽतितोदितः सन् कूर्दयित्वा भारं पातयति हलं वा भनक्ति; एवमयमपि स्फुटाक्षरं रूक्षभणित्या वा भणितः कषायितत्वाद् असङ्खडं कृत्वा गच्छानिर्गच्छेत् । अत: एवाह-गौरिव, वाशब्दस्योपमानार्थस्याऽत्र सम्बन्धाद् . असावपि 'तुदितः' खर-परुषभणनप्रतोदेन व्यथितः सन् मा 'हुः' निश्चितं 'प्रेरयेत्' संयमभारं बलादपहस्त्य पातयेत्, मत एव च 'सद्यः' तत्कालं यदा प्रमादः कृतस्तदैव न भण्यते । “धुव सारण" ति स क्तव्य:वत्स! ध्रुवा-अवश्यं कर्तव्या संयमयोगेषु सीदतां सारणा, तथा च मौनीन्द्रवचनम् रूसउ वा परो मा वा, विसं वा परियत्तउ ।। भासियचा हिया भासा, सपक्खगुणकारिया ॥ ( महानि० अ० २)॥ 'तत्' तस्माद् जिनाज्ञाराधनाय वयं भवन्तमेवं भणामः, न पुनर्मत्सर-प्रद्वेषादिना ॥ १२६८॥ ' अथ "सजं अतो न भन्नइ" ति पदव्याख्यानार्थमाह तदिवसं विइए वा, सीयंतो वुच्चए पुणो तइयं । एगोऽवराहो ते सोढो, वीयं पुण ते न विसहामो ॥ १२६९ ॥ १ "तः “अचियत्तं " स्फुट भा० ॥ २' त् । अतो मधुर-गम्भीरभणित्या सानुनयमेवामि घीयते । अत एवाह भा० । “एवं फुडक्खरं भणिओ कसाइओ असंखडिता नासिज्जा, तम्हा फुडसक्वं न भाणियव्वो, साणुणयं भाणियवो जहा न कसाइजइ” इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ 26 25 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ 'सीदन्' सामाचार्यां प्रमाद्यन् तस्मिन्नेव दिवसेऽन्यस्यां वेलायां द्वितीये वा दिवसे पुनर्भूयोऽप्युच्यते 'तृतीया' प्रतिस्मारणा, एक उपदेशो द्वितीया स्मारणा तृतीया प्रतिस्मारणेति कृत्वा । कथम् ? इत्याह-एकस्ते महानपराधः 'सोढः' तितिक्षितोऽस्माभिः, यदि पुनर्द्वितीयं खल्पमप्यपराधं करिष्यसि ततो वयं ते "न विसहामो" न सहिप्यामः ॥ १२६९ ॥ । तथा चात्रार्द्रच्छगणकदृष्टान्तः क्रियते गोणाइहरणगहिओ, मुक्को य पुणो सहोढ गहिओ उ । उल्लोल्लछगणहारी, न मुच्चए जायमाणो वि ॥ १२७० ॥ यथा कश्चित् चौरो गवादिहरणं कुर्वन्नारक्षकैर्गृहीतः ततः, 'मुञ्चत मामेकवारम् , नाहं भूयः स्वल्पमपि चौर्यं करिप्यामि' इत्युक्ते दयालुत्वाद् अपरोपरोधाद्वा तैर्मुक्तः पुनर्द्वितीयवेलायां 10 पूर्वाभ्यासवशाद् यद्यार्द्रच्छगणहारी भवति, स्वल्पचौर्यकारीति भावः, तथापि 'सहोढः' सलोप्तो गृहीतः सन् याचमानोऽपि मोक्षणं न मुच्यते । एवं भवतोऽप्येकवारं महदपि प्रमादपदं तितिक्षितमस्माभिः, इत ऊर्द्ध तु स्तोकमपि न तितिक्षामहे । इत्थमुक्तोऽपि यदि प्रमाद्यति तदा मासलघु दण्डं दत्त्वा द्वितीयं घट्टनादृष्टान्तं कुर्वन्ति ॥ १२७० ॥ तमेवाह घट्टिजंतं वुच्छं, इति उदिए दंडणा पुणो विइयं । 15 पासाणो संवुत्तो, अइरुचिय कुंकुमं तइए ॥ १२७१ ॥ __ यथा दुग्धमाद्रहितं सद् घट्यमानं चाल्यमानमपि "वुच्छं" ति देशीपदत्वाद् अवदग्धं विनष्टमिति यावद् , एवं भवानप्यस्माभिरित्थं स्मारणादिना घट्यमानोऽपि प्रमादमेवाऽऽसेवितवान् , 'इति' एवम् ‘उदिते' कथिते सति यदि भूयः प्रमाद्यति तदा पुनरपि 'दण्डना' मासलघुप्रायश्चित्तरूपा कर्तव्या । “वीयं" ति एतद् द्वितीयमुदाहरणम् । इत्थं दण्डितोऽपि यदि प्रमादाद 20 नोपरमते तदा रुश्चनादृष्टान्तो वक्तव्यः- "पासाणो" इत्यादि । अति-अतीव रुञ्चितं-पिष्टं कुङ्कुमं किं पाषाणः संवृत्तः ? । एवं भवानपि महता प्रयासेन प्रतिनोद्यमानः किमप्रमत्तः ( किम प्रमत्तः ) संवृत्तः ? इति । एतत् तृतीयमुदाहरणं कृत्वा तथैव मासलघु दीयते ॥ १२७१ ॥ __ अथ यदुक्तं प्राक् “अविणीयाणं विवेगो य" त्ति (गा० १२२६) तदिदानीं भाव्यते अविनीता नाम ये बहुशोऽपि प्रतिनोद्यमानाः प्रमाद्यन्ति, ते च च्छन्देवर्तमाना भण्यन्ते, ताँश्च 25 सूरय आत्मच्छन्देन वर्जयेयुः । कः पुनरात्मीयच्छन्दो येन ते परिहियन्ते ? इति उच्यते तेण परं निच्छुभणा, आउट्टो पुण सयं परेहिं वा । तंवोलपत्तनायं, नासेहिसि मज्झ अन्ने वि ॥ १२७२ ॥ १°तीयां' प्रतिस्मारणाम् , एक मो० ले० । तीयाम्' इति प्रतिस्मारणाम्, एक भा० ॥ २°म इति ॥ १२६९ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातमाच्छगणदृष्टान्तमाह-गोणाइ भा० ॥ ३°ति प्रतिस्मारणानन्तरमिदं घट्टनादृष्टान्तलक्षणं द्वितीयं पदं प्रयोक्तव्यम् । इत्थं भा० । "बीयं ति पडिसारणातो बीयं पयं। एवं दंडिओ पुणो वि जइ पमाएइ ताहे भण्णइ रुंचण ति" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ४ पासाणो पच्छद्धं अइपीसिज्जमाणं कुंकुमं किं पासाणीभूतं ?, एवं किं तुमं पि पडिबोहिजमाणो चेव पमाएसि ? । इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ५एतत् प्रतिस्मारणातश्चिन्त्यमानं तृतीयपदमिति ॥ १२७१ ॥ अथ भा० । “पडिसारणाओ एयं ततियं” इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १२७०-७५ ] प्रथम उद्देशः । ३.९३ 'ततः परं' वारत्रयादूर्द्धं यदि न निवर्त्तते तदा निष्काशना कर्त्तव्या, निर्गच्छ मदीयगच्छादिति । अथासौ स्वयं परेण वा प्रज्ञापितः सन् 'आवृत्तः प्रमादात् प्रतिनिवृत्तः प्रतिभणति 'भगवन् ! क्षमध्वं मदीयमपराधनिकुरम्बम् न पुनरेवं करिष्यामि' इति, ततो यद् द्वारगाथायां पत्रज्ञातं सूचितं तदुपवर्ण्यते -- " तंबोलपत्तनायं " ति, यथा तम्बोलपत्रं कुथितं सद् यदि न परित्यज्यते ततः शेषाण्यपि पत्राणि कोथयति । एवं त्वमपि स्वयं विनष्टो ममाऽन्यानपि साधून् 5 विनाशयिष्यसीति कृत्वा निष्काशितोऽस्माभिः । सम्प्रत्यप्रमत्तेन भवितव्यं मासगुरु च ते प्रायश्चित्तम् ॥ १२७२ ॥ अथ निष्काशनस्यैव विधिमाह- सुहमेगो निच्छुभड़, णेगा भणिया उ जड़ न वच्चंति । अन्नावएस उवहिं, जग्गावण सारिकह गमणं ॥ १२७३ ॥ पुनः प्रमाद्यन्त को वाऽनेके वा । यद्येकस्ततः सुखेनैव 'निर्गच्छ मद्गच्छात्' इत्यभिधाय 10 निष्काश्यते । अथाने के - बहवस्ततस्ते यदि 'निर्गच्छत' इति भणिता अपि 'वयं बहवस्तिष्ठामः' इत्यवष्टम्भं कृत्वा न व्रजन्ति ततः शेषसाधून् रहस्यं ज्ञापयित्वाऽन्येन केनापि अपदेशेन - मिषेण यथा न तेषां शङ्का भवति तथोपधिं विहारयोग्यं कारयित्वा अन्यव्यपदेशेनैव ते रात्रौ चिरं जागरणं कारापणीया यथा न प्रातः शीघ्रमुत्तिष्ठन्ति । "सारिकह" त्ति सागारिकः - शय्यातरस्तस्याग्रतो रहसि कथनीयम्, यथा -- वयं प्रेभात एवामुकं ग्रामं वजिष्यामः, यदि कोऽपि महता 15 निर्बन्धेन युष्मान् प्रश्नयेत्, यथा - आचार्याः क्व गताः ? इति ततो भवद्भिस्तस्य यथावद् निवे - दनीयम् । “गमणं” ति ततो गमनं कर्त्तव्यम् ॥ १२७३ ।। गतेषु चाचार्येषु यदि ते ब्रूयुःमुका मो दंडरुणो, भणंति इइ जे न तेसु अहिगारो । सेजार निबंधे, कहियाऽऽगय न विणए हाणी ।। १२७४ ॥ 'अहो ! सुन्दरं समजनि यद् ' दण्डरुचेः' उग्रदण्डव्यसनिन आचार्याद् मुक्ता वयम्' इति ये 20 भणन्ति न तेष्वधिकारः । ये पुनः परित्यक्ताः सन्तो गाढं परितप्यन्ते 'आ ! कष्टम्, उज्झिता वयं वराका निःसम्बन्धबन्धुभिस्तैर्भगवद्भिः, अतः कथमिव भविष्यामः ?' इति ते शय्यातरं महता निर्बन्धेन पृच्छन्ति --- कथय कुत्रास्मान् विमुच्य गताः क्षमाश्रमणाः । स प्राह- अमुकं ग्रामम् । ततस्तेन कथिते त्वरितमागतानां तेषां न विनयहानिः कर्त्तव्या, किन्तु प्राग्वदेवाऽभ्यु - त्थानं दण्डकादिग्रहणं च कर्त्तव्यम् । ततस्ते बद्धाञ्जलिपुटाः पादपतिताश्छिन्नमुक्तावलिप्रकाशान्य- 25 श्रूणि विमुञ्चन्तो विज्ञपयन्ति — भगवन् ! क्षमध्वमस्मदीयमपराधम्, विलोकयताऽस्मान् प्रसादमन्थरया दृशा, प्रतिपद्यध्वं भूयः खप्रतीच्छकतया, कुरुतानुग्रहं स्मारणादिना, प्रणिपातपर्यवसितप्रकोपा हि भवन्ति महात्मानः, इत ऊर्द्ध वयं प्रमादं प्रयत्नतः परिहरिष्याम इति । ततो गच्छसत्काः साधवः सूरीन् कृताञ्जलयः प्रसादयन्ति ॥ १२७४ ॥ गुखो ब्रुवते - आर्याः ! अलं मम दुष्टाश्वसारथित्वकल्पेनामून् प्रति आचार्यककरणेन, एवमुक्ते साधवो भणन्तिको नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए । 30 दुट्ठे विउ जो आसे, दमेइ तं आसियं विंति ।। १२७५ ॥ १ एवं भवानपि भा० ॥ २ प्रातरेवा भा० ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ सनियुक्ति-लघुभाग्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ___को नाम सारथीनां मध्ये स भवति यः 'भद्रवाजिनः' विनीताश्वान् दमयेत् ? न कश्चिदसौ, असारथिरेवेत्यर्थः । 'दुष्टान्' अविनीतानपि योऽश्वान् 'दमयति' शिक्षा ग्राहयति तम् 'आश्विकम्' अश्वदमं ब्रुवते लौकिकाः ॥ १२७५ ॥ अपि च होति हु पमाय-खलिया, पुबव्भासा य दुच्चया भंते ! । न चिरं च जंतणेयं, हिया य अचंतियं अंते ॥ १२७६ ॥ ___ 'भदन्त !' परमकल्याणयोगिन् ! 'पूर्वाभ्यासाद्' अनादिभवाभ्यस्ततया दुस्त्यजानि प्रमाद-स्खलितानि भवन्ति प्रायो जन्तूनाम् । प्रमादाः-निद्रा-विकथादयः, स्खलितानि-अनुपयुक्तगमनभाषणादीनि । न चेयं स्मारणादिरूपा यन्त्रणा 'चिरं' चिरकालं भाविनी, सात्मीभावमुपगते ह्यमीषामप्रमादे को नाम स्मारणादिकं करिप्यति ? इति भावः । न चेयमापातवत् परिणामेऽपि 10 दुस्सहा किन्तु 'हिता च' पथ्या 'आत्यन्तिकम्' अतिशयेन 'अन्ते' अवसाने परिणामे इत्यर्थः । यच परिणामसुन्दरं तदापातकटुकमप्युपादेयम् ॥ १२७६ ॥ अत्रान्तरे सूरयस्तेषां प्रमादिसाधूनां तीव्रतरं संवेगमवगम्य तानेव स्थिरीकर्तुं राजदृष्टान्तं कुर्वन्ति अच्छिरुयालु नरिंदो, आगंतुअविजगुलियसंसणया । विसहामि त्ति य भणिए, अंजण वियणा सुहं पच्छा ।। १२७७॥ 18 एगो राया । तस्स अच्छिरुया जाया । वत्थवविजेहिं न सकिओ तिगिच्छिउं । अन्नो अ आगंतुओ विज्जो आगंतुं भणइ-मम अत्थि गुलियाओ अच्छिसूलपसमणीओ, ताहिं अंजिएसु अच्छीसु तिवतरा दुरहियासा वेयणा भवइ मुहुत्तं, जइ न वि मे मारणाए संदिसाहि तो अंजेमि ते अच्छीणि । 'न मारेमि' ति अन्भुयगए अंजिएसु अच्छीसु तिबतरा वेयणा जाया। ताहे रन्ना भणियं-अच्छीणि मे पडियाणि, मारेह तं वेजं । तेहिं अब्भुवगंतुं न मारिओ। 20 मुहुत्तंतरेण उवसंता वेयणा । पोराणाणि अच्छीणि जायाणि । विजो पूइओ ॥ अथ गाथाक्षरार्थः-अक्ष्णः-चक्षुषो या रुग्-रोगस्तद्वान् कश्चिन्नरेन्द्रः । तस्य चागन्तुकवैद्येन गुटिकानां शंसना-स्वरूपकथना । ततो राज्ञा 'विषहाम्यहं वेदनाम्' इति भणिते वैद्येन चक्षुषोर्गुटिकाभिरञ्जनम् । ततो वेदना । पश्चात् क्रमेण सुखं सञ्जातम् , प्रगुणीभूते अक्षिणी इति । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः---यथा तस्य राज्ञस्तत्कालदुस्सहमपि गुटिकाञ्जनं क्रमेण चक्षुषोः प्रगु25 णीकरणात् परिणामसुन्दरं समजनि, एवं भवतामपि स्मारणादिकं खर-परुषत्वाद् यद्यप्यापातकटुकं तथापि परिणामसुन्दरमेव द्रष्टव्यम् , इह परत्र च सकलकल्याणपरम्पराकारणत्वादिति ॥१२७७॥ उक्तानुक्तविधिसङ्ग्रहमाह इय अविणीयविवेगो, विगिंचियाणं च संगहो भूओ । जे उ निसग्गविणीया, सारणया केवलं तेसिं ॥ १२७८॥ 30 "इय" एवमविनीतानां विवेकः-परित्यागः । “विगिंचियाणं च" ति परित्यक्तानां पुनरा वृत्तानां भूयः सङ्ग्रहो विधेयः । ये तु निसर्गेण-खभावेन विनीतास्तेषां स्मारणेव केवलं कर्तव्या, यथा 'इदमित्थं कर्त्तव्यम्' इति ॥ १२७८ ॥ उपसंहरन्नाह एवं पडिच्छिऊणं, निप्फत्तिं कुणइ बारस समाओ । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 विहारः भाष्यगाथाः १२७६-८३] प्रथम उद्देशः । ३९५ एमो चेव विहारो, सीसे निप्फाययंतस्स ॥ १२७९ ॥ ‘एवं देशदर्शन कुर्वन् शिष्य-प्रतीच्छकान् प्रतीच्छ्य निष्पत्तिं सूत्रार्थग्राहणादिना द्वादश 'समाः' संवत्सराणि करोति । गतं निप्पत्तिद्वारम् । अथ विहारद्वारे व्याख्यायते-"एसो चेव" इत्यादि । एष एव विहारः शिप्यान् निप्पादयतो वेदितव्यः । इयमत्र भावना-तस्य देशदर्शनं कृत्वा गुरुपादमूलमागतस्य गुरुभिराचार्यपदमध्यारोप्य दिग्बन्धानुज्ञायां विहितायां नव-5 कल्पविधिना विहरतो यः शिष्यनिष्पादनविधिः से एवमेव द्वादश वर्षाणि यावद् विज्ञेयः, तुल्यवक्तव्यत्वादिति ॥ १२७९ ॥ अथैतदेव विहारद्वारमावृत्त्या जिनकल्पिकमाश्रित्य व्याचिख्यासुरगाथामाहअब्बोच्छित्ती मण पंचतुलण उवगरणमेव परिकम्मे । जिनक ल्पिकानां तवसत्तसुएगत्ते, उवसग्गसहे य वडरुक्खे ॥ १२८० ॥ अव्यवच्छित्तिविषयं मनः प्रयुते । पञ्चानाम्-आचार्यादीनां तुलना-खयोग्यताविषया भवति, उपकरणं जिनकल्पोचितमेव गृह्णाति । 'परिकर्म' इन्द्रियादिजयरूपं करोति। तपः-सत्त्व-श्रुतैकत्वानि उपसर्गसहश्चेति पञ्च भावना भवन्ति । 'वटवृक्षे' इति जिनकल्पं तीर्थकरादीनामभावे वटवृक्षस्याधस्तात् प्रतिपद्यते इति द्वारगाथासमासार्थः ॥ १२८० ॥ अथैनामेव विवरीषुराह अणुपालिओ य दीहो, परियाओ वायणा वि मे दिन्ना। 16 निफाइया य सीसा, सेयं खु महऽप्पणो काउं॥ १२८१॥ तेनाचार्येण सूत्रार्थयोरव्यवच्छित्तिं कृत्वा पर्यन्ते-पूर्वापररात्रकालसमये धर्मजागरिकां जाग्रतेत्थं चिन्तनीयम् , यथा-अनुपालितो मया दीर्घः 'पर्यायः' प्रव्रज्यारूपः, वाचनाऽपि मया दत्ता उचितेभ्यः प्रतीच्छकादिभ्यः, निप्पादिताश्च भूयांसः शिष्याः, तदेवं कृता तीर्थस्याव्यवच्छित्तिः, तत्करणेन विहितमात्मनः ऋणमोक्षणम् , अत ऊर्दू 'श्रेयः' प्रशस्यतरं ममात्मनो हितं कर्तुम् १० ॥ १२८१ ॥ किं नाम हितम् ? इति चेद् उच्यते किन्नु विहारेणऽब्भुञ्जएण विहरामऽणुत्तरगुणेणं । आओ अब्भुज्जयसासणेण विहिणा अणुमरामि ॥ १२८२ ॥ 'किन्नु' इति वितर्के, 'अभ्युद्यतविहारेण' जिनकल्पादिना 'अनुत्तरगुणेन' अनुत्तराः-अनन्यसामान्या गुणाः-निर्ममत्वादयो यस्मिन् स तथा तेन अहं विहरामि ? “आउ" त्ति उताहो 25 "अब्भुज्जयसासणेणं' ति सूचकत्वात् सूत्रस्याऽभ्युद्यतमरणविषयेण शासनोक्तेन विधिना 'अनुनिये' अनु-पश्चात् संलेखनाद्युत्तरकालं मरणं प्रतिपद्येऽहम् ? इति ॥ १२८२ ।। अभ्युद्यतविहार-मरणयोः खरूपमाह जिण सुद्ध अहालंदे, तिविहो अब्भुञ्जओ अह विहारो। अब्भुजयमरणं पुण, पाओवग-इंगिणि-परिन्ना ॥ १२८३ ॥ जिनकल्पः शुद्धपरिहारकल्पो यथालन्दकल्पश्चेति त्रिविधोऽभ्युद्यतोऽथैष विहारो मन्तव्यः । १°ग्रहणा मो० ले. विना ॥ २ सः 'एष एव' अनन्तरोक्तो विज्ञेयः, तुल्य भा० । ३ °कल्पमपवादतो वट° भा० ॥ 30 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयमेव आउकालं, नाउं पोच्छित्तु वा बहुं सेसं । सुबहुगुणलाभकखी, विहारमभुजयं भजइ । १२८४ ॥ स्वयमेवायुःकालं सातिशयश्रुतोपयोगाद् 'बहु' दीर्घं 'शेषम् ' अवशिष्यमाणं ज्ञात्वा पृष्ट्वा वाऽन्यं श्रुताद्यतिशययुक्तमाचार्यं बहुशेषमवबुध्य ततः सुबहुगुणलाभकाङ्क्षी सन् विहारमभ्युद्यतं 'भजति' प्रतिपद्यत इत्यर्थः । इह चायं विधिः - यदि स्तोकमेवायुरवशिप्यते ततः पादपोपगमादीनामेकतरमभ्युद्यतमरणं प्रतिपद्यते, अथ प्रचुरमायुः परं जङ्घाबलपरिक्षीणस्ततो वृद्धावास10 मध्यास्ते, अथाऽऽयुर्दीर्घं न च जङ्घाबलपरिक्षीणस्तदाऽभ्युद्यतविहारं प्रतिपद्यत इति ॥ १२८४ ॥ गतमव्यवच्छित्तिमनोद्वारम् । अथ पञ्चतुलनेति द्वारम् – पञ्चानाम् - आचार्योपाध्याय- प्रवर्त्तकस्थविर-गणावच्छेदकानां तुलना भवति, यथा -- त्रयाणामभ्युद्यत [ मरण-वृद्धावासा ऽभ्युद्यत ] विहाराणां कतरं प्रतिपद्यामहे ? । इह चैत एव प्रायोऽभ्युद्यतविहारस्याधिकारिण इति कृत्वा पचेति सङ्क्षयानियमः कृतः । इत्थमात्मानं तोलयित्वा यदि जिनकल्पं प्रतिपित्सुस्तत इत्थं विधिं करोतिगणनिक्खेवित्त रिओ, गणिस्स जो व ठविओ जहिं ठाणे । उवहिं च अहागडयं, गिण्हइ जावऽन्न णुप्पाए ॥। १२८५ ॥ ‘गणिनः' आचार्यस्य गणनिक्षेपः 'इत्वरः' परिमितकालीनो भवति, यो वा उपाध्यायादिर्यत्र 'स्थाने' पदे स्थापितः स तत्पदमात्मतुल्यगुणे साधावित्वरनिक्षेपेण निक्षिपति । आह किमर्थमसावित्वरं गणादिनिक्षेपं विदधाति ? न यावज्जीविकम् ? उच्यते - इह चाष्टकविवरगामिना 20 शिलीमुखेन वामलोचने पुत्रिकाया वेधनमिव दुष्करं गणाद्यनुपालनम्, अतः पश्यामस्तावत्‘एतेऽभिनवाचार्यप्रभृतयः किमस्य गणादेरनुपालनं कर्तुं यथावदीशते वा ? न वा ?, यदि नेशते ततो मया न प्रतिपत्तव्यो जिनकल्पः, यतो जिनकल्पानुपालनादपि श्रेष्ठतरमितरस्य तथाविधस्याभावे सूत्रोक्तनीत्या गणाद्यनुपालनम्, बहुतरनिर्जरालाभकारणत्वात् न च बहुगुणपरित्यागेन स्वल्पगुणोपादानं विदुषां कर्तुमुचितम्, सुप्रतिष्ठितकार्यारम्भकत्वात् तेषाम्' इत्यभिसन्धाय स 25 भगवानित्वरं गणादिनिक्षेपं विदधातीति । ३९६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ अभ्युद्यतमरणं पुनस्त्रिविधम् - पादपोपगमनम् इङ्गिनीमरणं 'परिज्ञा' इति भक्तप्रत्याख्यानम् ॥ १२८३ ॥ स्याद् बुद्धिः - द्वे अप्येते अभ्युद्यतरूपतया श्रेयसी, अतः कतरदनयोः प्रतिपत्तव्यम् ? उच्यते— 15 30 5 उक्तञ्च पञ्चवस्तुकशास्त्रे इहैव प्रक्रमे श्रीहरिभद्रसूरिपूज्यैःपिच्छामु ताव एए, केरिसगा होंति अस्स ठाणस्स ? | जोगा वि पाएणं, निवहणं दुक्करं होई || ( गा० १३८० ) नय बहुगुणचाएणं, थेवगुणपसाहणं हजणाणं । इकाइ कज्जं, कुसला सुपइट्टियारंभा ॥ ( गा० १३८१ ) अथोपकरणद्वारमाह – “ उवहिं च" इत्यादि । यावद् 'अन्य' जिनकल्पप्रायोम्यं शुद्धैषणायुक्तं प्रमाणोपेतं च ‘उपधिं' वस्त्रादि नोत्पादयति तावद् यथाकृतमेव गृह्णाति । ततः स्वकरूप१ पतरोपादा भा० ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 भाष्यगाथाः १२८४-८९] प्रथम उद्देशः । ३९७ प्रायोग्ये उपकरणे लब्धे सति प्राक्तनमुपकरणं व्युत्सृजतीति ॥ १२८५ ॥ गतमुपकरणद्वारम् । अथ परिकर्मद्वारम्-परिकर्मेति वा भावनेति वा एकार्थम् । ततोऽयमात्मानं भावनाभिः सम्यग् भावयति । आह सर्वेऽपि साधवस्तावद् भावितान्तरात्मानो भवन्ति अतः किं पुनर्भावयितव्यम् ? उच्यते--- इंदिय-कसाय-जोगा, विणियमिया जइ वि सव्वसाहूहिँ । तह विजओ कायव्वो, तज्जयसिद्धिं गणितेणं ॥ १२८६॥ यद्यपि सर्वसाधुभिरिन्द्रिय-कषाय-योगा विविधैः प्रकारैर्नियमिताः-जितास्तथापि जिनकल्पं प्रतिपत्तुकामेन पुनरेतेषां जयः कर्तव्यः । तत्रैहिका-ऽऽमुप्मिकापायपरिभावनादिना इन्द्रियाणां जयस्तथा कर्तव्यो यथेष्टा-ऽनिष्टविषयेषु गोचरमुपागतेषु राग-द्वेषयोरुत्पत्तिरेव न भवति । कषायाणामपि जये तथा यत्न आस्थेयो यथा दुर्वचनश्रवणादि बाह्यं कारणमवाप्यापि तेषामुदय एव 10 नाविर्भवति । योगानामपि मनःप्रभृतीनां जये तथा यतितव्यं यथा तेषामार्तध्यानादिकं दुष्पणिधानमेव नोदयमासादयति । अथ किमर्थमित्थमिन्द्रिय-कषाय-योगानां जयः कर्त्तव्यः ? इत्याहतेषाम्-इन्द्रियादीनां जयस्तजयः तज्जयेन सिद्धिः-जिनकल्पपारप्राप्तिस्तां 'गणयता' मन्यमानेनेन्द्रियादीनां जयः करणीयः ।। १२८६ ॥ अत्रैव विशेषमाह जोगिदिएहिं न तहा, अहिगारो निजिएहिं न हु ताई। कलुसेहिँ विरहियाई, दुक्खसईवीयभूयाई॥ १२८७ ॥ योगैरिन्द्रियैश्च निर्जितैर्न तथा 'अधिकारः' प्रयोजनम् , यतो नैव 'तानि' योगेन्द्रियाणि 'कलुषैः' कषायैर्विरहितानि दुःखसस्यबीजभूतानि भवन्ति किन्तु कषाया एव दुःखपरम्पराया मूलबीजमिति भावः ॥ १२८७ ॥ आह यद्येवं योगा इन्द्रियाणि च न जेतव्यानि, तेषां कषायविरहितानां दुःखहेतुत्वायोगात् , उच्यते जेण उ आयाणेहिं, न विणा कलुसाण होइ उप्पत्ती । तो तजयं ववसिमो, कलुसजयं चेव इच्छंता ॥ १२८८ ॥ आदीयन्ते-गृह्यन्ते शब्दादयोऽर्था एभिरित्यादानानि-इन्द्रियाण्युच्यन्ते तैः, उपलक्षणस्वाद् योगैश्च विना येन हेतुना 'कलुषाणां' कषायाणामुत्पत्तिर्न भवति । कथम् ? इति चेद् उच्यतेइह माया-लोभौ रागः क्रोध-मानौ तु द्वेष इत्यभिधीयते, तौ च राग-द्वेषाविष्टा-ऽनिष्टविषयान् 25 प्राप्य सञ्जायेते, ते च विषया इन्द्रियगोचरा इति कृत्वा इन्द्रियैर्विना न कषायाणामुत्पत्तिराविरस्ति । योगानपि मनोवाक्कायरूपानन्तरेण न क्वापि कषाया उदीयमाना दृश्यन्त इति तैरपि सह कषायाणामविनाभावो द्रष्टव्यः । यतश्चैवमतः 'तज्जयम्' इन्द्रिय-योगजयं 'व्यवस्यामः' इच्छामः 'कलुषजयं' कषायजयमेव इच्छन्त इति ॥ १२८८ ॥ आह के पुनर्गुणा भावनाभावितान्तरात्मनो भवन्ति ? इति उच्यते खेयविणोओ साहसजओ य लहुया तवो असंगो अ । सद्धाजणणं च परे, कालन्नाणं च नऽन्नत्तो ॥ १२८९ ॥ १ साहसे जयो भवति । साहसं णाम भयं तंण उप्पज्जति । इ 20 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ३९८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ तपोभावनाभावितस्य 'खेदविनोदः' परिश्रमजयो भवति, चतुर्थादितपसा न परिश्राम्यतीत्यर्थः । सत्त्वभावनाभावितस्य साध्वसं-भयं तस्य जयो भवति । एकत्वभावनाभावितस्य 'लघुता' 'एक एवाहम्' इतिवुद्ध्या लघुभावो भवति । श्रुतभावनाभावितस्य तपो भवति, "न वि अत्थि न वि य होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ।" ( गा० ११६९) इति वचनात् । धृतिभावनाभावितस्य वजनादिषु 'असङ्गः' निर्ममत्वं भवति । अन्यच्च श्रुतभावनां भावयन् अन्येषामपि श्रद्धाजननं करोति, यथा—वयमप्येवं कदा विधास्यामः ? इति । कालज्ञानं च पौरुष्यादिषु नान्यतः सकाशादवगन्तव्यं भवति किन्तु श्रुतपरावर्त्तनानुसारेण स्वयमेवोच्छ्रासादिकालकलाकलनतः पौरुप्यादिमानं जानाति । यत एते गुणास्ततो भावनीय आत्मा भावनया ॥ १२८९ ।। ___ सा च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतस्तावदाह सरवेह-आस-हत्थी-पवगाईया उ भावणा दग्वे । अब्भास भावण त्ति य, एगहूँ तत्थिमा भावे ॥ १२९० ॥ इह धानुको यद् अभ्यासविशेषात् प्रथमं स्थूलद्रव्यं ततो वालबद्धां कपर्दिकां ततः सुनितिः खरेणापि लक्ष्यस्य वेधं करोति, यच्चाऽश्वः शीघ्रं शीघ्रतरं धावमानः शिक्षाविशेषाद् महदपि गादिकं लङ्घयति, हस्ती वा शिष्यमाणः प्रथमं काष्ठानि ततः क्षुल्लकान् पाषाणान् ततो 15 गोलिकां तदनु बदराणि तदनन्तरं सिद्धार्थानप्यभ्यासातिशयाद गृह्णाति, प्लवको वा प्रथमं वंशे विलग्नः सन् प्लवते ततः पश्चादभ्यस्यन् आकाशेऽपि तानि तानि करणानि करोति, आदिशब्दाचित्रकरादिपरिग्रहः । एताः सर्वा अपि द्रव्यभावनाः । अभ्यास इति वा भावनेति वा एकार्थम् । तत्रैता वक्ष्यमाणलक्षणाः 'भावे' भावतो भावना मन्तव्याः ॥ १२९० ॥ ता एवाह दुविहाओं भावणाओ, असंकिलिट्ठा य संकिलिट्ठा य । मुत्तूण संकिलिट्ठा, असंकिलिङ्काहि भावंति ॥ १२९१ ॥ द्विविधाश्च भावतो भावनाः । 'असंक्लिष्टाः' शुभाः 'संक्लिष्टाश्च' अशुभाः । तत्र मुक्त्वा संक्लिष्टभावना असंक्लिष्टाभिर्भावनाभिर्भावयन्ति जिनकल्पं प्रतिपित्सव इति ।। १२९१ ।। अथ कास्ताः संक्लिष्टभावनाः ? इत्याशङ्कापनोदाय तत्वरूपमभिधित्सुराह संखा य परूवणया, होइ विवेगो य अप्पसत्थासु । एमेव पसत्थासु वि, जत्थ विवेगो गुणा तत्थ ॥ १२९२ ॥ अप्रशस्तभावनानां सङ्ख्या पञ्चेति लक्षणा निरूपणीया । प्ररूपणा च तासां कर्तव्या । तासां चाप्रशस्तानां 'विवेकः' परिहारो भवति । एवमेव 'प्रशस्ताखपि' तपःप्रभृतिभावनासु सङ्ख्या प्ररूपणा च वक्तव्या । नवरं "जत्थ विवेगो" ति यत्र विवेक इति पदं तत्राप्रशस्ता एव भावना द्रष्टयोः; ता विवेक्तव्याः-परित्याज्या इति भावः । “गुणा तत्थ" ति यास्तु प्रशस्ता भावनाः १°नातीति भावः । यत भा० ॥ २ °षात् पद्भ्यां भुवमस्पृशन् मह° भा० ॥ ३ °नाः। अथ भावनेति कोऽर्थः ? इत्याह-अभ्यास भा० ॥ ४ °व्या न प्रशस्ता इति । 'तत्र' इति प्रशस्तभावनासु भाव्यमानासु गुणा भवन्ति, ते च "खेदविणोओ" (गा० १२८९ ) इत्यादिना प्रागेव भाविता इति चूर्ण्यभिप्रायेण व्याख्यानम् । अथ विशेषचूर्ण्यभिप्रायेण व्याख्यायते-"जत्थ विवेगो" त्ति यत्र प्रशस्तेऽपि वस्तुनि भा०॥ संक्लिष्टभावना नां फलम् Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनाः भाष्यगाथाः १२९०-९६] प्रथम उद्देशः । तासु भाव्यमानासु गुणाः-खेद-विनोदादयः प्रागुक्ता भवन्तीति चुर्ण्यभिप्रायेण व्याख्यानम् । विशेषचूर्ण्यभिप्रायः पुनरयम्-यत्रं च प्रशस्तेऽपि वस्तुनि विवेकः परित्यागोऽस्य घटते तत्र गुणा एव भवन्ति । यथा--आचार्यादीनामवर्णभाषण-श्रवणे औदासीन्यमवलम्बमानस्याप्यस्य गुण एव भवति, न पुनः स्थविरकल्पिकस्येव यथाशक्ति तन्निवारणमकुर्वतो दोष इति ॥ १२९२ ॥ अथाप्रशस्तभावनानां नामग्राहं गृहीत्वा सङ्ख्यामाहकंदप्प देवकिव्विस, अभिओगा आसुरा य सम्मोहा।। अप्रशस्ता . एसा य संकिलिट्ठा, पंचविहा भावणा मणिया ॥ १२९३ ॥ कन्दर्पः-कामस्तत्प्रधानाः पिङ्गप्राया देवविशेषाः कन्दी उच्यन्ते तेषामियं कान्दी । एवं देवानां मध्ये किल्मिषाः-पापा अत एवास्पृश्यादिधर्माणश्चण्डालप्रायास्तेषामियं दैवकिल्बिपी । आ-समन्ताद आभिमुख्येन वा] युज्यन्ते-प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्त इत्याभियोग्याः-किङ्करस्थानीया 10 देवविशेषास्तेषामियमाभियोगी । असुराः-भवनपतिदेवविशेषास्तेषामियमासुरी । सम्मुह्यन्तीति सम्मोहाः-मूढात्मानो देवविशेषास्तेषामियं साम्मोही । गाथायां प्राकृतत्वाद् आप्प्रत्ययः । एषा अप्रशस्ता पञ्चविघा भावना तत्तत्वभावाभ्यासरूपा भणिता ॥ १२९३ ॥ अथासामेव फलमाह अप्रशस्तजो संजओ वि एआसु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ । भावनासो तबिहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥ १२९४ ॥ 15 नां फलम् यः 'संयतोऽपि' व्यवहारतः साधुरप्येताभिरप्रशस्ताभिर्भावनाभिः, गाथायां तृतीयार्थे सप्तमी, 'भावनम्' आत्मनो वासनं करोति सः 'तद्विधेषु' तादृशेषु कान्दर्पिकादिषु सुरेषु गच्छति । यस्तु 'चेरणरहितः' सर्वथा चारित्रसत्ताविकलो द्रव्यचरणहीनो वा सः 'भाज्यः' तद्विधेषु वा देवेषूत्पद्यते नरक-तिर्यङ्-मनुष्येषु वा ॥ १२९४ ॥ अथासामेव प्ररूपणां चिकीर्षुः प्रथमतः कन्दर्पभावनां प्ररूपयति कंदप्पे कुक्कुइए, दवसीले यावि हासणकरे य । विम्हावितो य परं, कंदप्पं भावणं कुणइ ॥ १२९५ ॥ इह कन्दर्पशब्देन कन्दर्पवानुच्यते, एवं कौत्कुच्यवान् द्रवशीलश्चापि हासनकरश्च विस्मापयश्च परं कान्दी भावनां करोतीति सङ्घहगाथासमासार्थः ॥१२९५॥ अथ विस्तरार्थमाहकहकहकहस्स हसणं, कंदप्पो अनिहुया य संलावा । 25 कन्दर्पः कंदप्पकहाकहणं, कंदप्पुवएस संसा य ॥ १२९६ ॥ १ “पश्च इति सङ्ख्या एकादिषट्रादिप्रतिषेधार्थम् । ताओ भावणाओ जाणित्ता अप्पसत्थाणं विवेगो कातव्यो, परिवर्जनमित्यर्थः । एवमेव अवधारणे । किमवधारयितव्यम् ? उच्यते-'संखा त परूवणता' जधा अप्पसत्थाणं तधा पसत्थाण वि । णवरं 'जत्थ विवेगो' ति वाक्यं अप्पसत्थाणं, 'गुणा तत्थ' ति पसत्थाणं घेत्तव्या इति वाक्यशेषः । ते च गुणास्तपः-सत्त्वादयः ।" इति चूर्णौ ॥ २ "प्रशस्तस्यापि विवेक एव कार्यः, यथा आचार्यादीनामवर्णभाषण-श्रवणे माध्यस्थ्यं भावयतो गुण एव भवति, न स्थविरकल्पवद् दोषः।" इति विशेषचौँ । ३ उ ता०॥ ४ 'तद्विषयेषु' ताह° भा० विना ॥ ५ टीकाकृता "चरणरहिओ” इतिपाठानुसारेण व्याख्यातम् , न चासौ पाठः कचनाप्युपलभ्यते । चूर्णी विशेषचूर्णौ च "चरणहीणो" इति पाठ आहतोऽस्ति । तथाहि-"चरणहीणो ति जो चरणविहूणो सो" इति ॥ ६°ति नियुक्तिगाथा मो० ले० ॥ 20 कन्दर्प. भावना Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -10 सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ __ "कहकहकहस्स" ति तृतीयार्थे षष्ठी, 'कहकहकहेन' उच्चैःस्वरेण विवृतवदनस्य यद् हसनम्-अट्टहास इत्यर्थः, यश्च ‘कन्दर्पः' स्वानुरूपेण सह परिहासः, ये च 'अनिभृताः' निमुरवक्रोत्यादिरूपा गुदिनाऽपि समं संलापाः, यच्च कन्दर्पकथायाः-कामसम्बद्धायाः कथायाः कथनम् , यश्च कन्दर्पस्योपदेशः-'इत्थमित्थं कुरु' इति विधानद्वारेण कामोपदेशः, या च 'शंसा' .5 प्रशंसा कामविषया, एष सर्वोऽपि कन्दर्प उच्यते ॥ १२९६ ॥ गतं कन्दर्पद्वारम् । अथ कौत्कुच्यद्वारमाह भुम-नयण-वयण-दसणच्छदेहिं कर-पाद-कण्णमाईहिं । कौत्कुच्यम् तं तं करेइ जह हस्सए परो अत्तणा अहसं ॥१२९७ ॥ चायाकोकुइओ पुण, तं जपइ जेण हस्सए अन्नो । नाणाविहजीवरुए, कुबइ मुहतूरए चेव ॥ १२९८॥ कुत्कुचः-भण्डचेष्टः तस्य भावः कौल्कुच्यं तद् विद्यते यस्य स कौत्कुच्यवान् । स च द्वेधा-कायेन वाचा च । तत्र भ्रू-नयन-वदन-दशनच्छदैः कर-चरण-कर्णादिभिश्च देहावयवैस्तां तां चेष्टामात्मना अहसन्नेव करोति यथा परो हसति एष कायकौकुच्यवानुच्यते ॥१२९७॥ वाचा कौत्कुच्यवान् पुनस्तत् किमपि परिहासप्रधानं वचनं जल्पति येनाऽन्यो हसति, नाना15 विधानां वा मयूर-मार्जार-कोकिलादीनां जीवानां रुतानि-कूजितानि 'मुखतूर्याणि वा' मुखेनातो द्यवादनलक्षणानि तथा करोति यथा परस्य हास्यमायाति ॥ १२९८ ॥ अथ द्रवशीलमाहद्रवशीलः भासइ दुयं दुयं गच्छए अ दरिउ व्य गोविसो सरए। सव्वदुयदुयकारी, फुट्टइ व ठिओ वि दप्पेणं ॥ १२९९ ॥ 'द्रुतं द्रुतम्' असमीक्ष्य सम्भ्रमावेशवशाद् यो भाषते । यश्च द्रुतं द्रुतं गच्छति, क इव ? 20 इत्याह-शरदि 'दर्पित इव' दोंद्धर इव 'गोवृषः' बलीवर्दविशेषः । शरदि हि प्रचुरचारिध्राणतया मक्षिकाद्युपद्रवरहिततया च गोवृषो मदोद्रेकादुच्छृङ्खलः पर्यटतीति, एवमसावपि निरकुशस्त्वरितं त्वरितं गच्छति । यश्च 'सर्वद्रुतद्रुतकारी' प्रत्युपेक्षणादीनां सर्वासामपि क्रियाणामतित्वरितकारी । यश्च दर्पण तीव्रोद्रेकवशात् स्फुटतीव 'स्थितोऽपि' खभावस्थोऽपि सन् , गम नादिक्रियामकुर्वन्नपीत्यर्थः । एष द्रवशील उच्यते ॥ १२९९ ॥ अथ हासकरमाहहासकरः 25 वेस-चयणेहिँ हासं, जणयंतो अप्पणो परेसिं च । वेम-योनि अह हासणो त्ति भन्नइ, घयणो व्य छले नियच्छंतो ॥ १३०० ॥ "घयणो " भाण्ड इव परेषां 'छिद्राणि' विरूपवेष-भाषाविपर्ययाणि "नियच्छंतो" त्ति निरन्तरमन्वेषयन् तादृशेरेव वेष-वचनैर्विचित्रैरात्मनः ‘परेषां च' प्रेक्षकाणां हास्यं 'जनयन्' उत्पादयन् अथैषः 'हासनः' हास्यकर इति भण्यते ॥ १३०० ॥ अथ परविस्मापकमाह मुरजालमाइएहिं, तु विम्हयं कुणइ तबिहजणस्म । तेसु न विम्हयइ सयं, आहट्ट-कुहेडएहिं च ।। १३०१॥ सुरजालम्--इन्द्रजालम् आदिशब्दाद् अपरकौतुकपरिग्रहः तैः, तथा आदर्ताः-प्रहेलिकाः कुहेटकाः-वक्रोक्तिविशेषरूपास्तैश्च तथाविधग्राम्यलोकप्रसिद्धैर्यत् तद्विधजनस्य' तादृशस्य परविस्मा- 30 पकः Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वना ज्ञानावर्ण भाप्यगाथाः १२९७-१३०४] प्रथम उद्देशः । ४०१ बालिशप्रायलोकस्य 'विस्मयं' चित्तविभ्रमं करोति स्वयं पुनस्तेषु न विस्मयते एष परविस्मापकः ॥ १३०१ ॥ उक्ता कान्दपी भावना । अथ देवकिल्विपिकी बिभावयिषुराह-- नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सव्वसाहूणं । .. दैवकिल्वि. षिकी भा. . माई अवन्नवाई, किबिसियं भावणं कुणइ ॥ १३०२॥ ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्याणां सर्वसाधूनाम् एतेषामवर्णवादी, तथा 'मायी' स्वभावनिगू-5 हनादिना मायावान् एष कित्विषिकी भावनां करोतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ १३०२ ।। अथ व्यासार्थमाह काया वया य ते चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारिगाणं, जोइसजोणीहि किं च पुणो ॥ १३०३ ॥ . वादः इह केचिद् दुर्विदग्धाः प्रवचनाशातनापातकमगणयन्त इत्थं श्रुतस्यावणं ब्रुवते, यथा-षट्-10 जीवनिकायामपि षट् कायाः प्ररूप्यन्ते, शस्त्रपरिज्ञायामपि त एव, अन्येष्वप्यध्ययनेषु बहुशस्त एवोपवर्ण्यन्ते; एवं व्रतान्यपि पुनः पुनस्तान्येव प्रतिपाद्यन्ते; तथा त एव प्रमादा-ऽप्रमादाः पुनः पुनर्वर्ण्यन्ते, यथा-उत्तराध्ययनेषु आचाराङ्गे वा; एवं च पुनरुक्तदोषः । किञ्च यदि केवलस्यैव मोक्षस्य साधनार्थमयं प्रयासस्तर्हि 'मोक्षाधिकारिणां' साधूनां सूर्यप्रज्ञप्त्यादिना ज्योतिषशास्त्रेण योनिप्राभृतेन वा किं पुनः कार्यम् ? न किञ्चिदित्यर्थः । तेषामित्थं ब्रुवाणाना- 15 मिदमुत्तरम्-इह प्रवचने यत एव कायादयो भूयो भूयः प्ररूप्यन्ते तद् महता यत्नेनाऽमी परिपालनीयाः, इदमेव धर्मरहस्यमित्यादरातिशयख्यापनार्थत्वाद् न पुनरुक्तम् । यत उक्तम् अनुवादा-ऽऽदर-वीप्सा-भृशार्थ-विनियोग-हेत्वसूयासु । ईषत्सम्भ्रम-विस्मय-गणना-स्मरणेष्वपुनरुक्तम् ॥ - ज्योतिःशास्त्रादि च शिप्यप्रव्राजनादिशुभकार्योपयोगफलत्वात् परम्परया मुक्तिफलमेवेति न 20 कश्चिद् दोषः ॥ १३०३ ॥ गतो ज्ञानावर्णवादः । अथ केवल्यवर्णवादमाह____एगंतरमुप्पाए, अन्नोन्नावरणया दुवेण्हं पि। . केवल्य__केवलदसण-णाणाणमेगकाले व एगत्तं ॥ १३०४ ॥ . वर्णवादः .. इह केवलिनामवर्णवादो यथा-किमेषां ज्ञान-दर्शनोपयोगौ क्रमेण भवतः ? उत युगपत् । यद्याद्यः पक्षस्ततो यं समयं जानाति तं समयं न पश्यति यं समयं पश्यति तं समयं न जानाती-23 त्येवमेकान्तरिते उत्पादे 'द्वयोरपि' केवलज्ञान-दर्शनयोरन्योन्यावरणता भवेत् , ज्ञानावरण-दर्शनावरणयोः समूलका कषितत्वाद् अपरस्य चाऽऽवारकस्याऽभावात् परम्परावारकतैवानयोः प्राप्नोतीति भावः । अथ युगपदिति. द्वितीयः पक्षः कक्षीक्रियते सोऽपि न क्षोदक्षमः, कुतः ? इत्याह--'एककाले' युगपद् उपयोगद्वयेऽङ्गीक्रियमाणे वाशब्दः पक्षान्तरद्योतनार्थः 'द्वयोरपि' साकारा-ऽनाकारोपयोगयोरेकत्वं प्रामोति, तुल्यकालभावित्वादिति । अत्रोत्तरम्-इह तथाजीव- 30 खाभाव्यादेव सर्वस्यापि केवलिन एकस्मिन् समये एकतर एवोपयोगो भवति न द्वौ, "सवस्स १ स्वशक्तिनिगू भा० विना ॥ २°ल्विषीं भाव भा० ॥ ३°भावित्वेन परस्परं संलु लितत्वादिति भा० ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादः 15 ४०२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ केवलिस्सा, जुगवं दो नत्थि उवओगा" (विशे० गा० ३०९६) इति वचनात् । यथा चायमेक एवैकसमये उपयोग उपपद्यते तथा विशेषावश्यकादिषु (गाथा ३०८८-३१३४) श्रीजिनभद्रक्षमाश्रमणादिभिः पूर्वसूरिभिः सप्रपञ्चमुपदर्शित इति नेहोपदीते, ग्रन्थगौरवभयात् । द्वितीयपक्षानुपपत्तिनोदना त्वनभ्युपगतोपालम्भत्वादाकाशरोमन्थनमिव केवलं भवतः 5 प्रयासकारिणीति ॥ १३०४ ॥ अथ धर्माचार्यावर्णवादमाहधर्माचार्या जचाईहिँ अवनं, भासइ वट्टइ न यावि उववाए । वर्णवादः अहितो छिद्दप्पेही, पगासवादी अणणुकूलो ॥ १३०५॥ जात्या आदिशब्दात् कुलादिभिश्च सद्भिरसद्भिर्वा दोषैरवण भाषते, यथा-नैते विशुद्धजाति-कुलोत्पन्नाः, न वा लोकव्यवहारकुशलाः, नाप्येते औचित्यं विदन्तीत्यादि । न चापि 10 वर्तते 'उपपाते' गुरूणां सेवावृत्तौ, 'अहितः' अनुचितविधायी, 'छिद्रप्रेक्षी' मत्सरितया गुरोदोषस्थाननिरीक्षणशीलः, 'प्रकाशवादी' सर्वसमक्षं गुरुदोषभापी, 'अननुकूलः' गुरूणामेव प्रत्यनीकः कूलवालकवत् , एष धर्माचार्यावर्णवादः ॥ १३०५ ॥ अथ सर्वसाधूनामवर्णवादमाहसाध्ववर्ण अविसहणाऽतुरियगई, अणाणुवत्तीय अवि गुरूणं पि । खणमित्तपीइ-रोसा, गिहिवच्छलकाऽइसंचइआ ॥ १३०६ ॥ अहो ! अमी साधवः ‘अविषहणाः' न कस्यापि पराभवं सहन्ते, अपि तु खपक्ष-परपक्षापमाने सञ्जाते सति देशान्तरं गच्छन्ति, "तुरियगइ" त्ति अकारप्रश्लेषाद् 'अत्वरितगतयः' मायया लोकावर्जनाय मन्दगामिनः, 'अननुवर्तिनः' प्रकृत्यैव निष्ठुराः 'गुरूणामपि' महतामपि, आस्तां सामान्यलोकस्येत्यपिशब्दार्थः, द्वितीयोऽपिशब्दः सम्भावनायाम् , सम्भाव्यन्त एवंविधा 20 अपि साधव इति, क्षणमात्रप्रीति-रोषाः' तदैव रुष्टास्तदैव च तुष्टा अनवस्थितचित्ता इत्यर्थः, 'गृहि वत्सलाः' तैस्तैश्चाटुवचनैरात्मानं गृहस्थस्य रोचयन्ति, 'अतिसञ्चयिनः' सुबहुवस्त्र-कम्बल्यादिसङ्घहशीलाः लोभबहुला इति भावः । अत्र निर्वचनानि-इह साधवः खपक्षाद्यपमाने यद् देशान्तरं गच्छन्ति तद् अप्रीतिक-परोपतापादिभीरुतया न पराभवासहिष्णुतया, अत्वरितगतयोऽपि स्थावर त्रसजन्तुपीडापरिहारार्थ न तु लोकरञ्जनार्थम् , अननुवर्तिनोऽपि संयमबाधाविधायिन्या अनुवर्त25 नाया अकरणात् न प्रकृतिनिठुरतया, क्षणमात्रप्रीति-रोषा अपि प्रतनुकषायतया नानवस्थितचि ततया, गृहिवत्सला अपि 'कथं नु नामामी धर्मदेशनादिना यथाऽनुरूपोपायेन धर्म प्रतिपद्येरन् ?' इति बुद्ध्या न पुनश्चाटुकारितया, सञ्चयवन्तोऽपि ‘मा भूद् उपकरणाभावे संयम-प्रवचना-ऽऽत्मविराधना' इति बुद्ध्या न तु लोभबहुलतयेति ॥ १३०६॥ अथ मायिद्वारमाह गृहइ आयसभावं, घाएइ गुणे परस्स संते वि। चोरो व्य सव्वसंकी, गूढायारो वितहभासी ॥१३०७॥ _ 'गृहति' संवृणोति ‘आत्मस्वभावम्' आत्मनः सम्बन्धिनं दुष्टपरिणाम बहिर्बकवृत्त्या, तथा परस्य सम्बन्धिनः ‘गुणान्' ज्ञानादीन् सतोऽप्यभिनिवेशादिना घातयति, चौर इव 'सर्वशङ्की' प्रच्छन्नपापकारितया 'अमुकोऽमुकश्च मत्समक्षमित्थं भणिष्यति' इति सर्वस्यापि शङ्कां करोति, मायी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौतुकम् । भाष्यगाथाः १३०५-१२] प्रथम उद्देशः । ४०३ गूढः-मायाग्रन्थिगुपिल आचारः-प्रवृत्तिर्यस्य स गूढाचारः, 'वितथभाषी' मृषाभाषणशीलः, एष मायी द्रष्टव्य इति ।। १३०७ ।। उक्ता कैल्विषी भावना । अथाभियोगीमाहकोउअ भूई पसिणे, पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी । आभियोगी भावना इडि-रस-सायगुरुतो, अभिओगं भावणं कुणइ ॥ १३०८ ॥ ऋद्धि-रस-सातगुरुकः सन् यः कौतुकाजीवी भूतिकर्माजीवी प्रश्नाजीवी प्रश्नप्रश्नाजीवी निमित्ताजीवी च भवति स एवंविध आभियोगी भावनां करोतीति ॥ १३०८ ॥ कौतुकादिपदव्याख्यानार्थमाह विण्हवण-होम-सिरपरिरयाइ खारदहणाइँ धूवे य। असरिसवेसग्गहणं, अवयासण-उत्थुमण-बंधा ॥ १३०९ ॥ वालादीनां रक्षादिनिमित्तं स्त्रिया वा सोभाग्यादिसम्पादनाय यद् विशेषेण स्नपनं तद् विस्नपनम्, 10 होमः- शान्तिकादिहेतोरमिहवनम् , शिरःपरिरयः-करभ्रमणाभिमन्त्रणम् , आदिशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः, 'क्षारदहनानि' तथाविधव्याधिशमनायानौ लवणप्रक्षेपरूपाणि, "धूवे अ" ति तथाविधद्रव्ययोगगर्भस्य धूपस्य समर्पणम् , 'असदृशवेषग्रहणं' नाम स्वयमार्यः सन्ननार्यवेषं करोति पुरुषो वा खं रूपमन्तर्हित्य स्त्रीवेषं विदधातीत्यादि, "अवयासणं" वृक्षादीनामालिङ्गापनम् , अवस्तोभनम्-अनिष्टोपशान्तये निष्ठीवनेन थुथुकरणम् , बन्धः-कण्डकादिबन्धनम् , एतत् सर्व-15 मपि कौतुकमुच्यते ॥ १३०९ ॥ अथ भूतिकर्म व्याचष्टेभूईऍ मट्टियाएँ व, सुत्तेण व होइ भूइकम्मं तु ।। भूतिकर्म वसही-सरीर-भंडगरक्खाअभियोगमाईया ॥ १३१०॥ 'भूत्या' भस्मरूपया विद्याभिमन्त्रितया 'मृदा वा' आर्द्रपांशुलक्षणया 'सूत्रेण वा' तन्तुना यत् परिरयवेष्टनं तद् भूतिकर्मोच्यते । किमर्थमेवं करोति ? इत्याह-~-वसति-शरीर-भाण्डकानां या 20 स्तेनाद्युपद्रवेभ्यो रक्षा तन्निमित्तमभियोगः-वशीकरणम् , आदिशब्दाद् ज्वरादिस्तम्भनपरिग्रहः ॥ १३१० ॥ अथ प्रश्नमाह पण्हो उ होइ पसिणं, जं पासइ वा सयं तु तं पसिणं । अंगुढच्चिट्ठ-पडे, दप्पण-असि-तोय-कुड्डाई ॥१३११ ॥ ___ 'प्रश्नस्तु' देवतादिपृच्छारूपः पसिणं भण्यते; यद्वा यत् 'वयम्' आत्मना तुशब्दादन्येऽपि 25 तत्रस्थाः पश्यन्ति तत् पसिणं प्राकृतशैल्याऽभिधीयते । किं तत् ? इत्याह–अङ्गुष्ठे "उचिट्ट" ति कंसारादिभक्षणेनोच्छिष्टे पटे-प्रतीते दर्पणे-आदर्श असौ-खड्ने तोये-उदके कुड्ये-भित्तौ आदिशब्दाद् बाहादौ वा यद् देवतादिकमवतीर्ण पृच्छति पश्यति वा स प्रश्नः । यदि वा "कुद्धाइ" त्ति पाठः, तत्र च क्रुद्धः प्रशान्तो वा यत् तथाविधकल्पविशेषात् पश्यति स प्रश्न इति ॥ १३११ ॥ प्रश्नप्रश्नमाह पसिणापसिणं सुमिणे, विजासिटुं कहेइ अन्नस्स । अहवा आइंखिणिया, घंटियसिढे परिकहेइ ॥ १३१२ ॥ १ वृथाभा मो० ले० ॥ २ च स ए° त० डे० विना ॥ . प्रश्नः 30 प्रश्नाप्रश्नः Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ . यत् स्वप्नेऽवतीर्णया विद्यया-विद्याधिष्ठाच्या देवतया शिष्टं-कथितं सद् 'अन्यस्मै' प्रच्छकाय कथयति; अथवा “आइंखिणिया" डोम्बी तस्याः कुलदैवतं घण्टिकयक्षो नाम स पृष्टः सन् कर्णे कथयति, सा च तेन शिष्टं-कथितं सदन्यस्मै पृच्छकाय शुभा-ऽशुभादि यत् परिकथयति एप प्रभप्रश्नः ॥ १३१२ ॥ निमित्तमाहनिमित्तम् । तिविहं होइ निमित्तं, तीय-पडप्पन्न-ऽणागयं चेव । तेण न विणा उ नेयं, नजइ तेणं निमित्तं तु ।। १३१३ ॥ त्रिविधं भवति निमितम् । तद्यथा--अतीतं प्रत्युत्पन्नमनागतं च । कालत्रयवर्तिलाभाऽलाभादिपरिज्ञानहेतुश्चूडामणिप्रभृतिकः शास्त्रविशेष इत्यर्थः । कुतः ? इत्याह-'तेन' विवक्षितशास्त्रविशेषेण विना 'ज्ञेयं' लाभा-ऽलाभादिकं न ज्ञायत इति लाभा-ऽलाभादिज्ञाननिमित्तत्वाद् 10 निमित्तमुच्यते । एतानि कौतुकादीनि य आजीवति स तत्तदानीवको मन्तव्य इति ॥१३१३॥ अथ 'ऋद्धि-रस-सातगुरुकः' (गा० १३०८ ) इतिपदव्याख्यानार्थमाह एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो आभिओगियं बंधे । वीयं गारवरहिओ, कुव्वं आराहगुचं च ॥ १३१४ ॥ 'एतानि' कौतुकादीनि ऋद्धि-रस-सातगौरवार्थ 'कुर्वाणः' प्रयुञ्जानः सन् 'आभियोगिकं' 15 देवादिप्रेप्यकर्मव्यापारफलं कर्म बध्नाति । 'द्वितीयम्' अपवादपदमत्र भवति-गौरवरहितः सन्नतिशयज्ञाने सति निस्पृहवृत्त्या प्रवचनप्रभावनार्थमेतानि कौतुकादीनि कुर्वन्नाराधको भवति उच्चैर्गोत्रं च कर्म बध्नाति, तीर्थोन्नतिकरणादिति ॥ १३१४ ॥ गता आभियोगिकी भावना । अथाऽऽसुरीमाह - आमुरी अणुबद्धविग्गहो चिय, संसत्ततो निमित्तमाएसी। निक्किच निराणुकंपो, आसुरियं भावणं कुणइ ॥ १३१५ ॥ ___अनुबद्धविग्रहः संसक्ततपा निमित्तादेशी निष्कृपो निरनुकम्पः सन् आसुरीं भावनां करोतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ १३१५ ॥ विस्तरार्थमाह - अनुबद्ध निचं वुग्गहसीलो, काऊण य नाणुतप्पए पच्छा। विप्रहः न य खामिओ पसीयइ, सपक्ख-परपक्खो आवि ।। १३१६ ॥ 25 'नित्यं सततं 'विग्रहशीलः' कलहकरणखभावः । कृत्वा च कलहं नानुतप्यते पश्चात् , यथा—हा ! किं कृतं मया पापेन ? इति । तथा 'क्षामितोऽपि' 'क्षम्यतां ममायमपराधः' इति भणितोऽपि खपक्ष-परपक्षयोरपि 'न च' नैव 'प्रसीदति' प्रसन्नतां भजते, तीव्रकपायोदयत्वात् । अत्र च खपक्षः साधु-साध्वीवर्गः, परपक्षो गृहस्थवर्गः । एपोऽनुबद्धविग्रह उच्यते ॥१३१६॥ अथ संसक्ततपसमाहा संसक्त- 30 आहार-उवहि-पूयासु जस्स भावो उ निचसंसत्तो । भावोवहतो कुणइ अ, तवोवहाणं तदट्ठाए ॥ १३१७॥ आहारोपधि-पूजासु यस्य भावः' परिणामः 'नित्यसंसक्तः' सदाप्रतिबद्धः स एवं रसगौरवा१ विग्गह° त० डे० ता० ॥ २°ओ वा वि भा० विना । भावना 20 तपाः Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १३१३-२२ ] प्रथम उद्देशः । ४०५ दिना भावेनोपहतः करोति 'तपउपधानम्' अनशनादिकं 'तदर्थम् आहाराद्यर्थं यः संसक्ततपा इति ॥ १३१७ ॥ निमित्तादेशिनमाह तिविह निमित्तं एकेक छव्विहं जं तु वन्नियं पुत्रि । अभिमाणाभिनिवेसा, वागरियं आसुरं कुणइ ॥ १३१८ ।। 'त्रिविधम्' अतीतादिकालत्रयविषयं यत् पूर्वमिहैवाभियोगिकभावनायां ( गाथा १३१३ ) 5 वर्णितं तद् एकैकं 'षडिधं' लाभा - ऽलाभ -सुख-दुःख जीवित-मरणविषयभेदात् षट्प्रकारम् । आह आभियोगिकभावनानिबन्धनतया पूर्वमिदमुक्तम् अतः कथमिदमिहाभिधीयते ? इत्याह – 'अभिमानाभिनिवेशाद्' अहङ्कारतीत्रतया 'व्याकृतं' प्रकटितमेतद् निमित्तमासुरीं भावनां करोति, अन्यथा त्वाभियोगिकीमिति ॥ १३१८ ॥ निष्कृपमाह - चंक्रमणाई सत्तो, सुनिक्कियो थावराइसत्तेसु । काउं च नाणुतप्पड़, एरिसओ निकिवो होड़ ॥ १३१९ ॥ स्थावरादिसत्त्वेषु चङ्क्रमणं - गमनं आदिशब्दात् स्थान - शयना - Ssसनादिकं 'सक्तः ' कचित् कार्यान्तरे व्यासक्तः सन् 'सुनिष्कृपः ' मुष्ठुगतघृणो निःशूकः करोतीति शेषः । कृत्वा च तेषु चमणादिकं नानुतप्यते, केनचिद् नोदितः सन् पश्चात्तापपुरस्सरं मिथ्यादुष्कृतं न ददातीत्यर्थः । ईदृशो निष्कृपो भवति, इदं निष्कृपस्य लक्षणमिति भावः ॥ १३१९ || निरनुकम्पमाह— 15 जो उ परं कंपतं, दद्दूण न कंपए कढिणभावो । एसो उ निरणुकंप, अणु पच्छाभावजोएणं ।। १३२० ।। 10 निष्कृपः यस्तु 'परं' कृपास्पदं कुतश्चिद् भयात् कम्पमानमपि दृष्ट्वा कठिनभावः सन् न कम्पते एष निरनुकम्पः । कुतः ? इत्याह- अनुशब्देन पश्चाद्भाववाचकेन यो योगः - सम्बन्धस्तेन, किमुक्तं भवति ? – अनु – पश्चाद् दुःखितसत्त्वकम्पनादनन्तरं यत् कम्पनं सा अनुकम्पा, निर्गता अनुकम्पा 20 अस्मादिति निरनुकम्प उच्यते ॥ १३२० ॥ उक्ता आसुरी भावना । सम्प्रति साम्मोहीमाहउम्मग्गदेसणा १ मग्गदूसणा २ मग्गविप्पडीवत्ती ३ । मोहेण य ४ मोहित्ता ५, सम्मोहं भावणं कुणइ ।। १३२१ ।। उन्मार्गदेशना १ मार्गदूषणा २ मार्गविप्रतिपत्तिश्च ३ यस्य भवतीति वाक्यशेषः, मोहेन च यः स्वयं मुह्यति ४, एवं कृत्वा परं च मोहयित्वा ५ साम्मोहीं भावनां करोतीति' निर्युक्ति - 25 गाथासमासार्थः ॥ १३२१ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह नाणां अदुसिंतो, तव्विवरीयं तु उवदिसह मग्गं । उम्मर देसओ एस आय अहिओ परेसिं च ॥ १३२२ ॥ निमित्ता देशी 'ज्ञानादीनि' पारमार्थिकमार्गरूपाण्यदूषयन् 'तद्विपरीतं' ज्ञानादिविपरीतमेवोपदिशति 'मार्ग' धर्मसम्बन्धिनम्, एष उन्मार्गदेशकः । अयं चात्मनः परेषां च बोधिबीजोपघातादिना ' अहितः ' 30 प्रतिकूल इत्येषा उन्मार्गदेशना || १३२२ ॥ अथ मार्गदूषणामाह १ °ति गाथा भा० कां० ॥ २ णादी दूतो ता० ॥ ३ सणा एस ता० ॥ निरनुकम्पः साम्मोही भावना उन्मार्ग देशना Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ मार्गदूषणा नाणादि तिहा मग्गं, दूसयए जे य मग्गपडिवन्ना । अवुहो पंडियमाणी, समुद्वितो तस्स घायाए ॥ १३२३ ॥ ज्ञानादिकं 'त्रिधा' त्रिविधं पारमार्थिक मार्ग खमनीषिकाकल्पितैर्जातिदूषणैर्दूषयति, ये च तस्मिन् मार्गे प्रतिपन्नाः साध्वादयस्तानपि दूषयति, 'अबुधः' तत्त्वपरिज्ञानविकलः, 'पण्डितमानी' 5 दुर्विदग्धः, 'समुत्थितः' उद्यतः 'तस्य' पारमार्थिकमार्गस्य 'घाताय' निर्लोठनायेति, एषा मार्ग दूषणा ।। १३२३ ॥ मार्गविप्रतिपत्तिमाहमार्गविप्र जो पुण तमेव मग्गं, दूसेउमपंडिओ सतक्काए । तिपत्तिः उम्मग्गं पडिवाइ, अकोविअप्पा जमालीव ॥ १३२४ ॥ यः पुनः 'तमेव' पारमार्थिकं मार्गमसद्भिर्दूषणैर्दूषयित्वा 'अपण्डितः' सदद्धिरहितः सन् 10 'खतर्कया' स्वकीयमिथ्याविकल्पेन देशत उन्मार्ग प्रतिपद्यते 'अकोविदात्मा' सम्यक् शास्त्रार्थपरिज्ञानविकलो जमालिवत् , यथाऽसौ भगवद्वचनं "क्रियमाणं कृतम्" इति दूषयित्वा "कृत मेव कृतम्" इति प्रतिपन्नवान् । एषा मार्गविप्रतिपत्तिः ॥ १३२४ ॥ अथ मोहद्वारमाहमोहः भावोवहयमईओ, मुज्झइ नाण-चरणंतराईसु । इड्डीओ अ बहुविहा, दटुं परतित्थियाणं तु ॥ १३२५ ॥ 15 भावेन-शङ्कादिपरिणामेनोपहता-दूषिता मतिर्यस्य स भावोपहतमतिकः एवंविधः 'मुह्यति' वैचित्त्यमुपयाति ज्ञान-चरणान्तरादिषु । ज्ञानान्तराणि नाम ज्ञानविशेषाः, तद्विषयो व्यामोहो यथा-यदि नाम परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसानविषयग्राहकत्वेन सङ्ख्यातीतरूपाण्यवधिज्ञानानि सन्ति तत् किमपरेण मनःपर्यज्ञानेन ? इति । चरणान्तरव्यामोहो यथा-यदि सामायिक सर्वसावद्यविरतिरूपं छेदोपस्थापनीयमप्येवंविधमेव तत् को नामानयोर्विशेषः ? आदिशब्दाद् 20दर्शनान्तर-मतान्तर-वाचनान्तरादिपरिग्रहः । 'ऋद्धीश्च बहुविधाः' अनेकप्रकाराः समृद्धीः पर तीथिकानां दृष्ट्वा यद् मुह्यति स मोह उच्यते ॥ १३२५ ॥ अथ परं मोहयित्वेति व्याचष्टेपरमोहकः जो पुण मोहेइ परं, सम्भावेणं व कइअवेणं वा । सम्मोहभावणं सो, पकरेइ अबोहिलाभाय ॥ १३२६ ॥ पुनःशब्दो विशेषणे, यः पुनः सन्मार्गात् 'परम्' अन्यं प्राणिनं 'मोहयति' चित्तविभ्रमं 25 नयति 'सद्भावेन वा' सत्येनैव कैतवेन वा' परिकल्पनया स सम्मोहभावनां प्रकरोति 'अबोधिलाभाय' अयोधिफलदायिनीमित्यर्थः ॥१३२६ ॥ उक्ता साम्मोही भावना । अथाऽऽसां भावनानां सामान्यतः फलमाह एआओं भावणाओ, भाविता देवदुग्गइं जंति । तत्तो वि चुया संता, परिंति भवसागरमणंतं ॥ १३२७ ॥ 30 एता भावनाः 'भावयित्वा' अभ्यस्य 'देवदुर्गतिं 'कान्दर्पिकादिदेवगतिरूपां यान्ति संयता अपि । 'ततोऽपि' देवदुर्गतेश्युताः सन्तः पर्यटन्ति 'भवसागरं' संसारसमुद्रमनन्तमिति ॥१३२७॥ उक्ता अप्रशस्ता भावनाः । सम्प्रति प्रशस्तभावना अभिधिसुराह१ दूसेतो जे ता॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १३२३-३२ ] प्रथम उद्देशः । वेण सत्तेण सुत्ते, एगत्तेण बलेण य । ( ग्रन्थाग्रम् - ६००० ) तुलणा पंचहा बुत्ता, जिणकप्पं पडिवज्जओ ॥ १३२८ ॥ तपसा सत्त्वेन सूत्रेण एकत्वेन बलेन च एवं 'तुलना' भावना पञ्चधा प्रोक्ता जिनकल्यं प्रतिपद्यमानस्येतिं निर्युक्तिगाथासमासार्थः || १३२८ ॥ अथ विस्तरार्थमभिधित्सुराह— जो जेण अणग्भत्थो, पोरिसिमाई तो उ तं तिगुणं । कुण छुहाविजयट्ठा, गिरिनइसीहेण दिहंतो ।। १३२९ ॥ यद् येन पौरुप्यादिकं तपः 'अनभ्यस्तं ' सात्मीभावमनानीतं तत् 'त्रिगुणं' त्रीन् वारान् करोति । यथा—प्रथमं पौरुषीं वारत्रयासेवनेन सात्मीभावमानीय ततः पूर्वार्द्धं तथैवासेव्य सात्मीभावमानयति; एवं निर्विकृतिकादिष्वपि द्रष्टव्यम् । किमर्थम् ? इत्याह- क्षुद्विजयार्थम्, यथा क्षुत्पषहसहने सात्म्यं भवतीत्यर्थः । 10 अत्र च गिरिनदीसिंहेन दृष्टान्तः - यथाऽसौ पूर्णां गिरिनदीं तरन् परतटे चिह्नं करोति, यथा- - अमुकप्रदेशे वृक्षाद्युपलक्षिते मया गन्तव्यमिति, स च तरन् तीक्ष्णेनोदकवेगेनापहियते ततो व्यावृत्त्य भूयः प्रगुणमेवोत्तरति, यदि द्वियते ततो भूयस्तथैवोत्तरति, एवं यावत् सकलामपि गिरिनदीं प्रगुणमेवोत्तरीतुं न शक्नोति तावत् तदुत्तरणाभ्यासं न मुञ्चति । एवमयमपि यावद् विवक्षितं तपः सात्मीभावं न याति तावत् तदभ्यासं न मुञ्चति ॥ १३२९ ॥ एतदेवाह - एकं ताव तवं, करे जह तेण कीरमाणेणं । 15 हाणी न हो जइआ, वि होज छम्मासुवस्सग्गो ॥ १३३० ॥ एकैकं तपस्तावत् करोति यथा 'तेन' तपसा क्रियमाणेनापि विहितानुष्ठानस्य हानिर्न भवति । यदाऽपि कथञ्चिद् भवेत् षण्मासान् यावत् ' उपसर्गः ' देवादिकृतोऽनेषणीयकरणादिरूपस्तदाऽपि षण्मासान् यावदुपोषित आस्ते न पुनरनेषणीयमाहारं गृह्णाति ॥ १३३० ॥ तपस एव गुणान्तरमाह ――― ४०७ प्रशस्ता भावनाः १ °ति समा भा० कां० ॥ २ एवमेकाशन निर्वि भा० विना ॥ ३°ए वा वि ता० बिना ॥ ४ " तवभावणाए• गाहा । सो इंदियाई वसे काउं, जोगा इति वा करणाणि त्ति वा एगट्ठ, जो इंदियस्स समा. हिजोगाओ काउं सक्केइ सो इंदियजोगायरिओ, सो इंदियस्स समाहिकरणाणि कारेति ।” इति विशेषचून ॥ 5 तपोभावना 20 अप्पाहारस्सन इंदियाइँ विसएस संपवत्तंति । नेव किलम्म तवसा, रसिएसु न सजाएँ यावि ॥ १३३१ ॥ तपसा क्रियमाणेनाल्पाहारस्य सतो नेन्द्रियाणि 'विषयेषु' स्पर्शादिषु सम्प्रवर्त्तन्ते, न च 'क्लाम्यति' बाधामनुभवति तपसा, नैव च 'रसिकेषु' स्निग्ध-मधुरेष्वशनादिषु 'सजति' सङ्गं 25 करोति, तेषु परिभोगाभावेनादराभावात् ॥ १३३१ ॥ अपि च तवभावणाई पंचिंदियाणि दंताणि जस्स वसमिति । इंदियजग्गा (गा ) यरिओ, समाहिकरणाइँ कारयए ।। १३३२ ॥ तपोभावनया हेतुभूतया 'पञ्च' इति पञ्च सङ्ख्याकानीन्द्रियाणि दान्तानि सन्ति यस्य "वंशम् आयत्ततामागच्छन्ति सः 'इन्द्रिययोग्या (गा)चार्यः' इन्द्रियप्रगुणनक्रियागुरुः 'समाधिकरणानि ' 90 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्वभावना १०८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ समाधिव्यापारान् कारयति इन्द्रियाणि, यथा यथा ज्ञानादिषु समाधिरुत्पद्यते तथा तथा तानि कारयतीत्यर्थः ॥ १३३२ ॥ उक्ता तपोभावना । अथ सत्त्वभावनामाह जे वि य पुचि निसि निग्गमेसु विसहिंसु साहस-भयाई । अहि-तकर-गोवाई, विसिंसु घोरे य संगामे ॥ १३३३ ॥ 5 येऽपि च राजपत्रजितादयः पूर्वं गृहवासे 'निशि' रात्रौ वीरचर्यादिना निर्गमेषु साध्वसम्अहेतुकभयरूपं भयं-सहेतुकं ते अहि-तस्कर-गोपादिसम्बन्धिनी 'व्यषहन्' विषोढवन्तः, घोरे च सङ्ग्रामे सात्त्विकतया "विसिंसु"त्ति प्राविशन् तेऽपि जिनकल्पं प्रतिपित्सवः सत्त्वभावनामवश्यं भावयन्ति ॥ १३३३ ॥ कथम् ? इति चेद् उच्यते-- पासुत्ताण तुयट्ट, सोयव्यं जं च तीसु जामेसु । थोवं थोवं जिणइ उ, भयं च जं संभवइ जत्थ ॥ १३३४ ॥ यत् स्थविरकल्पिकानां पार्थत उत्तानकं वा त्वग्वर्तनम् , यच्च कारणे त्रिपु 'यामेपु' प्रहरेपु 'सुप्तव्यं' शयनम् , कारणाभावे तु यत् तृतीयप्रहरे सुप्तव्यं तत् सर्वमपि स्तोकं स्तोकं जयति शनैः शनैरित्यर्थः, 'भयं च' मूषिकादिजनितं यद् 'यत्र' उपाश्रयादिषु सम्भवति तत् तत्र जयति ॥१३३४॥ अत्र च सत्त्वभावनायां पञ्च प्रतिमा भवन्ति । ता एवाहसत्त्वभावना 15 पदमा पढमा उवस्सयम्मी, विइया बाहिँ तइया चउक्कम्मि । भ्यासार्थ सुन्नघरम्मि चउत्थी, तह पंचमिया सुसाणम्मि ॥ १३३५ ॥ प्रतिमापञ्चकम् प्रथमा प्रतिमा उपाश्रये १ द्वितीया उपाश्रयाद् बहिः २ तृतीया 'चतुप्के' चत्वरे ३ चतुर्थी शून्यगृहे ४ पञ्चमी श्मशाने ५ ॥ १३३५ ॥ तत्र प्रथमां तावदाह भोगजढे गंभीरे, उव्वरए कोट्ठए अलिंदे वा । . तणुसाइ जागरो वा, झाणट्टाए भयं जिणइ ॥ १३३६ ॥ __ "भोगजढे" अपरिभोग्ये 'गम्भीरे' सान्धकारे उपाश्रयसत्केऽपवरके वा कोष्ठके वा अलिन्दके वा 'तनुशायी' स्तोकनिद्रावान् 'जाग्रद्वा' निद्रामकुर्वन् 'ध्यानार्थ' शुभाध्यवसायस्थैर्यहेतोः प्रसुतेषु शेषसाधुषु कायोत्सर्गस्थितो भयं जयति ॥ १३३६ ॥ कथम् ? इत्याह छिकस्स व खइयस्स व, मृसिगमाईहिँ वा निसिचरेहिं । जह सहसा न वि जायइ, रोमंचुब्भेय चाडो वा ॥ १३३७ ॥ ___ स्पृष्टस्य वा खादितस्य वा मूषकैः आदिग्रहणाद् मार्जारादिभिः 'निशाचरैः' रात्रिपरिभ्रमणशीलैः यथा सहसा नापि जायते 'रोमाञ्चोद्भेदः' भयोद्रेकजनितो रोमोद्धर्षः 'चांडो' वा पलायनं तथा सत्त्वभावनयाऽऽत्मा भावयितव्यः ॥ १३३७ ॥ उक्ता प्रथमा प्रतिमा । अथ द्वितीयादिकाश्चतस्रोऽप्यतिदिशन्नाह30 सविसेसतरा वाहि, तकर-आररिख-गावयाईया । सुण्णघर-सुसाणेसु य, सविसेसतरा भवे तिविहा ॥ १३३८ ॥ यान्युपाश्रयप्रतिमायां भयान्युक्तानि तान्युपाश्रयाद् बहिः प्रतिमायां सविशेषतराणि तस्करा१°शानगृहे भा०॥ २ "चाडो णासणं" इति चूणो विशेषचूर्णी च ॥ 25 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रभावना भाप्यगाथाः १३३३-४४] प्रथम उद्देशः । ४०९ ऽऽरक्षिक-श्वापदादिभयसहितानि मन्तव्यानि । शून्यगृह-श्मशानयोः चशब्दात् चतुष्के च सविशेषतराणि 'त्रिविधानि' दिव्य-मानुष्य-तैरश्वोपसर्गरूपाणि भयानि भवन्ति, तान्यपि, सम्यग् जयतीति प्रक्रमः ॥ १३३८ ॥ अस्या एव भावनायाः फलमाह देवेहि भेसिओ वि य, दिया व रातो व भीमरूवेहिं । तो सत्तभावणाए, वहइ भरं निभओ सयलं ॥ १३३९ ॥ तत एवं सत्त्वभावनया स्वभ्यस्तया दिवा वा रात्रौ वा भीमरूपैर्देवैर्भेषितोऽपि 'भरं' जिनकल्पभारं सकलमपि निर्भयः सन् वहतीति ॥ १३३९ ॥ गता सत्त्वभावना । अथ सूत्रभावनामाह जइ वि य सनाममिव परिचियं सुअं अणहिय-अहीणवन्नाई। कालपरिमाणहेउं, तहा वि खलु तज्जयं कुणइ ॥१३४०॥ यद्यपि स्वनामेव तस्य श्रुतं परिचितम् 'अनधिका-ऽहीनवर्णादि' अनत्यक्षरं अहीनाक्षरम् 10 आदिशब्दाद् अव्याविद्धाक्षरादिगुणोपेतं च तथापि कालपरिमाणहेतोः 'तज्जयं' श्रुताभ्यासं करोति ॥ १३४० ॥ कथम् ? इति चेद् उच्यते उस्सासाओ पाणू, तओ य थोत्रो तओ वि य मुहत्तो। मुहत्तेहिं पोरिसीओ, जाणेइ निसा य दिवसा य ॥ १३४१ ॥ श्रुतपरावर्तनानुसारेणैव सम्यगुच्छासमानं कलयति, तत उच्छ्वासात् 'प्राणः' उच्छास-15 निःश्वासात्मकः, ततश्च प्राणात् 'स्तोकः' सप्तप्राणमानः, ततोऽपि च स्तोकाद् 'मुहूर्तः' घटिकाद्वयमानः, मुहूर्तश्च पौरुष्यस्तेन भगवता ज्ञायन्ते, ताभिश्च पौरुषीभिर्निशाश्च दिवसाँश्च जानाति ॥ १३४१॥ तथा मेहाईछन्नेसु वि, उभओकालमहवा उवस्सग्गे । पेहाइ भिक्ख पंथे, नाहिइ कालं विणा छायं ॥ १३४२ ॥ 20 मेघादिना च्छन्नेप्वपि-अनुपलक्ष्येषु विभागेपु 'उभयकालं' क्रियाणां प्रारम्भ-परिसमाप्तिरूपम् , अथवा 'उपसर्गे' दिव्यादौ दिवस-रजन्यादिव्यत्ययकरण लक्षणे प्रेक्षादेः--उपकरणप्रत्युपेक्षाया आदिशब्दादावश्यककरणादेः "भिक्ख" ति भिक्षायाः "पंथि" ति मार्गस्य विहारस्येत्यर्थः, एतेषां सर्वेषामपि यः कालस्तं छायां विना स्वयमेव ज्ञास्यति ॥ १३४२ ॥ अथ सूत्रभावनांया एव गुणानाह 25 ____एगग्गया सुमह निजरा य नेव मिणणम्मि पलिमंथो। न पराहीणं नाणं, काले जह मंसचक्खूगं.॥ १३४३ ॥ श्रुतपरावर्तनया चित्तस्यैकाग्रता भवति, सुमहती च निर्जरा भवति खाध्यायविधानप्रत्यया, नैव च्छायामापने 'पलिमन्थः' सूत्रार्थव्याघातलक्षणः, न च 'काले' पौरुप्यादिकालविषयं 'पराधीनं' सूर्यच्छायायत्तं ज्ञानम् यथा अन्येषां 'मांसचक्षुषां' छमस्थानां साधूनाम् ॥१३४३।। उपसंहरन्नाह - 30 सुयभावणाएँ नाणं, दंसण तवसंजमं च परिणमइ । तो उवओगपरिणो, सुयमव्वहितो समाणेइ ॥ १३४४ ॥ १ °हुतेहिं ता० ॥ २ °मानस्तेन ज्ञायते, मुहूर्तश्च पौरुषीविजानाति, ताभिश्च भा० ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना ४१० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ __ श्रुतभावनया आत्मानं भावयन् ज्ञानं दर्शनं तपःप्रधानं च संयमं सम्यक् परिणमयति । ततः 'उपयोगपरिज्ञः' श्रुतोपयोगमात्रेणैव कालपरिज्ञाता "सुतं" ति श्रुतभावनामव्यथितः सन् समापयतीति ॥ १३४४ ॥ गता सूत्रभावना । अथैकत्वभावनामाहएकल जह वि य पुव्वममत्तं, छिन्नं साहूहिँ दारमाईसु । आयरियाइममत्तं, तहा वि संजायए पच्छा ॥ १३४५॥ यद्यपि च पूर्व-गृहवासकालभावि ममत्वं साधुभिः दाराः-कलत्रं तेषु आदिग्रहणात् पुत्रादिषु च्छिन्नमेव तथाप्याचार्यादिविषयं ममत्वं ‘पश्चात्' प्रव्रज्यापर्यायकाले सञ्जायते ॥ १३४५ ।। __ तच्च कथं परिहापयितव्यम् ? उच्यते दिद्विनिवायाऽऽलाये, अवरोप्परकारियं सपडिपुच्छं । 10 - परिहास मिहो य कहा, पुवपवत्ता परिहवेइ ॥ १३४६ ॥ गुर्वादिषु ये पूर्व दृष्टिनिपाताः-सस्निग्धावलोकनानि ये च तैः सहाऽऽलापास्तान् , तथा 'परस्परोपकारिता' मिथो भक्त-पानदान-ग्रहणाद्युपकारम् , 'सप्रतिपृच्छं' सूत्रार्थादिप्रतिपृच्छया सहितं 'परिहार्स' हास्यं 'मिथः कथाश्च' परस्परवार्ताः पूर्वप्रवृत्ताः सर्वा अपि परिहापयति ॥ १३४६ ॥ ततश्च15 तणुईकयम्मि पुव्वं, बाहिरपेम्मे सहायमाईसु । आहारे उवहिम्मि य, देहे य न सज्जए पच्छा ॥ १३४७॥ संहायः-सङ्घाटिकसाधुस्तद्विषये आदिशब्दादाचार्यादिविषये च बाह्यप्रेमणि पूर्व 'तनुकीकृते' परिहापिते सति ततः पश्चादाहारे उपधौ देहे च 'न सजति' न ममत्वं करोति ॥ १३४७ ॥ __ ततः किं भवति ? इत्याह पुचि छिन्नममत्तो, उत्तरकालं वैविजमाणे वि । साभाविय इअरे वा, खुब्भइ दटुं न संगइए ॥ १३४८॥ पूर्व 'छिन्नममत्वः' 'सर्वेऽपि जीवा असकृद् अनन्तशो वा सर्वजन्तूनां वजनभावेन शत्रुभावेन च सञ्जाताः, अतः कोऽत्र खजनः ? को वा परः ?' इतिभावनया त्रुटितप्रेमबन्धः सन् 'उत्तरकालं' जिनकल्पप्रतिपत्त्यनन्तरं व्यापाद्यमानानपि 'सङ्गतिकान्' खजनान् स्वाभाविकान् 'इतरान् 25 वा' वैक्रियशक्त्या देवादिनिर्मितान् दृष्ट्वा 'न क्षुभ्यति' ध्यानान्न चलति ॥ १३४८ ।। अत्र दृष्टान्तमाहएकत्वं. पुप्फपुर पुप्फकेऊ, पुप्फवई देवि जुयलयं पसवे । भावनायां पुत्तं च पुप्फचूलं, धूअं च सनामि तस्स ॥ १३४९ ॥ पुष्पचूलोदन्तम् सहवड्डियाऽणुरागो, रायत्तं चेव पुप्फचूलस्स । घरजामाउगदाणं, मिलइ निसिं केवलं तेणं ॥ १३५० ॥ १ तनुकीकृते सति पूर्व बाह्यप्रेमणि 'सहायादिषु' सहायः-सङ्घाटिकासाधुः आदिशब्दाद् आचार्यादिपरिग्रहः, ततः पश्चाद् आहारे उपधौ देहे वा 'न सजति' भा० ॥ २ वहिज ता०॥ ३ मिश्र पसवे ता० ॥ 20 30 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १३४५-५३] प्रथम उद्देशः । ४११ पव्यन्जा य नरिंदे, अणुपव्वयणं च भावणेगत्ते । वीमंसा उवसग्गे, विडेहि समुहिं च कंदणया ॥१३५१॥ पुष्फपुरं नयरं । तत्थ पुप्फकेऊ राया, पुप्फबई देवी । सा अन्नया जुगलयं पसूयापुप्फचूलो दारओ पुप्फचूला दारिया । ताणि दो वि सहवड्डियाणि परोप्परं अईव अणुरत्ताणि । अन्नया पुप्फचूलो राया जाओ । पुप्फचूला राइणा घरजामाउगम्स दिन्ना । सा य दिवसं 5 सर्व भाउणा समं अच्छइ । अन्नया पुप्फचूलो राया पबइओ । अणुरागेणं पुष्फचूला वि. भगिणी पबइया । सो य पुप्फचूलो अन्नया जिणकप्पं पडिवजिउकामो एगत्तभावणाए अप्पाणं भावेइ । इओ य एगेणं देवेणं वोमंसणानिमित्तं पुप्फचूलाए अजाए रूवं विउविऊणं तं धुत्ता धरिसिउं पवत्ता । पुप्फचूलो य अणगारो तेणं ओगासेणं वोलेइ । ताहे सा पुप्फचूला अज्जा 'जेट्टज्ज ! सरणं भवाहि' त्ति वाहरइ । सो य भगवं वुच्छिन्नपेमबंधणो 10 "एगो हं नस्थि मे को वि, नाहमन्नस्स कस्सइ ।" इच्चाइ एगत्तभावणं भाविंतो गओ सट्टाणं । एवं एगत्तभावणाए अप्पा भावेयबो ति ॥ गाथाक्षरयोजना त्वेवम्-पुप्पपुरे पुप्पकेतू राजा । पुष्पवती देवी युगलं प्रसूते । वर्तमाननिर्दे- . शस्तत्कालविवक्षया । पुत्रं च पुष्पचूलं दुहितां च तस्य 'सनामिका' समानाभिधानाम् ॥ तयोश्च सहवर्द्धितयोरनुरागः । राजत्वं चैव पुप्पचूलस्य । पुष्पचूलायाश्च गृहजामात्रे दानम् । सा च 15* 'तेन' भी समं केवलं निशि' रात्रौ मिलति ॥ प्रव्रज्या च 'नरेन्द्रे' पुष्पचूलाख्ये । तदनु पत्रजनं च पुष्पचूलायाः । ततो जिनकल्पं प्रतिपित्सुरेकत्वभावनां भावयितुं लमः । 'विमर्शः' परीक्षा । तदर्थं देवेनोपसर्गे क्रियमाणे विटैः सम्मुखीं पुप्पचूलां कृत्वा धर्षणं कर्तुमारब्धम् । ततः 'क्रन्दना' आर्य ! शरणं शरणमिति ॥ १३४९ ॥ १३५० ॥ १३५१ ॥ अथोपसंहारमाह एगत्तभावणाए, न कामभोगे गणे सरीरे वा। सजइ वेरग्गगओ, फासेइ अणुत्तरं करणं ॥ १३५२ ॥ एकत्वभावनया भाव्यमानया 'कामभोगेषु' शब्दादिषु 'गणे' गच्छे शरीरे वा 'न सजति' न सङ्गं करोति, किन्तु वैराग्यगतः सन् 'स्पृशति' आराधयति 'अनुत्तरं करणं' प्रधानयोगसाधनं जिनकल्पपरिकर्मेति ॥ १३५२ ॥ गता एकत्वभावना । अथ बलभावना । तत्र बलं द्विधा-25 शारीरबलं भावबलं च । तत्र भावबलमाह भावो उ अभिस्संगो, सो उ पसत्थो व अप्पसत्थो वा । नेह-गुणओ उ रागो, अपसत्थ पसत्थओ चेव ॥ १३५३ ॥ भावो नाम अभिप्वङ्गः । स तु' स पुनरभिष्वङ्गो द्विधा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चै । तत्रापत्य-कलत्रादिपु स्नेहजनितो यो रागः सोऽप्रशस्तः, यः पुनराचार्योपाध्यायादिषु गुणबहुमानप्रत्ययो रागः 30 स प्रशस्तः । तस्य द्विविधस्यापि भावस्य येन मानसावष्टम्भेनासौ व्युत्सर्ग करोति तद् भावबलं १ प्रव्रजनं च नरेन्द्रे, अनुप्रव्रजनं च पुष्प भा० ॥ २ तदनुरागेणानुप्रव्रज डे० ॥ ३ °श्च । कथम् ? इत्याह-"नेह" इत्यादि । इहापत्य° भा० ॥ 20 बलभावना Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ मन्तव्यम् । शारीरमपि बलं शेषजनापेक्षया जिनकल्पार्हस्यातिशायिकमिप्यते ॥ १३५३ ॥ ___ आह तपो-ज्ञानप्रभृतिभिर्भावनाभिर्भावयतः कृशतरं शरीरं भवति ततः कुतोऽस्य शारीरबलं भवति ? इति, उच्यते कामं तु सरीरबलं, हायइ तव-नाणभावणजुअस्स । देहावचए वि सती, जह होइ धिई तहा जयइ ॥ १३५४ ॥ _ 'कामम्' अनुमतं 'तुः' अवधारणे अनुमतमेवास्माकं यत् तपो-ज्ञानभावनायुक्तस्य शरीरबलं हीयते, परं देहापचयेऽपि सति यथा 'धृतिः' मानसावष्टम्भलक्षणा निश्चला भवति तथाऽसौ यतते, धृतिबलेन सम्यगात्मानं भावयतीत्यर्थः ॥ १३५४ ॥ ____ आह इत्थं धृतिबलेन भावयतः को नाम गुणः स्यात् ? उच्यते-- 10 कसिणा परीसहचमू , जइ उद्विजाहि सोवसग्गा वि । दुद्धरपहकरवेगा, भयजणणी अप्पसत्ताणं ॥ १३५५ ॥ धिइधणियबद्धकच्छो, जोहेइ अणाउलो तमव्वहिओ। बलभावणाएँ धीरो, संपुण्णमणोरहो होइ ॥ १३५६ ॥ 'कृत्स्ना सम्पूर्णा 'परीषहचमूः' मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीपहा:-क्षुधादयस्त एव 15 तेषां वा चमू:-सेना सा यदि 'उत्तिष्ठेत' सम्मुखीभूय परिभवनाय प्रगुणीभवेत् 'सोपसर्गाऽपि' दिव्याधुपसगैः कृतसहायकाऽपि, तथा "दुद्धरपहकरवेग" ति दुर्द्धर-दुर्वहं पन्थान-सम्यग्दर्शनादिरूपं मोक्षमार्ग करोतीति दुर्द्धरपथकरस्तथाविधो वेगः-प्रसरो यस्याः सा दुर्द्धरपथकरवेगा, 'भयजननी' संत्रासँकरी 'अल्पसत्त्वानां' कापुरुषाणाम् ॥ १३५५ ॥ तामेवंविधामपि स जिनकल्पं प्रतिपत्तुकामो योधयति । कथम्भूतः ? धृतिरेव धणियम्20 अत्यर्थ बद्धा कक्षा येन स तथा 'अनाकुलः' औत्सुक्यरहितः 'अव्यथितः' निप्प्रकम्पमनाः स बलभावनया तां योधयित्वा 'धीरः' सत्त्वसम्पन्नः सन् सम्पूर्णमनोरथो भवति, परीपहोपसर्गान् पराजित्य स्वप्रतिज्ञां पूरयतीत्यर्थः ॥ १३५६ ॥ अपि च - धिइ-बलपुरस्सराओ, हवंति सव्वा वि भावणा एता। __तं तु न विजइ सज्झं, जं धिइमंतो न साहेइ ॥ १३५७ ॥ 25 सर्वा अप्येतास्तपःप्रभृतयो भावना धृति-बलपुरस्सरा भवन्ति, नहि धृति-बलमन्तरेण पाण्मासिकतपःकरणाद्यनुगुणास्ताः तथा भावयितुं शक्यन्ते । किञ्च 'तत् तु' तत् पुनः 'साध्यं' कार्य जगति न विद्यते यद् 'धृतिमान्' सात्त्विकः पुरुषो न साधयति, “सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम्” इति वचनात् । एतेन “अबोच्छित्ती मण' (गा० १२८०) इत्यादिद्वारगाथायाः "उवसग्गसहे" इति यत् पदं तद् भावितं मन्तव्यम् , बलभावनया उपसर्गसहत्वभावादिति ॥ १३५७ ॥ 30 गता बलभावना । अथ "उवसग्गसहे य" त्ति इत्यत्र यः चशब्दः सोऽनुक्तसमुच्चये वर्त्तते, अतस्तदर्थलब्धं विधिशेषमाह १ शरीरमिति ततः मो० ले० ॥ २°चये सत्यपि यथा भा० ॥ ३°सकारिणी 'अल्प' मो० ले० विना ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १३५४-६२] प्रथम उद्देशः । ४१३ जिणकप्पियपडिरूवी, गच्छे वसमाण दुविह परिकम्मं । ततियं भिक्खायरिया, पंतं लूहं अभिगहीया ॥ १३५८ ॥ एवमसौ पञ्चभिर्भावनाभिर्भावितान्तरात्मा जिनकल्पिकस्य प्रतिरूपी-तदनुरूपो भूत्वा गच्छ एव वसन् द्विविधं परिकर्म वक्ष्यमाणनीत्या करोति । तथा तृतीयस्यां पौरुप्यां भिक्षाचर्या, तत्रापि प्रान्तं रूक्षमाहारं गृह्णाति, एषणा च 'अभिगृहीता' अभिग्रहयुक्ता ॥ १३५८ ॥ तथा- 5 परिणाम-जोगसोही, उवहिविवेगो य गणविवेगो य । सिज्जा-संथारविसोहणं च विगईविवेगो य ॥ १३५९ ॥ तो पच्छिमम्मि काले, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं । पच्छा निच्छयपत्थं, उवेइ जिणकप्पियविहारं ॥१३६० ॥ परिणामस्य गुर्वादिममत्वविच्छेदेन योगानां चावश्यकव्यापाराणां यथाकालमेव करणेन 10 शुद्धिः तथा प्राक्तनस्योपधेविवेको गणविवेकश्च शय्या-संस्तारस्य विशोधनं च विकृतिविवेकश्च तदा तेन कर्त्तव्यः ॥ १३५९ ॥ ततः 'पश्चिमे काले' तीर्थाव्यवच्छित्तिकरणानन्तरं 'सत्पुरुषनिषेवितं' धीरपुरुषाराधितं 'परमघोरं' अत्यन्तदुरनुचरं 'पश्चाद' आयतौ 'निश्चयपथ्यम्' एकान्तहितं जिनकल्पिकविहारमुपैति ॥ १३६० ॥ अथ द्विविधं परिकर्म व्याख्यानयतिपाणी पडिग्गहेण व, सच्चेल निचेलओ जहा भविया । द्विविध सो तेण पगारेणं, भावेइ अणागयं चेव ॥ १३६१ ॥ परिकर्म द्विविधं परिकर्म, तद्यथा--पाणिपरिकर्म प्रतिग्रहपरिकर्म च; अथवा सचेलपरिकर्म.अचेलपरिकर्म च । तत्र यो यथा पाणिपात्रधारकः प्रतिग्रहधारको वा सचेलको अचेलको वा भविता स तेनैव प्रकारेण पाणिपात्रभोजित्वादिना अनागतमेवाऽऽत्मानं भावयति ॥ १३६१ ॥ 20 प्रकारान्तरमाह आहारे उवहिम्मि य, अहवा दुविहं तु होइ परिकम्मं । पंचसु गह दोसु अग्गह, अभिग्गहो अनयरियाए ॥ १३६२॥ अथवा द्विविधं परिकर्म आहारे उपधौ च । तत्राहारं तावदसौ तृतीयपौरुष्यामवगाढायां गृह्णाति, तं चालेपकृतमेव । तत्राप्यसंसृष्टादीनां सप्तानां पिण्डैषणानां मध्याद् 'द्वयोः' आद्य- 25 योरेषणयोः 'अग्रहः' सर्वथैवाखीकारः, उपरितनीषु 'पञ्चसु' उद्धृता-ऽल्पलेपा-ऽवगृहीता-प्रगृहीतोज्झितधर्मिकासु ग्रहणम् । तत्राप्यभिग्रहोऽन्यतरस्यामेषणायाम् , एकया भक्तमपरया पानकमिति नियज्य शेषाभिस्तिसृभिस्तदिवसमग्रहणमित्यर्थः । उपधौ तु वस्त्र-पात्रयोः प्रतिमाचतुष्टयं यत् 15 १"आहारे. गाधा। आहारपरिकम्मेणं उवधिपरिकम्मेण य । तत्थाहारो ततियाए पोरुसीए । भत्त-पाणं अलेवाडं गेण्हियव्वं । तदपि सत्तण्हं पिंडेसण-पाणेसणाणं आदिल्लियाओ दो मोत्तुं उवरिल्लियाहिं पंचहिं 'आग्गहो' आल् मर्यादा-ऽभिविष्योः आ-मर्यादया प्रहः आग्रहः । कायं दीहा मत्ता. लक्खणगाधा । दोहिमभिग्गहो, तत्थ वि 'अण्णतरीए अभिग्रहः' अण्णाए भत्तं अण्णाए पाणयं गेण्हति । वत्थे उवरिल्लियाहिं दोहिं आग्गहो, अभिग्गही अण्णतरियांए ॥"इ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ पीठिकायामुक्तं ( गाथाः ६१० प्रभृतयः ६५५ प्रभृतयश्च ) तत्राद्यद्वयवर्जमुत्तरयोरेव ग्रहणम् । तत्राप्यपरस्यामभिग्रहः ॥ १३६२ ॥ अथ “पंतं लूहं"ति व्याचष्टे निप्फाव-चणकमाई, अंतं पंतं तु होइ वावणं । नेहरहियं तु लूह, जं वा अबलं सभावेणं ॥ १३६३ ॥ 5 निप्पावाः-वल्लाश्चणकाः-प्रतीता आदिशब्दात् कुल्माषादिकं च आन्तमित्युच्यते । प्रान्तं पुनस्तदेव 'व्यापन्नं' विनष्टं कुथितमित्यर्थः । यत् पुनः स्नेहरहितं तद् सक्षम् , यद्वा खभावेन 'अबलं' रब्वादिकं तदपि रूक्षं मन्तव्यम् ॥ १३६३ ॥ अत्रैव विधिविशेषमाह---- उकुडुयासणसमुई, करेइ पुढवीसिलाइसुववेसे । पडिवन्नो पुण नियमा, उकुडुओ केइ उ भयंति ॥ १३६४ ॥ 10 तं तु न जुञ्जइ जम्हा, अणंतरो नत्थि भूमिपरिभोगो । तम्मि य हु तस्स काले, ओवग्गहितोवही नत्थि ॥ १३६५ ॥ उत्कुटुकासनस्य "समुई" ति देशीवचनत्वाद् अभ्यासं करोति, 'पृथिवीशिलादिषु वा' पृथ्वीशिलापट्टके आदिशब्दाद् अपरेष्वपि तथाविधयथासंस्तृतेषु उपविशेद्वा । जिनकल्प प्रतिपन्नः पुनर्नियमादुत्कुटुक एव । केचिद् 'भजन्ति' विकल्पं कुर्वन्ति--उत्कुटको वा तिष्ठेदुपविशेद्वा, तत्तु 15 न युज्यते, यस्माद् 'अनन्तरः' अव्यवहितो नास्ति साधूनां तावद् भूमिपरिभोगः, “सुद्धपुढवीए न निसिए" (दशवै० अ० ८ गा० ५) ति वचनात् ; तस्मिंश्च जिनकल्पकाले औपग्रहिकोपधिर्नास्ति, सदभावाच्च निषद्याऽपि नास्तीति गम्यते', ततश्चार्थादापन्नं उत्कुटक एव तिष्ठति ॥ १३६४ ॥ १३६५ ॥ उक्तश्चशब्दसूचितो विधिशेषः । अथ वटवृक्षद्वारमाहजिनकल्प दव्वाई अणुकूले, संघं असती गणं समाहूय । प्रतिपत्ति- 20 जिण गणहरे य चउदस, अभिन्न असती य वडमाई ॥ १३६६ ॥ कालीनो जिण गणहर विधिः इत्थमात्मानं परिकर्म्य द्रव्ये आदिशब्दात् क्षेत्रे काले भावे च 'अनुकूले' प्रशस्ते सङ्घ मीलयित्वा सङ्घस्य 'असति' अभावे गणं खकीयमवश्यमेव समाहूय ततः प्रथमं जिनः-तीर्थकरस्तस्यान्तिके तदभावे गणधरसन्निधाने तदलाभे चतुर्दशपूर्वधरान्तिके तदसम्भवेऽभिन्नदशपूर्वधरपा धे तस्याप्यसति वटवृक्षस्याध आदिग्रहणीत् तदप्राप्तावशोका-ऽश्वत्थवृक्षादीनामधस्ताद् जिनकल्पं 25 प्रतिपद्यते ॥ १३६६ ॥ केन विधिना ? इत्याह गणि गणहरं ठवित्ता, खामे अगणी उ केवलं खामे । सव्वं च बाल-वुटुं, पुव्वविरुद्धे विसेसेणं ॥ १३६७ ॥ _ 'गणी' गच्छाधिपाचार्यः स पूर्वमित्वरनिक्षिप्तगणं खशिष्यं गणधरं स्थापयित्वा श्रमणसङ्घ क्षमयति । "अगणि" त्ति यस्तु गणी न भवति किन्तु सामान्यसाधुः स केवलं क्षमयति न तु १ अन्त मो० ले० ॥ २°ते, तस्याश्चाभावे शुद्धपृथिव्यामुपवेशनस्याकल्पनीयत्वादादा भा० । “नास्ति तस्यौपग्रहिकमुपकरणम् , तेन निषद्या नास्तीति गम्यते, तदभावादुपवेशनाभावः” इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ३°त् क्षेत्र काल-भावेषु 'अनुकूलेषु' प्रशस्तेपु सई भा० ॥ ४°णादशोका भा० ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १३६३-७२ ] प्रथम उद्देशः । ४१५ कमपि स्थापयति । किं पुनः क्षमयति ? इत्याह- 'सर्व' सकलमपि सङ्घ चशब्दात् तदभावे स्वगच्छं बाल-वृद्धाकुलम् । ये च ' पूर्वविरुद्धाः' प्राग्विराधितास्तान् विशेषेण क्षमयति ॥१३६७॥ कथं पुनः ? इत्याह जर किंचि पमाएणं, न सुट्टु भे वट्टियं मए पुर्वित्र । तं भे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ ।। १३६८ ॥ यदि किञ्चित् 'प्रमादेन' अनाभोगादिना न सुष्ठु 'भे' युष्मान् क्षमयाम्यहं निःशल्यो निष्कषायश्च ॥ १३६८ ॥ इत्थं तेन क्षमिते सति शेषसाधवः किं कुर्वन्ति ? इत्याहआणंदअंसुपायं, कुणमाणा ते वि भूमिगयसीसा | खामिति जहरिहं खलु, जहारिहं खामिता तेणं ।। १३६९ ।। 'तेऽपि' साधव आनन्दाश्रुपातं कुर्वाणाः 'भूमिगतशीर्षाः ' क्षितिनिहितशिरसः सन्तः क्षमयन्ति 'यथार्ह' यो यो रत्नाधिकः स स प्रथममित्यर्थः, तेनाचार्येण 'यथार्हं' यथापर्यायज्येष्ठं क्षामिताः सन्त इति ॥ १३६९ ॥ अथेत्थं क्षामणायां के गुणाः ? इत्याह भवतां मया वर्त्तितं पूर्वं तद् “भे" खामितस्स गुणा खल, निस्सल्लय विणय दीवणा मग्गे । लाघवयं गतं, अप्पडिबंधो अ जिणकप्पे ॥ १३७० ॥ 1 जिनकल्पे प्रतिपद्यमाने साधून् क्षमयतः खल्वेते गुणाः । तद्यथा - ' निः शल्यता' मायादिशल्याभावो भवति । विनयश्च प्रयुक्तो भवति । मार्गस्य दीपना कृता भवति, इत्थमन्यैरपि क्षामणकपुरस्सरं सर्वं कर्त्तव्यमिति । 'लाघवम्' अपराधभारापगमतो लघुभाव उपजायते । 'एकत्वं ' 'क्षामिता मयाऽमी साधवः, इत ऊर्द्धमेक एवास्मि' इत्यनुध्यानं भवति । 'अप्रतिबन्धश्च' ममत्वस्य च्छिन्नत्वाद् भूयः शिष्येषु प्रतिबन्धो न भवति ॥ १३७० ॥ अथ निजपदस्थापितस्य सूरेरनुशिष्टिमाह अह ते सबाल - बुढो, गच्छो साइज णं अपरितंतो । एसो हु परंपरतो, तुमं पि अंते कुणसु एवं ।। १३७१ ॥ पुव्वपवित्तं विषयं मा हु पमाएहिं विणयजोगेसु । जो जेण पगारेणं, उववजह तं च जाणाहिं ।। १३७२ ।। अथैषः 'ते' तव सबाल-वृद्धो गच्छो निसृष्ट इति शेषः, अतः 'अपरितान्तः' अनिर्विण्णः "गं" एनं गच्छं 'सातयेः' सेङ्गोपायेः, स्मारणा-वारणादिना सम्यक् पालयेरित्यर्थः । न च 'परि - त्यक्तोऽहममीभिः' इत्यादि परिभाव्यम्, यत एष एव 'परम्परक : ' शिष्या - ssचार्यक्रमो यद् अव्यवच्छित्तिकारकं शिष्यं निष्पाद्य शक्तौ सत्यामभ्युद्यतविहारः प्रतिपत्तव्यः । त्वमपि '' शिष्यनिष्पादनादिकार्यपर्यवसाने एवमेव कुर्याः ॥ १३७१ ॥ १ पाः सा भा०डे० ॥ २ 'न्ति ते 'यथार्ह' यथापर्यायज्येष्ठं यथार्थे तेन क्षामि भा० ॥ ३ श्वाराधितो भव भा० ॥ ४ "एगत्तं" ति एकत्वभावनात्मकं 'क्षामिता मो० ० ॥ ५ संयमात्मनि खेदं प्रापयेः, स्मां मो० ले० ॥ 5 10 15 क्षामणा 20 25 30 नव्यस्थापिताचार्य प्रति गच्छसाधू श्व प्रति प्रातना चार्यस्य शिक्षाव च Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओमो समराइणिओ, अप्पतरसुओ अ मा य णं तुब्भे । परिभवह तुम्ह एसो, विसेसओ संपयं पुत्रो ।। १३७३ ॥ 'अवमोऽयं समरालिकोऽयं अल्पतरश्रुतो वाऽयमस्मदपेक्षया, अतः किमर्थमस्य आज्ञानिर्देशं वयं कुर्महे ?' इति मा यूयममुं परिभवत । यत एष युष्माकं साम्प्रतमस्मत्स्थानीयत्वाद् गुरुतरगुणाधिकत्वाच्च विशेषतः पूज्यः, न पुनरवज्ञातुमुचित इति भावः ॥ १३७३ ॥ इत्थमुभयेषामप्यनुशिष्टिं प्रदाय किं करोति ? इत्याह पक्खीव पत्तसहिओ, सभंडगो वच्चए निरवयक्खो । एतं जा तड़या, तीऍ विहारो से नन्नासु ॥ १३७४ ॥ यथा पक्षी पत्राभ्यां - पक्षाभ्यां सहितः प्राक्तनस्थाननिरपेक्षः स्थानान्तरं व्रजति, एवमयमपि भगवान् ‘सभाण्डकः' पात्रसहितः 'निरपेक्ष:' गच्छसत्कापेक्षया रहितः 'एकान्तं' मासकल्पप्रायोग्यं 15 क्षेत्रं व्रजति । अयं च यावत् तृतीयेपौरुपी तावद् गच्छति, यतस्तस्यामेव "से" तस्य विहारो नान्यासु पौरुषीषु, यत्र तु चतुर्थी पौरुषी भवति तत्र नियमात् तिष्ठतीति ॥ १३७४ ॥ तस्मिन् निर्गते सति शेषसाधवः किं कुर्वन्ति ? इत्याह सीहम्म व मंदरकंदराओं नीहम्मिए तओ तम्मि । चक्खुविसयं अइगए, अति आनंदिया साहू ।। १३७५ ।। 20 सिंहे इव मन्दरकन्दरायास्तस्मिन्ननगारसिंहे गच्छाद् “नीहम्मिए " निर्गते सति कियन्तमपि भूभागमनुगमनं विधाय ततश्चक्षुर्विषयम् 'अतिक्रान्ते' अदर्शनीभूते आयान्ति खवसतिम् 'आनन्दिताः ' 'अहो ! अयं भगवान् सुखसेवनीयं स्थविरकल्पविहारं विहायातिदुष्करमभ्युद्यतविहारमभ्युपैति' इति परिभावनया हृष्टाः सन्तः साधव इति ।। १३७५ ॥ इदमेव सविशेषमाहनिचेल सचेले वा, गच्छारामा विणिग्गए तम्मि | चक्खुविसयं अईए, अयंति आनंदिया साहू १३७६ ॥ निश्चेले वा सचेले वा गच्छारामात् सुखसेवनीयाद् विनिर्गते तस्मिँश्चक्षुर्विषयमतीते आया - न्त्यानन्दिताः साधव इति ॥ १३७६ ॥ अथासौ विवक्षितं क्षेत्रं गत्वा किं करोति : इत्याहआभोएउ खेत्तं, निव्वाघाएण मासनिव्वाहिं । तूण तत्थ विहरइ, एस विहारो समासेणं ॥ १३७७ ॥ 'आभोग्य' विज्ञाय क्षेत्रं 'निर्व्याघातेन' विघ्नाभावेन 'मासनिर्वाहि ' मासनिर्वहणसमर्थं गत्वा 'तत्र' क्षेत्रे 'विहरति ' खनीतिं परिपालयति । एष विहारो विशेषानुष्ठानरूपोऽस्य भगवतः समासेन प्रतिपादित इति ॥ १३७७ ॥ उक्तं विहारद्वारम् । अथ सामाचारीद्वारमाह १ या पौ भा० ॥ ४१६ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ये च तव बहुश्रुत-पर्यायज्येष्ठादयो विनययोग्याः - गौरवाहस्तेषु 'पूर्वप्रवृत्तं' यथोचितं विनयं ' मा प्रमादयेः' मा प्रमाद्धेन परिहापयेः । यश्च साधुर्येन तपः खाध्याय - वैयावृत्त्यादिना प्रकारेण 'उपयुज्यते' निर्जराप्रत्युपयोगमुपयाति 'तं च जानीहि ' तं तथैव प्रवर्त्तयेत्यर्थः, ॥ १३७२ ॥ अथ साधूनामनुशिष्टिं प्रयच्छति— 5 10 25 30 ____________ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । ४१७ इच्छा - मिच्छा - तहकारो, आवस्सि निसीहिया य आपुच्छा । [ उ.नि. ४८५ ] सामान्यपडिपुच्छ छंदण निमंतणा य उवसंपया चैव ॥ १३७८ ॥ रीद्वारम् 'इदं मदीयं कार्यमिच्छया कुरुत, न बलाभियोगेन' इत्येवमिच्छायाः करणमिच्छाकारः । कथञ्चित् स्खलितस्य 'मिथ्या मदीयं दुष्कृतम्' इति भणनं मिथ्याकारः । गुर्वादिषु ब्रुवाणेषु 'यथाऽऽदिशत यूयं तथैव' इति भणनं तथाकारः । क्वचिद् बहिर्गमनकार्ये समुत्पन्ने 'अवश्यं 5 गन्तव्यम्' इति भणनं आवश्यकी । वसतिप्रवेशे 'निषिद्धोऽहं गमनक्रियायाः' इति भणनं नैषेधिकी । स्वकार्यप्रवृत्तावाप्रच्छनमापृच्छा । आदिष्टस्य कार्यस्य करणकाले पुनः प्रच्छनं प्रतिपृच्छा । पूर्वगृहीतेनाशनादिना साधूनामभ्यर्थना च्छन्दना । तेनैवागृहीतेन 'यथालाभं युष्मद्यो - ग्यममुकमानेष्ये' इति प्रार्थना निमन्त्रणा । उपसम्पद् द्विधा - साधुविषया गृहस्थविषया च । ज्ञानादिहेतोर्यदपरं गणं गत्वोपसम्पद्यते सा साधुविषया । यत् पुनरवस्थाननिमित्तं गृहिणामनु- 10 ज्ञापनं सा गृहस्थविषया ॥ १३७८ ॥ अथैतासां मध्याद् जिनकल्पिकस्य काः सामाचार्यो भवन्ति ? इत्युच्यते आवस निसीहि मिच्छा, आपुच्छुवसंपदं च गिहिए । अन्ना सामायारी, न होंति से सेसिया पंच ॥ १३७९ ॥ चक्रवाल आवश्यक नैषेधिक मिथ्याकारमापृच्छां उपसम्पदं च ' गृहिषु' गृहस्थविषया एताः पञ्च 15 सामाचार्यः सामाचारीर्जिनकल्पिकः प्रयुङ्क्ते । अन्याः सामाचार्यो न भवन्ति 'से' तस्य 'शेषाः पञ्च' इच्छाकाराद्याः, प्रयोजनाभावात् ॥ १३७९ ॥ आदेशान्तरमाह आवासियं निसीहियं, मोत्तुं उवसंपयं च गिहिए । सेसा सामायारी, न होंति जिणकप्पिए सत्त ॥ १३८० ॥ आवश्यक नैषेधक मुक्त्वा उपसम्पदं च ' गृहिषु' गृहस्थविषया जिनकल्पिकस्य 'शेषाः 20 सामाचार्यः' मिथ्याकाराद्याः सप्त न भवन्ति, तद्विषयस्य स्खलितादेरभावात् ॥ १३८० ॥ अहवा वि चकवाले, सामायारी उ जस्स जा जोग्गा । भाष्यगाथाः १३७३-८४ ] सा सव्वा वेत्तव्वा, सुयमाई वा इमा मेरा ।। १३८१ ॥ अथवाऽपि 'चक्रवाले' प्रत्युपेक्षणादौ नित्यकर्मणि यस्य जिनकल्पिकादेर्या सामाचारी योग्या सा सर्वा अत्र सामाचारीद्वारे वक्तव्या । श्रुतादिका वा 'इयं' वक्ष्यमाणा 'मेरा' मर्यादा सामा- 25 चारी ॥ १३८१ ॥ तामेवाभिधित्सुर्द्वारगाथात्रयमाह - सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेदणा कइ जणा य । थंडिल सहि केच्चिर, उच्चारे चैव पासवणे || १३८२ ॥ ओवा तणफलए, सारक्खणया य संठवणया य । पाहुड अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य ॥ १३८३ ॥ भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य । आयंबिल पडिमाओ, जिणकप्पे मासकप्पो य ।। १३८४ ॥ १ बोधव्वा ता० ॥ 30 जिनक ल्पिकस्य जिनक ल्पिकस्य श्रुतादिकाः सामाचार्यः Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४१८ 15 सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ श्रुतं १ संहननं २ उपसर्गाः ३ आतङ्कः ४ वेदनाः ५ कतिजनाश्च ६ स्थण्डिलं ७ वसतिः ८ कियच्चिरं ९ उच्चारश्चैव १० प्रश्रवणं ११ अवकाशः १२ तृणफलकं १३ संरक्षणता च १४ संस्थापनता च १५ प्राभृतिका १६ अमिः १७ दीपः १८ अवधानं १९ वत्स्यथ कति जनाश्च २० भिक्षाचर्या २१ पानकं २२ लेपालेपः २३ तथा अलेपश्च २४ आचाम्लं २५ प्रतिमाः 5२६ मासकल्पश्च २७ "जिणकप्पे" ति एतानि सप्तविंशतिद्वाराणि जिनकल्पविषयाणि वक्तव्यानीति द्वारगाथात्रयसमुदायार्थः ॥ १३८२ ॥ १३८३ ॥ १३८४ ॥ अथावयवार्थ प्रतिद्वारं प्रतिपिपादयिषुः “यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायात् प्रथमतः श्रुतद्वारमाह आयारवत्थुतइयं, जहन्नयं होइ नवमपुव्वस्स । .. तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण मिन्नाई ॥१३८५ ॥ 10 जिनकल्पिकस्य जघन्यकं श्रुतं 'नवमपूर्वस्य' प्रत्याख्याननामकस्याचाराख्यं तृतीयं वस्तु तस्मिन्नधीते सति कालज्ञानं भवतीत्यतस्तदर्वाक्छूतपर्याये वर्तमानस्य न जिनकल्पप्रतिपत्तिः । उत्कर्षतो दश पूर्वाणि भिन्नानि श्रुतपर्यायः । सम्पूर्णदशपूर्वधरः पुनरमोधवचनतया प्रवचनप्रभावनापरोपकारादिद्वारेणैव बहुतरं निर्जरालाभमासादयति अतो नासौ जिनकल्पं प्रतिपद्यते ॥ १३८५ ॥ उक्तं श्रुतद्वारम् १ । अथ संहननद्वारमाह पढमिल्लगसंघयणा, घिईऍ पुण वजकुड्डसामाणा। उप्पजंति न वा सिं, उवसग्गा एस पुच्छा उ ॥ १३८६ ॥ - जिनकल्पिकाः 'प्रथमिल्लुकसंहननाः' वज्रर्षभनाराचसंहननोपेताः 'धृत्या' अङ्गीकृतनिर्वाहक्षममनःप्रणिधानरूपया वज्रकुड्यसमानाः २ । अथोपसर्गद्वारम्-उत्पद्यन्ते न वा अमीषामुपसर्गा दिव्यादयः ? इत्येषा पृच्छा ॥ १३८६ ॥ अत्रोत्तरमाह जइ वि य उप्पजते, सम्मं विसहति ते उ उवसग्गे। रोगातंका चेवं, भइआ जइ होति विसहति ॥ १३८७॥ नायमेकान्तो यदवश्यमेतेषामुपसर्गा उत्पद्यन्ते, परं यद्युत्पद्यन्ते तथापि सम्यगदीनमनसो विषहन्ते तानुपसर्गान् ३ । आतङ्कद्वारमतिदिशति-रोगाश्च–कालसहाः आतङ्काश्च–सद्योघातिनः एवमेव 'भाज्याः' उत्पद्यन्ते वा न वा । यदि भवन्ति उत्पद्यन्ते ततो नियमाद् विष25 हन्ते ४ ॥ १३८७ ॥ वेदनाद्वारमाह अब्भोवगमा ओवकमा य तेसि वियणा भवे दुविहा । . धुवलोआई पढमा, जरा-विवागाइ बिइएको ॥ १३८८ ।। आभ्युपगमिकी औपक्रमिकी च 'तेषां' जिनकल्पिकानां द्विविधा वेदना भवति । तत्र प्रथमा 'ध्रुवलोचौदि' ध्रुवः-प्रतिदिनभावी लोचः, आदिशब्दादातापना-तपःप्रभृतिपरिग्रहः । 'द्वितीया तु' 30 औपक्रमिकी 'जरा-विपाकादिः' जरा-प्रतीता विपाकः-कर्मणामुदयस्तत्समुत्था ५। अथ कियन्तो जनाः ? इति द्वारम्-"एको' त्ति एक एवायं भगवान् भवति ६ । यदि वा इदं द्वारमुपरि १ ति गाथा' मो० ले० विना ॥ २°द्वारमाह-आयार° भा०॥ ३°न्ते, यद्यप्युत्पद्य मो० ले० कां० ॥ ४°चाद्या' ध्रु० भा० विना ॥ 20 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ भाष्यगाथाः १३८५-९४ ] प्रथम उद्देशः । टाद् व्याख्यास्यते ।। १३८८ ॥ अथ स्थण्डिलद्वारमाह उच्चारे पासवणे, उस्सग्गं कुणइ थंडिले पढमे । तत्थेव य परिजुण्णे, कयकिच्चो उज्झई वत्थे ॥ १३८९ ॥ उच्चारस्य प्रश्रवणस्य च 'उत्सर्ग' परित्यागं 'प्रथमे' अनापाते असंलोके स्थण्डिले करोति । 'तत्रैव' प्रथमस्थण्डिले 'कृतकार्यः' विहितशीतत्राणादिवस्त्रकार्य उज्झति वस्त्राणि ॥ १३८९ ॥5 अयं च संज्ञां व्युत्सृज्य न निर्लेपयति, कुतः ? इति चेद उच्यते____ अप्पमभिन्नं वच्चं, अप्पं लूहं च भोयणं भणियं । दीहे विउ उवसग्गे, उभयमवि अभंडिले न करे ॥१३९०॥ अल्पमभिन्नं च 'वर्चः' पुरीषमस्य भवति, कुतः ? इत्याह--यतोऽल्पं रूक्षं च भोजनमस्य भणितं भगवद्भिः । अल्पा-ऽभिन्नवर्चस्कतया तथाकल्पत्वाच्चासौ न निर्लेपयति । न चासौ 10 'दीर्धेऽपि' बहुदैवसिके उपसर्गे 'उभयमपि' संज्ञा कायिकी च 'अस्थण्डिले' आपातादिदोषयुक्ते भूभागे करोति ७ ॥ १३९० ॥ वसतिद्वारमाह अममत्त अपरिकम्मा, नियमा जिणकप्पियाण वसहीओ। एमेव य थेराणं, मुत्तूण पमजणं एकं ।। १३९१ ॥ 'अममत्वा' ममेयमित्यभिप्वङ्गरहिता 'अपरिकर्मा' साध्वर्थमुपलेपनादिपरिकर्मवर्जिता नियमाद् ।। जिनकल्पिकानां वसतिः । स्थविरकल्पिकानामप्येवमेव वसतिरममत्वा अपरिकर्मा च द्रष्टव्या, मुक्त्वा प्रमार्जनामेकामन्यत् परिकर्म तेऽपि न कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ १३९१ ॥ एतदेव स्पष्टयति 'विले न ढकंति न खजमाणिं, गोणाइ वारिंति न भञ्जमाणिं । दारे न ढकंति न वऽग्गलिंति, दप्पेण थेरा भइआ उ कब्जे ॥ १३९२ ॥ एते भगवन्तो बिलानि धूल्यादिना न स्थगयन्ति, न वा गवादिभिः खाद्यमानां भज्यमानां वा 20 वसतिं निवारयन्ति, द्वारे "न ढकंति" कपाटाभ्यां न संयोजयन्ति, न वा 'अर्गलयन्ति' नार्गलया नियन्त्रयन्ति । स्थविरकल्पिका अपि 'दर्पण' कार्याभावे एवमेव न वसतेः परिकर्म कुर्वन्ति, 'कार्ये तु' पुष्टालम्बने 'भाज्याः' परिकर्म कुर्वन्त्यपाति भावः ८ ॥ १३९२ ॥ यिचिरोच्चारप्रश्रवणा-ऽवकाश-तृणफलक-संरक्षण-संस्थापनाद्वाराणि गाथाद्वयेन भावयतिकिच्चिरकालं वसिहिह, इत्थ य उच्चारमाइए कुणसु । 25 इह अच्छसु मा य इहं, तण-फलए गिहिमे मा य॥ १३९३ ।। सारक्खह गोणाई, मा य पडिंति उविक्खहउ भंते । अन्नं वा अभिओगं, नेच्छंतचियत्तपरिहारी ॥ १३९४ ॥ यस्यां वसतौ याच्यमानायां तदीयस्वामिन इत्थं भणन्ति—कियच्चिरं कालं वत्स्यथ यूयम् ? ९, यद्वा 'अत्र' प्रदेशे 'उच्चारादीनि' पुरीष-प्रश्रवणादीनि कुरु, अत्र तु मा कुरु १०-११, 'इह' 30 अस्मिन्नवकाशे आसीथाः, इह मेति १२, 'एतानि वा' हस्तसंज्ञया निर्दिश्यमानानि तृण-फल १ यकजो उ° ता० ॥ २ दारं ण ढक्केति ता० ॥ ३ बिले ण घटेति न ता० ॥ ४ 'अर्गलन्ति' मो० ले । “अग्गलंति" भा० ॥ ५°काशे भवता भासितव्यम्, इह नेति १२ भा०॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ कानि गृह्णीयाः मा एतानीति १३, संरक्षत वा गवादीन् बहिर्निर्गच्छतो यूयमस्माकं क्षेत्रादौ गतानां व्याकुलानां वा १४, मा च पतन्तीं वसतिमुपेक्षध्वं किन्तु 'संस्थापना' पुनःसंस्काररूपा विधेया १५ । “संठवणया य” त्ति (गाथा १३८३ ) द्वारगाथायां यश्चशब्दस्तेन सूचितमन्यं वा खाध्यायनिषेधादिरूपं यत्र वसतिस्वामी 'अभियोगं' नियन्त्रणां करोति तं मनसाऽपि नेच्छन्ति, 5 सूक्ष्मस्याप्यप्रीतिकस्य परिहारिणोऽमी भगवन्त इति ॥ १३९३ ॥ १३९४ ॥ प्राभृतिका-ऽमि-दीपा-ऽवधानद्वाराणि व्याचष्टे पाहुडिय दीवओ वा, अग्गि पगासो व जत्थ न वसन्ति । जत्थ य भणंति ठंते, ओहाणं देह गेहे वि ॥ १३९५॥ यस्यां वसतौ 'प्राभृतिका' बलिः क्रियते १६ दीपको वा यस्यां विधीयते १८ 'अग्निः' 10 अङ्गार-ज्वालादिकस्तस्य प्रकाशो वा यत्र भवति तत्र न वसन्ति १७ । यत्र च तिष्ठति सत्यगारिणो भणन्ति अस्माकमपि गेहे 'अवधानम्' उपयोगं ददतेति तत्रापि नावतिष्ठन्ते १९ ॥ १३९५ ॥ वत्स्यथ कति जनाः ? इति द्वारमाह वसहि अणुण्णवितो, जइ भण्णइ कइ जण त्थ तो न वसे । सुहम पि न सो इच्छइ, परस्स अप्पत्तियं भगवं ॥ १३९६॥ 15 वसतिमनुज्ञापयन् यद्यसौ भण्यते 'कति जना यूयं वत्स्यथ ?' इति तत्रापि न वसति, कुतः ? इत्याह-सूक्ष्ममपि नासाविच्छति परस्याप्रीतिकं भगवान् । “कइ जणा उ” त्ति अत्र यस्तुशब्दस्तेनान्यामपीषदप्रीतिकजननी वसतिमसौ परिहरतीति गम्यते २० । उक्तञ्च पश्चवस्तुके सुहुमं पि हु अचियत्तं, परिहरए सो परस्स नियमेणं । जं तेण तुसद्दाओ, वज्जइ अन्नं पि तज्जणणिं ॥ (गा० १४५०)॥१३९६॥ 20 भिक्षाचर्या-पानक-लेपालेप-अलेप द्वाराणि विवृणोति तइयाइ भिक्खचरिया, पग्गहिया एसणा य पुव्वुत्ता। एमेव पाणगस्स वि, गिण्हइ अ अलेवडे दो वि ॥ १३९७ ॥ तृतीयस्यां पौरुप्यां भिक्षाचर्या, एषणा च 'प्रगृहीता' अभिग्रहयुक्ता, सा च "पंचसु गह दोसऽग्गहु" (गा० १३६२) इत्यादिना पूर्वमेवोक्ता २१ । एवमेव पानकस्यापि तृतीयपौरुष्यां 25 प्रगृहीतया चैषणया ग्रहणं करोति २२ । अत्र शिप्यः पृच्छति-"लेवालेवे" त्ति किमसौ जिनकल्पिको लेपकृतं गृह्णाति ? उतालेपकृतम् ? २३ । अत्र सूरिः-"अलेवे" त्ति पदं विवृण्वन्नुत्तरमाह-द्वे अपि' भक्त-पाने 'अलेपकृते' वल्ल-चणक-सौवीरादिरूपे गृह्णाति न लेपकृते २४ ॥ १३९७ ॥ आयामाम्ल-प्रतिमाद्वारद्वयमाह आयंबिलं न गिण्हइ, जं च अणायंबिलं पि लेवाडं । 30 न य पडिमा पडिवाइ, मासाई जा य सेसाओ ।। १३९८ ॥ आयामाम्लमसौ न गृह्णाति, पुरीषभेदादिदोषसम्भवात् ; अनायामाम्लमपि यद् लेपकृतं तन्न गृह्णाति २५ । न च प्रतिमा मासिक्यादिका असौ प्रतिपद्यते । याश्च 'शेषाः' भद्र-महाभद्रादिकाः प्रतिमास्ता अपि न प्रतिपद्यते, खकल्पस्थितिप्रतिपालनमेव तस्य विशेषाभिग्रह इति Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १३९५-१४०४] प्रथम उद्देशः । ४२१ भावः २६ ॥ १३९८ ॥ अथ मासकल्प इति द्वारमभिधित्सुराह- . कप्पे सुत्त-ऽत्थविसारयस्स संघयण-विरियजुत्तस्स । जिणकप्पियस्स कप्पड़, अभिगहिया एसणा निचं ॥ १३९९ ॥ कल्पे जिनकल्पविषयौ यौ सूत्रार्थो तत्र विशारदस्य-निपुणस्य संहननं-शारीरबलं वीर्यधृतिस्ताभ्यां युक्तस्य जिनकल्पिकस्य कल्पते 'अभिगृहीता' साभिग्रहा एषणा ॥ १३९९॥ 5 सा च मासकल्पस्थितिमनुपालयतो भवतीत्यतस्तस्यैव विधिमाह छन्वीहीओ गाम, काउं एकिकियं तु सो अडइ । वजेउं होइ सुह, अनिययवित्तिस्स कम्माई ॥ १४००॥ यत्रासौ मासकल्पं करोति तं ग्रामं 'षड् वीथीः' गृहपतिरूपाः कृत्वा ततः प्रतिदिनमेकैकां वीथीमटति यावत् षष्ठे दिवसे षष्ठीम् । कुतः ? इत्याह-अनियतवृत्तेरपरापरवीथीषु पर्यटतः 10 'कर्मादि' आधाकर्म-पूतिकर्मादिकं 'सुखं वर्जयितुं भवति' सुखेनैव परिहर्तुं शक्यत इति भावः ॥ १४०० ॥ कथं पुनराधाकर्मादिसम्भवो भवति ? इत्याशय तत्सम्भवं दिदर्शयिषुराह अभिग्गहे दटुं करणं, भत्तोगाहिमग तिनि पूईयं । चोदग! एगमणेगे, कप्पो त्ति य सत्तमे सत्त ॥१४०१॥ निगा.१४१२] तस्य भगवतः प्रथमवीथीमटतः कयाचिदगार्या श्रद्धातिरेकाद् घृत-मधुसंयुक्तं भैक्षमुपनीतम् ,15 तेन च 'न कल्पते मे लेपकृता भिक्षा' इति न गृहीतम्, तत एवमादीनभिग्रहान् दृष्ट्या आधाकर्मणः. करणं भवति । तच्च भक्तमवगाहिमं वा भवेत् । त्रीणि च दिवसानि तत् पूतिकम् । नोदकः प्रश्नयति–एकं ग्रामं किमनेकान् भागान् षड्वीथीरूपान् करोति । सूरिराह-कल्प एषोऽमीषां यत् षड् वीथीः कृत्वा सप्तमे दिवसे पर्यटन्ति, सप्त च जना एकस्यां वसतौ सम्भवन्तीति समासार्थः ॥ १४०१ ॥ अथ विस्तरार्थमाह दट्टण य अणगारं, सड्डी संवेगमागया काइ । (पि.नि.२९३] नत्थि महं तारिसयं, अन्नं जमलजिया दाहं ॥१४०२॥ तमनगारं तपःशोषितमलपटलजटिलवपुषं दृष्ट्वा काचित् श्राद्धिका परमसंवेगमागता सती चिन्तयति-किं मे जीवितेन यद् ईदृशस्य महात्मनो भिक्षा न दीयते ?, नास्ति मम तादृशं शोभनमन्नं यद् अहमलज्जिता सती दास्यामि ॥ १४०२ ॥ ततः 26 सव्वपयत्तेण अहं, कल्लं काऊण मोअणं विउलं । दाहामि तुट्ठमणसा, होहिइ मे पुण्णलाभो त्ति ॥ १४०३॥ सर्वप्रयत्नेनाहं 'कल्ये' द्वितीयेऽहनि भोजनं विपुलं कृत्वा दास्यामि 'तुष्टमनसा' प्रहृष्टेन चेतसा, ततो भविप्यति मे महान् पुण्यलाभः । इत्थं विचिन्त्य द्वितीये दिवसे विपुलमशनादि भक्तमवगाहिम वा उपस्कृत्य तं भगवन्तं प्रतीक्षमाणा तिष्ठति ॥ १४०३ ।। ततः किमभूत् ? इत्याह फेडित वीही तेहिं, अणंतवरनाण-दसणधरेहि । अद्दीण अपरितंता, विइयं च पहिंडिया तहियं ॥ १४०४॥ 20. 80 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ स्फेटिता-परिहृता वीथी 'तैः' जिनकल्पिकैः, कथम्भूतैः ? 'अनन्तवरज्ञान-दर्शनधरैः' इहानन्तज्ञानमयत्वादनन्ताः-तीर्थकरास्तैरुपदिष्टे वरे-उत्तमे जिनकल्पिकानां ये ज्ञान-दर्शने उपलक्षणत्वात् चारित्रं च तानि धारयन्तीत्यनन्तवरज्ञान-दर्शनधरास्तैः । आह च चूर्णिकृत् अणंतं नाणं जेसिं ते अणंता-तित्थकरा, तेहिं जिणकप्पियाणं वरं नाणं दंसणं चरित्तं च 5 जं भणियं तद्धरेहिं ति ॥ ततस्ते 'अदीनाः' मनसा अविषण्णाः 'अपरितान्ताः' कायेनानिर्विण्णा द्वितीयां वीथीं क्रमागतां पर्यटितास्तत्र क्षेत्रे । एकवचनप्रक्रमेऽपि बहुवचनाभिधानमन्येषामपि जिनकल्पिकानामेवंविधवृत्तान्तसम्भवख्यापनार्थम् ॥ १४०४ ॥ अत्र चेयं व्यवस्था पढमदिवसम्मि कम्म, तिन्नि उ दिवसाइँ पूइयं होइ । पूतीसु तिसुन कप्पड़, कप्पइ तइओ जया कप्पो ॥ १४०५॥ प्रथमे दिवसे तद् भक्तमुपस्कृतमाधाकर्म । त्रीणि दिवसानि यावद् तद् गृहं पूतिर्भवति, तेषु च त्रिपु पूतिदिनेषु तस्मिन् गृहेऽन्यदपि किञ्चिन्न कल्पते । यदा तु तृतीयः कल्पो गतो भवति तदा कल्पते । कल्पशब्देनेह दिवस उच्यते । उक्तञ्च पञ्चवस्तुकटीकायाम कल्पते तृतीये 'कल्पे' दिवसे गतेऽपरस्मिन्नहनीति (गा० १४६६)। ॥१४०५॥ 15 इदमेव स्पष्टयन्नाह . विइयदिवसम्मि कम्म, तिनि उ दिवसाइँ पूइयं होइ । तिसु कप्पेसुन कप्पड़, कप्पइ तं छट्ठदिवसम्मि ॥ १४०६॥ यस्मिन् दिवसे स जिनकल्पिकः प्रथमवीथ्यामटन् तया दृष्टस्तदपेक्षया द्वितीये दिवसे तद् भक्तमाधाकर्म, तदनन्तरं त्रीणि दिवसानि पूतिकं भवति, तेषु त्रिषु 'कल्पेषु' दिवसेषु न कल्पते, 20 किन्तु कल्पते तत् षष्ठे दिवसे ॥ १४०६ ॥ अथावगाहिमविषयं विधिमाह कल्लं से दाहामी, ओगाहिमगं न आगतो अञ्ज । तइयदिवसाइतं होइ पूइयं कप्पए छठे ॥ १४०७ ॥ अवगाहिमं दिनद्वयमपि क्षमत इति कृत्वा सा श्राद्धा चिन्तयति-यदर्थमयमवगाहिमपाको . मया कृतः स मुनिरद्य मम गृहाङ्गणं नागतः, अतः कल्ये "से" तस्याहं दास्यामीदमवगाहिममिति 25 विचिन्त्य तद्दानार्थं यदि स्थापयति तदा तत् तृतीयेऽपि दिवसे कर्मैव भवति । यत् पुनस्तस्मि नेव पाकदिवसे व्यवच्छिन्नभावा सा आत्मार्थितं करोति तदवगाहिममपि भक्तवद् मौलदिवसापेक्षया द्वितीये दिवसे कर्म, तृतीयादिषु तद् गृहं पूतिकम् , षष्ठे तु दिवसे कल्पते ॥ १४०७ ।। एतदेव स्पष्टयति एमेवोगाहिमगं, नवरं तइयदिवसे वितं कम्मं । तिसु पूइयं न कप्पइ, कप्पइ तं सत्तमे दिवसे ॥१४०८ ॥ 'एवमेव' भक्तवद् अवगाहिममपि यत् तद्दिवस एवात्मार्थीकृतं तद् द्वितीये दिवसे कर्म, तृतीयादिषु त्रिपु पूति, षष्ठे तु कल्पते । नवरं यत् तद्दिवसे नाऽऽत्मार्थयति तत् तृतीयेऽपि १°हामि ता० ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १४०५-१३] प्रथम उद्देशः । ४२३ दिवसे कर्म, ततस्त्रिपु दिवसेषु तत् पूतिकं गृहमिति कृत्वा न कल्पते, किन्तु कल्पते तद् गृहं सप्तमे दिवसे, अत एव चासौ भूयः सप्तमे दिने तस्यां वीथ्यां पर्यटति ॥ १४०८ ।। __आह यद्येवं तर्हि यदि तस्मिन्नेव दिवसे तं प्रथमवीथीमटन्तं दृष्ट्वा कश्चिदाधाकर्मादि कुर्याद मोदकादिकं वा तदर्थं कृत्वा सप्तमदिवसं यावदव्यवच्छिन्नभावः स्थापयेत् तदानीमसौ कथं जानाति ? कथं वा परिहरति ? इति, उच्यते चोयग ! तं चेव दिणं, जइ वि करिजाहि कोइ कम्माई । न हु सो तं न वियाणइ, एसो पुण सिं अहाकप्पो ॥ १४०९ ॥ हे नोदक ! तस्मिन्नेव दिने यद्यपि कुर्यात् कश्चित् किञ्चिदाधाकर्मादि 'न हि' नैव स तन्न विजानाति, "द्वौ नौ प्रकृत्यर्थं गमयतः” इति वचनाद् जानात्येवासौ श्रुतोपयोगबलेन । आह यद्यसौ श्रुतोपयोगप्रामाण्यादेव जानीते ततः किमर्थमेकं ग्राममनेकभागान् परिकल्प्य पर्यटति ?, 10 उच्यते-कल्प एषः “सिं" अमीषां भगवतां यत् सप्तमे दिवसे भूयः प्रथमवीथीं पर्यटन्ति ॥ १४०९ ॥ ततश्च तं सप्तमे दिवसे प्रथमवीथीमटन्तं दृष्ट्वा सा श्राद्धिका ब्रूयात् किं नागय त्थ तइया, असबओ मे कओ तुह निमित्तं । इइ पुट्ठो सो भगवं, विइयाएसे इमं भणइ ॥ १४१०॥ 'तदानीं यूयं किं नागताः ?, “थ" इति निपातः पूरणार्थः, मया हि त्वन्निमित्तं विपुलं 15 भक्तादिकमुपस्कुर्वन्त्या युष्मदनुपयोगादसद्ध्ययः कृतः' इति पृष्टोऽसौ भगवाँस्तूष्णीक आस्ते इति शेषः । 'द्वितीयादेशे' आदेशान्तरे पुनरिदं भणति ॥ १४१०॥ किं तत् ? इत्याह अनियंताओ वसहीओ, भमरकुलाणं च गोकुलाणं च । समणाणं सउणाणं, सारइआणं च मेहाणं ॥ १४११ ॥ अनियताः 'वसतयः' अवस्थानानि उपलक्षणत्वात् परिभ्रमणानि च । केषाम् ? इत्याह-20 भ्रमरकुलानां च गोकुलानां च श्रमणानां शकुनानां शारदानां च मेघानाम् । इत्थमनियतचर्यया भिक्षाटने श्रद्धावतामपि प्राणिनां नाधाकर्मादिकरणे भूयः प्रवृत्तिरुपजायत इति ॥ १४११ ॥ अथ “सत्त" (गा० १४०१) त्ति पदं विवृणोति__ एक्काए वसहीए, उक्कोसेणं वसंति सत्त जणा। अवरोप्परसंभासं, चयंति अन्नोन्नवीहिं च ॥ १४१२॥ एकस्यां वसतावुत्कर्षतः सप्त 'जनाः' जिनकल्पिका वसन्ति । ते चैकत्र वसन्तोऽपि परस्परसम्भाषणं 'त्यजन्ति' न कुर्वन्तीत्यर्थः; अन्योन्यवीथीं च त्यजन्ति, यस्मिन् दिने यस्यां वीथ्यामेकः पर्यटति न तस्मिन्नेव तस्यामपर इत्यर्थः ॥ १४१२ ॥ गतं सामाचारीद्वारम् । अथ स्थितिद्वारमभिधित्सुराह खेत्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए । कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य ॥ १४१३ ॥ पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवने वि से अणुग्घाया । १°गओ त्थ ता० ॥ २°यत्ता वस' ता० ॥ 25 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ कारण निप्पडिकम्मे, भत्तं पंथो य तइयाए ॥ १४१४ ॥ कस्मिन् क्षेत्रेऽमी भगवन्तो भवन्ति ? १ एवं काले २ चारित्रे ३ तीर्थे ४ पर्याये ५ आगमे ६ वेदे ७ कल्पे ८ लिङ्गे ९ लेश्यायां १० ध्याने ११ गणनायां १२ अभिग्रहाश्चामीयां भवन्ति न वा ? १३ प्रव्राजनायां १४ मुण्डापनायां च कीदृशी स्थितिः १५ मनसा आपन्ने 5 अपराधे "से" तस्य 'अनुद्धाताः' चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तं १६ कारणं १७ निप्प्रतिकर्म १८ भक्तं पन्धाश्च तृतीयस्यां पौरुप्याम् १९ इति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः ॥ १४१३ ॥ १४१४ ॥ व्यासार्थ प्रतिद्वारमभिधित्सुः प्रथमतः क्षेत्रद्वारमङ्गीकृत्याह जम्मण-संतीभावेसु होज सव्वासु कम्मभूमीसु । साहरणे पुण भइयं, कम्मे व अकम्मभूमे वा ॥ १४१५ ॥ 10 क्षेत्रविषया द्विधा मार्गणा-जन्मतः सद्भावतश्च । जन्मतो यत्र क्षेत्रेऽयं प्रथमत उत्पद्यते, सद्भावतस्तु यत्र जिनकल्पं प्रतिपद्यते प्रतिपन्नो वाऽस्ति, तत्र जन्म-सद्भावयोरुभयोरप्ययं 'सर्वासु कर्मभूमीषु' भरतपञ्चकैरावतपञ्चक-विदेहपञ्चकलक्षणासु भवेत् । 'संहरणे' देवादिना अन्यत्र नयने पुनः 'भाज्यं' भजनीयम् , कर्मभूमौ वा भवेद् अकर्मभूमौ वा । एतच्च सद्भावमाश्रित्योक्तम् । जन्मतस्तु कर्मभूमावेवायं भवतीति १॥१४१५॥ उक्त क्षेत्रद्वारम् । अथ कालद्वारमाह15 ओसप्पिणीइ दोसुं, जम्मणतो तीसु संतिभावेणं । उस्सप्पिणि विवरीया, जम्मणतो संतिभावे य ॥ १४१६ ॥ नोसप्पिणिउस्सप्पे, भवंति पलिभागतो चउत्थम्मि । काले पलिभागेसु य, साहरणे होंति सव्वेसु ॥ १४१७॥ अवसर्पिण्यां जन्मतः 'द्वयोः' सुषमदुःषमा-दुःषमसुषमयोस्तृतीयचतुर्थारकयोर्भवेत् ; सद्भा20 वतस्तु 'त्रिषु' तृतीय-चतुर्थ-पञ्चमारकेषु, दुःषमसुषमाया अन्ते जातो दुःषमायां जिनकल्पं प्रतिपद्यते इति कृत्वा । उत्सर्पिणी विपरीता जन्मतः सद्भावतश्च । इदमुक्तं भवति-उत्सर्पिण्यां दुःषमा दुःषमसुषमा-सुषमदुःषमासु तिसृषु समासु जन्माऽश्नुते, दुःषममुषमा-सुषमदुःषमयोस्तु द्वयोरमुं कल्पं प्रतिपद्यते, दुःषमायां तीर्थ नास्तीति कृत्वा तस्यां जातस्यापि दुःषमसुषमायामेव कल्पप्रतिपत्तिरिति ।। १४१६ ॥ 25 नोअवसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपे अवस्थितकाले चत्वारः प्रतिभागाः, तद्यथा--सुषमसुषमाप्रतिभागः सुषमाप्रतिभागः सुषमदुःषमाप्रतिभागः दुःषमसुषमाप्रतिभागश्चेति । तत्राद्यो देवकुरूत्तरकुरुपु, द्वितीयो हरिवर्ष-रम्यकवर्षयोः, तृतीयो हैमवतैरण्यवतयोः, चतुर्थस्तु महाविदेहेषु । तत्र चतुर्थे प्रतिभागे जन्मतः सद्भावतश्चामी भवन्ति, नायेषु त्रिपु प्रतिभागेपु। “काले" ति यो महाविदेहजो जिनकल्पिकः स सुषमसुषमादिषु षट्खपि कालेषु संहरणतो भवेत् । “पलिभागेसु अ" त्ति 37 भरतैरावत-महाविदेहेषु सम्भूताः संहरणतः सर्वेष्वपि प्रतिभागेपु देवकुर्वादिसम्बन्धिषु सम्भवन्तीति २॥ १४१७ ॥ चारित्रद्वारमाह १°सार्थमाह भा० ॥२ °मयोररकयोः सद्भावतस्तु 'तिसृषु' सुषमदुःषमा-दुःपमसुषमा. दुःपमासु स्थितिर्भवति । उत्सर्पिणी वि भा०॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १४१४-२१] प्रथम उद्देशः । पढमे वा वीये वा, पडिवजइ संजमम्मि जिणकप्पं ।। पुचपडिवन्नओ पुण, अन्नयरे संजमे होजा ॥ १४१८ ॥ 'प्रथमे वा' सामायिकाख्ये 'द्वितीये वा' छेदोपस्थापनीयनाम्नि संयमे वर्तमानो जिनकल्पं प्रतिपद्यते । तत्र मध्यमतीर्थकर-विदेहतीर्थकृत्तीर्थवर्ती प्रथमे संयमे, पूर्व-पश्चिमतीर्थकरतीर्थवर्ती तु द्वितीये इति मन्तव्यम् । पूर्वप्रतिपन्नः पुनरसौ जिनकल्पिकः 'अन्यतरस्मिन्' सूक्ष्मस-5 म्परायादावपि संयमे उपशमश्रेण्यां वर्तमानो भवेत् ३ ॥ १४१८ ॥ तीर्थ-पर्यायद्वारद्वयमाह नियमा होइ सतित्थे, गिहिपरियाए जहन्न गुणतीसा। जइपरियाए वीसा, दोसु वि उक्कोस देमूणा ॥ १४१९ ॥ स जिनकल्पिको नियमात् तीर्थे भवति, न पुनर्व्यवच्छिन्नेऽनुत्पन्ने वा तीर्थे ४ । पर्यायो द्विधागृहिपर्यायो यतिपर्यायश्च । तंत्र गृहिपर्यायो जन्मपर्याय इत्येकोऽर्थः, तत्र जघन्यत एकोन-10 त्रिंशद् वर्षाणि । यतिपर्याये तु जघन्यतो विंशतिवर्षाणि । उत्कर्षतस्तु 'द्वयोरपि' गृहिपर्याययतिपर्याययोर्देशोनां पूर्वकोटी यदा प्राप्तो भवति तदा जिनकल्पं प्रतिपद्यते ५ ॥ १४१९ ॥ अथाऽऽगम-वेदद्वारे आह न करिति आगमं ते, इत्थीवजो उ वेदों इकतरो। पुवपडिवन्नओ पुण, होज सवेओ अवेओ वा ।। १४२०॥ 15 न कुर्वन्ति 'ते' जिनकल्पिकाः 'आगमम्' अपूर्वश्रुताध्ययनम् , पूर्वाधीतं तु श्रुतं विश्रोतसिकाक्षयहेतोरेकाग्रमनाः सम्यगनुस्मरति ६ । वेदमङ्गीकृत्य-प्रतिपत्तिकाले 'स्त्रीवर्ज एकतरः' पुरुषवेदो नपुंसकवेदो वा असंक्लिप्टस्तस्य भवेत् । पूर्वप्रतिपन्नः पुनः सवेदोऽवेदो वा भवेत् । तत्र जिनकल्पिकस्य तद्भवे केवलोत्पत्तिप्रतिषेधादुपशमश्रेण्यां वेदे उपशमिते सत्यवेदत्वम् । तदुक्तम् 20 उवसमसेढीए खलु, वेदे उवसामियम्मि उ अवेदो। न उ खविए तज्जम्मे, केवलपडिसेहभावाओ ।। ( पञ्चव० गा० १४९८) शेषकालं तु सवेद इति ७ ॥ १४२० ॥ अथ कल्प-लिङ्ग-लेश्याद्वाराण्याह ठियमट्ठियम्मि कप्पे, लिंगे भयणा उ दव्वलिंगेणं । तिहि सुद्धाहि पढमया, अपढमया होज सव्वासु ॥ १४२१॥ स्थितकल्पे-प्रथमा-ऽन्तिमजिनसत्के अस्थितकल्पे च-मध्यमजिन-महाविदेहजिनसत्के अमी भवेयुः ८ । लिङ्गे चिन्त्यमाने भजना तु द्रव्यलिङ्गेन कार्या । तुशब्दो विशेषणे । किं विशिनष्टि ? प्रथमतः प्रतिपद्यमानो द्रव्य-भावलिङ्गयुक्त एव भवति । ऊर्द्धमपि भावलिङ्गं नियमाद् भवति, द्रव्यलिङ्गं तु जीर्णत्वात् चौरादिभिरपहृतत्वाद्वा कदाचिन्न भवत्यपि । उक्तञ्च इयरं तु जिण्णभावाइएहिँ सययं न होइ वि कयाइ।। न य तेण विणा वि तहा, जायइ से भावपरिहाणी ॥ (पञ्चव० गा० १५०२) १°र्थकृतां विदेहतीर्थकृतां च प्रथमे, पूर्व भा० ॥ २ °न्न उगुतीसा ता० ॥ ३ तत्र गृहिपर्याये जन्मत आरभ्य जघन्यत एकोनत्रिंश भा० ॥ ४ तत्रोपशमश्रेण्यां वेदे उपशामिते सत्यवेदः । तदु भा० ॥ ५°मादेव भ° भा० ॥ 30 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ 'इतरद्' इति द्रव्यलिङ्गम् ९ । लेश्या अङ्गीकृत्य 'तिसृषु प्रशस्तलेश्यासु' तैजस्यादिकासु 'प्रथमकाः प्रतिपद्यमानका भवन्ति । 'अप्रथमकास्तु' पूर्वप्रतिपन्नाः 'सर्वास्वपि' शुद्धा ऽशुद्धामु लेश्यासु भवेयुः, केवलमशुद्धासु वर्त्तमानो नात्यन्तसंक्लिष्टासु वर्त्तते न च भूयांसं कालमिति १० ॥ १४२१ ॥ ध्यान-गणनाद्वारद्वयमाह 5 धम्मेण उ पडिवजह, इअरेसु वि होज इत्थ झाणेसु । पडिवत्ति सयपुहुत्तं, सहसपुहुत्तं च पडिवन्ने ।। १४२२ ॥ धर्म्येण ध्यानेन तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् प्रवर्द्धमानेन सता कल्पं प्रतिपद्यते । पूर्वप्रतिपन्नस्तु 'इतरेष्वपि' आर्त्तादिषु ध्यानेषु कर्मवैचित्र्यबलाद् भवेदपि, केवलं कुशलपरिणामस्योद्दामत्वात् तीव्रकर्मपरिणतिजनितः सोऽपि रौद्राऽऽर्त्तभावोऽस्य प्रायो निरनुबन्धो भवति । तदुक्तम्एवं च कुसलजोगे, उद्दामे तिबकम्मपरिणामा । 10 e-s विभावो, इमस्स पायं निरणुबंधो || (पञ्चव० गा० १५०६) ११ । गणनाद्वारे - 'प्रतिपत्तिं' प्रतिपद्यमानतामङ्गीकृत्योत्कर्षतः शतपृथक्त्वमेकस्मिन् समयेऽमीषां भगवतां प्राप्यते । पूर्वप्रतिपन्नकानां पुनरुत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वम्, कर्मभूमिपञ्चदशकेऽप्येतावतामेवोत्कर्षतः प्राप्यमाणत्वात् । जघन्यतस्तु प्रतिपद्यमानका एको द्वौ त्रयो वेत्यादि । पूर्वप्रतिपन्नास्तु 15 जधन्यतोऽपि सहस्त्रपृथक्तवमेव, महाविदेहपञ्चके सर्वदैवैतावतामवाप्यमानत्वात् । [उत्कृष्टपदेऽपि सहस्त्रपृथक्त्वमेव ] नवरमुत्कृष्टपदाज्जधन्यपदं लघुतरमिति १२ || १४२२ || अभिग्रह प्रव्राजना- मुण्डापनाद्वाराणि व्याचष्टे - भिक्खायरियाईया, अभिग्गहा नेव सो उ पव्वावे । ―― उवदेसं पुण कुणती, धुवपवावं वियाणित्ता ॥ १४२३ ॥ भिक्षाचर्या - ऋज्वी- गत्वाप्रत्यागतिकादयो गोचरचर्याविशेषास्तदादयोऽभिग्रहा इत्वरत्वादस्य 20 न भवन्ति, जिनकल्प एव हि यावत्कथिकस्तस्याभिग्रहः, तत्र च प्रतिनियता निरपवादाश्च गोचरादयः, अतस्तत्पालनमेवास्य परमं विशुद्धिस्थानम् । यदाह एयम्मि गोयराई, नियया नियमेण निरववादा य । - तप्पालणं चिय परं, एयस्स विसुद्धिठाणं तु ।। (पञ्चव० गा० १५१०) १३ । तथा नैवासावन्यं प्रव्राजयति, उपलक्षणत्वाद् न च मुण्डापयति, कल्पस्थितिरियमिति कृत्वा 35 उपदेशं पुनः 'करोति' प्रयच्छति 'ध्रुवप्रत्राजिनम्' अवश्यप्रत्रजनशीलं विज्ञाय कञ्चन सत्त्वम् । तं च संविद्मगीतार्थसाधूनां समीपे प्रहिणोति १४–१५ ॥ १४२३ ॥ 30 अथ “मणसाऽऽवन्ने वि से अणुग्धाय" त्ति द्वारम् - मनसाऽपि सूक्ष्ममतीचारमापन्नस्यास्य सर्वजघन्यं चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् १६ । अथ कारण- निष्प्रतिकर्मद्वारे आह— निप्पडिकम्मसरीरा, न कारणं अत्थि किंचि नाणाई | जंघा लम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नाऽऽवजे ॥ १४२४ ॥ निष्प्रतिकर्मशरीरा अमी भगवन्तो नाक्षिमलादिकमप्यपनयन्ति, न वा चिकित्सादिकं कारयन्ति १७ । न च तेषां 'कारणम्' आलम्बनं ज्ञानादिकं किञ्चिद् विद्यते यद्बलात् ते द्वितीयपदासे१ धर्मेण त० डे० कां० ॥ २ व्वाविं ति जाणि ता० ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १४२२-२८] प्रथम उद्देशः । ४२७ वनं विदध्युः १८ । 'भक्तं पन्थाश्च तृतीयस्याम्' इति द्वारम्-तृतीयस्यां पौरुप्यां भिक्षाकालो विहारकालश्चास्य भवति, शेषामु तु पौरुपीपु प्रायः कायोत्सर्गेणाऽऽस्ते । जङ्घाबले परिक्षीणे पुनः 'अविहरन्नपि' विहारमकुर्वन्नपि नापद्यते कमपि दोषम् , किन्त्वेकत्रैव क्षेत्रे खकल्पस्थितिमनुपालयतीति १९ ॥ १४२४ ॥ व्याख्यातं स्थितिद्वारम् । तव्यास्याने चाभिहितो जिनकल्पविहारः । अथ शुद्धपरिहारिक-यथालन्दिकविहारविषयं विधिमतिदिशन् विशेषं च विभणिषुराहएसेवं कमो नियमा, सुद्धे परिहारिए अहालंदे। परिहारनाणत्ती य जिणेहि, पडिवजइ गच्छ गच्छो य ॥ १४२५ ॥ विशुद्धिक यथालन्दएष एव "पवज्जा सिक्खावय" (गाथा ११३२) इत्यादिकः क्रमः शुद्धपरिहारिके यथा- कल्पयोलन्दिके च मन्तव्यः । नवरं परिहारकल्पविषयं नानात्वं 'जिनेभ्यः' जिनकल्पिकेभ्यः सकाशात् , विधिः किम् ? इत्याह-प्रतिपद्यते "गच्छ गच्छो य" ति गच्छद्वयं चशब्दात् तृतीयश्च गच्छः, 10 त्रयो गच्छा जघन्यतोऽप्यमुं कल्पं प्रतिपद्यन्त इत्यर्थः ॥ १४२५ ॥ तवभावणणाणत्तं, करंति आयंबिलेण परिकम्मं । इत्तिरिय थेरकप्पे, जिपकप्पे आवकहियाओ ॥१४२६ ॥ तपोभावनायां नानात्व-विशेषः, किम् ? इत्याह-कुर्वन्त्यायामाम्लेन ते भगवन्तः ‘परिकर्म' अभ्यासम् । ते च द्विविधाः-इत्वरा यावत्कंथिकाश्च । प्रस्तुतकल्पपरिसमाप्ती ये भूयः स्थवि-15 रकल्पं प्रतिपद्यन्ते ते इत्वराः, ये तु जिनकल्पं ते यावत्कथिकाः ॥ १४२६ ॥ पुण्णे जिणकप्पं वा, अइंति तं चेव वा पुणो कप्पं । गच्छं वा इंति पुणो, तिनि विहाणा सिं अविरुद्धा ॥ १४२७॥ 'पूर्णे' शुद्धपरिहारकल्पे जिनकल्पं वा आयान्ति, तमेव वा परिहारविशुद्धिकं कल्प पालयन्ति, गच्छं वा आगच्छन्ति पुनः । एवं त्रीण्यपि 'विधानानि' प्रकाराः "सिं" तेषां परिहार-30 विशुद्धिकानामविरुद्धानि ॥ १४२७ ॥ इत्तरियाणुवसग्गा, आतंका वेयणा य न भवंति । आवकहियाण भइया, तहेव छ ग्गामभागा उ ॥१४२८ ॥ इत्वराणां शुद्धपरिहारकाणामुपसर्गा आतङ्का वेदनाश्च न भवन्ति, तत्कल्पप्रमावादेव जीतमेतत् । यावत्कथिकानां तु भाज्या उपसर्गादयः, जिनकल्पस्थितानां तेषां तत्सम्भवात् । यथा 25 च जिनकल्पिकानां षड् प्रामभागा भिक्षाटनविषया उक्तास्तथैवामीषामपि । एवं सर्वाऽपि सामाचारी तथैव द्रष्टव्या । विशेषः पुनरयम्-नवपुरुषप्रमाणो गणस्ताक्दमुं कल्पं प्रतिपद्यते, तत्र चत्वारः परिहारिकाः, चत्वारः पुनरनुपरिहारिकाः, एकस्तु तेषां कल्पस्थितः, अनुपरिहारिकाणां कल्पस्थितस्य चैकः सम्भोगः, परिहारिकाणां पृथक् पृथगित्यादिका प्रक्रिया तावन्नेया यावत् षण्मासाः । (ग्रन्थानम्-६५०० । मूलत एवम्- १११००) ततः परिहारिका अनुपरिहा- 30 रिकीभवन्ति, अनुपरिहारिकाः परिहारिकत्वं प्रतिपद्यन्ते, कल्पखितस्तु प्राक्तन एवेत्येवमपि षण्मासाः । ततः कल्पस्थितोऽपि षण्मासान् यावत् परिहारिकत्वं प्रतिपयते, शेषास्तु यथायोगमनु १°व गमो ता० ॥ २ वि ठाणा सि म° ता० ॥ ३°ल्पं परिपाल' त.. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ 10 सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ पारिहारिकत्वं कल्पस्थितत्वं चेत्यष्टादशभिर्मासैरयं कल्पः समाप्यत इत्यलं प्रसङ्गेन । एतेषां हि खरूपमिहैव षष्ठोद्देशके भाष्यकृतैव न्यक्षेण वक्ष्यते ॥ १४२८ ॥ अमीषामेव स्थितिनानात्वमभिधित्सुः प्राक्तनमेव (गा० १४१३-१४) द्वारगाथाद्वयमाह खेत्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए । कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य ॥ १४२९ ॥ पव्यावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने वि से अणुग्घाया। कारण निप्पडिकम्मा, भत्तं पंथो य तइयाए ॥ १४३० ॥ अस्य समासार्थो व्यासार्थश्च जिनकल्पिकद्वार इवावगन्तव्यः ॥ १४२९ ॥ १४३० ॥ यस्तु यत्र विशेषस्तत्र तमुपदर्शयति खेत्ते भरहेरवएसु होति साहरणवजिया नियमा। ठियकप्पम्मि उ नियमा, एमेव य दुविह लिंगे वि ॥ १४३१ ॥ क्षेत्रद्वारे पारिहारिका भरतैरावतयोरेव भवन्ति, न विदेहेषु । तत्रापि 'संहरणवर्जिताः' अमी न केनापि देवादिनाऽन्यत्र संहियन्ते । एतेन कालद्वारनानात्वमप्युक्तं मन्नत्यम् । तच्चेदम् काले उत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां वा भवेयुः, न नोअवसर्पिण्युत्सपिण्यां सुपममुपमादिषु वा प्रतिभा15 गेषु । कल्पद्वारे—नियमादमी स्थितकल्पे भवन्ति, प्रथम-चरमतीर्थकरतीर्थव्यतिरेकेणामी पामभावात् । लिङ्गद्वारे—एवमेव 'द्विविधेऽपि' द्रव्य-भावरूपे लिङ्गे नियमादमी भवन्ति ॥१४३१॥ चारित्रद्वारनानात्वमाह-- तुल्ल जहन्ना ठाणा, संजमठाणाण पढम-वितियाणं । तत्तो असंख लोए, गंतुं परिहारियट्ठाणा ॥ १४३२ ॥ ते वि असंखा लोगा, अविरुद्धा ते वि पढम-विइयाणं । उपरिं पि ततो असंखा, संजमठाणा उ दोण्हं पि ॥१४३३॥ 'प्रथम-द्वितीययोः' सामायिक च्छेदोपस्थापनीयरूपयोः संयमस्थानयोः सम्बन्धीनि यानि जघन्यस्थानानि तानि परस्परं तुल्यानि, विशुद्धिसाम्यात् । 'ततः' जघन्यसंयमस्थानेभ्यः परतः 'असङ्ख्येयान् लोकान् गत्वा' असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेषु संयमस्थानेषु व्यतीतेप्वित्यर्थः 25 परिहारिकस्य-परिहारविशुद्धिकस्य संयमस्थानानि भवन्ति, तान्यपि 'असङ्ख्येया लोकाः' अस येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि । एतानि च 'प्रथम-द्वितीययोरपि' सामायिक च्छेदोपस्थापनीययोर्विशुद्धिविशेषसाम्यादविरुद्धानि, तयोरपि सम्बन्धीनि भवन्तीत्यर्थः । ततः' परिहारिकसंयमस्थानेभ्य उपर्यपि असङ्ख्येयानि संयमस्थानानि 'द्वयोरपि' सामायिक-च्छेदोपस्थापनीययोर्भ. वन्ति, ततः सामायिक-च्छेदोपस्थापनीये व्यवच्छिद्यते । ततः परं सूक्ष्मसम्परायस्यान्तर्मुहूर्तसमय30 प्रमाणान्यसहयेयानि संयमस्थानानि भवन्ति । तत ऊर्द्धमनन्तगुणमेकं यथाख्यातचारित्रस्य संयमस्थानमिति ॥ १४३२ ॥ १४३३ ॥ अथ प्रकृतयोजनामाह सट्टाणे पडिवत्ती, अन्नेसु वि होज पुव्वपडियन्नो। अनेसु वि बटुंतो, तीयनयं बुच्चई पप्प ॥ १४३४ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ भाष्यगाथाः १४२९-३८] प्रथम उद्देशः । 'खस्थाने' खेषु-परिहारविशुद्धिकचारित्रसत्केषु संयमस्थानेषु वर्तमानः गरहारकल्पस्य प्रतिपत्तिं करोति । पूर्वप्रतिपन्नः 'अन्येप्वपि' सामायिकादिसंयमस्थानेषु खसयमस्थानापेक्षया विशुद्धतरेप्वध्यवसायविशेषाद् भवेत् । तेषु चान्येप्वपि संयमस्थानेषु वर्तमानोऽसावनुभूतपूर्व परिहारविशुद्धिकसंयमस्थानत्वाद् 'अतीतनयम्' अतीतार्थाभ्युपगमपरं व्यवहारनय प्राप्य' अङ्गीकृत्य परिहारविशुद्धिक इति प्रोच्यते, निश्चयनयमङ्गीकृत्य पुनर्नोच्यते, संयमस्थानान्तराध्यासना-5 दिति ॥ १४३४ ।। गणनाद्वारे नानात्वमाह गणओ तिन्नेव गणा, जहन्न पडिबत्ति सयसों उक्कोसा। उकोस-जहन्नेणं, सतसो च्चिय पुव्वपडिवन्ना ॥ १४३५ ॥ इह गणना द्विधा-गणप्रमाणतः पुरुषप्रमाणतश्च । तत्र यदा किल प्रस्तुतकल्पम्य प्रतिपत्तिः प्राप्यते तदा 'गणतः' गणप्रमाणमाश्रित्य त्रय एव गणा जघन्यतः प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य ज्ञातव्याः । 10 उत्कर्पतः 'शतशः' शतपृथक्त्वसङ्ख्याका गणा अमुं कल्पं युगपत् प्रतिपद्यन्ते । ये तु पूर्वप्रतिपनास्ते उत्कर्पतो जघन्यतश्च 'शतश एव' शतपृथक्त्वसङ्ख्याका एव । नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदमधिकतरम् ॥ १४३५॥ सत्तावीस जहन्ना, सहस्स उक्कोसतो उ पडिवत्ती। सयसो सहस्ससो वा, पडिवन्ना जहन्न उकोसा ।। १४३६॥ 13 सप्ता(प्तविंशतिः पुरुपा जघन्यतोऽस्य कल्पस्य प्रतिपत्ति कुर्वन्ति, त्रिपु नवकगणेषु सप्ता(प्त)विंशतेजनानां भावात् । उत्कर्पतः सहस्रपृथक्त्वम् । पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतः 'शतशः' शतपृथत्त्वम् , उत्कर्षतः 'सहस्रशः' सहस्रपृथत्त्वम् ।। १४३६ ॥ पुरुषप्रमाणत एव विशेषमाह पडिवजमाण भइया, इक्को विउ होज ऊणपक्खेवे । पुचपडिवनया वि उ, भइया इको पुहुत्तं वा ॥ १४३७ ॥ 20 प्रतिपद्यमानकाः पुरुषाः 'भक्ताः' विकल्पिताः । कथम् ? इत्याह–एकोऽपि भवेदूनप्रक्षेपे, अपिशब्दाद् यादयोऽपि । इदमुक्तं भवति–पूर्णायामष्टादशमास्यां यदि केचित् परिहारिकाः कालगता जिनकल्पं वा प्रतिपन्ना गच्छं वा प्रत्यागताः, ये शेषास्ते तमेव परिहारकल्पमनुपालयितुकामाः, ततो यावद्भिः प्रविष्टैर्नवको गणः पूर्यते तावन्तोऽपरे प्रवेशनीया इति कृत्वा प्रतिपद्यमानका एक-यादिसङ्ख्याका अपि भवेयुः । पूर्वप्रतिपन्नका अपि भाज्याः । कथम् ? इत्याह-25 एको वा भवेत् पृथक्त्वं वा । इयमत्र भावना—यदि पूर्णेप्वष्टादशसु मासेप्वष्टौ परिहारविशुद्धिकाः कल्पान्तरं प्रतिपद्यन्ते तत एकः पूर्वप्रतिपन्नः; यदा तु केचित् कल्पान्तरं प्रतिपद्यन्ते केचित्तु व्यादिसङ्ख्याकास्तमेव कल्पमनुपालयन्ति तदा पृथक्त्वं पूर्वप्रतिपन्नकानां भवतीति ॥ १४३७ ॥ गतं गणनाद्वारम् । शेषद्वाराणि तु सर्वाण्यपि जिनकल्पतुल्यवक्तव्यान्येवेत्युक्तं शुद्धपरिहारनानात्वम् । सम्प्रति यथालन्दकल्पनानात्वमाह 30 ___ लंदो उ होइ कालो, उक्कोसगलंदचारिणो जम्हा । तं चिय मज्झ पमाणं, गणाण उक्कोस पुरिमाणं ॥ १४३८ ॥ लन्दन्तु भवति काल:, लन्दशब्देन काल उच्यते इत्यर्थः । स पुननिधा-जघन्य उत्कृष्टो Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ मध्यमश्च । यावता कालेनोदकाः करः शुष्यति तावान् जघन्यः, उत्कृष्टः पञ्च रात्रिन्दिवानि, जघन्यादूर्द्धमुत्कृष्टादाक् सर्वोऽपि मध्यमः । इह चोत्कृष्टलन्देनाधिकारः । तथा चाह-'उत्कृष्टलन्दचारिणः' उत्कृष्टं लन्दं-पञ्चरात्ररूपमेकस्यां वीथ्यां चरणशीला यस्मात् , ततोऽमी 'उत्कृष्टलन्दानतिक्रमो यथालन्दम् , तदस्त्येषाम्' इति व्युत्पत्त्या यथालन्दिका उच्यन्ते । तदेव च' 5 लन्दमानं 'मध्यम' निकलक्षणममीषां गणप्रमाणम् , त्रयो गणा अमुं कल्पं प्रतिपद्यन्त इत्यर्थः । 'तदेव च' लन्दमानमुत्कृष्टं पञ्चकात्मकमेकैकस्य गणस्य पुरुषाणां प्रमाण द्रष्टव्यम् , एकैकस्मिन् गणे पञ्च पञ्च पुरुषा भवन्तीति भावः ॥ १४३८ ॥ जच्चेव य जिणकप्पे, मेरा सा चेव लंदियाणं पि । नाणत्तं पुण सुत्ते, भिक्खायरि मासकप्पे य ॥ १४३९ ॥ 10 यैव च जिनकल्पे 'मर्यादा' सामाचारी भणिता तुलनादिका सैव यथालन्दिकानामपि मन्तव्या। नानात्वं पुनः सूत्रे भिक्षाचर्यायां मासकल्पे चशब्दात् प्रमाणे चेति ॥ १४३९ ॥ ____ तत्र सूत्रे तावद् नानात्वमभिधातुमाह पडिबद्धा इअरे वि य, इक्किक्का ते जिणा य थेरा य । __ अत्थस्स'उ देसम्मी, असमत्ते तेसि पडिबंधो ॥ १४४०॥ 15 यथालन्दिका द्विधा-गच्छप्रतिवद्धा इतरे च । पुनरेकैके द्विविधाः-जिनाश्च स्थविराश्च । तत्रं ये प्रस्तुतकल्पपरिसमाप्तौ जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनाः, ये तु स्थविरकल्पं भूयः समाश्रयिप्यन्ते ते स्थविराः । अथ कुतोऽमीषां गच्छविषयः प्रतिवन्धः ? इत्याह---'अर्थस्य [तु]' तुशब्दस्यावधारणार्थत्वादर्थस्यैव न सूत्रस्य देशः-एकदेशोऽद्याप्यसमाप्तः-न गुरुसमीपे गृहीत इति तस्मिन् ग्रहीतव्ये सति तेषां गच्छे प्रतिबन्धः । आह तमर्थदेशं समाप्यामी विवक्षित20 कल्पं किं न प्रतिपद्यन्ते ? उच्यते-तदानीं हि लग्न-योग-चन्द्रबलादीनि प्रशस्तानि वर्तन्ते, अन्यानि च प्रशस्तलग्नादीनि दूरकालवर्तीनि, न वा तथाभव्यानि, ततोऽमी अगृहीतेऽप्यर्थदेशे तं कल्पं प्रतिपद्य गुर्वधिष्ठितक्षेत्राद् बहिर्व्यवस्थिता विशिष्टतरानुष्ठाननिरता अगृहीतमर्थशेष. गृह्णन्ति । अथ भिक्षाचर्यायां नानात्वम्-ग्रामं षड्वीथीः परिकल्प्यैकैकस्यां वीथ्यां पञ्चरात्रिन्दिवानि पर्यटन्ति, एवं पभिर्वीथीभिः पर्यटिताभिर्मासकल्पः समाप्यते । मासकल्पविषयं तु नाना25 त्वमेषामुत्तरत्र भणिप्यते ।। १४४० ॥ अथ स्थविराणां जिनानां च यथालन्दिकानां परम्परं कः प्रति विशेषः ? उच्यते थेराणं नाणत्तं, अतरंतं अप्पिणंति गच्छस्स । ते वि य से फासुएणं, करिति सव्वं तु पडिकम्मं ॥ १४४१ ॥ एकेकपडिग्गहगा, सप्पाउरणा हवंति थेराओ। 30 जे पुण सिं जिणकप्पे, भय तेसिं वत्थ-पायाणि ॥ १४४२ ॥ स्थेविरकल्पयथालन्दिकानां 'नानात्वं' विशेषोऽयम्-'अतरन्तं' ग्लान्या अशक्नुवन्तं निजं १°श्च । ये जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनाः, इतरे स्थविराः । अथ भा० ॥ २ स्थविरयथालन्दिकानां 'नानात्वं' विशेषोऽयम्-'अतरन्तः अशक्नुवन्तं-ग्लानीभूतं स्वसाधु Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १४३९-४६] प्रथम उद्देशः । ४३१ साधुं गच्छस्यार्पयन्ति । 'तेऽपि च' गच्छवासिनः "से" तस्य यथालन्दिकग्लानस्य प्राशुकेनान्नादिना सर्वमेव प्रतिकर्म कुर्वन्ति । जिनकल्पयथालन्दिकास्तु निप्प्रतिकर्माणः, ततो ग्लानीभूता अपि न चिकित्सादि कारयन्ति । तथा ये स्थविरा यथालन्दिकास्ते 'एकैकप्रतिग्रहकाः' प्रत्येकमेकप्रतिग्रहोपेताः 'सप्रावरणाः सवस्त्राश्च भवन्ति । ये पुनरमीषां मध्ये जिनकल्पे भविष्यन्ति तेषां 'भाज्ये' विकल्पनीये वस्त्र - पात्रे, यदि पाणिपात्रभोजिनः प्रावरणरहिताश्च जिनकल्पिका 5 भविष्यन्ति तदा वस्त्र-पात्रे न गृह्णन्ति, शेषास्तु यथोचितं गृह्णन्ति ॥ ९४४१ ॥ १४४२ ॥ अथ प्रमाणनानात्वं भावयतिगणमाणओ जहन्ना, पुरिसपमाणे पनरस, सहस्ससो चेव उक्कोसा ॥। १४४३ ॥ तिनि गण सयग्गसो य उक्कोसा । 'गणमानतः ' गणमानमाश्रित्य जघन्यतस्त्रयो गणाः, उत्कर्षतस्तु 'शताग्रश: ' शतपृथक्त्वं 10 गणा अमुं कल्पं प्रतिपद्यन्ते । पुरुषप्रमाणे तु जघन्यतः पञ्चदश पुरुषो अस्य कल्पस्य प्रतिपद्य - मानकाः, त्रिषु पञ्चकगणेषु जघन्यतः प्रतिपद्यमानेषु पञ्चदशजनानां भावात् । उत्कर्षतः पुरुषप्रमाणं 'सहस्रशः' सहस्रपृथक्त्वम् || १४४३ || अत्रैव विशेषमाह - पविजमाणगा वा, एकादि हवेज ऊणपक्खेवे । होति जहन्ना एए, सयग्गसो चेव उक्कोसा ॥। १४४४ ॥ प्रतिपद्यमानका एते जघन्या एकादयो वा भवेयुर्न्यनप्रक्षेपे सति यदा ग्लानत्वादिवशतो गच्छस्य स्वसाधुसमर्पणादिना तेषां न्यूनता भवति तदैकादयः साधवस्तत्र प्रवेश्यन्ते येन पञ्चको गच्छः पूर्यत इत्यर्थः । तथा 'शताग्रशः' शतसङ्ख्याः पुरुषा न्यूनप्रक्षेपे उत्कर्षतः प्रतिपद्यमानका भवन्ति ॥ १४४४ ॥ पूर्वप्रतिपन्नानां मानमाह— पुव्व पडिवनगाण वि, उक्कोस - जहन्नसो परीमाणं । कोsिहुतं भणियं, होइ अहालंदियाणं तु ।। १४४५ ।। पूर्वप्रतिपन्नानामप्युत्कर्पतो जघन्यतश्च परिमाणं कोटिपृथक्त्वं यथालन्दिकानां भवति, महाविदेहपञ्चके जघन्यपदवर्त्तिनः कर्मभूमिपञ्चदशके चोत्कर्षपदवर्त्तिनः कोटिपृथक्त्वस्यामीषां प्राप्यमाणत्वात् । भणितैमेतद् भगवद्भिरिति ॥ ९४४५ ॥ गतो यथालन्दकल्पविहारः । अथ गच्छवासिनां मासकल्पविधिमभिधित्सुः प्रस्तावनार्थं प्राक्तनीमेव ( गा० ११३२ ) मूलद्वारगाथामाहपव्वज्जा सिक्खापय, अत्थग्गहणं च अनियओ वासो । निष्पत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चैव ॥ ९४४६ ॥ [ वृ.भा. ११३२ ] गच्छस्यार्पयन्ति । 'तेऽपि च' गच्छवासिनः "से" तस्य ग्लानस्य प्राशुकेनान्नादिना कुर्वन्ति सर्वमेव 'प्रतिकर्म' प्रतिजागरणम्, जिनकल्पं प्रतिपत्तुकामास्तु नात्मीयं ग्लानं गच्छस्यार्पयन्तीति भावः । तथा ये स्थविरा यथा भा० ॥ ३ ग्लानं गच्छस्या त० डे० कां० ॥ २°षाः, पञ्चको हि गणोऽमुं कल्पं पञ्चदश भवन्ति । उत्क° भा० । ३ तमेव भ° भा० त० विना ॥ १ °णाः प्रतिपद्यमानकाः । पुरुष मो० ले० विना ॥ प्रतिपद्यते, गणाश्च जघन्यतस्त्रयः, ततः पञ्च त्रिभिर्गुणिताः 'पाः, त्रिषु पञ्चकगणेषु पञ्चदशजनानां त० डे० कां० ॥ 15 20 -25 गच्छवासिनां मासकल्पविधिः Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ अत्र प्रव्रज्यादीनि पञ्च द्वाराणि यथा जिनकल्पद्वारे तथाऽत्रापि मन्तव्यानि ॥ १४४६ ॥ अथ विहारद्वारविषयं विधिमभिषित्सुराह निष्फत्तिं कुणमाणा, थेरा विहरंति तेसिमा मेरा। आयरिय उवज्झाया, भिक्खू थेरा य खुड्डा य ॥ १४४७ ॥ 6 शिष्याणां निष्पत्तिं कुर्वन्तः 'स्थविराः' गच्छवासिनः साधवः 'विहरन्ति' अप्रतिबद्ध विहारं विदधति । तेषां चेत्थं विहरतामियं 'मर्यादा' सामाचारी । तत्र गच्छवासिनस्तावत् पञ्चविधाः, तद्यथा-आचार्या उपाध्याया भिक्षवः स्थविराः क्षुल्लकाश्चेति ॥ १४४७ ॥ धीरपुरिसपन्नत्तो, सप्पुरिसनिसेविओ अ मासविही । तस्स पडिलेहगा पुण, सुत्तत्थविसारगा भणिया ॥ १४४८ ॥ 10 धीरपुरुषैः-तीर्थकर-गणधरैः प्रज्ञप्तः, सत्पुरुषैश्च-जम्बू-प्रभवादिभिनिषेवितः-अनुष्ठितो मास कल्पविधिः । 'तस्य पुनः' मासकल्पविधेः प्रत्युपेक्षकाः सूत्रार्थविशारदाः साधवो भणिता भगवद्भिः। स पुनर्विहारः शरदादिर्भवति ॥ १४४८ ॥ कथम् ? इति चेद् उच्यते वासावासातीए, अट्ठसु चारो अतो उ सरदाई । पडिलेह-संकमविही, ठिए अ मेरं परिकहेहं ॥ १४४९ ॥ 15 वर्षावासेऽतीते-अतिक्रान्ते 'अष्टसु' ऋतुबद्धमासेषु 'चारः' मासे मासे क्षेत्रान्तरगमनलक्षणो विहारो भवति, अतः शरदादिरयं मन्तव्यः । तत्र च क्षेत्रप्रत्युपेक्षणविधि क्षेत्रान्तरसङ्क्रमणविधि प्रत्युपेक्षिते च क्षेत्रे “ठिए" त्ति स्थितानां सतां या काचिद् मर्यादा तामहं परिकथयिष्यामि ॥ १४४९ ॥ प्रतिज्ञातमेव यथाक्रमं व्याचिख्यासुराह-- क्षेत्रप्रत्यु निग्गमणम्मि उ पुच्छा, पत्तमपत्ते अइच्छिए वा वि। वाघायम्मि अपत्ते, अइच्छिए तस्स असतीए ॥ १४५० ॥ यत्र वर्षावासः कृतस्ततः क्षेत्राद् निर्गमने 'पृच्छा' किं कार्तिकचतुर्मासे प्राप्ते निर्गन्तव्यम् ? उताप्राप्ते ? आहोश्चिदतिक्रान्ते ? उच्यते-यदि कोऽपि व्याघातस्तदा अप्राप्ते वा अतिक्रान्ते वा निर्गच्छन्ति । 'तस्य' व्याघातस्य 'असति' अभावे प्राप्ते चातुर्मासिकदिने मार्गशीर्षप्रतिपदि निर्गत्य बहिर्गत्वा पारयन्ति ॥ १४५० ॥ कः पुनर्व्याघातः ? इत्याह पत्तमपत्ते रिक्खं, असाहगं पुण्णमासिणिमहो वा । पडिकूल त्ति य लोगो, मा वोच्छिइ तो अईयम्मि ॥१४५१॥ प्राप्ते चातुर्मासिकदिवसे अप्राप्ते वा यद्याचार्याणाम् 'ऋक्षं' नक्षत्रम् 'असाधकम्' अननुकूलं पौर्णमासीमहो वा तदा भवेत् कार्तिकीमहोत्सव इत्यर्थः, तत्र च लोको निर्गच्छतः साधून दृष्ट्वा अमङ्गलं मन्यमानः 'प्रतिकूलाः' 'अस्मन्महोत्सवप्रतिपन्थिनोऽमी मुण्डा येऽस्मिन्नेवंविधे महोत्सवे 30खमुखमस्माकं दर्शयन्ति' इत्येवं ‘मा वक्ष्यति' मा भणिप्यति, ततोऽतीते निर्गन्तव्यम् ॥१४५१॥ पत्ते अइच्छिए वा, असाहगं तेण णिति अप्पत्ते ।। नाउं निग्गमकालं, पडिचरए पेसविति तहा ॥ १४५२ ॥ अथ प्राप्ते अतिक्रान्ते वा निर्गमनकाले नक्षत्रमसाधकम् . उपलक्षणत्वाद् मेघो वा वर्षणाद् पेक्षण 25 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । ४३३ भाष्यगाथाः १४४७-५६ ] नोपरंस्यते पन्थानः कर्दमदुर्गमाश्च भविष्यन्तीत्यतिशयज्ञानवशेन परिज्ञाय 'तेन' कारणेन ‘अप्राप्ते' चातुर्मासिके निर्गच्छन्ति । निर्गमनकालं च ज्ञात्वा 'प्रतिचरकान् ' क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान् तथा प्रेषयन्ति यथा तेप्वायातेषु सत्सु निर्गमनकाल उपढौकते ॥ १४५२ ॥ तच्च क्षेत्रं द्विधादृष्टपूर्वमदृष्टपूर्वं च, उभयमपि नियमात् प्रत्युपेक्षणीयम्, कुतः ? इति चेद् उच्यते-अप्प डिलेहियदोसा, वसही भिक्खं व दुल्लहं होजा । 5 बालाइ - गिलाणाण व, पाउग्गं अहव सज्झाओ ।। १४५३ ।। [ ओ. नि. १३० ] अप्रत्युपेक्षिते क्षेत्रे गच्छतामेते दोषाः:- सा पूर्वदृष्टा वसतिः स्फेटिता पतिता वा भवेत्, अन्ये वा साधवस्तस्यां स्थिता भवेयुः, भैक्षं वा दुर्लभं भवेत्, दुर्भिक्षादिभावाद् बालादीनां ग्लानानां वा प्रायोग्यं दुर्लभं भवेत्, स्वाध्यायो वा दुर्लभः स्यात्, मांस-शोणितादिभिरस्वाध्यायिकैराकीर्णत्वात् ॥ १४५३ ॥ यतश्चैवमतः किं विधेयम् ? इत्याह 10 तम्हा पुत्रि पडिलेहिऊण पच्छा विहीए संकमणं । पेसे जइ अणापुच्छिउं गणं तत्थिमे दोसा ।। १४५४ ॥ [ ओ.नि. १३१ ] तस्मात् पूर्वं प्रत्युपेक्ष्य क्षेत्रं पश्चाद् विधिना सङ्क्रमणं तत्र कर्त्तव्यम् । अथाप्रत्युपेक्षिते व्रजन्ति ततश्चतुर्लघु, आज्ञाभङ्गे चतुर्गुरु, अनवस्थायां चतुर्लघु, मिथ्यात्वे चतुर्लघु, यद् वा संयमविराधनादिकं प्रामुवन्ति तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । यदि पुनराचार्यः 'गणं' गच्छमनापृच्छय क्षेत्रप्रत्युपे - 15 क्षकान् प्रेषयति तदा मासलघु । 'तत्र' गणमनापृच्छ्य प्रेषणे इमे दोषाः ॥ १४५४ ॥ तेणा सावय मसगा, ओम सिवे सेहइत्थि पडिणीए । थंडिल सहि उट्ठाण एवमाई भवे दोसा ॥ १४५५ ।। [ आं. नि. १३३ ] स्तेना द्विविधाः – शरीरस्तेना उपधिस्तेनाश्च, 'वापदाः' सिंह- व्याघ्रादयः 'मशकाः' प्रतीताः 'अवमं' दुर्भिक्षं 'अशिवं' व्यन्तरकृत उपद्रवः, शैक्षस्य वा तत्र सागारिकः स्त्रियो वा मोहोद्रेक - 20 बहुलाः साधूनुपसर्गयन्ति, प्रत्यनीको वा कोऽप्युपद्रवति, स्थण्डिलानि वा तत्र न विद्यन्ते, वसतिर्वा नास्ति, "उड्डाणे" त्ति उत्थितः उद्वसितः स देशः, एवमादयस्तत्रापान्तराले पथि गच्छतां दोषा भवन्ति ॥ १४५५ ॥ तत्र स्थाने प्राप्तानां पुनरिमे दोषाः - पञ्चंत तावसीओ, सावय दुब्भिक्ख तेणपउराई | नियम पट्ठाणे, फेडणया हरियपत्ती य ।। १४५६ ।। [ओ.नि.१३४] 25 स ग्रामः ‘प्रत्यन्तः’ म्लेच्छाद्युपद्रवोपेतः, तापस्यो वा तत्र प्रचुरमोहाः संयमात् परिभ्रंशयन्ति, श्वापदुभयं दुर्भिक्षभयं स्तेनप्रचुराणि च तानि क्षेत्राणि, शैक्षस्यान्यस्य वा कस्यापि साधो - स्तत्र 'निजकाः' खजनास्ते तमुत्प्रत्राजयन्ति, 'प्रद्विष्टो वा' प्रत्यनीकस्तत्र साधू नुपद्रवति, उत्थितो वास ग्रामः स्फेटिता वा सा वसतिः, 'स्फेटितानि वा' विपरिणामितानि तानि कुलानि येषां निश्रया तत्र गम्यते । आह च चूर्णिकृत् फेडियाणि वा ताणि कुलाणि जेसिं निस्साए गम्मइति । “हैरियपत्ती य” ति हरितपत्रशाकं बाहुल्येन तत्र भक्ष्यते । अथवा तत्र देशे केषुचिद् गृहेषु 'यमेन प्र° डे० ॥ २ 'लादि वा तत्र न विद्यते मो० ले० ॥ ३ " हरितपण्णी पिकच्छायं 30 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ राज्ञो दण्डं दत्त्वा देवतोपहारार्थमागन्तुकः पुरुषो मार्यते, गृहस्य चोपरिष्टादार्दा वृक्षशाखा चिह्न क्रियते, एतेन चिहेनास्माभिराख्यातमेव भवति, अतो मारणेऽप्यस्माकं न दोष इति । यत एते दोषा अतः सर्वमपि गणमामन्त्र्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेषणीयाः ॥ १४५६ ॥ ___ यदि पुनर्न सर्वमपि गणमामन्त्रयते तत एते दोषाःक्षेत्रप्रत्यु- 6 सीसे जइ आमंते, पडिच्छगा तेण बाहिरं भावं । पेक्षणायाः प्राग् गणस्य जइ इअरे तो सीसा, ते वि समत्तम्मि गच्छति ॥१४५७॥[ओ.नि.१३५] सम्मतिः तरुणा बाहिरभावं, न य पडिलेहोवहिं न किइकम्मं । मूलगपत्तसरिसगा, परिभूया वञ्चिमो थेरा ॥ १४५८ ॥ [ओ.नि. १३६] यद्याचार्यः शिप्यान् केवलानामन्त्रयति 'कस्यां दिशि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेषयितुमुचिताः ?' 10 इति ततो मासलघु, आज्ञादयश्च दोषाः । प्रतीच्छकाश्च 'तेन' कारणेन बाह्यं भावं गच्छेयु: अहो ! खशिष्या एवामीषां सर्वकार्येषु प्रमाणं न वयमिति, अतो राग-द्वेषदूषितत्वात् को नामामीषामुपकण्ठे स्थास्यति ? इति । यदि 'इतरान्' प्रतीच्छकानामयते ततः शिष्या बहिर्भावं गच्छेयुः-प्रतीच्छका एव तावदमीषां प्रसादपात्रम् , अतः किमर्थं वयमेव वैयावृत्त्यादिप्रयासं कुर्मः ? इति । 'तेऽपि' प्रतीच्छकाः समाप्ते सूत्रार्थग्रहणे खगच्छं गच्छन्ति । ततश्चाचार्य उभ15 यैरपि प्रतीच्छक-शिष्यैः परित्यक्तः सन्नेकाकी सञ्जायेत ॥ १४५७ ॥ अथ वृद्धानामन्त्रयते ततस्तरुणा बहिर्भावं मन्यन्ते, 'न च' नैव गुरूणां क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाणां वा उपकरणं प्रत्युपेक्षन्ते, न वा स्थविरादीनामुपधिं वहन्ति, न च कृतिकर्म-भक्तपानानयनविश्रामणादिकं कुर्वते, 'वृद्धा एव सर्वमपि विधास्यन्ति, केऽत्र वयमस्थापितमहत्तराः ?' इति । अथैतदोषभयात् तरुणानेव पृच्छति ततः स्थविराश्चिन्तयेयुः-'मौलकपत्रसदृशाः' मौलम्-आद्य 20 यत् पर्ण परिपक्कप्रायं यदि वा मूलकः-कन्दविशेषस्तस्य यत् पत्रं निस्सारं तत्सदृशा वयम् अत एव च 'परिभूताः' परिभवपदमायाता इत्यतो ब्रजामो वयं गणान्तरमिति ॥ १४५८ ॥ अथाकिञ्चित्करत्वात् स्थविराणामनामन्त्रणेऽपि का नाम हानिः सम्पद्यते ? उच्यते जुन्नमएहि विहूणं, जं जूहं होइ सुट्ट वि महल्लं । तं तरुणरहसपोइअ, मयगुम्मइ सुहं हंतुं ॥ १४५९ ॥ [ओ.नि. १३७] 25 जीर्णाः-परिणतवयसो ये मृगास्तैर्विहीनं यद् यूथं भवति 'सुष्टुपि' अतिशयेन ‘महत्' महा. समूहात्मकं तद् यूथं "तरुण" त्ति भावप्रधानत्वाद् निर्देशस्य तारुण्येन-यौवनवशेन यो रभसः-- चापलं गौरिगीतश्रवणादिविषयं तेन “पोतितं" ति देशीवचनत्वोदितस्ततः स्पन्दितं 'मद्गुल्मिपणं वा भुजति । अधवा तत्थ वज्झइ आगंतुओ, ताधे हरितसाले घेत्तुं पियपुच्छओ जणो एति । अधवा तत्थ विसं गरो वा दिज्जति जहा अड्डगामे भमो वा उदिज्जति । ताधे तेसु घरेसु हरिता साहुलया कीरंति । एतेहिं चिंधेहिं अम्हेहिं अक्खातमेव भवति, अक्खाते य अम्हं न दोसो विसदाणे । जम्हा एते दोसा तम्हा सव्वो गणो आमंतेयन्वो ।" इति चूर्णी विशेषचूर्णी च ॥ १त. डे० विनाऽन्यत्र-णादिवत्यन्तासक्तिरिति यावत् तत्र पोति भा० । °णादिकं तेन पोति मो० ले० ॥२°त्वाद् निमग्नं मद भा० । त्वात् त्रासितं मद कां० । “पोइता त्रासिताः" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १४५७-६३] प्रथम उद्देशः । ४३५ तं' मदेन पूर्णितचेतनं सत् सुखं 'हन्तुं' विनाशयितुम् , सुखेन तद् व्यापाद्यत इति भावः । उक्तञ्च अतिरागप्रणीतान्यतिरभसकृतानि च । तापयन्ति नरं पश्चात् , क्रोधाध्यवसितानि च ॥ यतश्चैवमतः सर्व एव मिलिताः सन्तः प्रष्टव्याः ॥ १४५९ ॥ अत्रैव प्रायश्चित्तमाह आयरियअवाहरणे, मासो वाहित्तऽणागमे लहुओ। वाहित्ताण य पुच्छा, जाणगसिढे तओ गमणं ॥१४६०॥ आचार्या गणं न व्याहरन्ति-नामन्त्रयन्ते मासलघु । शिष्य-प्रतीच्छक-तरुण-स्थविराणामन्यतमान् विशेप्यामन्त्रयन्ते तदाऽपि मासलधु । तेऽपि च व्याहृताः सन्तो यदि नागच्छन्ति तदाऽपि मासलघु । व्याहृत्य च सर्वमपि गणं पृच्छा कर्तव्या, यथा-कतरत् क्षेत्रं प्रत्युपेक्षणीयम् ? |10 ततो ज्ञायकेन-क्षेत्रस्वरूपज्ञेन शिष्टे-कथिते सति गमनं क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैः कर्तव्यम् ॥१४६० ॥ आमन्त्रणस्यैव विधिमाह थुइमंगलमामंतण, नागच्छइ जो व पुच्छिओ न कहे। तस्सुवारिं ते दोसा, तम्हा मिलिएसु पुच्छिज्जा ||१४६१।। [ओ.नि. १३८] आवश्यके समापिते 'स्तुतिमङ्गलं कृत्वा' तिस्रः स्तुतीर्दत्त्वेति भावः । सर्वेषामपि साधूना-15 मामन्त्रणं कर्त्तव्यम् । कृते चामन्त्रणे यः कश्चिद् नाऽऽगच्छति आगतो वा क्षेत्रखरूपं पृष्टः सन् न कथयति तदा मासलघु, तथा तस्योपरि 'ते दोषाः' स्तेनश्वापदादयो भवन्ति ये तत्र गतानां भविष्यन्ति । तस्माद् मिलितेषु सर्वेष्वपि पृच्छेत् , उपलक्षणत्वात् सर्वेऽपि च कथयेयुः ॥१४६१॥ अत्रैव मतान्तरमुपन्यस्य दूषयन्नाहकेई भणंति पुट्वि, पडिलेहिय एवमेव गंतव्वं ।। 20 तं तु न जुजइ वसहीफेडण आगंतु पडिणीए ।।१४६२॥ ओ.नि.१३९) केचिद् भणन्ति--'पूर्व' प्राक् प्रत्युपेक्षिते क्षेत्रे एवमेव गन्तव्यम् न पुनस्तत्र क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेषणीया इति, तत् तु 'न युज्यते' न घटते । कुतः ? इत्याह-वसतेः कदाचित् स्फेटनं कृतं भवेत् , आगन्तुको वा प्रत्यनीकस्तत्र सम्भवेत् , अतः पूर्वदृष्टमपि क्षेत्रं प्रत्युपेक्षणीयम् ॥१४६२ ॥ अथ कथं प्रष्टव्यम् ? इत्याह 25 कयरी दिसा पसत्था, अमुगी सव्वेसि अणुमए गमणं । चउदिसि ति दु एकं वा, सत्तग पणगे तिग जहने ।।१४६३|| ओ.नि.१४०] - यदा सर्वेऽपि साधवो मिलिता भवन्ति तदा गुरवो ब्रुवते-आर्याः ! पूर्णोऽयमस्माकं मासकल्पः, क्षेत्रान्तरं सम्प्रति प्रत्युपेक्षणीयम् , अतः कतरा दिक् साम्प्रतं प्रशस्ता ? । ते ब्रुवते'अमुका' पूर्वादीनामन्यतमा । एवं सर्वेषां यद्यसौ 'अनुमता' अभिरुचिता तदा गमनं कर्तव्यम् । 30 प्रथमं चतसृष्वपि दिक्षु, अथ चतुर्थी कोऽप्यशिवायुपद्रवस्ततस्तिसृषु दिक्षु, तदभावे द्वयोर्दिशोः, तदसत्येकस्यां दिशि गच्छन्ति । ते चैकैकस्यां दिश्युत्कर्षतः सप्त व्रजन्ति, सप्तानामभावे पञ्च, १°तलोचनं मो० ले ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सर्गतः योग्या अयोग्याश्च क्षेत्रप्रत्यु पेक्षकाः 6 10 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ४३६ जघन्येन तु त्रयः साधवो नियमाद् गच्छन्ति ॥ १४६३ ॥ तत्र च ये आभिग्रहिकाः - क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थं प्रतिपन्नाभिग्रहास्ते स्वयमेव गुरुनापृच्छय गच्छन्ति । अथ न सन्त्याभिग्रहिकास्ततः को विधि: ? इत्याह वेयावच्चगरं बाल वुड्डु खमयं वहंतऽगीयत्थं । गणच्छे अगमणं, तस्स व असती य पडिलोमं ॥ १४६४ ॥ वैयावृत्त्यकरं १ बालं २ वृद्धं ३ क्षपकं ४ ' वहन्तं' योगवाहिनं ५ अगीतार्थं ६ एतान् न क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाय व्यापारयेत्, किन्तु गणावच्छेदकस्य गमनं भवति । तस्य वाशब्दादपरस्य वा गीतार्थस्य ‘असति' अभावे 'प्रतिलोमं' प्रतीपक्रमेण पश्चानुपूर्व्येत्यर्थः, एतानेवागीतार्थमादिं कृत्वा व्यापारयेदिति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ।। १४६४ ॥ 25 अथैनामेव विवरीषुः प्रथमतः प्रायश्चित्तमाह आइतिए चउगुरुगा, लहुओ मासो उ होइ चरिमतिए । आणाइणो विराहण, आयरियाई मुणेयव्वा ।। १४६५ ‘आदित्रिके' वैयावृत्त्यकर - बाल-वृद्धलक्षणे व्यापार्यमाणे चत्वारो गुरुकाः । ' चरमत्रिकेतु' क्षपक- योगवाहि-अगीतार्थलक्षणे लघुको मासः । आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना चाऽऽचार्या - 15 दीनां ज्ञातव्या ॥ १४६५ ॥ तामेव भावयति ठवणकुले व न साहइ, सिट्ठा व न दिंति जा विराहणया । परितावणमणुकंपण, तिह समत्थो भवे खमओ ॥ १४६६ ॥ । वैयावृत्त्यकरः प्रेप्यमाणो रुप्यति । रुषितश्च यान्याचार्यादिप्रायोग्यदायकानि स्थापनाकुलानि तानि न कथयति । ‘शिष्टानि वा' कथितानि परं तानि तस्यैव ददति नान्यस्य, तेन भावित - ‘०त्वात् तेषाम् । ततोऽलभ्यमाने प्रायोग्ये या काचिदात्मनो ग्लानादीनां वा विराधना तन्निष्पन्नमाचार्यस्य प्रायश्चित्तम् । अथ क्षपकं प्रेषयति ततो यदसौ शीता -ऽऽतपादिना परिताप्यते तन्निप्पन्नम्, देवता वा काचित् क्षपकमनुकम्पमाना खलु क्षेत्रेऽपि भक्त - पानमुत्पादयति, लोको वा क्षपक इति कृत्वा तस्यानुकम्पया सवर्मपि ददाति नान्यस्य, तपःक्षामकुक्षिश्चासौ तिसृणां गोचरचर्याणामसमर्थ इति ॥ १४६६ ॥ बालद्वारमाह हीरेज व खेलेज व, कज्जा - कज्जं ने याणई बालो । सो व अणुकंपणजो, न दिति वा किंचि बालस्स ॥ १४६७ ॥ ह्रियेत वा म्लेच्छादिना, खेलयेद् वा चेटरूपैः सार्द्धम्, 'कार्या- ऽकार्यं च' कर्तव्याऽकर्त्तव्यं न जानाति बालः । ‘स वा' बालः स्वभावत एवानुकम्पनीयो भवति ततः सर्वोऽपि लोकस्तस्य भक्त-पानं प्रयच्छति । स चागत्याचार्याय कथयति — यथा सर्वमपि प्रायोग्यं तत्र प्राप्यते । 30 ततस्तद्वचनादागतस्तत्र गच्छः, यावन्न किञ्चिद् लभ्यते । न ददति वा किञ्चिद् बालाय लोकाः, पराभवनीयतया दर्शनात् ॥ १४६७ ॥ वृद्धद्वारमाह १ न जाणए बालो ता० ॥ ------ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १४६४-७२ ] ४३७ प्रथम उद्देशः । बुड्डोऽणुकंपणिजो, चिरेण न य मग्ग थंडिले पेहे । अहवा वि बाल- बुड्ढा, असमत्था गोयरतियस्स ।। १४६८ 'वृद्ध:' परिणतवया अनुकम्पनीयो लोकस्य भवति, ततश्चायं सर्वत्रापि लभते नापरः । तथा स मन्दं मन्दं गच्छन् चिरकालेनोपैति, न च 'मार्ग' पन्थानं स्थण्डिलानि च प्रत्युपेक्षते । अथवा बाल-वृद्धावसमर्थौ ‘गोचरत्रिकस्य' त्रिकालभिक्षाटनस्येति ॥ १४६८ ॥ योगवाहिद्वारमाह- -5 तूरंतो व न पेहे, गुणणालोभेण न य चिरं हिंडे । विगई पडिसेहेई, तम्हा जोगिं न पेसिज्जा ।। १४६९ ॥ योगवाही 'श्रुतं मम पठितव्यं वर्त्तते' इति त्वरमाणः सन्नपान्तराले पन्थानं न प्रत्युपेक्षते । गुणना - परावर्त्तना तस्या लोभेन चिरमसौ भिक्षां न हिण्डते । लभ्यमानामपि 'विकृतिं ' घृतादिकामसौ प्रतिषेधयति । तस्माद् योगिनं न प्रेषयेत् ॥ १४६९ ॥ अगीतार्थद्वारमाहपंथं च मास वासं, उवस्सयं एच्चिरेण कालेन । 10 एहामो त्ति न याणइ, अगीतों पडिलोम असती ।। १४७० ।। अगीतार्थः ' पन्थानं' मार्ग 'मासं' मासकल्पविधिं 'वास' वर्षावासविधिं 'उपाश्रयं' वसतिमेतानि परीक्षितुं न जानाति । तथा शय्यातरेण पृष्टः 'कदा यूयमागमिष्यथ ?' ततोऽसौ ब्रवीति - 'इयता कालेन' अर्द्धमासादिना वयमेष्याम इत्येवं वदतो यः खल्वविधिभाषणजनितो दोषस्तम - 15 गीतार्थो न जानाति । यत एवमतः प्रथमतो गणावच्छेदकेन गन्तव्यम् । तस्याभावेऽपरोऽपि यो गीतार्थः स व्यापारणीयः । तस्यापि 'असति' अभावे 'प्रतिलोमं' पश्चानुपूर्व्या एताने वागीतार्थ - मादिं कृत्वा प्रेषयेत् ॥ १४७० ॥ केन विधिना ? इति चेद् उच्यते तिनेव गच्छवासी, हवंतऽहालंदियाण दोन जणा । गमणे चोदगपुच्छा, थंडिलपडिलेह हालंदे || १४७२ ॥ जघन्यतस्त्रयो गच्छ्वासिनो जना एकैकस्यां दिशि व्रजन्ति । यथालन्दिकानां तु गच्छप्रतिबद्धानां द्वौ जनावेकस्यां दिशि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकौ गच्छतः । शेषासु तिसृषु दिक्षु गच्छवासिनामाचार्या आदिशन्ति, यथा -- यथालन्दिकानामपि योग्यं क्षेत्रं प्रत्युपेक्षणीयम् । तेषां च गमने सामायारिमगीए, जोगिमणागाढ खमग पारावे । क्षेत्रप्रत्यु20 पेक्षाकृते गमन वेयावच्चे दायण, जुयल समत्थं व सहियं वा ॥। १४७१ ।। [ ओ. नि. १४३ ] अगीतार्थः ओघनिर्युक्तिसामाचारीं कथयित्वा प्रेषणीयः । तदभावे ' अनागाढयोगी' बाह्ययोगवाही योगं निक्षिप्य प्रेप्यते । तस्याप्यभावे क्षपकः, तं च प्रथमं 'पारयेत्' पारणं कारयेत्, ततो 'मा क्षपणं कार्षीः' इति शिक्षां दत्त्वा प्रहिणुयात् । तस्याप्यभावे वैयावृत्त्यकरः प्रेप्यते । "दायण" ति स वैयावृत्त्यकरो वास्तत्र्यसाधूनां स्थापनाकुलानि दर्शयति । ततो बाल-वृद्धयुगलम्, कथम्भूतम् ? ‘समर्थं' दृढशरीरम्, वाशब्दो विकल्पार्थः, 'सहितं वा' वृषभसाधुसमन्वितम् । इत्थमादिष्टैस्तैः 25 शेषसाधूनां स्वमुपधिं समर्प्य परस्परं क्षामणां कृत्वा गमनकाले भूयोऽपि गुरूनापृच्छय गन्तव्यम् । यदि नापृच्छन्ति तदा मासलघु । ते चावश्यिकीं कृत्वा निर्गच्छन्ति ॥ ९४७१ ॥ कियन्तः ? कथं च ? इत्याह अपवादतः क्षेत्रप्रत्यु पेक्षकाः 30 विधिः प्र त्युपेक्षणी यस्य च निरूपणा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ प्ररूपिते नोदकपृच्छा वक्तव्या । स्थण्डिलप्रत्युपेक्षणं यथालन्दिकानां वाच्यम् ॥ १४७२ ॥ तत्र गमनद्वारं विवृणोति पंथुच्चारे उदए, ठाणे भिक्खंतरा य वसहीओ। तेणा सावय वाला, पञ्चावाया य जाणविही ।।१४७३॥ [ओ. नि. १४४] 5 'पन्थानं' मार्ग "उच्चारे" त्ति उच्चार-प्रश्रवणभूमिके, “उदए" ति पानकस्थानानि येषु बालादियोग्यं प्राशुकैषणीयं पानकं लभ्यते, "ठाणे" ति विश्रामस्थानानि, “भिक्ख" ति येषु येषु प्रदेशेषु भिक्षा प्राप्यते न वा, अन्तरा-अन्तराले वसतयः-प्रतिश्रयाः सुलभा दुर्लभा वा, स्तेनाः श्वापदा व्यालाश्च यत्र सन्ति न वा, प्रत्यपायाश्च यत्र दिवा रात्रौ वा भवन्ति, तदेतत् सर्व सम्यग् निरूपयद्भिर्गन्तव्यम् । यानं-गमनं तस्य विधिरयं द्रष्टव्य इति ॥ १४७३ ॥ 10 इदमेव व्याचिख्यासुराह वावारिय सच्छंदाण वा वि तेसिं इमो विही गमणे । दव्वे खेचे काले, भावे पंथं तु पडिलेहे ॥ १४७४ ॥ 'व्यापारिताः' आचार्येण नियुक्ताः 'स्वच्छन्दाः' नाम ये आभिग्रहिकाः, तेषामुभयेषामप्ययं गमने विधिः । तद्यथा---द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च पन्थानं प्रत्युपेक्षन्ते ॥ १४७४ ।। 15 कथम् ? इत्याह कंटग तेणा वाला, पडिणीया सावया य दव्वम्मि । सम विसम उदय थंडिल, भिक्खायरियंतरा खेत्ते ॥ १४७५ ॥ दिय राओं पञ्चवाए, य जाणई सुगम-दुग्गमे काले । भावे सपक्ख-परपक्खपेल्लणा निण्हगाईया ॥ १४७६ ॥ 20 द्रव्यतः कण्टकाः स्तेना व्यालाः प्रत्यनीका श्वापदाश्च पथि प्रत्युपेक्षणीयाः । क्षेत्रतः 'समः' गिरिकन्दरा-प्रपात-निनोन्नतरहितः पन्थाः, 'विषमः' तद्विपरीतः, "उदग" ति पानीयबहुलो मार्गः, स्थण्डिलानि भिक्षाचर्या तथा 'अन्तरा' अपान्तराले वसतयः ॥ १४७५ ॥ कालतो दिवा रात्रौ वा प्रत्यपायान् जानाति, यथा-अत्र दिवा प्रत्यपाया न रात्रौ, अत्र तु रात्रौ न दिवेति; यद्वा दिवा रात्रौ वाऽयं पन्थाः सुगमो दुर्गमो वा । भावतः खपक्षेण परपक्षेण वा 25 प्रेरितः-आक्रान्तोऽयं ग्रामः पन्था वा न वेति । अथ कः पुनः स्वपक्षः को वा परपक्षः ? इत्याह "निण्हगाईय" ति निव-पार्श्वस्थादयः साधुलिङ्गधारिणः खपक्षः, आदिग्रहणात् चरक-परिव्राजकादयः परपक्षः । एवं प्रत्युपेक्षमाणास्तावद् व्रजन्ति यावद् विवक्षितक्षेत्रं प्राप्ताः ॥ १४७६ ॥ उक्तं गमनद्वारम् । अथ नोदकपृच्छाद्वारमाह सुत्तत्थाणि करिते, न व त्ति वचंतगाउ चोएइ । न करिति मा हु चोयग!, गुरूण निइआइआ दोसा ॥ १४७७॥ परो नोदयति-क्षेत्रप्रत्युपेक्षका व्रजन्तः किं सूत्रार्थी कुर्वते न वा । गुरुराह-न कुर्वन्ति, मा भूवन् गुरूणां नित्यवासादयो दोषाः । अतो यदि सूत्रपौरुषीं कुर्वन्ति तदा मासलघु, अर्थपौरुष्यां मासगुरु ॥ १४७७ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३९ भाष्यगाथाः १४७३-८२] प्रथम उद्देशः । "थंडिलपडिलेहऽहालेदे" ( गा० १४७२ ) ति पदं व्याख्यानयति सुत्तत्थपोरिसीओ, अपरिहवंता वयंतऽहालंदी। थंडिल्ले उवओगं, करिति रत्तिं वसंति जहिं ॥ १४७८ ॥ यथालन्दिकाः सूत्रार्थपौरुष्यावपरिहापयन्तो विहारं भिक्षाचर्यां च तृतीयस्यां पौरुप्यां कुर्वाणा वजन्ति । यत्र च रात्रौ वसन्ति तत्र 'स्थण्डिले' कालग्रहणादियोग्ये उपयोगं कुर्वन्ति ॥ १४७८ ॥5 __ केन विधिना गच्छवासिनस्तत्र क्षेत्रे प्रविशन्ति ? इत्याह सुत्तत्थे अकरिता, भिक्खं काउं अइंति अवरण्हे । बीयदिणे सज्झाओ, पोरिसि अद्धाए संघाडो ।।१४७९।। ओ.नि.१४५] सूत्रार्थावकुर्वन्तः प्रस्तुतक्षेत्रासन्ने ग्रामे भिक्षां कृत्वा समुद्दिश्य अपराह्ने विचारभृमिस्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षमाणा विवक्षित क्षेत्रं “अइंति" त्ति प्रविशन्ति । ततो वसतिं गृहीत्वा तत्रावश्यकं कृत्वा 10 कालं प्रत्युपेक्ष्य प्रादोषिकं खाध्यायं कृत्वा प्रहरद्वयं शेरते । ये तु न शेरते तेऽर्द्धरात्रिक-वैरात्रिककालद्वयमपि गृह्णन्ति । ततः प्राभातिकं कालं गृहीत्वा द्वितीयदिने स्वाध्यायः कर्त्तव्यः । ततोऽर्णीयां पौरुष्यामतिक्रान्तायां सङ्घाटको भिक्षामटति ॥ १४७९ ॥ एतदेवाह वीयार भिक्खचरिया, वुच्छाणऽचिरुग्गयम्मि पडिलेहा । चोयग भिक्खायरिया, कुलाइँ तहुवस्सयं चेव ॥१४८०॥ 15 विचारभूमी प्रथममेवाऽपराह्ने प्रत्युपेक्षणीया । ततो रात्रावुषितानामचिरोद्गते सूर्ये अर्द्धपौ. रुप्यां भिक्षाचर्यायाः प्रत्युपेक्षणा भवति । अत्र नोदकः प्रश्नयति-किमिति प्रातरारभ्य भिक्षाचर्या विधीयते । सूरिरभिदधाति–एवं भिक्षाचर्यां कुर्वाणाः 'कुलानि' दानकुलादीनि तथोपाश्रयं च ज्ञास्यन्तीति समासार्थः ॥ १४८० ॥ अथैतदेव व्याचष्टेवाले वुड्ढे सेहे, आयरिय गिलाण खमग पाहुणए । 20 तिन्नि य काले जहियं, भिक्खायरिया उ पाउग्गा ॥१४८१ ॥ षष्ठी-सप्तम्योरथं प्रति अभेदाद् बालस्य वृद्धस्य शैक्षस्य आचार्यस्य ग्लानस्य क्षपकस्य प्राघूर्णकस्य च 'प्रायोग्या' तदनुकूलप्राप्यमाणभक्त-पाना 'त्रीनपि' पूर्वाह्न-मध्याह्न-सायाह्नलक्षणान् कालान् यत्र भिक्षाचर्या भवति तत् क्षेत्रं गच्छस्य योग्यमिति गम्यते ॥ १४८१ ॥ . कथं पुनस्तत् प्रत्युपेक्ष्यते ? इत्याह-- खेत्तं तिहा करित्ता, दोसीणे नीणितम्मि उ वयंति । अन्नोन्ने बहुलद्धे, थोवं दल मा य रूसिज्जा ॥ १४८२ ॥[ओ.नि.१४६] क्षेत्रं 'त्रिधा' त्रीन् भागान् कृत्वा एकं विभागं प्रत्युषसि पर्यटन्ति, द्वितीयं मध्याहे, तृतीयं सायाहे । तत्र यत्र प्रातरेव भोजनस्य देशकालस्तत्र प्रथमं पर्यटन्ति । अथ नास्ति प्रातः क्वापि देशकालस्ततः “दोसीणे" पर्युषिते आहारे निस्सारिते वदन्ति, यथा-अन्यान्येषु गृहेषु 30 पर्यटद्भिः बहुः-प्रचुर आहारो लब्धस्तेन च भृतमिदं भाजनम् अतः स्तोकं देहि, ‘मा च १ "जत्थ य वसंति तत्थ महाथंडिल्लस्स उवओगं करेंति" इति विशेषचूर्णौ ॥ २°ना एवंविधा 'त्रिष्वपि' पूर्वाह्व-मध्याह्न-सायाह्नलक्षणेषु कालेषु यत्र भा० ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिकै बृहत्कल्पसूत्रे (मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ रुषः' मा रोष कार्षीः 'यदेते न गृह्णन्ति' इति । एतच्चामी परीक्षार्थं कुर्वन्ति 'किमयं दानशीलो न वा ?' इति ॥ १४८२ ॥ अहव न दोसीणं चिय, जायामो देहि णे दहिं खीरं । खीरे घय गुल गोरस, थोवं थोवं च सव्वत्थ ।।१४८३ ।। [ओ.नि.१४७] 5 अथवा न वयं दोसीणमेव याचामः किन्तु देहि "णे" अस्मभ्यं दधि क्षीरं च । धीरे लब्धे सति घृतं गुडं गोरसं च याचित्वा सर्वत्र स्तोकं स्तोकमेव गृह्णन्ति । एवं तावत् प्रत्युषसि येषु भिक्षाया देशकालो यानि च भद्रककुलानि तानि सम्यगवधारयन्ति यथा बाल-वृद्ध-क्षपकादीनां प्रथम-द्वितीयपरीषहार्दितानां समाधिसन्धारणार्थ प्रातरेव तेषु पेयादीनि याचित्वोपनी यन्ते । एवमेकस्य पर्याप्तं गृहीत्वा वसतिमागम्यालोचनादिविधिपुरस्सरं समुद्दिश्य मध्याहे द्वितीये 10 विभागे भिक्षा पर्यटन्ति ॥ १४८३ ॥ कथम् ? इत्याह मज्झण्हें पउर भिक्खं, परिताविय पेज जूस पय कढियं । ओभट्ठमणोभटुं, लब्भइ जं जत्थ पाउग्गं ॥ १४८४ ॥ [ओ.नि. १४८] मध्याह्ने प्रचुरं भैक्षं तथा 'परितापितं' परितलितं सुकुमारिकादि पक्वान्नं यद्वा 'परितापितं' कथितं कट्टरादिकमित्यर्थः ‘पेया' यवागू: 'यूषः' मुद्गरसः तथा 'पयः' दुग्धं 'कथितं' तापितम् । 15 एवमेव भाषितमनवभाषितं वा यद् यत्र प्रायोग्यमन्विष्यते तत् तत्र यदि लभ्यते तदा प्रशस्तं तत् क्षेत्रम् । अत्राप्येकस्य पर्याप्तं गृहीत्वा प्रतिनिवृत्त्य समुद्दिश्य संज्ञाभूमी गत्वा वैकालिकी पात्रादिप्रत्युपेक्षणां कृत्वा सायाहे तृतीये विभागे भिक्षामटन्ति ॥ १४८४ ॥ कथम् ? इत्याह चरिमे परिताविय पेज खीर आएस-अतरणट्ठाए। एकेकगसंजुत्तं, भत्तटुं एकमेकस्स ॥ १४८५ ॥[ओ.नि. १४९] 20 चरिमे भिक्षाकाले परितापितं पेया क्षीरं च येषु प्राप्यते तानि कुलानि सम्यगवधारयन्ति । किमर्थम् ? इत्याह-आदेशाः-प्राघूर्णकास्तदा समागच्छेयुः, अतरणः-ग्लानस्तदानीं पथ्यमुपयुञ्जीत तदर्थम् , उपलक्षणत्वाद् बालाद्यर्थ च । अत्राप्येकस्य पर्याप्तं गृहीत्वा प्रतिनिवर्तन्ते । यत आह-"एक्केवग" इत्यादि । एकैकः साधुरन्यसाधुना संयुक्तो यस्मिन्नानयने तदेकैकसं युक्तं 'भक्तार्थम्' उदरपूरमाहारमेकैकस्य साधोरायानयन्ति । इदमुक्तं भवति-प्रातौं साधू 25 सङ्घाटकेन पर्यटतः, तृतीयो रक्षपाल आस्ते; द्वितीयस्यां वेलायां तयोर्मध्यादेक आस्ते, अपरः प्रथमव्यवस्थितं गृहीत्वा प्रयाति; तृतीयस्यां तु द्वितीयवेलारक्षपालः प्रथमव्यवस्थितरक्षपालेन सह पर्यटति, यस्तु वारद्वयं पर्यटितः स तिष्ठति; एवं त्रयाणां जनानां द्वौ द्वौ वारौ पर्यटनं योज. नीयम् ॥ १४८५ ॥ किञ्च ओसह मेसजाणि य, काले च कुले अ दाणसढाई । 30 सग्गामे पेहिता, पेहंति तओ परग्गामे ॥ १४८६ ॥ [ओ.नि. १५०] 'औषधामि हरीतक्मादीनि 'भैषजानि' पेयादीनि त्रिफलादीनि वा चशब्दात् पिप्पलक. सूच्यादीनि च “काले म" त्ति येषु कुलेषु यत्र काले वेला यानि वा दानश्राद्धादीनि कुलानि प्रणानि खग्रामे प्रत्युपेक्ष्य ततः परग्रामे प्रत्युपेक्षन्ते ॥ १४८६ ॥ अत्र च चालनां कारयति Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । १४८७ ॥ चोयगवणं दीहं, पणीयगहणे य नणु भवे दोसा । [ ओ. नि. १५१] जुज तं गुरु- पाहुण- गिलाणगट्ठा न दप्पट्ठा जइ पुण खद्ध-पणीए, अकारणे एक्कसि पि गिण्हिजा । [ ओ.नि. १५२ ] हि दोसा तेण उ, अकारणे खद्ध-निद्राई ॥ १४८८ ॥ नोदकः - प्रेरकस्तस्य वचनं - चालनारूपम् — ननु तेषामित्थं दीर्घं भिक्षाचर्यां कुर्वतां प्रणी - 5 तस्य च - दधि- दुग्धादेर्ग्रहणे 'दोषाः' सूत्रार्थपरिमन्थ - मोहोद्भवादयो भवेयुः । सूरिराह - भद्र ! युज्यते 'तत्' प्रणीतग्रहणं दीर्घभिक्षाटनं च गुरु- प्राघूर्णक- ग्लानार्थम्, न 'दर्पार्थं' नात्मनो बलवर्णादिहेतोः || १४८७ ॥ भाष्यगाथाः १४८३-९१] ४४१ यदि पुनः खद्धं - प्रचुरं प्रणीतं -स्निग्ध- मधुरं ते 'अकारणे' गुर्वादिकारणाभावे एकशोsपि गृह्णीयुः ततः 'तस्मिन् ' खद्ध-प्रणीतग्रहणे भवेयुर्दोषाः । कुतः ? इत्याह-- अकारणे आत्मार्थ 10 यस्मात् तेन "खद्ध- निद्धाई" ति प्रचुर - स्निग्धानि भक्ष्यन्त इति वाक्यशेषः । अतो गुरु-ग्लानादिहेतोः क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाकाले प्रणीतं गृह्णतां चिरं च पर्यटतां न कश्चिद् दोष इति ॥ १४८८ ॥ अथ “कुलाइँ हुवस्यं चेव" ( गा० १४८० ) ति पदं व्याख्यायते - भिक्षामटन्तः कुलानि जानन्ति । कथम् ? इत्याह दाणे अभिगम सड्ढे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते, कुलाइँ जाणंति गीयत्था || १४८९ ॥ 'दानश्राद्धानि ' प्रकृत्यैव दानरुचीनि, 'अभिगमश्राद्धानि ' प्रतिपन्नाणुव्रतानि श्रावककुलानि, 'सम्यक्त्व श्राद्धानि ' अविरतसम्यग्दृष्टीनि तथैव 'मिथ्यात्वे' मिथ्यादृष्टिकुलानि, 'मामाकानि ' ' मा मदीयं गृहं श्रमणाः प्रविशन्तु' इति प्रतिषेधकारीणि, "अचियत्ते" त्ति नास्ति प्रीतिः साधुषु गृहमुपागतेषु येषां तान्यप्रीतिकानि, एतानि कुलानि गीतार्था पर्यटन्तः सम्यग् जानन्ति 20 ॥ १४८९ ॥ उपाश्रयाँश्च जानन्ति । कथम् ? इत्याह 15 जेहिं कया उ उवस्य, समणाणं कारणा वसहिहेउं । परिपुच्छिया सदोसा, परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥ १४९० ॥ इह श्रमणाः पञ्चधा --- तापसाः शाक्याः परिव्राजका आजीवका निर्ग्रन्थाश्च । तेषां पञ्चानां निर्मन्थानामेव वा 'कारणात्' कारणमुद्दिश्येत्यर्थः, कारणमेव व्यनक्ति - वसतिः - अवस्थानं 25 तद्धेतोः - तन्निमित्तम्, यैर्गृहिभिः कृता उपाश्रयास्तेषां समीपे भिक्षामटद्भिः ' परिपृच्छ्य' उपाश्रयमूलोत्पत्तिं पर्यनुयुज्य 'सदोषाः ' सावद्यदोषदुष्टास्ते उपाश्रयाः प्रयलेन परिहर्तव्याः ॥। १४९० ॥ तथा — जेहिं कया उ उवस्सय, समणाणं कारणा वसहिउं । परिपुच्छिय निद्दोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ (होति ) ।। १४९१ ॥ 30 यैः कृता उपाश्रयाः 'श्रमणानां' निर्मन्थवजनां शाक्यादीनां कारणाद् वसतिहेतोता परिपृच्छ्य 'निर्दोषाः' निरवद्यास्ते उपाश्रयाः परिभोक्तुं “जे" इति निपातः पादपूरणे 'खुलं भवन्ति' १ श्रीयात् ततः मो० ले० विना ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छवा ४४२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ मुखेनैव संयमबाधामन्तरेण ते परिभुज्यन्त इत्यर्थः ॥ १४९१ ॥ जेहिं कया पाहुडिया, समणाणं कारणा वसहिहेउं । परिपुच्छिया सदोसा, परिहरियव्या पयत्तेणं ॥ १४९२ ॥ यैः कृता 'प्राभृतिका' उपाश्रयेषु उपलेपन-धवलनादिका 'श्रमणानां' पञ्चानामपि साधूनामेव 5 वा कारणाद् वसतिहेतोः तान् परिपृच्छय 'सदोषाः' उत्तरगुणैरशुद्धत्वात् सावद्यास्ते उपाश्रयाः प्रयत्नेन परिहर्त्तव्याः ॥ १४९२ ॥ जेहिं कया पाहुडिया, समणाणं कारणा वसहिहे। परिपुच्छिय निदोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ (होति)॥ १४९३ ॥ यैः कृता प्राभृतिका 'श्रमणानां' साधुवर्जितानां तापसादीनां कारणाद् वसतिहेतोस्तान् परि10 पृच्छ्य निर्दोषा इति मत्वा परिभोक्तुं “जे" इति प्राग्वत् 'सुखं भवन्ति' सुखेनैव परिभुज्यन्त इत्यर्थः ।। १४९३ ॥ अथ कीदृशे स्थाने वसतिरन्वेषणीया ? उच्यते-यावन्मानं क्षेत्रं वसिमाक्रान्तं भवति तावन्मानं पूर्वाभिमुखवामपाश्र्वोपविष्टवृषभाकारं वुद्ध्या परिकल्प्य प्रशस्तेषु स्थानेषु वसतिर्गृह्यते । अथ कुत्रावयवस्थाने गृह्यमाणा वसतिः किंफला भवति ? इत्युच्यते सिंगक्खोडे कलहो, ठाणं पुण नत्थि होइ चलणेसु । सिनां निवासयोग्या 15 अहिठाणे पुट्टरोगो, पुच्छम्मि य फेडणं जाणे ॥ १४९४ ॥ वसतिः मुहमूलम्मि उ चारी, सिरे अ कउहे अ पूअ सकारो। खंधे पट्ठीइ भरो, पुट्टम्मि उ धायओ वसहो ॥ १४९५ ।। 'शृङ्गखोडे' शृङ्गप्रदेशे यदि वसतिं करोति तदा निरन्तरं साधूनां कलहो भवति । 'स्थानम्' अवस्थितिः पुनर्नास्ति चरणेपु' पादप्रदेशेषु । 'अधिष्ठाने' अपानप्रदेशेषु “पुट्ट" ति उदरं तस्य 20 रोगो भवति । 'पुच्छे' पुच्छप्रदेशे 'स्फेटनम्' अपनयनं वसतेर्जानीहि ॥ १४९४ ॥ मुखमूले यदि वसतिः तदा 'चारी' भोजनसम्पत्तिः प्रशस्ता । 'शिरसि' शृङ्गयोर्मध्ये ककुदि च वसतिकरणे पूजा च वस्त्र-पात्रादिभिः सत्कारश्चाभ्युत्थानादिना साधूनां भवति । स्कन्धप्रदेशे पृष्ठप्रदेशे च वसतौ सत्यां साधुभिरितस्तत आगच्छद्भिर्भरो भवति । 'पोट्टे' उदरप्रदेशे वसतौ गृह्यमाणायां 'ध्रातः' नित्यतृप्तः 'वृषभः' वृषभपरिकल्पनागृहीतवसतिनिवासी साधुजनो भव25 तीति । एवं परीक्ष्याऽप्रशस्तस्थानव्युदासेन प्रशस्तेषु स्थानेषु स्त्री-पशु-पण्डकवर्जिता वसतिरन्वेष ___णीया ॥ १४९५ ॥ तदन्वेषणे चायं विधिःवसत्यन्वे. देउलियअणुण्णवणा, अणुण्णविऍ तम्मि जं च पाउग्गं । भोयण काले किच्चिर, सागरसरिसा उ आयरिया ॥ १४९६ ॥ विधिः देवकुलिका–यक्षादीनामायतन तत्पार्श्ववर्तिनो वा मठाः । आह किमर्थ देवकुलिकाया 30 निबन्धः? उच्यते-सा प्रायेण ग्रामादीनां बहिर्भवति, साधुभिश्चोत्सर्गतो बहिः स्थातव्यम् , देषकुलिका च विविक्तावकाशा भवति, अतः प्रथमतस्तस्या अनुज्ञापना कर्त्तव्या । अथ नास्ति देवकुलिका बहिर्वा सप्रत्यपायं ततो ग्रामादेरन्तः प्रतिश्रयोऽन्विप्यते । यस्तत्र प्रभुः प्रभुसन्दिष्टो १ “देउलिया णाम जा सभा पवा वा जणविमुक्का, देउलियाए वा जे पासे मढा" इति विशेषचूर्णौ ॥ षणस्य Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १४९२-९९] . प्रथम उद्देशः । ४४३ वा सः 'प्रायोग्य' वक्ष्यमाणमनुज्ञाप्यते । अनुज्ञापिते सति तस्मिन् यच्च तेन प्रायोग्यमनुज्ञातं तस्य परिभोगः कार्यः । अथासौ नानुजानीते प्रायोग्यं ततो भोजनदृष्टान्तः कर्तव्यः । तथा कियचिरं कालं भवन्तः स्थास्यन्ति ? इति पृष्ट अभिधातव्यम्-यावद् भवतां गुरूणां च प्रतिभासते । कियन्तो भवन्त इहावस्थास्यन्ते ? इति पृष्टे वक्तव्यम्-सागरः-समुद्रस्तत्सदृशा आचार्या भवन्तीति सङ्ग्रहमाथासमासार्थः ॥ १४९६ ॥ अथैनामेव व्याचिख्यासुः "अणुन्नविए तम्मि" इति पदं विवृणोति जं जं तु अणुन्नायं, परिभोगं तस्स तस्स काहिंति । अविदिने परिभोगं, जइ काहिइ तत्थिमा सोही ॥ १४९७ ॥ 'यद् यत्' तृण-डगलादिकं शय्यातरेणानुज्ञातं तस्य तस्य परिभोगमभिरुचिते क्षेत्रे समायाताः सन्तः करिप्यन्ति । यदि पुनः 'अवितीर्णे' शय्यातरेणाननुज्ञाते द्रव्य-क्षेत्रादौ परिभोगं कोऽपि 10 करिप्यति तत्र 'इयं' वक्ष्यमाणा शोधिः ॥ १४९७ ॥ तामेवाह-. इक्कड-कढिणे मासो, चाउम्मासो अ पीढ-फलए। कट्ठ-कलिंचे पणगं, छारे तह मल्लगाईसु ॥ १४९८ ॥ इक्कडमये कठिनमये च संस्तारकेऽदत्ते गृह्यमाणे लघुमासः । चत्वारो मासा लघवः पीठफलकेषु । तथा काष्ठ-कलिञ्चयोः क्षारे मल्लक-तृण-डगलादिषु च पञ्चकम् । अतः प्रायोग्यमनुज्ञा- 15 पनीयम् ॥ १४९८ ॥ अथासौ ब्रूयात् 'किं तत् प्रायोग्यम् ?' ततो वक्तव्यम् - देव्वे तण-डगलाई, अच्छण-भाणाइधोवणा खित्ते ।। काले उच्चाराई, भावि गिलाणाइ कूरुवमा ॥१४९९॥ प्रायोग्यं चतुर्की-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । तत्र 'द्रव्ये' द्रव्यतस्तृण-डगलानि, आदिशब्दात् क्षार-मल्लकादीनि च । क्षेत्रतः “अच्छणं" ति खाध्यायादिहेतोः प्राङ्गणादिप्रदे- 30 शेऽवस्थानम् , तथा भाजनानाम् आदिग्रहणादाचार्यादिसत्कमलिनवस्त्राणां धावनं-प्रक्षालनं च प्रतिश्रयाद् बहिर्विधीयते । कालतो रात्रौ दिवा वा अवेलायामुच्चारस्य प्रश्रवणस्य वा व्युत्सर्जनम् । भावतो ग्लानस्यापरस्य वा प्राघूर्णकादेर्निवात-प्रवाताद्यवकाशस्थापनेन समाधिसम्पादनम् इत्युक्ते यद्यनुजानाति ततः सुन्दरम् । अथ ब्रूयात् -'मया युप्मभ्यं वसतिरेव दत्ता, अहमन्यद् युप्मदीयं प्रायोग्यं न जानामि' ततो यः प्राग् भोजनदृष्टान्त उद्दिष्टः स उपदर्यते-"कूरुव-25 मेति कूरः-भक्तं तस्योपमा । यथा केनचित् कस्यापि पार्थे कूरः प्रार्थितः, तेन च दत्तः, ततस्तस्य स्नाना-ऽऽसन-भाजनोपढौकना-ऽवगाहिम-सूप-नानाविधव्यञ्जनादीन्यपि दीयन्ते; एवं भवताऽपि वसतिं प्रयच्छता सर्वमपि प्रायोग्यं दत्तमेव भवति, परं तथापि वयं भवन्तं भूयोऽपि तृतीयव्रतभावनामनुवर्तयन्तोऽनुज्ञापयामः । एवमुक्ते स सर्वमपि प्रायोग्यमनुजानीयात् ततो यत्र यद् उच्चारादिव्युत्सर्जनमनुज्ञातं तत् तत्र विधेयम् ॥ १४९९ ॥ यत आह 30 उचारे पासवणे, लाउअनिल्लेवणे य अच्छणए। १ “कलिंचि त्ति तणपूलिया” इति विशेषचूर्णौ ॥ २ गाथेयं विशेषचूर्णिकृता "जं जं तु." १४९७ गाथायाः प्राग व्याख्याताऽस्ति । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ करणं तु अणुनाए, अणणुनाए भवे लहुओ ॥ १५०० ॥ उच्चारस्य प्रश्रवणस्य 'अलाबुनिर्लेपनस्य' पात्रप्रक्षालनस्य "अच्छणए" ति खाध्यायाद्यर्थमवस्थानस्य गाथायां षष्ठ्यर्थे सप्तमी 'करणं' समाचरणं शय्यातरेणानुज्ञाते प्रदेशे कर्त्तव्यम् । अथाननुज्ञाते अवकाशे उच्चारादिकं करोति तदा लघुको मास इति ॥ १५०० ॥ । गतं भोजनद्वारम् । अथ कियच्चिरं कालमिति द्वारम्-यदि शय्यातरः प्रश्नयति 'कियन्तं कालं यूयं स्थास्यथ ?' ततो वक्तव्यम् जाव गुरूण य तुम्भ य, केवइया तत्थ सागरेणुवमा । [ओ.नि.१५४] केवइ कालेणेहिह, सागार ठवंति अन्ने वि ॥ १५०१॥ यावद् गुरूणां युष्माकं च प्रतिभाति तावदवस्थास्यामः, परं निर्व्याघाते मासमेकं व्याघाते तु 10 हीनमधिकं वा वयमेकत्र तिष्ठामः । अथ 'मासमेव स्थास्यामः' इति निर्धारितं भणति ततो मासलघु । अथासौ प्रश्नयेत् ‘कियन्तो यूयं तिष्ठथ ?' ततो वक्तव्यम्-"सागरेणुवम" ति सागरःसमुद्रस्तेनोपमा-यथा समुद्रः कदाचित् प्रसरति कदाचिच्चापसरति, एवमाचार्या अपि कदाचिद् दीक्षामुपसम्पदं वा प्रतिपद्यमानैः साधुभिः परिवारतः प्रसर्पन्ति कदाचित् तेष्वेवान्यत्र गतेष्वपसर्पन्ति, अत इयन्त इति सङ्ख्यानं कर्तुं न शक्यते । यस्तु ‘एतावन्तो वयम्' इति निश्चितं 15ब्रूते तस्य मासलघु । अथासौ पृच्छति कियता कालेन 'एप्यथ' आगमिष्यथ ? ततः 'साकारं' __ सविकल्पं वचनं 'स्थापयन्ति' ब्रुवते इत्यर्थः । यथा-अन्येऽपि क्षेत्रप्रत्युपेक्षका अपरासु दिक्षु गताः सन्ति ततस्तैर्निवेदिते यदा गुरूणां विचारे समेष्यति तदा व्याघाताभावे इयत्सु दिवसेषु गतेषु व्याघाते तु हीने अधिके वा काले वयमेष्याम इति । यः पुनः 'इयता कालेनागमिप्यामः' इति ब्रवीति तस्यं मासलघु ॥ १५०१॥ पुन्वद्दिद्वेविच्छइ, अहव भणिज्जा हवंतु एवइआ । [ओ.नि. १५५] तत्थ न कप्पइ वासो, असई खेत्तस्सऽणुन्नाओ ॥१५०२॥ अथासौ 'पूर्वदृष्टान्' यैः प्राग् मासकल्पो वर्षावासो वा कृत आसीत् तानेवेच्छति नान्यान् , भणति च-ये साधवो मया दृष्टपूर्वास्तेषामहं शीलसमाचारं सर्वमपि जानामि अतस्त एवेह समानेतव्या न शेषाः; अथवा भणेत्-ये वा ते वा साधवो भवन्तु परमेतावन्त एवात्र तिष्ठन्तु 25 तत्र किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह-'तत्र' एवं शय्यातरेण निर्धारिते सति 'न कल्पते वासः' न युज्यते तस्यां वसताववस्थातुमिति भावः । अथ नास्त्यपरं मासकल्पप्रायोग्यं क्षेत्रं तत इतरस्या वसतेरलाभे तस्यामेव वसतौ वासोऽनुज्ञातः ॥ १५०२ ॥ . तत्र च वसतां यदि प्राघूर्णकः समागच्छति ततः को विधिः ? इत्याह सक्कारो सम्माणो, भिक्खग्गहणं च होइ पाहुणए । [ओ.नि. १५६] 30 जइ वसइ जाणओ तहिं, आवजइ मासियं लहुगं ॥ १५०३ ॥ __ 'सत्कारः' वन्दना-ऽभ्युत्थानादिः 'सम्मानः' विश्रामणादिः 'भिक्षाग्रहणम्' उपविष्टस्य भिक्षाया आनयनम् , एतत् सर्वमपि प्राघूर्णके आगते सति कर्त्तव्यम् । यदि वसतिर्येषां तेषां वा परि१ ब्रूयात् तस्य भा० ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति भाष्यगाथाः १५००-८] प्रथम उद्देशः । मितानां साधूनां दत्ता तदा यावन्तः प्राघुणकाः समायातास्तावतो वास्तव्यानन्यत्र विसl प्राघुणकाः स्थाप्यन्ते । अथ नामग्राहं गृहीत्वा नियमितानामेव साधूनां सा दत्ता ततः प्राघुणकस्य वसतिस्वरूपं निवेद्यते । निवेदिते च यदि 'ज्ञोऽपि' वसतिखरूपं जानानोऽपि तत्र वसति तदा आपद्यते मासिकं लघुकम् ॥ १५०३ ॥ ततः-- किइकम्म भिक्खगहणे, कयम्मि जाणाविओ बहिं वसइ । । हिय-नद्वेसुं संका, सुण्हा उब्भाम वोच्छेदो ॥ १५०४ ॥ 'कृतिकर्मणि' विश्रामणादौ भिक्षाग्रहणे च कृते सति वसतिखरूपं ज्ञापितः सन् रात्रौ बहिर्वसति । यदि ज्ञापितोऽपि सन् बहिर्न व्रजति तदा सागारिकस्य केनचिच्चौरादिना हृते नष्टे च एवमेवादृश्यमाने कस्मिंश्चिद् वस्तुनि शङ्का भवेत्-नूनं यदद्यामुकं वस्तु न दृश्यते तदेतेषां यः प्राघुणको रात्रावुषित्वा प्रतिगतः तेन हृतं भविष्यति । 'नुषा वा' वधू रात्रावुद्रामकेण सह 10 गता भवेत् तत्रापि यदि प्राघुणकस्य शङ्कां सागारिकः करोति तदा तद्रव्या-ऽन्यद्रव्याणां व्यवच्छेदो भवेत् ॥ १५०४ ॥ एवं वसतौ लब्धायां किं विधेयम् ? इत्याह--- पडिलेहियं च खेत्तं, थंडिलपडिलेहऽमंगले पुच्छा। महास्थ. गामस्स व नगरस्स व, सियाणकरणं पढम वत्थु ॥१५०५ ॥ ण्डिलस्य यदा क्षेत्रं सम्यक् प्रत्युपेक्षितं भवति तदा 'महास्थण्डिलं' शबपरिष्ठापनभूमिलक्षणं प्रत्युपेक्ष-15 लेखना णीयम् । “अमंगले पुच्छ' त्ति नोदकः पृच्छति-भगवन् ! यूयं तिष्ठन्त एव किमेवममङ्गलं कुरुथ ?। सूरिराह-प्रामस्य वा नगरस्य वा “सियाणकरणं" श्मशानस्थापनायोग्यं 'प्रथमम्' आद्यं वास्तु प्रत्युपेक्ष्यत इति वाक्यशेषः । इयमत्र भावना-ग्राम-नगरादीनां तत्प्रथमतया निवेश्यमानानां वास्तुविद्यानुसारेण प्रथमं श्मशानवास्तु निरूप्य ततः शेषाणि देवकुल-सभासौधादिवास्तूनि निरूप्यन्ते, लोके तथादृष्टत्वात् , न च तदमाङ्गलिकम् , एवमत्रापि महास्थ- 20 ण्डिलं प्रथमं प्रत्युपेक्ष्यमाणमस्माकं नामाङ्गलिकं भवतीति ॥ १५०५ ।।। तच्च कस्यां दिशि प्रत्युपेक्षणीयम् ? उच्यते दिस अवरदक्षिणा दक्खिणा य अवरा य दक्षिणापुव्वा । अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तर पुवुत्तरा चेव ॥ १५०६ ॥ प्रथमतो महास्थण्डिलप्रत्युपेक्षणविषया अपरदक्षिणा दिक् । अथ तस्यां नदी-क्षेत्रा-ऽऽरामा- 25 दिाघातः ततो दक्षिणा । तस्या अभाव अपरा । तदलाभे दक्षिणपूर्वा । तदसत्त्वे अपरोत्तरा। तस्या अप्यप्राप्तौ पूर्वा । तस्या असम्भवे उत्तरा । उत्तरस्या अभावे पूर्वोत्तरा दिग् मन्तव्या ॥ १५०६ ॥ अथासामेव गुण-दोषविचारणामाह पउरन्न-पाण पढमा, बीयाए भत्त-पाण न लहंति । तइयाइ उवहिमाई, चउत्थी सज्झाय न करिति ॥ १५०७॥ 30 पंचमियाएँ असंखड, छट्ठीऍ गणस्स भेयणं जाण । सत्तमिया गेलनं, मरणं पुण अट्ठमीए उ ॥ १५०८॥ 'प्रथमा' अपरदक्षिणा दिक् प्रचुरान्न-पाना भवति, तस्यां प्रत्युपेक्ष्यमाणायां प्रचुरमन्न-पानं. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ प्राप्यत इत्यर्थः । यदि तम्यां सत्यां 'द्वितीयां' दक्षिणां प्रत्युपेक्षन्ते ततो भक्त-पानं न लभन्ते । अथ प्रथमायां कोऽपि व्याघातस्ततो द्वितीयामपि प्रत्युपेक्षमाणाः शुद्धाः । एवमुत्तराखपि दिक्षु भावनीयम् । तथा तृतीयस्यां "उवहिमाइ"त्ति उपधिः-वस्त्र-पात्रादिकः तेनैरपहियते, तस्मॅिश्चापहृते तृणग्रहणा-ऽग्निसेवनादयो दोषाः । चतुर्थ्यां 'स्वाध्यायं न कुर्वन्ति' स्वाध्यायः कर्त्तव्यो न 5 भवतीत्यर्थः ॥ १५०७ ॥ पञ्चम्याम् 'असङ्खडं' कलहः साधूनां भवति । षष्ठ्यां 'गणस्य' गच्छस्य ‘भेदनं' द्वैधीभवनं जानीहि । सप्तमी 'ग्लान्यं' ग्लानत्वं साधूनां जनयति । अष्टम्यां पुनर्मरणमपरस्य साधोरुपजायते ॥ १५०८ ॥ अमुमेव गाथाद्वयोक्तमर्थमेकगाथया प्रतिपादयति समाही य भत्त-पाणे, उवगरणे तुमंतुमा य कलहो उ । 10 भेदो गेलनं वा, चरिमा पुण कडए अन्नं ।। १५०९ ॥ प्रथमायां भक्त-पानलाभेन साधूनां समाधिराविर्भवति । द्वितीयायां भक्त-पानं न लभन्ते । तृतीयायामुपकरणमपहियते । चतुर्थ्यामेकः साधुरपरं भणति-त्वमेवमपराधं कृतवान् , अपरो ब्रूते-न मया अपराद्धं त्वमेवेदं विनाशितवानित्येवं तुमंतुमा भवति, तस्याः करणेन वाध्यायो न भवतीति भावः । पञ्चम्यां 'कलहः' भण्डनम् । षष्ठ्यां 'भेदः' गच्छस्य द्वैधीभावः । सप्तम्यां 15 ग्लानत्वम् । 'चरमा' अष्टमी पुनरन्यं साधु 'कर्षति' पञ्चत्वं प्रापयतीत्यर्थः ॥ १५०९ ॥ एक्ककम्मि उ ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया । ____ आणाइणो अ दोसा, विराहणा जा जहिं भणिया ॥ १५१०॥ एकंकस्मिन् स्थाने यथोक्तक्रममन्तरेण दक्षिणादीनां दिशां प्रत्युपेक्षणे चत्वारो मासा अनुदाताः प्रायश्चित्तं भवन्ति, आज्ञादयश्च दोषाः, 'विराधना' भक्त-पानालाभोपधिहरणादिका या 20 यत्र भणिता सा तत्र द्रष्टव्या ॥ १५१० ॥ एतेन विधिना यदा क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं भवति तदा किमपरं भवति ? इत्याह पडिलेहियं च खेत्तं, अह य अहालंदियाण आगमणं । । । नत्थि उवस्सयवालो, सव्वेहि वि होइ गंतव्यं ॥ १५११॥ एकतो गच्छवासिभिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं भवति, अथात्रान्तरे यथालन्दिकानामागमनं भवति, 9 ते हि सूत्रार्थपौरुप्यावहापयन्तस्तृतीयपौरुप्यां विहारं कुर्वन्तो गच्छवासिभिः क्षेत्रे प्रत्युपेक्षिते समायान्ति, तेषां च नास्ति तत्र क्षेत्रे स्थापनयोग्य उपाश्रयपाले:, जनद्वयस्यैवागमनादिति कृत्वा सर्वैरपि भवति गन्तव्यम् ॥१५११॥ अथ ते यथालन्दिकाः कथं क्षेत्रं प्रत्युपेक्षन्ते ? उच्यते पुच्छिय रुइयं खेत्तं, गच्छे पडिबद्ध बाहि पेहिंति । गच्छवासियथा जं तेसिं पाउग्गं, खेत्तविभागे य पूरिति ॥ १५१२ ॥ लन्दकृते 30 ये गच्छप्रतिबद्धा यथालन्दिकास्तैर्गच्छवासिनः पृष्टाः-आर्याः ! अभिरुचितं क्षेत्रं न वा ? क्षेत्रप्रत्युपेक्षणम् इति । ततो गच्छवासिनः प्राहु:-अभिरुचितम् । ततो यथालन्दिका गच्छवासिप्रत्यु-( ग्रन्था अम्-७०००) पेक्षितस्य क्षेत्रस्य "बाहिं" ति सक्रोशयोजनाद् बहिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षन्ते । कथम् ? १प्तम्यां 'ग्ला भा० विना ॥२°लः, एकाकिनः स्थातुं विहर्तुं वा न कल्पत इति कृ° भा० ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १५०९-१६] प्रथम उद्देशः । ४४७ इत्याह-यत् 'तेषां' यथालन्दिकानां 'प्रायोग्यं' कल्पनीयमलेपकृतं भक्त-पानं परिकर्मरहिता च वसतिस्तदेव गृह्णन्ति, 'क्षेत्रविभागाश्च' षड्वीथीरूपास्तानपि पूरयन्ति ॥ १५१२ ॥ जं पि न वच्चंति दिसिं, तत्थ वि गच्छेल्लगा सिं पेहंति । ___ पग्गहियएसणाए, विगई-लेवाडवज्जाई ॥१५१३ ॥ यामपि दिशं यथालन्दिका न व्रजन्ति 'तत्रापि' तस्यामपि दिशि गच्छवासिनः क्षेत्रप्रत्युपे-5 क्षकाः 'तेषां' यथालन्दिकानां योग्यं स्वप्रत्युपेक्षितक्षेत्रस्य सक्रोशयोजनाद् बहिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षन्ते । कथम् ? इत्याह–प्रगृहीतया-साभिग्रहया तृतीयपौरुष्यामुपरितनैषणापञ्चकस्यान्यतरयैषणया विकृति-लेपकृतवर्जे भक्त-पाने गृह्णन्ति, घृतादिका विकृतीस्तक-तीमनादिकं द्राक्षापानादिकं च लेपकृतं वर्जयन्तीत्यर्थः ॥ १५१३ ॥ जइ तिन्नि सव्वगमणं, एहामु त्ति लहुओ य आणाई । [ओ.नि.१५७] 10 परिकम्म कुड्डकरणं, नीहरणं कट्ठमाईणं ।। १५१४॥ यदि ते गच्छवासिनत्रयो जनास्ततः सर्वेषामपि गुरुसकाशे गमनम् । ते च गच्छन्तो यदि सागारिकेण पृच्छ्यन्ते 'किं यूयमागमिष्यथ न वा ?' ततो यदि 'एष्यामः' आगमिप्याम इति निर्वचनमर्पयन्ति ततो लघुको मासः आज्ञादयश्च दोषाः । शय्यातरश्चिन्तयति—'यदेते एप्याम इत्युक्त्वा प्रतिगतास्तद् नूनमागमिष्यन्ति' इति परिभाव्य 'परिकर्म' उपलेपनादिकं वसतेः 15 कुर्यात् , कुड्यस्य वा जीर्णस्योपलक्षणत्वात् कपाटस्य वा करणं-संस्थापनं विदध्यात् , काष्ठानाम् आदिग्रहणात् तृणानां धान्यस्य वा 'नीहरणं' निष्काशनं कुर्यात् ।। १५१४ ॥ यद्वा तेषामाचार्याणामपरं किमपि क्षेत्रमभिरुचितं ततस्तत्र गताः, तत्र चं क्षेत्रेऽपरे साधवः समायाताः ततः किम् ? इत्याहअद्धाणनिग्गयाई, असिवाइ गिलाणओ अ जो जत्थ । 20 हामो ति य लहुओ, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥१५१५॥ अध्वा-विप्रकृष्टो मार्गस्ततो निर्गताः-निष्कान्ता अशिवादिभिर्वा कारणैः प्रेरिताः परिश्रान्तास्ते साधवस्तत्रायाताः । तत्र चान्या वसतिर्नास्ति, सैव प्राचीनसाधुप्रत्युपेक्षिता वसतिस्तैर्याचिता । सागारिको ब्रूते-मयेयमन्येषां साधूनां दत्ताऽस्ति, तेऽप्येष्याम इति भणित्वा गताः सन्ति, अतो नाहं दातुमुत्सहे । एवं ते वसतिमलभमानाः श्वापद-स्तेन-कण्टकैः शीतेन वा प्रार-25 भ्यमाणाः प्रतिगमनादीनि कुर्युः, ग्लानो वा यस्तेषां सह विहारं कार्यमाणो यत्र यत् परितापनादिकं प्राप्नोति तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । यतश्चैवमतः 'एप्यामः' इति न वक्तव्यम् । 'न एष्यामः' इत्यपि वदतां मासलघु, तत्राप्याज्ञादयो दोषाः ॥ १५१५ ॥ अपरे चेमे-: वक्कइअ विकएण व, फेडण धन्नाइछभणमावासे । नीणिते अहिकरणं, विराहणा हाणि हिंडते ॥ १५१६ ॥ 'नागमिप्यन्ति साधवः' इति कृत्वा विक्रयिता' वक्रयेण-भाटकेन दत्ता सा वसतिः, विक्रयेण वा दत्ता विक्रीतेत्यर्थः; स्फेटनं वा वसतेः कृतम् , धान्यस्य आदिशब्दाद् भाण्डस्यान्यस्य वा उपकरणजातस्य क्षेपणं तस्यां कृतम् , बटुक-चारणादयो वा तत्र शय्यातरेणावासिताः, तेषां चाचा 30 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ र्याणां तदेव क्षेत्रमभिरुचितं ततस्तत्रैव समागताः । स प्राह – युष्माकं साधुभिरिति कथितं 'वयं नैष्यामः' ततो मयेयमन्येषां दत्ता धान्यादीनां वा भृता । ततो यथाभद्रकोऽसौ सागारिकस्तान् बटुकादीन् निष्काशयति, ततस्तेषु निष्काश्यमानेषु 'अधिकरणं' पृथिव्याद्युपमर्दनम् । यच्च ते प्रद्विष्टाः सागारिकस्य साधूनां वा करिष्यन्ति तन्निप्पन्नम् । वसतिं वा विना 'हिण्डमा - 5 नानाम् ' इतस्ततः पर्यटतां या संयमादिविराधना या च सूत्रार्थयोः परिहाणिस्तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तम् । तस्मान्न वक्तव्यं 'नैष्यामः' इति ॥ १५१६ ॥ किं पुनस्तर्हि वक्तव्यम् ? उच्यते-जह अम्हे तह अन्ने, गुरु-जेट्ठमहाजणस्स अम्हे मो । पुव्वभणिया उ दोसा, परिहरिया कुडमाईया || १५१७ ॥ " यथा वयमत्रा गतास्तथा अन्येऽपि साधवस्तिसृषु दिक्षु गताः सन्ति ततो न जानीमः कीदृशं 10 क्षेत्रं तैः प्रत्युपेक्षितमस्ति ? । अस्माकं तावदिदं क्षेत्रमभिरुचितम् परं गुरवश्च - आचार्या ज्येष्ठमहाजनश्च - ज्येष्ठार्यसाधुसमुदायो गुरु-ज्येष्ठमहाजनं तस्य वयम् 'मो' इति पादपूरणे परतन्त्रा वर्त्ता - महे इति वाक्यशेषः । ततस्तत्रगतानां गुरूणां ज्येष्ठार्याणां वा यद् विचारे समेप्यति तद् विधास्यामः । एवं ब्रुवाणैः 'पूर्वभणिताः ' कुड्यकरणादयो दोषाः परिहृताः || १५१७ ॥ इत्थमुक्त्वा सागारिकमापृच्छय ते किं कुर्वन्ति ? इत्याह 15. जह पंच तिनि चत्तारि छसु सत्तसु य पंच अच्छंति । चोयगपुच्छा सज्झायकरण वच्चंत -अच्छंते ।। १५१८ ॥ यदि ते पञ्च जनास्ततस्त्रयस्तत्रैवासते द्वौ गुरुसकाशं गच्छतः । अथ षड् जनास्ततश्चत्वारस्तिष्ठन्ति द्वौ गुरूणामभ्यर्णे व्रजतः । अथ सप्त जनाः ततः पञ्च तत्रैवासुते द्वौ गुरूणामुपकण्ठे गच्छतः । यदि च ऋजुः पन्थाः सव्याघातस्ततोऽपरं पन्थानं प्रत्युपेक्षन्ते । नोदकः पृच्छति20. ये ते गुरुसकाशं व्रजन्ति ये च ते उपाश्रये आसते ते उभयेऽपि किं खाध्यायं कुर्वते वा न वा ? ॥ १५१८ ॥ उच्यते वच्चंतकरण अच्छंत अकरणे लहुओं मासों गुरुओ उ । जावकालं गुरुणो, न इति सव्वं अकरणाए । १५१९ ॥ ये तावद् जन्ति ते यदि सूत्रपौरुष कुर्वन्ति ततो मासलघु, अर्थपौरुषीं कुर्वन्ति मासगुरु | 25. ये तूपाश्रये तिष्ठन्ति तेषां सूत्रपौरुप्या अकरणे लघुको मासः, अर्थपौरुप्या अकरणे गुरुको मासः । यावत्कालं गुरूणां समीपे 'नायान्ति' न प्राप्नुवन्ति तावत् " सवं अकरणाए" ति सर्वमधि - सूत्रमर्थं च न कुर्वन्ति ॥ १५१९ ॥ इदमेव सविशेषमाह जइ वि अनंतर खेत्तं, गयाओं तह वि अगुणंतगा एंति । निययाई मा गच्छे, इतरत्थ य सिजवाघाओ || १५२० ॥ 30 यद्यपि 'अनन्तरम्' अव्यवहितमेव क्षेत्रं गतास्तथापि 'अगुणयन्तः' सूत्रार्थावकुर्वन्त आयान्ति । कुतः ? इत्याह- नित्यवासादयो दोषा गच्छस्य मा भूवन्, 'इतरत्र च ' प्रत्युपेक्षिते क्षेत्रे चिरकालं विलम्ब्यागच्छतां शय्यायाः - उपाश्रयस्य व्याघातो मा भूत् ॥ १५२० ॥ १ समीपं भा० त० डे० ॥ २ 'न या मो० ले० ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४९ भाप्यगाथाः १५१७-२५] प्रथम उद्देशः । यत एवमतोऽगुणयन्तः समागम्य ते इदं कुर्वन्तिते पत्त गुरुसगासं, आलोएंती जहक्कम सव्वे । क्षेत्रप्रत्यु पेक्षकैः चिंता वीमंसा या, आयरियाणं समुप्पना ॥ १५२१॥ प्रत्युपे'ते' क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्राप्ताः सन्तो गुरुसकाशमालोचयन्ति यथाक्रमं सर्वेऽपि क्षेत्रखरूपम् । क्षितस्य ततस्तेषामालोचनां श्रुत्वा ‘चिन्ता' 'कस्यां दिशि व्रजामः ?' इत्येवंलक्षणा 'मीमांसा च' शिष्या- क्षेत्रस्य आचार्याभिप्रायविचारणा आचार्याणां समुत्पन्नां ॥ १५२१ ॥ अथैनामेव गाथां भावयति णां समक्षं __ गंतूण गुरुसगासं, आलोएत्ता कहिंति खेत्तगुणे । निवेदनम् न य सेसकहण मा होजऽसंखडं रत्ति साहति ॥ १५२२॥ गत्वा गुरूणां सकाशमालोच्य गमनागमनातिचारं कथयन्ति क्षेत्रगुणान् । ते चाचार्यान् विमुच्य 'न च' नैव शेषाणां साधूनां कथयन्ति । कुतः ? इत्याह-मा भूद् असडं खस्वक्षे-10 त्रपक्षपातसमुत्थम् । यद्यन्येषां कथयन्ति तदा मासलघु । तस्माद् रात्रौ "साहति" त्ति कथयन्ति ॥ १५२२ ॥ कथम् ? इति चेद् उच्यते-आचार्या आवश्यकं समाप्य मिलितेषु सर्वेष्वपि साधुषु पृच्छन्ति-आर्याः ! आलोचयत कीदृशानि क्षेत्राणि ? । तत उत्थाय गुरूनभिवन्ध बद्धाञ्जलयो यथाज्येष्ठमालोचयन्ति पढमाएँ नत्थि पढमा, तत्थ य घय-खीर-कूर-दधिमाई । 15 बिइयाएँ बीय तइयाएँ दो वि तेसिं च धुव लंभो ॥ १५२३ ॥ ओभासिय धुव लंभो, पाउग्गाणं चउत्थिए नियमा। इहरा वि जहिच्छाए, तिकाल जोगं च सव्वेसि ॥ १५२४ ।। 'प्रथमायां' पूर्वस्यां दिशि यद् अस्माभिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं तत्र 'प्रथमा' सूत्रपौरुषी नास्ति, तस्यामेव भिक्षाटनवेलासम्भवात् , परं तत्र क्षेत्रे घृत-क्षीर-कूर-दध्यादीनि प्रकामं प्राप्यन्ते । 20 द्वितीयाः क्षेत्रप्रत्युपेक्षका ब्रुवते-द्वितीयस्यां दिशि 'द्वितीया' अर्थपौरुषी नास्ति, तस्यामेव भिक्षाटनवेलाभावात् , घृत-दुग्ध-दध्यादीनि तु तथैव लभ्यन्ते । तृतीया ब्रुवते-तृतीयस्यां दिशि 'द्वे अपि' सूत्रार्थपौरुष्यो विद्येते, मध्याह्ने भिक्षालाभसद्भावात् , तेषां च घृत-दुग्धादीनां 'ध्रुवः' निश्चितो लाभ इति ॥ १५२३ ॥ तथा--- चतुर्थाः पुनरित्थमाहुः--अस्मत्प्रत्युपेक्षितायां चतुर्थ्यां दिशि प्रायोग्याणामवभाषितानां 25 'ध्रुवः' अवश्यम्भावी लाभः । 'इतरथाऽपि' अवभाषणमन्तरेणापि 'यदृच्छया' प्रकामं 'त्रिकालं' पूर्वाह्म-मध्याह्ना-ऽपराह्मलक्षणे कालत्रये 'सर्वेषामपि' बाल-वृद्धादीनां 'योग्य' सामान्यं भक्त-पानं प्राप्यते ॥१५२४॥ इत्थं सर्वैरपि स्वस्वक्षेत्रस्वरूपे निवेदिते सत्याचार्याश्चिन्तयन्ति-कस्यां दिशि गन्तुं युज्यते । ततः स्वयमेवाद्यानां तिसृणां दिशां सूत्रार्थहान्यादिदोषजालं परिभाव्य चतुर्थी दिशमनन्तरोक्तदोषरहितत्वेन गन्तव्यतया विनिश्चित्य किं कुर्वन्ति ? इत्याह इच्छागहणं गुरुणो, कत्थ वयामो ति तत्थ ओअरिया। खुहिया भणंति पढम, तं चिय अणुओगतत्तिल्ला ॥ १५२५ ॥ १ तत्र यथा ते आलोचयन्ति तथा प्रतिपादयति इत्यवतरणं भा० प्रती ॥ २ कहि व ता.॥ 30 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रप्रत्यु. क्षेत्रेषु 15 ४५० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ . पेक्षकैनि विइयं सुत्तग्गाही, उभयग्गाही य तइयगं खेत्तं । [ओ.नि. १६२] वेदितेषु आयरिओ उ चउत्थं, सो उ पमाणं हवइ तत्थ ॥ १५२६ ॥ 'गुरोः' आचार्यस्य 'इच्छाग्रहणं' शिप्याणामभिप्रायपरीक्षणं भवति-आर्याः ! कथयत 'कुत्र' गन्तव्यक्षेत्रस्य कस्यां दिशि व्रजामः ? इति । ततो ये 'औदरिकाः' खोदरभरणैकचित्तास्ते 'क्षुभिताः' सम्भ्रान्ताः निर्णयः 5सन्तो भणन्ति-प्रथमां दिशं व्रजामो यत्र प्रथमपौरुप्यामेव प्रकामं भोजनमवाप्यते । तामेव दिशं "अणुओगतत्तिल्ल" त्ति अनुयोगग्रहणैकनिष्ठाः शिप्या गन्तुमिच्छन्ति, येन द्वितीयपौरुप्यां निर्व्याघातमर्थग्रहणं भवति ॥ १५२५ ॥ ___ ये तु सूत्रग्राहिणस्ते भणन्ति—द्वितीयां दिशं गच्छामः यत्र न सूत्रपौरुषीव्याघात इति । ये तूभयग्राहिणस्ते 'तृतीयं' तृतीयदिग्वर्ति क्षेत्रमिच्छन्ति, तत्र हि द्वयोरप्याद्यपौरुप्योर्निर्व्याघातं 10 सूत्रार्थग्रहणे भवतः । आचार्यास्तु चतुर्थ क्षेत्रं गन्तुमिच्छन्ति, यतस्तत्र त्रिष्वपि कालेषु बालवृद्धाद्यर्थ सामान्यभक्तं प्राघूर्णकाद्यर्थं पुनरवभाषितं दुग्धादिकं प्रायोग्यं प्राप्यते, न च कोऽपि सूत्रार्थयोर्व्याघात इति । स एव च' आचार्यः 'तत्र' तेषां मध्ये प्रमाणं भवति ॥ १५२६ ॥ आह किं पुनः कारणं येनाचार्याश्चतुर्थक्षेत्रमिच्छन्ति ? इति अत आह--- मोहुब्भवो उ बलिए, दुब्बलदेहो न साहए अत्थं । [ओ.नि.१६३] तो मज्झवला साहू, दुट्ठस्से होइ दिटुंतो ॥१५२७॥ __ प्रथम-द्वितीय-तृतीयेषु क्षेत्रेषु प्रचुरस्निग्ध-मधुराहारप्राप्तेः शरीरेण बलवान् भवति, बलवतश्चावश्यम्भावी मोहोद्भवः । एवं तर्हि यत्र भिक्षा न लभ्यते तत्र गत्वा बुभुक्षाक्षामकुक्षयस्तिष्ठन्तु, नैवम् , दुर्बलदेहः साधुन साधयति 'अर्थ' ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपम् । यत एवं ततः 'मध्यबलाः' नातिबलवन्तो न वाऽतिदुर्बलाः साधव इप्यन्ते । दुष्टाश्वश्व भवत्यत्र दृष्टान्तः–'दुष्टाश्वः' 20 गर्दभः, स यथा प्रचुरभक्षणादुद्दर्पितः सन् उत्प्लुत्य कुम्भकारारोपितानि भाण्डानि भिनत्ति, भूय स्तेनैव कुम्भकारेण निरुद्धाहारः सन् भाण्डानि वोढुं न शक्नोति; स एव च गर्दभो विमध्यमाहारक्रियया प्रतिचर्यमाणः सम्यग् भाण्डानि वहति । एवं साधवोऽपि यदि स्निग्ध-मधुराभ्यवहारतः शरीरोपचयभाजो भवन्ति, तत उत्पन्नदुर्निवारमोहोद्रेकतया संयमयोगान् बलादुपमृद्गु(दी)युः, आहाराभावे त्वतिक्षामवपुषः सन्तः संयमयोगान् वोढुं न शक्नुयुः; मध्यमबलोपेतास्तु व्यपगतौ25 सुक्या अनुद्विग्नपरिणामाः सुखेनैव संयमयोगान् वहन्तीति मत्वा क्षेत्रत्रयं परिहृत्याचार्याश्चतुर्थ क्षेत्रं व्रजन्ति ॥. १५२७ ॥ किञ्च पणपन्नगस्स हाणी, आरेणं जेण तेण वा धरइ । [ओ.नि.१६४] जइ तरुणा नीरोगा, वचंति चउत्थगं ताहे ॥ १५२८ ॥ पञ्चपञ्चाशद्वार्षिकस्य मानुषस्य विशिष्टाहारमन्तरेण 'हानिः' बलपरिहाणिर्भवति । "आरेणं" ति 30 पञ्चपञ्चाशतो वर्षेभ्य आराद् वर्तमानो येन वा तेन वा आहारेण 'ध्रियते' निर्वहति । ततो यदि ते साधवस्तरुणास्तथा नीरोगास्ततश्चतुर्थमेव क्षेत्रं व्रजन्ति न शेषाणि ।। १५२८ ॥ जइ पुण जुन्ना थेरा, रोगविमुक्का व असहुणो तरुणा । [ओ.नि.१६५] १°ण्डकानि मो० ले० ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १५२६-३३] प्रथम उद्देशः । ४५१ ते अणुकूलं खेत्तं, पेसिति न यावि खग्गूडे ॥ १५२९ ॥ यदि पुनः 'जीर्णाः' पञ्चपञ्चाशद्वार्षिकादय इति भावः, के ते? 'स्थविराः' वृद्धाः, तथा तरुणा अपि ये रोगेण-ज्वरादिना मुक्तमात्रा अत एव च 'असहिष्णवः' न यदपि तदप्याहारजातं परिणमयितुं समर्थाः 'तान्' एवंविधान् स्थविर-तरुणान् ‘अनुकूलं' प्रायोग्यलाभसम्भवेन हितं 'क्षेत्रं' प्रथमक्षेत्रादिकं गीतार्थमेकं सहायं समय॑ प्रेषयन्ति सूरयः, 'न चापि' नैव खग्गू-5 डान् । इहालसाः स्निग्ध-मधुराद्याहारलम्पटाः खग्गूडा उच्यन्ते ॥ १५२९ ॥ ___ आह कियता पुनः कालेन ते वृद्धादयः पुष्टिं गृह्णन्ति ? उच्यते-पञ्चभिर्दिवसैः । तथा च वैद्यकशास्त्रार्थसूचिकामेतदर्थविषयामेव गाथामाह एग पणगऽद्धमासं, सट्ठी सुण-मणुये-गोण-हत्थीणं । [ओ.नि. १६६] राइदिएहिँ उ बलं, पणगं तो एक दो तिन्नि ॥१५३०॥ 10 क्षीणशरीरस्य शुनः पोप्यमाणस्यैकेन रात्रिन्दिवेन वलमुपजायते । एवं मनुष्यस्य रात्रिन्दिवपञ्चकेन, गो-बलीवर्दस्यार्द्धमासेन, हस्तिनस्तु क्षीणवपुषः पुष्टिमारोप्यमाणस्य षल्या दिवसैर्बलमुद्भवति । तत एते वृद्धादयः प्रथमक्षेत्रे पोप्यमाणाः पञ्चकमेकं रात्रिन्दिवानां व्यवस्थाप्यन्ते, ततश्चतुर्थक्षेत्रे नीयन्ते । अथ पञ्चकेनामी न वलं गृहीतवन्तः ततो द्वे पञ्चके, तथापि बलमpहानास्त्रीणि पञ्चकानि व्यवस्थाप्य चतुर्थक्षेत्रे नेतव्याः ॥ १५३० ॥ एवं ते चतुर्थक्षेत्रगमनं 15 निर्णीय शय्यातरमापृच्छ्य क्षेत्रान्तरं सामन्ति तद्विषयं विधिमभिधित्सुराहसागारिय आपुच्छण, पाहुडिया जह य वजिया होइ । क्षेत्रान्तरके वचंते पुरओ, उ भिक्खुणो उदाहु आयरिया ॥१५३१ ॥ गमनसमये शय्यातरक्षेत्रान्तरं सङ्कामद्भिः सागारिकस्याऽऽप्रच्छन्नं कर्त्तव्यम् । यथा च 'प्राभृतिका' हरितच्छेद स्यापृच्छा नाद्यधिकरणरूपा वर्जिता भवति तथा विधिना आप्रच्छनीयम् । तथा गच्छतां के पुरतो व्रजन्ति ? 30 तत्कारणाकिं भिक्षवः ? उताहो आचार्याः ? इति निर्वचनीयम् । एष द्वारगाथासमासार्थः ॥ १५३१ ॥ दि अथैनामेव विवरीषुराह सागारिअणापुच्छण, लहुओ मासो उ होइ नायव्यो । आणाइणो य दोसा, विराहण इमेहिँ ठाणेहिं ॥१५३२ ॥ ___ सागारिकमनापृच्छय यदि गच्छन्ति तदा लघुको मासः प्रायश्चित्तं भवति ज्ञातव्यः, आज्ञा- 25 दयश्च दोषाः । विराधना चामीभिः स्थानः प्रवचनादेर्भवति ॥ १५३२ ॥ तान्येवाह सागारिअपुच्छगमणम्मि बाहिरा मिच्छंगमण कयनासी । [ओ.नि.१६७] अन्नस्स वि हिय-नटे, नेणगसंका य जं चऽनं ॥ १५३३ ॥ सागारिकमनापृच्छय यदि गच्छन्ति ततः स सागारिकश्चिन्तयेत् -- "बाहिरि 'त्ति वाह्या लोकधर्मस्यामी भिक्षवः, यतः ____ आपुच्छिऊण गम्मइ, कुलं च सीलं च माणिसं होइ। १°य-गावि-ह° ता० ॥ २ °गृहतस्त्री डे० ॥ ३°च्छ छेद कयनासी । गिहि-साह. अभिधारण, तेणग° ता० ॥ ४ °च्छय गमने सागा भा० ॥ दिकं च 30 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ 10 सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ अभिजाओ ति अ भन्नइ, सो वि जणो माणिओ होइ ॥ एष लोकधर्मः । तथा "मिच्छगमण" त्ति 'ये लोकधर्ममपि प्रत्यक्षदृष्टं नावबुध्यन्ते ते कथमतीन्द्रियमदृष्टं धर्ममवभोत्स्यन्ते ?' इति सागारिको मिथ्यात्वं गच्छेत् । तथा 'कृतनाशिनः ' कृतघ्ना एते, एकरात्रमपि हि यस्य गेहे स्थीयते तमनापृच्छ्य गच्छतां भवत्यौ चित्यपरिहाणिः, 5 किं पुनरमीषा मियन्ति दिनानि मम गृहे स्थित्वा युक्तं मामनापृच्छय गन्तुम् ? इति । तथा ‘अन्यस्यै' प्रातिवेश्मिकस्य अपिशब्दात् सागारिकस्य वा हृते नष्टे वा कस्मिँश्चिद् वस्तुनि स्तेनकशङ्का भवेत् — यदमी साधवोऽनापृच्छ्य गतास्तद् नूनमेभिरेव स्तेनितं तद् द्रव्यमिति । “जं चऽन्नं” ति यच्च ‘अन्यद्’ वसतिव्यवच्छेदादि भवति तदपि द्रष्टव्यम् || १५३३ ॥ तदेवाह - वसहीए वोच्छेदो, अभिधारिताण वा वि साहूणं । पव्वज्जाभिमुहाणं, तेणेहि व संकणा होजा ।। १५३४ ॥ 1 'विप्रलम्भितास्तावदमीभिरेकवारम्, अत ऊर्द्ध ये केचन संयता इति नाम उद्वहन्ते तेभ्यो वसतिं न प्रदास्यामि' इत्येवं वसतेर्व्यवच्छेदो भवेत् । तथा 'अभिघारयन्तो नाम' ये साधवस्तमाचार्थं मनसिकृत्योपसम्पदः प्रतिपत्त्यर्थं समायातास्ते सागारिकं प्रश्नयन्ति - आचार्याः कस्मिन् क्षेत्रे विहृतवन्तः ?; सागारिकः प्राह — यः कथयित्वा व्रजति स ज्ञायते यथा अमुकत्र गत इति, ये 15 तु प्रथमत एव नापृच्छन्ति ते कथं ज्ञायन्ते ; ततस्तेषामभिधारयतां साधूनाम् 'अहो ! लोकव्यवहारबहिर्मुखा अमी आचार्याः, ततः को नामामीषामुपकण्ठे उपसम्पत्स्यते ?' इति विचिन्त्य स्वगच्छे गणान्तरे वा गमनं भवेदिति वाक्याध्याहारः । स चाचार्यस्तेषां श्रुतवाचन प्रदानादिजन्याया निर्जराया अनाभागी भवति । प्रव्रज्याभिमुखानां वा " तेणेहि" त्ति स्तेनविषया शङ्का भवेत् । किमुक्तं भवति ? - केचिदगारिणः संसारप्रपञ्च विरक्तचेतसस्तदन्तिके प्रत्रज्यां प्रतिपि - 2 : त्सवः समायाताः सागारिकं पृच्छन्ति - क गता आचार्याः ; स प्राह - वयं न जानीमः तत्खरूपमिति, ततस्तेषामगारिणां शङ्का समुपजायते, यथा - नूनं किमप्यस्य सागारिकस्य चोरयित्वा गतास्ते, अन्यथा किमर्थमेष परिस्फुटमाचार्याणां गमनवृत्तान्तं न निवेदयति ? इति । ततश्च ते प्रत्रज्यामप्रतिपद्यमाना यत् षण्णां जीवनिकायानां विराधनां कुर्वन्ति यच्च बोटिक - निह्नवादिषु व्रजन्ति अपरान् वा प्रब्रजतो विपरिणामयन्ति तन्निष्पन्नमाचार्याणां प्रायश्चित्तम् । यतएवमतः 25 सागारिकमापृच्छय गन्तव्यम् ॥ १५३४ ॥ सा च पृच्छा द्विविधा – विधिपृच्छा अविधिपृच्छा च । तत्राविधिपृच्छामभिधित्सुः प्रायश्चित्तं तावदाह १ स्य' सागारिकव्यतिरिक्तस्य अपि भा० ॥ २ केचित् सं° त० डे० ॥ ३ 'त्, ततोऽध्वनिर्गतादयो यदवाप्स्यन्ति तन्निष्पन्नम् । 'अभि' भा० । “जं च अद्धाणणिग्गया साहू पाविहिंति तण्णि फण्णं” इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ ४ मो० ले० विनाऽन्यत्र - इति कृत्वा स्वगच्छे गणान्तरे वा गमनं भवेत् । स चाचा° त० डे० कां० । इति पुनरावृत्तिर्भवेत्, उपसम्पदमप्रतिपद्यैव भूयः स्वगच्छं गणान्तरं वा गच्छेयुरिति भावः । स चाचा भा० ॥ ५ मो० ले० विनाऽन्यत्र - 'नादिजन्या' त० डे० कां० । 'नादिप्रदानजन्या० भा० ॥ ६ ष स्तेन विषया शङ्का भा० ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ गमनसम पृच्छा भाष्यगाथाः १५३४-३९] प्रथम उद्देशः । ४५३ अविहीपुच्छणे लहुओ, तेसिं मासो उ दोस आणाई । येऽविधिमिच्छत्त पुन्वभणियं, विराहण इमेहिँ ठाणेहिं ॥ १५३५ ॥ अविधिप्रच्छने 'तेषाम्' आचार्याणां लघुको मासः, दोषाश्चाज्ञादयः, तथा मिथ्यात्वं 'पूर्वभणितं' प्रागुक्तमेव मन्तव्यम् । विराधना एभिः स्थानैर्भवति ॥ १५३५ ॥ तान्येवाह सहसा दटुं उग्गाहिएण सिजायरी उ रोविजा ।। सागारियस्स संका, कलहे य सएज्झिखिंसणया ॥ १५३६ ॥ अविधिपृच्छा नाम वस्त्र-पात्राद्युपकरणं विहारार्थमुद्राह्य पृच्छन्ति 'वयमिदानी विहारं कुर्महे' ततः 'सहसा' अकस्माद् उद्राहितेन उपकरणेन प्रस्थितान् दृष्ट्वा शय्यातरी रुदियात् । तद् दृष्ट्वा सागारिकस्य शङ्का भवेत्-मयि प्रवसति कदाचिदप्यस्या अक्षिणी अश्रुपातं न कुरुतः, अमीषु तु प्रस्थितेष्वित्थमश्रूणि मुञ्चतः, ततो भवितव्यं कारणेनेति । मिथ्यात्वं गच्छेत् , तद्रव्या- 10 ऽन्यद्रव्यव्यवच्छेदादयश्च दोषाः । तथा “सइज्झिय' त्ति प्रातिवेश्मिकी रुदन्ती शय्यातरी दृष्ट्वा पश्चात् कलहे समुत्पन्ने खिंसनां कुर्यात्-किमन्यद् भवदीयं दुश्चरितमुद्गीर्यते येन तदानीमाचार्येषु विहारं कर्तुमुद्यतेषु भवत्या रुदितम् , किं वा स आचार्यस्ते पिता भवति येन रोदिषि ? इति ॥ १५३६ ॥ अथानागतमेव पृच्छन्ति 'वयममुकदिवसे गमिप्यामः' तत्राप्यमी दोषाः 15 हरियच्छेअण छप्पइअथिच्चणं किच्चणं च पुत्ताणं । गमणं च अमुगदिवसे, संखडिकरणं विरूवं वा ॥१५३७||[ओ.नि.१६९] तानि शय्यातरमानुषाणि 'अद्य साधवो गमिप्यन्ति' इति कृत्वा क्षेत्रादी न गच्छन्ति । ततो यानि तत्र महान्ति तानि धर्म शृणुयुः । चेटरूपाणि स्नुषाश्च पुरोहडादिषु हरितच्छेदनं यद्वा परस्परं षट्पदिकानां "थेचणं" उपमर्दनं "किच्चणं" ति कर्त्तनं वा विदध्युः, पोतानि-वस्त्राणि 20 तेषां प्रक्षालनं कुर्वीरन् । यद्वा 'अमुकदिवसे गमनं करिष्यामः' इत्युक्ते संयतार्थ सङ्खड्याः करणं भवेत् । तत्र यदि गृह्णन्ति तदाऽऽधाकर्मादयो दोषाः, अगृह्णतां तु प्रद्वेषगमनादयः । “विरूवं" ति 'विरूपम्' अनेकप्रकारं कुड्यधवलनादिकमपरमप्यधिकरणं कुर्युः । यत एते दोषा अतोऽविधिपृच्छा न विधेया ॥ १५३७ ॥ कः पुनः पृच्छायां विधिः ? इत्याहजत्तो पाए खेत्तं, गया उ पडिलेहगा ततो पाए । [ओ.नि.१७०] 25 गमनसमये पृच्छाया सागारियस्स भावं, तणुइंति गुरू इमेहिं तु ॥१५३८॥ 'यतः प्रगे' यतो दिनादारभ्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षका गताः 'ततः प्रगे' ततः प्रभृति सागारिकस्य 'भाव' प्रतिबन्धं 'तनूकुर्वन्ति' हानि प्रापयन्ति 'गुरवः' आचार्या एभिर्वचनैः ॥ १५३८ ॥ तान्येवाह उच्छू बोलिंति वई, तुंबीओ जायपुत्तभंडाओ [ओ.नि.१७१] 30 वसहा जायत्थामा, गामा पत्र्यायचिक्खल्ला ॥ १५३९ ॥ अप्पोदगा य मग्गा, वसुहा वि य पक्कमट्टिया जाया । १ ततश्च साया भा० ॥ २°ति, ततश्च तद्र भा० ॥ ३ यदि वा भा० ॥ विधिः Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ अन्नोर्कता पंथा, विहरणकालो सुविहियाणं ।। १५४० ।। [ ओ. नि. १७२ ] इह पूर्व शरदादिर्विहारो भवतीत्युक्तम्, अतः शरत्कालमेवाङ्गीकृत्याभिधीयते - इक्षवः 'वोलयन्ति' व्यतिक्रामन्ति 'वृतिं' खपरिक्षेपरूपाम्, तुम्ब्यश्च 'जातपुत्रभाण्डा: ' समुत्पन्नतुम्बकाः, तथा वृषभा जातस्थामानः, ग्रामाः प्रम्लानचिक्खल्लाः, अल्पोदकाश्च मार्गाः, वसुधाऽपि च पक्क5 मृत्तिका जाता, अन्यैः– पथिकादिभिरुत्कान्ताः - क्षुण्णाः पन्थानः सम्प्रति वर्त्तन्ते, अतो विहर गमनसमये 10 शय्यातरस्योपदेश दानम् क्षेत्रान्तरे गमनम् ४५४ 25 कालः सुविहितानाम् । एतद् गाथाद्वयं शय्यातरस्य शृण्वतो गुरवश्चङ्क्रमणं कुर्वन्तः पठन्ति । ततः शय्यातरो ब्रूयात्-भगवन् ! किमिदानीं यूयं गमनोत्सुकाः ? । गुरवः प्राहुः - बाढम्, गन्तुकामा वयम्, प्रेषिताश्चास्माभिः क्षेत्रान्तरं प्रत्युपेक्षितुं साधवः । इत्थमन्तराऽन्तरा प्रज्ञाप्यमानानां शय्यातरमानुषाणां व्यवच्छिद्यते स्नेहानुबन्धः || १५३९ | १५४० ॥ ततःआवासगकय नियमा, कल्लं गच्छामु तो उ आयरिया । [ ओ. नि. १७४ ] सपरिजणं सागरियं, वाहेउं दिति अणुसट्ठि || १५४१ ॥ आवश्यकं–प्रतिक्रमणं तदेवावश्यमनुष्ठेयत्वाद् नियमः स कृतो यैस्ते कृतावश्यकनियमाः । गाथायां प्राकृतत्वादावश्यकशब्दस्य पूर्वनिपातः । " कल्लं गच्छामु" त्ति " वर्त्तमानासन्ने वर्त्तमाना " इति वचनात् 'कल्ये' प्रभाते गमिष्याम इति मत्वा तत आचार्याः 'सपरिजनं' सकुटुम्बं सागा - 15 रिकं व्याहृत्य ददति 'अनुशिष्टि' धर्मकथां कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ ९५४१ ॥ ततःपव्वज सावओ वा, दंसणसड्डो जहन्नओ वसहिं । [ ओ. नि. १७५] जोगम्मि वट्टमाणे, अगं वेलं गमिस्सामो ।। १५४२ ।। स शय्यातरो धर्मकथां श्रुत्वा कदाचित् प्रव्रज्यां प्रतिपद्यते । अथ प्रवज्यां प्रतिपत्तुमशक्तस्ततः ‘श्रावको भवति' देशविरतिं प्रतिपद्यते । अथ तामप्यङ्गीकर्तुमक्षमस्ततः 'दर्शनश्राद्धः ' 20 अविरतसम्यग्दृष्टिर्भवति । अथ दर्शनमप्युररीकर्तुं नोत्सहते ततो जघन्यतोऽवश्यन्तया वसतिं साधूनां यथा ददाति तथा प्रज्ञाप्यते । भूयोऽपि धर्मकथां समाप्याचार्या ब्रुवते - योऽसौ योगो गम - नायास्मान् प्रेरयति तस्मिन् वर्तमाने सति " अमुगं वेलं " ति सप्तम्यर्थे द्वितीया अमुकस्यां वेलायां गमिष्यामः । इत्थं विकालवेलायां कथयित्वा प्रत्युषसि व्रजन्ति || १५४२ ॥ कथम् ? इत्याहतदुभय सुतं पडिलेहणा य उग्गयमणुग्गए वा वि । [ ओ.नि. १७६ ] पडिच्छा हिगरण तेणे, नट्ठे खग्गूड संगारो ॥। १५४३ ॥ 'तदुभयं ' सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषीं च कृत्वा व्रजन्ति । अथ दूरं क्षेत्रं गन्तव्यं ततः सूत्रपौरुषीं कृत्वा । अथ दूरतरं ततः पादोन प्रहरे पात्रप्रत्युपेक्षणां कृत्वा । अथ दूरतमं तत उद्गतमात्रे सूर्ये । अथातिदवीयान् मार्गो गन्तव्यः गच्छश्च तृषादिभिराक्रान्त उत्सूरे न शक्नोति गन्तुं ततोऽनुग सूर्ये प्रचलन्ति । “पडिच्छ" त्तिं निशि निर्गता उपाश्रयाद् बहिः परम्परं प्रतीक्षन्ते । अन्यथा ये 30 पश्चान्निर्गच्छन्ति ते न जानन्ति 'केनापि मार्गेण गताः साधवः ?' ततो महता शब्देनातनान् साधून् व्याहरेयुः ततश्च 'अधिकरणम्' अप्काययन्त्रवाहन वणिग्ग्रामान्तरगमनादि भवति । १ नाम् । इत्थमुक्ते शय्यातरो ब्रूयात् भा० ॥ २ °त्ति ते साधव उपाश्रयाद् बहिर्नि र्गताः परस्परं भा० ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १५४०-४७ ] प्रथम उद्देशः । ४५५ “”तेणे नट्टे” त्ति ते पाश्चात्यसाधवोऽग्रेतनानां 'नष्टाः' स्फिटिताः सन्तः स्तेनकैरुपद्र्येरन् अतः प्रतीक्षणीयम् । “खग्गूड” त्ति कश्चित् खग्गूडः - निद्रालुः उपलक्षणत्वात् कश्चिद्वा धर्मश्रद्धालुरिदं ब्रूते - 'न कल्पते साधूनां रात्रौ विहर्तुम्' इति तस्य "संगारो" ति सङ्केतः क्रियते — त्वयाऽमुकत्रागन्तव्यमिति ॥ १५४३ ।। अथास्या एव गाथायाः कानिचित् पदानि विवृणोति - पडिलेहंत च्चिय वेंटियाउ काउं कुणति सज्झायं । चरमा उग्गाउं, सोचा मज्झहि वच्चति ।। १५४४ ॥ ते साधवः प्रभाते प्रत्युपेक्षमाणा एव वस्त्राणि विष्टिकाः कुर्वन्ति । ततो विण्टिकाः कृत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति तावद् यावत् 'चरमा' पादोनपौरुषी । ततः पात्रकाणि प्रत्युपेक्षणापूर्वं 'उहा ' ग्रन्थिदानादिना सज्जीकृत्य ततोऽर्थं श्रुत्वा 'मध्याह्ने' प्रहरद्वयसमये व्रजन्ति ॥ ९५४४ ॥ कथम् ? इत्याह 6 10 १ "वेण" त्ति स्तेनका विबुद्धाः सन्तो मोषणार्थमायाताः पश्चाद् व्रजन्ति । "नट्टे" ति कदाचित् कोऽपि साधुः मार्गात् परिभ्रश्येत् । अतः प्रथममेव प्रदोषवेलायां सङ्केतः क्रियते - अमुत्रार्द्धमार्गे वृक्षादेरधस्ताद् विश्रामं ग्रहीष्यामः, अमुकत्र वसतिं स्वीकरिष्याम इति । "खग्गूड" त्ति कश्चित् कदाग्रही खग्गूड इदं ब्रूते - न क भा० ॥ २ सोउं तो जंति मज्झण्हे ता० ॥ तिहि करणम्मि पसत्थे, णक्खत्ते अहिवईण अणुकूले । घेतूण णिति वसभा, अक्खे सउणे परिक्खंता ॥। १५४५ ।। तिथिश्च - नन्दा - भद्रादिका करणं च - बव-बालवादिकं तिथि-करणं तस्मिन् उपलक्षणत्वाद् वार-योग- मुहूर्त्तादिषु प्रशस्तेषु नक्षत्रे च 'अधिपतीनाम्' आचार्याणामनुकूले वहमाने सति, किम् ? इत्याह- 'अक्षानू' गुरूणामुत्कृष्टोपधिरूपान् गृहीत्वा 'वृषभाः ' गीतार्थसाधवः शकुनान् परीक्ष- 15 माणाः “ णिति" निर्गच्छन्ति || १५४५ || आह किमर्थं प्रथममाचार्या न निर्गच्छन्ति ? उच्यतेवासस्स य आगमणं, अवसउणे पट्टिया नियत्ता य । च गमनसमये प्रशस्तदिन - शकुनाद्यव लोकनं तत्कारणानि भावणा एवं, आयरिया मग्गओ तम्हा ॥। १५४६ ॥ वर्षणं वर्षः - वृष्टिस्तस्यागमनं दृष्ट्वा अपशकुने वा दृष्टे वृषभाः प्रस्थिताः सन्तो निवृत्ता अपि न लोकापवादमासादयन्ति, सामान्यसाधुत्वात् । यदि पुनराचार्या वृष्टिमपशकुनान् वा विज्ञाय 20 निवर्त्तन्ते तत एवमपभ्राजना भवति, यथा - यदेव ज्योतिषिकाणां विज्ञानं तदप्यमी आचार्या न बुध्यन्ते अपरं किमवभोत्स्यन्ते । तस्मादाचार्याः 'मार्गतः' पृष्ठतो निर्गच्छन्ति न पुनरग्रतः । अथ पुरतो गच्छन्ति ततो मासलघु । एतेन “के वच्चंते पुरओ उ भिक्खुणो उदाहु आयरिय" ( गा० १५३१ ) त्ति पदं भावितम् ॥। १५४६ || आह 'अपशकुने दृष्टे सति निवर्त्तन्ते' इत्युक्तं तत्र के शकुनाः ? के वा अपशकुनाः ? इति अत्रोच्यते मइल कुचेले अब्भंगियल्लए साण खुज वडभे या । एतु अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ तिस्स ।। १५४७ ॥ 'मलिनः' शरीरेण वस्त्रैर्वा मलीमसः 'कुचेल: ' जीर्णवस्त्रपरिधानः 'अभ्यङ्गितः' स्नेहाभ्यक्त 25 अपश कुनाः Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुनाः 10. ४५६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ शरीरः श्वा वामपार्थाद् दक्षिणपार्श्वगामी 'कुजः' वक्रशरीरः 'वडभः' वामनः । एते' मलिनाद्रयोऽप्रशस्ता भवन्ति क्षेत्रान्निर्गच्छतः ॥ १५४७ ॥ तथा रत्तपड चरग तावस, रोगिय विगला य आउरा वेजा। कासायवत्थ उद्धलिया य जत्तं न साहंति ॥ १५४८॥ । 'रक्तपटाः' सौगताः, 'चरकाः' क(का)णादा धाटीवाहका वा, 'तापसाः' सरजस्काः , 'रोगिणः' कुष्ठादिरोगाक्रान्ताः, 'विकलाः' पाणि-पादाद्यवयवव्यङ्गिताः, 'आतुराः' विविधदुःखोपद्रुताः, 'वैद्याः' प्रसिद्धाः, 'काषायवस्त्राः' कषायवस्त्रपरिधानाः, 'उद्धूलिताः' भस्मोद्धूलितगात्रा धूलीधूसरा वा । एते क्षेत्रान्निर्गच्छद्भिदृष्टाः सन्तो यात्रा-गमनं तत्प्रवर्तकं कार्यमप्युपचाराद् यात्रा तां न साधयन्ति ॥ १५४८ ॥ उक्ता अपशकुनाः । अथ शकुनानाह नंदीतूरं पुण्णस्स दंसणं संख-पडहसदो य । भिंगार-छत्त-चामर-वाहण-जाणा पमत्थाई ।। १५४९ ॥ [ओघ.भा.१०९] समणं संजयं दंतं, सुमणा मोयगा दधिं । मीणं घंटं पडागं च, सिद्धमन्थं वियागरे ॥१५५० ॥ [ओघ.भा.११०] 'नन्दीतूर्य' द्वादशविधतूर्यसमुदायो युगपद् वाद्यमानः, 'पूर्णस्य' पूर्णकलशम्य दर्शनम् , 15 शङ्ख-पटहयोः शब्दश्च श्रूयमाणः, भृङ्गार-च्छत्र-चामराणि प्रतीतानि, 'वाहन-यानानि' वाहनानि-हस्ति-तुरङ्गमादीनि यानानि-शिबिकादीनि, एतानि 'प्रशस्तानि' शुभावहानि ॥ १५४९ ॥ 'श्रमणं' लिङ्गमात्रधारिणम् , 'संयतं' षट्कायरक्षणे सम्यग्यतम् , 'दान्तम्' इन्द्रिय-नोइन्द्रियदमनेन, 'सुमनसः' पुप्पाणि, मोदका दधि च प्रतीतम् , 'मीनं' मत्स्यम् , घण्टां पताकां च दृष्ट्वा श्रुत्वा वा 'सिद्धं निप्पन्नम् 'अर्थ' प्रयोजनं व्यागृणीयादिति ॥ १५५० ॥ 20 अथ प्रशस्तेषु शकुनेपु सञ्जातेषु गुरवः किं कुर्वन्ति ? इत्याह सिजायरेऽणुसासइ, आयरिओ सेसगा चिलिमिलिं तु । काउं गिण्हंतुवहिं, सारवियपडिस्सया पुद्धि ॥ १५५१॥ शय्यातराननुशास्ते आचार्यः, यथा-व्रजामो वयम् , भवद्भिर्धर्मकर्मण्यप्रमत्तैभवितव्यमिति । शेषास्तु साधवः चिलिमिलीं 'कृत्वा' बद्ध्वा तदन्तरिताः सन्त उपधिं 'गृह्णन्ति' संयन्त्रयन्तीत्यर्थः, 25 कथम्भूताः ? सारवितः-सम्मार्जितः प्रतिश्रयो यैस्ते सारवितप्रतिश्रयाः 'पूर्व प्रथमम् ॥१५५१॥ अथ कः कियदुपकरणं गृह्णाति ? इत्युच्यते बालाईया उवहि, जं वोढु तरंति तत्तियं गिण्हे । जहण्णेण अहाजायं, सेसं तरुणा विरिंचंति ॥ १५५२ ॥ बाल-वृद्ध-राजप्रव्रजितादयो यावन्मात्रमुपधिं वोढुं शक्नुवन्ति तावन्मात्रमेव गृहन्ति । यदि च 30 सर्वथैव न शक्नुवन्ति तदा 'जघन्येन' सर्वस्तोकतया यथाजातमुपधिं गृह्णन्ति । 'शेष' बालादिसत्कमुपकरणं तरुणाः साधवः 'विरिञ्चन्ति' विभज्य गृह्णन्ति ॥ १५५२ ॥ तत्र च यदि 'आभिग्रहिकाः' 'बाल-वृद्धादीनामुपधिरस्माभिर्वोढव्यः' इत्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहाः १ शवि भा० विना ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १५४८-५६] प्रथम उद्देशः । ४५७ सन्ति ततस्ते परस्परं विभज्य गृह्णन्ति । अथ न सन्त्याभिग्रहिकास्ततः को विधिः ? इत्याह आयरिओवहि बालाइयाण गिण्हंति संघयणजुत्ता। दो सोत्ति उण्णि संथारए य गहणेकपासेणं ॥१५५३ ॥ आचार्योपधिं बालादीनां चोपधिं गृह्णन्ति 'संहननयुक्ताः' अनाभिग्रहिका अपि सन्तो ये समर्थसाधवः । कथम् ? इत्याह-द्वौ सौत्रिकौ कल्पौ एक और्णिकः कल्पः संस्तारकः चशब्दादुत्तर-5 पट्टकश्च । एतेषामाचार्यादिसम्बन्धिनां “गहणेकपासेणं" ति सप्तम्यर्थे तृतीया 'एकस्मिन् पार्थे एकत्र स्कन्धे ग्रहणं कुर्वन्ति । द्वितीये तु पार्थे आत्मीयमुपधिं स्थापयन्ति ॥ १५५३ ॥ . अथ “खग्गूड" ( गा० १५४३ ) त्ति पदं विवृणोति रत्तिं न चेव कप्पइ, नीयदुवारे विराहणा दुविहा । पण्णवण बहुतर गुणा, अणिच्छ बीओ व उवही वा ॥ १५५४ ॥ 10 कश्चिद धर्मश्रद्धालुतया खग्गूडतया वा प्राह-रात्रौ न चैव कल्पते विहर्तुम् , यतः "नीयदुवारं तमसं, कोट्टगं परिवज्जए।" (दशवै० अ० ५ गा० २०) त्ति वचनाद् दिवाऽपि तावद् नीचद्वारे कोष्ठके प्राणिनां कण्टकादीनां चानुपलभ्यमानतया 'द्विविधा' संयमा-ऽऽत्मविराधना भवति इति कृत्वा प्रवेष्टुं न कल्पते, किं पुना रात्रौ विहत्तुं कल्पिप्यते ? । इत्थं ब्रुवाणस्य तस्य प्रज्ञापना कर्तव्या, यथा-वत्स ! दूरतमक्षेत्रस्य गन्तव्यतया बहुतरा गुणाः सबाल-वृद्धस्य गच्छस्य । साम्प्रतं रात्रौ गमने भवन्ति । इत्थमपि प्रज्ञापितो यदि नेच्छति ततोऽस्य 'द्वितीयः' सहायो दीयते उपधिर्वा तस्य जीर्ण उपहतश्च समर्प्यते', मा सारतरस्तदीयोपधिः स्तेनैर्गृह्येत मा वा रात्रौ सुप्तस्योपहन्येतेति ॥ १५५४ ॥ तदेवमुक्तविधिना ततः क्षेत्राद् निर्गत्य सूत्रोक्तनीत्या गच्छन्ति । ग्रामं च प्राप्तानां क्षेत्रप्रत्युपेक्षका यत्र पूर्व वसतिः प्रत्युपेक्षिता आसीत् तत्र प्रथमं वयं गत्वा वसतिं निरूप्य ततो गच्छं तत्र प्रवेशयन्ति । तत्र रात्रावुषित्वा प्रभाते नामान्तरं गच्छन्ति । एवं च-20 वचंतेहि य दिडो, गामो रमणिजभिक्ख-सज्झाओ। जं कालमणुनाओ, अणणुनाए भवे लहुओ ॥ १५५५ ॥ वजद्भिस्तैः साधुभिः कश्चिद् ग्रामो दृष्टः, कथम्भूतः ? रमणीयं-सुखप्राप्यत्वेन मनोज्ञभक्तपानलाभेन च भैक्षं अत एव रमणीयः खाध्यायश्च यत्र स रमणीयभैक्ष-खाध्यायः । एवंविधो ग्रामः 'यं' यावन्तं 'कालम्' एकदिवसलक्षणं स्थातव्यत्वेनानुज्ञातः तावन्तं कालं वसन्तो न प्राय-25 श्चित्तभाजो भवन्ति । 'अननुज्ञाते' द्वितीयादिपु दिवसेषु वसतां लघुको मासो भवेत् ॥१५५५॥ अथवा तवसोसिय उव्याया, खुल लुक्खाहारदुबला वा वि । एग दुग तिन्नि दिवसे, वयंति अप्पाइया वसिउं ॥ १५५६ ॥ तपसा-षष्ठा-ऽष्टमादिना ये शोषिता ये वा उद्वाताः-अतीवपरिश्रान्ताः ये च "खुल" ति 30 १°ल्पः तथा संत. ॥ २ तु स्कन्धे आ° भा० ॥ ३ ते, तदीयः पुनः शोभनो गृह्यते, मा स्तेनादयस्तमेकाकिनं दृष्ट्वा शोभनमुपधिं गृह्णीयुरिति ॥ १५५४ ॥ तदेव भा० ॥४°त। एष एका पक्षः॥ १५५५ ॥ अथवा भा० ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 ४५८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ कर्कशक्षेत्रादायाताः ये वा रूक्षाहारभोजित्वाद् दुर्बलाः, एते एकं वा द्वौ वा त्रीन् वा दिवसान् तस्मिन् ग्रामे 'उषित्वा' स्थित्वा 'आप्यायिताः' मनोज्ञाहारैः स्वस्थीभूताः अपरं ग्रामं व्रजन्ति ॥ १५५६ ॥ इदमेव भावयति पढमदिणे समणुण्णा, सोहीवुड्डी अकारणे परतो। तिनि व (वि) समगुन्नाया, तओ परेणं भवे सोही ।। १५५७ ।। प्रथमदिने तत्र ग्रामे वसतां समनुज्ञा, प्रथमो दिवसस्तत्रानुज्ञात इति भावः । ततः 'परतः' द्वितीयादिदिवसेष्वकारणे वसतां शोधिः-प्रायश्चित्तं तस्या वृद्धिर्भवति । सा चानन्तरगाथायां वक्ष्यते । अथ तपःशोषितत्वादिकमनन्तरगाथोक्तं कारणं वर्तते तत्र त्रीण्यपि दिनानि समनुज्ञातानि । 'ततः' दिवसत्रयात् परतः 'शोधिः' प्रायश्चित्तं भवेत् ॥ १५५७ ॥ तामेवाह सत्तरत्तं तवो होइ, तओ छेओ पहावई ।। छएणऽच्छिन्नपरियाए, तओ मूलं तओ दुर्ग ॥ १५५८ ॥ सप्तरात्रं यावत् तपो भवति । 'ततः' सप्तरात्रानन्तरं छेदः प्रधावति । छेदेनाप्यच्छिन्नपर्याये साधौ ततो मूलम् । ततः 'द्विकम्' अनवस्थाप्य-पाराश्चिकद्वयम् ॥ १५५८ ॥ इदमेव व्याख्यानयति मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहया य होति गुरुगा य । छम्मासा लहु गुरुगा, छेओ मूलं तह दुगं च ।। १५५९ ॥ इह प्रथमदिवसे वसन्तोऽनुज्ञाता एव, “पढमदिणे समणुन्न" (गा० १५५७ ) ति वचनात् । द्वितीये दिवसे यदि मनोज्ञाहारलम्पटतया तत्र ग्रामे वसन्ति तदा लघुको मासः, तृतीये गुरुकाः(कः), चतुर्थे चत्वारो लघवः, पञ्चमे चतुर्गुरवः, षष्ठे षण्मासा लघवः, सप्तमे षण्मासा 20 गुरवः, ततः सप्तरात्रानन्तरमष्टमे दिवसे च्छेदः, नवमे मूलम् , दशमेऽनवस्थाप्यम् , एकादशे पाराञ्चिकमिति । अथ तपःशोषितशरीरादयस्ते ततस्त्रीणि दिवसानि वसन्तः प्रायश्चित्तं नापद्यन्ते, “तिनि वि समणुनाय' (गा० १५५७ ) त्ति वचनात् । चतुर्थे दिवसे वसतां लघुमासः, पञ्चमे गुरुमासः, षष्ठे चतुर्लघवः, सप्तमे चतुर्गुरवः, अष्टमे षड्लघवः, नवमे षड्गुरवः, दशमे च्छेदः, एकादशे मूलम् , द्वादशेऽनवस्थाप्यम् , त्रयोदशे पाराश्चिकमिति विशेषचूर्ण्य25 भिप्रायः । बृहद्भाष्ये पुनरित्थमुक्तम् ___एक्वेक सत्तवारा, मासाईयं तवं तु दाऊण । छेओ वि सत्तसत्तओं, तिन्नि गमा तस्स पुव्वुत्ता ॥ 'पूर्व' पीठिकायां (गाथा ७०६ ) 'तस्य' च्छेदस्य ये त्रयो गमा उक्तास्तेऽत्रापि द्रष्टव्याः । तत्र यतः स्थानात् तपः प्रारब्धं तत आरभ्य च्छेदोऽपि दीयते, लघुमासादारभ्येत्यर्थः इत्येको 30 गमः । लघुपञ्चकादारभ्येति द्वितीयः । गुरुपञ्चकादारभ्येति तृतीयः ॥ १५५९ ॥ इदं सामान्यतः प्रायश्चित्तम् । अथ विशेषत आह __ अणणुण्णाए निकारणे व गुरुमाइणं चउण्हं पि । १°व पक्षद्वयं भा° भा० ॥ २'रणे एत्तो ता० ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १५५७-६४ ] प्रथम उद्देशः । ४५९ ____ गुरुगा लहुगा गुरुगो, लहुओ मासो य अच्छंते ॥ १५६० ॥ अननुज्ञाते दिवसत्रयादूर्द्ध 'निष्कारणे वा' कारणं विना प्रथमदिवसादूई गुर्वादीनां चतुर्णामपि तिष्ठतां यथाक्रमं गुरुका लघुका गुरुको लघुकश्च मासः । इयमत्र भावना-आचार्यस्वाननुज्ञाते निष्कारणे वा तिष्ठतश्चत्वारो गुरवः, वृषभस्य चत्वारो लघवः, अभिषेकस्य गुरुमासः, भिक्षोर्ल घुमासः ॥ १५६० ॥ आह किंनिमित्तमित्थं प्रायश्चित्तमापद्यते ? उच्यते नेहामु त्ति य दोसा, जे पुव्वं वणिया कइयमादी। ते चेव अणट्ठाए, अच्छते कारणे जयणा ॥ १५६१ ॥ 'नैष्यामः' नागमिष्याम इत्युक्ते ये पूर्व क्रियितादयः' वसतेर्माटकसमर्पण-विक्रयणादयो दोषा वर्णितास्ते चैव अर्थः-प्रयोजनं तदभावोऽनर्थ तेन प्रयोजनमन्तरेणेत्यर्थः, तत्र प्रामे तिष्ठतां दोषाः । किमुक्तं भवति ?-तत्र ग्रामे रसगौरवबहुलतया तेषां तिष्ठतां कालविलम्बलगनात् 10 चिकीर्षितमासकल्पे क्षेत्रे वसतिं शय्यातरो भाटकेन समर्पयेत् विक्रीणीत वा धान्यादिना वा प्रियेत बटुकादीनां वा दद्यात् ततस्त एवात्मविराधनादयो दोषाः । कारणे तु तिष्ठतां यतना, एकं द्वौ त्रीन् वा दिवसान स्थित्वा तथा गन्तव्यं यथा विलम्बमन्तरेण तत् क्षेत्रं प्राप्यत इति भावः । एवमेतेन विधिना वजन्तस्तावद् गता यावद् मूलक्षेत्रम् ॥ १५६१ ॥ ततः किम् ? इत्याह 15 भत्तट्ठिया व खमगा, पुचि पविसंतु ताव गीयत्था । परिपुच्छिय निद्दोसे, पविसंति गुरू गुणसमिद्धा ॥ १५६२ ॥ ते हि भक्तार्थिनः क्षपका वा सन्तस्तत्र क्षेत्रे प्रविशन्ति । 'भक्तार्थिनः' भोक्तुकामाः, 'क्षपकाः' उपोषिताः । तत्र च पूर्वं तावद् गीतार्थाः प्रविशन्तु । ततस्तैः गीतार्थैः 'परिपृच्छय' शम्यातरं पृष्ट्वा निर्दोषे उपाश्रये सुनिश्चिते सति प्रविशन्ति गुरवो गुणसमृद्धाः । साभिप्रायकमिदं विशे-१७ पणम् । ते हि भगवन्तो गुरवो गुणैः समृद्धाः, अतो यदि प्रथमं प्रविश्य सव्याघातां वसतिं मत्वा प्रतिनिवर्तन्ते ततो भवति महानवर्णवादः, यथा-एतेषामेतदपि ज्ञानं नास्तीति, ततः पश्चात् प्रविशन्ति ॥ १५६२ ॥ अथैनामेव गाथां विवरीषुराह बाहिरगामे वुच्छा, उजाणे ठाण वसहिपडिलेहा । [ओघ. भा. १०४] इहरा उ गहियभंडा, वसहीवापाय उड्डाहो ॥ १५६३ ॥ 25. प्रत्यासन्ने बाह्यग्रामे उषिताः प्रत्युषसि विवक्षितक्षेत्रस्योद्यानमागम्य तत्र स्थानं कुर्वन्ति । यैः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं ते वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ प्रेष्यन्ते । 'इतरथा' यदि वसतिमप्रत्युपेक्ष्य प्रविशन्ति ततो मासलघु । सा वसतिरन्येषां प्रदत्ता भवेत् ततः 'गृहीतभाण्डाः' गृहीतोपकरणा वसतिव्याघाते सत्यपरां वसतिमन्वेषयन्त इतस्ततः पर्यटन्ति, तथाभूतांश्च दृष्ट्वा उडाहो भवेत्, यथा-अहो ! निप्परिग्रहा निर्ग्रन्था इति ॥ १५६३ ॥ ततः किं विधेयम् ! इत्याह- 30 तम्हा पडिलेहिय साहियम्मि पुवगत असति सारविए । [ओघ.भा.१११] फड्डगफड्ड पवेसो, कहणा न य उद्दऽणायरिए ॥ १५६४ ॥ तस्मात् चिलिमिली-दण्डकपोञ्छने गृहीत्वा वसतिं प्रत्युपेक्ष्य यदि सा नान्येषां प्रदचा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुनाः ४६० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १: तदा “साहियम्मि" त्ति शय्यातरस्य 'आचार्या आगताः सन्ति' इति कथिते सति यदि 'पूर्वमताः' पूर्वस्थिताः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकास्तत्र सन्ति तदा तैः प्रागेव वसतिः प्रमार्जितैव । अथ न सन्ति ततः खयमेव "सारविए" ति सम्मार्जिते प्रतिश्रये द्वारे च चिलिमिली बड़ा धर्मकथिनमेकं मुक्त्वा व्यावृत्य गुरूणां निवेदयन्ति । ततो वृषभास्तथैवाक्षान् गृहीत्वा शकुनान् परीक्षमाणाः प्रविशन्ति । तैश्च प्रविष्टैः शेषाः साधवः स्पर्द्धकस्पर्द्धकैः प्रविशन्ति, न पुनः सर्वे एकत्र पिण्डीभूयेति भावः । यश्च तत्र धर्मकथिकः स्थित आस्ते स सागारिकस्य धर्मकथां करोति । स च "अणायरिय" ति आचार्य मुक्त्वा शेषसाधूनां ज्येष्ठार्याणामप्यभ्युत्थानं न करोति 'मा भूदु धर्मकथाया व्याघातः' इति ॥ १५६४ ॥ अथ वृषभाणां प्रविशतां शकुना-ऽपशकुनविभागनिरूपणायाह मइल कुचेले अभंगियल्लए साण खुज वडभे या। वसति. एयाइँ अप्पसत्थाइँ होति गामं अइंताणं ॥ १५६५ ॥ [ओघ. भा.१०५] प्रवेशे रत्तपड चरग तावस, रोगिय विगला य आउरा वेजा। ऽपशकुन. कासायवत्थ उद्धृलिया य कजं न साहिति ॥ १५६६ ॥ [ओघ. भा. १०६] नंदीतूरं पुण्णस्स दंसणं संख-पडहसदो य । भिंगार-छत्त-चामर-वाहण-जाणा पसत्थाई ॥ १५६७ ॥ [ओघ.भा.१०९] समणं संजयं दंतं, सुमणं मोयगा दधिं । मीणं घंटे पडागं च, सिद्धमत्थं वियागरे ॥ १५६८ ॥ [ओघ. भा. ११०] चतस्रोऽपि गाथाः प्राग्वत् (गाथाः १५४७-५०)। नवरं श्वा दक्षिणपार्थाद् वामपार्श्वगामी गृह्यते ॥ १५६५ ॥ १५६६ ॥ १५६७ ॥ १५६८ ॥ 20 इत्थं वृषभेषु प्रशस्तैः शकुनैः प्रविष्टेषु सूरयः क्षेत्रं प्रविश्य किं कुर्वन्ति ? इत्याहआचार्यस्य पविसंते आयरिए, सागरिओं होइ पुव्व दट्ठव्यो। वसति अद्दट्टण पविट्ठो, आवजइ मासियं लहुयं ॥ १५६९ ॥ प्रवेशन "पविसंते आयरिए" त्ति तृतीयार्थे सप्तमी, वसतिं प्रविशता आचार्येण सागारिकः पूर्वमेव विधिः द्रष्टव्यो भवति । अथ सागारिकमदृष्ट्वैव प्रविष्ट आचार्यः तत आपद्यते मासिकं लघुकम् 25॥ १५६९ ॥ अथाचार्यमायान्तं दृष्ट्वा धर्मकथी किं करोति ? इत्याह आयरियअणुट्ठाणे, ओभावण बाहिरा अदक्खिन्ना । [ओघ. भा. ११२] कहणं तु वंदणिज्जा, अणालवंते वि आलावो ॥ १५७० ॥ धर्मकथिना आचार्याणामभ्युत्थानं कर्त्तव्यम् । यदि न करोति तदा 'अपभावना' लाघवमाचार्याणां भवति-नूनं नामधारक एवायमाचार्यः, नास्य किमप्याज्ञैश्चर्य विद्यते । यद्वा लोक30 व्यवहारस्य बाह्या अमी, यतः पञ्चानामप्यङ्गुलीनां तावदेका ज्येष्ठा भवति । तथा 'अदाक्षिण्याः' 'गुरूनपि प्रति एतेषां दाक्षिण्यं नास्ति' इति शय्यातरश्चिन्तयति । “कहणं तु" त्ति शय्यातरस्य १°त्र वसन्ति मो० ॥ २ सर्वेऽपि एक डे० ॥ ३ प्रविष्यन्तः (प्रविशन्तः) सन्तः त.डे. कां०॥. . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १५६५-७५ ] प्रथम उद्देशः । धर्मकथिना कथनीयम्, यथा – वन्दनीया एते भगवन्त इति । ततो गुरुभिरनालपतोऽपि शय्यातरस्यालापः कर्त्तव्यः ॥ १५७० ॥ अथ न कुर्वन्त्यालपनमाचार्यास्तत एते दोषाः - थद्धा निरोवयारा, अग्गहणं लोकजत्त वोच्छेदो । [ आंघ. भा. ११३ ] . तम्हा खलु आलवणं, सयमेव य तत्थ धम्मका ॥। १५७१ ॥ स. शय्यातरश्चिन्तयेत् — अहो ! 'स्तब्धाः ' आत्माभिमानिन एते, वचसाऽपि नान्यस्य गौरवं 5 प्रयच्छन्ति । ‘निरुपकाराः कृतमप्युपकारं न बहुमन्यन्ते, कृतघ्न्ना इत्यर्थः । 'अग्रहणम्' अनादरो मां प्रत्यमीषाम् । लोकयात्रामप्येते न जानन्ति, लोके हि यो यस्याश्रयदानादिनोपकारी स ततः स्निग्धदृट्यवलोकन - मधुरसम्भाषणादिकां महतीं प्रतिपत्तिमर्हतीति । इत्थं कषायितस्तद्रव्यस्यान्यद्रव्याणां वा व्यवच्छेदं कुर्यात् । यत एवं तस्मात् खल्वालपनमाचार्येण कर्त्तव्यम्, स्वयमेव च तत्राचार्येण धर्मकथा कार्या ॥। १५७१ ॥ कथम् ? इत्याह ४६१ वसहिफलं धम्मकहा, कहणमलद्धीओं सीस वावारे । [ ओघ. भा. ११४] पच्छा अइति वसहिं, तत्थ य भुजो इमा मेरा ।। १५७२ ॥ धर्मकथां कुर्वन्तः सूरयो वसतिफलं कथयन्ति । यथारयणगिरिसिहरसरिसे, जंबूगयपवरवेइ आकलिए । मुत्ताजालगपयरग-खिंखिणिवरसोभितविडंगे || वेरुलिय-वयर-विद्दुमखंभसहस्सोवसोभिअमुदारे । साहूण वसहिदाणा, लभती एयारिसे भवणे || ( कल्पवृहद्भाष्ये ) इत्यादि । अथाचार्याणां धर्मकथने लब्धिर्न भवति तदा शिष्यं धर्मकथालब्धिसम्पन्नं व्यापारयेयुः । ततः पश्चादाचार्याः प्रविशन्ति वसतिम् । तत्र च प्रविष्टानां 'भूयः' पुनरियं 'मर्यादा' सामाचारी ॥। १५७२ ॥ तामेवाभिधित्सुराह— मजाया-ठवणाणं, पवत्तगा तत्थ होंति आयरिया | जो उ अमजाइलो, आवज मासियं लहुयं ।। १५७३ ॥ मर्यादा च- सामाचारी स्थापना च दानादिकुलानां तयोः प्रवर्त्तकास्तत्र क्षेत्रे आचार्या भवन्ति । यश्च साधुः 'अमर्यादावान् ' मर्यादामाचार्यैः स्थापितां न पालयति स आपद्यते मासिकं लघुकम् ॥ १५७३ ॥ मर्यादामेवाह 1 10 १ 'यश्च' आचार्यः 'अमर्यादावान्' मर्यादाम् उपलक्षणत्वात् स्थापनां च न प्रवर्त्तयति स आपद्यते मासिकं लघुकम् ॥ १५७३ ॥ अथ मर्यादां तावदाह भा० ॥ 40 15 20 पडिलेहण संथारग, आयरिए तिनि सेस एक्केकं । विंटियज्वखवणया, पविसइ ताहे य धम्मकही ॥१५७४ ॥ [ ओघ.नि.भा.गा. ११५-११६] उच्चारे पासवणे, लाउअनिल्लेवणे अ अच्छणए । करणं तु अणुनाए, अणणुन्नाए भने लहुओ ।। १५७५ ।। संस्तारकभूमीनां 'प्रत्युपेक्षणाम्' अवलोकनां कुर्वते । तत्राचार्यस्य तिस्रः संस्तारकभूमयो 33 निरूपणीयाः, तद्यथा —— एका निवाता अपरा प्रवाता तृतीया निवातप्रवाता। शेषाणां साधूनामे मर्यादास्थापनयो. व्यवस्था 25, मर्यादा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना ४६२ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ hari संस्तारकभूमिं यथारलाधिकतया अर्पयन्ति न यथाकथञ्चिदिति । तैश्च तदानीमात्मीयात्मीयविण्टिकानामुत्क्षेपणं कर्त्तव्यम्, येन तासूत्क्षिप्तासु भूमिभागः प्रतिनियतपरिमाणच्छेदेनावगम्यते । तदा च धर्मकथी संस्तारकग्रहणार्थं धर्मकथामुपसंहृत्य प्रतिश्रयाभ्यन्तरे प्रविशति । तथा क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः शय्यातरानुज्ञातां भुवं ग्लानाद्यर्थं दर्शयन्ति । यथा - इयति प्रदेशे उच्चारपरिष्ठापन - 5 मनुज्ञातम् नेत ऊर्द्धम्, एवं "पासवणे" त्ति प्रश्रवणभूमिं “लाउए" ति अलाबूनि - तुम्बकानि तेषां कल्पकरणप्रायोग्यं प्रदेशं 'निर्लेपनं' पुतप्रक्षालनं तस्य स्थानं "अच्छणए" त्ति यत्र स्वाध्यायं कुर्वद्भिरास्यते, एतानि तथैव दर्शयन्ति । ततो य एव शय्यातरेणानुज्ञातोऽवकाशस्तत्रैवोच्चारादीनां करणं भगवद्भिरादिष्टम् । अननुज्ञाते त्ववकाशे कुर्वतो मासलघु, तद्द्रव्या-ऽन्यद्रव्यव्यवच्छेदादयश्च दोषाः । १५७४ ।। १५७५ ।। उक्का मर्यादा । अथ स्थापनामभिधित्सुः प्रस्तावनामाह-भत्तट्ठिया व खमगा, अमंगलं चोयणा जिणाहरणं । 10 जइ खमगा वंदंता, दाइंतियरे विहिं वोच्छं ।। १५७६ ।। [ ओघ. भा. ११७ ] ते हि साधवः क्षेत्रं प्रविशन्तो भक्तार्थिनो वा भवेयुः क्षपका वा । यदि क्षपकाः ततो नोदकस्य 'नोदना ' प्रेरणा, यथा- - प्रथममेव तावदमङ्गलमिदं यदुपवासं प्रत्याख्याय प्रविश्यते । सूरिराह--- ' जिनाहरणं' जिनानामुदाहरणमत्र मन्तव्यम् । ते हि भगवन्तो निष्क्रमणसमये प्रायश्च16 तुर्थादि तपः कृत्वा निष्क्रामन्ति, न च तत् तेषाममङ्गलम्, एवमत्रापि भावनीयम् । ततश्च यदि ते क्षपकास्तदा चैत्यानि वन्दमाना एव दर्शयन्ति स्थापनाकुलानि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः । अथ भक्ताथिनस्ते ततः " इयरे" त्ति इतरेषु भक्तार्थिषु यो विधिस्तं वक्ष्ये || १५७६ ॥ तमेवाहसब्वे दट्टु उग्गाहिएण ओयरिय भय समुप्पजे । तुम्हेक दोहि तिहिं वा, उग्गाहिय चेइए वंदे ॥१५७७ ॥ [ ओघ. भा. ११८ ] चैत्यवन्दनार्थं गन्तुकामा यदि सर्वेऽपि पात्रकमुद्राहयेयुः ततः सर्वान् साधून् उाहितेन पात्रकेण दृष्ट्वा 'अहो ! औदरिका एते' इति श्रावकश्चिन्तयति । भयं च तस्य समुत्पद्यते, यथाकथमेतावतां मयैकेन दास्यते ? इति । तस्मादेकेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा साधुभिरुग्रहितपात्रकैः शेषैः पुनरनुद्राहितपात्रैः सहिताः सूरयश्चैत्यानि वन्दन्ति ॥ १५७७ ॥ अथ यद्येकोsपि साधुः पात्रकं नोद्राहयति ततः को दोषः ? इत्याहसागोऽग्गाहियम्मि ठवणाइया भवे दोमा । घरचेइय आयरिए, कयवयगमणं च गहणं च ॥१५७८॥ [ओघ. भा. ११९] अथानुग्राहिते पात्रके प्रयान्ति ततश्चैत्यानि वन्दमानान् दृष्ट्वा कोऽपि धर्मश्रद्धावान् भक्तपानेन निमन्त्रयेत् तदा यदि भाजनं नास्तीति कृत्वा न गृह्यते ततः श्रद्धाभङ्गस्तस्योपजायते । अथ व 'पात्रकं गृहीत्वा यावद् वयमागच्छामस्तावदेवमेव तिष्ठतु' ततः स्थापनादयो दोषा भवेयुः । 30 तस्मादुाहणीयं पात्रकम् । जिनगृहेषु च वृन्देन सर्वेऽपि चैत्यानि वन्दित्वा गृहचैत्यवन्दनार्थमाचार्येण कतिपयैः साधुभिरुग्राहितपात्रकैः समं गमनं कर्त्तव्यम् । तत्र यदि श्रावकः प्राशुकेन भक्त-पानेन निमन्त्रयेत् ततो ग्रहणमपि तस्य कर्त्तव्यम् ॥ १५७८ ॥ १ प्रायेणोपवासं कृत्वैव नि० भा० ॥ २ दन्ते भा० ॥ ३ सर्वैरपि कां० ॥ 20 25 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १५७६-८३ ] प्रथम उद्देशः । ४६३ आह कानि पुनः कुलानि चैत्यवन्दनं विदधानास्ते दर्शयन्ति ? उच्यते दाणे अभिगम सड्ढे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । (निशीय १६३०-६४] मामाए अचियत्ते, कुलाइँ दाईति गीयत्था ॥ १५७९ ॥ [ओघ. भा. १२१] यथाभद्रको दानरुचिः दानश्राद्धः । सम्यग्दृष्टिहीताणुव्रतोऽभिगमश्राद्धः । “सम्मत्ते" त्ति अविरतसम्यग्दृष्टिः । “मिच्छत्ते' त्ति आभिग्रहिकमिथ्यादृष्टिः। 'मामाको नाम' ईर्ष्यालुतया हे। श्रमण ! मा मदीयं गृहमायासीः' इति ब्रवीति । यस्त्वीर्ष्यालुतयैव साधुषु गृहं प्रविशत्सु महदप्रीतिकं खचेतसि करोति वाचा न किमपि ब्रूते एष देशीभाषया अचियत्तः । एतेषां कुलानि दर्शयन्ति 'गीतार्थाः' क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः ॥ १५७९ ॥ दर्शयित्वा च किं कुर्वन्ति ? इत्याह दाणे अभिगम सड्ढे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते, कुलाइँ ठाविति गीयत्था ॥ १५८०॥ 10 एतानि कुलानि स्थापयन्ति गीतार्थाः, 'अमीषु प्रवेष्टव्यम् , अमीषु तु न' इति व्यवस्थापयन्तीत्यर्थः ॥ १५८० ॥ अथ न स्थापयन्ति तदा किम् ? इत्याह दाणे अभिगम सड्डे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते, कुलाइँ अठविंति चउगुरुगा ॥१५८१॥ एतानि कुलान्यस्थापयतश्चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तम् ॥ १५८१ ॥ यत एवमतः- 15 ____ कयउस्सग्गाऽऽमंतण, अपुच्छणे अकहिएगयर दोसा । [आघ. भा. १२२] ठवणकुलाण य ठवणं, पविसइ गीयत्थसंघाडो॥१५८२ ॥ . 'उत्सर्गे' चैत्यवन्दनं विधायागतानामैर्यापथिकीकायोत्सर्गे कृते यद्वा “उस्सग्ग" ति आवश्यके कृते सर्वेऽपि साधवो गीतार्थैरामन्त्रणीयाः-आर्याः ! आगच्छत, क्षमाश्रमणाः स्थापनां प्रवर्तयिष्यन्ति । इत्थमुक्ते सर्वेऽप्यागम्य गुरुपदकमलमभिवन्द्य रचिताञ्जलयस्तिष्ठन्ति । तत 20 आचार्यैः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रष्टव्याः-कथयत कानि कुलानि प्रवेष्टव्यानि ? कानि वा न ? इति। ततस्तैरपि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैर्विधिवत् कथनीयम् । यद्याचार्याः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान् न पृच्छन्ति, ते वा पृष्टाः सन्तो न कथयन्ति, ततस्तेषु प्रविशतां ये संयमा-ऽऽत्मविराधनादयो दोषास्तान् 'एकतरे' सूरयः क्षेत्रप्रत्युपेक्षका वा प्रामुवन्ति । ततः कथिते सति यान्यभिगृहीतमिथ्यात्व-मामाका-ऽचियत्तानि तानि सर्वथैव स्थाप्यानि, यथा—नैतेषु केनापि प्रवेष्टव्यम् । यानि तु दानश्राद्धादीनि 25 स्थापनाकुलानि तेषामपि स्थापनं कर्त्तव्यम् । कथम् ? इत्याह-प्रविशति एक एव गीतार्थसवाटको गुर्वादिवैयावृत्त्यकरस्तेषु ॥ १५८२ ॥ इदमेव भावयति गच्छम्मि एस कप्पो, वासावासे तहेव उडुबद्धे । [ओघ.भा. १२३) गाम-नगर-निगमेसुं, अइसेसी ठावए सडी ॥ १५८३ ॥ वर्षावासे तथैव ऋतुबद्धे ग्राम-नकर-निगमेषु स्थितानां गच्छे एष कल्पः । कः ? इत्याह-30 अतिशेषाणि-अतिशायीनि स्निग्ध-मधुरद्रव्याणि प्राप्यन्ते येषु तानि कुलान्यतिशेषीणि “सड्डि" त्ति दानश्रद्धावन्ति एवंविधानि कुलानि स्थापयेत् । एकं गीतार्थसङ्घाटकं मुक्त्वा शेषसङ्घाटकान् न तत्र प्रवेशं कारयेत् ॥ १५८३ ॥ आह Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ रणम् सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ किं कारणं चमढणा, दव्वखओ उग्गमो वि य न सुज्झे । [आघ.नि.२३८] गच्छम्मि नियय कजं, आयरिय-गिलाण-पाहुणए ॥ १५८४ ॥ 'किं कारणं' को हेतुः येन स्थापनाकुलेप्वेक एव सङ्घाटकः प्रविशति ? । सूरिराह-"चमढण" ति अन्यैरन्यैश्च सङ्घाटकैः प्रविशद्भिस्तानि कुलान्युद्वेगं प्राप्यन्ते । ततश्च द्रव्याणां-स्निग्ध5 मधुराणां क्षयो भवति, उद्गमोऽपि च न शुध्यति । गच्छे च 'नियतं' निश्चितं प्रायोग्यद्रव्यैः कार्यं भवति । किमर्थम् ? इत्याह-आचार्य-ग्लान-प्राघूर्णकानां हेतोरिति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ १५८४ ॥ अथ भाष्यकार एनामेव विवृणोति पुबि पि वीरसुणिया, भणिया भणिया पहावए तुरियं । - सा चमढणाएँ सिग्गा, निच्छइ दटुं पि गंतुं जे ॥१५८५॥ [ओघ. भा. १२४] वीरशुनि- 10 जहा काइ वीरसुणिया केणइ पारद्धिएण तित्तिराईणं गहणे छिछिक्कारिया समाणी तित्तिराकोदाह- ईणि गिण्हइ । पच्छा सो तेहिं सावएण विणा वि काडं हंतूण छिछिक्कारेइ । सा वीरसुणिया इतो तओ पहावइ जाव न किंचि पेच्छइ । ताहे सा वेयारिया समाणी जइ सो सावयं दटुं पच्छा छिछिक्कारेइ तहा वि पयं पि न इच्छए गंतुं ॥ अथ गाथाक्षरयोजना-यः शुनकद्वितीयः शस्त्राद्यपेक्षारहितो मृगयां करोति स वीर 15 उच्यते, तस्य शुनिका यथा पूर्वमदृष्टेऽपि श्वापदे 'भणिता भणिता' छीत्कृता छीत्कृता सती त्वरितमितस्ततः प्रधावति । ततः सा 'चमढणया' निरर्थकमुद्वेजनया "सिग्गा" श्रान्ता सती सन्तमपि श्वापदं दृष्ट्वा पदमपि गन्तुं “जे” इति पादपूरणे नेच्छति ॥ १५८५ ॥ एष दृष्टान्तः । अर्थोपनयस्त्वेवम् एवं सड्ढकुलाई, चमढिजंताइँ अन्नमन्नेहिं । [आघ. भा. १२५] नेच्छंति किंचि दाउं, संतं पि तहिं गिलाणस्स ॥ १५८६ ॥ 'एवम्' अमुनैव प्रकारेण श्राद्धकुलानि "चमढिजंताई" ति उद्वेज्यमानानि 'अन्यान्यैः' क्षुल्लक-स्थविर-क्षपकादिभिः । यद्वा "अन्नमन्नेहिं" ति अन्यान्यैः-परिफल्गुप्रायैः कारणैः । यथा एकः प्राह-ग्लानस्य शीर्ष दुष्यति शर्करां प्रयच्छ; अपरः प्राह-ममोदरं दुष्यति दनः करम्बेण प्रयोजनम् । तदपरः प्राह–प्राघूर्णक आयातोऽस्ति घृतादिकं देहि; अन्यः 25 प्राह-अहमाचार्यस्य हेतोरायातोऽस्मि दुग्धं सशर्करं प्रतिलाभयेत्यादि । ततस्तानि ब्रुवीरन्-यूयं सर्व एव ग्लाना अतो वयं कियतां प्रयच्छामः ? को वा जानाति यूयमाचार्यादीनां हेतोहीथ ? आहोश्चिदात्मार्थम् ? इति । एवमुद्वेज्यमानानि नेच्छन्ति 'सदापि' विद्यमानमपि घृतादिकं 'किञ्चित्' स्तोकमात्रमपि ग्लानस्य उपलक्षणत्वादाचार्य-प्राघूर्णकादेरप्यर्थाय दातुम् । ततश्च यत् ते ग्लानादयः परिताप्यन्ते तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् ।। १५८६ ॥ 30 गतं चमढणाद्वारम् । अथ द्रव्यक्षयोद्गमाशुद्धिद्वारद्वयमाह अन्नो चमढण दोसो, दव्वखओ उग्गमो वि य न सुज्झे । खीणे दुल्लभदव्वे, नत्थि गिलाणस्स पाउग्गं ॥ १५८७ ।। 'अन्यः' अपरश्चमढनायां दोषः, कः ? इत्याह-द्रव्यस्य-अवगाहिम-घृतादेः कारणमन्त Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । ४६५ भाष्यगाथाः १५८४-९० ] रेणापि दिने दिने गृह्यमाणस्य क्षयो भवति । ततश्च यद्यभिनवमवगाहिमादि द्रव्यं साधूनामर्थाय करोति क्रीणाति वा तत उद्गमोऽपि च न शुद्ध्यति, सदोषत्वात् तद् उत्पादितमपि न कल्पत इति भावः । ततः 'क्षीणे' व्यवच्छिन्ने दुर्लभद्रव्ये प्रयोजने उत्पन्नेऽपि नास्ति ग्लानस्य प्रायोग्यम् । ततः परिताप-महादुःखादिका ग्लानारोपणा द्रष्टव्या, भद्रक - प्रान्तकृताश्च दोषा भवन्ति ॥ १५८७ ॥ ताने वाह 5 दक्खण पंतो, इत्थ घाइज कीस ते दिनं । [ ओघ. भा. १२६ ] भो हट्ठपट्टो, करेज अन्नं पि साहूणं ।। १५८८ ॥ इह कस्यापि प्रान्तस्य भार्या श्राद्धिका ततस्तयाऽन्यान्यसाधूनां याचमानानां प्रायोग्यद्रव्यं सर्वमपि प्रदत्तम् । ततस्तस्याः पतिर्भोजनार्थमुपविष्टः सन् ब्रूते - कूरं मे परिवेषय । सा प्राहसाधूनां प्रदत्तः । स प्रतिब्रूयात् -- पूपलिकास्तर्हि परिवेषय । सा प्राह – ता अपि प्रदत्ताः । एवं 10 सूप-दुग्ध-दधिप्रभृतीन्यपि साधूनां वितीर्णानीति । इत्थं द्रव्यक्षयेण स प्रान्तः कुपितः सैन् 'अरे रे कुलपांसने ! किं ते मुण्डास्तवोपपतयो भवन्ति येनैवं मदीयं गृहसर्वस्वं दत्त्वा तान् पोषयसि ?' इत्यभिधाय स्वां स्त्रियं 'घातयेत्' कुट्टयेत्, 'कस्मात् ' किमर्थं त्वया तेभ्यः सर्वमपि दत्तम् ? इति कृत्वा । अत्र पाठान्तरम् - " दक्खएण लुद्धो" त्ति 'लुब्धः ' लोभाभिभूतः, शेषं प्राग्वत् । यस्तु भद्रको गृहपतिः स श्राद्धिकया सर्वस्मिन्नपि दत्ते तथैव च कथिते हृष्टप्रहृष्टो भवति । हृष्टो 15 नाम - मनसि परितोषवान्, प्रहृष्टस्तु - प्रहसितवदनः समुद्भूतरोमहर्षो हर्षाश्रूणि विमुञ्चमान इति । ततश्च कुर्याद् 'अन्यदपि ' अवगाहिमादिकं साधूनामर्थाय कारयेदित्यर्थः । एतद्दोषपरिहरणार्थमेकं गीतार्थसङ्घाटकं मुक्त्वा शेषाः स्थापनाकुलानि न निर्विशेयुः । प्राचूर्णके चायाते सति प्राघुण्यं विधेयम्, तच्च स्वभावानुमतैरेव भक्त - पानैः ॥ १५८८ ॥ तथा चात्र दृष्टान्तमाहजड्डे महिसे चारी, आसे गोणे य जे य जावसिया । [ ओघ नि. २३९ ] एएसिं पडिवक्खे, चत्तारि उ संजया होंति ।। १५८९ ।। 'जड्डु : ' हस्ती, महिषाश्वौ प्रतीतौ, 'गोणः' बलीवर्दः, एतेषां ये 'यावसिकाः' यवसः - तत्प्रायोग्यमुद्ग- माषादिरूप आहारस्तेन तद्वहनेन चरन्तीति यावसिकास्ते अनुकूलां चारीमानयन्ति । एतेषां जड्डादीनां 'प्रतिपक्षे' प्रतिरूपः पक्षः प्रतिपक्षः - सदृशपक्ष इत्यर्थः, तत्र चत्वारः प्राघूर्णकसंयता भवन्ति । तद्यथा — जड्डुसमानो महिषसमानोऽश्वसमानो गोसमानश्चेति ॥ १५८९ ॥ 25 अथामीषामेव व्याख्यानमाह 20 चतुर्धा जड्डो जं वा तं वा, सुकुमालं महिसओ महुरमासो । [ ओघ. भा. १३१ ] गोणो सुगंधिदव्वं, इच्छइ एमेव साहू वि ।। १५९० ।। 'जड्डुः' हस्ती. सः 'यद्वा तद्वा' कर्कश - कटुकादिकमप्याहारयति । वस्तु महिषः सः 'सुकुमारं ' वंशकरीलादिकमभिलषति । अधः 'मधुरं ' मुद्ग - माषादिकमभिकाङ्क्षति । 'गौः' बलीवर्दः सः 'सुग- 33 न्धिद्रव्यम्' अर्जुनक-ग्रन्थिपर्णादिकमिच्छति । एवमेव साधवश्चत्वारः चतुर्विधं भक्तमिच्छन्ति १ च तस्य द्रव्यस्य न भा० ॥ २ नां रिक्त रिक्तप्रयोजनेषु याच भा० ॥ ३ सन् स्वां स्त्रियं त० डे० कां ॥ ४ 'हर्ष इति । तत त०डे० कां० ॥ प्राघूर्णक साधवः Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनाकुलेषु सान्तरमवश्यं गमनम् सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते मूत्रम् १ ___ तत्थ पढमो जड्डसमाणो पाहुणगसाहू भणइ-मम जं दोसीणं वा उण्हगं वा कंजियं वा लब्भइ तं चेव आणेहि, नवरं उदरपूरं । एवं भणिए किं दोसीणं चेव आणेयत्वं ? न, विसेसेण सोहणं तस्स आणेयवं । बिइओ पाहुणयसाहू भणइ---परं में नेहरहिया वि पूवलिया सुकुमाला होउ । तइओ भणइ-महुरं नवरिं मे होउ । चउत्थो भणइ-अन्नं वा पाणं वा निप्पडिगंधं 5मे आणेह । एवं ताणं भणंताणं जं जोग्गं तं सड्ढयकुलेहिंतो विसेसियं आणिज्जइ । तं च ठविएसु चेव सड्डयकुलेसु लब्भइ नाठविएसु । पाहुन्ने य कीरमाणे महंतो निज्जरालाभो साहुकारो य पाविज्जइ । अतो कायचं तं जहाविसहं साहूहिं ति ॥ १५९० ॥ __ आह यद्येवं तर्हि श्राद्धकुलेषु मा कोऽपि प्रवेश कार्षीत् ? यदा प्राघूर्णकादिकार्य समुत्पन्नं भविष्यति तदा प्रवेशं करिष्यामः, ततश्च बहुतरमुत्कृष्टं च लप्स्यामहे । सूरिराह-(ग्रन्था10 अम्-७५००) एवं च पुणो ठविए, अप्पविसंते इमे भवे दोसा । [ओघ.भा. १३२] वीसरण संजयाणं, विसुक्कगोणीइ आरामे ॥ १५९१ ।। ___ एवं च तावत् चमढनायां दोषा अभिहिताः । पुनःशब्दो विशेषणार्थः । यदि पुनः स्थापना कुलानि सर्वथैव स्थाप्यन्ते ततः “ठविए" त्ति सर्वथैव स्थापितेषु तेप्वप्रविशतां साधूनामेते 15 दोषा भवेयुः । तद्यथा-विस्मरणं संयतानां भवति, भिक्षा दातव्येति नियमाभावात् । अत्र च विशुष्कया गवा आरामेण च दृष्टान्तः जहा—एगस्स वोदधिज्जाइयस्स गोणी घेणू । सा य पओस-पच्चूसेसु कुलवं कुलवं दुद्धस्स गोदृष्टान्तः पयच्छइ । तस्स य दसहिं दिवसेहिं संखडी भविस्सइ । ताहे सो चिंतेइ.-एमा गावी ताव बहुयं खीरं देइ, तया य दुल्लहं खीरं भविस्सइ, मम य तया अवस्सं कजं, तो इयाणिं न दुहामि, 20 तया चेव एक्सराए दुहिस्सामि, वरं मे दस कुलया होतया । पत्ते य संखडिदिवसे महंतं कुंडयं गहाय गोणीदुहणट्ठयाए ढुक्को जाव विसुक्का, चुलुओ वि नत्थि दुद्धम्स । एवं संजया वि अणल्लियंता तेसिं सड्ढाणं पम्हुट्ठा न चेव जाणंति-किं संजया अस्थि ? नवा ? । ते वि संजया जम्मि दिवसे कजं तम्मि गया जाव न संति ताणि दबाणि । तम्हा दोण्ह वा तिण्ह वा दिव साणं अवस्सं गंतवं ॥ 25 अहवा आरामदिटुंतो, जहा---एगो आरामिओ। सो चिंतेइ-मम आरामे पुप्फाणं आढयं दिणे दिणे उठेइ, इंदमहदिवसे अ बहू जणो पुप्फाण कायओ भविस्सइ तो मा दिणे दिणे पुप्फाइं उच्चेमि, तद्दिवसं वरं बहूणि पुप्फाणि होंताणि ति । पत्ते य इंदमहदिवसे सो पच्छियाओ घेत्तुं गओ जाव सो आरामो उप्फुल्लो, एगमवि पुप्फ नस्थि । एवं ते जद्दिवसं कज्जमुप्पन्नं तद्दिवसं पविट्ठा ठवणाकुलेसु । ताहे सड्डा भणंति-तुब्भे इहं चिय अच्छंता न मुणह वेलं, 30 अम्हं पए वत्ता वेला । अप्पविसंतेसु य न कोइ दंसणं पडिवज्जइ, न वा अणुबए, गिलाणपाउग्गं वा नत्थि ॥ यतश्चैवमतः प्रवेष्टव्यं स्थापनाकुलेषु गीतार्थसङ्घाटकेन ॥ १५९१ ॥ . आरामदृष्टान्तः Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १५९१-९५] प्रथम उद्देशः । स च कीदृग्दोषेविरहितः ? इत्यत आह अलसं घसिरं मुविरं, खमगं कोह-माण-माय-लोहिल्लं । [ओघ.भा. १३३] स्थापनाकोऊहल पडिबद्धं, वेयावच्चं न कारिजा ॥ १५९२ ॥ कुलेषु प्रवेशा'अलस' निरुद्यमम् , 'ग्रसितारं' बहुभक्षिणम् , 'स्वप्तारं' स्वपनशीलम् , "शीलाद्यर्थस्येरः" नर्हास्तेषां (सिद्ध०८-२-१४५) इति प्राकृतलक्षणबलादुभयत्रापि तृन्प्रत्ययस्यरादेशः, क्षपकं प्रती-5 तत्र गमने प्रेषणे वा तम् , “कोह-माण-माय-लोहिलं" ति क्रोधवन्तं मानवन्तं मायावन्तं लोभवन्तम् , सर्वत्रापि प्रायश्चित्तं भूम्नि मतुप्रत्ययः, यथा गोमानिति, "कोऊहल" ति मत्वर्थीयप्रत्ययलोपात् कुतूहलिनम् , 'प्रतिबद्धं' दोषाश्च सूत्रार्थग्रहणसक्तम् । एतान् वैयावृत्यमाचार्यों न कारयेदिति समासार्थः ॥ १५९२ ॥ अथैनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतः प्रायश्चित्तमाह तिसु लहुओ तिसु लहुया, गुरुओ गुरुया य लहुग लहुगो य। 10 पेसग-करिंतगाणं, आणाइ विराहणा चेव ॥ १५९३ ॥ अलसादीन् य आचार्यः स्ववैयावृत्त्यार्थ प्रेषयति-व्यापारयतीत्यर्थः, यश्चैभिर्दोषैर्दुष्टः स्वयं वैयावृत्त्यं करोति, तयोः प्रेषक-कुर्वतोः प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-'त्रिषु' अलस-बहाशि-निद्रालुषु लघुको मासः । 'त्रिपु' क्षपक-कोपना-अभिमानिषु चत्वारो लघवः । मायावति गुरुको मासः । लोभवति चत्वारो गुरुकाः । कौतूहलवति चत्वारो लघुकाः । सूत्रार्थप्रतिबद्धे लघुमासः । आज्ञा-15 दयश्च दोषा विराधना चात्म-संयमविषया ॥१५९३॥ तत्रालस-स्वपनशीलयोनियोजने दोषानाह ता अच्छइ जा फिडिओ, सइकालो अलस-सोविरे दोसा । गुरुमाई तेण विणा, विराहणुस्सक-ठवणादी ॥१५९४ ॥ अलसः स्वपनशीलश्च तावदुपविष्टः शयानो वा आस्ते यावत् सन्-विद्यमानः कालः सत्कालो भिक्षायाः 'स्फिटितः' अतिक्रान्तो भवति । यद्वा तावलस-निद्रालू चिन्तयेताम्-20 'समापतितं तावदिदमस्माकमवश्यकरणीयं कर्म, अत एतदपि निर्वाहितं भवतु' इति कृत्वा अप्राप्ते एव भिक्षाकाले पर्यटेताम् , ततो यद्वा तद्वा भक्त-पानं लभेते, न प्रायोग्यम् , 'तेन' प्रायोग्येण विना या 'गुर्वादीनाम्' आचार्य-बाल-वृद्ध-ग्लानादीनां विराधना तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । यद्वाऽतिक्रान्तायां वेलायामायान्तं वैयावृत्त्यकरं मत्वा प्रायोग्यस्योत्प्वप्कणं श्राद्धकानि कुर्युः, उत्सूरे तद् विदध्युरिति भावः । यद्वा तानि तदुपस्कृतं प्रायोग्यभक्तं स्थापयेयुः ततः स्थापना- 25 दोषः । आदिशब्दात् 'साधूनामसंविभक्तं भक्तं कथं स्वमुखे प्रक्षिप्यते ?' इति बुद्ध्या तेषामभुजानानामन्तरायमित्यादयो दोषाः ॥ १५९४ ॥ अप्पत्ते व अलंभो, हाणी ओसकणा य अइभद्दे । अणहिंडंतो य चिरं, न लहइ जं किंचि वाऽऽणेइ ॥ १५९५ ॥ १°तो नियोक्तव्यः ?-अलसं भा० । “केरिसो पुण तेसु सडकुलेसु निजुज्जह ? तत्र सर्वथैव ताव एवंविधो नियोक्तव्यः" इति चर्णा विशेषचौँ च ॥ २०पि अतिशायने मतप्रत्ययः, यथा रूपवती कन्येति, भा० ॥ ३ अथवा ता भा० ॥ ४ तदा च पर्यटन्नसौ यद्वा तद्वा भक्तपानं लभते त० डे० कां० ॥ ५ °म् । अतिक्रान्तायां तु वेला भा० ॥ ६ ग्यभक्त-पानसो भा० ॥ अलसः निद्रालुश्च Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिता ४६८ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ अथ 'यदेतत् कर्मास्माकं मध्ये समापतितं तद् निर्वाहितं भवतु' इति कृत्वा अप्राप्ते काले भिक्षामटति तदा ‘अलाभ:' न किमपि प्राप्यते इति भावः । ततश्चाचार्यादीनां 'हानि' असं - स्तरणं भवति । यस्तु 'अतिभद्रकः' अतीवधर्मश्रद्धावान् गृहपतिः सः 'अवष्वष्कणं' विवक्षितकालादर्वाग् भक्तनिष्पादनं कुर्यात् । यद्वा असावलसत्वाद् निद्रालुत्वाद्वा चिरमहिण्डमानः सन् 5 न किमपि लभते, 'यत्किञ्चिद्वा' पर्युषितं वल चणकादिकं वा आनयति, तेन भुक्तेनाऽपश्यतया गुर्वादीनां ग्लानत्वं भवति, ततः परिताप - महादुःखादिका ग्लानारोपणा ॥ १५९५ ॥ अथ "घसिर" त्ति पदं भावयति — गिहामि अपणो ता, पजत्तं तो गुरूण घिच्छामि । घेत्तुं च तेसि घिच्छं, सीयल - ओस क - ओमाई ।। १५९६ ॥ 10 यो महोदरः स वैयावृत्त्ये नियुक्तो भिक्षामटन् चिन्तयति – गृह्णामि तावदात्मनो योग्यं पर्याप्तं ततो गुरूणां हेतोर्ग्रहीष्यामि । यद्वा तेषां गुरूणां योग्यं गृहीत्वा तत आत्मनोऽर्थाय ग्रहीष्ये । इत्थं विचिन्त्य यदि प्रथमं गुरूणां योग्यं गृहीत्वा पश्चादात्मार्थं गृह्णाति ततो यावता कालेनात्मनः पर्याप्तं पूर्यते तावता तत् पूर्वं गृहीतं शीतलं स्यात्, तच्च गुरूणामकारकम्, ततः सैव ग्लानारोपणा । अथवा स्थापनाकुलेषु प्रथमतः प्रवेशे तत्राद्यापि वेलाया अप्राप्तत्वादवष्वष्क15 णादयो दोषाः । अथ प्रथममात्महेतोर्गृह्णाति ततो यावता तत् पर्याप्तं भवति तावता स्थापनाकुलेषु वेलातिक्रमो भवेत् । अथ वेलातिक्रमभयाद् देशकाल एव तेषु प्रविशति तत आत्मनोऽवमं भवेत्, उदरपूरणं न भवेदिति भावः । ततश्चावमाहारतया तस्यैवानागाढा -ऽऽगाढपरितापा - दयो दोषाः || १५९६ ॥ अथ क्षपक-क्रोधवतोर्दोषानाह - मानी मायी च क्षपकः क्रोधी च 20 परिताविजइ खमओ, अह गिण्हइ अप्पणी इयरहाणी | अविदिने कोहिल्लो, रूसइ किं वा तुमं देसि ॥। १५९७ ॥ यदि क्षपको गुरूणां हेतोः प्रायोग्यं गृह्णाति नात्मनस्ततः स एव परिताप्यते, अथात्मनो गृह्णाति तत इतरेषां - आचार्याणां हानिः - परितापना । यस्तु क्रोधवान् सः 'अवितीर्णे' अदत्ते सति रुष्यति । रुष्टश्चागारिणं भणति – यदि भवान् न ददाति तर्हि मा दात् किं भवयं गृहं दृष्ट्वाऽस्माभिः प्रव्रज्या प्रतिपन्ना ? इति किं वा त्वं ददासि येन 'एवमहं ददामि' इति 25 गर्वितो भवसि ? इत्यादिभिर्दुर्वचनैः श्राद्धं विपरिणमयति ॥ १५९७ ॥ मानि - मायिनोर्दोषानाहऊणाणुट्टमदिने, थद्धो न य गच्छए पुणो जं च । माई भद्दगभोई, पंतेण व अप्पणी छाए ।। १५९८ ।। यः स्तब्धः सः 'ऊने' तुच्छे दत्ते "अणुट्ट" त्ति अभ्युत्थाने वा अकृते " अदिन्न” त्ति सर्वथैव वा अदत्ते सति ‘पुनः ' भूयस्तदीयं गृहं न गच्छति, भणति च – श्रावकाणामितरेषां च 30 को विशेषः ? यदि द्वितयेऽपि साधूनामभ्युत्थानादिविनयप्रक्रियामन्तरेण भिक्षां प्रयच्छन्ति ततो नाहममुष्य गृहं भूयः प्रविशामीति । ततः “जं च " त्ति तद्गृहे प्रवेशं विना प्रायोग्यस्या - लाभे यत् किञ्चिदाचार्यादीनां परितापनादिकं भवति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । यस्तु मायी सः १ इत्यर्थः । त° भा० ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १५९६-१६०३] प्रथम उद्देशः । 'भद्रकभोजी' प्रायोग्यमुपाश्रयाद् बहिर्मुक्त्वा प्रान्तमानयतीति भावः, यद्वा 'प्रान्तेन' वल्ल-चणकादिना आत्मनो योग्यं स्निग्ध-मधुरद्रव्यं छादयति, छादयित्वा च गुरूणां दर्शयति ॥ १५९८ ॥ लुब्धस्य दोषानाह 10 15 करस्य ओभासइ खीराई, दिजंते वा न वारई लुद्धो। जेऽणेगविसणदोसा, एगस्स वि ते उ लुद्धस्स ॥ १५९९ ॥ 5 लोभी यो लुब्धः स स्थापनाकुलेषु क्षीरादीन्यवभाषते । यद्वा श्रद्धातिरेकतस्तैर्दीयमानानि स्निग्धमधुराणि न वारयति । ततश्च येऽनेकेषु सङ्घाटकेषु स्थापनाकुलं प्रविशल्सु चमढणादयो दोषा वर्णितास्ते सर्वेऽप्येकस्यापि लुब्धस्य प्रविशतो द्रष्टव्याः ॥ १५९९ ॥ कुतूह लिनः प्रतिबद्धस्य च दोषानाह नडमाई पिच्छंतो, ता अच्छइ जाव फिट्टई वेला । सुत्तत्थे पडिबद्धो, ओसक्क-हिसकमाईया ॥ १६०० ॥ कुतूहली यः कुतूहली स नटादीन् प्रेक्षमाणस्तावदास्ते यावद् वेला स्फिटति । यस्तु सूत्रेऽर्थे वा प्रतिबद्धश्च 'प्रतिबद्धः' आसक्तः स गुरूणां धर्मकथादिव्यग्रतया यदैवान्तरं लभते तदैवाप्राप्तकालेऽपि भिक्षार्थमवतरति, वेलातिक्रमं वा कृत्वा कालवेलादाववतरति, ततोऽवप्वप्कणा-ऽभिप्वप्कणादयो दोषाः ॥ १६०० ॥ यतश्चैवमतः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याहएयद्दोस विमुक्कं, कडजोगिं नायसीलमायारं । ओघ भा. १३४] वैयावृत्त्यगुरुभत्तिमं विणीयं, वेयावच्चं तु कारिजा ॥ १६०१॥ गुणाः एभिः-अनन्तरोक्तैर्दोषैर्विमुक्तं-वर्जितम्, किंविशिष्टम् ? इत्याह---'कृतयोगिनं' गीतार्थं 'ज्ञातशीला-ऽऽचारं' ज्ञातं-सम्यगवगतं शीलं-प्रियधर्मतादिरूपमाचारश्च-चक्रवालसामाचारीरूपो यस्य स तथा तम् , तथा गुरवः-आचार्यास्तेषु भक्तिमन्तम्-आन्तरप्रतिबन्धोपेतम् , 'विनीतम्' 20 अभ्युत्थानादिबाह्यविनयवन्तम् , एवंविधं शिप्यं वैयावृत्त्यमाचार्यः कारयेत् ॥ १६०१॥ आह किमर्थं वैयावृत्त्यकरस्येयन्तो गुणा मृग्यन्ते ? उच्यते साहंति य पियधम्मा, एसणदोसे अभिग्गहविसेसे । [ओप.भा १३५] एवं तु विहिग्गहणे, दव्वं ववति गीयत्था ॥ १६०२ ॥ प्रियधर्माण उपलक्षणत्वादपरैरप्यनन्तरोक्तगुणैर्युक्ता वैयावृत्त्यकराः “साहति" त्ति कथयन्ति 25 'एषणादोषान्' प्रक्षित-निक्षिप्तादीन् । यथा--इत्थं प्रक्षितदोषो भवति, इत्थं तु निक्षिप्त इत्यादि। एतैश्च दोषैर्दुष्टं साधूनां न दीयते । 'अभिग्रहविशेषाँश्च' जिनकल्पिक-स्थविरकल्पिकसम्बन्धिनः कथयन्ति । 'एवम्' उक्तेन विधिना स्थापनाकुलेषु ग्रहणे श्रद्धां वर्धयन्तो गीतार्थाः 'द्रव्यमपि' वैयावृत्त्यघृतादिकं वर्धयन्ति ॥ १६०२ ॥ इदमेव भावयति करेण श्रादेभ्य एसणदोसे व कए, अकए वा जइगुणे विकत्थिता । एषणादिकहयंति असढभावा, एसणदोसे गुणे चेव ॥ १६०३ ॥ दोषाणा'एषणादोषे' म्रक्षितादौ कृते वा अकृते वा 'यतिगुणान्' शान्ति-मार्दवादीन् 'विकत्थमानाः' मभिगृही. तेषणादीनां विविधं श्लाघमानाः 'अशठभावाः' कैतववर्जिताः न भक्षणोपायनिमित्तमिति भावः एषणा दोषान् च ज्ञापना Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ? कथयन्ति । तथा गुणाः-साधूनां प्राशुकैषणीयभक्त-पानप्रदानप्रभवाः पापकर्मनिर्जरादयस्ताँच गीतार्थाः कथयन्ति । यथा समणोवासगम्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणम्स किं कज्जइ ? गोयमा ! एगंतसो निजरा कज्जइ, नत्थि य से 5 केइ पावकम्मे कजइ त्ति । ( भगवती श० ८ उ० ६ पत्र ३७३-१) ॥१६०३ ॥ अथेत्थं न कथयेयुः ततः के दोषाः ? इत्याह-- बालाई परिचत्ता, अकहिंतेऽणेसणाइगहणं वा । न य कहपबंधदोसा, अह य गुणा साहिया होति ॥ १६०४ ॥ तेषु श्राद्धकुलेषु जिनकल्पिका भिक्षार्थमायाताः, तेषां परमान्नादिकं लेपकृतमुपनीतम् , तैश्च 10 भगवद्भिः प्रतिपिद्धम् , ततस्तानि श्राद्धकानि चिन्तयेयुः--एत एव प्रधानाः साधवः, इतरे तु निग्ध-मधुरद्रव्यग्राहिणः सर्वेऽपि नामधारकमात्राः साध्वाभासा एवेति । ततः श्रद्धाभङ्गभाञ्जि तानि भूयः प्रायोग्यद्रव्यं नोपढौंकयेयुः । एवमभिग्रहविशेषान् अकथयद्भिर्गीतार्थैर्बालादयः परित्यक्ता भवन्ति । अथैषणादोषान् शुद्धभक्त-पानदानम्य च गुणान् न कथयेयुः ततस्तानि श्राद्ध कान्यनेषणां कुर्युः । तत्र यदि प्रतिषिध्यते तदाऽपि बालादयः परित्यक्ताः, तेषां प्रायोग्याभावे 15 संस्तरणाभावात् । अथ न प्रतिषिध्यते ततोऽनेषणादिग्रहणं भवेत् , आदिशब्द एषणादोषाणामेव स्वगतानेकभेदसूचकः । आह गोचरप्रविष्टानां साधूनां कथाप्रबन्धः कर्तुं न कल्पते, अमी च साधव इत्थमेषणादोषादीनां कथां प्रबध्नन्तः कथं न दोषभाजो भवन्ति ? इत्युच्यते—'न च' नैवात्र कथाप्रवन्धदोषा भवन्ति, यदि हि भक्त-पानलोलुपतया कथां प्रबन्धीयुस्ततो भवेयुर्दोषाः, तच नास्ति, एषणाशुद्धिहेतोरेव तेषामित्थं कथनात् । अथ च प्रत्युतेत्थं कथयद्भिस्तैर्गीतार्थः 20 'गुणाः' बाल-वृद्धाधुपष्टम्भ-गुरुभक्तिप्रभृतयः साधिता भवन्ति ॥ १६०४ ॥ (ग्रन्थानम्-७६२० । मलयगिरिकृतग्रन्थानम्-४६०० । उभयग्रन्थाग्रम्-१२२२० ।) कथं पुनस्ते कथयन्ति ? इत्याह ठाणं गमणाऽऽगमणं, वावारं पिंडसोहिमुल्लोगं । जाणताण वि तुझं, बहुवक्खेवाण कहयामो ॥ १६०५ ॥ 25 'स्थान' नाम आत्म-प्रवचन-संयमोपघातवर्जितो भूभागः । यत्र स्थितस्य गवा-ऽश्व-महिषादेराह ननादि न भवति से आत्मोपघातर्वर्जितः । यत्र तु निर्द्धमनाद्यशुचिस्थानव्यतिरिक्ते प्रदेशे स्थितस्य लोकः प्रवचनस्यावर्णं न बृयात् से प्रवचनोपघातर्जितः । यत्र पुनः पृथिव्यादिकायानां विराधना न भवति स संयमोपघातवर्जितः । ईदृशे स्थाने साधुना दायकेन वा स्थित्वा भिक्षा ग्राह्या देया वेति ज्ञापयन्ति । 'गमनं' नाम दायकेन भिक्षादानार्थ गृहमध्ये प्रविशता षटकायानामुपमर्दनम30 कुर्वता गन्तव्यम् । एवम् 'आगमनमपि' भिक्षां गृहीत्वा साधुसम्मुखमागच्छता दायकेनोपयुक्ते नागन्तव्यम् । व्यापारः-कर्तन-कण्डन-पेषणादिकः, तं च सम्यग् ज्ञापयन्ति-ईदृशे व्यापारे भिक्षा ग्रहीतुं कल्पते, ईदृशे तु नेति । "पिंडसोहिमुल्लोग" ति पिण्डशुद्धेः 'उल्लोक' लेशोद्देशं १-३-६ तत् भा० ॥ २-४-७ वर्जितम् भा० ॥ ५°व्यादीनां का भा० ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १६०४-८] प्रथम उद्देशः । ४७१ कथयन्ति, 'इत्थमाधाकर्मादयो दोषा उपजायन्ते, इत्थमेमिदोषैरदुष्टः पिण्डः साधूनां दीयमानः शुद्धो बहुफलश्च भवति इत्येवं पिण्डनियुक्तिं लेशतो ज्ञापयन्तीति भावः । तथा यद्यपि यूयमिदं साधुधर्मस्वरूपमग्रेऽपि जानीथ तथापि युष्माकं बहुव्याक्षेपाणामविस्मरणार्थं कथयाम इति ॥ १६०५ ॥ अपि च--- केसिंचि अभिग्गहिया, अणभिग्गहिएसणा उ केसिंचि । मा हु अवणं काहिह, सव्वे वि हु ते जिणाणाए ॥ १६०६॥ केषाश्चित् साधूनामभिगृहीता एषणा, यथा जिनकल्पिकानाम् । केषाञ्चित् त्वनभिगृहीता, यथा गच्छवासिनाम् , सप्तखपि पिण्डेषणासु तेषां भक्त-पानस्य ग्रहणात् । एवं चापरापरां भक्त-पानग्रहणसामाचारी दृष्ट्वा यूयं मा अवज्ञां करिष्यथ । कुतः ? इत्याह --'सर्वेऽपि ते' भगवन्तो जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिकाश्च जिनाज्ञायां वर्तन्ते, स्वखकल्पस्थितिपरिपालनात् , 10 अतो न केऽप्यवज्ञातुमर्हन्तीति भावः ।। १६०६ ॥ किञ्च संविग्गभावियाणं, लुद्धगदिद्वैतभावियाणं च । मुत्तूण खेत्त-काले, भावं च कहिंति सुद्धंछं ॥ १६०७॥ येषां श्राद्धानां पुरत एषणादोषाः कश्यन्ते ते द्विधा--संविमभाविता लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्च । संविग्नेः-उद्यतविहारिभिर्भाविता: संविग्नभाविताः । ये तु पार्श्वस्थादिभिर्लुब्धकदृष्टान्तेन 15 भावितास्ते लुब्धकदृष्टान्तभाविताः । कथम् ? इति चेद् उच्यते-ते पार्श्वस्थाः श्राद्धानित्यं प्रज्ञापयन्ति-यथा कम्यापि हरिणम्य पृष्ठतो लुब्धको धावति, तस्य च हरिणस्य पलायनं श्रेयः, लुब्धकस्यापि तत्पृष्ठतोऽनुधावनं श्रेयः; एवं साधोरप्यनेषणीयग्रहणतः पलायितुमेव युज्यते, श्रावकस्यापि तेन तेनोपायेन साधोरेषणीयमनेषणीयं वा दातुमेव युज्यते इति । इत्थं द्विविधानामपि श्राद्धानां पुरतः शुद्धं-द्वाचत्वारिंशद्दोषरहितं यदुञ्छमिवोञ्छं स्तोकस्तोकग्रहणात् 'शुद्धो-20 छम्' उत्सर्गपदमित्यर्थः तत् कथयन्ति । किं सर्वदैव ? न इत्याह-'मुक्त्वा क्षेत्र-कालौ भावं च' इति क्षेत्रं-कर्कशक्षेत्रमध्वानं वा कालं-दुर्भिक्षादिकं 'भावं' ग्लानत्वादिकं प्रतीत्य ते श्राद्धाः किञ्चिदपवादमपि ग्राह्यन्ते ॥ १६०७ ॥ अपि च इदमपि ते श्राद्धा ज्ञापनीयाः __ संथरणम्मि असुद्धं, दोण्ह वि गिण्हंत-दितयाणहियं ।। आउरदिटुंतेणं, तं चैव हियं असंथरणे ॥ १६०८॥ संस्तरणं नाम-प्राशुकमेषणीयं चाशनादि पर्याप्तं प्राप्यते न च किमपि ग्लानत्वं विद्यते तत्र 'अशुद्धम् अप्राशुकमनेषणीयं च गृह्णतो ददतश्च द्वयोरपि 'अहितम्' अपथ्यम् , गृहृतः संयमबाधाविधायित्वाद् ददतस्तु भवान्तरे खल्पायुर्निबन्धनकर्मोपार्जनात् । 'तदेव' अशुद्धम् 'असंस्तरणे' अनिर्वाहे दीयमानं गृह्यमाणं च 'हितं' पथ्यं भवति । आह कथं तदेव कल्प्यं तदेव चाकल्प्यं भवितुमर्हति ? इति उच्यते-आतुरः-रोगी तस्य दृष्टान्तेनेदं मन्तव्यम् । १°वः । इदं च यूयं सकलमपि जानीथ भा० ॥ २ “ते दुविहा-संविग्गभाविया वा लिंगस्थभाविया वा । लुद्धगदिलुतो लिंगत्येहिं” इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ३°प्यकल्पनीयम भा० ॥ ४ साधोः कल्पनीयमकल्पनीयं वा भा० ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रहणम् ४७२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ यथा हि रोगिणः कामप्यवस्थामाश्रित्यान्नौपधादिकमपथ्यं भवतिं, काञ्चित् पुनः समाश्रित्य तदेव पथ्यम्, एवमिहापि भावनीयम् || १६०८ ॥ तदेवं भावितं " साहंति य पियधम्मा, एसणदोसे अभिग्गहवि से से" ( गा० १६०२ ) इति । अथ यदुक्तम् " एवं तु विहिगहणे" ( गा० १६०२ ) ति तत्र विधिग्रहणं भावयति — संचयमसंचयं, नाऊण असंचयं तु गिव्हंति । 5 संचयं पुण कजे, निब्बंधे चैव संतरियं ।। १६०९ ॥ प्रायोग्यद्रव्यं द्विधा — सञ्चयिकमसञ्चयिकं च । 'सञ्चयिकं' घृत- गुड - मोदकादि, 'असञ्चयिकं' तु दुग्ध-दधि-शालि सूपदि । तत्र यदसञ्चयिकं तत् स्थापनाकुलेषु प्रभूतं ज्ञात्वा गृह्णन्ति । सञ्चयिकं पुनर्लान- प्राघूर्णकादौ महति कार्ये उत्पन्ने गृह्णन्ति । अथ श्राद्धानां महान् निर्बन्धो 10 भवति ततोऽग्लाना अपि गृह्णन्ति परं 'सान्तरितं' न दिने दिने इति भावः । एष सञ्चयिक - ग्रहणस्यापवाद उक्तः ॥ १६०९ ॥ अथापवादपदस्याप्यपवादमाह - स्थापनाकुलेभ्यो 20 भक्तादि ग्रहणे सामाचारी अहवण सद्धा-विभवे, कालं भावं च बाल- बुड्ढाई | नाउ निरंतरगहणं, छिन्नभावे य ठायंति ।। १६१० ॥ " अहवण" चि अखण्डमव्ययं प्रकारान्तरद्योतनार्थम् । श्रावकाणां श्रद्धां च - दानरुचिं तीव्रां 15 परिज्ञाय विभवं च विपुलं तदीयगृहेष्ववगम्य 'काल' दुर्भिक्षादिकं 'भावं च ' ग्लानत्वादिकं ज्ञात्वा बाल-वृद्धादयो वा आप्यायिता भवन्त्विति ज्ञात्वा निरन्तरग्रहणमपि कुर्वन्ति, सञ्चयिक - मपि दिने दिने गृह्णन्तीति भावः । यावच्च दायकस्य दानभावो न व्यवच्छिद्यते तावदच्छिन्ने भावे 'तिष्ठन्ति' दीयमानं प्रतिषेधयन्तीत्यर्थः, यथा तेषां भूयोऽपि श्रद्धा जायते ।। १६१० ॥ अथ स्थापनाकुलेषु भक्त - पानग्रहणे सामाचारीमभिधित्सुराह— दव्वप्यमाण गणणा, खारिय फोडिय तहेव अद्धा य । [ ओघ. भा. १३६ ] संविग्ग ऍगठाणे, अणेगसाहूसु पन्नरस ।। १६११ ॥ १ यथा हि रोगिणः कामव्यवस्थामाश्रित्य पध्यमपथ्यं भवति, काञ्चित् पुनः समाश्रित्य अपथ्यमपि पथ्यम्; एवमिहापि भावनीयम् । गाभाव (यथा वा ) विषादिक मौषधलवमात्रमव्युपयुज्यमानमपश्यतया महतीं चित्तविप्लुतिप्रभृतिकां दुःखासिकां जनयति, तदेव सान्निपातिकादिरोगा वेगविह्वलीभूतस्य पुरुषस्य रसभिपगुपदेशेनोपयुज्यमानं पथ्यरूपतया परिणमति महतीं च चेतनापाटवप्रभृतिकां सुख। सिकां सम्पादयति । उक्तं च"सरुजस्यौषधं पथ्यं, नीरुजस्य किमौषधैः ? ।" एवं संस्तरणे सत्यशुद्धमशनादिकं विषादिवदपश्यतया दायक - ग्राहकयोरुभयोरपि महतीमिह परत्र च दुःखपरम्परामुपजनयति, तदेवासंस्तरणे दीयमानमादीयमानं वा परमामृतवत् परिणमति, ततश्च क्रमेणाजरामरत्वलक्षणां महतीं सुखासिकामुत्पादयतीति || १६०८ ॥ भा० । “आतुर दिणं यथा - 'व्याधितस्यौषधं पथ्यं, नीरुजस्य किमौषधैः ? ।' जधा वा खीरं एगस्य अपत्यं एगस्स पत्थं उवणयो कातन्त्रो । अन्नं च कहिंति—अज आयरियाण अभत्तट्टो, अज्ज आयंबिलं निव्वीइयं तद्दिवसं परिहरंति" इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ २ कादिकमविनाशि द्रव्यम्, 'अस' भा० ॥ ३ पादिकं विनाशि | तत्र भा० ॥ ४ एव ठवणा, अणे ता० ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १६०९-१४] प्रथम उद्देशः । । ४७३ द्रव्यं-शाल्यादि तस्य प्रमाणं ज्ञातव्यम् , कियदत्र गृहे रसवत्यां शालि-मुद्गादिकं. दिने दिने प्रविशति ? । 'गणना' नाम कियन्ति घृतपलान्यत्र प्रविशन्ति ? यद्वा कियन्ति मानुषाण्यत्र जेमयन्ति ? । "खारिय" त्ति क्षारः-लवणं तेन संस्कृतानि 'क्षारितानि' लवणकरीरादीनि व्यञ्जनानि तानि कियन्त्यत्र पच्यन्ते ? इति । “फोडिय" त्ति 'स्फोटितानि' मरिच-जीरकादिकटुभाण्डधूपितानि शालनकानि एतेषामपि तथैव प्रमाणं ज्ञातव्यम् । 'अद्धा' कालः स ज्ञातव्यः, 5 किमत्र प्रहरे वेला ? उत सार्द्धप्रहरे ? आहोश्चित् प्रहरद्वये ? इति । एतद् द्रव्यप्रमाणादिकं विज्ञाय 'संविमः' मोक्षाभिलापी “एगठाणे" ति एकः सङ्घाटकस्तत्र प्रविशति । यदि पुनरनेके साधवः स्थापनाकुलेषु प्रविशन्ति ततः ‘पञ्चदश' आधाकर्मादयो अनिसृष्टान्ता उद्गमदोषा भवन्ति, अध्यवपूरकस्य मिश्रजात एवान्तर्भावात् । एष सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ १६११ ॥ अस्या एव भाप्यकृद् व्याख्यानमाह 10 असणाइदव्बमाणे, दसपरिमिय एगभत्तमुव्बरइ । सो एगदिणं कप्पइ, निचं तु अज्झोयरो इहरा ॥१६१२ ॥ अशनम्-ओदन-मुद्गादि, आदिग्रहणात् पानक-खादिम-स्वादिमपरिग्रहः, एतेषां द्रव्याणां परिमितानामपरिमितानां वा मान-प्रमाणं ज्ञातव्यम् । यत्र परिमितमशनादि द्रव्यं प्रविशति तत्र दशानां मानुषाणां हेतोरुपस्क्रियमाणे एकस्य-अपरस्य योग्यं भक्तं-भक्तार्थमुद्वरति, स च भक्तार्थ 15 एकस्य साधोः परिपूर्णाहारमात्रारूप एक दिनं ग्रहीतुं कल्पते । 'इतरथा' यदि द्वितीयादिषु दिवसेषु गृह्णन्ति तदा “निचं तु" त्ति स साधुभिः प्रतिदिवसगृह्यमाणो भक्ताओं नित्यजेमनमेव तैः श्राद्धैर्गण्यते, ततश्च तदर्थमध्यवपूरकः प्रक्षिप्येत ॥ १६१२ ॥ एवं तावत् परिमितमाश्रित्योक्तम् । अथापरिमितमधिकृत्याह अपरिमिए आरेण वि, दसण्हमुव्बरइ एगभत्तहो। वंजण-समिइम-पिढे-वेसणमाईसु य तहेव ॥१६१३॥ यत्र पुनरपरिमितं राध्यते तत्र दशानां मानुषाणाम् 'अयंगपि' नवाष्टादिसङ्ख्याकानामपि हेतो राद्धे एकस्य योग्यो भक्तार्थ उद्वरति, स च दिने दिने कल्पत इति । आह च चूर्णिकृत् अपरिमिए पुण भत्ते दसण्ह आरेण वि एगम्स भत्तट्टो दिणे दिणे कप्पइ चेव । तथा व्यञ्जनानि-तीमन-वटिका-भर्जिकादीनि, “समितिम" त्ति समिता-कणिक्का तया निष्प-23 न्नाः समितिमाः-मण्डकाः पूपलिका वा, पिष्टम्-उण्डेरकादि सक्तुप्रभृति वा, वेसणं-मरिच-जीरक-हिङ्गुप्रभृतिकं कटुभाण्डम् , आदिग्रहणाद् लवण-शुण्ठ्यादिपरिग्रहः । एतेषामपि परिमाणं तथैव द्रष्टव्यं यथाऽशनादीनाम् !! १६१३ ॥ एतावता "द्रव्यप्रमाणं गणना-क्षारित-स्फोटितानि" (गा०१६११) इति गाथादलं भावितम् । अथ "अद्धा य" (गा० १६११) त्ति पदं व्याचष्टे सतिकालद्धं नाउं, कुले कुले ताहि तत्थ पविसंति ।। ओसक्कणाइदोसा, अलंमें बालाइहाणी वा ॥ १६१४ ॥ १कानि कियन्मात्राण्यत्र संस्क्रियन्ते ? । “अद्ध" त्ति 'अद्धा' भा० ॥ २°चं चिय ओयरो ता० ॥ 30 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाय-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ सत्कालाद्धा-भिक्षायाः सम्बन्धी यो यत्र देशकालरूपोऽद्धा तं ज्ञात्वा कुले कुले तस्मिन् देशकाले तत्र प्रविशन्ति । अथ देशकालेऽतिक्रान्तेऽप्राप्ते वा प्रविशन्ति ततोऽवष्वष्कणादयो दोषाः । अथावप्वष्कणादिकं तानि श्राद्धकान्यशुद्धद्वानदोषश्रवणव्युत्पन्नमतीनि न कुर्युः ततः प्रायोग्यद्रव्यस्याला बालादीनां हानिर्भवेदिति ।। १६१४ ॥ एवं यत्र क्षेत्र एक एव गच्छो भवेत् 5 तत्र स्थापनाकुलप्रवेशे सामाचारी भणिता । अथानेकगच्छविषयां तामेवाभिधित्सुराह - एगो व होज गच्छो, दोन्निव तिन्नि व ठवणा असंविग्गे । सोही गिलाणमाई, असई य दवाइ एमेव ॥ १६१५ ॥ विवक्षितक्षेत्रे एको वा गच्छो भवेद् द्वौ वा त्रयो वा, तंत्रकं गच्छमाश्रित्य विधिरुक्तः । अथ यादीन् गच्छानधिकृत्य विधिरभिधीयते -- "ठवणा असंविग्गे" त्ति येषु असं विमा: प्रवि10 शन्ति तेषां श्राद्धकुलानां स्थापना कर्त्तव्या, न तेषु प्रवेष्टव्यम् । अथ प्रविशन्ति ततः पञ्चदशोद्गमदोषानापद्यन्ते, “सोहि” त्ति तद्दोषनिष्पन्ना 'शोधिः प्रायश्चित्तम् । यद्वा " सोहि" त्ति पढ़ "गिलाणमाई” इत्युत्तरपदेन सह योज्यते, ततोऽयमर्थः लान - प्राघूर्णकादीनामर्थायासंविग्नभावितेष्वपि कुलेषु ‘शोधिः' एषणाशुद्धिः तया शुद्धं भक्तं गृह्यते न कश्चिद् दोषः । " असई इ दवाइ एमेव " त्ति अन्यत्र 'असति' अविद्यमाने द्रवादिकमपि 'एवमेव' असंविप्रभावित - 15 कुलेषु ग्रहीतव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः ॥ १६१५ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह— संविग्गमणुनाए, अति अहवा कुले विरिंचंति । ४७४ अन्नाउंछं व सहू, एमेव य संजईवग्गे ।। १६१६ ॥ इह यैस्तत् क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं तेषु पूर्वस्थितेषु येऽन्ये साधवः समायान्ति ते साम्भोगका असाम्भोगिका वा स्युः । तत्रासाम्भोगिकेषु संविभेषु विधिरुच्यते - संविभैर्वास्तव्य साधुभिः 'अनु20 ज्ञाते' 'यूयं स्थापनाकुलेषु प्रविशत, वयमज्ञातोञ्छं गवेषयिष्यामः' इत्येवमनुज्ञायां प्रदत्तया य आगन्तुकाः संविग्नास्ते स्थापनाकुलेषु " अइंति” त्ति प्रविशन्ति । वास्तव्यास्तु स्थापना कुलवर्जेषु . गुरु- बाल-वृद्धादीनामात्मनश्च हेतोर्भक्त-पानमुत्पादयन्ति । अथ वास्तव्या असहिष्णवस्ततो यावन्तो गच्छास्तावद्भिर्भागैः स्थापना कुलानि विरिञ्चन्ति - आर्याः ! एतावत्सु कुलेषु भवद्भिः प्रवेष्टव्यम्, एतावत्सु पुनरस्माभिरिति । अथवा यद्यागन्तुकाः " सहू" इति 'सहिष्णवः' समर्थशरीरास्ततो25 ऽज्ञातोञ्छं गवेषयन्तः पर्यटन्ति । एवमेव च संयतीवर्गेऽपि द्रष्टव्यम्, ता अपि व्यादिगच्छसद्भावे एवंविधमेव विधिं कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ १६१६ ॥ एवं तु अन्नसंभोग संभोइआण ते चैव । जाणित्ता निब्बंधं, वत्थव्वेणं स उ पमाणं ।। १६१७ ।। १ गाथयं चूर्णिकृता विशेषचूर्णिकृता च पुराबनगाथात्वेन निर्दिष्टा || २ अलाभे द्रवा° ॥ ३ इह ये द्रयादयो गच्छाः [ते] परस्परं साम्भोगिका भा० ॥ ४° त्तायामिति भावः ' भा० ॥ ५ 'स्माभिरित्येवं विभुञ्जतीति (विभजन्तीति भावः । अथ भा० । “अथवा मज्जातं टवेंति — एवतिएहिं कुलेहिं तुभे पविसेज्जाध, एवतिएहिं अम्हे पविसिस्सामो, एवं 'विरिचंति 'विभजन्तीत्यर्थः " इति चूर्णो विशेषचूर्णो च ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः १६१५-१९] प्रथम उद्देशः । ४७५ एवं 'तुः पुनरर्थे एव पुनर्विधिरन्यसाम्भोगिकानामुक्तः, ये तु साम्भोगिकाः-परस्परमेकसामाचारीकास्तेषामागन्तुकानामर्थाय त एव वास्तव्याः स्थापनाकुलेभ्यो भक्त-पानमानीय प्रयच्छन्ति । अथ श्राद्धाः प्राघूर्णकभद्रका अतीव निर्बन्धं कुर्युः, यथा-प्राघूर्णकसङ्घाटकोऽप्य. स्मद्गृहे स्थापनीयः, ततो निर्बन्धं ज्ञात्वा वास्तव्यसङ्घाटिकेन आगन्तुकसङ्घाटिकं गृहीत्वा तत्र गन्तव्यम् । यदि च तत्र प्रचुरं प्रायोग्यं प्राप्यते तत आगन्तुकसङ्घाटिकेन गवेषणा न कर्त्तव्या-5 किमित्येतावत् प्रचुरं दीयते ? किन्तु 'स तु' स एव वास्तव्यसङ्घाटिकस्तत्र प्रमाणम् , यावन्मानं ग्रहीतव्यं यद्वा कल्पनीयं तदेतत् सर्वमपि स एव जानातीति भावः ॥ १६१७ ॥ एष एकम्यां वसतौ स्थितानां विधिरुक्तः । अथ पृथग्वसतिव्यवस्थितानामाह असइ वमहीऍ वीसुं, रायणिए वसहि भोयणाऽऽगम्म । असहू अपरिणया वा, ताहे वीमुंऽसहू वियरे ॥ १६१८ ॥ विस्तीर्णाया वसतेः 'असति' अभावे 'विप्वक्' पृथग् अन्यस्यां वसतौ स्थितानामागन्तुको वास्तव्यो वा यः 'रत्नाधिकः' आचार्यस्तस्य वसतावागम्यावमरत्नाधिकेन भोजनं कर्तव्यम् । अथैकस्मिन् गच्छे द्वयोर्वा गच्छयो: 'असहिष्णवः' ग्लाना भवेयुः अपरिणता वा शैक्षाः परस्परं मिलिताः सन्तोऽसङ्खडं कुर्युः तदा "वीमुं" ति अपरिणतान् ‘विष्वक्' पृथग् भोजयन्ति । “सहू. वियरे" ति अकारप्रश्लेषाद् असहिष्णूनां प्रथमालिकां 'वितरन्ति' प्रयच्छन्ति । ततोऽपरिणतान् ।। वसतौ स्थापयित्वा कृतप्रथमालिकान् असहिष्णून् गृहीत्वा सर्वेऽपि रत्नाधिकवसतौ गत्वा मण्डल्यां मुञ्जते । अथवोत्तरार्द्धमन्यथा व्याख्यायते-'असहू" इति यद्यवमरत्नाधिक आचार्यः वयमसहिष्णुर्न शक्नोति रत्नाधिकाचार्यसन्निधौ गन्तुं न या तावती वेलां प्रतिपालयितुं शक्तः 'अपरिणता वा' अगीतार्थास्तस्य शिप्यास्तेषां नास्ति कोऽपि सामाचार्या उपदेष्टा आलोचनाया वा प्रतीच्छकः ततो विष्वग्वसतौ द्वावप्याचार्यों समुद्दिशतः । “सहू विअरे" ति 'या' अथवा यदि 20 रत्नाधिकः सहिष्णुम्ततः 'इतरस्य' अवमरत्नाधिकस्योपाश्रयं गत्वा समुद्दिशति ॥ १६१८ ।। एवं तावद् द्वयोर्गच्छयोर्विधिरुक्तः । अथ त्रयो गच्छा भवेयुस्ततः को विधिः ? इत्याह तिहं एक्केण समं, भत्तटुं अप्पणो अवढं तु ।। पच्छा इयरेण समं, आगमण विरेगु सो चेव ॥ १६१९ ॥ यद्येक आचार्यो वास्तव्यो भवति द्वी चागन्तुको तत इत्थं त्रयाणामाचार्याणां सम्भवे द्वयो- 25 रागन्तुकयोर्मध्याद् यो रत्नाधिकस्तस्य सम्बन्धी यो वैयावृत्त्यकरस्तेनैकेन समं वास्तव्याचार्यवैयावृत्त्यकरः पर्यटन प्राघूर्णकाचार्यम्य हेतोः 'भक्तार्थ' परिपूर्णाहारमात्रारूपम् 'आत्मनश्च' आत्मीयाचार्यार्थम् 'अपार्द्धम्' अर्द्धध्रुवमानं श्राद्धकुलेभ्यो गृह्णाति । पश्चाद् ‘इतरेण' आगन्तुकावमरलाधिकाचार्यसम्बन्धिना वैयावृत्त्यकृता समं पर्यटन् तथैव तद्योग्यं भक्तार्थमात्मनश्वार्द्धध्रुवमानं गृह्णाति । "आगमण विरेगो सो चेव" त्ति यदि त्रि-चतुःप्रभृतीनामाचार्याणामागमनं भवति 30 ततः स एव 'विरेकः' विभजनम् । किमुक्तं भवति ?-तदीयैरपि वैयावृत्त्यकरैः समं यथाक्रम पर्यटता वास्तव्यसाधुनाऽऽल्मीयाचार्यार्थ तथा ब्यादिभिर्भागैर्भक्तार्थं विभज्य भक्तं ग्रहीतव्यं यथा सर्वान्तिमवैयावृत्त्यकरेण समं पर्यटन्नात्मगुरूणां भकार्य परिपूरयतीति ॥ १६१९ ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ अथ "गिलाणमाई असति" (गा० १६१५) त्ति पदं विवृणोति अतरंतस्स उ जोगासईएँ इयरेहिँ भाविए विसिउं । ___अन्नमहाणसुवक्खड, जं वा सन्नी सयं भुंजे ॥ १६२०॥ "अतरंतो" ग्लानः तस्य उपलक्षणत्वादाचार्यस्यापि यद् योग्यं-प्रायोग्यं तस्य असति-अलाभे । इतरे नाम-असंविमास्तै वितेषु श्राद्धकुलेषु प्रविश्य यस्मिन् महानसे ते असंविमा अध्यवपूरकादिदोषदुष्टां भिक्षां गृह्णते तद् वर्जयित्वा यदन्यस्मिन् महानसे केवलं गृहार्थमेवोपस्कृतं ततो ग्लानाद्यर्थं गृह्यते, यद् वा भक्तं पृथगुपस्कृतं “सन्नी" स गृहखामी श्रावकः स्वयं भुते ततो वा गृह्यते, अन्यदीयाद्वा कुतोऽपि गृहाद् यत् प्रहेणकादिकमायातं तद् गृह्यते ॥ १६२० ॥ ___ अथ “दवाइ एमेव" ( गा० १६१५) त्ति पदं व्याख्यानयति ___ असतीए व दवस व, परिसित्तिय-कंजि-गुलदवाईणि । अत्तट्ठियाइँ गिण्हइ, सव्वालंभे विमिस्साइं ॥ १६२१ ॥ - यदि ग्लानस्य गच्छस्य वा योग्यं द्रवं-पानकं संविग्मभावितेषु कुलेषु न लभ्यते तदा द्रवस्य 'असति' अभावेऽसंविमभावितेप्वपि कुलेषु "परिसित्तिय" ति येनोप्णोदकेन दधिभाजनानि निर्लेप्यन्ते तत् परिषिक्तपानकम् , काञ्जिकम्-आरनालम् , गुलद्रवं नाम-यस्यां कवल्लिकायां गुड 15 उत्काल्यते तस्यां यत् तप्तमतप्तं वा पानीयं तद् गुडोपलिप्तं द्रवं गुडद्रवम् , आदिग्रहणात् चिञ्चापानकादिपरिग्रहः । एतानि पानकानि यदि तैः श्राद्धकैः ‘आत्मार्थितानि' प्रथममेवात्मार्थ कृतानि तदा ग्लानाद्यर्थ गृह्णाति । “सबालंभे" त्ति यदि सर्वथैव ग्लानस्य वा गच्छस्य वा योग्यमेषणीयं पानकं न लभ्यते तदा "विमीसाइं" ति 'विमिश्राणि' असंविमानां श्रावकाणा याऽयांयाचित्तीकृतानि तान्यपि द्वितीयपदे गृह्यन्ते॥१६२१॥ अथ “असईइ दवादि (गा० १६१५) 20 इत्यत्र योऽयमादिशब्दस्तस्य सफलतामुपदर्शयन्नाह _. पाणट्ठा व पविट्ठो, विसुद्धमाहार छंदिओ गिण्हे । अद्धाणाइ असंथरि, जाउं एमेव जदसुद्धं ॥ १६२२ ॥ पानकार्थं वा प्रविष्टो यदि 'विशुद्धन' एषणीयेनाहारेण गृहपतिना छन्द्यते-निमन्यते ततश्छन्दितः सन् तमपि गृह्णाति । तथा 'अद्धाणाई' त्ति अध्वनिर्गतानां साधूनां हेतोः आदिशब्दा25 दवमौदर्या-ऽशिवादिषु वा असंस्तरणेऽसंविग्मभावितकुलेषु 'एवमेव' ग्लानोक्तविधिना शुद्धान्वेषणे 'यतित्वा' यत्नं कृत्वा ततो यद् 'अशुद्धम्' अनेषणीयं तदप्यागमोक्तनीत्या गृह्णन्ति ॥१६२२॥ उक्त स्थविरकल्पिकानधिकृत्य विहारद्वारम् । अथामूनेवाङ्गीकृत्य सामाचारीद्वारमभिधित्सुः प्रागुक्तमेव ( गा० १३७८ गा० १३८२-८३-८४ च ) द्वारगाथाचतुष्टयमाहस्थविर. इच्छा मिच्छा तहक्कारे, आवस्सि निसीहिया य आपुच्छा । कल्पिका पडिपुच्छ छंदण निमंतणा य उवसंपया चेव ॥ १६२३ ॥ चार्यः सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेयणा कति जणा य । थंडिल्ल वसहि किच्चिर, उच्चारे चेव पासवणे ॥ १६२४ ॥ १रणे सति एवमेव' ग्लानोकविधिना यतित्वा प्रथमं शुद्धं ततो यद् भा० ॥ नां सामा- 30 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । ओवासे aणफलए, सारक्खणया य संठवणया य । पाहुड अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य ।। १६२५ ।। भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य । भाप्यगाथाः १६२० - ३० ] ४७७ आयंविल पडिमाओ, गच्छम्मि उ मासकप्पो उ ।। १६२६ ।। आसामर्थः प्राग्वद् द्रष्टव्यः ।। १६२३ ।। १६२४ ॥ १६२५ || १६२६ ॥ यस्तु विशेषस्तमुपदिदर्शयिषुराह ओहेण दसविहं पिय, सामायारिं न ते परिहवंति । पवयणमाय जहने, सव्वसुयं चैव उक्कोसे ।। १६२७ ॥ 'ओघेन' सामान्यतो दशविधामपि सामाचारी न 'ते' स्थविरकल्पिकाः परिहापयन्ति । आचार्यादिपुरुषविशेषापेक्षया तु या यस्येच्छाकारादिका युज्यते या च तथाकारादिका न युज्यते सा 10 तथा वक्तव्या । श्रुतद्वारमङ्गीकृत्य जघन्यतो गच्छवासिनामष्टौ प्रवचनमातरः श्रुतम् । उत्कर्षतः सर्वमेव श्रुतम्, चतुर्दशपूर्वाणीति हृदयम् ॥ १६२७ ॥ सव्वेसु वि संघ होंति धिइदुब्बला व बलिया वा । आतंका उवसग्गा, भइया विसहंति व नवति ॥ १६२८ ॥ स्थविरकल्पिकाः 'सर्वेष्वपि षट्स्वपि संहननेषु भवन्ति, धृत्याऽपि - मानसावष्टम्भलक्षणया 15 दुर्बला वा भवेयुर्बलिनो वा । 'आतङ्काः ' रोगाः 'उपसर्गाः' दिव्यादयो यदि समुदीर्यन्ते तदा तान् विषहन्ते वा न वेति 'भक्ताः' विकल्पिताः, यदि ज्ञानादिपुष्टालम्बनं भवति तदा चिकिसादिविधानान्न सहन्ते इतरथा तु सम्यगदीनमनसः सहन्त इति भावः ॥ १६२८ ॥ दुविहं पिवेयणं ते, निकारणओ सहति भइया वा । अममत्त अपरिकम्मा, वसही वि पमजणं मोत्तुं ॥ १६२९ ॥ 'द्विविधामपि' आभ्युपगमिकीम पक्रमिकी च वेदनां 'निष्कारणतः ' कारणमन्तरेण सहन्ते 'भाज्या वा' असहिष्णुत्वं-तीर्थाव्यवच्छेदादिकारणवशान्न सहन्तेऽपीति भावः । तथा वसतिरपि तेषाम् ' अममत्वा' ममेयमित्यभिष्वङ्गरहिता, 'अपरिकर्मा' उपलेपनादिपरिकर्मवर्जिता, किं सर्वथैव : न इत्याह-प्रमार्जनामेकां मुक्त्वा । कारणे तु सममत्वा सपरिकर्माऽपि भवति । तत्रापरिणतचारित्राणां शैक्षादीनां ममेयमित्यभिष्वङ्गविधानात् सममत्वा, सपरिकर्मा त्वपरिकर्माया 25 वसतेरलाभ द्रष्टव्या ।। १६२९ ॥ अथ कति जनाः स्थण्डिलं चेति द्वारद्वयस्य विशेषमाह - तिगमाईया गच्छा, सहस्सा बत्तीसई उससेणे । थंडिलं पि य पढमं वयंति सेसे वि आगाढे ॥। १६३० ॥ 'त्रिकादयः ' त्रि- चतुःप्रभृतिपुरुषपरिमाणा गच्छा भवेयुः । किमुक्तं भवति : - एकस्मिन् गच्छे जघन्यतस्त्रयो जना भवन्ति, गच्छस्य साधुसमुदायरूपत्वात् तस्य च त्रयाणामधस्ताद - 30 भावादिति । तत ऊर्द्ध ये चतुः पञ्चप्रभृतिपुरुषसङ्ख्याका गच्छास्ते मध्यमपरिमाणतः प्रतिपत्त - व्यास्तावद् यावदुत्कृष्टं परिमाणं न प्राप्नोति । किं पुनस्तत् ? इति चेद् अत आह— "सहस्स १ 'भाज्या: ' विकल्पनीयाः । यदि भा० ॥ २ त्वादिकारणवशतो न सह° भा० त०डे० ॥ 1 20 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ बत्तीसई उसभसेणे" त्ति द्वात्रिंशत् सहस्राण्येकस्मिन् गच्छे उत्कृष्टं साधूनां परिमाणम्, यथा श्रीऋषभस्वामिप्रथमगणधरस्य भगवत ऋषभसेनस्येति । तथा स्थण्डिलमपि 'प्रथमम्' अनापातमसंलोकमेते गच्छ्वासिनो व्रजन्ति । 'आगाढे तु भावासन्नतादौ कारणे 'शेषाण्यपि अनापातसंलोकप्रभृतीनि स्थण्डिलानि गच्छन्ति ॥ १६३० || 'कियच्चिरम् ?' इति द्वारं विशेषयन्नाह - fafer कालं वसिहि, न ठंति निकारणम्मि इह पुट्ठा । अन्नं वा मग्गंती, ठविंति साहारणमलंभे ।। १६३१ ॥ कियच्चिरं कालं यूयमस्यां वसतौ वत्स्यथ ? इति पृष्टाः सन्तो निष्कारणे न तिष्ठन्ति, किन्तु क्षेत्रान्तरं गच्छन्ति । अथ बहिरशिवादीनि कारणानि ततस्तत्रैव क्षेत्रेऽन्यां वसतिं मार्गयन्ति । अथ मृग्यमाणाऽप्यन्या न लभ्यते ततः साधारणं वचनं स्थापयन्ति, यथा-1 - निर्व्याघाते तावद् 10 वयं मासं यावदवतिष्ठामहे व्याघाते तु हीनाधिकम् ॥ १६३१ ॥ अथ लाघवार्थं शेषद्वाराणि तुल्यवक्तव्यत्वादतिदिशन्नाह— 5 एमेव सेस वि, केवइया वसिहिह त्ति जा नेयं । [ पि.नि. ७६ ] निकारण पडिसेहो, कारण जयणं तु कुव्वंति ।। १६३२ ।। 'एवमेव' कियच्चिरद्वारवत् 'शेषेष्वपि' उच्चार - प्रश्रवणादिषु द्वारेषु कियन्तो वत्स्यथेति द्वारं 15 यावन्नेयम् । किम् ? इत्याह – एतेष्वपि निष्कारणे प्रतिषेधः, न वसन्तीति भावः कारणे तु यतनां कुर्वन्ति । किमुक्तं भवति : - यदि तिष्ठतामुच्चार-प्रश्रवणयोः परिष्ठापनमकाले फलिहकाभ्यन्तरतो वा नानुजानन्ति ततस्तत्र न तिष्ठन्ति । अथाशिवादिभिः कारणैस्तिष्ठन्ति तत उच्चारं प्रश्रवणं वा मात्रकेषु व्युत्सृज्य बहिः परिष्ठापयन्ति । एवमवकाशादिष्वपि द्रष्टव्यम् | नवरमवकाशे यत्र प्रदेशे उपवेशन-भाजनधावनादि नानुज्ञातं तत्र नोपविशन्ति, कमढकादिषु च भाज20 नानि धावन्ति । तृणफलकान्यपि यानि नानुज्ञातानि तानि न परिभुञ्जते । संरक्षणता नाम यत्र तिष्ठतामगारिणो भणन्ति ' गवादिभिर्भज्यमानां वसतिमन्यद्वा समीपवर्त्ति गृहं संरक्षत' तत्राप्यशिवादिभिः कारणैस्तिष्ठन्तो भणन्ति - यदि वयं तदानीं द्रक्ष्यामस्ततो रक्षिप्याम इति । संस्थापनता नाम वसतेः संस्कारकरणं तस्यामपि नियुक्ता भणन्ति वयमकुशलाः संस्थापना कर्मणि कर्त्तव्ये । सप्राभृतिकायामपि वसतौ कारणतः स्थिता देशतः सर्वतो वा क्रियमाणायां प्राभृति25 कायां खकीयमुपकरणं प्रयलेन संरक्षन्ति, यावत् प्राभृतिका क्रियते तावदेकस्मिन् पार्श्वे तिष्ठन्ति । सदीपायां सामिकायां वा वसतौ कारणे स्थिता आवश्यकं वहिः कुर्वन्ति । अवधानं नाम यदि गृहस्थाः क्षेत्रादिषु गच्छन्तो भणन्ति - 'अस्माकमपि गृहेषूपयोगो दातव्यः मा शुनक- स्तेनकादयः प्रविश्योपद्रवं कार्षुः' इति, तत्रापि कारणे स्थिताः स्वयमेवावधानं ददति, अनुपस्थापितरौ - क्षैर्वा दापयन्ति । यत्र च 'कति जना वत्स्यथ ?' इति पृष्टे सति कारणतस्तिष्ठद्भिः परिमाणनि30 यमः कृतो यथा 'एतावद्भिः स्थातव्यं नाधिकैः' ततो यद्यन्ये प्राघूर्णकाः समागच्छन्ति तदा तेषामवस्थापनाय भूयोऽप्यनुज्ञापनीयः सागारिकः, यद्यनुजानाति ततः सुन्दरमेव, अथ नानुजा १ नत्वादिकं किमपि कारणं व्याघातो वा प्रथमे स्थण्डिले कोऽपि भवेत् ततः 'शेषा' भा० ॥ २ 'यमनुपस्थापितादिभिर्वा अवधानं ददति दापयन्ति वा । यत्र भा० ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 माष्यगाथाः १६३१-३७] प्रथम उद्देशः । ४७९ नाति ततोऽन्यस्यां वसतौ स्थापनीमास्ते. प्राघूर्णका इति ॥ १६३२ ॥ भिक्षाचर्यादीनामवशिप्यमाणद्वाराणां विशेषमाह नियताऽनियता मिक्खायरिया पाणऽन लेवलेवाडं । __ अंबिलमणंबिलं वा, पडिमा सव्वा वि अविरुद्धा ॥ १६३३ ॥ भिक्षाचर्या 'नियता' कदाचिदाभिग्रहिकी 'अनियता' कदाचिदनाभिग्रहिकी, असंसृष्टा-संस-5 टाद्यन्यतमैषणाभिग्रहवती तद्वर्जिता वेति भावः । पानमन्नं च लेपकृतं वा भवेद् अलेपकृतं वा । द्राक्षा-चिच्चापानकादि तक तीमनादिकं च लेपकृतम् , सौवीरादिकं वल्ल-चणकादिकं चालेपकृतम् । आचाम्लमनाचाम्लं वा द्वयमपि कुर्वन्ति । 'प्रतिमाश्च' मासिक्यादिका भद्रादिका वा सर्वा अप्यमीषामविरुद्धा इति ॥ १६३३ ॥ उक्तं सामाचारीद्वारम् । अथ स्थितिद्वारमभिधित्सुरिगाथाद्वयमाह खित्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए। कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अमिगहा य ॥ १६३४ ॥ पवावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने उ नत्थि पच्छिचं । कारण पडिकम्मम्मि उ, भत्तं पंथो य भयणाए ॥ १६३५ ॥ क्षेत्र १ काले २ चारित्रे ३ तीर्थे ४ पर्याये ५ आगमे ६ वेदे ७ कल्पे ८ लिङ्गे ९ लेश्यायां 15 १० ध्याने ११ गणनायां १२ एतेषु स्थितिर्वक्तव्या, अभिग्रहाश्वामीषामभिधातव्याः १३ ॥ १६३४ ॥ एवं प्रबाजना १४ मुण्डापना १५ मनसाऽऽपन्ने त्वपराधे नास्ति प्रायश्चित्तं १६ कारणं १७ प्रतिकर्मणि च स्थितिः १८ भक्तं पन्थाश्च भजनया १९ इति गाथाद्वयसमुदायार्थः ॥ १६३५ ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं विभणिषुराह पन्नरसकम्मभूमिसु, खेत्तद्धोसप्पिणीइ तिसु होला। तिसु दोसु य उस्सप्पे, चउरो पलिभाग साहरणे ॥ १६३६ ॥ क्षेत्रद्वारे जन्मतः सद्भावतश्च स्थविरकल्पिकाः ‘पञ्चदशस्वपि कर्मभूमिषु' भरतैरावत-विदेहपञ्चकलक्षणासु भवन्ति । संहरणतः पञ्चदशानां कर्मभूमीनां त्रिंशतामकर्मभूमीनामन्यतरस्यां भूमौ भवेयुः । 'अद्धा' कालम्तमङ्गीकृत्यावसर्पिण्यां जन्मतः सद्भावतश्च 'त्रिषु' तृतीय-चतुर्थ-पञ्चमारकेषु भवेयुः । “तिसु दोसु य उम्सप्पे" ति उत्सर्पिण्यां जन्मतः 'त्रिषु' द्वितीय-तृतीय-चतुर्थेप्वर- 25 केषु सद्भावतस्तु 'द्वयोः' तृतीय-चतुर्थारकयोर्भवन्ति । नोअवसर्पिण्युत्सर्पिणीकाले जन्मतः सद्भावतश्च दुःषममुषमाप्रतिभागे भवन्ति, संहरणतस्तु चत्वारोऽपि प्रतिभागा अमीषां विषयतया प्रतिपत्तव्याः, तद्यथा-सुषमसुषमाप्रतिभागः सुषमाप्रतिभागः सुषमदुःषमाप्रतिभागः दुःषमसुषमाप्रतिभागश्चेति ॥ १६३६ ॥ पढम-बिइएसु पडिवजमाण इयरे उ सव्वचरणेसु । 30 नियमा तित्थे जम्मऽट्ट जहन्ने कोडि उक्कोसे ॥१६३७ ।। पव्वजाएँ मुहुत्तो, जहनमुक्कोसिया उ देसूणा । १ यादिभिरेषणाभिरप्रतिनियतेति भावः भा० ॥ २ जणा उतरे ता० ॥ 20 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या ध्यानयो विशेषः भावलेइया ४८० सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ आगमकरणे भइया, ठियकप्पे अट्ठिए वा वि ।। १६३८ ॥ प्रतिपद्यमानका अमी प्रथमे वा - सामायिकाख्ये द्वितीये वा छेदोपस्थापनीयाख्ये चारित्रे भवेयुः । 'इतरे नाम' पूर्वप्रतिपन्नास्ते सर्वेष्वपि चरणेषु भवन्ति, सामायिकादिषु यथाख्यातपर्यन्तेष्विति भावः । तथा नियमादमी तीर्थे भवन्ति नातीर्थे । पर्यायो द्विधा - गृहिपर्यायः प्रव्रज्यापर्या5 यश्च । तंत्र गृहिपर्यायो जघन्यतो जन्मत आरभ्याष्टौ वर्षाणि, उत्कर्षतः पूर्वकोटी । प्रत्रज्यापर्यायो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तम्, तदनन्तरं मरणात् प्रतिपाताद्वा, उत्कर्षतस्तु देशोना पूर्वकोटी । आगमः - अपूर्व श्रुताध्ययनं तस्य करणे 'भाज्याः' अमी कुर्वन्ति वा न वा तमिति भावः । कल्पद्वारे -- स्थितकल्पे वा अस्थितकल्पे वा भवेयुः । वेदद्वारं सुज्ञानत्वाद् भाष्यकृता न भावितम् । इत्थं तु द्रष्टव्यम्—वेदः स्त्री-पुं- नपुंसकभेदात् त्रिविधोऽप्यमीषां प्रतिपत्तिकाले भवेत्, पूर्व10 प्रतिपन्नकानां त्ववेदकत्वमपि भवतीति ॥ १६३७ ।। १६३८ ॥ 25 भइया उदव्वलिंगे, पडिवत्ती सुद्धलेस-धम्मेहिं । पुव्व पडिवनगा पुण, लेसा झाणे अ अन्नयरे ॥। १६३९ ।। प्रतिपद्यमानकाः पूर्वप्रतिपन्नकाश्च द्रव्यलिङ्गे 'भक्ताः' विकल्पिताः, कदाचित् तद् न भवत्यपीति भावः । भावलिङ्गं तु नियमात् सर्वदैव भवैति । तथा प्रतिपत्तिः शुद्धलेश्या - धर्मध्यानयो15 र्भवेत् । किमुक्तं भवति ? - प्रथमतः प्रतिपद्यमानकाः शुद्धाखेव तिसृषु लेश्यासु आज्ञाविच - यादौ च धर्मध्याने वर्त्तमानाः प्रतिपत्तव्याः । पूर्वप्रतिपन्नकाः पुनः षण्णां लेश्यानामन्यतरस्यां लेश्यायामार्त्तादीनां च चतुर्णां ध्यानानामन्यतरस्मिन् ध्याने भवेयुः ॥ १६३९ ॥ -अथ लेश्या ध्यानयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते—लिश्यते-रिलप्यते कर्मणा सह यया जीवः सा लेश्या - कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनितो जीवस्य शुभाशुभरूपः परिणामविशेषः । उक्तञ्च - कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्त्तते ॥ 20 स च चलो वा स्यादचलो वा । ध्यानं पुनर्निश्चल एवाशुभ: शुभो वा आत्मनः परिणामः । तथा चाह झाणेण होइ लेसा, झाणंतरओ व होड़ अन्नयरी | अझवसाओ उदढो, झाणं असुभो सुभो वा वि ।। १६४० ।। लेईया द्विविधा - द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यलेश्यामुपरिष्टाद् वक्ष्यति । भावलेश्या त्वनन्तरोक्त एव शुभाशुभरूपो जीवपरिणामः । सा चैवंविधा शुभाशुभपरिणामरूपा कृष्णादीनामन्यतमा १ “गिहत्थपरियागो जहन्नेणं अट्ठ सायरेगाई वासाई, उक्कोसेणं सायरेगा पुण्वकोडी” इति विशेषचूर्णो ॥ २ त्, किमुक्तं भवति ? - पूर्व त० डे० ॥ ३ 'भाज्या: ' विकल्पनीयाः, कदा० भा० ॥ ४ वति । लेश्याद्वारे ध्यानद्वारे च चिन्त्यमाने प्रतिपत्तिः भा० ॥ ५ अत एवाह भा० ॥ ६ लेश्या द्विविधा - द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यलेश्यामुपरिष्टाद् वक्ष्यति । भावलेश्या त्वनन्तरोक्त एवात्मनो मानसिकः परिणामः, स च मानसध्यानादनन्य इति कृत्वाऽभिधीयते । 'ध्यानेन' आर्त्तादिना करणभूतेन 'लेश्या' कृष्णादिका भवति, यदा यादृशं प्रश Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १६३८-४१] प्रथम उद्देशः । ४८२ "लेस" ति भावलेश्या ध्यानेन वा भवति ध्यानान्तरतो वा । ध्यानान्तरं नाम-अहढाध्यवसाय ध्यानान्त. रिका रूपा चिन्ता, यद्वा ध्यानस्य ध्यानस्य चान्तरिका ध्यानान्तरमुच्यते । ध्यानं पुनः 'दृढः' निश्चलोऽध्यवसायोऽशुभो वा शुभो वा मन्तव्यम् । स च निश्चलोऽध्यवसायो मानसो वाचिकः ध्यानम् कायिकश्चेति त्रिधा द्रष्टव्यः । दृढश्चाध्यवसायोऽन्तर्मुहूर्तमात्रमेव कालं यावद् द्रष्टव्यः, परतो निरन्तरं दृढाध्यवसायस्य कर्तुमशक्यत्वात् । यश्चादृढोऽध्यवसायः स सर्वोऽपि चिन्तेत्यभिधीयते : चिन्ता ॥ १६४० ॥ आह यद्येवं तर्हि चिन्ता-ध्यानयोरन्यत्वमापन्नम् ? उच्यते-नायमेकान्तः किन्तु स्यादेकत्वं स्यादन्यत्वम् । कथं पुनः ? इति उच्यतेझाणं नियमा चिंता, चिंता भइया उ ती ठाणेसु ।। चिन्ताया झाणे तदंतरम्मि उ, तबिवरीया व जा काइ ॥१६४१॥ ध्यानस्य यद् मनःस्थैर्यरूपं ध्यानं तद् नियमात् चिन्ता । चिन्ता तु 'भक्ता' विकल्पिता त्रिपु स्थानेषु । 10 च विशे तथाहि-कदाचिद् 'ध्याने' ध्यानविषया चिन्ता भवति यदा दृढाध्यवसायेन चिन्तयति । "तदंतरम्मि उ" ति तस्य-ध्यानस्यान्तरं तदन्तरं तस्मिन् वा चिन्ता भवेत् , ध्यानान्तरिकायामित्यर्थः । 'तद्विपरीता वा' या काचिद् ध्याने ध्यानान्तरिकायां वा नावतरति किन्तु विप्रकीर्णा स्तमप्रशस्तं वा ध्यानं भवति तदा तागेव प्रशस्ता अप्रशस्ता वा लेश्याऽपीति भावः । "झाणंतरतो व" त्ति ध्यानान्तरम्-अदृढाध्यवसायरूपं चित्तं यद्वा ध्यानस्य ध्यानस्य चान्तरिका ध्यानान्तरमुच्यते, तत्र वा वर्तमानस्य पण्णां लेश्यानामन्यतरा लेश्या भवति । अथ ध्यानमिति कोऽर्थः ? इत्याह-अध्यवसायः 'दृढः' निश्चलोऽशुभो वा शुभो वा ध्यानमिति मन्तव्यम्। दृढश्चाध्यवसायाऽन्तमुहूत्तमात्रमेव काल यावदद्रष्टव्यः, परता निरन्तरं दृढाध्यवसायस्य कर्तुमशक्यत्वात् । यश्चाढोऽध्यवसायः स सर्वोऽपि चिन्तेत्यभिधीयते न तु ध्यानम् ॥ १६४० ॥ आह यद्येवं तर्हि चिन्ता-ध्यानयोरन्यत्वमुपपन्नम् ? उच्यते-नायमेकान्तः किन्तु स्यादेकत्वं स्यादन्यत्वम् । कथं पुनः? इति उच्यते भा० । कृष्णादीनामन्यतरा लेश्या ध्यानेन वा भवेद् ध्यानान्तरतो वा । ध्यानान्तरं नाम अदृढाध्यवसायरूपा चिन्ता, यद्वा ध्यानस्य ध्यानस्य चान्तरिका ध्यानान्तरमुच्यते । ध्यानं पुनः 'दृढः' निश्चलोऽध्यवसायोऽशुभो वा शुभो वा मन्तव्यम् । दृढश्चाध्यवसायोऽन्तमुहूर्त्तमात्रमेव कालं यावद् द्रष्टव्यः, परतो निरन्तरं दृढाध्यवसायस्य कर्तुमशक्यत्वात् ॥ १६४०॥ आह यद्येवं तर्हि चिन्ता-ध्यानयोरन्यत्वमापनम् ? उच्यते-नायमेकान्तः किन्तु स्यादेकत्वं स्यादन्यत्वम् । कथं पुनः ? इति उच्यते त० डे० कां। ___ "लेश्या-ध्यानयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते-लेश्या द्विविधा-द्रव्यलेश्या भावलेश्या च । तत्र द्रव्यलेश्यामुपरिष्टाद् वक्ष्यति । भावलेश्या मनोयोगोपयोगः । तस्या ध्यानादनन्यलज्ञापनार्थमिदमुच्यते-झाणेण. गाधा। यस्माद मानसध्यानादनन्यो मनोयोगः अतः सिद्धं ध्यानेनैव लेश्या भवति । 'झाणंतरयो व' त्ति ध्यानादन्यद् ध्यानान्तरम्-अध्यानम् , अढाध्यवसाय इत्यर्थः । अथवा ध्यानस्य चान्तरिकायां वर्तमानस्य षण्णामन्यतमा लेश्या प्रत्येतव्या । ध्यानस्य पुनर्लक्षणं दृढोऽध्यवसायः आमुहूर्तात् , परतो निरन्तरं दृढोऽध्यवसायो न शक्यते कर्तुम् । अतः सत्यपि मनोयोगे चिन्तेत्युच्यते, न तु ध्यानम् ॥ आह एवं तर्हि चिन्ताध्यानयोरन्यवमुपपन्नम् ? उच्यते-नायमेकान्तर, स्मादेकलम् स्यादन्यत्वम् । कथं पुनः? उच्यते” इति यूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ...: १ 'भाज्या' विकल्पनीया त्रिषु भा० ॥ २ °द मनश्चेष्टा साऽपि चिन्ता । किमुक्तं भ' वति ?-या ध्याने भा० ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानान्त 15 ४८२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ चित्तचेष्टा साऽपि चिन्ता प्रतिपत्तव्या । अतो यदा दृढाध्यवसायेन चिन्तयति तदा चिन्ता ध्यानयोरेकत्वम् , अन्यदा पुनरन्यत्वम् ।। १६४१ ॥ अथ ध्यानस्यैव भेदानाहध्यानस्य कायादि तिहिकिकं, चित्तं तिव्य मउयं च मझं च । भेदाः जह सीहस्स गतीओ, मंदा य पुता दुया चेव ॥ १६४२ ॥ 5 तत् पुनढाध्यवसायात्मकं चित्तं त्रिधा-कायिकं वाचिकं मानसिकं च । कायिकं नाम यत् कायव्यापारेण व्याक्षेपान्तरं परिहरन्नुपयुक्तो भङ्गकचारणिकां करोति, कूर्मवद्वा संलीनाङ्गोपाङ्गस्तिष्ठति । वाचिकं तु 'मयेदृशी निरवद्या भाषा भाषितव्या, नेदृशी सावद्या' इति विमर्शपुरस्सरं यद् भाषते, यद्वा विकथादिव्युदासेन श्रुतपरावर्तनादिकमुपयुक्तः करोति तद् वाचिकम् । मानसं त्वेकस्मिन् वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता । पुनरेकैकं त्रिविधम्-तीनं मृदुकं च मध्यं च । तत्र तीव्रम्10 उत्कटम् , मृदुकं च-मन्दम् , मध्यं च-नातितीवं नातिमृदुकमित्यर्थः । यथा सिंहस्य गतय. स्तिस्रो भवन्ति । तद्यथा-मन्दा च प्लुता च द्रुता चैव । तत्र मन्दा-विलम्बिता, प्लुता-नातिमन्दा नातित्वरिता, द्रुता च-अतिशीघ्रवेगा ॥ १६४२ ॥ स्याद् बुद्धिः केयं पुनानान्तरिका ? इति उच्यते अनतरझाणऽतीतो, बिइयं झाणं तु सो असंपत्तो । रिका ___ झाणंतरम्मि बट्टइ, विपहे व विकुंचियमईओ ॥ १६४३ ॥ अन्यतरस्माद्-द्रव्याद्यन्यतरवस्तुविषयाद् ध्यानादतीतः-अतिक्रान्तो यः कश्चिदद्यापि द्वितीयं ध्यानं न सम्प्रामोति स द्वितीयं ध्यानमसम्प्राप्तः सन् यद् ध्यानान्तरे वर्तते सा ध्यानान्तरिका भवतीति शेषः । इयमत्र भावना-द्रव्यादीनामन्यतमं ध्यातवतो यदा चित्तमुत्पद्यते 'सम्प्रति शेषाणां ध्यातव्यानां कतरद् ध्यायामि ?' इत्येवंविधो विमों ध्यानान्तरिकेत्युच्यते । दृष्टा20 न्तोऽत्र “बिपहे व विकुंचियमतीउ" ति द्विपथं–मार्गद्वयस्थानम् , ततो यथा कैश्चिदेकेन पथा गच्छन् पुरस्ताद् 'द्विपथे' मार्गद्वये दृष्टे सति 'विकुञ्चितमतिकः' 'अनयोर्मार्गयोः कतरेण व्रजामि ?' इति विमर्शाकुलबुद्धिः सन्नपान्तराले वर्तते, एवमेषोऽपि ध्यानान्तरे इति ॥१६४३॥ अथ शुभाशुभध्यानज्ञापनार्थमिदमाहद्रव्यलेश्या वण्ण-रस-गंध-फासा, इटाणिवा विभासिया सुत्ते । [आ.नि. ७७] 25 अहिकिच्च दबलेसा, ताहि उ साहिजई भावो ॥ १६४४ ॥ __ 'सूत्रे' प्रज्ञापनादौ कृष्णादीनां लेश्यानां यद् वर्ण-गन्ध-रस-म्पर्शा इष्टा अनिष्टाश्च 'विभाषिताः' विविधम्-अनेकैरुपमानैर्वर्णिताः । तत्र वर्णवर्णना यथा १ झाणंतरं असं ता० ॥ २ द्रव्य-क्षेत्रादीनामन्यतरस्य वस्तुनो यद् ध्यानम्-एकाग्रचिन्तनलक्षणं तस्मादतीतः-अतिक्रान्तः समापितप्रस्तुतध्यान इति भावः स द्वितीयं भ्यानमसम्प्राप्तः सन् ध्यानान्तरिकायां वर्तते । इय° भा० ॥ ३ केनचिदेकेन पथा गच्छता पुरस्ताद् ग्रामद्वयस्य द्वौ पन्थानौ दृष्टौ ततः स विकुञ्चितमतिरुपजायते, विकुश्चिता-विमर्शन मुकुलिता मतिरस्येति विकुञ्चितमतिः, 'अनयोर्गियो कतरेण वजामि?' इत्येवं दोलायमानमतिरित्यर्थः ॥ १६४३ ॥ भा० ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः १६४२-४६] . प्रथम उद्दशः । कण्हलेसा णं भंते ! केरिसिया वण्णेणं पन्नत्ता ? से जहानामए जीमूते इ वा अंजणे इ वा कजले इ वा गवले इ वा गवलवलए इ वा जंबूफले इ वा अद्दायरेट्टए इ वा परपुढे इ वा भमरे इ वा भमरावली इ वा गयकलभे इ वा किण्हकेसरे इ वा आगासथिग्गले इ वा किहासोए इ वा किण्हकणवीरे इ वा किण्हबंधुजीवए इ वा भवे एयारूवे ? गोयमा ! नो इणट्टे समझे, कण्हलेसा णं इत्तो अणिट्ठतरिया चेव वण्णेणं पन्नत्ता समणाउसो ! ( प्रज्ञापनोपाङ्गे पदम् १७७ उद्देशः ४ पत्र ३६०-२) इत्यादि । रसवर्णना यथा कण्हलेसा णं भंते ! केरिसिया आसाएणं पन्नत्ता ? से जहानामए निंबे इ वा निंबरए इ वा निंबछल्ली इ वा निंबफाणिए इ वा कुडए इ वा कुडगफलए इ वा (प्रज्ञापनोपाङ्गे पदम् १७ उद्देशः ४ पत्र ३६४-१) इत्यादि । गन्धवर्णना यथा जह गोमडस्स गंधो, सुणगमडस्स व जहा अहिमडम्स । इत्तो वि अणंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ॥ (उत्त० अ० ३४ गा० १६) जह सुरभिकुसुमगंधो, सुगंधवासाण पिम्समाणाणं ।। इत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥ (उत्त० अ० ३४ गा० १७) 15 स्पर्शवर्णना यथा जह करगयम्स फासो, गोजिब्भाए व सागपत्ताणं । एत्तो वि अणंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ।। (उत्त० अ० ३४ गा० १८) जह बूरम्स व फासो, नवणीयम्स व सिरीसकुसुमाणं । इत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥ (उत्त० अ० ३४ गा० १९) 20 तदेतत् सर्वमपि द्रव्यलेश्या अधिकृत्य प्रतिपत्तव्यम् । द्रव्यलेश्या नाम-जीवस्य शुभाशुभपरिणामरूपायां भावलेश्यायां परिणममानस्योपष्टम्भजनकानि कृष्णादीनि पुद्गलद्रव्याणि । 'ताभिश्च' द्रव्यलेश्याभिः 'भावः' शुभाशुभाध्यवसायरूपः साध्यते ॥ १६४४ ॥ इदमेव भावयति पत्तेयं पत्तेयं, वण्णाइगुणा जहोदिया सुत्ते । तारिसओ चिय भावो, लेस्साकाले वि लेस्सीणं ॥ १६४५॥ 25 'प्रत्येकं प्रत्येक' कृष्णादीनां मध्यादेकैकस्या द्रव्यलेश्याया वर्णादयो गुणाः 'यथा' यादृशाः । शुभा अशुभाश्च 'उदिताः' अभिहिताः 'सूत्रे' प्रज्ञापनादौ तादृश एव शुभोऽशुभो वा 'भावः' परिणामो लेश्यिनामपि लेश्याकाले भवति । लेश्या विद्यते येषां ते लेश्यिनः, शिखादेराकृतिगणत्वाद् इन्प्रत्ययः, लेश्यावन्त इत्यर्थः, तेषामिति ॥ १६४५ ।। अथैताभिर्भावलेश्याभिरुपचितस्य कर्मणः कथमुदयो भवति ? इत्याह 30 जं चिजए उ कम्म, जं लेसं परिणयस्स तस्सुदओ। असुभो सुभो व गीतो, अपत्थ-पत्थऽत्र उदओ वा ॥ १६४६ ॥ १'क' एकै मो० ले० विना ।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ४८४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ "ज लेसं" ति सप्तम्यर्थे द्वितीया, ततोऽयमर्थः- 'यस्यां' कृष्णादीनामन्यतमस्यां लेश्यायां परिणतस्य जीवस्य यद् अशुभं शुभं वा 'कर्म' ज्ञानावरणादि चीयते, कर्मकर्त्तर्ययं प्रयोगः, चयं-बन्धमुपगच्छतीत्यर्थः, 'तस्य' एवमशुभरूपतया शुभरूपतया वा बद्धस्य कर्मण उदयावलिकां प्राप्तस्याशुभ: शुभो वा यथानुरूप एवोदयः 'गीतः' संशब्दितस्तीर्थकरैः । दृष्टान्तमाह-- 5 'अपथ्य-पथ्यान्न उदय इव' यथा अपथ्यान्नं भुक्तवतो ज्वरादिरोगद्वारेणापथ्य एवोदयो भवति, पथ्यान्नं तु भुक्तवतः सुखासिकादिद्वारेण पथ्यः । एवं कर्मणोऽपि प्रशस्ता-ऽप्रशस्तलेश्यापरिणामबद्धस्य विपाकः शुभाशुभो भवतीति ॥ १६४६ ॥ - उक्तं सप्रपञ्चं ध्यान-लेश्याद्वारद्वयम् । अथ गणनाद्वारमाह पडिवजमाण भइया, एगो व सहस्ससो व उक्कोसा । कोडिसहस्सपुहत्तं, जहन्न-उक्कोसपडिवन्ना ॥ १६४७ ।। स्थविरकल्पस्य प्रतिपद्यमानकाः 'भाज्याः' विवक्षितकाले भवेयुर्वा न वा । यदि भवेयुस्तत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतो यावत् सहस्रपृथक्त्वम् । पूर्वप्रतिपन्ना जघन्यतोऽपि कोटिसहसपृथक्त्वम् , उत्कर्पतोऽपि कोटिसहस्रपृथक्त्वम् । नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदे विशेषाधिकत्वम् ॥ १६४७॥ गतं गणनाद्वारम् । अथाभिग्रहद्वारं व्याख्यायते-ते च चतुर्दा, तद्यथा 15 द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतस्तावदाहद्रव्याभि लेवडमलेवडं वा, अमुगं दव्वं च अज घिच्छामि । अमुगेण व दव्वेणं, अह दव्याभिग्गहो नाम ॥ १६४८ ॥ 'लेपकृतं' जगारिप्रभृतिकम् 'अलेपकृतं वा' तद्विपरीतं वल्ल-चणकादि 'अमुकं वा' निर्दिष्टनामकं मण्डकादिद्रव्यमहं ग्रहीष्यामि, 'अमुकेन वा' दर्वी-कुन्तादिना दीयमानमहं ग्रहीष्ये, 20 'अथ' अयं 'द्रव्याभिग्रहो नाम' भिक्षाग्रहणादिविषयः प्रतिज्ञाविशेष इति ॥ १६४८ ॥. क्षेत्राभिग्रहमाहक्षेत्राभि - अट्ठ उ गोयरभूमी, एलुगविक्खंभमित्तगहणं च । प्रहः सग्गाम परग्गामे, एवइय घरा य खित्तम्मि ॥ १६४९ ॥ अष्टौ गोचरभूमयो भवन्ति । ताश्चैताः-ऋज्वी १ गत्वाप्रत्यागतिका २ गोमूत्रिका ३ 25 पतङ्गवीथिका ४ पेडा ५ अर्द्धपेडा ६ अभ्यन्तरशम्बूका ७ बहिःशम्बूका ८ च । तत्र. यस्यामेकां दिशमभिगृह्योपाश्रयाद् निर्गतः प्राञ्जलेनैव पथा समश्रेणिव्यवस्थितगृहपतौ भिक्षां परिभ्रमन् तावद् याति यावत् पतौं चरमगृहम् , ततो भिक्षामगृहन्नेवापर्याप्तेऽपि प्रान्जलयैव गत्या प्रतिनिवर्त्तते सा ऋज्वी १ । यत्र पुनरेकस्यां गृहपतौ परिपाट्या भिक्षमाणः क्षेत्रपर्यन्तं गत्वा प्रत्यागच्छन् पुनर्द्वितीयस्यां गृहपतौ भिक्षामटति सा गत्वाप्रत्यागतिका, 'गत्वा प्रत्यागतिर्यस्यां 30 सा गत्वाप्रत्यागतिका' इति व्युत्पत्तेः २ । यस्या तु वामगृहाद् दक्षिणगृहे दक्षिणगृहाच्च वामगृहे भिक्षां पर्यटति सा गो:-बलीवर्दस्य मूत्रणं गोमूत्रिका, उपचारात् तदाकारा गोचरभूमिरपि गोमूत्रिका ३ । यस्यां तु त्रिचतुरादीनि गृहाणि विमुच्याग्रतः पर्यटति सा पतङ्गवीथिका, पतङ्गः १ सा गोमूत्राकारत्वाद् गोचर' त० डे० का० ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 माप्यगाथाः १६४७-५२] प्रथम उद्देशः । शलभस्तस्येव या वीथिका-पर्यटनमार्गः सा पतङ्गवीथिका, पतङ्गो हि गच्छन्नुत्प्लुत्योत्प्लुत्यानियतया गत्या गच्छति एवं गोचरभूमिरपि या पतङ्गोड्डयनाकारा सा पतङ्गवीथिकेति भावः ४ । यस्यां तु साधुः क्षेत्रं पेटावत् चतुरस्र विभज्य मध्यवर्तीनि च गृहाणि मुक्त्वा चतसृप्वपि दिक्षु सम. श्रेण्या भिक्षामटति सा पेटा ५ । अर्द्धपेटाऽप्येवमेव, नवरमर्द्धपेटासशसंस्थानयोर्दिगद्वयसम्बद्धयोर्गृहश्रेण्योरत्र पर्यटति ६ । तथा शम्बूकः-शङ्खः तद्वद् या वीथिः सा शम्बूका । सा द्वेधा-3 अभ्यन्तरशम्बूका बहिःशम्बूका च । यस्यां क्षेत्रमध्यभागात् शङ्खवद् वृत्तया परिभ्रमणभङ्गया भिक्षां गृह्णन् क्षेत्रबहिर्भागमागच्छति सा अभ्यन्तरशम्बूका ७ । यस्यां तु क्षेत्रबहिर्भागात् तथैव भिक्षामटन मध्यभागमायाति सा बहिःशम्बूका ८ । .. आह च खोपज्ञपञ्चवस्तुकटीकायां श्रीहरिभद्रसूरिः अभितरसंबुक्का वाहिसंबुक्का . य संखनाहिखेत्तोवमा । एगीए अंतो आढवइ बाहिरतो 10 .. संनियट्टइ, इयरीए विवजओ त्ति (गा० २९९)। __ तथा “एलुगविक्खंभमित्तगहणं च" त्ति एलुकः-उदुम्बरस्तस्य विष्कम्भः-आक्रमणं तन्मात्रेण मया ग्रहणं कर्त्तव्यमिति कस्याप्यभिग्रहो भवति, यथा भगवतः श्रीमन्महावीरस्वामिनः । तथा खग्रामे वा परग्रामे वा एतावन्ति गृहाणि मया प्रवेष्टव्यानीत्येषः 'क्षेत्रे' क्षेत्रविषयोऽभिग्रहः ॥ १६४९ ॥ कालाभिग्रहमाहकाले अभिग्गहो पुण, आई मज्झे तहेव अवसाणे । कालाभिअप्पत्ते सइ काले, आई विइओ अ चरिमम्मि ॥ १६५०॥ प्रहः 'काले' कालविषयोऽभिग्रहः पुनरयम् -आदौ मध्ये तथैवावसाने भिक्षावेलायाः । एतदेव व्याचष्टे-अप्राप्ते भिक्षाकाले यत् पर्यटति सः 'आदौ' इति आद्यभिक्षाकालविषयः प्रथमोऽभिग्रहः । यत्तु 'संति' प्राप्ते भिक्षाकाले चरति स द्वितीयो मध्यभिक्षाकालविषयोऽभिग्रहः । यत् 20 पुनः 'चरिमे' अतिक्रान्ते भिक्षाकाले पर्यटति सोऽवसानविषयोऽभिग्रहः ॥ १६५० ॥ कालत्रयेऽपि गुण-दोषानाह दिंतग-पडिच्छगाणं, हविज सुहमं पि मा हु अचियत्तं । इअ अप्पत्ते अइए, पवत्तणं मा ततो मझे ॥ १६५१ ॥ __ 'ददत्-प्रतीच्छकयोः' इति भिक्षादातुरगारिणो भिक्षाप्रतीच्छकस्य च वनीपकादेर्मा भूत् । सूक्ष्ममपि 'अचियत्तम्' अप्रीतिकं 'इति' अस्माद्धेतोरप्राप्तेऽतीते च भिक्षाकालेऽटनं [न] श्रेय इति गम्यते । “पवत्तणं मा ततो मज्झे" त्ति अप्राप्तेऽतीते वा पर्यटतः प्रवर्त्तनं पुरःकर्म-पश्चात्कर्मादेर्मा भूत् 'ततः' एतेन हेतुना 'मध्ये' प्राप्ते भिक्षाकाले पर्यटति ॥१६५१॥ अथ भावाभिग्रहमाहउक्खित्तमाइचरगा, भावजुया खलु अभिग्गहा होति । भावाभिगायंतो व रुदंतो, जं देइ निसन्नमादी वा ॥ १६५२ ॥ 3)प्रहः १°धुरभिग्रहविशेषाद् ग्रामादिक्षेत्रं पेटा भा० ॥ २ तद्वत् शङ्खभूमिवद् या भा० ॥ ३ “संखनाहिवित्तोवमा" इति पञ्चवस्तुकटीकायाम् ॥ ४°इति प्रथ° मो. ले० विना ॥ ५ यस्तु त० डे० कां० ॥ ६ 'सति' विद्यमाने प्राप्ते भा०॥ ७°ध्यविष त. डे. का० ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ४८६ सनियुक्ति-लघुभाम्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ उत्क्षिप्त-पाकपिठरात् पूर्वमेव दायकेनोद्धृतं तद् ये चरन्ति-गवेषयन्ति ते उत्क्षिप्तचरकाः, आदिशब्दाद् निक्षिप्तचरकाः सङ्ख्यादत्तिका दृष्टलाभिकाः पृष्टलाभिका इत्यादयो गृह्यन्ते । त एते गुण-गुणिनोः कथञ्चिदभेदाद् भावयुताः खल्वभिग्रहा भवन्ति, भावाभिग्रहा इति भावः । यद्वा गायन् यदि दास्यति तदा मया ग्रहीतव्यम् , एवं रुदन् वा निषण्णादिर्वा, आदिग्रहणादुत्थितः 5 सम्पस्थितश्च यद् ददाति तद्विषयो योऽभिग्रहः स सर्वोऽपि भावाभिग्रह उच्यते॥१६५२॥ तथा ओसक्कण अहिमकण, परम्मुहाऽलंकिएयरो वा वि । भावन्नयरेण जुओ, अह भावाभिग्गहो नाम ॥ १६५३ ॥ 'अवप्वप्कन्' अपसरणं कुर्वन् 'अभिप्वप्कन्' सम्मुखमागच्छन् 'पराङ्मुखः' प्रतीतः, अलकृतः कटक-केयूरादिभिः, 'इतरो वा' अनलङ्कृतः पुरुषो यदि दास्यति तदा मया ग्राह्यमिति । 10 एतेषां भावानामन्यतरेण भावेन युतः 'अथ' अयं भावाभिग्रहो नामेति । एते च द्रव्यादयश्चतुर्विधा अप्यभिग्रहास्तीर्थकरैरपि यथायोगमाचीर्णत्वाद् मोह-मदापनयनप्रत्यलत्वाच्च गच्छवासिनां तथाविधसहिष्णुपुरुषविशेषापेक्षया महत्याः कर्मनिर्जराया निबन्धनं प्रतिपत्तव्या इति ।। १६५३ ॥ अथ प्रजाजना-मुण्डापनाद्वारे भावयति सच्चित्तदवियकप्पं, छव्विहमवि आयरंति थेरा उ । कारणओ असहू वा, उवएसं दिति अनत्थ ॥१६५४॥ प्रव्राजना-मुण्डापनाभ्यामुपलक्षणत्वात् षड्विधोऽपि सञ्चित्तद्रव्यकल्पो गृहीतः । तद्यथाप्रव्राजना १ मुण्डापना २ शिक्षापना ३ उपस्थापना ४ सम्भुञ्जना ५ संवासना ६ चेति । तमेवंविधं षविधमपि सच्चित्तद्रव्यकल्पमाचरन्ति 'स्थविराः' गच्छवासिनः । "कारणओ" ति तथाविधैरनाभाव्यतादिभिः कारणैः 'असहिष्णवो वा' स्वयं वस्त्र-पात्रादिभिर्ज्ञानादिभिश्च शिष्याणां 20 सङ्ग्रहोपग्रहो कर्तुमसमर्था उपदेशम् 'अन्यत्र' गच्छान्तरे 'ददति' प्रयच्छन्ति, अमुकत्र गच्छे संविमगीतार्था आचार्याः सन्ति तेषां समीपे भवता दीक्षा प्रतिपत्तव्येति ॥ १६५४ ।। अथ "मनसाऽऽपन्ने नास्ति प्रायश्चित्तम्" (गा० १६३५) इति पदं व्याख्यानयति जीवो पमायबहुलो, पडिवक्खे दुक्करं ठवेउं जे । [आ.व नि.८०२] केत्तियमित्तं वोज्झिति, पच्छित्तं दुग्गयरिणी वा ॥ १६५५ ॥ 25 अयं 'जीवः' प्राणी 'प्रमादबहुलः' अनादिभवाभ्यस्तप्रमादभावनाभावितः, ततः 'प्रतिपक्षे' अप्रमादे स्थापयितुं दुष्करं भवति, दुःखेन अप्रमादभावनायां स्थाप्यत इत्यर्थः । “जे" इति निपातः पादपूरणे । अतो 'दुर्गतऋणिक इव' दरिद्राधमर्ण इव अतिप्रभूतं ऋणं अतिचपलचित्तसम्भवापराधवशादयं प्रमादबहुलो जीवः पदे पदे समापद्यमानं कियन्मानं प्रायश्चित्तं 'वक्ष्यति' १ एते सर्वेऽपि भाव भा० ॥ २ 'कारणतः' तथा भा० ॥ ३ °ल' स्वभावत एवाना भा० ॥ ४ यतश्चैवमतः कियन्मात्रमसौ प्रायश्चित्तं वक्ष्यति 'दुर्गतऋणिक इव' दरिद्रधारणिक इव ? । यथा हि निर्द्रव्यत्वादसौ कियन्मात्रमिव ऋणं निर्वाहयितुमीशः? तथाऽयमपि जीवः प्रमादबहुलतया पदे पदे समापद्यमानं कियदिव प्रायश्चित्तं निर्वाहपितुमीथे ? इति मनसाऽऽपस्याप्यपराधस्य नास्ति प्रायश्चित्तं स्थविरकल्पिकानाम् ॥१६५५॥ भा० ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः १६५३-५९] प्रथम उद्देशः । ४८७ वोढुं शक्ष्यति ? इति मनसाऽऽपन्नेऽप्यपराधे नास्ति तपःप्रायश्चित्तं स्थविरकल्पिकानाम् , आलोचना-प्रतिक्रमणप्रायश्चित्ते तु तत्रापि भवत इति मन्तव्यम् ॥ १६५५ ॥ ___ अथ "कारणे पडिकम्मम्मि य” (गा० १६३५)त्ति पदं व्याख्यायते-कारणम्-अशिवाऽवमौदर्यादिकं तत्रोत्पन्ने द्वितीयपदमप्यासेवन्ते । तथा निष्कारणे निष्प्रतिकर्मशरीराः । कारणे तु ग्लानमाचार्य वादिनं धर्मकथिकं च प्रतीत्य पादधावन-मुखमार्जन-शरीरसम्बाधनादिकरणात्। सप्रतिकर्माण इति । "भत्तं पंथो य भयणाए" ति भक्तं पन्थाश्च भजनया । किमुक्तं भवति ?-- उत्सर्गतस्ताक्त् तृतीयपौरुप्यां भिक्षाटनं विहारं च कुर्वन्ति, अपवादतस्तु तदानी भिक्षाया अलाभे काले वाऽपूर्यमाणे शेषास्वपि पौरुषीविति । गतं स्थितिद्वारम् । अथोपसंहरन्नाह- . गच्छम्मि उ एस विही, नायव्यो होइ आणुपुचीए । जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ १६५६ ॥ 'गच्छे' गच्छवासिनां 'एषः' अनन्तरोक्तो विधिर्ज्ञातव्यः ‘आनुपूर्व्या' परिपाट्या । यत् पुनरत्र 'नानात्वं' विशेषस्तदहं वक्ष्ये समासेन ॥ १६५६ ॥ एतदेव सविशेषमाहसामायारी पुणरवि, तेसि इमा होइ गच्छवासीणं । गच्छवासिपडिसेहो व जिणाणं, जं जुजइ वा तगं वोच्छं ॥ १६५७ ॥ नां सामा चारी सामाचारी पुनरपि तेषां गच्छवासिनां मासकल्पेन विहरताम् ‘एषा' वक्ष्यमाणा भवति । 15 'जिनानां' जिनकल्पिकानामस्या एव सामाचार्याः प्रतिषेधो वा वक्तव्यः । 'यद् वा' प्रत्युपेक्षणादिकं तेषामपि युज्यते तकमपि वक्ष्ये ॥ १६५७ ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयन् द्वारगाथाद्वयमाह पडिलेहण निक्खमणे, पाहुडिया भिक्ख कप्पकरणे य । गच्छ सतिए अ कप्पे, अंबिल भरिए य ऊसित्ते ॥ १६५८ ॥ परिहरणा अणुजाणे, पुरकम्मे खलु तहेव गेलने। गच्छपडिबद्धहालंदि उवरि दोसा य अववादे ॥ १६५९ ॥ प्रथमतः प्रत्युपेक्षणा वक्तव्या । ततो 'निष्क्रमणं' कति वारा उपाश्रयाद् निर्गन्तव्यमिति, प्राभृतिका सूक्ष्म-बादरभेदाद् द्विविधा, 'भिक्षा' गोचरचर्या, 'कल्पकरणं च' भाजनस्य धावनविधिलक्षणमित्येतानि वक्तव्यानि । “गच्छ सइए" ति शतिकाः-शतसङ्ख्यपुरुषपरिमाणा ये गच्छास्तेषु प्रभूतेन पानकेन प्रयोजनं भवेत् , तच्च "कप्पे अंबिल" ति 'कल्प्यं' कल्पनीयम् 25 'अम्लं च' सौवीरं ग्रहीतव्यम् , अनेन सम्बन्धेन सौवीरिणीसप्तकमभिधानीयम् । “भरिए य" ति तस्याः सौवीरिण्याः सप्तविधं भरणं वाच्यम् । “ऊसित्ति" ति उत्सेचनमुत्सितं-सौवीरस्योलिम्चनमित्यर्थः तत्खरूपं च निरूपणीयम् ॥ १६५८ ॥ "परिहरण" त्ति नोदकः प्रश्नयिष्यति—यदि साम्प्रतं शतिकेष्वपि गच्छेष्वित्थमाधाकर्मादयो दोषा उद्भवन्ति ततः पूर्व साहस्रेषु गच्छेषु साधवः कथमाधाकर्मादीनां परिहरणं कृत-30 चन्तः ? इति । अत्राऽऽचार्यः प्रतिवक्ष्यति- 'अनुयानं' रथयात्रा उपलक्षणत्वात् मात्रादेरपि-परि १क्षा' प्रतीता, 'क° भा० ॥ २°धातव्यम् । “भरिए य" त्ति एकैकस्याः सौ भा०॥ ३ 'त्यर्थः, तदात्मार्थ साध्वर्थ वा करोतीति निरू° भा०॥ ४ हसिकेषु मा०॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ४८८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ग्रहः, ततो वा सम्प्रति रथयात्रादौ समवसरणे सहस्रसङ्ख्याका अपि साधवो मिलिताः सन्तः आधाकर्मादिकं परिहरन्ति तथा पूर्वमपि परिहृतवन्त इत्यनेन सम्बन्धेनानुयानविषयो विधिर्वक्तव्यः । ततः पुरःकर्मखरूपं निरूपयितव्यम् । 'खलुः' वाक्यालङ्कारे । तथैव ग्लान्यविषयो विधिः प्रतिपादनीयः । गच्छप्रतिबद्धानां यथालन्दिकानां सामाचारी दर्शनीया । ततः 'उपरि' मासकल्पादूद्ध तिष्ठतां स्थविरकल्पिकानां दोषा अभिधातव्याः । ततः 'अपवादः' द्वितीयपदमुपदर्शनीयमिति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः ॥ १६५९ ॥ ___ अथ विस्तरार्थ प्रतिपदं प्रचिकटयिषुः “यथोद्देशं निर्देशः” इति वचनप्रामाण्यात् प्रथमतः प्रत्युपेक्षणाद्वारमभिधातुकाम इमां प्रतिद्वारगाथामाहप्रतिलेख . पडिलेहणा उ काले, अपडिलेह दोस छसु वि काएसु । नाद्वारम् पडिगहनिक्खेवणया, पडिलेहणिया सपडिवक्खा ॥ १६६०॥ प्रतिलेखना 'तुः' एवकाराथों भिन्नक्रमश्व काल एव कर्तव्या नाकाले । “अपडिलेह" त्ति अप्रतिलेखने प्रायश्चित्तम् । "दोस" ति दोषाः-आरभडाद्यास्तैर्दुष्टां प्रत्युपेक्षणां कुर्वतः प्रायश्चित्तम् । “छसु वि काएसु"त्ति घट्सु जीवनिकायेषु स्वयं प्रतिष्ठित उपधिर्वा प्रतिष्ठित इति । प्रतिग्रहस्य निक्षेपणं वर्षासु विधेयम् । प्रतिलेखना 'सप्रतिपक्षा' सापवादा भवतीति । एतानि _ 1 द्वाराणि वक्तव्यानीति समासार्थः ॥ १६६० ॥ व्यासार्थ तु प्रतिद्वारमभिधित्सुराहप्रतिलेख सूरुग्गए जिणाणं पडिलेहणियाएँ आढवणकालो। थेराणऽणुग्गयम्मी, ओवहिणा सो तुलेयव्वो ॥ १६६१ ॥ सूर्ये उद्गते सति जिनानां जिनकल्पिकानाम् “एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणम्" इति वचनादपरेषामपि गच्छनिर्गतानां प्रतिलेखनाया आरम्भणकालो मन्तव्यः । 'स्थविराणां' स्थविरक 20 ल्पिकानामनुगते सूर्ये प्रत्युपेक्षणायाः प्रारम्भकालः । स चोपधिना तोलयितव्यः ॥ प्राभातिक. कथम् ? इति चेद् उच्यते-इह प्राभातिकप्रतिलेखनायां भूयांस आदेशाः सन्ति, अत स्तत्प्रतिपादकः पश्चवस्तुकवृत्युक्तो वृद्धसम्प्रदायो लिख्यतेविषयका आदेशाः को पडिलेहणाकालो ? एगो भणइ-जयाँ वायसा वासंति तया पडिलेहिजउ, तो पट्ट१ "अत्रादेशाः-अन्ये ब्रुवते-जया वेलया वायसा आगच्छंति म प्रतिलेखनिकायाः प्रारम्भकालः । अन्य-हस्तलेखाप्रदर्शनमिति । द्वावप्येतो अनादेशौ । तहा आवश्यकः कर्त्तव्यः यथा दशभिः स्थानः प्रतिलेखितैरादित्य उगच्छति, स प्रारम्भकालः प्रतिलेखनिकायाः । कतरे पुनर्दश ? पञ्च अहाजाताई, तिनि उकस्सया कप्पा, तेसिं एको सोत्तिओ दो ओण्णिया, संथारओ उत्तरपट्टो । दंडओ वा एकारसमो ।" इति विशेषो । वृहद्भाये खेवमादेशाः "काए वेलाए पुण, पडिलेहणियाएँ आढवणकालो ? । केयी भगति जाधे, कागा खलु परडिता होति ॥ अरुणोदयम्मि केयी, कररेहा जाव दीसितुं केयिं । एते तु अणादसा, के पुण काले? इमं सुणसु ॥ सूरुग्म जिलाणं, पडिलेहणियाएँ भाडवणकालो । राणऽणुग्गयम्मी, ओवधिणा सो तुलेतव्यो । भवजात तिणि कप्पा, संथारग पट्ट उत्तरो चेव । डंडग एकारसमो, पेहितें जध सूरों उद्वेति ॥" २'को वृष श.॥ ३°या कुबुडो वाला तथा पडिलेहिबउ । अचो भा० ॥ नाया: काल: प्रतिलेख- नाकाल सपा Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १६६०-६३] प्रथम उद्देशः । वित्ता अज्झाइजउ । अन्नो भणइ-----अरुणे उट्ठिए । अवरो भणइ-जाहे पगासं जायं । अन्नो पुण-जाहे पडिस्सए परोप्परं पवइयगा दीसंति । अन्ने भणंति-जाहे हत्थरेहाओ दीसति । आयरिया भणंति-एए सबे वि अणाएसा, अपसिद्धान्तत्वात् , जओ अंधयारे पडिस्सए हत्थरेहाओ उट्टिए वि सूरे न दीसंति, वायसाइआएसेसु य अंधकारं ति पडिलेहणा न सुज्झइ, तम्हा इमो पडिलेहणाकालो-आक्स्सए कए तिहिं थुईहिं दिन्नियाहिं जहा पडिलेहणाकालो। भवइ तहा आवस्सयं कायवं, इमेहि य दसहि पडिलेहिएहिं जहा सूरो उट्टेइ मुहपुत्ती रयहरणं, दुन्नि निसिज्जा य चोलपट्टो य । संथारुत्तरपट्टो, तिन्नि य कप्पा मुणेयवा ॥ (२५५-५६-५७ गाथान्तः) जीवदयटुं पेहा, एसो कालो इमीइ ता नेओ । आवस्सगथुइअंते, दसपेहा उट्ठए सूरो ।। (पञ्चव० गा० २५८) 10 चूर्णिकृत् पुनराह-यथाऽऽवश्यके कृते एकद्वित्रिश्लोकस्तुतित्रये गृहीते एकादशभिः प्रतिलेखितैरादित्य उत्तिष्ठते स प्रारम्भकालः प्रतिलेखनिकायाः । कतरे पुनरेकादश ? पंच अहाजातानि, तिन्नि कप्पा, तेसिं एगो उन्निओ दो सुत्तिया, संथारपट्टओ उत्तरपट्टओ दंडओ एगारसमो त्ति ॥ ॥१६६१॥ गतं "प्रतिलेखना तु] काले” इति द्वारम् । अथ प्रत्युपेक्षणादोषद्वारं विवृणोति- 15 लहुगा लहुगो पणगं, उक्कोसादुवहिअपडिलेहाए । सदोष प्रत्युपेक्षदोसेहि उ पेहंते, लहुओ भिन्नो य पणगं च ॥ १६६२॥ णायां प्रा. उत्कृष्टाद्युपधीनामप्रत्युपेक्षणे प्रायश्चित्तं लघुका लघुकः पञ्चकं चेति । उत्कृष्टमुपधिं न प्रत्युपेक्षते चत्वारो लघुकाः, मध्यमं न प्रत्युपेक्षते मासलघु, जघन्यं न प्रत्युपेक्षते पञ्चकम् । अथ आरभडा-सम्मा-मोसलीप्रभृतिभिर्दोषैर्दुष्टं प्रत्युपेक्षते तत उत्कृष्टे मासलघु, मध्यमे भिन्नमासः, 20 जघन्ये रात्रिन्दिवपञ्चकम् ॥. १६६२ ॥ अथ “षट्सु कायेषु" (मा० १६६०) इति पदं व्याचष्टे काएसु अप्पणा वा, उवही व पइडिओऽत्थ चउभमो । मीस सचित्त अणंतर-परंपरपइट्टिए देव ॥ १६६३ ॥ प्रत्युपेक्षमाणः षट्सु कायेप्वात्मना प्रतिष्ठित उपधिर्व तेषु प्रतिष्ठित इत्यत्र चतुर्मी 125 तद्यथा--स्वयं कायेषु प्रतिष्ठितो नोपधिः १ उपधिः प्रतिष्ठितो न खयं २ स्वयमपि प्रतिछित उपधिरपि प्रतिष्ठितः ३ खयमप्यप्रतिष्ठित उपधिरप्यप्रतिष्ठितः ४ इति । एते च षट् काया मिश्रा वा भवेयुः सचित्ता वा । एतेषु साधुरुषधिर्वा अनन्तरं वा परम्परं वा प्रतिष्ठितो भवेत् । अत्र च प्रायश्चित्तं “छक्काय चउसु लहुगा" (गा० ४६१ गा० ८७९ वा) इत्यादिगाथानुसारेणावगन्तव्यम् । यस्तु द्वाभ्यामप्यप्रतिष्ठितः स शुद्ध इति ॥ १६६३ ॥ __ अथ दोषद्वारस्य वक्तव्यताशेषं प्रतिग्रहनिक्षषणपदं च व्याख्यानयति आयरिए य परिन्ना, गिलाण सरिसखमए य चउगुरुमा। १ कुकुडगाइआए° भा० ॥ २°इ । तं जहा-मुह° भा० ॥ त्यु- यश्चित्तम 30 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ उडु अधरऽबंध लहुओ, बंधण धरणे य वासासु ॥ १६६४ ॥ "आयरिए" त्ति षष्ठी-सप्तम्योरथ प्रत्यभेदादाचार्यस्य "परिन्न" ति मत्वर्थीयप्रत्ययलोपात् 'परिज्ञावतः' कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य “गिलाण सरिसखमए य" त्ति ग्लानस्य ग्लानसदृशश्च यः क्षपक:-विकृष्टतपस्वी तस्य, एतेषां चतुर्णामुपधिं यदि न प्रत्युपेक्षते तदा चत्वारो गुरवः । 5 चशब्दात् प्राघूर्णक-स्थविर-शैक्षाणामग्लानोपमस्य च क्षपकस्योपधिमप्रत्युपेक्षमाणानां चतुर्लघवः । "उडु" इत्यादि पश्वार्द्धम् । यदा सर्वाण्यपि वस्त्राणि प्रत्युपेक्षितानि भवन्ति तदा यान्यतिरिक्तानि भाजनानि तानि प्रत्युपेक्ष्यन्ते । प्रतिग्रहं मात्रकं च यदि तदानीमेव प्रत्युपेक्षते तदा मासलघु, असामाचारीनिष्पन्नमिति भावः । अतः सूत्रपौरुषीं कृत्वा चतुर्भागावशेषायां पौरुष्यां प्रत्युपेक्ष्य द्वे अपि ऋतुबद्धे काले धारणीये न निक्षेप्तव्ये । अथ ऋतुबद्धे प्रतिग्रहं मात्रकं वा 10 न धारयत्युपकरणं वा दवरकेण न बध्नाति तदा मासलघु, अग्नि-स्तेन-दण्डिकक्षोभादयश्च ओधनियुक्तिप्रतिपादिता दोषाः । वर्षासु पुनरुपधिं न बध्नाति प्रतिग्रहं मात्रकं च प्रत्युपेक्ष्य निक्षिपति । अथोपधिं बध्नाति भाजने वा धारयति तदा मासलघु । विशेषचूर्णिकृता त्वस्या एकगाथायाः स्थाने गाथाद्वयं लिखितम् । यथा गुरु पच्चक्खायाऽसहु, गिलाण सरिसखमए य चउगुरुगा। b पाहुणग सेह बाले, वुड्ढे खमए अचउलहुगा ॥ चउभागवसेसाए, पडिग्गहं पञ्चुवेक्ख न धरेइ । उडुबद्धे मासलहुं, वासासु धरिंति मासलहुँ । प्रतिलेख- इदं च भावितार्थमेव ॥ १६६४ ॥ अथ "प्रतिलेखनिका संप्रतिपक्षा" (गा० १६६०) नायामप- इति पदं भावयति असिवे ओमोयरिए, सागार भए व राय गेलने । [ओ.नि.११२] जो जम्मि जया जुज्जइ, पडिवक्खो तं तहा जोए ॥ १६६५॥ 'प्रतिपक्षो नाम' द्वितीयपदम् , तच्चेदम्-'अशिवे' अशिवगृहीतः सन्न शक्नोति प्रत्युपेक्षितुम् , अवमौदर्ये तु प्रत्यूष एव भिक्षां हिण्डितुं प्रारब्धवन्तः अतो नास्ति प्रत्युपेक्षणायाः कालः, ' सागारिको वा प्रेक्षमाणो मा तं सारमुपधि द्राक्षीदिति कृत्वा, 'भये वा' बोधिक-स्तेनादिसम्ब25 न्धिनि सारोपकरणहरणभयान्न प्रत्युपेक्षन्ते, राजा वा प्रत्यनीकस्तद्भयादहर्निशमध्वनि वहन्तो न प्रत्युपेक्षेरन् , ग्लानत्वे वा वर्तमान एकाकी तिष्ठन् न प्रत्युपेक्षते । एतैः कारणैर्न वा प्रत्युपेक्षेत, अनागतेऽतीते वा काले प्रत्युपेक्षेत, त्वरमाणो वा आरभडादिभिर्दोषैर्दुष्टां प्रत्युपेक्षणां कुर्वीत, असमर्थों वा गुर्वादीनामप्युपधिं न प्रत्युपेक्षेत; एवं यः 'यत्र' अशिवादौ 'यदा' यस्मिन्नवसरे 'प्रतिपक्षः' अप्रत्युपेक्षणा-ऽकालप्रत्युपेक्षणादिको युज्यते तं तथा तत्र योजयेदिति ॥ १६६५॥ 30 अथ षट्सु कायेषु प्रत्युपेक्षमाणस्य प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थात् तत्र प्रत्युपेक्षणा न कर्तव्येति यदुक्तं तदपवदति १ दृश्यतां “रयताण भाण धरणा०” इत्यादि १७५-७६-७७ गाथात्रिकमोघनिर्युक्तौ भाष्यकृत्सकम् । पत्र ११८-११९ ॥ वादाः 20 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १६६४-६८ ] प्रथम उद्देशः । तस - वीयरक्खणट्ठा, कासु वि होज कारणे पेहा | नदिहरणपुत्तनायं, तणू य धूरे य पुत्तम्मि ।। १६६६ ॥ जह से हवेज सत्ती, उत्तारिजा तओ दुवग्गे वि । धूरो पुण तणुअंतरं, अवलंबतो वि बोलेइ || १६६७ ॥ त्रसाश्व - द्वीन्द्रियादयः बीजानि च - शाल्यादीनि तेषामस्थिरसंहनिनां रक्षार्थं 'कायेष्वपि ' 5 पृथिव्यादिषु दृढसंहननिषु कारणतः प्रत्युपेक्षणा भवति, न च प्रायश्चित्तम् । आह तेषु प्रतिष्ठितः प्रत्युपेक्षणं कुर्वन् सङ्घट्टनादिबाधाविधानात् कथं न दोषभाग् भवति ? इति उच्यते ४९१ नदीहरणोपलक्षितं पुत्रज्ञातमत्र भवति । कथम् ? इत्याह- “तणू य थूरे य पुत्तम्मि" त्ति यथा कश्चित् पुरुषः, तस्य द्वौ पुत्रौ तयोरेकः तनुकः - कृशशरीरः, द्वितीयस्तु स्थूल:अतीवपीवरगात्रः । स चान्यदा ताभ्यां सहितः कञ्चिद् ग्रामं गच्छन्नपान्तराले एकामपार - गम्भीरां 10 नदीमवतीर्णवान् । स च नदीष्णतया सुखेनैव स्वयं तां तरीतुं शक्तः, परं पुत्रावद्यापि तरण( ग्रन्थाग्रम्-५०० । सर्वग्रन्थाग्रम् - १२७२० । ) कलायामकोविदाविति कृत्वा तनुके स्थूले च पुत्रे उभयेऽपि तारयितुं प्राप्ते सति स किं करोति ? इत्याह यदि "से" तस्य पितुः 'शक्ति' सामर्थ्यं भवेत् ततः “ दुवग्गे वि” त्ति देशीवचनत्वाद् द्वापि पुत्रावुत्तारयेत्, नैकमप्युपेक्षेत । अथ नास्ति तस्य तथाविधं सामर्थ्यं ततो यस्तयोः कृश - 15 शरीरस्तं तारयति, लघुभूतशरीरतया तस्य सुखेनैव तारणीयत्वात् । यस्तु 'स्थूरः ' शरीरजड्डुः सः 'तनुकतरं' स्तोकमात्रमप्यवलम्बमानो निजशरीरभारिकतयैवात्मानं तं च नयां बात अतस्तमुपेक्षेत । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः – पितृस्थानीयः साधुः, पुत्रद्वयस्थानीयाः स्थिरा -ऽस्थिरसंहनिनः पृथिवीकायादयः, ततः साधुना प्रथमतो निर्विशेषं षडपि कायाः स्थिरसंहनिनोऽस्थिरसंहनिनश्च रक्षणीयाः । अथान्यतरेषां विराधनामन्तरेणाध्वगमनादिषु प्रत्युपेक्षणादीनां प्रवृत्ति - 20 रेव न घटामञ्चति ततः स्थिरसंहनिनां पृथिव्यादीनां विराधनामभ्युपेत्याप्यस्थिरसंहनिनस्त्रसादयो रक्षणीया इति ॥ १६६६ || १६६७ || अस्यैवार्थस्य समर्थनाय द्वितीयं दृष्टान्तमाहअंगारखडपडियं, दट्ठूण सुयं सुयं बिइयमन्नं । पवलित्ते नीणितो, किं पुत्ते नो कुणइ पायं ।। १६६८ ।। यथा नाम कश्चित् पुरुषस्तस्य पुत्रद्वयम्, अन्यदा च रात्रौ तगृहे प्रदीपनकं लग्नम्, तद्भ- 95 यादेकः पुत्रः पलायमानः सहसैवाङ्गारभृतायां गर्तायां निपतितः, स च गृहपतिर्द्वितीयं पुत्रमादाय गृहाद् निर्गतो यावत् पश्यति पुरतः खपुत्रमङ्गारगर्त्तायां पतितम्, ततश्च तं सुतं तथाभूतं दृष्ट्वा द्वितीयमन्यं सुतं “पवलित्ते नीर्णितो " ति पञ्चम्यर्थे सप्तमी प्रदीप्ताद् गृहान्निष्काशयन् निजसहजपारिणामिकमत्या विचार्य परिच्छेदकुशलः सन् किमङ्गारगर्त्तायां निपतितपूर्वे पुत्रे पादं न करोति ? अपि तु करोत्येव, कृत्वा च तदुपरि पादं सुखेनैव तां लङ्घयतीति भावः 30 ॥ १६६८ ॥ अथ तदुपरि पादं न दद्यात् 'स्खपुत्रं कथं पादेनाक्रामामि ?' इति कृत्वा ततः को दोषः स्याद् ? इत्याह १ ° वकव्यम् । क° भा० ॥ — अङ्गारगर्त • पतितपुत्रज्ञातम् Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्क्रमण द्वारम् सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ तं वा अणकमंतो, चयइ सुयं तं च अप्पगं चैव । नित्थण्णो हु कदाई, तं पि हु तारिज जो पड़िओो ।। १६६९ ।। वाशब्दः पातनायाम्, सा च कृतैव । 'तं' गर्त्तानिपतितं पुत्रं पादेनानाक्रामन् स पिता त्यजति सुतं ‘तं च’ खहस्तगृहीतमात्मानं च, उभयोरप्यङ्गारगर्त्तापातेन, विनाशसद्भावात् । अपि 5 च स स्वयं निस्तीर्णः सन् कदाचित् तमपि पुत्रं तारयेद् यः पूर्वं गर्त्तायां निपतित इति । एष द्वितीयो दृष्टान्तः । उपनययोजना तु प्रागुक्तोपनयानुसारेण कर्त्तव्येति ॥ १६६९ ॥ गतं प्रत्युपेक्षणाद्वारम् । अथ निष्क्रमणद्वारमाह---- 10 15 ४९२ निरवेक्खो तइयाए, गच्छे निक्कारणम्मि तह चैत्र । बहुवक्खेवदसविहे, साविक्खे निग्गमो भइओ || १६७० ।। 'निरपेक्षः' जिनकल्पिक-प्रतिमाप्रतिपन्नकादिर्गच्छसत्कापेक्षारहितः स तृतीयस्यामेव पौरु - यामुपाश्रयाद् निर्गच्छति । 'गच्छे' गच्छवासिनोऽपि साधवो निष्कारणे तथैव निर्गच्छन्ति, तृतीयस्यां पौरुष्यामित्यर्थः । परं गच्छे यद् आचार्योपाध्यायादिविषयभेदाद् दशविधं वैयावृत्त्यं तेन यो बहुविधो व्याक्षेपस्तेन सापेक्षे गच्छवासिनि निर्गमो भजनीयः, कदाचित् तृतीयस्यां कदाचित् प्रथम-द्वितीय-चतुर्थीषु वा पौरुषीष्विति ॥ १६७० ॥ 25 अथैनामेव नियुक्तिगाथां व्याख्याति - हिए भिक्खे भोक्तुं, सोहिय आवास आलयमुवेह | निओ तर्हि चिय, एमेव य खेत्तसंकमणे ॥। १६७१ ।। निरपेक्षो भगवान् तृतीयपौरुष्यामुपाश्रयान्निर्गत्य भिक्षामटित्वा गृहीते सति भैक्षे अनापाते असंलोके च स्थाने भुक्तवा 'आवश्यकं च ' संज्ञा- कायिकीलक्षणं शोधयित्वा यस्यामेव पौरुष्यां 20 निर्गतस्तस्यामेव भूयः ‘आलयम्' उपाश्रयमुपैति, तृतीयस्यामित्यर्थः । एवमेव च क्षेत्रसङ्क्रमणेऽपि द्रष्टव्यम्, क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरगमनमपि तृतीयस्यां करोतीति भावः । स्थविरकल्पिका अपि निष्कारणे तृतीयस्यामेव निर्गत्य भिक्षामटित्वा प्रतिश्रये समुद्दिश्य संज्ञाभूमिं गत्वा तस्यामेव प्रत्यागच्छन्ति । क्षेत्रसङ्क्रमणमप्येवमेव । कारणतस्तु न कोऽपि प्रतिनियमः || १६७१ ॥ तथा चाह - अतरंत - बाल- बुड्ढे, तवस्सि आएस माइकजेसु । बहुसो वि होज विसणं, कुलाइकजेसु य विभासा ।। १६७२ ।। उच्चार-विहारादी, संभम-भय-चेइवंदणाईया | आयपरो भयहेउं, विणिग्गमा वणिया गच्छे || १६७३ ॥ अतरन्तः--ग्लानस्तस्य तथा बाल-वृद्धयोः तपखिनः - क्षपकस्य आदेशस्य - प्राघूर्णकस्य आदिशब्दादाचार्योपाध्याय - शैक्षका - ऽलब्धिमत्प्रभृतीनां यानि कार्याणि - तत्प्रायोग्यभक्त पानौषधादि30 ग्रहणरूपाणि तेषु 'बहुशोऽपि ' बहूनपि वारान् गृहपतिगृहेषु प्रवेशनं गच्छसाधूनां भवति । तथा कुलादिकार्येषु, आदिग्रहणाद् गण - सङ्घपरिग्रहः । कुलं - नागेन्द्र-चन्द्रादि, गणः - कुलस १ "निरवेक्खो तयाए" त्ति पदं भावयति - भा० ॥ २ तथा कुलं- नागेन्द्र चन्द्रादि, आदिशब्दाद् गणः-कुल' त० डे० कां० ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९३ भाष्यमाथाः १६६९-७५] प्रथम उद्देशः । मुदायः, गणसमुदायः सङ्घः चतुर्वर्णरूपो वा, तत्कार्येषु च विभाषा कर्तव्या । सा चेयम्--- कुले गणे सङ्घ वा आभाव्या-ऽनाभाव्यविषयः कोऽपि व्यवहारः समुपस्थितः तस्य यथावत् परिच्छेदनं कर्त्तव्यम् , प्रत्यनीको वा कोऽपि साधूनामुपस्थितः तस्य शिक्षणं विधेयम् , चैत्यद्रव्यं वा कश्चिद् निःशकं मुष्णाति स शासितव्यो वर्तत इत्यादि ॥ १६७२ ॥ तथा उच्चारः-पुरीषं तस्य उपलक्षणत्वात् प्रश्रवण-खेलादेश्च व्युत्सर्जनार्थ बहिर्गन्तव्यम् ।। विहारो नाम-वसतावस्वाध्यायिके समुत्पन्ने सति खाध्यायनिमित्तमन्यत्र गमनम् , आदिग्रहणात् पूर्वगृहीतपीठफलक-शय्या-संस्तारकप्रत्यर्पणप्रभृतिपरिग्रहः । सम्भ्रमो नाम-उदका-ऽग्नि-हस्त्याद्यागमनसमुत्थ आकस्मिकः संत्रासः, भयं तु-सामान्येन दुष्टस्तेनाद्युपद्रवप्रभवम् , चैत्यानिजिनबिम्बानि तेषां वन्दनम् , आदिशब्दादपूर्वबहुश्रुताचार्यवन्दनादिपरिग्रहः । एवमादीनि यान्यात्मनः परेषामुभयस्य वा हेतोः कार्याणि तन्निमित्तं गच्छे बहुशोऽपि प्रतिश्रयाद् विनि-10 र्गमाः 'वर्णिताः' प्रतिपादिता इति ॥ १६७३ ॥ गतं निष्क्रमणद्वारम् । अथ प्राभृतिकाद्वारं बिभावयिषुराह पाहुडिया वि ये दुविहा, बायर सुहुमा य होइ नायव्वा । [पि.नि.२८५) प्रामृतिकाएक्केका वि य एत्तो, पंचविहा होइ नायव्या ॥ १६७४ ॥ द्वारम् 'प्राभृतिका' वसतेश्छादन-लेपनादिरूपा, सा द्विविधा-वादरा सूक्ष्मा च भवति ज्ञातव्या । 15 एकैकाऽपि चेत ऊर्द्ध पञ्चविधा भवति ज्ञातव्या ॥ १६७४ ॥ तत्र बादरां पञ्चविधामपि तावदाह-- विद्धंसण छायण लेवणे य, भूमीकम्मे पडुच्च पाहुडिया । बादरओसकण अहिसक्कण, देसे सव्वे य नायव्वा ॥ १६७५ ॥ प्राभृतिका 'विध्वंसनं' वसतेभञ्जनम् । 'छादनं' दर्भादिभिराच्छादनम् । 'लेपनं' कुड्यानां कर्दमेन गोमयेन 20 चलेपप्रदानम् । 'भूमिकर्म' सम-विषमाया भूमेः परिकर्मणम् । “पडुच्च" त्ति 'प्रतीत्यकरणं' त्रिशालं गृहं कर्तुकामः साधून् प्रतीत्य चतुःशालं करोति, आत्मीयं वा गृहं साधूनां दत्त्वा आत्मार्थमपरं कारयतीत्यादि । एषा पञ्चविधाऽपि बादरप्राभृतिका प्रत्येकं द्विधा-अवष्वष्कणतोऽभिप्वष्कणतश्च । अवष्वष्कणं नाम-विवक्षितविध्वंसनादिकालस्य हासकरणम् , अर्वाकरणमित्यर्थः । अभिष्वप्कणं-तस्यैव विवक्षितकालस्य संवर्द्धनम् , परतः करणमित्यर्थः । पुनरेकैके विध्वंसना-25 दयो द्विधा देशतः सर्वतश्च ज्ञातव्याः ॥ १६७५ ॥ तत्र देशतः सर्वतो वा विध्वंसनमभिष्वकणतो भाव्यते-केनचिद् गृहपतिना चिन्तितम्-यथेदं गृहं ज्येष्ठमासे भक्त्वा ततोऽभिनवं करिष्याम इति । इतश्च ज्येष्ठमासे तत्र गृहे साधवो मासकल्पेन स्थिताः, ततोऽसौ चिन्तयति अच्छंतु ताव समणा, गएसु भंतूण पच्छ काहामो । १सा चैषा-कु° त० डे० कां० ॥ २ तथा उच्चार-विहाराद्यर्थ बहिर्गमनं भवति, उच्चारः-पुरीषम् उपलक्षणत्वात् प्रश्रवण-खेलादिकमपि गृह्यते, तस्य परिष्ठापनं विधेयम् । विहारो भा० ॥ ३ हु ता० ॥ ४ साधुनिमित्तं चतुःशालं करोति, स्वार्थ वा पूर्व कारितं गृहं साधूनां भा० ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ४९४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ __ ओभासिए व संते, न एंति जा भंतुणं कुणिमो ॥ १६७६ ॥ इदानीं तावद् ‘आसतां' तिष्ठन्तु श्रमणाः, गतेषु तेषु 'पश्चाद' आषाढमासे भक्त्वा करिष्याम इति, एतदभिप्वप्कणम् । अथावप्वप्कणमाह-"ओभासिए व” इत्यादि । क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैरवभाषिते प्रदत्ते चोपाश्रये सति स गृहपतिश्चिन्तयति-ज्येष्ठमासे तावदत्र साधवः स्थास्यन्ति, अतो 5 यावत् ते नागच्छन्ति तावद् वैशाखे मासे भक्त्वा कुर्म इति, एतदवप्वष्कणम् ॥ १६७६ ॥ भावितं विध्वंसनपदम् । अथ च्छादनादीन्यतिदिशन्नाह एसेव कमो नियमा, छज्जे लेवे य भूमिकम्मे य । तेसाल चाउसालं, पडुच्चकरणं जईनिस्सा ॥ १६७७ ॥ एष एवाभिप्वप्कणतोऽवप्वष्कणतश्च क्रमो नियमाद् मन्तव्यः । क ? इत्याह-'छज्जे' 10 छादने 'लेपे' लिम्पने भूमिकर्मणि च । तिष्ठन्तु तावदिदानीं श्रमणाः, पश्चाद् गतेषु सत्सु गृहं छादयिप्यामो लेप्स्यामो भूमिं वा परिकर्मयिष्याम इति, एतदभिष्वप्कणम् । एतान्येव च्छादनादीनि यद्यनागतमेव करोति तदाऽवष्वष्कणम् । अथ प्रतीत्यकरणं भाव्यते--"तेसाल" इत्यादि । त्रिशालं गृहं कर्तुकामो यतीनां निश्रया तान् प्रतीत्येति भावः चतुःशालं यत् करोति तत् प्रतीत्यकरणमुच्यते ॥ १६७७ ॥ अथवा पुव्वघरं दाऊण व, जईण अनं करिति सट्टाए। काउमणा वा अन्नं, हाणाइसु कालमोसक्के ॥ १६७८ ॥ ___ 'पूर्वगृहं' खार्थं पूर्वं कृतं यद् गृहं तद् यतीनां दत्त्वा स्वार्थम् 'अन्यद्' अभिनवं यदगारिणः कुर्वन्ति तद् वा प्रतीत्यकरणम् । अथवा केऽपि श्राद्धाः स्वार्थमन्यद् गृहं ज्येष्ठमासे कर्तुम नसः परं तत्र वैशाखमासि स्नानादिकं जैनचैत्येषु भविता ततस्ते चिन्तयन्ति-अनागतमेव गृहं 20 कुर्मों येन तत्र साधवो वैशाखमासि सानादिषु समायातास्तिष्ठन्ति । एवं साधून् प्रतीत्य कालमवष्वष्कयेयुः एतदवष्वष्कणतः प्रतीत्यकरणमुक्तम् ॥ १६७८ ॥ अथाभिष्वप्कणतस्तदेवाह एमेव य हाणाइसु, सीयलकजट्ट कोइ उस्सके । __ मंगलबुद्धी सो पुण, गएसु तहियं वसिउकामो ॥ १६७९ ॥ 'एवमेव' अवप्वप्कणवत् कोऽपि श्राद्धः शीतकाले गृहं कर्तुकामश्चिन्तयति-'वैशाखमासि 25 सानं रथयात्रा वेह भविष्यति, तत्र च साधवः समागमिष्यन्ति तच्च तदानीमेव कृतं नवगृह शीतलं भवति, शीतले च तस्मिन् साधवः सुखमासिप्यन्ते, अतः स्नानादिप्रत्यासन्न एव समये करिष्यामि' इति साधून् प्रतीत्य स्नानादिषु शीतलकार्यार्थ यत् कोऽप्युत्ष्वष्कते एतदभिष्वष्कणतः प्रतीत्यकरणम् । स पुनरवप्वष्कणमभिष्वष्कणं वा मङ्गलबुद्ध्या करोति, यथा—पूर्व साधवो मदीयं नवगृहं यदि परिभुञ्जते ततः पवित्रं भवतीति । गतेषु च तेषु तत्र नवगृहे खयमेव 30 वस्तुकाम इति ॥ १६७९ ॥ अथात्रैव प्रायश्चित्तमाह सव्वम्मि उ चउलहुया, देसम्मी बायराएँ लहुओ उ । सव्वम्मि मासियं खलु, देसे भिन्नो य सुहमाए ॥ १६८०॥ १ वा वाशब्दः प्रकारान्तरतायाम् खा त० डे० ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १६७६-८३ ] प्रथम उद्देशः । ४९५ बादरायां प्राभृतिकायामनन्तरोक्तायामेव सर्वतः करिष्यमाणायां कृतायां वा तिष्ठति चत्वारो लघवः । देशतः करिष्यमाणायां कृतायां वा तिष्ठतो मासलघु । सूक्ष्मायां प्राभृतिकायां वक्ष्यमाणायां सर्वतो विधास्यमानायां विहितायां वा तिष्ठति मासलघु । देशतस्तस्यामेव भिन्नमासः || १६८० ॥ सा पुनः सूक्ष्मप्राभृतिका पञ्चविधा । तामेवाह संमजण आवरण, उवलेवण सुहुम दीवए चैव । ओकण अहिसकण, देसे सव्वे य नायव्वा ।। १६८१ ॥ 'सम्मार्जनं' बहुकरिकया प्रमार्जनम्, 'आवर्षणम्' उदकेन च्छटकप्रदानम्, 'उपलेपनं ' छगणमृत्तिकया भूमिकाया लेपनम्, “सुहुमे" त्ति 'सूक्ष्माणि' समयभाषया पुष्पाण्युच्यन्ते, तथा च दशवैकालिकनिर्युक्तौ पुष्पाणामेकार्थिकानि— पुप्फाय कुसुमा चेव, फुल्ला य पसवा विय । सुमणा चैव सुहुमा य, सुहुमकाइया विय ॥ ततश्च पुष्पाणां प्रकररचनेत्यर्थः । " दीवए चेव” त्ति दीपकप्रज्वालनम् । एतानि पूर्वमात्मार्थं क्रियमाणान्येव विद्यन्ते । नवरं साधून् प्रतीत्य देशतः सर्वतो वा यदवष्वष्कणमभिष्वष्कणं वा क्रियते सा सूक्ष्मप्राभृतिका ज्ञातव्या ॥ १६८१ ॥ अथास्या एवावप्वष्कणा - ऽभिष्वष्कणे भावयति 5 सूक्ष्मप्रा. मृतिका -१ दशवैकालिकनिर्युक्तौ पुष्पैकार्थिकगाथा इत्थंरूपा वर्त्तते पुराणि य कुसुमाणि य, फुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि । सुमणाणि य सुहमाणि य, पुप्फाण य होंति एगट्ठा ॥ ३६ ॥ २ "फुलाय पसवा वि य" इति पाठः स्यात् ॥ ३ 'दा अभिष्त्र' भा० विना ॥ . 10 15 जाव न मंडलिवेला, ताव पमज्जामो होड़ ओसक्का । उहेंतु ताव पढिउं, उस्सकण एव सव्वत्थ ।। १६८२ ॥ यावत् ‘मण्डलीवेला' खाध्यायमण्डलीकालो नोपढौकते तावत् प्रमार्जयाम इत्येवं विचिन्त्यानागतमेव यदि प्रमार्जयन्ति तदाऽवष्वष्कणं भवति । अथ साधवः स्वाध्यायं कुर्वाणास्तदानीं मण्डल्यामुपविष्टाः सन्ति ततश्चिन्तयन्ति — उत्तिष्ठन्तु तावदमी पठित्वा ततः पश्चात् प्रमार्जयि- 20 प्याम इति विचिन्त्य तथैव यदि कुर्वते तदा उत्स्वप्कणं भवति । एवमवष्वष्कणमभिष्वष्कणं च ‘सर्वत्र' आवर्षणोपलेपनादावपि भावनीयम् || १६८२ ॥ सा पुनः सूक्ष्मप्राभृतिका द्विविधा - छिन्नमछिना काले, पुणो य नियया य अनियया चेव । निट्ठिाऽनिट्ठिा, पाहुडिया अट्ठ भंगा उ || १६८३ ॥ ‘काले’ कालतश्छिन्ना अच्छिन्ना वा, छिन्नकालिका अच्छिन्नकालिका चेत्यर्थः । यस्यामुप - 25: लेपनादिकं छिन्ने-प्रतिनियते मासादौ काले क्रियते सा छिन्नकालिका । या तु यदा तदा वा क्रियते सा अच्छिन्नकालिका । पुनरेकैका द्विधा – नियता अनियता चैव । नियता नाम - या पूर्वाह्णादावेव वेलायामवश्यमेव वा क्रियते । तद्विपरीता अनियता । पुनरेकैका द्विविधा - निर्दिष्टा अनिर्दिष्टा च । तत्र यः प्राभृतिकाकारकः स निर्दिष्टः - इन्द्रदत्तादिनाम्नोपलक्षितः Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ तेन क्रियमाणा प्राभृतिका अपि निर्दिष्टा । तद्विपरीता अनिर्दिष्टा । अत्र च त्रिभिः पदैरष्टौ भङ्गा भवन्ति, तद्यथा-छिन्नकालिका नियता निर्दिष्टा १ छिन्नकालिका नियता अनिर्दिष्टा २ इत्यादि ॥ १६८३ ॥ अथ च्छिन्नकालिकां व्याख्यानयति मासे पक्खे दसरायए य पणए अ एगदिवसे य । वाघाइमपाहुडिया, होइ पवाया निवाया य ॥ १६८४ ॥ या प्राभृतिका 'मासे' मासस्यान्ते 'पक्षे' पक्षस्यान्ते 'दशरात्रे' दशानामहोरात्राणां पर्यन्ते 'पञ्चके' पञ्चरात्रिन्दिवान्ते 'एकदिवसे' एकान्तरिते दिने चशब्दाद् निरन्तरं दिने दिने इत्यर्थः, एवं प्रतिनियते काले या क्रियते सा छिन्नकालिका । या तु न ज्ञायते कस्मिन् दिवसे विधीयते सा अच्छिन्नकालिकेति । व्याघातिमप्राभृतिका नाम-या सूत्रार्थपौरुषीवेलायां क्रियते । भवति 10 प्रवाता निवाता चेति । प्रवाता नाम-या ग्रीष्मकाले अपराह्ने उपलेपनादिकरणेन धर्म नाशयति । यातु शीतकाले पूर्वाह्ने उपलेपनकरणेन रात्रौ व्यपगतःहा जायते सा निवाता भण्यते ॥१६८४॥ __ अथ कस्यां प्राभृतिकायां वस्तुं कल्पते ? कस्यां वा न ? इति अत आह पुव्वण्हे अवरण्हे, सूरम्मि अणुग्गए व अत्थमिए । मज्झंतिए व वसही, सेसं कालं पडिकुट्ठा ॥ १६८५ ॥ 16 — पूर्वाह्ने अनुद्गते सूर्ये, अपराहे तु अस्तमिते, 'मध्यान्ते वा' मध्याह्नवेलायाम् अर्थपौरुष्या उत्थितेषु इत्यर्थः, एतेषु कालेषु यस्यां प्राभृतिका क्रियते सा वसतिरनुज्ञाता, सूत्रार्थव्याघाताभावात् । “सेसं कालं" ति सप्तम्यर्थे द्वितीया, 'शेषे' उद्गतसूर्यादौ काले यस्यां प्राभृतिका विधीयते सा प्रतिकुष्टा, न कल्पते तस्यां वस्तुम् , सूत्रार्थव्याघातसम्भवात् ॥ १६८५ ॥ ___ अथ निर्दिष्टा-ऽनिर्दिष्टप्राभृतिके भावयति पुरिसज्जाओ अमुगो, पाहुडियाकारओ उ निद्दिट्टो। सेसा उ अनिद्दिट्ठा, पाहुडिया होइ नायव्वा ॥१६८६ ॥ अमुकः 'पुरुषजातः' पुरुषप्रकारः प्राभृतिकाकारक इन्द्रदत्तादिनाम्ना यस्यां निर्दिष्टः सा निर्दिष्टा । शेषा तु सर्वाऽप्यनिर्दिष्टा प्राभृतिका भवति ज्ञातव्या ॥ १६८६ ॥ ___ अथ पूर्वोक्तभङ्गाष्टकविषयं विधिमाह28 काऊण मासकप्पं, वयंति जा कीरई उ मासस्स । सा खलु निव्याघाया, तंवेलारेण निंताणं ॥ १६८७ ॥ इह प्रथमे भङ्गे या मासस्यान्ते क्रियत इति कृत्वा च्छिन्नकालिका, तत्राप्यपराल एव विधीयमानत्वाद् नियता, अमुकपुरुषकर्तृकत्वेन च निर्दिष्टा । तस्यां कृतायां प्रथमतः प्रविष्टास्ततो मासकल्पं कृत्वा यदि व्रजन्ति । कथम् ? इत्याह-"तंवेलारेण निंताणं' ति तस्याः-प्राभृति30 काकरणवेलाया अर्वाग् निर्गच्छतां सा प्राभृतिका निर्व्याघाता मन्तव्या, सूत्रार्थव्याघाताभावात् , कल्पते तस्यां वस्तुमिति भावः । शेषा द्वितीयादयो भङ्गाः कापि कथञ्चित् सव्याघाता इति कृत्वा तेषु न कल्पते ॥ १६८७ ॥ अथ प्रवाता,निवातेति च पदद्वयं भावयति अवरण्हें गिम्ह करणे, पवाय सा जेण नासयइ घम्म । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १६८४-९२ ] प्रथम उद्देशः । पुव्वण्हे जा सिसिरे, निव्वाय निवाय सा रतिं ॥ १६८८ ॥ ग्रीष्मे अपराह्णे यदुपलेपनस्य करणं सा प्रवाता । कुतः ? इत्याह-येन सा रात्रौ ' नाशयति' व्यपनयति ‘घर्मं’ ग्रीप्मर्तुसम्भवं तापम् । या तु 'शिशिरे' शीतकाले पूर्वा उपलेपनकरणेन दिवसस्य चतुर्भिः प्रहरैः ‘'निवाता' शुष्का इत्यर्थः सा रात्रौ निवाता भवति । एतयोः कारणतोsस्थातुं कल्पत इति ॥ १६८८ ॥ अथ निर्व्याघातिमां भङ्गयन्तरेणाह - ४९७ पुण्हें अपविए, अवरण्हे उट्ठिएसु य पसत्था । - मज्झह निग्गएसु य, मंडलिसुत - पेहवाधाया ।। १६८९ ॥ या पूर्वीले अप्रस्थापिते सति स्वाध्याये अपराह्णे पुनः समुद्दिश्योत्थितेषु सत्सु साधुषु मध्याह्ने तु भिक्षापर्यटनार्थं निर्गतेषु या प्राभृतिका क्रियते सा प्रशस्ता । कुतः ? इत्याह –— "मंडेलिसुय-पेह” त्ति येन श्रुतमण्डल्या उपकरणप्रेक्षणायाश्च "वाघाय" त्ति अकारप्रश्लेषाद् 'अव्या - 10 घाता' न व्याघातविधायिनी, अत एषा प्रशस्ता || १६८९ ॥ प्ररूपिता बादरा सूक्ष्मा च पञ्चविधा प्राभृतिका, एवंविधया सहितायां वसतौ न स्थातव्यम् । अथ नास्ति तथाविधा अप्राभृतिका वसतिः ततः कारणतः सप्राभृतिकायामपि तिष्ठतां यतनामाह - तं वेल सारविंती, पाहुडियाकारगं च पुच्छंति । तूण चरिम भंगं, जयंति एमेव सेसेसु || १६९० ॥ यस्यां वेलायां प्राभृतिका क्रियते तां वेलामुपकरणं 'सारयन्ति' सङ्गोपयन्ति, अभिव्याप्तौ चात्र द्वितीया, तां वेलामभिव्याप्येत्यर्थः । प्राभृतिकाकारकं च पुरुषं पृच्छन्ति — कस्यां वेलायां भवान् सम्मार्जनादि करिष्यति ? इति । एवं 'चरमम्' अष्टमं भङ्गं मुक्त्वा 'शेषेषु' सप्तस्वपि भङ्गेषु 'यतन्ते' यतनां कुर्वन्ति ॥ १६९० ॥ जिणकप्पिअभिग्गहिएसणाए पंचण्हमन्नतरियाए । [ नि.गा. १६५८ ] गच्छे पुण सव्वाहिं, सावेक्खो जेण गच्छो उ ॥। १६९२ ।। 5 चरमे वि होइ जयणा, वसंति आउत्तउवहिणो निचं । दक्खे य वसहिपाले, ठर्विति थेरा पुणित्थीसु || १६९१ ॥ 'चरमेऽपि' अष्टमे भङ्गे 'अच्छिन्नकालिका अनियता अनिर्दिष्टा च' इत्येवंलक्षणे आगाढे कारणे तिष्ठतां भवति यतना । कथम् ? इत्याह – नित्यमायुक्तोपधयो वसन्ति, उपधावायुक्ताःसावधाना आयुक्तोषधयः, राजदन्तादेराकृतिगणत्वाद् व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः, मा गोमयादिना कोऽप्युपधिं गुण्डयेत् प्राभृतिकाकरणव्याजेनापहरेद्वेति सम्यगुपधिविषयमवधानं ददतीत्यर्थः । 25 दक्षाँश्च वसतिपालान् स्थापयन्ति । यदि च ते प्राभृतिकाकारिणः पुरुषा न स्त्रियस्ततस्तरुणावसतिपालाः स्थापयितव्याः । “थेरा पुणित्थीसु" त्ति यदि स्त्रियस्ततो ये स्थविरा: परिपाकप्राप्तब्रह्मचर्यास्ते वसतौ स्थापनीया इति ॥ १६९९ ॥ गतं प्राभृतिकाद्वारम् । अथ भिक्षाद्वारमभिधित्सुराह - १ "मंडलित- पेह वाघाए त्ति, मुत्तडलीए अत्थमंडलीए समुद्दिसणमंडलीए पडिलेहणियाकाले य जा कीरति सा वाघाता ॥ एतासु जतणं भणात तं वेल० गाधा" इति चूणों विशेषचूण च ॥ 15 20 30 fare द्वारम् Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15: ४९८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ जिनकल्पिका अभिगृहीतया 'पञ्चानाम्' उद्धृतादीनामन्यतरया एकया एषणया भक्तम् एकया पानकं गृहन्ति । 'गच्छे' गच्छवासिनः पुनः 'सर्वाभिरपि' असंसृष्टादिभिरेषणाभिर्भक्त-पानं गृहन्ति । कुतः ? इत्याह-'सापेक्षः' बाल-वृद्धाद्यपेक्षायुक्तः 'येन' कारणेन 'गच्छः' गच्छवासिसाधुसमूह इति ॥ १६९२ ॥ आह किमिति गच्छवासिनः सर्वाभिरप्येषणाभिमुहन्ति ? 5.किं तेषां निर्जरया न कार्यम् ? उच्यते बाले वुड्ढे सेहे, अगीयत्थे नाण-दंसणप्पेही । दुब्बलसंघयणम्मि य, गच्छि पइन्नेसणा भणिया ॥ १६९३ ॥ षष्ठी-सप्तम्योरथ प्रत्यभेदाद वालस्य वृद्धस्य शैक्षस्यागीतार्थस्य 'ज्ञान-दर्शनप्रेक्षिणः' ज्ञानार्थिनो दर्शनप्रभावकशास्त्रार्थिनश्चेत्यर्थः 'दुर्बलसंहननस्य च' असमर्थशरीरस्यानुग्रहार्थं गच्छे 10 'प्रकीर्णा' अप्रतिनियता एषणा भणिता भगवद्भिरिति ॥ १६९३ ॥ अथैतान्येव पदानि गाथाद्वयेन भावयति तिक्खछुहाए पीडा, उड्डाह निवारणम्मि निक्किवया । इय जुवल-सिक्खगेसुं, पओस भेओ य एकतरे ॥ १६९४ ॥ सुचिरेण वि गीयत्थो, न होहिई न वि सुयस्स आभागी। पग्गहिएसणचारी, किमहीउ घरेउ वा अबलो ॥ १६९५ ॥ ___ अभिगृहीतयैवैषणया भक्त-पानग्रहणे प्रतिज्ञाते तया चालब्धे स्तोके वा लब्धे सति बाल-वृद्धशैक्षकाणां तीक्ष्णया-दुरधिसहया क्षुधा उपलक्षणत्वात् तृषा च महती पीडा भवति । उड्डाहो वा भवेत् , स हि बालादिरित्थं लोकपुरतो ब्रूयात्-एते साधवो मां क्षुधा तृषा वा मारयन्तीति । तथा 'निवारणे' विवक्षितामेकामेषणां विमुच्य अन्यासां प्रतिषेधे विधीयमाने सति बालादयश्चिन्त20 येयु:-अहो! निष्कृपताऽमीषाम् ; ततः प्रद्वेषं गच्छेयुः । 'भेदो वा एकतरे' जीवितस्य चारित्रस्य वा विनाशोऽमीषां भवेदिति बाल-वृद्धयुगले शैक्षके वा नियन्त्र्यमाणे दोषा मन्तव्याः॥१६९४॥ __ तथा अगीतार्थः सुचिरेणापि कालेन गीतार्थो न भविष्यति, नापि 'श्रुतस्य' आचारादेः उपलक्षणत्वाद् दर्शनप्रभावकशास्त्राणां वा आभागी । कीदृशः ? इत्याह-'प्रगृहीतैषणाचारी' प्रगृहीता-अभिग्रहवती या एषणा तच्चारी-तत्पर्यटनशीलः, तथाविधभक्त-पानोपष्टम्भाभावादिति 25 भावः । यो वा 'अवलः' दुर्बलसंहननः स प्रणीताहाराद्युपष्टम्भाभावे किं सूत्रमर्थ वा अधीतां धारयतां वा ? । अत एतेषामनुग्रहार्थं गच्छे प्रकीर्णैषणा दृष्टा ॥ १६९५ ॥ . अथास्या एव विधिमभिधिसुरगाथामाहभिक्षाया पमाणे काले आवस्सए य संघाडगे य उवगरणे । [ओ.नि. ४१२] विधिः मत्तग काउस्सग्गो, जस्स य जोगो सपडिवक्खो ।। १६९६ ।। 30 प्रमाणं नाम–कति वारान् पिण्डपातार्थं गृहपतिकुलेषु प्रवेष्टव्यम् ? इति । “कालि" त्ति कस्यां वेलायां भिक्षार्थ निर्गन्तव्यम् ? । “आवस्सग" त्ति 'आवश्यकं' संज्ञा-कायिकीलक्षणं तस्य शोधनं १च ‘पीडा' परितापलक्षणा भवति । उड्डाहो वा भवेत् , ते हि वालादयो नियन्यमाणा इत्थं भणेयुः-एते भा० ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १६९३-९९] प्रथम उद्देशः । ४९९ 1 कृत्वा निर्गन्तव्यम् । “संघाडगे" चि सङ्घाटकेन - साधुयुग्मेन निर्गन्तव्यं नैकाकिना । “उवगरणि” त्ति सर्वोपकरणमादाय भिक्षायामवतरणीयम् । " मत्तगि" त्ति मात्रकं ग्रहीतव्यम् । “काउसग्गो" त्ति उपयोगनिमित्तं कायोत्सर्गः कर्त्तव्यः । " जस्स य जोगो' चि 'यस्य च ' सचित्तस्याचित्तस्य वा 'योगः' सम्बन्धो भविष्यति लाभ इत्यर्थः तदप्यहं ग्रहीष्यामीति भणित्वा निर्गन्तव्यम् । “सपडिवक्खो” त्ति एष प्रमाणादिको द्वारकलापः 'सप्रतिपक्षः' सापवादो वक्तव्य इति द्वारगाथासमासार्थः ॥ १६९६ ॥ अथ विस्तरार्थमभिधित्सुः प्रमाणद्वारं भावयतिदोन अणुन्नायाओ, तझ्या आवज मासियं लहुयं । गुरुगो उ चउत्थीए, चाउम्मासो पुरेकम्मे ।। १६९७ ॥ चतुर्थभक्तिकस्य द्वौ बारौ गोचरचर्यामटितुमनुज्ञातौ । अथ तृतीयं वारमटति तत आपद्यते मासिकं लघुकम् । अथ चतुर्थं वारं पर्यटति तदा गुरुको मासः । स्त्रीत्वं सर्वत्र प्राकृतत्वात् । 10 अथ तृतीयादीन् वारान् भिक्षार्थं प्रविशति ततो गृहिणः पुरःकर्म कुर्वन्ति तत्र चत्वारो मासा लघव इति । ऐषा निर्युक्तिगाथा ।। १६९७ ॥ अथैनामेव भाष्यकृद् विवृणोति - सइमेव उनिग्गमणं, चउत्थभत्तिस्स दोत्रि वि अलद्धे । सव्वे गोयरकाला, विगिट्ठ छट्ठऽहमे बि-तिहिं ॥ १६९८ ॥ 1 ‘सकृदेव' एकवारमेव नित्यभक्तिकस्य भक्ताय वा पानाय वा निर्गमनं कल्पते । चतुर्थभ- 15 क्तिकस्याप्युत्सर्गतः सकृदेव भिक्षामटितुं कल्पते । अथ तदानीं पर्यटताऽपि तेन परिपूर्णो भक्तार्थो न लब्धः ततोऽलब्धे सति तस्य द्वावपि गोचरकालावनुज्ञातौ । - उक्तञ्च दशाश्रुतस्कन्धे - कप्पइ चउत्थभत्तियस्स एगं गोयरकालं गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणा वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । से य नो संथरिज्जा एवं से कप्पइ दुच्चं पि गाहावइकुलं ( अध्य० ८ पत्र ६० ) इत्यादि । 20 यस्तु 'विकृष्टभक्तिकः ' दशम- द्वादशमादिक्षपकस्तस्य सर्वेऽपि गोचरकालाः कल्पन्ते । “छट्ठऽट्टमे बि-तिहिं" ति षष्ठभक्तिकस्य द्वयोर्गोचरकालयोरष्टमभक्तिकस्य तु त्रिषु गोचरकालेषु भिक्षामटितुं कल्पत इति ॥ १६९८ ॥ स्यान्मतिः किमर्थं षष्ठादिभक्तिकानां व्यादिगोचरकालानामनुज्ञा : उच्यतेसंखुन्ना जेणंता, दुगाइ छट्ठादिणं तु तो कालो । भुत्तणुभुत्ते अ बलं, जायइ न य सीयलं होइ ॥ १६९९ ॥ 'संक्षुण्णानि ' सङ्कुचितानि 'येन' कारणेन षष्ठादितपसा ' अन्त्राणि' प्रतीतानि, ततः षष्ठादिभक्तिकानां 'द्विकादिकः' गोचरद्वयादिकः कालोऽनुज्ञातः । अपि च प्रथममेकवारं भुक्तस्ततो द्वितीयादिकं वारमनुभुक्तो भुक्तानुभुक्तस्तस्य व्यादीन् वारान् भुक्तवत इत्यर्थः 'बलं' भूयोऽपि षष्ठादिकरणे सामर्थ्यमुपजायते । न चेत्थं तद् भक्तं शीतलं भवति, सद्यो गृहीतत्वात् । यदि 30 ह्येकमेव वारं पर्यटता यद् गृहीतं तन्मध्यात् किञ्चित् समुद्दिश्य द्वितीयादिवारसमुद्देशनार्थं शेषं १ एषा पुरातना गाथा भा० । “दोण्णि० गाधा पुरातना" इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ एतच्चिद्यान्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव विद्यते ॥ ३ 'कमेकवारं भा० विना ॥ २ 25 प्रमाण द्वारम् Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ स्थापयेत् तदा तद् भवत्येव शीतलम् । तच्च तस्य तपःक्षामदेहस्याकारकमिति कृत्वा ध्यादयो गोचरकाला अनुज्ञाता इति॥१६९९।। अत्र परः प्राह—यद्यसौ षष्ठादिभक्तिको यावन्ति भक्तानि च्छिनत्ति तावन्त्येकेनैव दिवसेन पूरयति ततः को नाम गुणस्तस्य भक्तच्छेदनेन ? उच्यते बहुदेवसिया भत्ता, एगदिणेणं तु जइ वि भुंजेजा। तह वि य चाग-तितिक्खा-एगग्ग-पभावणाईया ॥ १७०० ॥ बहुदैवसिकानि भक्तानि यद्यप्यसावेकदिनेनैव तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् षष्ठादिभक्तिको भुञ्जीत तथापि भक्तच्छेदने त्याग-तितिक्षैकाग्र्य-प्रभावनादयो गुणा भवन्ति । त्यागो नाम यादीन् दिवसान् यावत् सर्वथैव भक्तार्थपरिहारः, तितिक्षा-क्षुधापरीपहस्याधिसहनम् , ऐकाय्यं तु सूत्रार्थपरावर्तनादौ चित्तस्यानन्योपयुक्तता, प्रभावना नाम-अहो! अमीषां शासनं विजयते यत्रेदशास्त10 पखिन इति, आदिशब्दादन्येषामपि तपःकर्मणि श्रद्धाजननम् , गृहिणां वा तदर्शनात् प्रव्रज्याप्रतिपत्तिरिति । अतः षष्ठादिभक्तिकस्य व्यादिगोचरकालानुज्ञानम् । नित्यभक्तिकस्तु यदि द्वितीयं वारं भिक्षार्थमवतरति मासलघु, तृतीयवारं मासगुरु, चतुर्थ चतुर्लघु, पञ्चमं चतुर्गुरु, षष्ठं षड्लघु, सप्तमं षड्गुरु, अष्टमं छेदः, नवमं मूलम् , दशममनवस्थाप्यम् , एकादशं वारं पाराञ्चिकम् ॥ १७०० ॥ चतुर्थभक्तिकादीनामतिदेशमाह15 जह एस एत्थ वुड्डी, ओअरमाणस्स दसहि सपदं च । सेसेसु वि जं जुजइ, तत्थ विवड्डी उ सोहीए ॥ १७०१॥ यथा द्वितीयादिवारं भिक्षामवतरतः 'एषा' लघुमासादारभ्य प्रायश्चित्तस्य वृद्धिर्भणिता 'दशभिश्च' दशसङ्ख्याकैः स्थानैः 'स्वपदं' पाराञ्चिकं नित्यभक्तिकस्योक्तम् , तथा 'शेषेष्वपि' चतुर्थ भक्तिकादिषु 'यत्' तृतीयवारादिकं प्रायश्चित्तस्थानं युज्यते 'तत्र' तदारभ्य 'शोधेः' प्रायश्चित्तस्य 20 विवृद्धिः कर्तव्या । तद्यथा— चतुर्थभक्तिकस्तृतीयं वारं भिक्षामवतरति मासलघु, चतुर्थं मास गुरु, पञ्चमं चतुर्लघु, षष्ठं चतुर्गुरु, सप्तमं षड्लघु, अष्टमं षड्गुरु, नवमं छेदः, दशमं मूलम् , एकादशमनवस्थाप्यम् , द्वादशं वारं पर्यटतः पाराञ्चिकम् । एवं षष्ठभक्तिकस्यापि द्वादशं वारमवतरतः पाराञ्चिकम् । यदाह चूर्णिकृत् छट्ठभत्तियस्स वि बारसहिं पावइ सपयं ति । 25 अष्टमभक्तिकस्य तु चतुर्थवारादारभ्य त्रयोदशं वारं यावत् पर्यटतो लघुमासादिकं पाराश्चि कान्तमिति ॥ १७०१ ॥ ___गतं प्रमाणद्वारम् । अथ कालद्वारम् - कस्मिन् काले भिक्षार्थ निर्गन्तव्यम् ? उच्यते-यः क्षपको बालो वृद्धो वा पर्युषितेन प्रथमालिकां कर्तुकामः स सूत्रपौरुषीं कृत्वा निर्गच्छति । अथ तावती वेलां न प्रतिपालयितुं क्षमः ततोऽर्द्धपौरुप्यां निर्गच्छति । यद्यतिप्रभाते पर्यटति तदा 30 मासलघु, भद्रक-प्रान्तकृताश्च दोषा भवन्ति । तत्र साधुरतिप्रभात एव कस्यापि गृहं गत्वा भिक्षां याचितवान् , स च गृहपतिर्भद्रकः सुप्तामविरतिकामुत्थापयेत् ततस्तस्यामुत्थितायामधिकरणं प्रवर्तितं भवेत् । यस्तु प्रान्तो भवति स ब्रूयात्–किमुन्मत्तो वर्तसे यदेवमतिप्रभाते पर्यटसि ? मुखरात्रिकं वा प्रष्टुं समायासीः ? इति । यद्वा कोऽपि नामान्तरं प्रस्थितः प्रथममेव तं साधुं दृष्ट्वा कालद्वा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ द्वारम् भाष्यगाथाः १७००-३] प्रथम उद्देशः । अपशकुनं मन्यमानः प्रद्वेषं यायात् , प्रद्विष्टश्चाहननादि कुर्यात् । अथैतद्दोषभयादतिक्रान्तायां वेलायामटति तदाऽपि मासलघु, "अकाले चरसी भिक्खू" (दश० अ० ५ उ० २ गा०५) इत्यादिगाथोक्ताश्च दोषाः । एवमुष्णस्यापि भक्तस्याप्राप्ते अतिक्रान्ते वा एत एव दोषा मन्तव्याः॥ गतं कालद्वारम् । अथावश्यकद्वारम्-यद्यावश्यकम वि]शोध्य निर्गच्छति तदा मासलघु, आवश्यकआज्ञादयश्च दोषा विराधना च प्रवचनादीनाम् । तद्यथा-भिक्षामटतः संज्ञा समागच्छेत् ततो 5 द्वारम् याद्राहितपात्रकः पानकं वा विना व्युत्सृजति तदा प्रवचनविराधना-अहो ! अशुचयोऽमी । अथैतद्दोषभयान्न व्युत्सृजति तत आत्मविराधना । अथ प्रतिश्रयमागत्य पानकं गृहीत्वा संज्ञाभूमौ व्रजति ततो देश-काले स्फिटिते सति भिक्षामलभमान एषणां प्रेरयेत् , ततः संयमविराधना । यत एवमत आवश्यकं शोधयित्वा निर्गन्तव्यम् ॥ गतमावश्यकद्वारम् । अथ सङ्घाटकद्वारं भाष्यकृदेव व्याख्यानयति 10 एगाणियस्स दोसा, साणे इत्थी तहेव पडिणीए। सङ्घाटकभिक्खविसोहि महव्वय, तम्हा सबिइज्जए गमणं ॥ १७०२॥ यद्येकाकी पर्यटति तदा मासलघु । एते च दोषाः-स एकाकी यदि भिक्षां शोधयति तदा पृष्ठतः श्वानः समागत्य तं दशेत् । अथ श्वानमवलोकते तत एषणां न रक्षति । तमेकाकिनं दृष्ट्वा काचित् प्रोषितभर्तृका विधवा वा स्त्री बहिः प्रचारमलभमाना द्वारं पिधाय तं गृह्णीयात् । 15 प्रत्यनीको वा तमेकाकिनं दृष्ट्वा प्रान्तापनादि' कुर्यात् । 'भिक्षाविशोधिः' इति एकाकी यदि त्रिपु गृहेषु भिक्षां दीयमानां गृह्णाति तत एषणायामशुद्धिर्भवति । अथैकत्रैव गृहे गृह्णाति तत इतरयोर्दायकयोः प्रद्वेषो भवेत् । द्वयोस्तु निर्गतयोरेक एकत्र भिक्षामाददान एवोपयोगं ददाति, द्वितीयस्तु शेषगृहद्वयादानीयमानं भिक्षाद्वयमपि सम्यगुपयुङ्क्ते । महात्रतानि वा एकाकी विराधयेत् । तथाहि—एकाकी निःशङ्कत्वादप्कायमप्यापिवेत् १ कुण्टल-विण्टलादि वा प्रयुञ्जीत 20 २ हिरण्यादिकं वा विक्षिप्तं गुरुकर्मतया स्तेनयेत् ३ अविरतिकां वा रूपवतीं दृष्ट्वा समुदीर्णमोहतया प्रतिसेवेत ४ भैक्षेण वा समं पतितं सुवर्णादि गृह्णीयाद् ५ इति । यत एते दोषास्तस्मात् सद्वितीयेन गमनं कर्त्तव्यम् , सङ्घाटकेनेत्यर्थः ॥ १७०२ ॥ स पुनरेकाकी कैः कारणैः सङ्घाटिक न गृह्णानि ? इति उच्यते गारविए काहीए, माइल्ल अलम लुद्ध निम्मे । दुल्लह अत्ताहिट्ठिय, अमणुने या असंघाडो ॥ १७०३ ॥ 'गौरविको नाम' 'लब्धिसम्पन्नोऽहम्' इत्येवं गर्वोपेतः । अत्र चेयं भावना-सङ्घाटके यो रत्नाधिकः सोऽलब्धिमान् अवमरत्नाधिकस्तु लब्धिसम्पन्नः ततोऽसावग्रणीभूय भिक्षामुत्पादयति, प्रतिश्रयमागतयोश्च तयो रत्नाधिको मण्डलीस्थविरेण भण्यते-'ज्येष्ठाय ! मुञ्च प्रतिग्रहम्' ततोऽवमरत्नाधिकः स्खलब्धिगर्वितश्चिन्तयेत्-'मया खलब्धिसामर्थेनेदं भक्त-पानमुत्पादितम् , 30 इदानीमस्य रत्नाधिकः प्रभुरभूद् येनास्य पार्थे प्रतिग्रहो याच्यते' इति कपायितः सन्नेकाकिवं प्रतिपद्यते । “काहीए" ति कथाभिश्चरतीति 'काथिकः' कथाकथनैकनिष्ठः, स गोचरं प्रविष्टः १°दि पिट्टनं कु° भा० ॥ 25 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ उपकरण द्वारम् सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ कथाः कथयन् द्वितीयेन साधुना. गुर्वादिभिर्वा वार्यमाणोऽपि नोपरमते तत एकाकी भवति । 'मायावान्' भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा शेषमानयन्नेकाकी जायते । 'अलसः' चिरगोचरचर्याभ्रमणभनः सन्नेकाकी पर्यटति । 'लुब्धस्तु' दधि-दुग्धादिका विकृतीग्वभापमाणः पृथगेवाटति । ' निर्मा पुनः' अनेषणीयं जिघृक्षुरेकत्वं प्रतिपद्यते । “दुल्लह" ति दुर्लभभैक्षे काले एकत्वमुपसम्पद्यते । 5 'अत्ताहिट्ठिय" त्ति आत्मार्थिकः-आत्मलब्धिकः सः 'स्खलब्धिसामथ्र्येनैवोत्पादितमहं गृह्णामि' इत्येकाकी भवति । 'अमनोज्ञो नाम' सर्वेषामप्यनिष्टः कलहकारकत्वाद् असावप्येकाकी पर्यटतीति । एतैः कारणैः 'असङ्घाटः' सङ्घाटको न भवति ॥ १७०३ ॥ अथैतेषामेकाकित्वप्रत्ययं प्रायश्चित्तमाह लहुया य दोसु गुरुओ, अ तइअए चउगुरू य पंचमए । सेसाण मासलहुओ, जं वा आवजई जत्थ ॥ १७०४ ॥ 'द्वयोः' गौरविक-काथिकयोश्चत्वारो लघवः । 'तृतीयकस्य' मायावतो गुरुको मासः । 'पञ्चमस्य' लुब्धस्य चत्वारो गुरवः । 'शेषाणाम्' अलस-निर्धर्मादीनां मासलघु । 'यद् वा' संयमविराधनादिकं यत्रापद्यते तन्निप्पन्नं तत्र प्रायश्चित्तम् ॥ १७०४ ॥ ___ गतं सङ्घाटकद्वारम् । अथोपकरणद्वारम्-सर्वमप्युपकरणमादाय भिक्षायामटितव्यम् । यदि 15 सर्वोपकरणं न गृह्णाति तदा मासलघु, उपधिनिप्पन्नं वा । तथा तेषां भिक्षामटितुं गतानां स प्रतिश्रयस्थापित उपधिरग्निकायेन दह्येत, दण्डिकक्षोभो मालवस्तेनक्षोभो वा तेषां भिक्षामटतां सहसा समापतित इति कृत्वा तत एव ते पलायिताः, ततो यदुपधि विना तृणग्रहणादि कुर्युः तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तमिति ॥ गतमुपकरणद्वारम् । अथ मात्रकद्वारं व्याख्यायते--मात्रकमगृहीत्वा निर्गच्छति मासलधु । 20 आचार्यादीनां प्रायोग्यं मात्रकं विना कुत्र गृह्णातु ? । यदि 'न गृह्णाति तदा यत् ते अनागाढमागाढं वा परिताप्यन्ते तन्निष्पन्नम् । अथ ते अन्त-प्रान्तं समुद्दिशेयुः ततो ग्लान्यादयो दोषाः। दुर्लभद्रव्यस्य वा घृतादेस्तदिवसं लाभो जातः, यदि मात्रकं नास्तीति कृत्वा तन्न गृह्णाति तदा मासलघु । संसक्तभक्त-पानं वा मात्रकं विना क शोधयतु ? । यदि मात्रकमभविष्यत् ततस्तत्र शोधयित्वा परिष्ठापयेत् प्रतिग्रहे प्रक्षिपेद्वा । यत एवमतः कर्त्तव्यं मात्रकग्रहणम् ।। 25 गतं मात्रकद्वारम् । अथ कायोत्सर्गद्वारम्-कायोत्सर्गमकृत्वा व्रजति मासलधु । दोषाश्चात्र कश्चिद् योगप्रतिपन्नस्तस्य तद्दिवसमाचाम्लम् , स चोपयोगकायोत्सर्गमकृत्वा गतो दनः करम्बं गृहीत्वा समायातः, पश्चादपरैः साधुभिस्तस्याचाम्लं स्मारितम् , ततः स यदि तं समुद्दिशति तदा योगविराधना, अथ परिष्ठापयति ततः संयमविराधना, ततः कायोत्सर्ग कृत्वा निर्गच्छेत् । तत्र च कायोत्सर्गे चिन्तयेत्-यथा अद्य किं मे आचाम्लम् ? उत निर्विकृतिकम् ? उताहो अभक्ता30र्थम् ? आहोश्चिदेकाशनकम् ? इति । इत्थमुपयोगं दत्त्वा प्रत्याख्यानानुगुणमेवाहारं गृह्णाति ॥ गतं कायोत्सर्गद्वारम् । अथ यस्य च योग इति द्वारम्-यस्य-वस्त्र-पात्र-शैक्षादेर्योगः-सम्बन्धो १ इति विशेषचूर्णितो लिखितम् । इत्थ भा० ॥ मात्रकद्वारम् कायोत्सर्ग द्वारम् द्वारम् Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथा : १७०४ ] प्रथम उद्देशः । ५०३ भविष्यति तदपि ग्रहीष्यामीति यदि न भणति तदाऽपि मासलघु । वस्त्र - पात्रादिकं च ग्रहीतुं न कल्पते ॥ अथ सप्रतिपक्ष इति द्वारम् -- एष द्वारकलापः सप्रतिपक्षः - सापवादो मन्तव्यः । तद्यथाआचार्याद्यर्थं बहूनपि वारान् प्रविशेत् । प्रथम-द्वितीयपरीषहपीडितो यद्यप्यतिप्रभातं तदाऽपि निर्गच्छेत्, यत्र च मानुषाणि विबु - 5 द्धानि तत्र गत्वा धर्मलाभयेत्, ग्लान- प्राघूर्णकादीनां हेतोरतिक्रान्तेऽपि निर्गच्छेत् । अनाभोगतो ग्लानादिषु वा कार्येषु व्यापृतः सन्नावश्यकमप्य [वि]शोध्य निर्गच्छेत् । निर्गतश्च संज्ञया बाध्यमानो यदि प्रतिश्रयः प्रत्यासन्नस्ततो निवर्त्तते । अथ दूरे ततो यदि कालो न पूर्यते तदा तयोरेकः पात्रकाणि धारयति इतरः संज्ञां व्युत्सृजति । अथ सागारिकास्तत्र पश्यन्ति ततः समनोज्ञानां प्रतिश्रयं गत्वा व्युत्सृजति । तदभावे अमनोज्ञानां संविग्नानाम् । तेषामलाभे पार्श्व - 10 . स्थादीनाम् । तेषामप्यभावे सारूपिकाणाम् । तदसत्त्वे सिद्धपुत्रकाणाम् । तेषामप्राप्तौ श्रावकाणां वैद्यस्य वा गृहे । एतेषामभावे राजमार्गे गृहद्वयमध्यभागे वा गृहस्थसत्के वा अवग्रहे कायिकीवर्ज व्युत्सृजति । ततो यद्यसौ गृहपतिस्तां संज्ञां त्याजयति तदा राजकुले व्यवहारो लभ्यते । यथात्रेयः शल्या महाराज !, अस्मिन् देहे प्रतिष्ठिताः । वायु - मूत्रपुरीषाणां प्राप्तं वेगं न धारयेत् || तथा सङ्घार्टकं विनाऽपि निर्गच्छेत् । कथम् ? इति चेट् उच्यते - यदि दुर्भिक्षे चिरमप्यदित्वा पर्याप्तं लभ्यते ततो द्वावेव पर्यटतां न पुनरेकाकी । अथ द्वयोरप्येकैव भिक्षा लभ्यते न च कालः पूर्यते तत एकोऽपि पर्यटेत् । यदि सर्वेऽपि खग्गूढत्वादात्मलब्धिका भवन्ति तदा प्रतिषेद्धन्याः । अथ कोऽपि प्रियधर्मा मातृस्थानविरहित आत्मलब्धिकत्वं प्रतिपद्यते ततः सोऽनुज्ञातव्यः । यः पुनरमनोज्ञः स अन्यान्यैः साधुभिः समं संगोज्य प्रेष्यते । यदि सर्वेऽपि 20 नेच्छन्ति ततः परित्यजनीयोऽसौ । अथ स एवैकः कलहकरणलक्षणस्तस्य दोषः अपरे निर्लोभत्वादयो बहवो गुणा एषणाशुद्धौ चातीव दृढता ततो न परित्यक्तव्य इति । यत्र श्वान - गवादयो दुष्टा भवन्ति गृहं यद्यनाभोगतः प्रविष्टस्ततः कुड्य-कटनिश्रया तिष्ठति, दण्डकेन वा तान् वारयति । यदि काचिदविरतिका तमुपसर्गयेत् ततो धर्मकथा कर्त्तव्या । तया यद्युपशाम्यति ततः सुन्दरम्, नो चेदभिधातव्यम् - एतानि व्रतानि गुरुसमीपे स्थापयित्वा समागच्छामीति । 25 यदि प्रत्यनीकगृहमनाभोगतः प्रविष्टस्ततो महता शब्देन तथा बोलं करोति यथा भूयाँलोको मिलति । त्रयाणां गृहाणां मध्ये स्थितः सन्नुपयोगं कृत्वा भिक्षां गृह्णीयात् । पञ्चानामपि महात्रतानामतिक्रमं महता प्रयत्नेन परिहरेत् । सर्वोपकरणमपि स्तेन-प्रत्यनीकाद्युपद्रवभयाद् वृद्धत्वादधुनोत्थितग्लानत्वाद्वा न गृह्णीयात् । इयत् पुनरवश्यमेव ग्रहीतव्यम् - पात्रभाण्डकं चोलपट्टको रजोहरणं मुखवस्त्रिका चेति । मात्रकमप्यनाभोगादिना न गृह्णीयात् । १ “तिष्णि सल्ला महाराय !, अस्सि देहे पइट्ठिया । वायु-मुप्त-पुरिसाणं, पत्तं वेगं न भारए ॥ ६२३ ॥” इति ओघनिर्युक्तिश्लोकसमोऽयं श्लोकः ॥ २°टकेन विभा० ॥ सप्रति पक्षद्वारम् 15 30 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णद्वारम् अलेप- 10 ५०४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १. कायोत्सर्गादीन्यपि ग्लानादिकार्येषु त्वरमाणो न कुर्यादिति ॥ उक्तं सप्रतिपक्षद्वारम् । तदुक्तौ च गतं भिक्षाद्वारम् । अथ कल्पकरणद्वारमभिधित्सुराहकल्पकर भाणस्स कप्पकरणे, अलेवडे नत्थि किंचि कायव्वं । तम्हा लेवकडस्स उ, कायव्वा मग्गणा होइ ॥ १७०५ ॥ 5. भाजनस्य कल्पकरणे चिन्त्यमाने यदलेपकृतं द्रव्यं तद् यत्र प्रक्षिप्तं तस्य भाजनस्य न किञ्चित् कर्तव्यम् , कल्पो न विधेय इत्यर्थः । लेपकृतभाजनस्य त्ववश्यं कल्पो दातव्य इत्यतो लेपकृतस्य मार्गणा कर्त्तव्या, कीदृशं लेपकृतम् ? अलेपकृतं वा ? इति चिन्तनीयमित्यर्थः ॥ १७०५ ॥ तत्रालेपकृतानि तावदाह कंजुसिण-चाउलोदे, संसट्ठा-ऽऽयाम-कट्ठमूलरसे । कंजियकढिए लोणे, कुट्टा पिज्जा य नित्तुप्पा ॥ १७०६ ॥ कृतानि कंजिय-उदगविलेवी, ओदण कुम्मास सत्तुए पिढे । मंडग समिउस्सिन्ने, कंजियपत्ते अलेवकडे ॥ १७०७ ॥ काञ्जिकम्-आरनालम् , उष्णोदकम्-उद्वत्तत्रिदण्डम् , "चाउलोदगं" तन्दुलधावनम् , संसृष्टं नाम-गोरससंसृष्टे भाजने प्रक्षिप्तं सद् यदुदकं गोरसरसेन परिणामितम् , 'आयामम्' अवश्रावणम् , 15 "कट्ठमूलरसे" त्ति काष्ठमूलं-चणक-चवलादिकं द्विदलं तदीयेन रसेन यत् परिणामितं तत् काष्ठमूलरसं नाम पानकम् , तथा यत् काञ्जिकक्कथितम् , “लोणि" त्ति सलवणम् , या च "कुट्टा" चिञ्चनिका, पेया च' प्रतीता 'निस्तुप्पा' अचोप्पडा अवग्धारिता वा ॥ १७०६ ॥ तथा विलेपिका द्विविधा-एका काञ्जिकविलेपिका, द्वितीया उदकविलेपिका । 'ओदनः' तन्दुलादि भक्तम्, 'कुल्माषाः' उडदा राजमाषा वा, 'सक्तवः' भ्रष्टयवक्षोदरूपाः, 'पिष्टं' 20 मुद्गादिचूर्णम् , 'मण्डकाः' कणिक्कामयाः, 'समितं' अट्टकः, 'उत्स्विन्नम्' उण्डेरकादि, 'काञ्जिकपत्रं' काञ्जिकेन बाप्पितं अरणिकादिशाकम् । एतानि काञ्जिकादीन्यलेपकृतानि मन्तव्यानि ॥ १७०७ ॥ अथ लेपकृतानि निरूपयतिलेपकृ. विगई विगइअवयवा, अविगइपिंडरसएहिँ जं मीसं । तानि गुल-दहि-तेल्लावयवे, विगडम्मि य सेसएसुं च ॥ १७०८ ॥ 25 दधि-दुग्ध-धृतादिका या विकृतयो ये च विकृतीनामवयवाः-मन्थुप्रभृतयस्तैर्य मिश्रं यच्चाविकृतिरूपैः पिण्डरसैः-खर्जूरादिभिर्मिश्रं एतत् सर्वमपि लेपकृतमिति प्रक्रमः । अत्र च गुडदधि-तैलानां येऽवयवाः यश्च 'विकेटे' मद्येऽवयवः 'शेषेषु च' घृतादिषु येऽवयवास्ते केचिद् विकृतयः केचिच्चाविकृतयः प्रतिपत्तव्याः ॥१७०८॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवृणोति १कंजिय उण्होदग चाउलोदए संस° ता० । चूर्णिकृता विशेषचूर्णिकृता चायमेव पाठ आदतोऽस्ति ॥ २°कटस्य' मद्यस्यावयवः "सेसएसुंच" त्ति 'शेषेषु घृतादिषु च येऽव. भा०॥ ३ अथ विकृतीनामेव सावयव-निरवयवत्वज्ञापनार्थ ते वा अवयवाः के विकृतयः ? के वा न विकृतयः? इत्याशङ्कापनोदार्थ च गाथात्रयमाह-दहि भा० । “तेषां च के विकृतयः? के वा न? इति ज्ञापनार्थमिदमुच्यते-दधि" इति चौँ विशेषचों च॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७०५-१३] प्रथम उद्देशः । दहिअवयव उमंधू, विगई तकं न होइ विगई उ । खीरं तु निरावयवं नवणीओगाहिमा चैव ।। १७०९ ॥ arat पुण विगई, वीसंदण मो य के इच्छंति । तेल - गुलाण अविगई, समालिय-खंडमाईणि ॥ १७१० ॥ महुणो मयणमविगई, खोलो मस्स पोग्गले पिउडं । रसओ पुण तदवयवो, सो पुण नियमा भवे विगई ।। १७११ ।। दध्नः सम्बन्धी यो मन्थु इति नाम्ना प्रसिद्धोऽवयवः स विकृतिः । यत्तु तक्रं तद् दध्यवयवरूपमपि विकृतिर्न भवति । 'क्षीरं तु' दुग्धं पुनः 'निरवयवम्' अवयवरहितम्, नवनीतंक्षणम् अवगाहिमं - पकान्नम् एते अपि निरवयवे, एतद्विषयाणामवयवानां पृथगव्यवह्रियमाणत्वादिति ॥ १७०९ ॥ 10 'घृतघट्टः पुनः ' घृतस्य सम्बन्धी यः किट्टो महियाडुकमित्यर्थः स विकृतिर्व्यवह्रियते । विस्पन्दनं नाम- अर्द्धनिर्दग्धघृतमध्यक्षिप्ततन्दुलनिष्पन्नम् । उक्तञ्च पञ्चवस्तुकटीकायाम्वीसंदणं अद्धनिद्दड्डुघयमज्झछूढतंदुलनिप्फन्नं ( गा० ३७९ ) ति । “मो” इति पादपूरणे । चशब्दोऽपिशब्दार्थे । विस्पन्दनमपि केचिद् विकृतिमिच्छन्ति न पुनर्वयम् । यदाह चूर्णिकृत् 15 ५०५ अम्हाणं पुण वीसंदणं अविगइ ति । तैल-गुलयोर्यथाक्रमं यानि सुकुमारिका -खण्डादीनि तानि 'अविकृतिः' विकृतिर्न भवतीत्यर्थः । सुकुमारिका-तैलकिट्ट विशेषः, खण्डः - प्रतीतः, आदिशब्दात् शर्करा - मत्स्यण्डिकादिपरिग्रहः ॥ १७१० ॥ 'मधुनः’ माक्षिकादिभेदभिन्नस्यावयवो यद् मदनं तदविकृतिः । मद्यस्य यः 'खोलः ' किट्ट - 20 विशेषः सोऽपि न विकृतिः । पुद्गलस्य यत् 'पिटकम्' उज्झम् अस्थि वा तदप्यविकृतिः । 'रैसकः पुनः' [ वसा मेदश्च ] यस्तस्य - पुद्गलस्यावयवः स पुनर्नियमाद् भवेद् विकृतिः ॥ १७११ ॥ अथ पिण्डरसपदं व्याख्यानयति अंबाड- कविट्ठे, मुद्दीया माउलिंग कयले य । खजूर - नालिएरे, कोले चिंचा य बोधव्वा ॥ १७१२ ॥ आम्रं आम्रातकं कपित्थं ‘मुद्रिका' द्राक्षा 'मातुलिङ्गं' बीजपूरकं "कयलं” कदलीफलं 'खर्जूरं नालिकेरम्' उभयमपि सुप्रसिद्धं 'कोलः ' बदरचूर्णं 'चिञ्चा' अम्लिका चशब्दादन्यान्यप्येवंविधानि पिण्डरद्रव्याणि बोद्धव्यानि । एतानि च विकृतयो न भवन्ति ॥ १७१२॥ यत आहखजूर-मुद्दिया- दाडिमाण पीलुच्छु- चिंचमाईणं । पिंडरसन ( अ ) विगईओ, नियमा पुण होंति लेवाडा ॥ १७१३ ॥ —— 5 २ °यवरूपं य० भा० ॥ १ ‘“अम्हं विस्संदणं निब्बीतियं" इति पाठोऽस्मत्समीपस्थचूर्णि प्रतिषु दृश्यते ॥ ३ "रसओ वसा मेदो य विगई" इति चूर्णो विशेषचूर्णौ च ॥ ४ धाः पिण्डरसा ज्ञातव्याः । एते चाविकृतयः परं लेपकृतद्रव्याणि मन्तव्याः ॥ १७१२ ॥ भा० ॥ 25 30 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ सनियुक्ति-लधुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्र [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ खर्जूर-मुद्रिका-दाडिमानां पील-इक्षु-चिञ्चादीनां च सम्बन्धिनौ यो पिण्डरसौ तौ 'अविकृती' विकृती न भवतः, नियमात् पुनर्लेपकृतौ भवत इति ॥ १७१३ ॥ उक्तानि लेपकृतानि । लेपकृतैः संसृष्टस्य भाजनस्य कल्पः करणीयः । यदि पुनस्तस्य भाजनस्य लेपः स्फटितो भवति ततः कल्पत्रये कृतेऽपि लेपकृतमेव तद् मन्तव्यम् । अतस्त5 दोषपरिहारार्थमाह कुट्टिमतलसंकासो, भिसिणीपुक्खलपलाससरिसो वा । सामास धुवण सुक्खावणा य सुहमे रिसे होति ॥ १७१४॥ यथा कुट्टिमतलं निम्नोन्नतप्रदेशरहितं सर्वतः सममेव भवति एवं पात्रकस्य लेपोऽपि कुट्टिमतलसङ्काशः सर्वतः सम एव कर्तव्यः । तथा बिसिनी-पद्मिनी तस्या यत् पुष्कलं-विस्तीर्ण 10 पलाशं-पत्रं तत्र पतितं जलं यथा नावतिष्ठते एवं यत्र सूक्ष्मसिक्थाद्यवयवा लग्ना अपि न स्थिति कुर्वन्ति स बिसिनीपुष्कलपलाशसदृशः । ईदृशे लेपे पात्रकस्य समास-धावन-शोषणाः सुखमेव कर्तुं शक्यन्ते । सम् इति-सम्यक् प्रवचनोक्तेन विधिना आङ् इति-मर्यादया पात्रकलेपमवधीकृत्य यद् असनं-सिक्थाद्यवयवानामपनयनं स समासः, संलेखनकल्प इत्यर्थः । धावनं-कल्प त्रयप्रदानम् । शोषणं-उद्वापनम् । अपरश्चायं गुण ईदृशे पात्रे भवति15 एगो साहू रुक्खमूले समुद्दिसइ । तेण साहुणा दिसालोगो कओ, न पुण उवरिमारूढो धिज्जाइओ दिट्टो । तेण सो साहू दरजिमिओ दिट्ठो । ताहे सो ओअरित्ता गाममइगओ। तच्छणेण सिटुं गामिल्लयाणं । तेण पुण साहुणा सो ओअरंतो दिट्ठो । ताहे सो भगवं दवदवस्स आउत्तो समुद्दिसिउं तहा संलिहइ जहा नजइ धोयं पिव पत्तं । पच्छा सो भगवं मुहपोत्तियाए मुहं पिहेऊण पढंतो अच्छइ । ते आगया पिच्छंति साहुं उवसंतं । कओ एह ? कत्तो भिक्खं 20 गहियं ? । तओ भणइ-न ताव हिण्डामि, किं वेला जाया। ते अन्नमन्नस्स मुहं पलोइंति। ताहे धिज्जाइओ भणइ-मए दिह्रो, पलोएह से भायणं ति । पिच्छामो भायणं । तेणं दाइयं । ताहे ते दहण भणंति-तुमं सि पावो भरुगो त्ति ॥ ॥१७१४ ॥ __ अमुमेवार्थ भाष्यकृदाह आउत्तो सो भगवं, चोक्खं सुइयं च तं कयं पत्तं । निस्सील-निव्वयाणं, पत्तस्स य दायणा भणिया ॥१७१५ ॥ ओभामिओ उ मरुओ, पत्तो साहू जसं च कित्तिं च । पच्छाइआ य दोसा, वण्णो य पभाविओ तहियं ॥ १७१६ ॥ स भगवान् तं धिम्जातीयं वृक्षादवतरन्तं दृष्ट्वा 'आयुक्तः' प्रवचनमालिन्यरक्षणाय प्रयत्नपरो बभूव । ततस्तेन संलेखनाकल्पकरणेन चोक्खं शुचिकं च कृतं तत् पात्रकम् । ततश्च निःशील30 निम्रतानां च तेषां ग्रामेयकाणां पात्रकस्य 'दर्शना' 'निरीक्षध्वमिदं यदि भवतामेतद्दर्शने कौतुक १ इति । एतैः पिण्डरसद्रव्यैर्यद् मिश्रं तदपि लेपकृतमेव ॥ १७१३ ॥ भा० ॥ २ ततश्च तेन चोक्खं संलेखनाकल्पकरणेन शुचिकं च कल्पप्रदानेन कृतं तत् पात्रकम् । ततश्च 'निम्शील-नितानां ब्रह्मचर्या-ऽहिंसादिबहिस्कृतानां धिग्जातीयानां पात्रकस्य भा०॥ 20 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७१४-१९] प्रथम उद्देशः । मस्ति' इत्येवंलक्षणा भणिता ॥ १७१५ ॥ __पात्रे च दर्शिते तैः 'मरुकः' धिग्जातीयोऽपभाजितः । यथा-धिग् भवन्तमसदोषोद्धोषणकारिणं गुणिषु मत्सरिणमिति । साधुश्च प्राप्तः 'यशश्च' मिथ्यादृष्टिमानमर्दनपराक्रमसमुत्थं 'कीर्ति च' शुचिसमाचाररूपसुकृतप्रभवाम् । प्रच्छादिताश्च दोषाः पानकेन विना तुम्बकेषु वा भोजनकरणसमुत्थाः । वर्णश्च प्रभावितः प्रवचनस्य तत्रावसरे तेन भगवता । एष गुणः शोभन-5 लेपलिप्तस्य पात्रस्येति ॥ १७१६ ॥ अथ येषु द्रव्येषु कल्पकरणमवश्यं कर्त्तव्यं तानि दर्शयति लेवाड विगइ गोरस, कढिए पिंडरस जहन्न उब्भजी। एएसिं कायव्वं, अकरणें गुरुगा य आणाई ॥ १७१७ ॥ एतानि द्रव्याणि लेपकृतानि । तद्यथा-'विकृतयः' दधि-दुग्धादिकाः, 'गोरसं' तक्रादि, 10 'कथितं' तीमनादि, "पिण्डरसाः' खजूरादयो यावज्जघन्यतः "उन्भजि" त्ति कोद्रवजाउलकम् । 'एतेषां' लेपकृतानां कल्पकरणं कर्तव्यम् । यदि न करोति तदा चत्वारो गुरुकाः, आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमादिविषया ॥ १७१७ ॥ तामेव भावयति संचयपसंगदोसा, निसिभत्तं लेवकुच्छणमगंधं । दव्यविणासुड्ढादी, अवण्ण संसजणाऽऽहारे ॥ १७१८॥ 15 लेपकृतपात्रकस्य कल्पेऽक्रियमाणे यः सञ्चयः-सूक्ष्मसिक्थाद्यवयवपरिवासनरूपस्तस्य प्रसड्रेन दोषा एते भवेयुः-*निशिभक्तं प्रतिसेवितं भवति । लेपस्य च कोथनं-पूतिभवनम् । ततश्च 'अगन्धं नञः कुत्सार्थत्वादतीवदुर्गन्धि भाजनं भवति । तादृशे च भाजने गृहीतस्य द्रव्यस्य-ओदनादेर्विनाशो भवति । तस्मिन् भुञ्जानस्य च विरसगन्धाघ्राणत ऊर्धादीनि भवन्ति । ऊर्द्ध-वमनम् , · आदिशब्दादरोचक-मान्द्यादिपरिग्रहः । 'अवर्णश्च' प्रवचनस्योड्डाहो भवति । 20 तथाहि-लोको भिक्षां ददानो दुर्गन्धि भाजनं दृष्ट्वा गर्हते-ईशा एवैते अशुचयः पापोपहता इति । "संसजणाऽऽहारे" ति दुर्गन्धिनाऽऽहारे पनक-कुन्थुप्रभृतयः प्राणिनः संसजेयुः॥१७१८॥ यत एवमतः लेवकडे कायव्वं, परवयणे तिमि वार गंतव्वं । एवं अप्पा य परो, य पवयणं होंति चत्ताई ॥ १७१९ ॥ 25 १ श्च' प्रत्यनीकमान भा० ॥ २ च' 'अहो! अयं महात्मा शुचिसमाचारः' इत्येवं खकृतसचरितप्रभवाम् । प्रच्छादिताश्च दोषास्तुम्बकेषु भोज भा० ॥ ३°का, गोरसेन कयितं-राद्धं यत् पेयादिद्रव्यम् , यद्वा गोरसमेव-तकादिकं यत् कथितम्, ये च 'पिण्डरसाः' मुद्रिकादयो यावजघन्यतः "उम्मेज"त्ति 'उद्भेद्या' कोद्रवजाउलकं वास्तुलप्रभृतिशाकभर्जिका वा । 'एतेषां भा० । “लेवगडविगह० गाहा ॥ लेवाडा विगईओ गोरसो य कढियओ, पिंडरसो मुद्दियाई, जहमओ लेवाडो 'उन्भज्जी' वियओ सुरपूवियमेगटुं । एएसि लेवाडाणं कप्पो कायवो । न करेइ ::, आणाई दिराहणा" इति विशेषवर्णिः। ४ निशि-रात्रौ भकं भा.॥ ५भवेत् भा० ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ लेपकृतभाजने कर्त्तव्यं कल्पकरणम् । अत्र परः -प्रेरकस्तस्य वचने त्रीन् वारान् कल्पप्रायोपानग्रहणार्थं गृहपतिगृहे गन्तव्यमिति । सूरिराह — एवं क्रियमाणे आत्मा च परश्च प्रवचनं च भवन्ति परित्यक्तानीति' निर्युक्तिगाथासमासार्थः ॥१७१९॥ अथैनामेव विवरीपुराह - गोउल विरूवसंखडि, अलंर्भे साधारणं च सव्वेसिं । गहियं संती य तहिं, तक्कुच्छुरसादि लग्गट्ठा || १७२० ॥ 15 ५०८ गच्छे साधवः सुबहवो भवेयुः, तैश्च भिक्षां हिण्डमानैर्गोकुले दुग्ध-दध्यादीनि प्राचुर्येण लब्धानि, ‘विरूपायां वा' अनेकैभक्ष्य-भोज्यप्रकारायां सङ्खड्यामुत्कृष्टमशनादिद्रव्यं लभ्येत, तैश्च साधुभिः 'अलाभे' अन्यत्र तथाविधस्य दुर्लभद्रव्यस्यासम्प्राप्तौ सर्वेषां साधारणमुपष्टम्भकाकमिदमिति मत्वा सर्वाण्यपि भक्तभाजनानि भृत्वा पानकप्रतिग्रहेष्वपि गृहीतम् । ततः प्रति10 श्रयमागता यावत् पानकेन विना न शक्यते समुद्देष्टुम् आहारस्य गलके विलगनात्, ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह — सन्ति च तत्र तक्रेक्षुरसादीनि, आदिशब्दाद् दुग्धादीनि च तान्यपान्तराले आपिबेत् । किमर्थम् ? इत्याह – “ लग्गट्ट" त्ति लगनं लग्नम्, भावे क्तप्रत्ययः, आहारस्य गलके विलगनमुत्तूहणं वा तदर्थम्, तद् मा भूदित्यर्थः ॥ १७२० ॥ आह यद्येवं तर्हि पानकाभावे समुद्देशनानन्तरं कथं भाजनानि कल्पयितव्यानि ? इत्युच्यते— मंडलितकी खमए, गुरुभाणेणं व आणयंति दवं । अपरीभोगऽतिरित्ते, लहुओऽणाजीविभाणे य ।। १७२१ ॥ यः क्षपकः “मण्डलितक्की" मण्डल्युपजीवकस्तस्य भाजनेन गुरूणां भाजनेन वा 'द्रवं' पानकमानयन्ति । अथापरिभोग्येषु भाजनेषु 'अतिरिक्ते वा' नन्दीभाजने मण्डल्यनुपजीविक्षपकभाजने वा द्रवमानयन्ति तदा लघुको मासः ॥ १७२१ ॥ 1 20 अथ "परवचने त्रीन् वारान् गन्तव्यम्” ( गा० १७१९ ) इति पदं व्याख्यानयति-— भइ जइ एस दोसो, तो आइमकप्पमाण संलिहिउं । अन्नेसि तगं दाउं, तो गच्छइ विइय-तइयाणं ।। १७२२ ॥ " ‘र्भंणति' परः प्रेरयति—यद्येषः 'दोषः' प्रायश्चित्तापत्तिलक्षणस्ततोऽहं विधिं भणामि – प्रतिग्रहं संलिख्य तत एकाकी गृहपतिगृहे प्रविश्य 'आदिमकल्पमानं' यावताँ सर्वसाधुभिरादिमः कल्पः 25 क्रियते तावन्मात्रं द्रवं गृहीत्वाऽन्येषां साधूनां 'तत्' पानकं दत्त्वा ततः स्वयं प्रथमकल्पं करोतु । कृत्वा च ततो गच्छति द्वितीय-तृतीययोः कल्पयोः । इदमुक्तं भवति — द्वितीयकल्पकरणार्थं १ °ति गाथा भा० ॥ २ 'कप्रका भा० ॥ ३ लभ्यते त० डे० ॥ ४ वेत्यर्थः, त° भा० ॥ ५ ख्याति भा० मो० ले० ॥ ६ " भणति • गाधा || 'परो' त्ति चोदगो सो भणति - जति एस पच्छितदोसो तो अर्ध विधि भणामि – पडिग्गहं संलिहित्ता एगागी प्रथमकल्पकरणार्थ पविसित्ता तत्तियमेत्तं दवं गेण्हतु जेण पढमकप्पं काउं बितियं वारा वितियकल्पार्थं पविसित्ता तत्तियमेत्तं दवं गहाय आगंतु हत्थकप्पं काउं बितियकप्पं च दाउं ततियं वारं पवितित्ता जत्तिएणं ततियकप्पो कीरति तं घेत्तुं आगंतुं ततियकप्पं दाउं बच्छा जत्तिएण सेसाणि लेवाडाणि भायणाणि घोव्वंति सण्णाभूमिपाणगं च भवति तत्तियमेत्तं घेत्तुं उ ।” इति चूर्णिः विशेषचूर्णिश्च ॥ ७° ता एकेनादिमः प्रथमः कल्पः क्रि० भा० ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७२०-२६] प्रथम उद्देशः । द्वितीयं वारं तत्र गृहे प्रविश्य तावन्मात्रं द्रवं गृहीत्वा प्राग्वदन्यसाधूनां दत्त्वा द्वितीयकल्पं करोतु, ततः तृतीयं वारं भूयः प्रविश्य तावन्मानं गृहीत्वा तथैव तृतीयं कल्पं कृत्वा यावन्मात्रेण शेषभाजनानि धाव्यन्ते संज्ञाभूमीपानकं च भवति तावन्मानं गृहीत्वा समायातु ॥१७२२॥ ___ आचार्यः प्राह-एवंकुर्वता आत्मा च परश्च प्रवचनं च परित्यक्तानि भवन्ति । तत्रात्मा कथं त्यक्तो भवति ? इत्युच्यते संदसणेण बहुसो, संलाव-ऽणुराग केलि आउभया । देती णु कंजियं गुं, जइस्स इट्टो त्ति य भणंति ॥ १७२३ ॥ तस्यैकाकिनो भूयो भूयस्तद्गृहं प्रविशतो याऽसौ काजिकदात्री अविरतिका तस्याः सम्बन्धिना बहुशः सन्दर्शनेन संलापा-ऽनुराग-केलिप्रभृतय आत्मोभयसमुत्था दोषा भवेयुः । संलापः-सङ्कथा, अनुरागः-परस्परमात्यन्तिकी प्रीतिः, केलिः-परिहासः । तथा यद्येष प्रव्रजितकः पुनः पुनरेति 10 याति च तत् किमस्य 'ददती' पानकदायिका इष्टा ? उत काञ्जिकम् ? इत्येवमगारिणस्तमुद्दिश्य भणन्ति । नुशब्द उभयत्रापि वितर्के॥१७२३॥प्रवचनं यथा परित्यक्तं भवति तथा दर्शयति आयपरोभयदोसा, चउत्थ-तेणट्ठसंकणा णीए । दोचं णु चारिओ गुं, करेइ आयट्ठ गहणाई ॥१७२४ ॥ 'आत्मपरोभयदोषाः' आत्मनः-खस्मात् परस्याः-काञ्जिकदायिकायास्तदुभयस्माच्च एते दोषा 15 भवेयुः । तद्यथा-चतुर्थे-चतुर्थाश्रवद्वारविषया स्तैन्यार्थविषया च शङ्का तस्याः सत्कैनिजकैः क्रियते । यथा—'नुः' इति वितर्के, किमेष प्रव्रजितकः कस्याप्युद्धामकस्य मैथुनदौत्यं करोति यदेवमायाति याति च ? यद्वा चारिको भूत्वा चौराणां हेरिकतां कर्तुमित्थमायाति ? यद्वा आत्मार्थमेवायमित्थं करोति ? स्वयमेव मैथुनार्थी हर्तुकामो वेत्यर्थः । इत्थं शङ्कमानास्ते तस्य साधोHहणा-ऽऽकर्षणादीनि कुर्युः । ततः प्रवचनं परित्यक्तं भवति ॥ १७२४ ॥ 20 परः कथं परित्यक्तो भवति ? इत्युच्यते गिण्हंति सिज्झियाओ, छिदं जाउग सवत्तिणीओ अ । सुत्तत्थे परिहाणी, निग्गमणे सोहिवुड्डी य ॥ १७२५ ॥ गुणन्ति 'छिद्रं' दूषणं काञ्जिकदायिकायाः, काः ? इत्याह –'सिज्झिकाः' सहवासिन्यः, प्रातिवेश्मिकस्त्रिय इत्यर्थः, “जाउग" त्ति 'यातरः' ज्येष्ठ-देवरजायाः 'सपल्यः' प्रतीताः, यथा-25 यदेष संयतो भूयो भूयः समायाति तद् नूनमस्या अयमुद्रामक इति । ततो यदा तया सहासङ्खडमुपजायते तदा तत् प्राग्विकल्पितं दूषणं साक्षात् तत्पतेः पुरत उद्गिरन्ति । तथा सूत्रार्थविषया परिहाणिः पुनः पुनर्गच्छतो भवति । “निग्गमणे सोहिवुड्डी य" त्ति त्रीन् चतुरो वा वारान् निर्गमने शोधिवृद्धिश्च तथैव द्रष्टव्या यथा भिक्षाद्वारे प्रागुक्तम् (गाथा १६९७) । यत एते दोषा अतो नैकाकिना भूयो भूयो गन्तव्यम् ।। १७२५॥ कथं पुनस्तर्हि गन्तव्यम् ? इत्याह-30 संघाडएण एगो, खमए विइयपय वुड्डमाइण्णे । पुबुद्धि(दि)एण करणं, तस्स व असई य उस्सित्ते ॥ १७२६ ॥ १°त्वा प्रतिश्रयमागम्य द्विती' भा० ॥ २ तथा गृ भा० ॥ . Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ सङ्घाटकेन भावितकुलेषु प्रविश्य पानकं ग्रहीतव्यम् । द्वितीयपदे एकोऽपि (ग्रन्थानम्१००० । सर्वग्रन्थाग्रम्-१३२२० । ) यः क्षपको वृद्धो वा अशङ्कनीयः स आकीर्णेषु भावितकुलेषु पानकं गृह्णाति । तच्च पानकं यत् पूर्वमेव सौवीरिण्या उद्धृतं-पृथक् स्थापितं तेन कल्पकरणं कर्त्तव्यम् । 'तस्य वा' पूर्वोद्वतस्य 'असति' अभावे उत्सेचनमुत्सितं तदपि कारापणीयम् । 5 एषा पुरातनगाथा ॥ १७२६ ॥ अथैनामेव भाष्यकृद विवृणोति भावितकुलेसु धोवित्तु भायणे आणयंति सेसट्ठा । तविहकुलाण असई, अपरीभोगादिसु जयंति ॥ १७२७ ॥ भावितंकुलानि नाम-येषु पूर्वोक्ताः शङ्कादयो दोषा न स्युस्तेषु गत्वा गृहस्थभाजने मण्डल्युपजीवितक्षपकभाजने गुरुभाजने वा द्रवं गृहीत्वा खकीयभाजनानि धौत्वा शेषाणां भाजनानां 10 धावनार्थ संज्ञाभूमिगतानामाचमनार्थ चापरमपि पानकमानयन्ति । तद्विधानां भावितकुलानाम् 'असति' अभावे अपरिभोग्यादिषु यतन्ते, अपरिभोग्यानि नाम-अव्यापार्यमाणभाजनानि तेषु, आदिग्रहणाद् मण्डल्यनुपजीविनः क्षपकस्य भाजनेषु नन्दीभाजने वा, द्रवं गृहीत्वा संसृष्टभाजनानां कल्पं कुर्वन्ति । तच्च पानकं पूर्वोत्सिक्तमेव गृह्णन्ति ॥ १७२७ ॥ ननु यदि सौवीरिणीमुद्धृत्य दीयमानं गृह्णन्ति ततः को दोषः स्यात् ? उच्यते ओअत्तम्मि वहो, पाणाणं तेण पुव्बउस्सित्तं । असती वुस्सिंचणिए, जं पेक्खइ वा असंसत्तं ॥ १७२८ ॥ "ओयत्तम्मि" त्ति प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः, सौवीरिण्याम् 'उद्वय॑मानायाम्' उत्पाट्यमानायां ये तत्र सौवीरगन्धेन कंसारिकादयः प्राणजातीया आयाताः सन्ति तेषां बाधा भवति, तेन कारणेन पूर्वोत्सिक्तं ग्रहीतव्यम् । अथ नास्ति पूर्वोत्सितं ततस्तस्यासति उत्सिञ्चनिकया उत्सि20ञ्चाप्य यतनया गृह्णन्ति । अथ नास्त्युत्सिञ्चनिका ततो यत् पार्श्व प्राणिभिरसंसक्तं प्रेक्षन्ते तेनोद्वर्त्य गृहिभाजनं प्रातिहारिकं याचित्वा तत्र द्रवं गृहीत्वा भाजनानि कल्पयन्ति॥१७२८॥ आह च--- गिहिसंति भाण पेहिय, कयकप्पा सेसगं दवं घेत्तुं । धोअण-पियणस्सट्ठा, अह थोवं गिण्हए अन्नं ॥ १७२९ ॥ गृहिसत्कं भाजनं प्रत्युपेक्ष्य यदि निर्जीवं भवति तदा तत्र द्रवं गृहीत्वा 'कृतकल्पाः' 25 खकीयभाजनानि कल्पयित्वा शेषं द्रवमन्येषां भाजनानां धावनार्थ भुक्तोत्तरकालं च पानार्थम् उपलक्षणत्वात् संज्ञाभूमिगमनाथ च गृहीत्वा समायान्ति । अथ तत्र स्तोकमेव द्रवं लब्धं ततो . यावता पर्याप्तं भवति तावदन्यदपरेषु गृहेषु गृह्णन्ति ॥ १७२९ ॥ १ चूर्णी विशेषचूर्णौ च नेयं पुरातनगाथालेन निर्दिष्टा ॥ २°तकुलेषु गत्वा गृहस्थभाजने द्रवं गृहीत्वा स्वकी भा० । “भावितकु° गाधा ॥ भावितकुला णाम-संविग्गभाविया सावगा अधाभगा वा, जेसि वा लोगावादो गत्थि, तेसु संघाडगो गंतुं गिहत्थभायणेसु दवं घेत्तुं कप्पं करेति भायणस्स । 'सेस?' त्ति सेसभायणाणं लेबाडाणं धोवणठ्ठाए सण्णाभूमिपाणगट्ठाए य अण्णं पि दवं गेण्हति ।" इति चौँ विशेषचूर्णी च ॥ ३°म-यानि अव्यापार्यमाणानि भा भा० ॥ ४°षां वधो भ° भा० मो० ले० ॥ ५पाचन प्रा भा० ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७२७-३२] प्रथम उद्देशः । ५११ 1 अथ “एगो खमए बिइयपय वुड्डमाइन्ने" ( गा० १७२६ ) त्ति पदं व्याख्यानयति-» जा मुंजड़ ता वेला, फिट्टइ तो खमग थेरओ वाऽऽणे । .. तरुणो व नायसीलो, नीयल्लग-भावियादीसु ॥ १७३०॥ “जा भुंजइ" त्ति प्राकृतत्वादेकवचनेन निर्देशः, यावद् वा साधवो भुञ्जते तावत् पानकस्य वेला "फिट्टति" व्यतिक्रामति ततः 'क्षपकः' उपवासिकः 'स्थविरो वा' वृद्धोऽशङ्कनीय इति । कृत्वा कल्पकरणार्थमेकाक्यपि “आणे" त्ति पानकमानयेत् । तरुणो वा यः 'ज्ञातशीलः' दृढधर्मा निर्विकारश्च स एकाक्यपि निजकानां-मातृ-पितृपक्षीयखजनानां कुलेषु भावितकुलेषु वा आदिशब्दादन्येप्वपि तथाविधकुलेषु प्रविश्य पानकं गृह्णीयात् ॥ १७३० ॥ अथात्रैव कल्पकरणद्वारे विध्यन्तरं बिभणिपुर्टारगाथामाह विईयपय मोय गुरुगा, ठाण निसीयण तुयट्ट धरणं वा । 10 गोबरपुंछण ठवणा, धोवण छटे य दव्वाइं ॥ १७३१ ॥ 'द्वितीयपदे' अपवादाख्ये साधवो व्रजिकां गता भवेयुः, तत्र च पानकं न लब्धमिति कृत्वा यदि पात्रं 'मोकेन' प्रश्रवणेनाऽऽचमन्ति ततश्चत्वारो गुरवः । शिप्यः प्राह-यदि मोकेनाऽऽचमने दोषास्ततो रात्रौ स्थानं निषदनं त्वग्वर्त्तनं वा कुर्वन् संसृष्टपात्रकस्य धारणं करोतु । सूरिराह-एवंकुर्वतः संयमा-ऽऽत्मविराधना भवति, ततो गोबरेण-गोमयेन पात्रकस्य प्रोञ्छनं-15 घर्षणं कृत्वा स्थापनं कर्त्तव्यम् । ततो द्वितीयदिवसे यदि द्रवं ग्रहीतव्यं तदा 'धावनं' कल्पत्रयप्रदानं कर्त्तव्यम् । अथ भक्तं ग्रहीतव्यं ततो न कल्पत्रयं दातव्यम् । “छटे य दबाई" ति शिप्यः प्राह-यद्यधौते पात्रे भक्तं गृह्यते ततो ननु तत्र यान्यवयवद्रव्याणि पर्युषितानि सन्ति तैः षष्ठव्रतमतिचरितं स्यादिति नियुक्तिगाथासङ्केपार्थः ॥ १७३१ ॥ विस्तरार्थं तु बिभणिपुराह वइगा अद्धाणे वा, दव असईए विलंवि सूरे वा। जइ मोएणं धोवइ, सेहऽन्नह भिक्ख गंधाई ॥ १७३२॥ बजिका-गोकुलं तस्यां कारणे गतानामध्वनि वा वहमानानां 'द्रवस्य' पानकस्य 'असति' अप्राप्तौ 'विलम्बिनि वा' अस्तङ्गतप्राये सूर्ये यदि पानकं नास्ति ततः कथं कल्पः करणीयः ? । अत्र नोदकः स्वच्छन्दमत्या प्रतिवचनमाह-मोकेन तदानीं पात्रमाचमनीयम् । आचार्यः प्राह-एवं ते स्वच्छन्दप्ररूपणां कुर्वतो यथाच्छन्दत्वात् चत्वारो गुरवः प्रायश्चित्तम् । यश्च 23 मोकेन पात्रकमाचामति तस्यापि चतुर्गुरवः । कुतः ? इत्याह--यदि मोकेन धावति तदा शैक्षाणाम् अन्यथाभावः-विपरिणमनं भवेत् , विपरिणताश्च प्रतिगमनादीनि कुर्युः । द्वितीये च दिवसे भिक्षार्थ पात्रके प्रसारिते सति कायिक्याः कुथितो गन्धः समायाति ततो लोकः प्रवचनावर्णवादं कुर्यात्-अहो ! अमीभिरस्थिकापालिका अपि निर्जिता यदेवं पात्रकं प्रश्रवणेनाच १N एतचिह्नान्तर्गतमवतरणं भा० पुस्तके एव वर्तते ॥ २°तो यः 'क्ष भा० ॥ ३ द्धो भुक्तोत्थितोऽश° भा० ॥ ४°काः-मातृ-पितृपक्षप्रतिबद्धाः सम्बन्धिनस्तेषां कुले भा० ॥ ५ "बिइयपद० गाहा पुरातना" इति । ६°ति द्वारगाथा भा० ॥ ७°चार्य आह त. डे०॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ५१२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ मन्तीति । आदिग्रहणेन श्रावकाणां विपरिणामो भवतीत्यादिपरिग्रहः ॥ १७३२ ॥ अथ भूयः परः प्राह भणइ जइ एस दोसो, तो' ठाण निसियण तुअट्ट धरणं वा । भण्णइ तं तु न जुञ्जइ, दु दोस पादे अ हाणी य ॥ १७३३ ॥ 5 भणति परः-यदि 'एषः' शैक्षविपरिणामादिको दोष उपजायते ततो मा मोकेनाऽऽचामतु परं गृहीतेनैव पात्रकेण सकलामपि रात्रि "ठाण" त्ति ऊर्द्धस्थितस्तिष्ठतु, तथा यदि न शक्नोति स्थातुं ततः “निसियण" ति निषण्णः पात्रकं धारयतु, तथापि यदि न शक्नोति ततस्त्वग्वर्त्तनं कुर्वाणः-तिर्यग्निपन्नः सन् धारयतु । सूरिराह-भण्यते अत्रोत्तरम्-हे नोदक ! तत् तु न युज्यते यद् भवता प्रोक्तम् । कुतः ? इत्याह-“दु दोस" त्ति द्वौ दोषावत्र भवतः, तद्यथा10 आत्मविराधना संयमविराधना च । तत्रो स्थितस्योपविष्टस्य वा निद्रया प्रेरितस्य भूमौ निप ततः शिरो-हस्त-पादाद्युपधाते आत्मविराधना; पतितः सन् षण्णां कायानामन्यतमं विराधयेदिति संयमविराधना । “पादे अ हाणि" ति तद् वा पात्रं पतितं सद् भज्येत ततो या पात्रकेण विना परिहाणिस्तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ १७३३ ॥ यत एते दोषा अतोऽयं विधिः निद्धमनिद्धं निद्धं, गोब्बरपुढे ठविंति पेहित्ता। . जइ य दवं घेत्तव्यं, विइयदिणे धोइडं गिण्हे ॥ १७३४ ॥ लेपकृतं स्निग्धं वा भवेदस्निग्धं वा भवेत् । यदि स्निग्धं ततो गोबरेण-गोमयेन “पुटुं" प्रोञ्छितं सुघृष्टं पात्रकं कृत्वा निरवयवीभूतं सत् प्रत्युपेक्ष्य रात्रौ स्थापयन्ति, न धारयन्तीति भावः । अथास्निग्धं ततः संलेखनकल्पेन सुसंलीढं कृत्वा स्थाप्यते न पुनः करीषेण घृप्यते । यदि च द्वितीये दिवसे द्रवं ग्रहीतव्यं ततः 'धावित्वा' त्रिः कल्पयित्वा गृह्यते, अथ भक्तं ततोऽधौतेऽपि 20 गृह्यते न कश्चिद् दोषः ॥ १७३४ ॥ अत्र परः प्राह जइ ओदणो अधोए, धिप्पड़ तो अवयवेहिँ निसिभत्तं । तिन्नि य न होंति कप्पा, ता धोवसु जाव निग्गंधं ॥ १७३५ ॥ तम्हा गुब्बरपुढे, संलीढं चेव धोविउं हिंडे । इहरा भे निसिभत्तं, ओअविअं चेव गुरुमादी ॥ १७३६ ॥ 25 यद्यधौते पात्रे द्वितीयेऽहनि ओदनो गृह्यते ततो ननु तत्र सूक्ष्मा अवयवाः सन्ति येषां गन्धस्तृतीयेऽप्यहनि लक्ष्यते, तैश्चावयवैस्तथास्थितैः सद्भिर्यदपरं भक्तं तत्र गृह्यते तद् भुञ्जानानां निशिभक्तं भवति । यच्च युप्माभिलेंपकृतस्य त्रयः कल्पाः शुद्धिकारणतया निर्दिष्टास्तदप्यस्माकं मनसि न रुचिपथमियर्ति, कल्पत्रये दत्तेऽपि तदीयगन्धस्याघ्रायमाणत्वात् । ततोऽहमित्थं प्ररूपयामि-"ता धोवसु जाव निग्गंध" ति 'तावद् धाव' तावत् प्रक्षालय यावद् निर्गन्धी30 भवति; न च बहुभिरपि कल्पैर्निर्गन्धीभवति तस्माद् यद् लेपकृतं स्निग्धं तद् गोबरेण-छगणेन प्रोञ्छितं कृत्वा अस्निग्धं तु सुसंलीढं कृत्वा द्वितीये दिवसे 'धावित्वा' कल्पयित्वा भिक्षां हिण्डेत; 'इतरथा' कल्पकरणमन्तरेण "भे" भवतां निशिभक्तमापद्यते, अकृतकल्पे च भाजने १ तो ठिय निसि ता. विना ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १७३३-४१] प्रथम उद्देशः । ५१३ गृहीतमपरमपि भक्तम् "ओअवियं" उच्छिष्टं भवति, तच्च 'गुर्वादीनाम्' आचार्योपाध्यायप्रभृतीनां दीयमानं महतीमाशातनामुपजनयति ॥ १७३५॥ १७३६॥ इत्थं परेणोक्ते सति सूरिराह भण्णइ न अण्णगंधा, हणंति छटुं जहेव उग्गारा। तिन्नि य कप्पा नियमा, जइ वि य गंधो जहा लोए ॥ १७३७ ॥ भण्यतेऽत्र प्रतिवचनम्-अन्नस्य-भक्तस्य गन्धाः 'षष्ठं रात्रिविरमणव्रतं न नन्ति, यथैवो-5 द्वारा रात्रौ समागच्छन्तोऽपि न षष्ठव्रतमुपघ्नन्ति । तथा पात्रके यद्यपि गन्धः समागच्छति तथापि नियमात् त्रय एव कल्पा दातव्या नाधिका न वा हीनाः, तथा भगवद्भिरुक्तत्वात् । यथा लोकेऽपि प्रतिनियता भाजनशोधनाय मृत्तिकालेपा भवन्ति ॥ १७३७ ॥ तथाहि वारिखलाणं बारस, मट्टीया छ च वाणपत्थाणं। मा एत्तिए भणाही, पडिमा भणिया पवयणम्मि ॥ १७३८ ॥ 10 वारिखलाः-परिव्राजकास्तेषां द्वादश मृत्तिकालेपा भाजनशोधनका भवन्ति । षट् च मृत्तिकालेपाः 'वानप्रस्थानां' तापसानां शौचसाधकाः सञ्जायन्ते । एवं लोकेऽपि खस्खसमयप्रतिपादितानि प्रतिनियतान्येव शौचानि दृष्टानि, अतो हे नोदक ! एतावतः कल्पान् ‘मा भण' मा ब्रूहि, तावद् धौतव्यं यावद् निर्गन्धीभवतीत्यप्रतिनियतानित्यर्थः । तथा 'प्रतिमा' इति मोकप्रतिमा साऽपि प्रवचने भणिता, तस्यां हि मोकमपि पीत्वा साधुः शुचिरेव भवति ॥१७३८॥15 एतदेव भावयति पिह सोयाइं लोए, अम्हं पि अलेवगं अगंधं च । मोएण वि आयमणं, दि8 तह मोयपडिमाए ॥ १७३९ ॥ यथा लोके 'पृथग्' विभिन्नानि शौचानि दृष्टानि तथाऽस्माकमपि त्रिभिः कल्पैः प्रदत्तैरलेपकमगन्धं च पात्रकं भवतीति । एवं शौचविधिर्भगवद्भिदृष्ट इति । तथा मोकेनाप्याचमनं 20 मोकप्रतिमायां दृष्टमेव ॥ १७३९ ॥ परः प्राह जइ निल्लेवमगंधं, पंडिकुटुं तं कहं नु जिणकप्पे । तेसिं चेव अवयवा, रुक्खासि जिणा न कुव्वंति ॥ १७४०॥ . यदि निर्लेपमगन्धं च शौचं दृष्टं ततः कथं 'नुः' इति वितर्के 'तद' निर्लेपनं जिनकल्पे प्रतिपन्ने सति प्रतिकुष्टं' प्रतिषिद्धम् ?, "तेसिं चेव अवयव" त्ति अनिर्लेपिते 'तेषां' जिनक-25 ल्पिकानां सन्त्येव सूक्ष्माः पुरीषादेवयवाः यैरमीषां शुचित्वं न भवति । सूरिराह-रूक्षाशिनः 'जिनाः' जिनकल्पिका भगवन्तस्ततोऽभिन्नवर्चस्कतया न सन्ति सूक्ष्मा अप्यवयवा अमीषाम् , तदभावाच्च दूरापास्तप्रसरस्तेषां पुरीपगन्ध इति हेतोर्न कुर्वन्ति निर्लेपनम् ॥ १७४० ॥ आह यद्यभिन्नवर्चस्कतया जिनकल्पिकाः शौचं न कुर्वन्ति तर्हि ये स्थविरकल्पिका अप्यभिन्नोच्चारास्तेषामपि संज्ञामुत्सृज्य किंकारणमवश्यं शौचकरणमुक्तम् ? उच्यते थंडिल्लाण अनियमा, अभाविए इड्डि जुयलमुड्डयरे । सज्झाए पडिणीए, न ते जिणे जं अणुप्पेहे ॥ १७४१ ॥ १ पडिसिद्धं तं ता० ॥ 30 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ___ स्थविरकल्पिकाः प्रथमस्थण्डिलाभावे द्वितीयतृतीयचतुर्थीन्यपि स्थण्डिलानि गच्छन्ति । तत्र च यदि न निर्लेपयन्ति तत आपातसंलोकसमुत्था अवर्णवादादयो दोषा भवेयुरिति स्थण्डिलानामनियमादवश्यन्तया शौचं कुर्वन्ति । अभावितो नाम-अपरिणतजिनवचनस्तस्य निलेपनाभावे मा भूद् विपरिणाम इति । "इड्डि" त्ति 'ऋद्धिमान्' राजादीनामन्यतमः प्रबजितः स प्रायेण 5 शौचकरणभावित इति तदर्थम् । तथा 'युगलं' बाल-वृद्धद्वयं तत् प्रायेण भिन्नवर्चस्कं भवति । 'उड्डयरो नाम' यः समुद्दिशन् संज्ञां वा व्युत्सृजन् चपलतया हस्तादीन्यपि लेपयति । “सज्झाये" त्ति अनिर्लेपिते स्थविरकल्पिकानां खाध्यायो न वर्तते वाचा कर्तुम् । “पडिणीए" ति प्रथमस्थण्डिलाभावे द्वितीयादिस्थण्डिलगतस्य शौचकरणमदृष्ट्वा प्रत्यनीक उड्डाहं कुर्यात् । “न ते जिणे" त्ति जिनकल्पिके न ‘एते' स्थण्डिलानियमादयो दोषा भवन्ति, "जं अणुप्पेहे" त्ति 10 यच्चासौ खाध्यायं मनसैवानुप्रेक्षते न वाचा परिवर्तयति तेन न निर्लेपयति । स्थविरकल्पिकानां तु मनसा खाध्यायकरणे प्रभूतेनापि कालेन न सूत्रार्थी परिजितौ भवत इति ॥ १७४१ ॥ एमेव अप्पलेवं, सामासेउं जिणा न धोवंति। तं पि य न निरावयवं, अहाठिईए उ सुझंति ॥ १७४२ ॥ एवमेव 'अल्पलेपम्' अल्पशब्दस्याभाववाचकत्वादलेपकृतं भाजनं 'समस्य' सम्यक् संलिख्य 15 जिनकल्पिकाः 'न धावन्ति' न कल्पं प्रयच्छन्ति । तच्च भाजनं यद्यपि न निरवयवं सञ्जायते तथापि 'यथास्थित्यैव' यथाखकल्पानुपालनादेव शुध्यन्ति, स्थितिरियं तेषां यदेवमेव शुचयो भवन्तीति ॥ १७४२ ॥ यदप्युक्तं भवता प्राक् “अकृतकल्पे भाजने गृहीतं भक्तमुच्छिष्टं भवति" (गा० १७३६) तदपि परिफल्विति दर्शयति मन्नतो संसहूं, जं इच्छसि धोवणं दिणे विइए । 20 इत्थ वि सुणसु अपंडिय!, जहा तयं निच्छए तुच्छं । १७४३ ॥ संसृष्टं मन्यमानो यद् द्वितीये दिने 'धावनं' कल्पकरणमिच्छसि अत्राप्यर्थे 'शृणु' निशमय हे अपण्डित ! यथा 'तकत्' त्वदीयं वचनं 'निश्चये' परमार्थतः 'तुच्छम्' असारम् ॥ १७४३ ॥ तदेवाह-- सव्वं पि य संसहूं, नत्थि असंसट्ठिएल्लयं किंचि । सव्वं पि य लेवकडं, पाणगजाए कहं सोही ॥ १७४४ ॥ ____ यदि गन्धमात्रेणैव त्वदुक्तया नीत्या भक्तमुच्छिष्टं भवति ततः सर्वमप्यत्र जगति 'संसृष्टम्' उच्छिष्टमेव विद्यते नास्ति किञ्चिदप्यसंसृष्टम् । एवं 'सर्वमपि' भक्तं पानकं च लेपकृतमुच्छिष्टं भवति अतः पानकजातेन कथं शुद्धिर्भविष्यति ? ॥ १७४४ ॥ एतदेव भावयति खीरं वच्छुच्छिटुं, उदगं पि य मच्छ-कच्छभुच्छिटुं । चंदो राहुच्छिट्टो, पुप्फाणि य महुअरगणेहिं ॥ १७४५ ॥ रंधंतीओ बोट्टिति वंजणे खल-गुले य तकारी।। १ 'निरवयवं' सर्वथैव व्यपगत निःशेपावयवं तथा भा० ॥ २°न्ति, कल्पस्तेषामयं यदे भा०॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७४२-४९] प्रथम उद्देशः । संसट्टमुहा य दवं, पियंति जइणो कहं सुज्झे ॥ १७४६ ॥ क्षीरं 'वत्सोच्छिष्टं' वत्सेन स्वमातुः स्तन्यमापिवता संसृष्टम् । तथा उदकमपि मत्स्य-कच्छपोच्छिष्टम् । चन्द्रो राहूच्छिष्टः । पुप्पाणि च मधुकरगणैरुच्छिष्टानि ॥ १७४५ ॥ तथा अविरतिका राध्नुवन्त्यः 'व्यञ्जनानि' शालनकानि वोट्टयन्ति 'किं निष्पन्नानि ? न वा ?' इति परिज्ञानार्थम् । खल-गुलावपि 'तत्कारिणः' तस्य-खलादेः कारिणश्चाक्रिकादयो । बोट्टयन्ति । 'संसृष्टमुखाश्च' उच्छिष्टेन मुखेन यतयो यद् द्रवमापिबन्ति तदपि संसृष्टम् । तेन च संसृष्टेन यस्य भाजनस्य कल्पः क्रियते' तत् कथं शुध्यति ? इति । यत एवमतो न गन्धमात्रेणैव भक्तमुच्छिष्टं भवतीति स्थितम् ॥ १७४६ ॥ अथ कल्पकरणे वितथसामाचारीनिष्पन्नं प्रायश्चित्तमाह एकिक्कम्मि उ ठाणे, वितह करितस्स मासियं लहुअं। 10 तिगमासिय तिगपणगा, य होंति कप्पं कुणइ जत्थ ॥ १७४७ ॥ एकैकस्मिन् स्थाने वितथा सामाचारी कुर्वाणस्य मासिकं लघुकम् । तद्यथा-असंलीढे पात्रके प्रथमं कल्पं करोति १ संलिख्य वा प्रथमं कल्पं कृत्वा तं नापिबति २ द्वितीयं कल्पं पात्रकेऽप्रक्षिप्य बहिर्निर्गच्छति ३ एतेषु त्रिष्वपि स्थानेषु मासलघु । तथा त्रीणि मासिकानि त्रीणि पञ्चकानि च भवन्ति यत्र कल्पं करोति । तद्यथा-न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति १ न 15 प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति २ प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति ३ एतेषु त्रिषु भङ्गेषु प्रत्येकं तपःकालविशेषितं मासलघु । चतुर्थभङ्गे प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति च, नवरं दुःप्रत्युपेक्षितं दुःप्रमार्जितं करोति १ दुप्पत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं २ सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं करोति ३ एतेषु त्रिषु तपःकालविशेषितानि पञ्च रात्रिन्दिवानि । सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितमिति चतुर्थो भङ्गः शुद्ध इति ॥१७४७॥ गतं कल्पकरणद्वारम् । अथ “गच्छसइए अ कप्पे अंबिलभरिए अ ऊसित्ते'' (गा० 20 १६५८) त्ति द्वारमभिधित्सुः प्रथमतः सम्बन्धमाह भुत्ते भुंतम्मि य, जम्हा नियमा दवस्स उवओगो। समहियतरो पयत्तो, कायव्यो पाणए तम्हा ॥ १७४८ ॥ [.भा. १६५८] 'भुक्ते' भोजनानन्तरं पानार्थ संज्ञाभूमिगमनार्थं च भुञ्जानानां च उत्तूढलग्नरक्षणार्थं यस्माद् नियमाद् 'द्रवस्य' पानकस्योपयोगो भवति 'तस्माद्' भक्तग्रहणप्रयत्नात् समधिकतरः प्रयत्नः 25 पानकग्रहणे कर्तव्य इति, अतस्तद्रहणविधिरुच्यते ॥ १७४८ ॥ __इह शतिकेपु सहस्रपु वा गच्छेपु प्रभूतेन पानकेन कार्य भवति, तच्च कल्पनीयमेव ग्रहीतव्यम् , अतस्तद्विधिप्रतिबद्धद्वारसङ्घाहिकामिमां गाथामाह पाणगजाइणियाए, आहाकम्मस्स होइ उप्पत्ती । पूती य मीसजाए, कडे य भरिए य ऊसित्ते ॥ १७४९ ॥ 30 १ ते तदपि संसृष्टम् । एवं सर्वमप्युच्छिष्टमेव, अतः कथं यतयः शुध्येयुः? इति । यत भा०॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ पानकस्य याच्यामाधाकर्मण उत्पत्तिर्भवति सा वक्तव्यां । ततः "पूइ' त्ति पूतिका "मीस" ति खगृहयतिमिश्रा खगृहपापण्डिमिश्रा स्वगृहयावदर्थिकमिश्रा च "कडे य" त्ति आधाकृता क्रीतकृता आत्मार्थकृता च अम्लिनी वक्तव्या। “भरिए य' ति भरणं भरितमम्लिनीनामभिधातव्यम् । “ऊसित्ति" ति उत्सेचनमुत्सितं तद् वक्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः ॥ १७४९ ॥ 5 अथ विस्तरार्थमाह-- अन्नन्न दवोभासण, संदेसा पुन वेइ घरसामी । कल्लं ठवेहि अन्नं, महल्ल सोवीरिणिं गेहे ॥ १७५० ॥ कोऽपि भद्रको गृहपतिरन्यान्यान् सङ्घाटकान् द्रवस्यावभाषणं कुर्वाणान् दृष्ट्वा तेषां चं मध्ये केषाञ्चित् सङ्घाटकानां 'सन्देशं' मुत्कलनं-'गृहीतमओतनैः सङ्घाटकैः पानकम् , नास्तीदानी 10 भवद्योग्यम्' इति क्रियमाणं निरीक्ष्य “पुण्णे"ति पुण्यार्थं गृहस्वामिनी ब्रवीति-धर्मप्रिये ! मा कञ्चनापि साधु जङ्गमं निधिमिव गृहाङ्गणमायातं प्रतिषेधयेः, किं भवत्या दानधर्मकथायामयं श्लोको नाकर्णितः ?, यथा दातुरुन्नतचित्तस्य, गुणयुक्तस्य चार्थिनः । दुर्लभः खलु संयोगः, सुबीज-क्षेत्रयोरिव ॥ 15 ततः सा ब्रूयात्-नास्त्येतावतां साधूनां योग्यं काञ्जिकम् । ततोऽसौ गृहपतिर्ब्रयात्कल्ये स्थापयान्यां महतीं 'सौवीरिणीम्' अम्लिनी गेहे येन सर्वेषामपि योग्यं पानकं पूर्यते ॥ १७५० ॥ एतच्चाकर्ण्य वक्तव्यम् मा काहिसि पडिसिद्धो, जइ बूया कुणसु दाणमन्नेसि । ते बुद्दिविवजी, न यावि निचं अहिवडंति ॥ १७५१ ॥ 20 न कल्पते एवं विधीयमानं ग्रहीतुमतो मा कार्षीः । यद्येवं प्रतिषिद्धः स गृहखामी ब्रूयात्'प्रिये ! कुर्यास्त्वं तावदपरां सौवीरिणीम् , यथेष न ग्रहीप्यति ततोऽन्येषां साधूनां पानकदानं करिष्यते' ततो वक्तव्यम्-तेऽपि साधवः 'उद्दिष्टविवर्जिनः' साधर्मिकमुद्दिश्य कृतं वर्जयितुं शीलं येषां ते तथा, नापि च नित्यं पानकार्थमभिपतन्ति, अनियतभिक्षाटनशीलत्वादेषाम् ॥ १७५१ ॥ इत्थमुक्ते यद्यसौ गृहखामी ब्रूयात् अम्ह वि होहिइ कजं, घिच्छंति बहू य अन्नपासंडा । पत्तेयं पडिसेहो, साहारे होइ जयणा उ॥ १७५२ ॥ अस्माकमपि भविष्यति कार्य काञ्जिकेन, ग्रहीष्यन्ति च बहवोऽन्येऽपि युष्मद्व्यतिरिक्ताः पापण्डिन इति । तत्र साधारणे यतना कर्त्तव्या, यथा--अस्माकं तावन्न कल्पते । “पत्तेयं पडिसेहो" त्ति अथ गृहपतिर्भणति-अन्येऽपि निम्रन्थाः पानकार्थमायास्यन्ति तेभ्यो दास्यते । १°व्या इति । ततः पूतिकं मिश्रजातं 'कृतं च' आधाकृत-क्रीतकृता-ऽऽत्मार्थकृतभेदभिन्नं वक्तव्यम् । “भरि भा० ॥ २ च कश्चित् “संदेस" त्ति सन्देशो विसर्जन मुत्कलनमिति पर्यायवचनत्वाद् 'गृही भा० ॥ ३°ति विसर्ग्यमानान् निरी° भा० ॥ ४°ण्यार्थसुकतोपार्जननिमिचं गृह भा० ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । ५१७ भाष्यगाथाः १७५०-५६ ] इत्थं प्रत्येकं निर्ग्रन्थानेवाश्रित्याभिधीयमाने प्रतिषेधः कार्यः 'न कल्पते साधूनामित्थं विधीयमानम्' || १७५२ ॥ एवं प्रतिषिद्धेऽपि कोऽपि सप्त सौवीरिणीः स्थापयेत्, ताश्चैताः - आहाकम्मिय १ सघर२पासंडमीसए३ जाव४ की ५ पूई ६ अत्तकडे७ । एकेकम्मिय सत्त उ, कए य काराविए चैव ॥ १७५३ ॥ ‘आधाकर्मिका' साधूनामेवार्थाय कारिता १ 'स्वगृहयतिमिश्रा' गृहस्य साधूनां चार्थाय 5 निर्माता २ 'गृहपाण्डमिश्रा' गृहस्य पाषण्डिनां चार्थाय कारिता ३ 'यावदर्थिक मिश्रा तु' यावन्तः केचनागारिणः पाषण्डिनश्चागमिष्यन्ति तान् स्वगृहं चोद्दिश्य कृता ४ ' क्रीतकृता' साध्वर्थं मूल्येन गृहीता ५ ' पूतिकर्मिका' आधाकर्मिकमुधादिना पूरितच्छिद्रा ६ 'आत्मार्थकृता' स्वगृहार्थमेव स्थापिता ७ । एतासां सप्तानां सौवीरिणीनामेकैकस्यां सप्त सप्त भरणानि भवन्ति । सप्त च सप्तभिस्ताडिता एकोनपञ्चाशद् भवति । एषा च प्रत्येकं कृते कारापिते च 10 सम्भवति । ततो द्वाभ्यां गुण्यते जाता भेदानामष्टानवतिरिति ॥ १७५३ ॥ अथ सप्त भरणानि दर्शयति सप्त सौवीरिण्यः तद्भेदाच कम्म घरे पासंडे, जावंतिय कीय- पूइ - अतकडे | भरणं सत्तविकप्पं, एक्केक्कीए उ रसिणीए ।। १७५४ ॥ आधाकर्मिकं १ स्वगृहयतिमिश्रं २ स्वगृहपाषण्डिमिश्रं ३ यावदर्थिकमिश्रं ४ क्रीतकृतं ५15 पूतिकर्मिकम् ६ आत्मार्थकृतं चेति ७ 'सप्तविकल्पं ' सप्तप्रकारं भरणमेकैकस्यां ' रसिन्यां' सौवीरिण्यां भवति ॥ १७५४ ॥ अथ किं सप्तैवाम्लिन्यो भवन्ति नाधिकाः ? इत्युच्यतेसत्तत्ति नवरि नेम्मं, उग्गमदोसा हवंति अन्ने वि । संजोगा कायव्वा, सत्तहि भरणेहिं रसिणीणं ॥ १७५५ ।। सप्तेति यदुक्तं तद् 'नवरं' केवलं " नेम्मं" चिह्नम् - उपलक्षणं द्रष्टव्यम्, तेन 'उद्गमदोषाः ' 20 औद्देशिकादयः ‘अन्येऽपि’ यथासम्भवमत्र मन्तव्याः यैः प्रक्षिप्तैरभ्यधिका अप्यम्लिन्यो भवन्ति । अत्र च 'संयोगाः' भङ्गकाः कर्त्तव्याः सप्तभिर्भरणैः सप्तानामेव रसिनीनाम् । तद्यथा-आधाकर्मिका सौवीरिणी भरणमपि तस्यामाधाकर्मिकम् १ आधाकर्मिका सौवीरिणी भरणं खगृहयतिमिश्रम् २ एवं सौवीरिणी सैव भरणं तु पाषण्डिमिश्रं ३ यावदर्थिकमिश्र ४ क्रीतकृतं ५ पूर्ति - कर्मिकम् ६ आत्मार्थकृतम् ७ । एवं स्वगृहयति मिश्रादिष्वपि सौवीरणीषु प्रत्येकं सप्त सप्त 25 भरणानि योजनीयानि ॥ १७५५ ॥ ततश्च कियन्तो भङ्गका उत्तिष्ठन्ते ? इत्याह जावया रसिणीओ, तावड़या चेव होंति भरणा वि । अउणापन्नं भेया, सयग्गसो यावि णेयव्वा ।। १७५६ ॥ ‘यावत्यः' यावत्सङ्ख्याका रसिन्यः 'तावन्त्येव' तावत्सख्याकान्येव भवन्ति भरणानि । ततश्च यदा सप्ताम्लिन्यः सप्त च भरणानि गृह्यन्ते तदा एकोनपञ्चाशद् 'भेदा: ' भङ्गका भवन्ति । 30 अथान्यानप्युद्गमदोषान् प्रक्षिप्य बहुतराः सौवीरिण्यो बहुतराणि च भरणानि विवक्ष्यन्ते ततः १ अत्र विशेषचूर्णिकृता " स्यान्मतिः - जहा अंबिलीओ सत्तण्ह वि परेण अत्थि किमेवं भरणं पि न ? इत्युच्यते" इत्यवतीर्य "समणे घर पासंडे ० " इति गाथा १७६४ व्याख्याताऽस्ति ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १. 'शताग्रशः' शतसङ्ख्यापरिच्छिन्ना अपि भेदा मन्तव्याः ॥ १७५६ ॥ अथाधाकर्मिकभरणं भावयति मूलभरणं तु वीया, तहिं छम्मासा न कप्पए जाव । तिन्नि दिणा कड्डियए, चाउलउदए तहाऽऽयामे ॥ १७५७ ॥ 5 'मूलभरणं नाम' प्राशुकायामम्लिन्यां राजिकादीनि बीजानि संयतार्थं यत् प्रक्षिप्यन्ते तच्चाधाकर्मिकम् । अतस्तत्र यदन्यत् प्राशुकमपि क्षिप्यते तत् पण्मासान् यावन्न कल्पते परतस्तु कल्पते । अथ तस्या रसिन्याः सकाशात् तदाधाकर्मिकमाकर्षितं ततम्तस्मिन्नाकर्षिते 'चाउलोदगं' तन्दुलधावनं तथा 'आयामम्' अवस्रावणं यत् तत्र क्षिप्यते तत् त्रीन् दिनान् न कल्पते पूतिकर्मत्वात् , तत ऊर्दू कल्पते ॥ १७५७ ॥ अथ खगृहमिश्रादिभरणान्यतिदिशन्नाह10 ___ एमेव सघर-पासंडमीस जाव कीय-पूड-अत्तकडे । कय कीयकडे ठविए, तहेव वत्थाइणं गहणं ॥ १७५८ ॥ 'एवमेव' आधार्मिकभरणवत् स्वगृहमिश्रं पाषण्डमिश्रं यावदर्थिकमिश्रं क्रीतकृतं पूतिकर्म आत्मार्थकृतं च भरणं मन्तव्यम् । वस्त्रादिविषयमप्यतिदेशमाह--"कय” इत्यादि पश्चार्द्धम् । 'कृते' संयतार्थ निप्पादिते 'क्रीतकृते' मूल्येन गृहीते 'स्थापिते' साध्वर्थ निक्षिप्ते तथैव' पान15 कवद् वस्त्रादीनां ग्रहणं भावनीयम् । एतच्च पश्चार्द्धमुत्तरत्र भावयिप्यते ॥ १७५८ ।। अथानन्तरोक्तभङ्गकेषु प्रायश्चित्तमाह जेण असुद्धा रसिणी, भरणं वुभयं व तत्थ जाऽऽरुवणा । सुद्धभय लहूसित्ते, कम्ममजीवे वि मुणिभरणे ॥ १७५९ ॥ पूर्वोक्तभङ्गकेषु यत्र 'येन' आधाकर्मादिना दोषेणाशुद्धा रसिनी भरणं वा 'उभयं वा' 20 सौवीरिणी-भरणयुगं यत्र येन दोषेण दूषितं तत्र तदोपनिप्पन्ना या काचित् प्रत्येकं संयोगतो वा आरोपणा सा वक्ष्यमाणनीत्या वक्तव्या । तथा यत्र रसिनी भरणं चोभयमपि शुद्धं परं संयतार्थ १ काढीए, चाउलउदए रसवईए ता० ॥ २ युगलं यत्र भा० ॥ ३ आरोपणा सा सर्वाऽपि वक्तव्या । तत्र-आधाकर्मणि खगृहमिथे पाषण्डमिश्रे च चतुर्गुरु, उपकरणपूतिकर्मणि मासलघु, आहारपूतिकर्मणि मासगुरु, यावदर्थिकमि) क्रीतकृते च चतुर्लघु । तथा "सुद्धभय लहूसित्ते" त्ति यत्र रसिन्यपि शुद्धा [भरणमपि च शुद्ध ] परं संयतार्थ पानकमुत्सितं तत्र लघुमासः । “कम्ममजीवे वि मुणिभरणे" त्ति यदजीवमपि-प्राशुकमपि मुनीनां हेतोर्भरणं क्रियते तदाधाकर्मैव मन्तव्यम् । एवं तावत् तस्य गृहपतेराधाकर्मादिदोषेषु स्वयंकरणमाश्रित्य विधिरुक्तः, अथापरेणाधाकर्मादिदोपान् कारापयत इत्थमेव भङ्गकरचनादिकः सर्वोऽपि विधिः प्रतिपत्तव्य इति ॥ १७५९ ॥ अथासामेवाम्लिनीनां मध्ये का विशोधिकोटिः? का वा अविशोधिकोटिः ? इत्यादिचिन्तां चिकीर्षुराह-संजयकडे० गाथा भा० पुस्तके पाठः । ___ "जेण असुद्धा रसिणी भरणं वुभयं व तत्थ जाऽऽरुवणा तमुवयुजिउं जाणेज्जासि । 'सुद्धभय लहुस्सित्ते' त्ति जत्य रसणी सुद्धा भरणं पि सुद्धं संजतट्टाए उस्सित्तितं तत्थ · । 'कम्ममजीवे वि मुणिभरणे' त्ति फासुगेण वि भरणेणं संजतट्ठाए छूढेणं आधाकम्मियं भरणं विसोधिकोडी पुण, एवं ताव कते गिहिणा। अप्पणा कारविते वि. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७५७-६२] प्रथम उद्देशः । पानकमुसिक्तं तत्र लघुमासः । “कम्ममजीवे वि मुणिभरणे" त्ति यदजीवमपि-प्राशुकमपि मुनीनां हेतोर्भरणं क्रियते तदप्याधाकर्म मन्तव्यं परं विशोधिकोटिः ॥ १७५९ ॥ अथाधाकर्मादिभेदेप्वारोपणामाह तिन्नेव य चउगुरुगा, दो लहुगा गुरुग अंतिमो सुद्धो । एमेव य भरणे वी, एक्कक्कीए उ रसिणीए ॥ १७६०॥ आधाकर्मणि स्वगृहमिश्रे पाषण्डमिश्रे च प्रत्येकं चतुर्गुरुकमिति त्रयश्चतुर्गुरवो भवन्ति । 'द्वयोः' यावदर्थिक-क्रीतकृतयोश्चतुर्लघवः । भक्तपानपूतिके गुरुमासः । उपकरणपूतिके लघुमास इत्यनुक्तमपि दृश्यम् । 'अन्तिमः' आत्मार्थकृतलक्षणो भेदः शुद्धः। एवमेकैकस्यां रसिन्यामुक्तम् । भरणेऽप्येकैकस्मिन्नेवमेव मन्तव्यम् ।। १७६० ॥ अथासामेवाम्लिनीनां मध्ये का विशोधिकोटिः ? का वा अविशोधिकोटिः ? इत्यादिचिन्तां चिकीर्षुराह 10 संजयकडे य देसे, अप्फासुग फासुगे य भरिए अ । अत्तकडे वि य ठविए, लहुगो आणाइणो चेव ॥ १७६१ ॥ संयतानेव केवलानाश्रित्य कृतं 'संयतकृतम्' आधाकर्म । “देसि" ति 'देशतः' एकदेशेन संयतादीनाश्रित्य कृतं देशकृतम् , स्वगृहमिश्रादिकमित्यर्थः । अप्राशुकेन प्राशुकेन वा संयतार्थ यद् भरणं तदप्याधाकर्म । “अत्तकडे वि य ठविए" त्ति आत्मार्थकृतायामम्लिन्यां यदात्मा) 15 भरणं तदपि यदि श्रमणार्थमुत्सिच्य बहिः स्थापयति तदा स्थापनादोष इति कृत्वा न ग्रहीतव्यम् । यदि गृह्णाति तदा लघुको मास आज्ञादयश्च दोषाः । एषा नियुक्तिगाथा ॥ १७६१॥ . अथैनामेव व्याख्यानयति देसकडा मज्झपदा, आदिपदं अंतिमं च पत्तेयं । ___ उग्गमकोडी व भवे, विसोहिकोडी व जो देसो ॥ १७६२ ॥ 20 यानि 'मध्यपदानि' स्वगृहमिश्र-पाषण्डमिश्र-यावदर्थिकमिश्र-क्रीतकृत-पूतिकर्मलक्षणानि तानि देशकृतान्युच्यन्ते, देशतः खगृहाथ देशतस्तु साध्वाद्यर्थममीषां क्रियमाणत्वात् । यत् पुनः 'आदिपदम्' आधाकर्म 'अन्तिमपदं च' आत्मार्थकृतं तद् द्वितयमपि 'प्रत्येकं' एकपक्षविषयम् , केवलमेव साधुपक्षं खगृहपक्षं चोद्दिश्य प्रवृत्तत्वात् । अत्र च यः 'देशः' देशकृतः खगृहमिश्रादिको दोषः स उद्गमकोटिर्वा भवेत् , अविशोधिकोटिरित्यर्थः, विशोधिकोटिर्वा । तत्र 25 खगृहमिश्रं पाषण्डमिश्रं च नियमादविशोधिकोटी, पूतिकर्म यावदर्थिकमिश्रं क्रीतकृतं चेति एवं चेव ॥ इदाणिं एतेसिं अंबिलीणं का उग्गमकोडी ? का विसोधिकोडी ? एतं भण्णति--संजतकते य देसे. गाधा ॥” इति चूर्णो विशेषचूर्णी च। भा० पुस्तके चूर्णौ च “तिन्नेव य चउगुरुगा.” इत्येषा १७६० तभी गाथा “समणे घर पासंडे." १७६४ गाथानन्तरं व्याख्याताऽस्ति । दृश्यतां पत्र ५२० टिप्पणी १। विशेषचूर्णी पुनरियं गाथा " जीवजुयं भरणं." १७६३ गाथानन्तरं व्याख्याता दृश्यते ॥ १ एतट्टीकापाठान्तरे दृश्यतां पत्र ५२० टिप्पणी १ मध्ये ॥ २ एषा पुरातना गाथा भा० का । "संजयकडे य० गाहा पुरातना" इति विशेषचूर्णिकृतः॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० सनियुक्ति लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ त्रीणि विशोधिकोटयः, आधाकर्मिकं पुनरेकान्तेनाविशोधिकोटिः, आत्मार्थकृतं तु निरवद्यमेवेति ॥ १७६२ ॥ जं जीवजुयं भरणं, तदफासुं फासुयं तु तदभावा । तं पि य हु होइ कम्मं, न केवलं जीवधाएण ॥ १७६३ ॥ । यद् 'जीवयुतं' राजिकादिबीजसहितं भरणं तदप्राशुकम् । 'तदभावात्' राजिकादिीजाभावाद् यद् भरणं तत् प्राशुकम् । तदपि च निर्जीव भरणं 'हु' निश्चितं संयतार्थ क्रियमाणमाधाकर्म भवति, न केवलं 'जीवघातेन' राजिकादिवीजजन्तूपघातेन निष्पन्नमिति ॥ १७६३ ॥ ____ अथोत्सिक्तपदं भावयतिउत्सित. समणे घर पासंडे, जावंतिय अत्तणो य मुत्तूणं । पदस्यार्थः छट्ठो नत्थि विकप्पो, उस्सिंचणमो जयट्ठाए ॥ १७६४ ॥ काञ्जिकस्य सौवीरिणीतो यद् निष्काशनं तद् उसिक्तम् । तच्च पञ्चधा-श्रमणार्थं साधूनामर्थायेत्यर्थः १ खगृहयतिमिश्रं २ पापण्डिमिश्रं ३ यावदर्थिकमिश्रं ४ आत्मार्थकृतम् ५ । एतान् पञ्च भेदान् मुक्त्वा अपरः षष्ठो विकल्पो नास्ति यदर्थमुत्सेचनं भवेत् । अत्र चात्मार्थ यद् गृहिभिरुत्सितं तदेव ग्रहीतुं कल्पते न शेषाणीति ॥ १७६४ ॥ 15 उक्त आहारविषयो विधिः । अथोपधिविषयं तमेवाह--- तत पाइयं वियं पि य, वत्थं एक्केकगस्स अट्ठाए । पाउम्भिन्न निकोरियं च जं जत्थ वा कमइ ॥ १७६५ ॥ वस्त्रमेकैकस्यार्थाय ततं पायितं विततं च वक्तव्यम् । तद्यथा-संयतार्थ ततं संयतार्थ पायितं संयतार्थमेव च विततं १ संयतार्थ ततं संयतार्थ पायितमात्मार्थ विततं २ संयतार्थ ततमात्मार्थ 20 पायितं संयतार्थ विततं ३ संयतार्थ ततमात्मार्थं पायितं आत्मार्थमेव विततम् ४, एवमात्मार्थततेनापि चत्वारो भङ्गा लभ्यन्ते, जाता अष्टौ भङ्गाः । अत्र चाष्टमो भङ्गः शुद्धः, त्रयाणामप्यास्मार्थ कृतत्वात् । एवं स्वगृहमिश्र-पाषण्डमिश्र-यावदर्थिकमिश्रेष्वपि द्रष्टव्यम् , सर्वत्रापि चाष्टमो भङ्गः शुद्धः, शेषास्तु सर्वेऽप्यशुद्धा इति । पात्रमप्युद्भिन्नं निष्कीर्णं चैवमेव वक्तव्यम् । तद्यथा-संयतार्थमुद्भिन्नं संयतार्थ चोत्कीर्ण १ संयतार्थमुद्भिन्नमात्मार्थमुत्कीर्ण २ आत्मार्थमु25 द्भिन्नं संयतार्थमुत्कीर्ण ३ आत्मार्थमुद्भिन्नम् आत्मार्थमेव चोत्कीर्णम् ४ । अत्र चतुर्थो भङ्गः १ एतदनन्तरे भा० पुस्तके-अथ "जेण असुद्धा रसिणी भरणं वुभयं व तत्थ जाऽऽरुवण" (गा० १७५९) त्ति यदतिदेशेन प्रायश्चित्तमुक्तं तदेव व्यक्तीकुर्वन्नाह-इत्यवतरणं विधाय "तिन्नेव य चउगुरुगा.” इति १७६० गाथा तवृत्तिश्च वर्त्तते । वृत्तिश्चैवम् त्रयश्चतुर्गुरवः त्रिषु आद्यस्थानेषु मन्तव्याः, तद्यथा-आधाकर्मणि खगृहमिश्रे पापण्डमिश्रे च । 'द्वयोः' यावदर्थिक क्रीतकृतयोश्चतुर्लघवः । भक्तपानपूतिकर्मणि गुरुको मासः । उपकरणपूतिकर्मणि तु लघुको मास इत्यनुक्तमपि द्रष्टव्यम् । 'अन्तिमः' आत्मार्थकृतलक्षणो भेदः 'शुद्धः' निरवद्यः । एतच्च सौवीरिणीरधिकृत्योक्तम् । एवमेव च एकैकस्यां रसिन्या यांनि सप्त सप्त आधार्मिकादीनि भरणानि तेष्वप्येतदेव प्रायश्चित्तं मन्तव्यम् ॥ उक्त आहारविषयो विधिः । अथोपधिविषयं तमेवाह-तत पाइयं० गाथा॥ . Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२१ भाष्यगाथाः १७६३-६८] प्रथम उद्देशः । शुद्धः, शेषास्त्रयोऽप्यशुद्धाः। 'यद् वा' क्रीतकृत-स्थापितादिकं यत्र वस्त्रे पात्रे वा 'क्रमते' अवतरति तत् तत्र सम्यगुपयुज्य योजनीयम् । अत्र च तननं वितननं चाविशोधिकोटिः पायनं विशोधिकोटिरित्याचार्यस्य मतम् । परस्तु ब्रवीति-पायनमविशोधिकोटिः, कन्दादिजीवोपघातनिष्पन्नत्वात् ; तननं वितननं च विशोधिकोटिः, जीवोपघातस्यादृश्यमानत्वादिति । अत्र सूरिराह-नास्माकं जीवोपघातेनैवाधाकर्म किन्तु श्रमणार्थ वस्त्रादेयत् पर्यायान्तरनयनं तदप्या-5 धाकर्म मन्तव्यम् ॥ १७६५॥ अपि च अत्तट्ठियतंतूहि, समण ततो अ पाइय वुतो अ । किं सो न होइ कम्मं, फासूण विपजिओं जो उ ॥ १७६६ ॥ जइ पजणं तु कम्मं, इतरमकम्मं स कप्पऊ धोओ। अह धोओ वि न कप्पर, तणणं विणणं च तो कम्मं ॥ १७६७॥ 10 आत्मार्थिताः-स्वार्थ निष्पादिता ये तन्तवस्तैः श्रमणार्थ यः पटः ततः पायितो व्यूतश्च सः 'प्राशुकेनापि' खार्थमचित्तीकृतेन खलिकाद्रव्यसम्भारेण पायितः सन् किमाधाकर्म न भवति ? त्वदुक्तनीत्या भवतीति भावः ॥ १७६६ ॥ ततो यदि जीवोपघातनिष्पन्नत्वात् पायनमाधाकर्म 'इतरत्' तननं वितननं च 'अकर्म' न आधाकर्मेति तर्हि स पटो धौतः सन् कल्पतां भवतः, अपनीतपायनिकालेपत्वात् । अथ 15 ब्रवीथाः 'धौतोऽप्यसौ न कल्पते' ततस्तननं वितननं चार्थादाधाकर्म संवृत्तमिति सिद्धं नः समीहितम् ॥ १७६७॥ गतं "गच्छसइए अ कप्पे अंबिलभरिए अ ऊसित्ते" (गा० १६५८) इति द्वारम् । अथ “परिहरणा अणुजाणे" ( गा० १६५९)त्ति द्वारं व्याख्यानयति चोअग जिणकालम्मि, किह परिहरणा जहेव अणुजाणे । अइगमणम्मि य पुच्छा, निकारण कारणे लहुगा ॥ १७६८॥ 20 नोदकः प्रश्नयति-यदि शतिकेप्वपि गच्छेषु साम्प्रतमित्थमाधाकर्मादयो दोषा जायन्ते तर्हि जिनः-तीर्थकरस्तस्य काले साहस्रेषु गच्छेषु साधवः कथमाधाकर्मादीनां परिहरणं कृतवन्तः ? इति । सूरिराह-यथैव 'अनुयाने' रथयात्रायां साम्प्रतमपि परिहरन्ति तथा पूर्वमपि परिहृतवन्तः । “अतिगमणम्मि य पुच्छ” ति शिप्यः पृच्छति-किमनुयाने 'अतिगमनं' प्रवेशनं कर्तव्यम् ? उत न ? इति । आचार्यः प्राह----"निकारण कारणे लहुग" ति निष्कारणे 25 यदि गच्छति तदा चत्वारो लघवः, कारणे यदि न गच्छति तदाऽपि चत्वारो लघवः ॥१७६८॥ अथैतदेव भावयति १ "उभिन्नं उग्गमकोडी, निकोरितं विसोहिकोडी" इति चूर्णी विशेषचूर्णी च वर्तते ॥ ___ २ यदि संयतार्थ जीवोपघातनिष्पन्नत्वात् पायनमविशोधिकोटिरिष्यते तर्हि आत्मार्थिताः-स्वार्थ निष्पादिता ये तन्तवस्तैः श्रमणार्थ यः पटः ततः पायितो व्यूतश्च, कथं पायितः ? इत्याह-'प्राशुकेन' निर्जीवेन खलिकाद्रव्यसम्भारेण पायितः, स किं आधाकर्म न भवति ? भवत्येवेति भावः ॥ १७६६ ॥ तथा यदि पायनमेव तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् आधाकर्म 'इतरत् भा० ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ 10 पहाणा-ऽणुजाण माइसु, जतंति जह संपयं समोसरिया । सतसो सहसो वा, तह जिणकाले विसोहिंसु ॥। १७६९ ॥ 'स्नानं ' इह वर्षान्तः प्रतिनियतदिवसभावी भगवत्प्रतिमायाः स्नात्रपर्वविशेषः, अनुयानं -रथयात्री, आदिशब्दात् कुल-गण- सङ्घकार्यपरिग्रहः, तेषु स्नाना-ऽनुयानादिषु सङ्घमीलकेषु साम्प्रतमपि 5 'शतशः ' शतसङ्ख्याः 'सहस्रशः' सहस्रसङ्ख्याः साधवः समवसृताः सन्तो यथा 'यतन्ते' आधाकर्मादिदोषैशोधनायां प्रयत्नं कुर्वते तथा जिनकालेऽपि ते भगवन्तः 'शोधितवन्तः ' एषणाशुद्धिं कृतवन्त इत्यर्थः ॥ १७६९ ॥ भूयोऽपि परः प्राह-- ननु च 'सर इव सागरः, खद्योत इव प्रद्योतनः, मृग इव मृगेन्द्रः' इत्यादिवदैदयुगीनसमवसरण सत्कमेषणाशुद्ध्युपमानं तीर्थकर - कालभाविनीमेषणाशुद्धिमुपमातुमभिधीयमानं हीनत्वान्न समीचीनम्, अंत आह पञ्चक्खेण परोक्खं, साहिजइ नेव एस हीणुवमा । जं पुरिसजुगे तइए, वोच्छिन्नो सिद्धिमग्गो उ || १७७० ॥ ईं 'प्रत्यक्षेण' उपमानवस्तुना 'परोक्षम् ' उपमेयं वस्तु साक्षादनुपलभ्यमानमपि साध्यते इति शास्त्रे लोके च स्थितिः । तथाहि – खुर - ककुद - लाङ्गूल-सास्नाद्यवयवोपलक्षितमध्यक्षवीक्षितं गवादि वस्तु दृष्टान्ततयोपदर्श्य गवयादिकं परोक्षमपि प्रतीतिपथमारोप्यते । एवमत्रापि प्रत्यक्ष15 वीक्ष्यमाणेन साम्प्रतकालीनसमवसरणसत्केनैषणाशोधनेन परोक्षमपि तीर्थकर कालभाविसमवसरंणसाधूनामेषणाशोधनं साध्यते इति "नेव एस हीणुवम" त्ति न चेयं सर इव सागर इत्यादि - यद् हीनोपमा, तीर्थकरकालेऽपि हि सहस्रसङ्ख्या एव साधव एकत्र क्षेत्रे समवसरन्ति स्म, एतावन्तश्च ते साम्प्रतमपि स्नाना - sनुयानादौ पर्वणि समवसरन्त उपलभ्यन्ते शोधयन्तश्चैषणाम्, ततोऽनुमीयते तीर्थकरकालेऽप्येवमेव दोषान् शोधितवन्त इति । अपि च श्रीमन्महावीर - १ 'त्रा, तदादिषु कार्येषु साम्प्रत तं० डे० कां० ॥ २ 'त् कल्याणकप्रभृति पर्व परिग्रहः भा० ॥ ३ पपरिहरणे प्रभा० ॥ ४ आह हीनत्वादयुक्तेयमुपमा, तथाहि - यथा 'चन्द्रमुखी दारिकेयम्' इत्यादौ चन्द्रादिकमुपमानं कलङ्कादिदूषिततया हीनत्वादयुज्यमानमवगम्यते, पचमैयु भा० ॥ ५ अत्रोच्यते भा० ॥ I ६. प्रत्यक्षं चक्षुषा वीक्ष्यमाणं यद् वस्तु तेन 'परोक्षं' साक्षादनुपलभ्यमानमपि 'साध्यते' समर्थ्यते प्रतीतिपथमुपनीयते इति यावत् । तथाहि यथा खुर-ककुदलाङ्गूलाद्यवयवोपलक्षितं प्रत्यक्ष गवादि वस्तु दृष्टान्ततयोपदर्श्य गवयादिकं परोक्षमपि साध्यते । एवमत्रापि प्रत्यक्षवीक्ष्यमाणेन साम्प्रतकालीनसमवसरण सत्केनैषणाशोधनेन परोक्षमपि तीर्थकरकालभाविसमवसरणसाधूनामेषणाशोधनं प्रतीतिपथमारोप्यते इति नैवेयं हीनोपमा, सहस्रसङ्ख्यानां साधूनामैदंयुगीनेऽपि समवसरणे सम्भवात् । अपि च श्रीमन्महावीरस्वामी वर्त्तमानतीर्थस्य प्रवर्त्तकः प्रथमं पुरुषयुगमभवत्, ततस्तदन्तेवासी श्रीसुधर्मस्वामी द्वितीयम्, तद्विनेयः श्रीजम्बूस्वामी तृतीयम्, एतानि त्रीणि पुरुष युगानि यावदनगाराणां निर्वाणपदवीगमनमभवत्, तृतीये च पुरुषयुगे निर्वृते सति सिद्धिमागों व्यवच्छिन्नः, तत ऊर्द्ध नानुवृत्त इति भावः । इह च सिद्धिमार्गः - केवलोत्पत्तिप्रभतिकः परिग्रद्यते न पनर्ज्ञान मा० ॥ ७ च व्यवस्थितिः. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 10 भाष्यगाथाः १७६९-७४] प्रथम उद्देशः । . ५२३ स्वामी १ श्रीसुधर्मस्वामी २ जम्बूस्वामी ३ चेति त्रीणि पुरुषयुगानि यावदनगाराणां निर्वाणपदवीगमनमभवत् । तृतीये च पुरुषयुगे निवृते सति 'सिद्धिमार्गः' क्षपकश्रेणि-केवलोत्पत्त्यादिरूपो' व्यवच्छिन्नः, न पुनर्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपः शास्त्रपरिभाषितः, तस्येदानीमप्यनुवर्तमानत्वात् । ततश्च यदि तेषां साधूनामुद्द्वमादिदोषशोधनं नाभविष्यत् ततस्ते सिद्धिमार्गमपि नासादयिष्यन् । अतो निश्चीयते-तेऽपि भगवन्त इत्थमेवैषणाशुद्धिं कृतवन्त इति ॥१७७०॥5 अथानुयानविषयो विधिरुच्यतेआणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमा-ऽऽयाए। अनुयान गमने एवं ता वच्चंते, दोसा पत्ते अणेगविहा ॥ १७७१ ॥ [पि.नि.१८३] विधिः निष्कारणे अनुयानं गच्छत आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमा-ऽऽत्मनोभवति । एवं तावद् व्रजतो मार्गे दोषाः । तत्र प्राप्तानां पुनरनेकविधा दोषाः ॥ १७७१ ॥ तत्र संयमा-ऽऽत्मविराधनां भावयति महिमाउस्सुयभूए, रीयादी न विसोहए। तत्थ आया य काया य, न सुत्तं नेव पेहणा ॥ १७७२ ।। . . महिमा नाम-भगवत्प्रतिमायाः पुप्पारोपणादिपूजात्मकः सातिशय उत्सवस्तस्या दर्शनार्थमुसुकभूत ईर्यादिसमितीन विशोधयति, आदिशब्दादेषणादिपरिग्रहः । 'तत्र च' ईर्यादीनामशोधने 15 आत्मा च कायाश्च विराध्यन्ते । आत्मविराधना कण्टक-स्थाण्वाद्युपघातेन, संयमविराधना षण्णां कायानामुपमर्दादिना । तथा त्वरमाणत्वादेव न सूत्रं गुणयति, उपलक्षणत्वादर्थं च नानुप्रेक्षते; नैव प्रतिलेखनां वस्त्र-पात्रादेः करोति, अकालेऽविधिना वा करोति ॥ १७७२ ॥ एवमेते मार्गे गच्छतां दोषा अभिहिताः । अथ तत्र प्राप्तानां ये दोषास्तानभिधित्सुारगाथामाह चेइय आहाकम्म, उग्गमदोसा य सेह इत्थीओ। ... 20 नाडग संफासण तंतु खुड्ड निद्धम्मकजा य॥ १७७३ ॥ चैत्यानां स्वरूपं प्रथमतो वक्तव्यम् , तत आधाकर्म, तत उद्गमदोषाः, ततः शैक्षाणां पार्श्वस्थेषु गमनम् , ततः स्त्रीदर्शनसमुत्था दोषाः, ततो नाटकावलोकनप्रभवाः, ततः संस्पर्शनसमुत्थाः, तदनन्तरं तन्तवः-कोलिकजालं तद्विषयाः, तदनु "खुड्ड" ति पार्श्वस्थादिक्षुल्लकदर्शनसमुत्थाः, ततो निर्धर्मणां-लिङ्गिनां यानि कार्याणि तदुत्थिताश्च दोषा वक्तव्या इति द्वारगाथा-25 समासार्थः ॥ १७७३ ॥ अथैनामेव विवरीषुः प्रथमतश्चैत्यखरूपं व्याख्यातिसाहम्मियाण अट्ठा, चउन्विहे लिंगओ जह कुटुंबी। चैत्यद्वारम् मंगल-सासय-भत्तीइ जं कयं तत्थ आदेसो ॥ १७७४ ॥ चैत्यानि चतुर्विधानि, तद्यथा--साधर्मिकचैत्यानि मङ्गलचैत्यानि शाश्वतचैत्यानि भक्तिचैत्यानि चेति । तत्र साधर्मिकाणामर्थाय यत् कृतं तत् साधर्मिकचैत्यम् । साधर्मिकश्चात्र द्विधा- 30 १ पो गृह्यते, न पुन मो० ले० ॥ २ तदनन्तरं निर्धर्मकार्यप्रभवाश्च दोषा भा० ॥ ३°ख्यानयति का० ॥ ४ चैत्यं चतुर्विधम् , तद्यथा-साधर्मिकचैत्यं मङ्गलचैत्यं शाश्वतचैत्यं भक्तिचैत्यं चेति भा० कां ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधर्मिक चैत्यम् मङ्गल चैत्यम् शाश्वत चैत्यं भक्तिचै संच ५२४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ लिङ्गतः प्रवचनतश्च । तत्रेह लिङ्गतो गृह्यते, स च यथा कुटुम्बी, कुटुम्बी नाम - प्रभूतपरिचारकलोकपरिवृतो रजोहरण-मुखपोतिकादिलिङ्गधारी वारत्तकप्रतिच्छन्दः । तथा मथुरापुर्यां गृहेषु कृतेषु मङ्गलनिमित्तं यद् निवेश्यते तद् मङ्गलचैत्यम् । सुरलोकादो नित्यस्थायि शाश्वतचैत्यम् । यत्तु भक्त्या मनुष्यैः पूजा-वन्दनाद्यर्थं कृतं कारितमित्यर्थः तद् भक्तिचैत्यम् । 'तेन च' भक्तिऽ चैत्येन ‘आदेशः' अधिकारः, अनुयानादिमहोत्सवस्य तत्रैव सम्भवादिति । ऐषा निर्युक्तिगाथा ॥ १७७४ ॥ अथैनामेव विभावयिषुः साधर्मिकचैत्यं तावदाह वारत्तगस्स पुत्तो, पडिमं कासी य चेश्यहरम्मि | तत्थ य थली अहेसी, साहम्मियचेइयं तं तु ॥ १७७५ ॥ seisserus योगसङ्ग्रहेषु "वारत्तपुरे अभयसेण वारते” (नि० गा० १३०३ पत्र ७०९) 10 इत्यत्र प्रदेशे प्रतिपादितचरितो यो वारतक इति नाम्ना महर्षिः, तस्य पुत्रः खपितरि भक्ति - भरापूरिततया चैत्यगृहं कारयित्वा तत्र रजोहरण - मुखवस्त्रिका प्रतिग्रहारिणीं पितुः प्रतिमामस्थापयत्, तत्र च ' स्थली' सत्रशाला तेन प्रवर्त्तिता आसीत्, तदेतत् साधर्मिकचैत्यम् । अस्य चं साधर्मिकचैत्यस्यार्थाय कृतमस्माकं कल्पते ॥ १७७५ || अथ मङ्गलचैत्यमाह - अरहंतपट्ठाए, महुरानयरीऍ मंगलाई तु । गेहेसु चचरेसु य, छन्नउईगामअद्वे ।। १७७६ | 15 मथुरानगर्यां गृहे कृते मङ्गलनिमित्तमुत्तरङ्गेषु प्रथममर्हत्प्रतिमाः प्रतिष्ठाप्यन्ते, अन्यथा तद् गृहं पतति, तानि मङ्गलचैत्यानि । तानि च तस्यां नगर्यां गेहेषु चत्वरेषु च भवन्ति । न केवलं तस्यामेव किन्तु तत्पुरीप्रतिबद्धा ये षण्णवतिसङ्ख्याका ग्रामार्द्धास्तेष्वपि भवन्ति । इहोत्तरापथानां ग्रामस्य ग्रामार्द्ध इति संज्ञा । आह च चूर्णिकृत 20 गामद्धेसु त्ति देसभणिती, छन्नउईगामेसु त्ति भणियं होइ, उत्तरावहाणं एसा भणिइ ति ॥ १७७६ ॥ शाश्वतचैत्य-भक्तिचैत्यानि दर्शयति नियाई सुरलोए, भत्तिकयाहं तु भरहमाईहिं । निस्सा-निस्सकयाई, जहिँ आएसो चयसु निस्सं । १७७७ ।। 'नित्यानि' शाश्वतचैत्यानि 'सुरलोके' भवनपति - व्यन्तर - ज्योतिष्क-वैमानिकदेवानां भवन25 नगर-विमानेषु, उपलक्षणत्वाद् मेरुशिखर- वैताढ्यादिकूट- नन्दीश्वर - रुचकवरादिष्वपि भवन्तीति । तथा भक्त्या भरतादिभिर्यानि कारितानि अन्तर्भूतण्यर्थत्वाद् भक्तिकृतानि । अत्र च “जहिँ आएसो" त्ति येन भक्तिचैत्येन 'आदेश' प्रकृतम् तद् द्विधा - निश्राकृतमनिश्राकृतं च । निश्राकृतं नाम - गच्छप्रतिबद्धम्, अनिश्राकृतं तद्विपरीतम् सङ्घसाधारणमित्यर्थः । " चयसु निस्सं” ति यद् निश्राकृतं तत् 'त्यज' परिहर । अनिश्राकृतं तु कल्पते ॥ १७७७ ॥ गतं चैत्यद्वारम् । अथाधाकर्मद्वारमाह 30 १ °न्दः, तत् साधर्मिक चैत्यम् । तथा भा० ॥ २ एव पुरातना गाथा भा० कां० ॥ ३ मो० ले० विनाऽन्यत्र - चार्थाय त० डे० कां० । च वारतकतुल्यस्य लिङ्गसाधर्मिकस्यार्थाय भा० ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७७५-८१] प्रथम उद्देशः। . ५२५ जीवं उदिस्स कडं, कम्मं सो वि य जया उ साहम्मी। सो वि य तइए भंगे, लिंगादीणं न सेसेसु ॥ १७७८ ॥ जीवमुद्दिश्य यत् षट्कायविराधनया कृतं सोऽपि च यदि जीवः 'साधर्मिकः' समानधर्मा भवति सोऽपि च' साधर्मिकः 'लिङ्गादीनां' 'लिङ्गतः साधर्मिको न प्रवचनतः' इत्यादीनां चतुर्णा भङ्गानां 'तृतीये भने 'लिङ्गतः प्रवचनतोऽपि' इत्येवंलक्षणे यदि वर्तते न शेषेषु तदेतदाधाकर्म मन्तव्यम् ॥ १७७८ ॥ अथ तीर्थकरप्रतिमार्थ यनिर्वर्तितं तत् किं साधूनां कल्पते न वा ? इत्याशङ्कानिरासार्थमाह संवट्टमेह-पुप्फा, सत्थनिमित्तं कया जइ जईणं । न हु लब्भा पडिसिद्धं, किं पुण पडिमट्ठमारद्धं ॥ १७७९ ॥ शास्ता-तीर्थकरस्तस्य निमित्तं यानि देवैः संवर्तकमेघ-पुष्पाणि समवसरणभूमौ कृतानि 10 तानि यतीनां यदि प्रतिषेद्धं न लभ्यानि, तेषां तत्रावस्थातुं यदि कल्पते इति भावः, तर्हि किं पुनः 'प्रतिमार्थम्' अजीवानां प्रतिमानां हेतोरारब्धम् ?. तत् सुतरां न प्रतिषेधमर्हतीत्यभिप्रायः ॥ १७७९॥ आह यदि तीर्थकरार्थं संवर्तकमेघ-पुष्पाणि कृतानि तर्हि तस्य भगवतस्तानि प्रतिसेवमानस्य कथं न दोषो भवति ? इति उच्यते तित्थयरनाम-गोयस्स खयहा अवि य दाणि साभव्या। 15 धम्मं कहेइ सत्था, पूयं वा सेवई तं तु ॥ १७८० ॥ तीर्थकरनाम-गोत्रस्य कर्मणः क्षयार्थ 'शास्ता' भगवान् धर्म कथयति, 'पूजां च' महिमां तामनन्तरोक्तां संवर्तकवातप्रभृतिकामासेवते । भगवता हि तीर्थकरनाम-गोत्रं कर्मावश्यवेदनीयम् , विपाकोदयावलिकायामवतीर्णत्वात् । तस्य च वेदनेऽयमेवोपायः-~-यदग्लान्या धर्मदेशनाकरणं सदेव-मनुजा-ऽसुरलोकविरचितायाश्च पूजाया उपजीवनम् । तं च कहं वेइज्जइ, अगिलाए धम्मदेसणाईहिँ । ( आव० नि० गा० १८३-७४३) तथा उदए जस्स सुरा-ऽसुर-नरवइनिवहेहिँ पूइओ लोए।। तं तित्थयरं नामं, तस्स विवागो उ केवलिणो ॥ (बृहत्कर्मवि० गा० १४९) इति वचनप्रामाण्यात् । 'अपि च' इत्यभ्युच्चये । “दाणि" ति निपातो वाक्यालङ्कारे । साभव" 25 त्ति खो भावः स्वभावः, यथा--"आपो द्रवाश्चलो वायुः” इत्यादि, तस्य भावः खाभाव्यं तस्मात् । तस्य हि भगवतः स्वभावोऽयं यत् तथाधर्मकथाविधानं पूजायाश्चासेवनम् ॥१७८०॥ इदमेव स्पष्टतरमाह-. खीणकसाओ अरिहा, कयकिच्चो अवि य जीयमणुयत्ती । पडिसेवंतो वि अओ, अदोसवं होइ तं पूर्य ॥ १७८१ ॥ 30 क्षीणाः-प्रलयमुपगताः कषायाः-क्रोधादयो यस्य स क्षीणकषायः, एवंविधोऽर्हन् तां पूजां १ वतिष्ठमानानां न प्रतिषेधः कर्तुं शक्यते इति भावः, भा० ॥ २ इति । तथा अपि भा०॥ 20 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ प्रतिसेवमानोऽपि न दोषवान् । इयमत्र भावना-यो हि रागादिमान् पूजामुपजीवन् स्वात्मन्युस्कर्ष मन्यते स दोपभाग् भवति, भगवतस्तु क्षीणकषायस्य पूजामुपजीवतोऽपि नास्ति खात्मन्युकर्षगन्धोऽपि, अतो दूरापास्तप्रसरा तस्य सदोषतेति । तथा कृतानि-समापितानि कृत्यानि येन सः » ‘कृतकृत्यः' केवलज्ञानलाभान्निष्ठितार्थः । ततः कृतकृत्यत्वादेवासौ पूजामासेवते न च 6 दोषमापद्यते । अपि च जीतम्-'उपजीवनीया सुरा-ऽसुरविरचिता पूजा' इत्येवंलक्षणं कल्पमनुवर्तयितुं शीलमस्यासौ जीतानुवर्ती, गाथायां मकारोऽलाक्षणिकः ॥ १७८१ ॥ आह भवत्वेवं परं तीर्थकरस्य तत्प्रतिमाया वा निमित्तं यत् कृतं तत् केन कारणेन यतीनां कल्पते ? उच्यते साहम्मिओ न सत्था, तस्स कयं तेण कप्पड़ जईणं । जं पुण पडिमाण कयं, तस्स कहा का अजीवत्ता ॥ १७८२ ॥ 10 'शास्ता' तीर्थकरः स साधर्मिको लिङ्गतः प्रवचनतोऽपि न भवति । तथाहि-लिङ्गतः साधर्मिकः स उच्यते यो रजोहरणादिलिङ्गधारी भवति, तच्च लिङ्गमस्य भगवतो नास्ति तथाकल्पत्वात् , अतो न लिङ्गतः साधर्मिकः । प्रवचनतोऽपि साधर्मिकः सोऽभिधीयते यश्चतुर्वर्णसाभ्यन्तरवर्ती भवति, "पैवयणसंधेगयरे" इति वचनात् ;» भगवाँश्च तत्प्रवर्तकतया न तदभ्यन्तरवर्ती किन्तु चतुर्वर्णस्यापि सङ्घस्याधिपतिः, ततो न प्रवचनतोऽपि साधर्मिक इति । 15 अतः 'तस्य' तीर्थकरस्यार्थाय कृतं यतीनां कल्पते । यत् पुनः प्रतिमानामर्थाय कृतं तस्य 'का कथा ?' का वार्ता ? सुतरां तत् कल्पते । कुतः ? इत्याह-अजीवत्वात् , जीवमुद्दिश्य हि यत् कृतं तदाधाकर्म भवति, “जीवं उद्दिस्स कडं" (गा० १७७८) इति प्रागेवोक्तत्वात् , तच्च जीवत्वमेव प्रतिमानां नास्तीति ॥ १७८२ ॥ अथ वसतिविषयमाधाकर्म दर्शयति ठाइमठाई ओसरण मंडवा संजयट्ठ देसे वा। पेढी भृमीकम्मे, निसेवतो अणुमई दोसा ॥ १७८३ ॥ "ओसरणे" समवसरणे बहवः संयताः समागमिष्यन्तीति बुद्ध्या श्रावका धर्मश्रद्धया बहून् मण्डपान् कुर्युः । ते च द्विधा- स्थायिनोऽस्थायिनश्च । ये समवसरणपर्वणि व्यतीते सति नोत्कील्यन्ते ते स्थायिनः, ये पुनरुत्कील्यन्ते तेऽस्थायिनः । पुनरेकैके द्विविधाः-संयतार्थकृता देशकृता वा । ये आधाकर्मिकास्ते संयतार्थकृताः, ये तु साधूनामात्मनश्वार्थाय कृतास्ते देश25 कृताः । एतेषु तिष्ठतां तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । तथा 'पीठिका नाम' उपवेशनादिस्थानविशेषाः, "भूमिकम्मे" ति 'भूमिकर्म' विषमाया भूमेः समीकरणम् , उपलक्षणं चेदम् , तेन सम्मार्जनोपलेपनादिपरिग्रहः । एतान्यपि पीठिकादीनि संयतार्थकृतानि देशकृतानि वा भवेयुः । एतानि मण्डपादीनि सदोषानि निषेवमाणस्यानुमतिदोषा भवन्ति, एतेपु क्रियमाणेषु या षण्णां जीवनि कायानां विराधना सा अनुमोदिता भवतीति भावः ॥ १७८३ ॥ 30 गतमाधाकर्मद्वारम् । अथोद्गमदोष-शैक्षद्वारद्वयमाह ठवियग-संछोभादी, दुसोहया होति उग्गमे दोसा । १ वति स स्वात्मन्युत्कर्ष मन्यमानस्तत्प्रत्ययं कर्मबन्धमासादयन् दोष° भा० ॥ २१ एतदन्तर्गतः पाठः त० डे० कां० नास्ति ॥ ३॥ एतदन्तर्गतः पाठः त. डे० विना न ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १७८२-८८] प्रथम उद्देशः । ५२७ बंदिजंते दटुं, इयरे सेहा तहिं गच्छे ॥ १७८४ ॥ 'बहवः संयताः समायाताः' इति कृत्वा धर्मश्रद्धावान् लोकः संयतार्थं स्थापितं-भक्त-पानादेः स्थापनां कुर्यात् 'गृहमागतानामक्षेपेणैव दास्यामः' इति कृत्वा, "संछोभ" ति यानि गृहाणि साधुभिरनेषणीयदानेऽशङ्कनीयानि तेषु शाल्योदन-तन्दुलधावनादिकं भक्त-पानं मोदका-ऽशोकवर्तिप्रभृतीनि वा खाद्यकविधानानि निक्षिपेयुः 'साधूनामागतानां दातव्यानि' इति, आदिशब्दात् । क्रीतकृत-प्राभृतिकादिपरिग्रहः । एते उद्गमदोषास्तत्र 'दुःशोध्याः' दुप्परिहार्या भवन्ति । तथा 'इतरान्' पार्श्वस्थादीन् बहुजनेन वन्द्यमानान् पूज्यमानाँश्च दृष्ट्वा शैक्षाः 'तत्र' पार्श्वस्थादिषु गच्छेयुः ॥ १७८४ ॥ स्त्री-नाटकद्वारद्वयमाह इत्थी विउव्यियाओ, भुत्ता-ऽभुत्ताण दट्ट दोसा उ । एमेव नाडइजा, सविब्भमा नच्चिय-पगीया ॥ १७८५ ॥ स्त्रीः 'विकुर्विताः' वस्त्र-विलेपनादिभिरलङ्कता दृष्ट्वा भुक्ता-ऽभुक्तानां 'दोपाः' स्मृति-कौतुकप्रभवा भवन्ति । एवमेव 'नाटकीयाः' नाट्ययोषितः 'सविभ्रमाः' सविलासा नर्तित-गीतयोः प्रवृत्ता विलोक्य श्रुत्वा च भुक्ता-ऽभुक्तसमुत्था दोषा विज्ञेयाः ॥ १७८५ ॥ संम्पर्शनद्वारमाह थी-पुरिसाण उ फासे, गुरुगा लहुगा सई य संघट्टे । आया-संजमदोसा, ओभावण-पच्छकम्मादी ॥ १७८६॥ 13 समवसरणे पुप्पारोपणादिकौतुकेन भूयांसः स्त्री-पुरुषाः समायान्ति तेषां सम्मन स्पर्शो भवति । ततः स्त्रीणां स्पर्श चत्वारो गुरवः, पुरुषाणां स्पर्श चत्वारो लघवः । स्मृतिश्च सङ्घट्टे भुक्तभोगिनां भवति, चशव्दादभुक्तभोगिनां कौतुकम् । आत्म-संयमविराधनादोषाश्च भवन्तिआत्मविराधना सम्मः सति हस्त-पादाद्युपघातः, संयमविराधना सम्मः पृथिव्यां प्रतिष्ठिताः षट् काया नावलोक्यन्ते न च परिहर्तुं शक्यन्ते । “ओभावण-पच्छकम्माइ” त्ति साधुना कोऽपि 20 शौचवादी पुरुषः स्पृष्टः स सायात् , तं स्नान्तं निरीक्ष्यापरः पृच्छति–किमर्थं नासि ? इति, स प्राह-संयतेन स्पृष्ट इति, एवं परम्परया साधूनां जुगुप्सोपजायते, यथा-अहो ! मलिना एते, एवमपभाजना पश्चात्कर्म च भवति, आदिशब्दाद् असङ्खडादयो दोषाः ॥ १७८६ ॥ अथ तन्तुद्वारमाहलूया कोलिगजालग, कोत्थलकारीय उवरि गेहे य । 25 साडितमसाडिते, लहुगा गुरुगा अभत्तीए । १७८७ ॥ असम्माय॑माणे चैत्ये भगवत्पतिमाया उपरिष्टादेतानि भवेयुः----'लूता नाम' कोलिकपुटकानि, 'कोलिकजालकानि तु' जालकाकाराः कोलिकानां लालातन्तुसन्तानाः, कोत्थलकारी-भ्रमरी तस्याः सम्बन्धि गृहमुपरि भवेत् । यद्येतानि लतादीनि शाटयति तदा चत्वारो लघवः । अथ न शाटयति ततो भगवतां भक्तिः कृता न भवति, तस्यां चाभक्त्यां चत्वारो 30 गुरुकाः ॥ १७८७ ॥ अथ क्षुल्लकद्वारं निर्द्धर्मकार्यद्वारं च व्याख्यानयति घट्ठाइ इयरखुड्डे, दटुं ओगुंडिया तहिं गच्छे । उकुट्ठघर-धणाईववहारा चेव लिंगीणं ॥ १७८८ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ५२८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पस्त्रे [ मासकरूपप्रकृते मूत्रम् ? छिंदंतस्स अणुमई, अमिलंत अछिंदओ य उविसवणा । छिदाणि य पेहंती, नेव य कजेसु साहिलं ॥ १७८९ ॥ इतरे-पार्श्वस्थास्तेषां ये क्षुल्लका घृष्टाः, आदिग्रहणात् “मट्ठा तुप्पोट्ठा पंडुरपडपाउरणा" ( अनु. यो० पत्र २६) इत्यादि, तानित्थम्भूतान् दृष्ट्वा संविग्नक्षुल्लकाः 'अवगुण्डिताः' मलादग्धदेहाः परि5 भग्नाः सन्तः 'तत्र' तेषां लिङ्गिनामन्तिके गच्छेयुः । तेषां च तत्र मिलितानां परस्परमुत्कृष्टगृहधनादिविषयाः 'व्यवहाराः' विवादा उपढीकन्ते, ते च व्यवहारच्छेदनाय तत्र संविमानाकारयन्ति, ततो यदि तेषां व्यवहारश्छिद्यते तदा भवति परिस्फुटस्तेषां गृह-धनादिकं ददतः साधोरनुमतिदोषः । उपलक्षणमिदम् , तेन येषां तद् गृह-धनादिकं न दीयते तेषामप्रीतिक-प्रद्वेषगमनादयो दोषाः । अथ लिङ्गिनामेतद्दोषभयात् प्रथमत एव न मिलन्ति न वा व्यवहारपरिच्छेद 10 कुर्वन्ति ततः 'उत्क्षेपणा' उद्घाटना साधूनां भवति, सङ्घात् बाह्यीकरणमित्यर्थः । 'छिद्राणि च' दूषणानि ते कषायिताः सन्तः साधूनां प्रेक्षन्ते । नैव च ते 'कार्येषु' राजद्विष्ट-ग्लानत्वादिषु 'साहाय्यं' तन्निस्तरणक्षममुपष्टम्भं कुर्वते । यत एते दोषा अतो निष्कारणे न प्रवेष्टव्यमनुयानमिति स्थितम् । कारणेषु तु समुत्पन्नेषु प्रवेष्टव्यम् । यदि न प्रविशति तदा चत्वारो लघवः ॥ १७८८ ॥ १७८९ ॥ कानि पुनस्तानि ? इत्युच्यते चेइयपूया रायानिमंतणं सन्नि वाइ खमग कही। संकिय पत्त पभावण, पवित्ति कजाइँ उड्डाहो ॥ १७९० ॥ अनुयानं गच्छता चैत्यपूजा- स्थिरीकृता भवति । राजा वा कश्चिदनुयानमहोत्सवकारकः सम्प्रतिनरेन्द्रादिवत् तस्य निमन्त्रणं भवति । 'संज्ञी' श्रावकः स जिनप्रतिमायाः प्रतिष्ठापनां चिकीर्षति । तथा वादी क्षपको धर्मकथी च तत्र प्रभावनार्थ गच्छति । शङ्कितयोश्च सूत्रार्थ20 योस्तत्र निर्णयं करोति । पात्रं वा तत्राव्यवच्छित्तिकारकं प्रामोति । प्रभावना वा राजप्रबजितादिभिस्तत्रगतैर्भवति । प्रवृत्तिश्चाचार्यादीनां कुशलवारीरूपा तत्र प्राप्यते । कार्याणि च कुलादिविषयाणि साधयिष्यन्ते । उड्डाहश्च तत्रगतैर्निवारयिष्यत इति । एतैः कारणैर्गन्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः ॥१७९०॥ अथ विस्तरार्थं विभणिषुश्चैत्यपूजा-राजनिमन्त्रणद्वारे विवृणोति सद्धावुड्ढी रन्नो, पूयाएँ थिरत्तणं पभावणया। 25 पडिघातो य अणत्थे, अत्था य कया हवइ तित्थे ॥ १७९१ ॥ ___ कोऽपि राजा रथयात्रामहोत्सवं कारयितुमनास्तन्निमन्त्रणे गच्छद्भिस्तस्य राज्ञः श्रद्धावृद्धिः कृता भवति । चैत्यपूजायां स्थिरत्वं प्रभावना च तीर्थस्य सम्पादिता भवति । यच्च जैनप्रवचनप्रत्यनीकाः शासनावर्णवाद-महिमोपघातादिकमनर्थ कुर्वन्ति तस्य प्रतिघातः कृतो भवति । तीर्थे च 'आस्था' स्वपक्ष-परपक्षयोरादरबुद्धिरुत्पादिता भवतीति ।। १७९१ ॥ 30 अथ संज्ञिद्वारं वादिद्वारं चाह एमेव य सन्नीण वि, जिणाण पडिमासु पढमपठ्ठवणे । मा परवाई विग्धं, करिज वाई अओ विसइ ।। १७९२ ॥ १°ग धम्मकही भा० ता० ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १८८९-९७] प्रथम उद्देशः । ५२९ ___ संज्ञिनः-श्रावकाः केचिद् जिनानां प्रतिमासु प्रथमतः "पट्ठवणे" ति प्रतिष्ठापनं कर्तुकामास्तेषामपि 'एयमेध' राज्ञ इव श्रद्धावृद्ध्यादिकं कृतं भवति । तथा मा परवादी प्रस्तुतोत्सवस्य विघ्नं कार्षीद् अतो वादी प्रविशति ॥ १७९२ ॥ परवादिनिग्रहे च क्रियमाणे गुणानुपदर्शयति नवधम्माण थिरत्तं, पभावणा सासणे य बहुमाणो। अभिगच्छंति य विदुसा, अविग्य पूया य सेयाए ॥ १७९३ ॥ 5 'नवधर्मणाम्' अभिनवश्रावकाणां 'स्थिरत्वं' स्थिरीकरणम् । शासनस्य च प्रभावना भवति, यथा-अहो ! प्रतपति पारमेश्वरं प्रवचनं यत्रेदृशा वादलब्धिसम्पन्ना इति । बहुमानश्चान्येषामपि शासने भवति । तथा तं वादिनं 'अभिगच्छन्ति' अभ्यायान्ति 'विद्वांसः' सहृदयास्तद्वाग्मिताकौतुकाकृष्टचित्ताः, तेषां च सर्वविरत्यादिप्रतिपत्त्या महाँल्लाभो भवति । परवादिना च निगृहीतेन ‘अविनं' निःप्रत्यूहं पूजा कृता सती स्वपक्ष-परपक्षयोरिह परत्र च श्रेयसे भवति ॥१७९३॥ 10 अथ क्षपकद्वारमाह-- आयाविति तवस्सी, ओभावणया परप्पवाईणं । जइ एरिसा वि महिमं, उविंति कारिंति सड्ढा य॥ १७९४ ॥ तत्र 'तपखिनः' षष्ठा-ऽष्टमादिक्षपका आतापयन्ति । ततश्च 'अपभावना' लाघवं 'परप्रवादिनां' परतीथिकानां भवति, तेषां मध्ये ईदृशानां तपखिनामभावात् । श्राद्धाश्च चिन्तयन्ति ---15 यदि तावदीशा अपि भगवन्तोऽस्माभिः क्रियमाणां 'महिमां' चैत्यपूजां द्रष्टुमायान्ति, तत इत ऊर्दू विशेषत एव तस्यां यत्नं विधास्याम इति प्रवर्द्धमानश्रद्धाका महिमां कुर्वन्ति कारयन्ति च ॥ १७९४ ॥ अथ कथिकद्वारमाह आय-परसमुत्तारो, तित्थविवड्डी य होइ कहयंते । अन्नोन्नाभिगमेण य, पूया थिरया य वहुमाणो ॥ १७९५ ॥ 20 क्षीराश्रवादिलब्धिसम्पन्न आक्षेपणी-विक्षेपणी-संवेजनी-निर्वेदनीभेदात् चतुर्विधां धर्मकथां कथयन् धर्मकथीत्युच्यते । तस्मिन् धर्म कथयति आत्मनः परस्य च संसारसागरात् समुत्तारःनिस्तरणं भवति । तीर्थविवृद्धिश्च भवति, प्रभूतलोकस्य प्रव्रज्याप्रतिपत्तेः । तथा देशनाद्वारेण पूजाफलमुपवर्ण्य 'अन्यान्याभिगमेन' अन्यान्यश्रावकबोधनेन पूजायां स्थिरता बहुमानश्च (ग्रन्थाग्रम्-१५०० । सर्वग्रन्थानम्-१३७२० ।) कृतो भवति ॥ १७९५ ॥ अथ शङ्कित-पात्रद्वारे व्याख्याति निस्संकियं च काहिइ, उभए जं संकियं सुयहरेहिं । __ अव्योच्छित्तिकरं वा, लब्भिहि पत्तं दुपक्खाओ ॥ १७९६ ॥ 'उभये' सूत्रे अर्थे च यत् तस्य शङ्कितं तत् तत्र श्रुतधरेभ्यः पार्थान्निःशङ्कितं करिप्यति । अव्यवच्छित्तिकारकं वा पात्रं द्विपक्षाद् लप्स्यते। द्वौ पक्षौ समाहृतौ द्विपक्षम् , गृहस्थ-30 पक्षः संयतपक्षश्चेत्यर्थः ।। १७९६ ॥ अथ प्रभावनाद्वारमाह जाइ-कुल-रूव-धण-बलसंपन्ना इड्डिमंतनिक्खंता । जयणाजुत्ता य जई, सनेच तित्थं पभाविति ॥ १७९७ ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ५३० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ जातिः-मातृकः पक्षः, कुलं-पैतृकः पक्षः, रूपम्-आकृतिः, धनं-गणिम-धरिम-मेय-पारिच्छेद्यभेदाच्चतुर्द्धा तदतिप्रभूतं गृहस्थावस्थायामासीत् , वलं-सहस्रयोधिप्रभृतीनामिव सातिशयं शारीरं वीर्यम् , एतैर्जात्यादिभिर्गुणैः सम्पन्ना ये च 'ऋद्धिमन्निष्क्रान्ताः' राजप्रव्रजितादयो ये च 'यतनायुक्ताः' यथोक्तसंयमयोगकलिता यतयस्ते 'समेत्य' तत्रागत्य तीर्थ प्रभावयन्ति ॥१७९॥ 5 अपि च जो जेण गुणेणऽहिओ, जेण विणा वा न सिज्झए जं तु । सो तेण तम्मि कन्जे, सव्वत्थामं न हावेइ ॥ १७९८ ॥ 'यः' आचार्यादिः येन' प्रावचनिकत्वादिना गुणेन ‘अधिकः' सातिशयः 'येन वा' विद्यासिद्धादिना विना यत् प्रवचनप्रत्यनीकशिक्षणादिकं कार्यं न सिध्यति सः 'तेन' गुणेन तस्मिन् 10 कार्ये 'सर्वस्थाम' सकलमपि वीर्यं न हापयति किन्तु सर्वया शक्त्या तत्र लगित्वा प्रवचन प्रभावयतीति भावः । उक्तञ्च मावचनी धर्मकथी, वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । जिनवचनज्ञश्च कविः, प्रवचनमुद्भावयन्त्यते ॥ ॥ १७९८ ॥ प्रवृत्तिद्वारमाह साहम्मि-वायगाणं, खेम-सिवाणं च लविभइ पवितिं । गच्छिहिति जहिं ताई, होहिंति न वा वि पुच्छइ वा ।। १७९९ ॥ तत्रान्येषां साधर्मिकाणां चिरदेशान्तरगतानां वाचकानां वा-आचार्याणां तत्र प्राप्तः प्रवृत्ति लप्स्यते । तथा क्षेम-परचनाद्युपप्लवाभावः शिवं-व्यन्तरकृतोपद्रवाभावः तयोः, उपलक्षणत्वात् सुभिक्ष-दुर्भिक्षादीनां चागामिसंवत्सरभाविनां प्रवृत्तिं तत्र नैमित्तिकसाधूनां सकाशाद् लप्स्यते । 20 यदि वा यत्र देशे स्वयं गमिष्यति तत्र तानि क्षेमादीनि भविष्यन्ति न वा ? इति साधर्मिकादीन् पृच्छति ॥ १७९९ ॥ कार्योड्डाहद्वारद्वयमाह-- कुलमादीकजाई, साहिस्सं लिंगिणो य सासिस्सं । जे लोगविरुद्धाई, करेंति लोगुत्तराई च ॥ १८०० ॥ कुलादीनि-कुल-गण-सङ्घसत्कानि कार्याणि तत्र गतः साधयिष्यामि । लिङ्गिनश्च तत्र गतः 2 'शासिप्यानि' हितोपदेशदानादिना शिक्षयिप्यामि, ये लिङ्गिनो लोकविरुद्धानि लोकोत्तरविरुद्धानि च प्रवचनोड्डाहकारीणि कार्याणि कुर्वन्तीति ॥ १८००॥ आह यद्येतानि कारणानि भवन्ति ततः किं कर्तव्यम् ? इत्याह-- एएहिँ कारणेहिं, पुव्वं पडिलेहिऊण अइगमणं । अद्धाणनिग्गयादी, लग्गा सुद्धा जहा खमओ ॥ १८०१ ॥ 30 'एतैः' चैत्यपूजादिभिः कारणैरनुयानं प्रवेष्टव्यमिति निश्चित्य पूर्व प्रत्युपेक्ष्य ततोऽतिगमनं कार्यम् । अथाध्वनिर्गताः-ते अध्वानमतिलध्य सहसैव तत्र प्राप्ताः, आदिशब्दादपूर्वोत्सवादिवक्ष्यमाणकारणपरिग्रहः, एवंविधैः कारणैरप्रत्युपेक्षितेऽपि क्षेत्रे गताः सन्तो यथोक्तां यतनां कुर्वाणा अपि यदि, 'लग्नाः' अशुद्धभक्तादिग्रहणदोषमापन्नास्तथापि शुद्धाः । यथा 'क्षपकः' पिण्ड Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३१ भाष्यगाथाः १७९८-१८०५] प्रथम उद्देशः । नियुक्तौ प्रतिपादितचरितः शुद्धं गवेषयन्नपि निगूढबाह्याकारया तथाविधश्राद्धिकया च्छलितः सन्नाधाकर्मण्यपि गृहीते शुद्धः, अशठपरिणामत्वादिति नियुक्तिगाथासमासार्थः ।। १८०१ ॥ अथैनामेव विवृणोति नाऊण य अइगमणं, गीए पेसिति पेहिउं कजे । उवसय भिक्खायरिया, बाहिं उब्भामगादीया ॥ १८०२॥ सब्भाविक इयरे वि य, जाणंती मंडवाइणो गीया। सेहादीण य थेरा, वंदणजुत्तिं बहिं कहए ॥ १८०३ ॥ चैत्यपूजादिके कार्य समुत्पन्नेऽनुयानक्षेत्रं प्रत्युपेक्षितुं गीतार्थान् प्रेषयन्ति । ततो ज्ञात्वा सम्यक् क्षेत्रखरूपमतिगमनं कर्त्तव्यम् । किं पुनस्तत्र प्रत्युपेक्ष्यम् ? इत्याह-मौलग्रामे उपाश्रयः, 'बहिः' बाह्यग्रामेषु च उद्भामकाख्या भिक्षाचर्या, आदिशब्दात् तस्यां गच्छतामपान्तराले विश्रा-10 मस्थानं मौलग्रामे च भिक्षा-विचारभूमिप्रभृतिकं प्रत्युपेक्ष्यम् । तथा सद्भाविकानितराँश्च मण्डपादीन् गीतार्था जानन्ति, यथा-अमी सद्भावतः खार्थ मण्डपाः कृताः, अमी तु संयतार्थ परं कैतवप्रयोगेणास्मानित्थं प्रत्याययन्ति, आदिग्रहणात् पीठिकादिपरिग्रहः । इत्थं तैः प्रत्युपेक्षिते सूरयः सवाल-वृद्धगच्छसहिता अनुयानक्षेत्रं प्रविशन्ति । स्थविराश्च बहिरेव वर्तमानाः शैक्षादीनां 'वन्दनयुक्तिं' पार्श्वस्थादिवन्दनविधि कथयन्ति, मा भूदन्यथा तद्वन्दने तेषां 15 विपरिणाम इति ॥ १८०२ ॥ १८०३ ॥ अथ चैत्यवन्दनविधिमाह निस्सकडमनिस्से वा, वि चेइए सव्वहिं थुई तिन्नि । वेलं च चेइयाणि य, नाउं एक्किकिया वा वि ॥ १८०४ ॥ 'निश्राकृते' गच्छप्रतिबद्धे 'अनिश्राकृते वा' तद्विपरीते चैत्ये सर्वत्र तिस्रः स्तुतयो दीयन्ते । अथ प्रतिचैत्यं स्तुतित्रये दीयमाने वेलाया अतिक्रमो भवति, भूयांसि वा तत्र चैत्यानि, ततो 20 वेलां चैत्यानि वा ज्ञात्वा प्रतिचैत्यमेकैका स्तुतिर्दातव्येति ॥ १८०४ ॥ ___ अथ समवसरणविषयं विधिमाह निस्सकडे ठाइ गुरू, कइवयसहिएयरा वए वसहिं । जत्थ पुण अनिस्सकडं, पूरिति तहिं समोसरणं ॥ १८०५ ॥ निश्राकृते चैत्ये 'गुरुः' आचार्यः कतिपयैः परिणतसाधुभिः सहितश्चैत्यमहिमावलोकनार्थ 25 तिष्ठति, 'इतरे' शैक्षादयस्ते ‘मा पार्श्वस्थादीन् भूयसा लोकेन पूज्यमानान् दृष्ट्वा तत्र गमनं कार्युः' इति कृत्वा गुरुभिरनुज्ञाता वसतिं व्रजेयुः । यत्र पुनः क्षेत्रे अनिश्राकृतं चैत्यं तत्राचार्याः समवसरणं पूरयन्ति, सभामापूर्य धर्मकथां कुर्वन्तीत्यर्थः ।। १८०५ ।। आह किं संविनैस्तत्र धर्मकथा कायर्या ? आहोश्चिदसंविनैरपि ? उच्यते-- संविग्गेहि य कहणा, इयरेहिँ अपच्चओ न ओवसमो । १ "मासियपारणगट्ठा.” इत्यादि २०९-१०-११ गाथात्रिक पत्र ७४ ॥ २ अथैतदेव भाव्यतेनाऊण मो० ले० विना ॥ ३ पेक्षणीयम् ? इति चेद् अत आह-[मौलग्रामे ] उपाश्रयो . -- -A.wmmarरदामका. आ° भा०॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ सनियुक्ति-लघुमाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ पध्वजाभिमुहा वि य, तेसु वए सेहमादी वा ॥ १८०६ ॥ 'संविग्नैः' उद्यतविहारिभिः कथना धर्मस्य कर्तव्या । कुतः ? इत्याह-इतरे-असंविमास्तैर्धर्मकथायां क्रियमाणायां श्रोतृणामप्रत्ययो भवति, नैते यथा वादिनस्तथा कारिण इति । न च तेषाम् 'उपशमः' सम्यग्दर्शनादिप्रतिपत्तिर्भवति । येऽपि च प्रव्रज्याभिमुखाः शैक्षादयो 5 वा अद्याप्यपरिणतजिनवचनास्तेऽपि तेषु व्रजेयुः-शोभनं खल्वेतेऽपि धर्म कथयन्तीति ॥१८०६॥ आह निश्राकृते चैत्ये यदि तदानीमसंविना न भवन्ति ततः को विधिः ? इत्याह पूरिति समोसरणं, अन्नासइ निस्सचेइएसुं पि । इहरा लोगविरुद्धं, सद्धाभंगो य सड्ढाणं ॥ १८०७ ॥ 'अन्येषाम्' असंविमानामसति निश्राकृतेष्वपि चैत्येषु समवसरणं पूरयन्ति । इतरथा 'लोक10 विरुद्धं' लोकापवादो भवति-अहो! अमी मत्सरिणो यदेवमन्यदीयं चैत्यम् इति कृत्वा नात्रोपविश्य धर्मकथां कुर्वन्ति । श्रद्धाभङ्गश्च श्राद्धानां भवति, तेषामत्यर्थमभ्यर्थयमानानामपि तत्र धर्मकथाया अकरणात् ॥ १८०७ ॥ अथ भिक्षाचर्यायां यतनामाह पुव्वपविद्वेहि समं, हिंडंती तत्थ ते पमाणं तु । साभाविअभिक्खाओ, विदंतऽपुव्वा य ठवियादी ॥१८०८॥ 15 पूर्वप्रविष्टा नाम-पूर्वं ये क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ प्रहितारतैः समं भिक्षां हिण्डन्ते । तत्र च भिक्षा मटतां त एव प्रमाणम् , नागन्तुकैस्तत्र शुद्धा-शुद्धगवेषणा कर्तव्या । ते च पूर्वप्रविष्टा इदं विदन्ति–यदेताः 'खाभाविकभिक्षाः' स्वार्थनिप्पादिताः, एतास्तु 'अपूर्वाः' संयतार्थ स्थापितनिक्षिप्तादयः ॥ १८०८ ॥ स्त्रीसङ्कुल-नाटकदर्शनयोर्यतनामाह वंदेण इंति निंति व, जुब मज्झे थेर इथिओ तेणं । ठंति न य नाडएसुं, अह ठंति न पेह रागादी ॥ १८०९ ॥ ___ स्त्रीसङ्कुले वृन्देनायान्ति निर्गच्छन्ति च । ये च युवानस्ते मध्ये क्रियन्ते । यतः स्त्रियस्तेन पावेन. 'स्थविराः' वृद्धा भवन्ति, मा भूवन् भुक्ता-भुक्तसमुत्था दोषा इति । यत्र नाटकानि निरीक्ष्यन्ते तत्र न तिष्ठन्ति । अथ कारणतस्तिष्ठन्ति ततः "न पेह" ति नर्तक्यादिरूपाणि न प्रेक्षन्ते । सहसा दृष्टिगोचरागतेषु च तेषु रागादीन्न कुर्वन्ति, तेभ्यश्च द्राग् दृष्टिं निवर्तयन्ति 25 ॥ १८०९ ॥ तन्तुजालादिषु विधिमाह सीलेह मंखफलए, इयरे चोयंति तंतुमादीसु । अभिजोयंति सवित्तिसु, अणिच्छि फेडतऽदीसंता ।। १८१० ॥ 'इतरे' असंविना देवकुलिका इत्यर्थः तान् तन्तुजाल-लूतापुटकादिपु सत्सु ते साधवो नोदयन्ति । यथा- 'शीलयत' परिकर्मयत मङ्खफलकानीव मङ्खफलकानि देवकुलानि' । महो 30 नाम-चित्रफलकव्यग्रहस्तः, तस्य च यदि फलकमुज्वलं भवति ततो लोकः सर्वोऽपि तं पूजयति, एवं यदि यूयमपि देवकुलानि भूयो भूयः सम्मार्जनादिना सम्यगुज्यालयत ततो भूयान् लोको भवतां पूजा-सत्कारं कुर्यात् । अथ ते देवकुलिकाः सवृत्तिकाः-चैत्यप्रतिबद्धगृह-क्षेत्रादिवृत्ति१°नि । किमुक्तं भवति ?-यथा नाम कश्चिन्मङ्खः चित्र° भा० ॥ २ हहट्टकादिवृ भा० ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 दृष्टान्तः भाष्यगाथाः १८०६-१२] प्रथम उद्देशः । ५३३ भोगिनस्ततस्तान् 'अभियोजयन्ति' गाढं निर्भर्त्सयन्ति, यथा---एकं तावद् देवकुलानां वृत्तिमुपजीवथ द्वितीयमेतेषां सम्मार्जनौदिसारामपि न कुरुथ । इत्थमुक्ता अपि यदि तन्तुजालादीन्यपनेतुं नेच्छन्ति ततोऽदृश्यमानाः स्वयमेव 'स्फेटयन्ति' अपनयन्तीत्यर्थः ॥ १८१९ ॥ क्षुल्लकविपरिणामसम्भवे यतनामाह--- उजलवेसे खुड्डे, करिति उव्वट्टणाइचोक्खे अ। न य मुच्चंतऽसहाए, दिति मणुन्ने य आहारे ॥ १८११ ॥ क्षुल्लकान् ‘उज्वलवेषान्' पाण्डुरपट-चोलपट्टधारिणः उद्वर्तन-प्रक्षालनादिना च चोक्षान्शुचिशरीरान् कुर्वन्ति । न च ते क्षुल्लकाः 'असहायाः' एकाकिनो मुच्यन्ते । वृषभाश्च तेषां 'मनोज्ञान्' स्निग्ध-मधुरानाहारानानीय ददति, उरभ्रदृष्टान्तेन च प्रज्ञापयन्ति ॥ १८११ ॥ तमेवाहआतुरचिण्णाई एयाई, जाई चरइ नंदिओ। उरभ्र. सुक्कत्तणेहि जावेहि, एयं दीहाउलक्खणं ॥ १८१२ ॥ जहा एगो ऊरणगो पाहुणयनिमित्तं पोसिज्जइ । सो य पीणियसरीरो हलिद्दाइकयंगराओ कयकन्नचूलओ सुहंसुहेणं अभिरमइ । कुमारगा वि य तं नाणाविहेहिं कीडाविसेसेहिं कीलाविति । तं च एवं लालिज्जमाणं दट्टण वच्छगो माऊए नेहेण गोवियं दोहएण य तयणुकंपाए 15 मुक्कमवि खीरं न पिबइ रोसेणं । ताए पुच्छिओ-वच्छ ! किं न धावसि । तेण भणियंअम्मो ! एस नंदियगो इटेहिं जवसजोगासणेहिं अलंकारविसेसेहि य अलंकारिओ पुत्त इव परिपालिज्जइ, अहं तु मंदभग्गो सुक्काणि तणाणि कयाइ लभामि, ताणि वि न पज्जत्तगाणि, एवं पाणियं पि, न य मं कोइ लालइ । ताए भन्नइ-पुत! आउरचिन्नाई एयाई, जहा आउरो मरिउकामो जं मग्गइ पत्थं वा अपत्थं वा तं दिजइ एवमेसो वि नंदियओ पोसिज्जइ, 20 जया मारिजिहिइ तया पिच्छिहिसि । अन्नया सो वच्छगो तं नंदियगं पाहुणएसु आगएसु वहिज्जमाणं दळं तिसिओ वि माऊए थन्नं नाभिलसइ भएणं । ताए भन्नइ-किं पुत्त ! भयभीओ सि नेहेण पण्हुयं पि. मं न पियसि ? । तेण भन्नइ-कतो मे थन्नाभिलासो ? नणु सो वराओ नंदियओ अज्ज पाहुणएहिं आगएहिं मम अग्गओ विणिग्गयजीहो लोलनयणो विस्सरं रसंतो मारिओ, तब्भया कओ मे पाउमिच्छा ? । ताए भण्णइ-नणु पुत्तय ! तया 35 चेव ते कहियं “आउरचिन्नाई एयाई" ति, एस तेसिं विवागो अणुपत्तो ति ॥ अथाक्षरार्थः--आतुरः-चिकित्साया अविषयभूतो रोगी, तस्य यथा मर्तुकामस्य पथ्यमपथ्यं वा दीयते एवमयमपि नन्दिको यानि मनोज्ञाहारजातानि चरति तानि आतुरचीर्णानि, अतो वत्स ! शुष्कतृणैः 'यापय' स्वशरीरं निर्वाहय, यत एतद् दीर्घायुषो लक्षणम् । एवमेतेऽप्यसंविमक्षुल्लका यद् मनोज्ञाहारादिभिरुपलाल्यन्ते तद् नन्दिकपोषणवद् द्रष्टव्यम् ॥१८१२ ।। 30 अथ निर्द्धर्मकार्येषु यतनामाह न मिलंति लिंगिकजे, अच्छंति व मेलिया उदासीणा । १°नादिना सर्वथैव सा भा० ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ विति य निबंधम्मि, करेसु तिव्वं खु मे दंडं ॥ १८१३ ॥ ___ यत्र लिङ्गिनामाक्रुष्टगृह-धनादिकार्याण्युपढौकन्ते तत्र प्रथमत एव न मिलन्ति । अथ तैर्वलामोटिकया मील्यन्ते ततो मेलिता अप्युदासीना आसते । अथ ते ब्रवीरन्-कुरुतास्मदीयस्य व्यवहारस्य परिच्छेदम् । तत एवं निर्बन्धे तैः क्रियमाणे साधवो ब्रुवते—यद्यस्माकं पार्थाद् 5 व्यवहारपरिच्छेदं कारयिष्यथ तत उभयेषामपि भवतां 'तीनं दण्डम्' आगमोक्तप्रायश्चित्तलक्षणं 'कुर्मः' करिप्याम इति ॥ १८१३ ॥ "अद्धाणनिग्गयादी" ( गा० १८०१) इति पदं व्याख्यानयति___ अद्धाणनिग्गयादी, थाणुप्पाइयमहं व सोऊण । गेलन्न-सत्थवसगा, महाणदी तत्तिया वा वि ॥ १८१४ ॥ 10 अध्वनिर्गताः-अध्वानमतिलङ्घय सहसैव तत्र प्राप्ताः, आदिशब्दादन्यदप्येवंविधं कारणं गृहाते । स्थानौत्पातिकमहो नाम-तत्रापूर्वः कोऽप्युत्सवविशेषः सहसैव श्राद्धैः कर्तुमारब्धः तं वा श्रुत्वा । यदि वा ये क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितुं प्रेप्यन्ते ते तदानीं ग्लाना-ऽग्लानप्रतिचरणव्यापृता वा । अथवा सार्थवशगा:-ते तत्र सार्थमन्तरेण गंतुं न शक्यते । महानदी वा काचिदपान्तराले तामभीक्ष्णमुत्तरतां बहवो दोषाः । तावन्मात्रा एव वा ते साधवो यावतां मध्यादेकस्याप्यन्यत्र 16प्रेषणं न संगच्छते । अत एतैः कारणैरप्रत्युपेक्षितेऽपि प्रविशतां न कश्चिद् दोषः ॥१८१४॥ अत्र यतनामाह समणुन्नाऽसइ अन्ने, वि पुच्छिउं दाणमाइ वजिति । दव्याई पेहंता, जइ लग्गंती तह वि सुद्धा ॥ १८१५ ॥ - यदि 'समनोज्ञाः' साम्भोगिकाः पूर्वप्रविष्टाः सन्ति ततस्तैः सह भिक्षामटन्ति । अथ न 20 सन्ति समनोज्ञास्ततः 'अन्यानपि' अन्यसाम्भोगिकानपि पृष्ट्वा दानश्राद्धकुलानि वर्जयन्ति, तेष्वाधाकर्मादिदोषसम्भवात् । शेषेषु कुलेषु पर्यटन्तः “दव्वादी पेहंत" त्ति द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च शुद्धमन्वेषयन्तो. यद्यपि कमपि स्थापनादिकं दोषं 'लगन्ति' प्राप्नुवन्ति तथापि शुद्धाः, क्षपकवदशठपरिणामतया श्रुतज्ञानोपयोगप्रवृत्तत्वादिति ॥ १८१५ ॥ गतं 'परिहरणा अनुयाने' इति द्वारम् । अथ पुरःकर्मद्वारमाह पुरकम्मम्मि य पुच्छा, किं कस्साऽऽरोवणा य परिहरणा । एएसि तु पयाणं, पत्तेयपरूवणं वोच्छं ॥ १८१६॥ पुरःकर्मणि पृच्छा कर्तव्या । तद्यथा-किं पुरःकर्म ? कस्य वा पुरःकर्म ? का वा पुरःकमण्यारोपणा? कयं वा पुरःकर्मणः परिहरणं क्रियते ? एतेषां चतुर्णामपि पदानां प्रत्येकमहं प्ररूपणां वक्ष्ये ॥ १८१६ ॥ तत्र किमिति द्वारस्य प्ररूपणां चिकीर्षुः प्रेर्यमुत्थापयन्नाह जइ जं पुरतो कीरइ, एवं उट्ठाण-गमणमादीणि । होंति पुरेकम्मं ते, एमेव य पुनकम्मे वि ॥ १८१७ ॥ परः प्राह-यदि साधोभिक्षार्थिनो गृहाङ्गणमागतस्य यत् 'पुरतः' अग्रतः क्रियते तत् १ "थाणुप्पाइयं णाम अपुल्वो महो अतिहिमहो वा" इति चूणो विशेषचूर्णौ च ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३५ भाष्यगाथाः १८१३-२१] प्रथम उद्देशः । पुरःकर्मेति व्यवहियते, एवं 'ते' तव यानि दायकस्योत्थान-गमनादीनि कर्माणि साधोरग्रतः क्रियमाणानि तानि सर्वाण्यपि पुरःकर्म भवति । अथ पूर्वार्थवाचकः पुरःशब्द इहाधिक्रियते तत आह-एवमेव च पूर्वकर्मण्यपि द्रष्टव्यम् । किमुक्तं भवति ? –'पुरः-साधोरागमनात् पूर्व कर्म पुरःकर्म' इत्यस्यामपि व्युत्पत्तौ यान्युत्थानादीनि पूर्वं कृतानि तानि पुरःकर्म प्रामुवन्ति ॥ १८१७ ॥ यदि नामैवं ततः का नो हानिः ? इति चेद उच्यते एवं फासुमफासुं, न विजए न वि य काइ सोही ते । __ हंदि हु बहूणि पुरतो, कीरंति कयाणि पुत्वं च ॥ १८१८ ॥ ‘एवं' द्विधाऽपि समासे क्रियमाणे प्राशुकमप्राशुकं वा 'न विद्यते' न ज्ञायते, सर्वस्या अप्युस्थान-गमनादिचेष्टायाः पुरःकर्मत्वप्राप्तेः । अज्ञायमाने च प्राशुका-ऽप्राशुकविभागे शोधिरपि काचिन्नास्ति 'ते' तवाभिप्रायेण, तस्याश्चाभावे चारित्रस्याप्यभाव इति भावः । 'हन्दि' इत्यु-10 पप्रदर्शने । 'हुः' इत्यामन्त्रणे । ततश्चैवम्-हे आचार्याः! बहूनि पुरतः क्रियन्ते बहूनि । च दायकेन पूर्वं कृतानि तानि सर्वाण्यपि पुरःकर्म प्राप्नुवन्ति ॥ १८१८ ॥ अत्र सूरिः प्रतिवचनमाह कामं खलु पुरसद्दो, पञ्चक्ख-परोक्खतो दुहा होइ । तह वि य न पुरेकम्मं, पुरकम्मं चोदग! इमं तु ॥ १८१९ ॥ 16 'कामम्' अनुमतं खेलुशब्दोऽवधारणे अनुमतमेवास्माकं यत् पुरःशब्दः प्रत्यक्ष-परोक्षयोर्द्विधा भवति–यदा 'पुरः--अग्रतः कर्म पुरःकर्म' इति व्युत्पत्तिराश्रीयते तदा प्रत्यक्षार्थवाचकः पुरःशब्दः, यदा तु 'पुरः-पूर्व कर्म पुरःकर्म' तदा परोक्षार्थवाचकः । एवं पुरःशब्दस्य प्रत्यक्ष-परोक्षार्थवाचकतया यद्यप्युत्थानादीनि पुरःकर्म प्रामुवन्ति तथापि तानि पुरःकर्म न भवति, किन्तु पुरःकर्म हे नोदक ! 'इदं' वक्ष्यमाणं भवति ॥ १८१९ ॥ तदेवाह हत्थं वा मत्तं वा, पुट्विं सीतोदएण जं धोवे । समणट्ठाए दाया, पुरकम्मं तं विजाणाहि ॥ १८२० ॥ हस्तं वा मात्रकं वा 'पूर्व भिक्षादानात् प्रथमं 'शीतोदकेन' सच्चित्तजलेन यद् दाता श्रमणार्थ 'धावति' प्रक्षालयति तत् पुरःकर्म विजानीहि न शेषमुत्थान-गमनादिकम् , तथासमयपरिभाषया रूढत्वात् ॥ १८२० ॥ गतं किमिति द्वारम् । अथ कस्येति द्वारस्य प्ररूपणामाह-25 कस्स त्ति पुरेकम्मं, जइणो तं पुण पभू सयं कुजा । अहवा पभुसंदिट्ठो, सो पुण सुहि पेस बंधू वा ॥१८२१॥ कस्य पुनः पुरःकर्म भवति ? इति पृच्छायां निर्वचनं 'यतेः' तत्परिहारिणः साधोः पुरःकर्म मन्तव्यम् , तदितरेषां दोषत्वेनानभ्युपगमात् । 'तत् पुनः' पुरःकर्म 'प्रभुः' गृहखामी खयमेव कुर्यात् , अथवा 'प्रभुसन्दिष्टः' प्रभुणा आदिष्टः । 'स पुनः' प्रभुसन्दिष्टस्त्रिधा, तद्यथा-30 १त्पत्तौ तान्येवोत्थानादीनि पुरः भा० ॥ २ खलु अस्माकं भा० का० ॥ ३°था'सुहृत् प्रेष्यो बन्धुर्वा' सुहृद् भा० ॥ 20 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ 'सुहृद्' मित्रम् , 'प्रेष्यः' दासी-दासादि, 'बन्धुः' माता-भगिन्यादि ॥ १८२१ ॥ अथ पुरःकर्मणः सम्भवमाह दमए पमाणपुरिसे, जाए पंतीऍ ताण मोत्तूणं । (नि. ४०६६-४११७] सो पुरिसो तं वऽनं, तं दव्वं अन्नों अन्नं वा ॥ १८२२॥ । सङ्खड्यां पतिपरिवेषणे नियुक्तः कोऽपि 'द्रमकः' कर्मकरः, एतेन प्रभुसन्दिष्टग्रहणम् ; 'प्रमाणपुरुषो वा' देयद्रव्यखामी, अनेन च प्रभुग्रहणम् ; ततश्च दाता प्रभुर्वा प्रभुसन्दिष्टो वा यस्यां पतौ पुरःकर्म कृतवान् तां मुक्त्वा यद्यन्यां पाकिं सङ्क्रामति तदा यदि परिणतहस्तस्ततः कल्पते । अत्र चाष्टौ भङ्गा भवन्ति-स पुरुषस्तां पङ्क्तिमन्यां वा पझिं तद् द्रव्यमन्यद् द्रव्यं वा इत्यनेन चत्वारो भङ्गाः सूचिताः, एवमन्यः पुरुष इत्यनेनापि चत्वारो भङ्गाः सूच्यन्ते, एवमेते 10 अष्टौ भनाः ॥ १८२२ ॥ एनामेवाष्टभङ्गी स्पष्टयति सो तं ताए १ अन्नाएँ विइअओ २ अन्न तीऍ ३ दो वग्ने ४। । एमेव य अत्रेण वि, भंगा खलु होंति चत्तारि ॥ १८२३॥ . स पुरुषस्तद् द्रव्यं तस्यां पताविति प्रथमः १ । स पुरुषस्तद् द्रव्यमन्यस्यां पङ्काविति द्वितीयः २ । स पुरुषोऽन्यद् द्रव्यं तस्यां पताविति तृतीयः ३ । स पुरुषोऽन्यद् द्रव्यमन्यस्यां 15 पसाविति चतुर्थः ४, अत्र च 'द्वे अपि' द्रव्य-पसी अन्ये इति । एवमेव चान्यपुरुषपदेनापि चत्वारो भङ्गा भवन्ति । तद्यथा----अन्यः पुरुषस्तद् द्रव्यं तस्यां पङ्की ५ अन्यः पुरुषस्तद् द्रव्यमन्यस्यां पतौ ६ अन्यः पुरुषोऽन्यद् द्रव्यं तस्यां पतौ ७ अन्यः पुरुषोऽन्यद् द्रव्यमन्यस्यां पतौ ८ ॥ १८२३ ॥ एतेषां मध्याद् येषु यथा कल्पते तदेतद् दर्शयति केप्पइ समेसु तह सत्तमम्मि तइयम्मि छिन्नवावारे। अत्तट्टियम्मि दोसुं, सव्वत्थ य भयसु कर-मत्ते ॥ १८२४ ॥ ___'समेषु' द्वितीय-चतुर्थ-षष्ठा-ऽष्टमेषु भङ्गेषु ग्रहीतुं कल्पते । तथाहि-द्वितीये तावदन्यस्यां पतौ सङ्क्रान्तत्वेन तद् द्रव्यमपि वक्ष्यमाणनीत्या चतुर्थे तु द्रव्यान्तरत्वेनान्यस्यां पङ्क्षौ दीयमानत्वेन च षष्ठे तु पुरुषान्तरेणापरस्यां पङ्कौ तद् द्रव्यं दीयत इति हेतोः अष्टमे तु तिमृणामपि पुरुष-द्रव्य-पतीनामन्यत्वेन परिस्फुटमेव कल्पत इति । तथा सप्तमेऽपि भङ्गे कल्पत एव, पुरु25षान्तरेणान्यद्रव्यस्य दीयमानत्वात् । तृतीये तु च्छिन्नव्यापारे सति कल्पते, यः साधुदानार्थ हस्तमात्रकप्रक्षालनव्यापारः कृतः स यदा व्यापारान्तरेण च्छिन्नो भवति तदा तेनैव पुरुषेणान्यद् द्रव्यं तस्यां पतौ दीयमानं कल्पत इति भावः । 'द्वयोः' प्रथम-पञ्चमयोर्यदि तद् द्रव्यं तेनात्मार्थितं भवति ततः कल्पते नान्यथा । 'सर्वत्र च' अष्टस्त्रपि भङ्गेषु कर-मात्रके 'भज' विकल्पय, यदि हस्तो वा मात्रकं वा सस्निग्धमुदका वा न भवति ततः कल्पते अन्यथा तु नेत्येवं 30 भजना कर्तव्येत्यर्थः ॥ १८२४ ॥ अथ किमर्थं पुरःकर्म करोति ? इत्याह ___अचुसिण चिक्कणे वा, कूरे धुविउं पुणो पुणो देइ । १°रः 'प्रमाणपुरुषो वा' देयद्रव्यस्वामी यस्यां पतौ भा० कां० ॥ २ नेयं गाथा निशेषचूर्णौ दृश्यते ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ भाष्यगाथाः १८२२-२९] प्रथम उद्देशः । ___ आयमिऊँणं पुव्वं, दइज्ज जइणं पढमयाए ॥ १८२५ ॥ परिवेषणं कुर्वतो यद्यत्युष्णश्चिक्कणो वा कूरस्तत एकत्र हस्तदाहभयादपरत्र हस्ते विलगनात् कुण्डकादिस्थितेनोदकेन स दाता पुनः पुनः ‘धौत्वा' हस्तमार्दीकृत्य 'ददाति' परिवेषयतीत्यर्थः, साधोरप्यागतस्य तथैव यदि भिक्षां ददाति तदा पुरःकर्म भवति । यदि वा पूर्वम् 'आचम्य' हरतं मात्रकं वा प्रक्षाल्य प्रथमत एव यतीनां दद्यात् ततोऽन्येभ्यः परिवेषयेत् तदाऽपि 5 पुरःकर्म भवति ॥ १८२५ ॥ एवं पुरःकर्मणि कृते यद् यत्र कल्पते तदेतदं नियुक्तिगाथया दर्शयति दाऊण अन्नदव्वं, कोई दिजा पुणो वि तं चेव । अत्तट्ठिय-संकामियगहणं गीयत्थसंविग्गे ॥ १८२६ ॥ तद् अनेषणाकृतं द्रव्यं मुक्त्वा अन्यस्यान्यद् द्रव्यं 'दत्त्वा' परिवेष्य कश्चित् 'तदेव' अने- 10 षणाकृतं द्रव्यं पुनरपि तस्यामन्यस्यां वा पसौ साधूनां दद्यात् , एवं छिन्नव्यापारे आत्मार्थित सत् कल्पते । अथवा “संकामिय" ति तदनेषणाकृतं द्रव्यं स दाता अन्यस्सै परिवेषयेत् स यदि दद्यात् तत एवं सामितं सत् कल्पते । एतच्च ग्रहणं गीतार्थस्यानुज्ञातम् , यतो गीतार्थस्तद् द्रव्यमित्थं गृह्णानोऽपि संविग्नो भवति ॥ १८२६ ॥ एतदेवान्त्यपँदं भाप्यकारो भावयतिगीयत्थग्गहणेणं, अत्तट्ठियमाइ गिण्हई गीतो। 15 संविग्गग्गहणेणं, तं गिण्हंतो वि संविग्गो ॥ १८२७ ॥ गीतार्थग्रहणेन कृतेनैतद ज्ञापितं यद आत्मार्थितम् , आदिशब्दात् सङ्क्रामितं च तद् आगमप्रमाणतो गीतार्थ एव गृह्णाति नागीतार्थः । संविमग्रहणेन तु 'तद्' आत्मार्थितादि गृहानोऽपि गीतार्थः संविमो भवति नासंविन इत्युक्तं भवति ॥ १८२७ ॥ इत्थं पुनः पुरतः कृतमपि न पुरःकर्म भवतीति दर्शयति__पुरतो वि हु जं धोयं, अत्तट्ठाए न तं पुरेकम्मं । तं उदउल्लं ससिणिद्धगं व सुक्खे तहिं गहणं ॥ १८२८ ॥ यत् 'पुरतोऽपि' साधोरग्रतोऽप्यात्मार्थ धौतं तत् पुरःकर्म न भवति, किन्तु तद् उदका सस्निग्धं वा मन्तव्यम् । 'उदकाई बिन्दुसहितम् , 'सस्निग्धं विन्दुरहितम् । तस्मिन्नुभयेऽपि 'शुष्के' परिणते ग्रहणं कर्तव्यम् ॥ १८२८ ॥ पुरःकर्मोदकायोर्विशेषमाह तुल्ले वि समारंभे, सुक्के गहणेक एक पडिसेहो । अन्नत्थ छूट ताविय, अत्तटे होइ खिप्पं तु ॥ १८२९॥ उदका-पुरःकर्मणोस्तुल्येऽप्यप्कायसमारम्भे 'एकस्मिन्' उदकाढ़ें शुष्क सति ग्रहणं भवति 'एकस्मिन्' पुरःकर्मणि पुनः शुष्केऽप्यनात्मार्थिते ग्रहणस्य प्रतिषेधः । तथाहि-संयतार्थ द्वाभ्यां पृथक्पृथक्पतौ पुरःकर्म कृतम् , तच्च परिणतम् उदकाई-सस्निग्धौ न स्तः, परं येनात्मार्थितं 30 तस्य हस्तात् कल्पते, येन तु नात्मार्थितं तस्य हस्ताद् न कल्पते । एवं चिरकालिके पुरःकर्मण्युक्तम् । यत्र तु हस्तो मात्रकं वा तत्क्षणमेव 'अन्यत्र' तक्रादौ प्राशुकद्रव्ये प्रक्षिप्तममिना वा १ऊण य पु ता० ॥ २ 'द् दर्श भा० ॥ ३°पदं भाव भा० का० ॥ 25 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ तापितं तत्रात्मार्थिते क्षिप्रमपि ग्रहणं कर्त्तव्यम् ॥ १८२९ ॥ __ गतं कस्येति द्वारम् । अथारोपणाद्वारमाह चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंचग जहन्ने । पुरकम्मे उदउल्ले, ससिणिद्धाऽऽरोवणा भणिया ॥ १८३०॥ । उदकसमारम्भे पुरःकर्मोत्कृष्टमपराधपदम् , उदकाइँ मध्यमम् , सस्निग्धं जघन्यम् । उत्कृष्ट चत्वारो मासा लघवः, मध्यमे लघुमासिकम् , जघन्ये पञ्चरात्रिन्दिवानि । एवं पुरःकर्मोदकासस्निग्धेषु यथाक्रममारोपणा भणिता ॥ १८३० ॥ अथ परिहरणाद्वारमाह परिहरणा वि य दुविहा, विहि-अविहीए अ होइ नायव्वा । पढमिल्लगस्स सव्वं, विइयस्स य तम्मि गच्छम्मि ॥ १८३१ ॥ 10 तइयस्स जावजीवं, चउथस्स य तं न कप्पए दव्वं । तद्दिवस एगगहणे, नियट्टगहणे य सत्तमए ॥ १८३२ ॥ परिहरणाऽपि च द्विविधा-विधिपरिहरणा अविधिपरिहरणा च भवति ज्ञातव्या । अविधिपरिहरणा सप्तविधा-तत्र प्रथमस्य नोदकस्य सर्वमपि द्रव्यजातं खगच्छे परगच्छे च याव ज्जीवमकल्पनीयम् १, द्वितीयस्य तु तस्मिन्नेव गच्छे यावजीवम् २, तृतीयस्य यावज्जीवं तस्यै10 वैकस्य साधोः सर्वमपि द्रव्यजातम् ३, चतुर्थस्य तु तद् द्रव्यमेकं यावज्जीवम् ४, पञ्चमस्य तु तद्दिवसं सर्वद्रव्याणि ५, षष्ठस्य तु तस्यैवैकद्रव्यस्य ग्रहणं न कल्पते ६, सप्तमस्य निवृत्तः सन् स एव साधुः परिणतेन हस्तेन ग्रहणं करोतीत्यभिप्रायः ७ ॥ १८३१ ॥ १८३२ ॥ अथैतेषामेव पराभिप्रायेण व्याख्यानमाह पढमो जावजीवं, सव्वेसिं संजयाण सव्वाणि । दव्वाणि निवारेई, वीओ पुण तम्मि गच्छम्मि ॥ १८३३ ॥ प्रथमो नोदको यस्मिन् गृहे पुरःकर्म कृतं तत्र यावदसौ पुरःकर्मकारी दाता यदर्थ च तत् पुरःकर्म कृतं तौ यावद् जीवतस्तावत् खगच्छ-परगच्छसत्कानां सर्वेषां संयतानां सर्वाणि द्रव्याणि निवारयति । द्वितीयः पुनस्तस्मिन् गच्छे सर्वेषामपि साधूनां यावज्जीवं सर्वद्रव्याणि निवारयति ॥ १८३३ ॥ 25 तइओ जावजीवं, तस्सेवेगस्स सव्वदव्वाइं । वारेइ चउत्थो पुण, तस्सेवेगस्स तं दव्वं ॥ १८३४ ॥ तृतीयो ब्रवीति-यदर्थं पुरःकर्म कृतं तस्यैवैकस्य यावज्जीवं सर्वद्रव्याणि न कल्पन्ते । चतुर्थस्तु तदेवैकं द्रव्यं तस्यैवैकस्य यावज्जीवं वारयति ॥ १८३४ ॥ सव्वाणि पंचमो तद्दिणं तु तस्सेव छट्ठों तं दव्वं । सत्तमओं नियटुंतो, गिण्हइ तं परिणयकरम्मि ॥ १८३५ ॥ पञ्चमो ब्रवीति-तदेवैकं दिनं सर्वाणि द्रव्याणि तदीयगृहे न कल्पन्ते । षष्ठो ब्रूते-तदेवैकं द्रव्यं तस्य गृहे तद्दिनं मा गृह्यताम् । सप्तमः प्राह--'परिणतकरे' परिणताप्काये सति हस्ते भिक्षामटित्वा निवर्तमानस्तत्रैव गृहे स एव साधुः सर्वव्याणि गृहातु न कश्चिद दोषः ॥१८३५॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३९ भाष्यगाथाः १८३०-४०] प्रथम उद्देशः । इत्यं परैरुक्ते सति सूरिराह एगस्स पुरेकम्मं, वत्तं सव्वे वि तत्थ वारिंति । दव्वस्स य दुल्लभता, परिचत्तों गिलाणओ तेहिं ॥ १८३६ ॥ ___ 'एकस्य' साधोराय पुरःकर्म यत्र 'वृत्तं' सञ्जातं तत्र ये सर्वेषामेकस्य वा सर्वद्रव्याणि उपलक्षणत्वादेकमपि द्रव्यं यावज्जीवं तद्दिनं वा वारयन्ति तैर्द्रव्यस्य ग्लानप्रायोग्यस्यान्यत्र । दुर्लभतया ग्लानः परित्यक्तो मन्तव्यः ॥ १८३६ ॥ एतदेव सविशेषमाह जेसि एसुवएसो, आयरिया तेहि ऊ परिचत्ता। खमगा पाहुणगा वि य, सुव्वत्तमजाणगा ते उ ॥ १८३७ ॥ 'येषां' यथाच्छन्दवादिनां 'एषः' सर्वद्रव्यग्रहणादिप्रतिषेधरूप उपदेशस्तैराचार्याः क्षपकाः प्राघूर्णकाश्च परित्यक्ता द्रष्टव्याः, तत्प्रायोग्यस्य घृतादिद्रव्यस्यान्यत्र दुर्लभत्वात् । ते च 'सुव्यक्तं' 10 परिस्फुटम् 'अज्ञाः' मूर्खाः, अतत्त्ववेदित्वात् । खच्छन्दप्ररूपणानिष्पन्नं चामीषां चतुर्गुरु प्रायश्चित्तम् ॥ १८३७ ॥ तत्र ये सर्वानपि साधून् परिहारं कारयन्ति ते खपक्षसाधनसमर्थ विधिमाहुः अद्धाणनिग्गयाई, उन्भामग खमग अक्खरे रिक्खा । मग्गण कहण परंपर, सुव्वत्तमजाणगा ते वि ॥ १८३८॥ यत्र गृहे पुरःकर्म कृतं तत्राध्वनिर्गतादयः 'उद्धामका वा' बहिर्गामे भिक्षाटनशीलाः 'अजा-15 नन्तो मा प्रविक्षन्' इति कृत्वा क्षपकस्तत्र स्थाप्यते । अथ नास्ति क्षपकस्ततः कुड्यादावक्षराणि लिख्यन्ते, यथा--अत्र पुरःकर्म कृतम् , न केनापि भिक्षा ग्राह्येति । अथ तावक्षराणि लिखितुं न जानीतस्ततो रेखा कर्तव्या । अथ कृताऽपि सा केनापि भज्येत ततोऽपरेषां साधूनां मार्गणं कृत्वा मिलितानां कथनीयम्-अमुष्मिन् गृहे पुरःकर्म कृतम् । तेऽपि परम्परया सर्वसाधून ज्ञापयन्ति । इत्थं ये ब्रुवते सुव्यक्तं तेऽप्यज्ञा मन्तव्याः ॥ १८३८ ॥ अथैतदेव भावयति-20 उब्भामग-ऽणुब्भामग-सगच्छ-परगच्छजाणणट्टाए । अच्छइ तहियं खमओ, तस्सऽसइ स एव संघाडो ॥ १८३९ ॥ जइ एगस्स वि दोसा, अक्खर न उ ताइँ सव्वतो रिक्खा । जइ फुसण संकदोसा, हिंडंता चेव साहति ॥ १८४०॥ उझामकाणां-बाह्यग्रामे भिक्षाटनं विधायापर्याप्ते तत्रैव भिक्षामटताम् अनुन्झामकाणां-मौल-28 ग्रामे भिक्षापरिभ्रमणशीलानां खगच्छीयानां परगच्छीयानां च सर्वेषां ज्ञापनार्थ क्षपकस्तत्र गृहे निषण्णस्तिष्ठति । स च यो यः सङ्घाटकस्तत्रागच्छति तस्य तस्य कथयति-अत्र पुरःकर्म कृतं वर्तते । अथ नास्ति क्षपकः पारणकं वा तस्य तद्दिने ततो यदर्थ पुरःकर्म कृतं स एव सङ्घाटकस्तत्र तिष्ठति ॥ १८३९ ।। __ अथ तयोरेकः प्रथम-द्वितीयपरीषहपीडितो न शक्नोति स्थातुम् ततः स प्रतिश्रयं व्रजति 30 द्वितीयस्तु तत्रास्ते । अथैकस्य तस्य तिष्ठतः स्त्रीसमुत्थादयो दोषाः ततः कुड्यादिषु पुरःकर्मकरणसूचकान्यक्षराणि लिख्यन्ते । अथ 'न तु' नैव 'तानि' अक्षराणि सर्वेऽपि लिखितुं जानते १ सुत्तर्थम डे.॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ततः साधुजनसाङ्केतिकी रेखा करणीया । यदि तस्याः ‘स्पर्शना' पादोपघातेन मर्दना तद्विषया आशङ्कादोषा भवेयुः, बहुवचननिर्देशादन्योऽपि रेखां करोतीत्याद्याशङ्कापरिग्रहः, ततस्तावेव साधू भिक्षामटन्तावपरेषां साधूनां कथयतः, तेऽपि हिण्डमाना एव परम्परया सर्वसाधूनां कथयन्ति । इत्थं येषां परिहरणविधिस्ते सुव्यक्तमज्ञा मन्तव्याः ॥ १८४० ॥ उपसंहरन्नाह एसा अविही भणिया, सत्तविहा खलु इमा विही होइ । तत्थाई चरिमदुए, अत्तट्ठियमाइ गीयस्स ॥ १८४१ ॥ एषा अविधिपरिहरणां सप्तविधा भणिता । 'इयं तु' वक्ष्यमाणा विधिपरिहरणा भवति । सा चाष्टविधा । 'तंत्र' अष्टानां भङ्गानां मध्याद यदाद्यं पदं यच्च चरमम्-अन्तिम प्रकारद्वयं तेषु त्रिषु भेदेषु आत्मार्थिते आदिशब्दात् सङ्क्रामिते च सति गीतार्थस्य ग्रहणं भवति । एतच्च 10 यथास्थानं भावयिष्यते ॥ १८४१॥ के पुनस्तेऽष्टौ भेदाः ? उच्यन्ते एगस्स बीयगहणे १, पसजणा तत्थ होइ २ कब्बट्ठी ३ । वारण ललियासणिओ ४, गंतूणं ५ कम्म ६ हत्थ ७ उप्फोसे ८ ॥१८४२॥ "एगस्से"ति विभक्तिव्यत्ययादेकेन पुरःकर्मणि कृते यदि द्वितीयो ददाति तदा तस्य द्वितीयस्य हस्ताद ग्रहणे विधिर्वक्तव्यः १ । तथा “पसज्जण" त्ति अगीतार्थाभिप्रायेण "तत्थ" 15 ति 'तत्र' द्वितीयेऽपि दायके 'प्रसजना' प्रसङ्गदोषो भवतीति वक्तव्यम् २ । “कप्पट्टि" ति 'कल्पस्थिकाः' तरुणस्त्रियः केलिप्रियतया अभीक्ष्णं पुरःकर्म यथा कुर्वन्ति तथा निरूपणीयम् ३ । "वारण ललियासणिओ" त्ति यदि साधुः 'त्वं मा देहि एषा दास्यति' इत्यविधिना पुरःकर्मकारिणी वारयति तदा ललिताशनिक इति तया यथा गण्यते तथा वक्तव्यम् ४ । “गंतूणं" ति 'गत्वा प्रतिनिवृत्तायास्मै दास्यामि' इति बुद्ध्या यदि दाता हस्तगृहीतया भिक्षया तिष्ठति तदा न कल्पते 20 इति वाच्यम् ५ । “कम्मे" त्ति द्रव्यभावभेदभिन्नं पुरःकर्म यथा भवति तथा दर्शनीयम् ६ । "हत्थ" ति तत्र पुरःकर्मणि किं हस्ते उपघातः ? उत मात्रके ? इत्यादि चिन्तनीयम् ७ । "उप्फोसे" ति उत्स्पर्शनं-छन्दनं तद् वस्त्रविषयं वक्तव्यम् इति द्वारगाथासमासार्थः ॥१८४२॥ अथ विस्तरार्थमभिधिलुराह एगेण समारद्धे, अन्नो पुण जो तहिं सयं देइ । 25 जयऽजाणगा भवंती, परिहरियव्वं पयत्तेण ॥ १८४३ ॥ 'एकेन' दायकेन पुरःकर्मणि समारब्धे साधुना प्रतिषिद्धे तद् द्रव्यं यद्यन्यः स्वयमेव कश्चिद् ददाति तदा ते साधवो यदि 'अज्ञाः' अगीतार्था अगीतार्थमिश्रा वा भवन्ति ततः परिहर्तव्यं प्रयत्नेन ॥ १८४३ ॥ इदमेवं व्यतिरेकेणाह-- १ तत्र यदाद्यं मो० ले० विना ॥ २ यद्यन्यो ददाति तदा किं कल्पते? न वा? इति वक्तव्यं विधिर्वक्तव्यः । तृतीयोऽपि दाता यदि पुरःकर्म करोति तदा तत्र 'प्रसजना' प्रसङ्गदोषो भवति तां च 'कल्पस्थिकाः' तरुणस्त्रियः कुर्वन्ति । "वारण भा० ॥ ३°ति गण्यते ४ । “गं° मो० ले० विना ॥ ४ ते ५। "क° मो० ले० विना ॥ ५°कर्म भवति । "ह मो० ले० विना ॥ ६°त्सुः प्रथमतः एकेन इति द्वारं विवृणोति भा० ॥ ७°दा यदि मो० ले० विना ॥ ८°व स्पष्टतरमाह भा० ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । समणेहिं अभणतो, गिरिभणिओ अप्पणो व छंदेणं । मोतु अजाणग मीसे, गिव्हंति उ जाणगा साहू ॥१८४४ ॥ पुरःकर्मकारिणि प्रतिषिद्धे 'श्रमणैः ' साधुभिरभण्यमानो यद्यन्यो दाता गृहिणा केनापि भणित आत्मनो वा 'छन्देन' अभिप्रायेण ददाति तदा मुक्त्वा 'अज्ञान' अगीतार्थान् 'मिश्राँश्च' अगीतार्थमिश्रान् ‘ज्ञायकाः’ गीतार्थास्तद् द्रव्यमात्मार्थितं गृह्णन्ति ॥ १८४४ ॥ अथ किमर्थम- 5 गीतार्थेषु न गृह्यते ? इति सम्बन्धायातं प्रसजनाद्वारं विवृण्वन् तावदगीतार्थाभिप्रायमाहअम्हट्ठसमारद्धे, तद्दव्वऽण किह णु निद्दोसं । सविसन्नाहरणेणं, मुज्झइ एवं अजाणतो ।। १८४५ ।। अस्माकमर्थायाप्काये समारब्धे सति दायकेन यद् द्रव्यं गृहीतं तद् अन्येन दीयमानं कथं नु निर्दोषम् ? सदोषमेवेति भावः । कुतः ? इत्याह – 'सविषान्नाहरणेन ' सविषं यद् अन्नं 10 तद्दृष्टान्तेन । यथा हि वैरिणोऽर्थाय केनचिद् विषयुक्तं भक्तं कृतं तद् अन्येन दीयमानं किं सदोषं न भवति ? एवमस्मदर्थमुदकस्यारम्भं कृत्वा या भिक्षा गृहीता तां यद्यन्यो ददाति तदा किं दोषो न प्रसजति ? इति । एवमजानन्नगीतार्थो मुह्यति, न पुनर्भावयति, यथा--- -तद् अन्येन दीयमानं पुरः कर्मैव न भवति । यत एवमतोऽगीतार्थेषु मिश्रेषु वा परिहर्त्तव्यम् ॥ १८४५ ॥ गीतार्थेषु विधिमाह - 15 एगेण समारद्धे, अन्नो पुण जो तहिं सयं देइ । जइ जाणगा उ साहू, परिभोतुं जे सुहं होइ ॥ १८४६ ॥ एकेन पुरः कर्मणि समारब्धे यद्यन्यः स्वयं ददाति यदि च 'ज्ञायकाः ' गीतार्थाः साधवस्ततः परिभोक्तुं “जे” इति पादपूरणे सुखं भवति, परिभोक्तव्यं तदिति भावः || १८४६ ॥ अथवागीयत्थेसु वि भयणा, अन्नो अन्नं व तेण मत्तेणं । भाष्यगाथाः १८४१-४८] ५४१ 20 विप्परिणयम्मि कप्पर, ससिणिदउल पडिकुट्ठा || १८४७ ॥ गीतार्थेष्वपि भजना कार्या । कथम् ? इत्याह – 'अन्यः' पुरुषोऽन्यद् वा तद् वा द्रव्यं 'तेन' पुरः कर्मकृतेन मात्रकेण यदि ददाति तदा विपरिणतेऽप्काये आत्मार्थिते च सति कल्पते । यदि तु सस्निग्धमुदका वा दायकस्य पाणितलं भवति ततः प्रतिक्रुष्टा सा भिक्षा, न कल्पत इत्यर्थः ॥ १८४७ || अथ कल्पस्थिकाद्वारं व्याख्याति - I 25 तरुणी पिंडियाओ, कंदप्पा जइ करे पुरेकम्मं । पढम - विइयासु मोत्तुं, सेसे आवज चउलहुगा || १८४८ ॥ काश्चित् 'तरुण्यः' युवतयः 'पिण्डिताः ' एकत्र मिलिताः साधुं समायान्तं दृष्ट्वा परस्परं जल्पन्ति —‘एतेषां तावदेतदर्थं धौतेन हस्तेन मात्रकेण वा दीयमानं न कल्पते, अतः पश्यामस्तावदेनम्, अस्माभिः खलीकृतः किमेष करोति ?' इत्येकया तासां मध्यादुत्थाय पुरः कर्म 30 कृतम्, ततः साधुः प्रतिनिवर्त्तितुं लमः; द्वितीया त्रवीति - प्रतीक्षख भगवन् ! अहं ते दास्यामि; ततो भूयोऽप्यागतस्य तस्य तयाऽपि पुरःकर्म कृतम् ; ततः प्रतिनिवर्त्तमानं यदि तृतीया काचि १ र्था गृहन्ति || १८४४ ॥ गतम् " एकेन द्वितीयग्रहणे " इति द्वारम् । अथ किमर्थ भा० ॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ५४२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ दाकारयति तदा ज्ञातव्यम् , यथा-एता मां खलीकुर्वन्ति; अतो न प्रतिनिवर्तितव्यम् । अत एवाह—यदि ताः कन्दर्पात् पुरःकर्म कुर्वीरन् ततः प्रथम-द्वितीये तरुण्यौ मुक्तवा शेषाभिराकारितः प्रतिनिवर्तमान आपद्यते चतुर्लघुकम् ॥ १८४८ ॥ अथ वारणललिताशनिकद्वारं व्याचष्टे पुरकम्मम्मि कयम्मी, जइ भण्णइ मा तुमं इमा देउ । __संकापदं व होजा, ललितासणिओ व सुव्बत्तं ॥ १८४९ ॥ पुरःकर्मणि कृते यदि साधुना दात्री भण्यते ‘मा दास्त्वम् इयं ददातु' ततः सा चिन्तयति-अहं विरूपा वृद्धा वा अतो नास्मै प्रतिभामि, इयं तु सुरूपा यौवनमधिरूढा प्रतिभा सते । शङ्कापदं वा तस्याश्चेतसि भवेत्–किमेष एतया सह घटितो यदेवमस्याः पार्थाद् 10 भिक्षा ग्रहीतुमिच्छति । यदि वा ब्रूयात्-भवान् सुव्यक्तं ललिताशनिको लक्ष्यते यदेवं यथाभिलषितां परिवेषिकामभिकाङ्क्षसि । अत इयं ददातु मा त्वमिति न वक्तव्यम् ॥१८४९॥ __ अथ गत्वेतिद्वारं व्याख्यानयति गंतूण पडिनियत्तो, सो वा अन्नो व से तयं देइ । अन्नस्स व दिजिहिई, परिहरियव्वं पयत्तेणं ॥ १८५०॥ 15 कृतपुरःकर्मा दायको भिक्षां ददानः साधुना प्रतिषिद्धश्चिन्तयति–'यदेष साधुरस्यां गृहपतौ गत्वा प्रतिनिवृत्तः समायास्यति तदा दास्यामि' इति तद् द्रव्यं स वा अन्यो वा दायकः "से" तस्य साधोर्ददाति तदा न कल्पते । अथ यद्येष न गृह्णाति ततः 'अन्यस्य' साधोर्दास्यते इति सङ्कल्पयति ततस्तेनापि परिहर्त्तव्यं तद् भक्तं प्रयत्नेन । एषा नियुक्तिगाथा ॥ १८५० ॥ ... अस्या एवं भाष्यकारो व्याख्यानमाह पुरकम्मम्मि कयम्मी, पडिसिद्धो जइ भणिज्ज अन्नस्स । दाहं ति पडिनियत्ते, तस्स व अन्नस्स व न कप्पे ॥ १८५१ ॥ पुरःकर्मणि कृते प्रतिषिद्धो दायको यदि भणेत्-अन्यस्मै साधवे दास्यामीति । ततः प्रतिनिवृत्तस्य तस्य वा अन्यस्य वा न कल्पते ॥ १८५१ ॥ तथा भिक्खयरस्सऽनस्स व, पुच्वं दाऊण जइ दए तस्स । सो दाया तं वेलं, परिहरियव्यो पयत्तेणं ॥ १८५२॥ ___पुरःकर्मणि कृते पूर्वमन्यस्य भिक्षाचरस्य भिक्षां दत्त्वा पश्चादच्छिन्नव्यापारः 'तस्य' साधोमिक्षां दद्यात् , स दाता तस्यां वेलायां प्रयत्नेन परिहर्त्तव्य इति ॥ १८५२ ॥ अमुमेवार्थ किञ्चिद्विशेषयुक्तमाह अन्नस्स व दाहामी, अण्णस्स व संजयस्स न वि कप्पे । अत्तट्ठिए व चरगाइणं च दाहं ति तो कप्पे ॥ १८५३ ॥ अन्यस्मै वा साधवे दास्यामीति यदि सङ्कल्पयति तदा अन्यस्यापि संयतस्य नैव कल्पते । १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० त० डे. नास्ति ॥ २°षा पुरातना गा भा० कां । "गंतूण पडिनियत्तो० गाहा पुरातना" इति विशेषचूर्णौ ॥ ३ °व व्या भा० कां० ॥ 20 30 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १८४९-५६] प्रथम उद्देशः । ५४३ अथ आत्मार्थयति 'चरकादीनां वा दास्यामि' इति सङ्कल्पयति ततः परिणते हस्ते मात्रके वा कल्पते ॥ १८५३ ॥ अथ कर्मेति द्वारं विवृणोति — दव्वेण यभावेण य, चउकभयणा भवे पुरेकम्मे । [ आव. नि. ८२५ ] सागरिय भावपरिणय, तइओ भावे य कम्मे य ।। १८५४ ॥ सुनो चउत्थ भंगो, मज्झिल्ला दोणि वी पडिकुडट्ठा । संपत्ती वि असती, गहणपरिणतें पुरेकम्मं ।। १८५५ ।। द्रव्येण च भावेन च 'चतुष्कभजना' चतुर्भङ्गीरचना पुरः कर्मणि भवति । तद्यथा — द्रव्यतः पुरः कर्म न भावतः १ भावतः पुरः कर्म न द्रव्यतः २ द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि पुरः कर्म ३ न द्रव्यतो न भावतः पुरः कर्म ४ । अथामीषां भावना - “सागरिय" ति ये शौचवादिनोऽभाविताश्व गृहस्थास्ते पुरः कर्मणि कृते यदि न गृह्यते ततः 'अशुचयोऽमी' इति मन्येरन् इत्थं सागारिक- 10 भयात् पुरःकर्मकृतेन हस्तादिना भक्तादिकं गृहीत्वाऽपि परिष्ठापयतो द्रव्यतः पुरःकर्म भवति न भावत इति । "भावपरिणय" त्ति भिक्षामवतरन् 'पुरःकर्मकृतमपि भक्तादिकं ग्रहीप्ये' इति भावेन परिणतस्तथापि पुरः कर्मकृतं न लब्धमिति भावतः पुरः कर्म न द्रव्यत इति । "तइओ भावे य कम्मे य" ति 'पुरः कर्मकृतं ग्रहीष्यामि इति भावपरिणतो भिक्षामवतीर्णः प्राप्तं च तेन पुर:कर्मकृतमिति तृतीयभङ्गो द्रष्टव्यः || १८५४ ॥ 15 चतुर्थस्तु [ भङ्गः ] पुरःकर्म प्रतीत्योभयथाऽपि शून्यः, अयं चात्र निरवद्यः प्रतिपत्तव्यः । ‘मध्यमौ' द्वितीय-तृतीयभङ्गौ द्वावपि 'प्रतिकुष्टौ' प्रतिषिद्धौ, भावस्य विशुद्धत्वात् । प्रथमभङ्गस्तु शुद्ध इव मन्तव्यः, प्रयोजनापेक्षत्वात् । द्वितीयभङ्गे तु " संपत्तीइ वि असई गहणपरिणए पुरे - कम्मं" ति द्रव्यतः सम्प्राप्तावसत्यामपि भावतो ग्रहणपरिणतस्य पुरः कर्म भवति ॥ १८५५ ॥ अस्यैव निर्युक्तिगाथाद्वयस्य भावार्थमाक्षेप - परिहाराभ्यां स्पष्टयितुमाह 5 ४°व्यः, यतस्तत्र प्रयोजनापेक्षतया द्रव्यतः पुरःकर्मणि सम्प्राप्तावपि भावतो न सम्प्रातः । द्वितीयभङ्गे तु द्रव्यतः "अस" ति सम्प्राप्ताव [सत्याम]पि भावतो ग्रहणपरिणतस्य पुरःकर्म भवति ॥ १८५५ ॥ तृतीयभङ्गस्य परिस्फुटतरं व्याख्यानमाह - भा० ॥ 20 कम्मम्म कमी, जइ गिण्हइ जइ य तस्म तं होइ । एवं खु कम्मबंधो, चिट्ठर लोए व बंभवहो ।। १८५६ ॥ पुरः कर्मणि कृते यदि गृह्णाति, यदि च 'तस्य' यतेः 'तत्' पुरः कर्मग्रहणं प्रति भावो भवति तदा तृतीयभङ्गो भवतीति वाक्यशेषः । आह पुरः कर्मदोषस्तावद् दायकस्य न भवति, कृतोऽपि चासौ प्रथमभङ्गे साधोगृह्णतोऽपि यदि न भवति, एवं 'खुः' अवधारणे पुरःकर्मकृतः कर्मबन्धो दायक- 25 ग्राहकयोरस्थितस्तटस्थ एव तिष्ठति, यथा लोके ब्रह्मवध इति । [ एत्थ ] इमं लोइयं उदाहरणं इंदेण उडंकरिसिपत्ती रुववती दिना । तओ अज्झोववन्त्रो तीए समं अहिगमं गतो सो तमिच्छेतो रिक्षिणा दिट्टो । रुद्वेण रिसिणा तस्स सावो दिन्नो । जम्हा तुमे अगम्मा रिसि३ 'कर्मेति तृतीयो भङ्गः १° ओ दव्वे य भावे य ता० ॥ २ भवेत् । त' भो० ले० ॥ ॥ १८५४ ॥ चतु मो० ले० विना ॥ पुरः कर्म द्वारम् Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ पत्ती अभिगया तम्हा ते बंभवज्झा उवट्ठिया । सो तीए भीओ कुरुखेत्तं पविट्ठो। सा बंभवज्झा कुरुखेत्तस्स पासओ भमइ । सो वि तओ तब्भया न नीति । इंदेण विणा सुन्नं इंदट्ठाणं । ततो सत्वे देवा इंदं मग्गमाणा जाणिऊण कुरुखेत्ते उवट्ठिया भणंति-एहि, सणाहं कुरु देवलोगं । सो भणइ-मम इओ निग्गच्छंतम्स बंभवज्झा लग्गइ । तओ सा देवेहिं बंभवज्झा 5 चउहा विहत्ता-एको विभागो इत्थीणं रिउकाले ठिओ, बिइओ उदगे काइयं निसिरंतम्स, तइओ बंभणस्स सुरापाणे, चउत्थो गुरुपत्तीए अभिगमे । सा बंभवज्झा एएसु ठिया । इंदो वि देवलोग गओ । एवं तुभं पि पुरेकम्मकओ कम्मबंधदोसो ब्रह्महत्यावद् वेगलो भवति ॥ १८५६ ॥ पर एवाह __ संपत्तीइ वि असती, कम्मं संपत्तिओ वि य अकम्मं । ___ एवं खु पुरेकम्मं, ठवणामित्तं तु चोएइ ॥ १८५७ ॥ यदि सम्प्राप्तावसत्यामपि द्वितीयभङ्गे साधोः पुरःकर्म भवति, सम्प्राप्तावपि च प्रथमभङ्गे यदि 'अकर्म' पुरःकर्म न भवति, ततः एवं 'खुः' अवधारणे इत्थमेव मदीयमनसि प्रतिष्ठितं यदेतत् पुरःकर्म तत् स्थापनामात्रमेव, तुशब्दम्यैवकारार्थत्वात् प्ररूपणामात्रमेवेदमिति 'नोदयति' प्रेरयति ॥ १८५७ ॥ अनोच्यते यत् तावदुक्तम्-"एवं पुरःकर्मकृतः कर्मबन्धस्तटस्थ एव 15 तिष्ठति" (गा० १८५६) तत्र तिष्ठतु नाम, ने काचिदस्माकं क्षतिरुपजायते, तथा चात्र त्वद्रुक्तमेव दृष्टान्तमनूद्यास्माभिः स्वाभिमतमर्थं साधयितुमिदमुच्यते इंदेण बंभवज्झा, कया उ भीओ अ तीऍ नासंतो। तो कुरुखेत्त पविट्ठो, सा वि बहि पडिच्छए तं तु ॥ १८५८ ॥ निग्गय पुणो वि गिण्हे, कुरुखेतं एव संजमो अहं । जाहें ततो नीइ जीवो, घेप्पइ तो कम्मबंधेणं ॥ १८५९ ॥ इन्द्रेण ब्रह्महत्या कृता, ततो भीतः सन् तस्या नश्यन् कुरुक्षेत्रं प्रविष्टः । साऽपि ब्रह्महत्या 'तम्' इन्द्रं बहिः प्रतीक्षते । यद्यसौ कुरुक्षेत्रान्निर्गच्छति ततो निर्गतं तमिन्द्रं पुनरपि ब्रह्महत्या गृह्णाति । एवमस्माकमपि संयमः कुरुक्षेत्रम् , कर्मवन्धस्तु ब्रह्महत्यासदृशः, ततो यदा. संयमकुरु क्षेत्राद् द्वितीय-तृतीयभङ्गयोरशुभाध्यवसायपरिणतो जीवो निर्गच्छति ततो गृह्यतेऽसौ कर्मबन्धेन 25 ब्रह्महत्याकल्पेन, अनिर्गतस्तु प्रथम-चतुर्थभङ्गयोर्न गृह्यते ॥ १८५८ ॥ १८५९ ॥ यच्चोक्तम्"स्थापनामात्रं पुरःकर्म" ( १८५७ ) तदपि न सङ्गच्छते, कुतः? इति चेद् उच्यते-- जे जे दोसाययणा, ते ते सुत्ते जिणेहिँ पडिकुट्ठा।। ते खलु अणायरंतो, सुद्धो इहरा उ भइयव्यो । १८६०॥ यानि यानि दोषाणां-प्राणातिपातादीनामायतनानि-स्थानानि पुरःकर्मप्रभृतीनि तानि तानि 30सूत्रे 'जिनैः' भगवद्भिः 'प्रतिकष्टानि' निषिद्धानि । अतः 'तानि खलु' दोषायतनानि अना चरन् साधुः शुद्धो मन्तव्यः । 'इतरथा तु' समाचरन् 'भक्तव्यः' विकल्पयितव्यः ॥ १८६०॥ - १ भने एवमेव पुरः भा० ॥ २ न कदाचिद° भा० विना ॥ ३ °स्तु न गृह्यते, प्रथम चतुर्थभङ्गयोरित्यर्थः ॥ १८५८ ॥ भा० ।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १८५७-६५] प्रथम उद्देशः । परः प्राह का भयणा जइ कारणि, जयणाएँ अकप्प किंचि पडिसेवे। तो सुद्धो इहरा पुण, न सुज्झए दप्पओ सेवं ॥ १८६१॥ का पुनः ‘भजना ?' विकल्पना ? । सूरिराह—कारणे यतनया पुरःकर्मादि किश्चिदकल्प्यं यदि प्रतिसेवेत ततः शुद्धः । 'इतरथा पुनः' अयतनया दर्पतो वा सेवमानो न शुध्यति । ॥ १८६१ ॥ अथ पुरःकर्मवर्जने कारणमुपदर्शयति समणुन्नापरिसंकी, अवि य पसंगं गिहीण वारिता । गिण्हंति असढभावा, सुविसुद्धं एसियं समणा ॥ १८६२ ॥ सैमनुज्ञा नाम-पुरःकर्मकृतं गृह्णतामप्कायविराधनानुमतिस्तत्परिशङ्किनः-तद्दोषभीताः पुरःकर्म परिहरन्ति । अपि च यदि पुरःकर्मकृतां भिक्षां ग्रहीप्यामस्ततो गृहिणां भूयः पुरःकर्म-10 करणे प्रसङ्गो भवति अतस्तं 'वारयन्तः' तदग्रहणेनार्थात् प्रतिषेधयन्तोऽशठभावाः सन्तः श्रमणाः सुविशुद्धमेषणीयं गृह्णन्ति ॥ १८६२ ।। अथ हस्तद्वारं विवृणोति किं उवघातो हत्थे, मत्ते दव्वे उदाहु उदगम्मि । - तिनि वि ठाणा सुद्धा, उदगम्मि अणेसणा भणिया ॥ १८६३ ॥ शिष्यः प्रश्नयति-पुरःकर्मणि कृते किं हस्ते 'उपघातः' अनेषणीयता ? उत मात्रके ? 15 आहोश्चिद् द्रव्ये ? उताहो उदके ? । सूरिराह-हस्त-मात्रक-द्रव्याणि त्रीण्यपि स्थानानि 'शुद्धानि' नैतान्यनेषणीयानि, किन्तूदकेऽनेषणीयता भणिता ॥ १८६३ ॥ अत्रैवोपपत्तिमाह जम्हा तु हत्थ-मत्तेहिं कप्पती तेहिं चेव तं दव्वं । अत्तद्विय परिभुत्तं, परिणत तम्हा दगमणेसि ॥ १८६४ ॥ यस्मात् ताभ्यामेव हस्त-मात्रकाभ्यां तदेव द्रव्यमात्मार्थितं सत् परिभुक्तशेष वा परिणतेऽ-20 प्काये कल्पते, तस्मादुदकमेवानेषणीयं न हस्त-मात्रक-द्रव्याणीति ॥ १८६४ ॥ एवमशनादिविषयो विधिरुक्तः । सम्प्रति नियुक्तिगाथया वस्त्रविषयं तमेवाह किं उवघातो धोए, रत्ते चोक्खे सुइम्मि व कयम्मि। अत्तट्ठिय-संकामियगहणं गीयत्थसंविग्गे ॥ १८६५ ॥ 'धोतं' मलिनं सत् प्रक्षालितम् , रक्तं' धातुप्रभृतिभिर्द्रव्यै रक्तीकृतम् , 'चोक्खं' रजकपा - 25 दतीवोज्वलं कारितम् , 'शुचिकम्' अशुच्यादिनोपलिप्तं सत् पवित्रीकृतम् , एतानि साध्वर्थ वस्त्रे कृतानि भवेयुः । ततश्च शिष्यः पृच्छति-किं धौते उपघातः ? उत रक्ते ? उताहो चोक्खे ? आहोश्चित् शुचीकृते ? । अत्रापि तदेव निर्वचनम् , नैतेषां चतुर्णामेकतरस्मिन्नप्युपघातः, किन्तूदक एव । यत एतदपि साधुना प्रतिषिद्धं सद् यद्यात्मार्थितं सामितं वा अन्यस्मै १ कारणे पुरःकर्मादिकमासेवमानः शुध्यति । निष्कारणे अयतनया वा सेवमानो भा० ॥ २ समनुज्ञां परिशङ्कितुं शीलमेषां ते समनुज्ञापरिशकिना, 'मा भूदस्माकं पुरःकर्मकृतं गृह्णतामनुमतिदोपः' इत्याशय परिहरन्तीति भावः । तथा यदि पुरकर्म° भा० ॥ ३°ति वस्त्र मो० ले० विना ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E ५४६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ दत्तं ततो गीतार्थसंविमस्य ग्रहणं भवति नान्यस्य ॥ १८६५ ॥ किमर्थमेतद् ग्रहणम् ? इति चेद् उच्यते-- गीयत्थरगहणेणं, अत्तट्टियमाइ गिण्हई गीतो। संदिग्गग्गहणेणं, तंगिण्हतो वि संदिग्गो ॥ १८६६ ॥ 5 गीतार्थग्रहणेनैतद् ज्ञाप्यते-आत्मार्थितं सामितं वा गीतार्थो गृह्णाति नागीतार्थः । संविग्नप्रणेन तु-तद' आत्मार्थितादिकं गृह्णन्नपि 'संविनः' मोक्षाभिलाप्येव असौ नासंविम इति सूच्यते ॥ १८६६ ॥ उम्पर्शनद्वारं व्याचष्टे एमेव य परिमुत्ते, नवे य तंतुग्गए अधोयम्मि। उफ्फसिऊणं देते, अनट्टिय सेदिए गह।। १८६७ ॥ 10 यद् बन गृहिणा परिवानादिना परिमलितं तत् परिभुक्तं भण्यते, तद्विपरीतं नवं-तन्तुभ्य उद्गतमात्रन् । ततः परिभुक्तं वा नवं वा तन्तुगतमधीतं सद् वद् ‘उत्स्पृश्य' उदकेनाभ्युक्षणं दत्त्या ददाति तत्राप्येवमेव द्रष्टव्यम्, न कल्पत इत्यर्थः । अथात्मार्थितमात्मना वा सेवितं-परिमुक्तं तो ग्रहणं कर्तव्यम् !! १८६७ ॥ अर विनेयानुग्रहार्थ प्रसङ्गतः पश्चात्कर्मण्यपि विधिमाह संसट्टामसंसद्धे, य सारसेसे य निरवसेसे य। हत्थे नत्ते दब्धे, सुद्धमसुद्धे तिगहाणा ।। १८६८।। इंह मिक्षादानुः सम्बन्धी हस्तः संसृष्टो वा भवेदसंसृष्टो वा, येन च कांस्थिकादिना मात्रकेण भिक्षां ददाति तदापि संसाधनसंसृष्टं वा द्रव्यमपि सावशेष वा स्यान्निरवशेष वा; अतः - संसृष्टा-संसृष्ट-मावशेष-निरकोषपदैर्हस्त-मात्रक-द्रव्यविष्यैरष्टौ भङ्गा भवन्ति । तद्यथा-संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रकं सावशेष द्रव्यं १ संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रकं निरवशेषं द्रव्यं २ संसृष्टो 20 हस्तोऽसंस्ष्टं मात्रकं साक्शेषं द्रव्यं ३ संसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्रकं निरवशेष द्रव्यं ४, एवम संसृष्टेनापि हस्तेन चत्वारो भङ्गाः प्राप्यन्ते ८ । एतस्यामष्टभङ्गयां यानि 'त्रीणि स्थानानि' हस्तमात्रक-द्रव्यरूपाणि तैर्यत्र पश्चात्कर्मदोषो न भवति ते भङ्गकाः शुद्धा इतरे अशुद्धाः ॥१८६८।। अनुमेवार्थ स्पष्टपति पढमे भंगे गहणं, सेसेसु य जत्थ सावसेसं तु । अन्नेसु उ अग्गहणं, अलेन सुक्खेसु ऊ गहणं ॥ १८६९ ।। अस्थामष्टमभयां यः प्रथमो भङ्गस्त्रिभिरपि पदैः शुद्धस्तत्र ग्रहणं भवति । शेषेष्वपि भङ्गकेषु यत्र सावशेषं द्रव्यं भवति तत्र ग्रहीतुं कल्पते, पश्चात्कर्मासम्भवात् । 'अन्येषु' निरवशेषपदयुक्तेपु भनकेप्दग्रहणम् , न कल्पते ग्रहीतुमिति भावः । इयमत्र भावना--इह हस्तो मात्रकं वा द्वे वा खयोगेन संसृष्टे वा भवतामसंतृप्टे वा न तद्वशेन पश्चात्कर्म सम्भवति, किं तर्हि ? 30 द्रव्यवशेन । तथाहि-यत्र द्रव्यं सावशेषं तत्रैते साध्वर्थ खरण्टिते अपि न दात्री प्रक्षालयति, भूयोऽपि परिवेषणसम्भवात् ; यत्र तु निरवशेषं द्रव्यं तत्र साधुदानानन्तरं नियमतो हरतं मात्रकं १°म् , तदपि न क° भो० ले० ॥ २९ एतचिहान्तर्गतः पाठः भा० का नाति ॥ ३ 'प्रथम भङ्ग' त्रिभिरपि पर्दैः शुद्धे महणं भा० ॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १८६६-७४] प्रथम उद्देशः । ५४७ वा प्रक्षालयति । ततो द्वितीयादिषु समेषु भङ्गेषु पश्चात्कर्मसम्भवान्न कल्पते, प्रथमादिषु तु भङ्गेषु तदसम्भवात् कल्पते ग्रहीतुमिति । यदि चैतेष्वपि यद् 'अलेपकृतं' सक्तु-मण्डकादि यच्च 'शुष्कं' गुडपिण्डकादि तयोर्निरवशेषयोरपि ग्रहणं कल्पते ॥ १८६९ ॥ उक्तं सप्रसङ्गं पुरःकर्मद्वारम् । अथ ग्लान्यद्वारं बिभावयिषुराह-- सग्गामे सउवसए, सग्गामे परउवस्सए चेव । ग्लान्यखेत्तंतों अन्नगामे, खेत्तबहि सगच्छ परगच्छे ॥१८७० ॥ द्वारम् सोऊण ऊ गिलाणं, उम्मग्गं गच्छ पडिवहं वा वि। मग्गाओ वा मग्गं, संकमई आणमाईणि ॥ १८७१ ॥ खग्रामे खोपाश्रये तिष्ठता श्रुतम् , यथा--अमुकत्र ग्लान इति, खग्रामे वा परेषां-साधनामुपाश्रये कुतोऽपि प्रयोजनादायातेन, यद्वा क्षेत्रान्तः' क्षेत्राभ्यन्तरे अन्यनामे भिक्षार्चर्या गतेन, यदि 10 वा क्षेत्रबहिरन्यग्रामे पथि वा वर्तमानेन एतेषु स्थानेषु खगच्छे वा परगच्छे वा ग्लानः श्रुतो भवेत् , श्रुत्वा च ग्लानं यः 'उन्मार्गम्' अटवीगामिनं पन्थानं 'प्रतिपथं वा' येन पथा आयातस्तमेव पन्थानं गच्छति ‘मार्गाद्वा' विवक्षितपथादन्यमार्ग सङ्क्रामति स प्राप्नोति आज्ञादीनि दोषपदानि, आदिशब्दादनवस्था-मिथ्यात्व-विराधनापरिग्रहः । एवंकुर्वाणस्य चास्य यद ग्लानोऽप्रतिजागरितः परितापनादिकं प्रामोति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ १८७० ॥ १८७१ ॥ 18 अत एवाह सोऊण ऊ गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए। जइ तुरियं नागच्छइ, लग्गइ गरुए स चउमासे ॥ १८७२ ।। श्रुत्वा ग्लानं पथि वा गच्छन् ग्रामे वा प्रविष्टो भिक्षायां वा पर्यटन् यदि त्वरितं' तत्क्षणादेव नागच्छति ततः 'लगति' प्राप्नोति स चतुरो मासान् गुरुकान् ॥१८७२॥ यत एवमतः-- 20 जह भमर-महुयरिगणा, निवतंती कुसुमियम्मि चूयवणे । ईय होइ निवइअव्वं, गेलने कइयवजढेणं ॥ १८७३॥ यथा भ्रमर-मधुकरीगणाः 'कुसुमिते' मुकुरिते 'चूतवने' सहकारवनखण्डे मकरन्दपानलोलुपतया निपतन्ति 'इति' अमुनैव प्रकारेण भगवदाज्ञामनुवर्तमानेन कर्मनिर्जरालाभलिप्सया ग्लान्ये समुत्पन्ने 'कैतवजन' मायाविप्रमुक्तेन त्वरितं 'निपतितव्यम्' आगन्तव्यं भवति । एवं- 25 कुर्वता साधर्मिकवात्सल्यं कृतं भवति, आत्मा च निर्जराद्वारे नियोजितो भवति ॥ १८७३ ॥ तस्य च ग्लानत्वस्य प्रतिबद्धामिमां द्वारगाथामाह सुद्धे सड्डी इच्छकारे, असत्त सुहिय ओमाण लुद्धे य । अणुअत्तणा गिलाणे, चालण संकामणा तत्तो ॥ १८७४ ॥ प्रथमतः शुद्ध इति द्वारं वक्तव्यम् । ततः 'श्रद्धी' श्रद्धावानिति द्वारम् , तत इच्छाकार- 30 द्वारम् , तदनन्तरमशक्तद्वारम् , ततः सुखितद्वारम् , तदनु अपमानद्वारम् , ततोऽपि लुब्धद्वारम् , १ उक्तं पुरः मो० ले विना ॥ २ °चर्यागते. भा० ॥ ३ मो० ले. कां. विनाऽन्यत्र°क्षां वा त• डे० । 'क्षावेलायां वा भा० ॥ ४ तह हो ता० ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ५१८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ततोऽनुवर्तना ग्लानस्य उपलक्षणत्वाद् वैद्यस्य च वक्तव्या, ततश्चालना सङ्क्रामणा च ग्लानस्याभिधातव्येति द्वारगाथासमुदायार्थः ॥ १८७४ ॥ अथावयवार्थ प्रतिद्वारं प्रचिकटयिषुः “यथोद्देशं निर्देशः" इति वचनात् प्रथमतः शुद्धद्वारं भावयति. सोऊण ऊ गिलाणं, जो उवयारेण आगओ सुद्धो । जो उ उवेहं कुजा, लग्गइ गुरुए सवित्थारे ॥ १८७५ ॥ श्रुत्वा ग्लानं यः' साधुः 'उपचारेण' वक्ष्यमाणलक्षणेन ग्लानसमीपमागतः सः 'शुद्धः' न प्रायश्चित्तभाक् । यस्तूपेक्षां कुर्यात् सः 'लगति' प्राप्नोति चतुरो गुरुकान् 'सविस्तरान्' ग्लानारोपणासंयुक्तान् ॥ १८७५ ॥ उपचारपदं व्याचष्टे उवचरइ को णतिन्नो, अहवा उवचारमित्तगं एइ । उवचरइ व कजत्थी, पच्छित्तं वा विसोहेइ ॥ १८७६ ॥ - यत्र ग्लानो वर्त्तते तत्र गत्वा पृच्छति-"को णऽतिन्नो" ति द्वितीयार्थे प्रथमा, 'नुः' इति प्रश्ने, युष्माकं मध्ये 'अतिन्नं' ग्लानं 'क उपचरति ?' कः प्रतिजागर्ति?; यद्वा धातूनामनेकार्थत्वाद् 'उपचरति' पृच्छति-को नु युप्माकं मध्ये "अतिण्णो ?" ग्लानो येनाहं तं प्रतिजा गर्मि ? । अथवा 'उपचारमानं' लोकोपचारमेव केवलमनुवर्तयितुं ग्लानसमीपम् 'एति' आगच्छति। 15 यदि वा कार्यार्थी सन्नुपचरति । किमुक्तं भवति ?-कार्य किमपि ज्ञान-दर्शनादिकं तत्स मीपादीहमानः प्रतिजागर्ति । 'प्रायश्चित्तं वा मे भविष्यति यदि न गमिप्यामि' इति विचिन्त्यागत्य च प्रायश्चित्तं विशोधयति । एष सर्वोऽप्युपचारो द्रष्टव्यः ॥ १८७६ ॥ अथ श्रद्धावानिति द्वारमाह सोऊण ऊ गिलाणं, तूरंतो आगओ दवदवस्स । संदिसह किं करेमी, कम्मि व अट्टे निउजामि ॥ १८७७ ॥ पडिचरिहामि गिलाणं, गेलने वावडाण वा काहं । तित्थाणुसज्जणा खलु, भत्ती य कया हवइ एवं ॥ १८७८ ॥ 'ग्लानं प्रतिजाप्रदहं महतीं निर्जरामासादयिप्यामि' इत्येवंविधया धर्मश्रद्धया युक्तः श्रद्धावानुच्यते । स च श्रुत्वा ग्लानं 'स्वरमाणः' श्रवणानन्तरं शेषकार्याणि विहाय पन्थानं प्रतिपन्नः ॐ सन् “दवदवस" ति द्रुतं द्रुतं गच्छन् झगिति ग्लानसमीपमागतस्ततो ग्लानप्रतिचारकानाचा र्यान् वा गत्वा भणति—सन्दिशत भगवन्तः ! किं करोम्यहं ? कस्मिन् वा 'अर्थे' ग्लानसम्बन्धिनि प्रयोजने युष्माभिरहं नियोज्ये ?, अहं तावदनेनाभिप्रायेणायातः, यथा-प्रतिजागरिप्यामि ग्लानं ग्लानवैयावृत्त्ये वा व्यापृता ये साधवस्तेषां भक्त-पानप्रदान-विश्रामणादिना वैया वृत्त्यं करिष्यामि । एवंकुर्वता तीर्थस्यानुसजना-अनुवर्तना कृता भवति, भक्तिश्च भगवतां 30 तीर्थकृतां कृता भवति, “जे गिलाणं पडियरइ से ममं णाणेणं दंसणेणं चरित्तेणं पडिवज्जइ" (भगवतीसूत्र श० पत्र ) इत्यादिभगवदाज्ञाऽऽराधनात् । इत्थं तेनोक्ते यदि ते खयमेव ग्लानवैयावृत्त्यं कर्तुं प्रभवन्ति ततो ब्रुवते-आर्य ! बजतु यथास्थानं भवान् , वयं ग्लानस्य १°षुः प्रथ° त. डे० का० ॥ २ °माणेन ग्ला त० डे० कां ॥ 90 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 भाष्यगाथाः १८७५-८२] प्रथम उद्देशः । ५४९ सकलमपि वैयावृत्त्यं कुर्वाणाः स्म इति ॥ १८७७ ॥ १८७८ ॥ __ अथ ते न प्रभवन्ति यदि वाऽसावेवंविधगुणोपेतो वर्तते 'संजोगदिदुपाढी, तेणुवलद्धा व दव्यसंजोगा। सत्थं व तेणऽधीयं, वेजो वा सो पुरा आसि ॥ १८७९ ॥ संयोगाः-औषधद्रव्यमीलनप्रयोगास्तद्विषयो दृष्टः पाठः-चिकित्साशास्त्रावयवविशेषो येन स संयोगदृष्टपाठः, आर्षत्वाद. गाथायामिन्प्रत्ययः, यदि वा तेन द्रव्यसंयोगाः कुतोऽपि सातिशयज्ञानविशेषादुपलब्धाः, 'शास्त्रं वा' चरक-सुश्रुतादिकं सकलमपि तेनाधीतम् , वैद्यो वा सः 'पुरा' पूर्व गृहाश्रम आसीत् , ततो न विसर्जनीयः ॥ १८७९ ॥ अत्थि य से योगवाही, गेलन्नतिगिच्छणाएँ सो कुसलो । सीसे वावारेत्ता, तेगिच्छं तेण कायव्वं ॥ १८८० ॥ यदि 'तस्य' आगन्तुकस्य गच्छे योगवाहिनः सन्ति, स च स्वयं ग्लान्यचिकित्सायां कुशलः, ततः शिष्यान् सूत्रार्थपौरुपीप्रदानादौ व्यापार्य स्वयं तेन ग्लानस्य 'चैकित्स्य चिकित्साकर्म कर्तव्यम् । उपलक्षणमिदम् , तेन कुल-गण-सङ्घप्रयोजनेषु गुरुकार्यप्रेषणे वस्त्र-पात्राद्युत्पादने वा यो यत्र योग्यस्तं तत्र व्यापार्य सर्वप्रयत्नेन खयं ग्लानस्य चिकित्साकर्म कर्त्तव्यम् ॥ १८८० ॥ सूत्रार्थपौरुषीव्यापारणे विधिमाह दाऊणं वा गच्छइ, सीसेण व वायएहि वा वाए । तत्थऽनत्थ व काले, सोहिए सव्वुद्दिसइ हटे ॥ १८८१॥ सूत्रार्थपौरुप्यौ दत्त्वा ग्लानस्य समीपं गच्छति, गत्वा च चिकित्सां करोति । अथ दूरे ग्लानस्य प्रतिश्रयस्ततः सूत्रपौरुषीं दत्त्वा अर्थपौरुषी शिष्येण दापयति । अथ दवीयान् स प्रतिश्रयस्ततो द्वे अपि पौरुष्यौ शिष्येण दापयति । अथात्मीयः शिष्यो वाचनां दातुमशक्तस्ततो 20 येषां वाचकानाम्-आचार्याणां स ग्लानस्तैः सूत्रमर्थ वा खशिष्यान् वाचयति । अथ तेषामपि नास्ति वाचनाप्रदाने शक्तिस्ततो यदि तेऽनागाढयोगवाहिनस्तदा तेषां योगो निक्षिप्यते । (ग्रन्थानम्-२००० । सर्वग्रन्थानम्-१४२२०) अथागाढयोगवाहिनस्ततोऽयं विधिः"तत्थऽन्नत्थ व" इत्यादि । यत्र क्षेत्रे स ग्लानस्तत्रान्यत्र वा क्षेत्रे स्थितास्ते आगाढयोगवाहिन आचार्येण वक्तव्याः, यथा--आर्याः ! कालं शोधयत । ततस्तैर्यथावत् कालग्रहणं कृत्वा यावतो 25. दिवसान् कालः शोधितस्तावतां दिवसानामुद्देशनकालान् सर्वानप्याचार्यो ग्लाने 'हृष्टे' प्रगुणीभूते सति एकदिवसेनैवोद्दिशति, यावन्ति पुनर्दिनानि कालग्रहणे प्रमादः कृतो गृह्यमाणे वा कालो न शुद्धः तेषामुद्देशनकाला न उद्दिश्यन्ते ॥ १८८१ ॥ तत्र क्षेत्रे संस्तरणाभावेऽन्यत्र गच्छतां विधिमाह निग्गमणे चउभंगो, अद्धा सव्वे वि निंति दोण्हं पि। भिक्ख-चसहीइ असती, तस्साणुमए ठविजा उ ॥ १८८२ ॥ ततः क्षेत्राद् निर्गमने चतुर्भङ्गी भवति । गाथायां पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् । वास्तव्याः, १ गाथेयं चूर्णी विशेषचूर्णौ च "अत्थि य.” गाथानन्तरं वर्तते ॥ २ ग्लानचि° मो० ले० विना ॥ 30 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ संस्तरन्ति नागन्तुकाः १ आगन्तुकाः संस्तरन्ति न वास्तव्याः २ न वास्तव्या न चागन्तुकाः संस्तरन्ति ३ वास्तव्या अप्यागन्तुका अपि संस्तरन्ति ४ । तत्र यत्र द्वयेऽपि संस्तरन्ति तत्र विधिः प्रागेवोक्तः । यत्र तु न संस्तरन्ति तत्रायं विधिः-प्रथमभङ्गे आगन्तुकानां द्वितीयभङ्गे वास्तव्यानामढे वा यावन्तो वा न संस्तरन्ति तावन्तो निर्गच्छन्ति, तृतीयभङ्गे द्वयोरपि वर्गयोराः 5 सर्वे वा ग्लानं सप्रतिचरकं मुक्त्वा निर्गच्छन्ति । एवं भिक्षाया वसतेश्च 'असति' अभावे निर्गमनं द्रष्टव्यम् । के पुनस्तत्र ग्लानसन्निधौ स्थापनीयाः ? इत्याह-'तस्य' ग्लानस्य ये 'अनुमताः' अभिप्रेतास्तान् प्रतिचरकान् ग्लानस्य समीपे स्थापयेत् ॥ १८८२ ॥ गतं श्रद्धावानिति द्वारम् । अथेच्छाकारद्वारमाह अभणितों कोइ न इच्छइ, पत्ते थेरेहिँ होउवालंभो । दिटुंतों महिड्डीए, सवित्थरारोवणं कुजा ॥ १८८३ ॥ बहुसो पुच्छिजंता, इच्छाकारं न ते मम करिति । पेडिमुंडणा य दुक्खं, दुक्खं च सलाहिउं अप्पा ॥ १८८४ ॥ कोऽपि साधुर्वैयावृत्त्यकुशलः, परमन्येन 'अभणितः' 'आर्य ! एहि इच्छाकारेण म्लानस्य वैयावृत्त्यं कुरु' इत्यनुक्तः सन् नेच्छति वैयावृत्त्यं कर्तुम् , स च श्रुत्वाऽपि ग्लानं न तस्य समीप 15 गतः । कुल-गण-सङ्घस्थविराश्च ये कारणभूताः पुरुषाः 'कुत्र सामाचार्यः सीदन्ति ? कुत्र चोत्सपन्ति ?' इति प्रतिचरणाय गच्छान्तरेषु पर्यटन्ति ते तत्र प्राप्ताः, तैश्च स पृष्टः-आर्य ! उत्सर्पन्ति ते ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि ? सन्ति वा केचित् प्रत्यासन्नपरिसरे साधवो ग्लानो वा कुत्रापि भवता श्रुतः ? इति । स प्राह-इतः प्रत्यासन्न एव ग्रामे सन्ति साधवः, तेषां चास्त्येको ग्लान इति । ततस्तैस्तस्योपालम्भः प्रदत्तः—यदि तेषां ग्लानो वर्तते ततस्त्वं तस्य प्रतिचरणाय 20 किं न गतः ? । स प्राह--'बहुशः' भूयो भूयः पृच्छ्यमाना अपि ते साधवः कदापि ममेच्छा कारं न कुर्वन्ति, अन्यच्च अहमनभ्यर्थितस्तत्र गतः, तैश्च प्रतिमुण्डितः-निषिद्धः, यथा--पूर्ण भवता वैयावृत्त्यकरेणेति, एवं प्रतिमुण्डनया महद् मानसं दुःखमुत्पद्यते, 'यादृशं चाहं ग्लानस्य वैयावृत्त्यं करोमि ईदृशमन्यः कोऽपि न वेत्ति' एवमात्मानं श्लाषितुं 'दुःखं' दुष्करं भवति, अतः कथमनभ्यर्थितस्तत्र गच्छामि ? इति । 25 ततः स्थविरैस्तस्य पुरतो महर्द्धिको राजा तस्य दृष्टान्तः कृतः । यथा___ एगो राया कत्तियपुन्निमाए मरुयाणं दाणं देइ । एगो मरुगो चोद्दसविजाठाणपारगो भोइयाए भणिओ-तुम सबमरुगाहिवो, वच्च रायसमीवं, उत्तमं ते दाणं दाहिइ त्ति । सो मरुओ भणाइ–एगं ताव रायकिविसं गिण्हामि, बिइयं अणिमंतिओ गच्छामि, जइ से पिति-पितामहस्स अणुग्गहेण पओअणं तो मं आगंतुं तत्थ नेहिइ, इह ठियस्स वा मे दाहिइ । भोइयाए 30 भणिओ-तस्स अत्थि बहू मरुगा तुज्झ सरिच्छा अणुग्गहकारिणो, जइ अप्पणो तद्दविणेण कजं तो गच्छ । जहा सो मरुओ अब्भत्थणं मग्गंतो इहलोइयाणं कामभोगाणं अणाभागी जाओ, एवं तुम पि अब्भत्थणं मग्गंतो निज्जरालाहस्स अणाभागी भविस्ससि ॥ १°म् । ये च 'तस्य' ग्लानस्य 'अनु मो० ले० विना ॥ २ परिगुंडणा ता० ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १८८३-८९] प्रथम उद्देशः । ५५१ इत्यमुपालभ्य चतुर्गुरुकारोपणां सविस्तरां' परितापनादिप्रायश्चित्तविस्तरयुक्तां तस्य प्रयच्छन्ति ॥ १८८३ ॥ १८८४ ॥ गतमिच्छाकारद्वारम् । अथाशक्तद्वारमाह किं काहामि वराओ, अहं खु ओमाणकारओ होहं ।। ___ एवं तत्थ भणते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ १८८५ ॥ कोऽपि साधुः कुल-गण-सङ्घस्थविरैस्तथैव पृष्टः प्राह-क्षमाश्रमणाः! लोके यः सर्वथा । अशक्तः-पङ्गुप्रायः स वराक उच्यते, सोऽहं वराकस्तादृशस्तत्र गतः किं करिष्यामि ? नवरमहं तत्र प्राप्तोऽवमानकारको भविप्यामि । एवं तत्र स्थविराणां पुरतो भणतस्तस्य चतुर्मासा गुरखो भवन्ति ।। १८८५ ॥ स च स्थविरैरित्थमभिधातव्य: उव्वत्त-खेल-संथार-जग्गणे पीस-भाणधरणे य । तस्स पडिजग्गयाण व, पडिलेहेङ पि सि असत्तो ॥ १८८६ ॥ 10 आर्य ! किं ग्लानस्योद्वर्तनमपि कर्तुं न शक्नोषि ? एवं खेलमल्लकस्य भस्मना भरणं भस्मपरिष्ठापनं वा संस्तारकस्य रचनं जागरणं-रात्री प्रहरकप्रदानं पेषणम्-औषधीनां चूर्णनं भाणधरणं-सपान-भोजनभाजनानां धारणं 'तस्य' ग्लानस्य प्रतिजागरकाणां वा साधूनामुपधिमपि प्रत्युपेक्षितुमशक्तः ? येनेदं ब्रवीषि-किं करिष्यामि वराकोऽहम् ? इति ॥ १८८६ ॥ अथ सुखितद्वारमाह 15 सुहिया मो ति य भणती, अच्छह वीसत्थया सुहं सव्वे । ‘एवं तत्थ भणंते, पायच्छित्तं भवे तिविहं ॥ १८८७ ॥ एकत्र क्षेत्रे मासकल्पस्थितैः साधुभिः श्रुतम्-अमुकत्र ग्लान इति । तत्र केऽपि साधवो भणन्ति-ग्लानं प्रतिजागरका व्रजामो वयम् । इतरः कोऽपि भणति-सुखितानस्मान् दुःखितान् कुरुत, यूयमपि सर्वे 'विश्वस्ताः' निरुद्विमाः 'सुखं' सुखेन तिष्ठत, किं तत्र गत्वा मुधैव 20 दुःखस्यात्मानं प्रयच्छामः ? किं युष्माकमयं श्लोको न कर्णकोटरमुपागमत् ? । यथा-: सर्वस्य सर्वकारी, स्वार्थविघाती परस्य हितकारी। सर्वस्य च विश्वासी, मूर्यो यो नाम विज्ञेयः ॥ एवं तत्र तस्य भणतस्त्रिविधं प्रायश्चित्तं भवति । तद्यथा-यद्याचार्य एवं ब्रवीति ततश्चतुर्गुरु, उपाध्यायो ब्रवीति चतुर्लघु, भिक्षुब्रवीति मासगुरु ॥ १८८७ ॥ अथावमानद्वारमाह- 25 भत्तादिसंकिलेसो, अवस्स अम्हे वि तत्थ न तरामो । काहिंति केत्तियाणं, तेणं चिय तेसु अद्दना ॥ १८८८ ।। अम्हेहिँ तहिं गएहि, ओमाणं उग्गमाइणो दोसा। एवं तत्थ भणते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ।। १८८९ ॥ तथैव ग्लानं श्रुत्वा केचिद् भणन्ति-ब्रजामो ग्लानप्रतिजागरणार्थम् । अपरे ब्रुवते--30 तत्राऽन्येऽपि ग्लानं श्रुत्वा बहवः प्रतिचारकाः समायाता भविष्यन्ति ततो महान् भक्त-पानादि १°लन्धे यदि प्रत्यावर्तते तदा चतु° भा० ॥ २ °पि जूते-सु° भा० ॥ ३ मूर्यो यो नाम भा० कां० चूर्णौ च विना ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ संक्लेशो भविता, 'अवश्यम्' असन्दिग्धं वयमपि तत्र गताः 'न तरामः' न निर्वहामः, ग्लानप्रतिचरणाथमागतानां कियतां वा ते वास्तव्या विश्रामणादि प्राघूर्णककर्म करिष्यन्ति ? यतः ते 'तेनैव' ग्लानेनं 'तेषु' कार्येषु 'अद्दन्नाः' आकुलीभूताः ॥ १८८८ ॥ तथा___ अस्माभिरपि तत्र गतैर्नियमाद् 'अवमानम्' अवमम् 'उद्गमदोषाश्च' आधाकर्म-मिश्रजात5 प्रभृतयः आदिशब्दादेषणादोषाश्च भविष्यन्ति । एवं तत्र तेषां भणतां चत्वारो मासा गुरुका भवेयुः ॥ १८८९ ॥ अथ लुब्धद्वारमाह-~ अम्हे मों निजरट्ठी, अच्छह तुब्भे वयं से काहामो । अत्थि य अभाविया णे, ते वि य णाहिंति काऊण ॥ १८९०॥ मासकल्पस्थितैः साधुभिः श्रुतम् , यथा-अमुकत्र ग्रामे ग्लानः सञ्जातोऽस्ति । तच्च क्षेत्रं 10वसति-पानक-गोरसादिभिः सर्वैरपि गुणैरुपेतम् , ततस्ते लोभाभिभूतचेतसश्चिन्तयन्ति-'ग्लानमिषमन्तरेण न शक्यते क्षेत्रमिदं प्रेरयितुम् , अतो गच्छामो वयम्' इति चिन्तयित्वा तत्र गत्वा भणन्ति-वयं 'निर्जरार्थिनः' म्लानवैयावृत्त्यकरणेन कर्मक्षयमभिलषमाणा इहायाताः स्मः, अतो यूयं तिष्ठथ वयं "से" तस्य ग्लानस्य वैयावृत्त्यं करिष्यामः, सन्ति चास्माकमभाविताः शैक्षा स्तेऽपि चास्मान् वैयावृत्त्यं कुर्वतो दृष्ट्वा ज्ञास्यन्ति ॥ १८९० ॥ सानामि 15 एवं गिलाणलक्खेण संठिया पाहुण त्ति उक्कोसं । षेण क्षेत्र मग्गंता चमदिती, तेसिं चारोवणा चउहा ॥ १८९१॥ प्रेरयता ___एवं ग्लानसम्बन्धि यद् लक्ष्यं-मिषं तेन तत्र संस्थिताः सन्तः प्राघूर्णका इति कृत्वा लोकाद् प्रायश्चित्तानि 'उत्कृष्टं' स्निग्ध-मधुरद्रव्यं लभन्ते, अथ न खयं लोकः प्रयच्छति ततः 'मार्गयन्तः' 'प्राघूर्णका वयम्' इति मिषेणावभाषमाणास्तत् क्षेत्रं चमढयन्ति, चमढिते च क्षेत्रे ग्लानप्रायोग्यं न लभ्यते 20 ततस्तेषामियं चतुर्विधाऽऽरोपणा कर्तव्या । तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च ॥१८९१॥ तत्र द्रव्यतस्तावदाह फासुगमफासुगे वा, अचित्त चित्ते परित्तऽणंते य । असिणेह-सिणेहकए, अणहारा-ऽऽहार लहु-गुरुगा॥ १८९२ ॥ क्षेत्रोद्वेजनादोषेण ग्लानप्रायोम्यमलभमाना यदि प्राशुकमवभाषन्ते परिवासयन्ति वा ततश्च25 त्वारो लघुकाः । अथाप्राशुकमवभाषन्ते परिवासयन्ति वा ततश्चत्वारो गुरुकाः । इह च प्राशुकमेषणीयम् अप्राशुकमनेषणीयम् । स आह च निशीथचूर्णिकृत् इह फासुगं एसणिजं ति ।अचित्ते अवभाष्यमाणे परिवास्यमाने वा चतुर्लघु । सचित्ते चतुर्गुरु । एवं परीत्ते चतुर्लघु । अनन्ते चतुर्गुरु । अस्नेहे चतुर्लघु । सस्नेहे चतुर्गुरु । अनाहारे चतुर्लघु । आहारे चतुर्गुरु 30 ॥ १८९२ ॥ उक्तं द्रव्यनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अथ क्षेत्रनिष्पन्नमाह लुद्धस्सऽब्भंतरतो, चाउम्मासा हवंति उग्धाता। बहिया य अणुग्धाया, दव्वालंभे पसज्जणया ॥ १८९३ ॥ १°न सुष्छु-अतीव अद्दन्नाः-आकुलीकृताः भा० ॥ २१» एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ।। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १८९०-९७ ] प्रथम उद्देशः । ५५३ उत्कृष्टद्रव्यलोभेन क्षेत्रमुद्वेजयतो लुब्धस्य क्षेत्राभ्यन्तरतो ग्लानप्रायोग्येऽलभ्यमाने चत्वारो मासा उद्धाताः । क्षेत्रस्य बहिरलभ्यमाने त एव चत्वारो मासाः 'अनुद्धाताः' गुरवः । अत्र च ग्लानप्रायोग्यस्य द्रव्यस्यालाभे 'प्रसजना' प्रायश्चित्तस्य वृद्धिः प्राप्नोति ॥ १८९३ ॥ कथम् ? इत्याह खेत्तवहि अद्धजोअण, वुड्डी दुगुणेण जाव बत्तीसा । चउगुरुगादी चरिमं, खेत्ते काले इमं होइ ।। १८९४ ॥ क्षेत्राद् बहिरर्द्धयोजनं गत्वा ततो यदि ग्लानप्रायोग्यं द्रव्यमानयति तदा चतुर्गुरव एव । योजनादानयति षड् लघवः । योजनद्वयादानयति षड् गुरवः | योजनचतुष्टयादानयति च्छेदः । योजनाष्टकादानयति मूलम् । योजनषोडशकादानयति अनवस्थाप्यम् । द्वात्रिंशद् योजनानि गत्वा ग्लानप्रायोग्यमानयति पाराञ्चिकम् । अत एवाह — क्षेत्रबहिरर्द्धयोजनादारभ्य द्विगुणेन परिमाणेन 10 क्षेत्रस्य वृद्धिस्तावत् कर्त्तव्या यावद् द्वात्रिंशद् योजनानि । एषु च चतुर्गुरुकादिकं 'चरमं' पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तम् । इत्थं क्षेत्रविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् । 'काले' कालविषयम् ' इदं' बक्ष्यमाणं भवति ॥ १८९४ ॥ तत्र तावत् प्रकारान्तरेण क्षेत्रनिष्पन्नमेवाह अंतो बहिं न लब्भइ, ठवणा फासुग महय मुच्छ किच्छ कालगए । चत्तारि छ च लहु-गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ।। १८९५ ॥ क्षेत्रस्यान्तर्वा बहिर्वा ग्लानप्रायोभ्यं न लभ्यत इति कृत्वा प्राशुकस्य 'स्थापनां' परिवासनां करोति चतुर्लघु । तेन परिवासितेन भक्तेन ग्लानो यद्यनागाढं परिताप्यते ततश्चतुर्गुरुम् । महतीं दुःखासिकामाप्नोति षड्लघु । मूर्च्छामूर्च्छ षड्गुरु । कृच्छ्रप्राणे च्छेदः । कृच्छ्रोच्छ्वासे मूलम् । समवहते—मारणान्तिकसमुद्धातं कुर्वाणे ग्लानेऽनवस्थाप्यम् । कालगते पाराञ्चिकम् । ॥ १८९५ ॥ अथ कालनिष्पन्नमाह 20 पढमं राइठविते, गुरुगा बिइयादिसत्तहिं चरिमं । परितावणाइ भावे, अष्पत्तिय- कूवणाईया ।। १८९६ ॥ प्रथमां रात्रिं परिवासयतश्चतुर्गुरुकाः । द्वितीयां रात्रिमादौ कृत्वा सप्तभी रात्रिभिश्वरमम् । तद्यथा — द्वितीयां रेजनीं परिवासयति षड् लघवः, तृतीयस्यां षड् गुरवः, चतुर्थ्या छेदः, पञ्चम्यां - 5 अंतो बहिं न लब्भह, परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए । चारि छ च लहु-गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ १८९७ ॥ क्षेत्रस्यान्तर्बहिर्वा न लभ्यते इति कृत्वा ग्लानस्यानागाढा परितापना भवति चतुर्लघु । १ रात्रिं परि° भा० ॥ 15 मूलम्, षष्ठ्यामनवस्थाप्यम् सप्तम्यां पाराञ्चिकम् । अथ भावनिष्पन्नमाह - " परितावणाई " 25 इत्यादि पश्चार्द्धम् । परितापनादि भावनिष्पन्नं मन्तव्यम् । तथा स परितापितः सन्नप्रीतिकं करोति चतुर्लघु, कूजनं - सशब्दाकन्दनम्, आदिग्रहणाद् 'अनाथोऽहम् न किमप्यमी मह्यं प्रयच्छन्ति' इत्येवमुड्डाहं कुर्यात् ततश्चतुर्गुरुकम् ॥ १८९६ ॥ " अथ परितापनादिपदं व्याख्यानयति- 30 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवर्त्तना द्वारम् .5 अंतो बहिं न लब्भइ, संथारग महय मुच्छ किच्छ कालगए । चत्तारि छच लहु-गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ अतिचमढिते क्षेत्रेऽन्तर्वा बहिर्वा संस्तारको न लभ्यते ततो चतुर्लघुकादिकं तथैव प्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम् || १८९८ ॥ अत्र परितापनापदं समुद्धातपदं च गाथायां साक्षान्नोक्तम्, अतो मा भूद् मुग्धमतिविनेयवर्गस्य व्यामोह इति कृत्वा साक्षात् तदभिधानार्थमिमां गाथामाह परिताव महादुक्खे, मुच्छामुच्छे य किच्छपाणगते । किच्छुस्सा से य तहा, समुघाए चेव कालगते ।। १८९९ ॥ गतार्था ॥ १८९९ ॥ उक्तं लुब्धद्वारम् । अथानुवर्त्तनाद्वारमाहअणुयत्तणा गिलाणे, दव्वट्ठा खलु तहेव विजट्ठा । असतीइ अन्नओ वा, आणेउं दोहि वी कुजा ।। १९०० ॥ 15 ग्लानप्रायोग्यं यद् भक्त-पानादिकं द्रव्यं स एवार्थः - प्रयोजनं द्रव्यार्थस्तमुत्पादयद्भिग्लनस्यानुवर्त्तना कर्त्तव्या । " तहेव विज्जट्टे "ति तथैव वैद्यस्यार्थमुत्पादयद्भिर्लानस्यानुवर्त्तना विधेया । यदि खग्रामे द्रव्य-वैद्ययोरभावस्ततोऽन्यग्रामादपि द्रव्य - वैद्यावानीय द्वाभ्यामप्यनुवर्त्तनां कुर्यात् || १९०० ॥ अथैनामेव गाथां व्याचिख्यासुराह - जायंते उ अपत्थं, भांति जायामों तं न लब्भइ णे । 10 सनिर्युक्ति-लघुभाप्यवृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ आगाढपरितापनायां चतुर्गुरु । दुःखादुःखे षड्लघु । मूर्च्छामूर्च्छ षड्गुरु । कृच्छ्रप्राणे च्छेदः । कृच्छ्रोच्छ्वासे मूलम् । समवहते अनवस्थाप्यम् । कालगते पाराञ्चिकम् ।। १८९७ ॥ एवं तावदाहारविषयमुक्तम् । अथोपधिविषयमभिधीयते— 20 ५५४ 30 विट्टा अकाले, जा वेल न बेंति उ न देमो ॥। १९०१ ॥ ग्लानो यद्यपथ्यं द्रव्यं याचते ततः साधवो भणन्ति -- वयं याचामः परं किं कुर्महे ? तद् भवतामभिप्रेतं भूयोभूयः पर्यटद्भिरपि न लभ्यते "णे" अस्माभिः ; इत्थं भणद्भिर्लानोऽनुवर्त्तितो भवति । यद्वा ग्लानस्याग्रतः पात्रकाण्युास प्रतिश्रयान्निर्गत्यापान्तरालपथाद् 'विनिवर्तनां' प्रत्यागमनं कुर्वन्ति, तस्य पुरतश्चेत्थं ब्रुवते - वयं गता अभूम परं न लब्धम् ; अकाले वा 25 गत्वा याचन्ते येन न लभ्यते । अकाले च याचमानं ग्लानं ब्रुवते - यावद् वेला भवति तावत् प्रतीक्षख, ततो वयमानीय दास्याम इति, न पुनर्बुवते — न दद्मो वयमिति ॥ १९०१ ॥ अथ क्षेत्रतो ग्लानस्यानुवर्त्तनामाह - १८९८ ॥ ग्लानस्याना गाढपरितापनादिषु तत्थेव अन्नगामे, वुत्थंतर संथरंत जयणाए । असंथरणेसण मादी, छन्नं कडजोगि गीयत्थे ॥। १९०२ ॥ प्रथमतस्तत्रैव ग्रामे ग्लानप्रायोग्यमन्वेषणीयम् । तत्र यदि न लभ्यते तदाऽन्यग्रामेऽपि । अथासावन्यग्रामो दूरतरस्ततः " वुत्थंतर" ति 'अन्तरा' अपान्तरालग्रामे उषित्वा द्वितीये दिने आनयन्ति । अथैवमप्यसंस्तरणं भवति ततः “संथरंत जयणाए " त्ति अकारप्रश्लेषादसंस्तरतो १ परं तद् भा० ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १८९८-१९०४] प्रथम उद्देशः । ५५५ ग्लानस्यार्थाय 'यतनया' पञ्चकपरिहाण्या गृह्णन्ति । अथ ग्लानार्थ व्यापृतानां प्रतिचरकाणामसंस्तरणं ततः “एसणमाइ" त्ति एषणादोषेषु आदिशब्दाद् उद्गमादिदोषेषु च पञ्चकपरिहाण्या यतितव्यम् । अथ प्रतिदिवसं ग्लानप्रायोग्यं न लभ्यते ततः 'छन्नम्' अप्रकटं कृतयोगी गीतार्थों वा तत्प्रायोग्यं द्रव्यं परिवासयति । इह आकर्णितच्छेदश्रुतार्थः प्रत्युच्चारणाऽसमर्थः कृतयोगी। यस्तु च्छेदश्रुतार्थं श्रुत्वा प्रत्युच्चारयितुमीशः स गीतार्थ उच्यते । एष द्वारगाथासमासार्थः । ॥ १९०२ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह. पडिलेह पोरुसीओ, वि अकाउं मग्गणा उ सग्गामे । खित्तो तदिवसं, असइ विणासे व तत्थ वसे ॥ १९०३ ॥ अपिशब्दः सम्भावनायाम् । यदि सुलभं द्रव्यं ततः प्रत्युपेक्षणां सूत्रार्थपौरुष्यौ च कृत्वा खग्रामेऽनवभाषितस्य मार्गणा कर्तव्या । अथैवं न लभ्यते ततोऽर्थपौरुषी हापयित्वा, यद्येवमपि 10 न लभ्यते ततः सूत्रपौरुषी परिहाप्योत्पादनीयम् । अथ तथापि न लभ्यते दुर्लभं वा तद द्रव्यं ततः प्रत्युपेक्षणां द्वे अपि च पौरुष्यौ अकृत्वा खग्रामेऽनवभाषितं मार्गयन्ति । अथ स्वग्रामेऽनवभाषितं न लभ्यते ततः 'क्षेत्रान्तः' सक्रोशयोजनक्षेत्राभ्यन्तरे परग्रामे पौरुषीद्वयमपि कृत्वा अनवभाषितमुत्पादयन्ति, अत्राप्यर्थपौरुष्यादिहापना तथैव द्रष्टव्या । अथ तत्राप्यनवभाषितं न लभ्यते ततः खक्षेत्रे खग्राम-परग्रामयोरवभाषितमुत्पाद्य तद्दिवसमानयन्ति । अथ खक्षेत्रे 15 तद्दिवसं न प्राप्यते ततः परक्षेत्रादपि तद्दिवसमानेतव्यम् । अथ क्षेत्रबहिर्वर्तिनो यतो प्रामादेरानीयते तद् न प्रत्यासन्नं किन्तु दूरतरं न तदिवसं गत्वा ततः प्रत्यायातुं शक्यते, विनाशि वा तद् द्रव्यं दुग्धादिकम् ; ततः प्रत्यासन्नग्रामस्यासति विनाशिनि वा द्रव्ये ग्रहीतव्ये अपराहे गत्वा तत्र रात्रौ वसेत् , उषित्वा च सूर्योदयवेलायां गृहीत्वा द्वितीये दिने तत्रानयन्ति । अथ दवीयस्तरं तत् क्षेत्रमविनाशि द्रव्यं च ग्रहीतव्यम् ततोऽपान्तरालग्रामे रजन्यामुषिताः सूर्योदये 20 तत्र गत्वा तद् द्रव्यं गृहीत्वा भूयः समागच्छन्ति ॥ १९०३ ॥ एतदेवाह खित्तपहिया व आणे, विसोहिकोडिं वतिच्छितो काढे । __पइदिवसमलभंते, कम्मं समइच्छिओ ठवए ॥ १९०४ ॥ क्षेत्रबहिर्वा गत्वा प्रथममनवभाषितं ततोऽवभाषितं पूर्वं तदिवसे ततो द्वितीयेऽपि दिवसेऽनन्तरोक्तया नीत्या यथायोगमानयेत् । एष विधिरेषणीयविषयो भणितः । अथैषणीयेन नासौ ग्लानः 25 संस्तरति ततः सक्रोशयोजनक्षेत्रस्यान्तः खग्राम-परग्रामयोः पञ्चकपरिहाण्या तदप्राप्तौ क्षेत्रबहिरपि पञ्चकपरिहाण्या तद्दिवसं ग्लानप्रायोग्यमुत्पादयन्ति । एवं यदा प्रायश्चित्तानुलोम्येन क्रीतकृताऽभ्याहृतादिकां विशोधिकोटी व्यतिक्रान्तो भवति तदा “काढि" ति ग्लानयोग्यमौषधादिकमन्येन स्वयं वा यतनया काथयेत् । एवं प्रतिदिवसमलभ्यमाने यदा आधाकर्मापि समतिक्रान्तो भवति, सदपि प्रतिदिवसं न प्राप्यत इत्यर्थः, ततो विशुद्धमविशुद्धं वा म्लानप्रायोग्यं द्रव्यमुत्पाद्य 30 १ ततःक्षेत्रान्तः क्षेत्रबहिर्वा पञ्चकपरिहाण्या यदा क्रीतकृता-ऽभ्याहृतादिकां भा० का०॥ २°कोटीमति मो० ले० विना ॥ ३°क्रान्तः, तद मो० ले० विना ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ स्थापयेत् । ये तु ग्लानस्य प्रतिचरकास्ते यदि ग्लानकार्यव्यापृताः परक्षेत्रं वा वजन्तः स्वार्थमहिण्डमाना न संस्तरन्ति तत एषणादिदोषेषु पञ्चकपरिहाणियतनया गृह्णन्ति ॥ १९०४ ॥ यत् तद् म्लानार्थ परिवास्यते तत् कीदृशे स्थाने स्थाप्यते ? इत्याह-- - उव्वरगस्स उ असती, चिलिमिणि उभयं च तं जह न पासे । तस्सऽसइ पुराणादिसु, ठविति तद्दिवस पडिलेहा ॥ १९०५॥ ___ कृतयोगिना गीतार्थेन वा तद् अन्यस्मिन् गृहापवरके स्थापनीयम्। अथ नास्ति पृथगपवरकस्ततो वसतावेव योऽपरिभोम्यः कोणकस्तत्रै चिलिमिलिकया आवृत्य 'उभय' ग्लाना-ऽगीतार्थलक्षणं यथा न पश्यति तथा स्थाप्यम् । यदि ग्लानस्तत् पश्यति तदा स यदा तदा तम्याभ्यवहारं कुर्यात् । अगीतार्थस्य तु तद् दृष्ट्वा विपरिणामा-ऽप्रत्ययादयो दोषा भवेयुः । “तस्सऽसई" ति 10 'तस्प' अपरिभोग्यस्थानस्याभावे पुराणः-पश्चात्कृतस्तस्य गृहे आदिशब्दाद् मातापितृसमानेषु गृहेषु साफ्यन्ति । तस्य च तत्र स्थापितस्य तदिवसं प्रत्युपेक्षणा कर्त्तव्या । तद्दिवसं नाम प्रतिदिनम् । यदुक्तं देश्याम्- तदिवसं अणुदिअहे (वर्ग ५ गा० ८) इति । ॥१९०५ ॥ अथ “आणेउं दोहि वी कुज्जा" (गा० १९००) इत्यस्य व्याख्यानमाह फासुगमफासुगेण व, अच्चित्तेतर परित्तऽणंतेणं । 15 आहार-तद्दिणेतर, सिणेह इअरेण वा करणं ॥ १९०६ ॥ प्राशुकेन अप्राशुकेन वा अचित्तेन 'इतरेण वा' सचित्तेन परीत्तेन अनन्तेन वा आहारेण अनाहारेण वा तदैवसिकेन 'इतरेण वा परिवासितेन सलेहेन 'इतरेण वा' अस्नेहेन ग्लानस्य चिकित्सायाः करणमनुज्ञातम् ।। १९०६॥ गता म्लानानुवर्त्तना । अथ वैद्यानुवर्तनामभिषित्सुः प्रस्तावनां रचयन्नाह20 विजं न चेव पुच्छह, जाणंता विंति तस्स उवदेसो। दह-पिलगाइएसु व, अजाणगा पुच्छए विजं ॥ १९०७॥ ग्लानो ब्रूयात्-यूयं वैद्यं नैव पृच्छथ, आत्मच्छन्देनैव प्रतिचरणं कुरुथ । ततो यदि साधवो जानन्तः-चिकित्सायां कुशलास्ततो ब्रुवते--अस्माभिवैद्यः प्रागेव पृष्टस्तस्यैवायमुपदेश इति। यद्वा प्रतिश्रयान्निर्गत्य कियन्तमपि भूभागं गत्वा मुहूर्तमानं तत्र स्थित्वा समागत्य ब्रुवते25 अयं वैद्येनोपदेशो दत्त इति । तथा दष्टं-सर्पडङ्कः पिलगं-गण्डः आदिग्रहणेन शीतलिका दुष्टवातो वेत्यादिपरिग्रहः, एतेष्वपि यदि ज्ञास्ततः स्वयमेव कुर्वन्ति । अथाज्ञास्ततो वैद्यं पृच्छन्ति ॥ १९०७ ॥ अत्र शिष्यः पृच्छति किह उप्पनों गिलाणो, अट्ठम उण्होदगाइया बुड्ढी । किंचि बहु भागमद्धे, ओमे जुत्तं परिहरंतो ॥ १९०८ ॥ ११-परिवासयेत् । ये च ग्ला भा० कां० ॥ २ ओवर ता० ॥ ३ 'त्र कटेन चिलिमिल्या वा आ° भा० ॥ ४ हेमचन्द्रीयदेशीनाममालायामित्यर्थः ॥ ५ “दट्ठ ति सप्पदट्ठादि, पिलगा फोडिया, आदिग्गहणेणं गंडादि" इति चूर्णी । “द8 त्ति सम्पदट्ठाइ, पिलगं गंडं, आदिग्गहणेणं फोडिया" इति विशेषचूर्णौ ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १९०५-११] प्रथम उद्देशः । 'कथं ?' केन हेतुना ग्लान उत्पन्नः ? इति । सूरिराह---भूयांसः खलु रोगातका यशाद् ग्लानत्वमुपजायते । तत्र १ "शुष्यंतस्त्रीणि शुष्यन्ति, चक्षूरोगो ज्वरो व्रणः ।" इति वच, नाद - यदि ज्वरादिको विशोषणसाध्यो रोगः ततो जघन्येनाप्यष्टमं कारयितव्यः । यच यस्य रोगस्य पथ्यं तत् तस्य कार्यम् , यथा-वातरोगिणो घृतादिपानं पित्तरोगिणः शर्कराधुपयोजनं श्लेष्मरोगिणो नागरादिग्रहणमिति । "उण्होदगाइया वुड्डि" त्ति उपवासं कर्तुमसहिष्णुर्यदि रोगेणामुक्तः पारयति तत एष क्रमः-उष्णोदके प्रक्षिप्य कूरसिक्थानि अमलितानि ईषन्मलितानि वा सप्त दिनानि एक वा दिनं दीयन्ते । ततः "किंचि" ति उष्णोदके मधुरोल्लणं स्वोकं प्रक्षिप्य तेन सह ओदनं द्वितीये सप्तके दिने वा दीयते । एवं तृतीये "बहु" ति बहुतरं मधुरोलणं उष्णोदके प्रक्षिप्य दीयते । “भागि" त्ति चतुर्थे सप्तके दिने वा त्रिभागो मधुरोल्लणस्य द्वौ भागावुष्णोदकस्य, “अद्धे" त्ति पञ्चमे सप्तके दिने वा अर्द्ध मधुरोल्लणस्यार्द्धमुष्णोदकस्य, षष्ठे 10 "ओमि" ति त्रिभाग उष्णोदकस्य द्वौ भागौ मधुरोल्लणस्य, सप्तमे सप्तके दिने वा "जुत्तं" ति 'युक्तं' किञ्चिन्मात्रमुप्णोदकं शेषं तु सर्वमपि मधुरोल्लणमित्येवं दीयते । तदनन्तरं द्वितीयाङ्गरपि सहापथ्यान्यवगाहिमादीनि परिहरन् समुद्दिशति यावत् पुरातनमाहारं परिणमयितुं समर्थः सम्पन्न इति । स एषा उष्णोदकादिका वृद्धिद्रष्टव्या । इह च सर्वत्राप्येकं दिनं विशेषचूर्णि- बृहद्भाष्याभिप्रायेण दिनसप्तकं तु चूर्ण्यभिप्रायेणेति मन्तव्यम् ~ ॥ १९०८ ॥ 15 अथ "अट्ठम" ति पदं व्याख्यानयन्नाह जाव न मुक्को ता अणसणं तु मुक्के वि ऊ अभत्तट्ठो। असहुस्स अट्ठ छटुं, नाऊण रुयं व जं जोग ॥ १९०९॥ __यावदसौ ज्वर-चक्षुरोगादिना रोगेण न मुक्तस्तावद् ‘अनशनम्' अभक्तार्थलक्षणं कर्त्तव्यम् । मुक्तेनापि चैकं दिवसमभक्तार्थो विधेयः । अथासावसहिष्णुस्ततोऽष्टमं वा षष्ठं वा करोति । 20 ज्ञात्वा वा 'रुजं' रोगविशेषं यद् यत्र योग्यं शोषणमशोषणं वा तत् तत्र कार्यम् ॥ १९०९ ॥ ___यद्येवंकुर्वाणानामसौ रोग उपशाम्यति ततः सुन्दरम् , अथ नोपशाम्यति ततः को विधिः ? इत्याह-. एवं पि कीरमाणे. विजं पुच्छे अठायमाणम्मि। विजाण अट्टगं दो, अणिड्डि इड्डी अणिड्डियरे ॥ १९१०॥ एवमपि क्रियमाणे यदि रोगो न तिष्ठति-नोपशाम्यति ततस्तस्मिन्नतिष्ठति वैद्यं पृच्छति ।" अथ कियन्तो वैद्या भवन्ति ? इत्याहं—वैद्यानां खल्वष्टकं मन्तव्यम् । तत्र द्वौ वैद्यौ नियमाद 'अनृद्धिकौ' ऋद्धिरहितो, 'इतरे' षड् वैद्या ऋद्धिमन्तो अनृद्धिमन्तो वा ॥ १९१० ॥ तदेव वैद्याष्टकं दर्शयति संविग्गमसंविग्गे, दिद्वत्थे लिंगि सावए सण्णी। अस्सण्णि इड्ढि गइरागई य कुसलेण तेगिच्छं ॥ १९११ ॥ 'संविमः' उद्यतविहारी १ 'असंविमः' तद्विपरीतः २ 'लिङ्गी' लिङ्गावशेषमात्रः ३ 'श्रावकः' १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां नास्ति ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ प्रतिपन्नाणुव्रतः ४ 'संजी' अविरतसम्यग्दृष्टिः ५ 'असंज्ञी' मिथ्यादृष्टिः, स च त्रिधा-अनभिगृहीतमिथ्यादृष्टिः ६ अभिगृहीतमिथ्यादृष्टिः ७ परतीर्थिकश्चेति' ८ । “दिद्रुत्थे" त्ति दृष्टःउपलब्धोऽर्थः-छेदश्रुताभिधेयरूपो येन स दृष्टार्थों गीतार्थ इत्यर्थः, एतत् पदं सप्रतिपक्षमत्र सर्वत्र योजनीयम् । तद्यथा-यः संविमः स गीतार्थो वा स्यादगीतार्थो वा । एवमसंविम5 लिङ्गस्थ-श्रावक-संशिष्वपि गीतार्थत्वमगीतार्थत्वं च द्रष्टव्यम् , तथा चूर्णिकृता व्याख्यातत्वात् । अनभिगृहीतादयस्तु त्रयोऽपि नियमादगीतार्थाः । “इड्डि" ति संविमा-ऽसंविमौ नियमादनद्धिकौ, शेषास्तु ऋद्धिमन्तोऽनृद्धिमन्तो वा भवेयुः । सर्वेऽपि चैते प्रत्येकं द्विधा-कुशला अकुशलाश्च । 'गत्यागतिः' चारणिका, सा चामीषां कर्त्तव्या । तद्यथा-प्रथमं संविमगीता थेन चिकित्साकर्म कारयितव्यम् , अथासौ न लभ्यते ततोऽसंविमगीतार्थेन, तदभावे संविमा10 गीतार्थेन, तदप्राप्तावसंविमागीतार्थेनापि । एवं लिङ्गस्थादिप्वपि संज्ञिपर्यन्तेषु भावनीयम् । तेषामप्राप्तौ पूर्वमनभिगृहीतमिथ्यादृष्टिना, ततोऽभिगृहीतमिथ्यात्वेन, तदनन्तरं परतीर्थिकेनापि कारयितव्यम् । एते च पूर्वमनृद्धिमन्तो गवेषणीयाः न ऋद्धिमन्तः, तदीयगृहेषु दुःप्रवेशतया बहुदोषसद्भावात् । एते च यदि चिकित्साकुशला भवन्ति तत इत्थं क्रमः प्रतिपत्तव्यः । अथ यः संविग्नगीतार्थः सोऽकुशलो यस्त्वसंविग्नगीतार्थः स कुशलस्ततः संविग्नगीतार्थ परित्य15 ज्यासंविमगीतार्थेन कारापणीयम् । एवं बहूनप्यपान्तराले परित्यज्य यः कुशलस्तेन चैकित्स्यं कारयितव्यम् , एषा गत्यागतिः प्रतिपत्तव्या । यद्वा "इड्डि गइरागइ" ति ऋद्धिमति गत्यागती कुर्वाणे महदधिकरणं भवति, अतोऽनृद्धिना कारयितव्यम् । स ने चैतत् खमनीपिकाविजृम्भितम् । यत आह विशेषचूर्णिकृत् अहवा गइरागइ त्ति इड्डिमंताणं इंत-जंताणं अहिगरणदोसा, तम्हा अणिड्डिणा कारेयवं ति ।20॥ १९११ ॥ अमुमेवार्थमपराचार्यपरिपाट्या दर्शयति संविग्गेतर लिंगी, वइ अवइ अणागाढ आगाढे । परउत्थिय अट्ठमए, इड्डी गइरागई कुसले ॥ १९१२ ॥ संविमः १ 'इतरश्च' असंविनः २ लिङ्गी च ३ इति त्रयोऽपि प्राग्वत् , 'व्रती' प्रतिपन्नागुव्रतः ४ 'अव्रती' अविरतसम्यग्दृष्टिः ५ 'अनागाढः' अनभिगृहीतदर्शनविशेषः ६ 'आगाढः' 25 अभिगृहीतमिथ्यादर्शनः ७ ‘परयूथिकः' शाक्य-परिव्राजकादिरष्टमः ८ । “इड्डी गइरागई कुसले" त्ति व्याख्यातार्थम् ॥ १९१२ ॥ अनन्तरोक्तकमविपर्यासे प्रायश्चित्तमाह वोचत्थे चउलहुगा, अगीयत्थे चउरों मासऽणुग्धाया । चउरो य अणुग्घाया, अकुसलें कुसलेण करणं तु ॥ १९१३ ॥ संविमगीतार्थ मुक्त्वा असंविमगीतार्थेन कारयति एवमादिविपर्यस्तकरणे चत्वारो लघवः । 30 गीतार्थ मुक्त्वा अगीतार्थेन कारयति चत्वारो मासा अनुद्धाताः । कुशलं विहायाकुशलेन कारयति चत्वारोऽनुद्धाता मासाः । यत एवमतः कुशलेन चिकित्साकरणमनुज्ञातम् ॥ १९१३ ।। १°ति ८ । दृष्टार्थो नाम गीतार्थः, एतत् भा० ॥ २ ॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३ नेयं गाथा चूर्णिकृता विशेषचूर्णिकृता बृहद्भाष्यकृता वा व्याख्याताऽस्ति ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ 15 भाष्यगाथाः १९१२-१८] प्रथम उद्देशः । अथ वैद्यसमीपं गच्छतां विधिमभिधित्सुराह ग्लानार्थ चोयगपुच्छा गमणे, पमाण उवगरण सउण वाबारे । वैद्यसमीपे संगारो य गिहीणं, उवएसो चेव तुलणा य ॥ १९१४॥ गमन विधि: प्रथमतो नोदकपृच्छा वक्तव्या, ततो गमनं वैद्यसकाशे साधूनाम् , ततस्तेषामेव प्रमाणम्, तत उपकरणम् , ततः शकुनाः, तदनन्तरं वैद्यस्य 'व्यापारः' प्रशस्ता-ऽप्रशस्तरूपः, ततः । 'सङ्गारः' सङ्केतो गृहिणां पश्चात्कृतादीनां यथा कर्तव्यः, ततो वैद्येनौषधादिविषय उपदेशो यथा दीयते, ततस्तमुपदेशं श्रुत्वा यथा स्वयं तुलना कर्तव्या, तदेतत् सर्वमपि वक्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः ॥ १९१४ ॥ अथ विस्तरार्थः प्रतिपाद्यते-तत्र प्रथमं नोदकपृच्छाद्वारम् , शिष्यः पृच्छति-किं ग्लानो वैद्यसमीपं नीयताम् ? अथ वैद्य एव ग्लानसकाशमानीयताम् ? पत्र कश्चिदाचार्यदेशीयः प्रतिवचनमाह 10 पाहडिय त्ति य एगो, नेयव्यों गिलाणओ उ विजघरं । ___ एवं तत्थ भणंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ १९१५ ॥ 'एकः' कश्चित् प्राह-वैद्ये ग्लानान्तिकमानीयमाने 'प्राभृतिका' वक्ष्यमाणलक्षणा भवति, अतो ग्लान एव वैद्यगृहं नेतव्यः । इत्थमाचार्यदेशीयेनोक्ने सूरिराह-एवं 'तत्र' म्लाननयनविषये भणतो भवतश्चत्वारो मासा गुरुका भवन्ति ॥ १९१५॥ केयं पुनः प्राभृतिका ? इत्यत आह रह-हत्थि-जाण-तुरए-अणुरंगाईहिँ इंति कायवहो । आसण मट्टिय उदए, कुरुकुय सघरे उ परजोगो ॥ १९१६ ॥ स्थ-हस्तिनौ-प्रतीतौ यानं-शिविकादिकं तुरगः-प्रसिद्धः अनुरङ्गा-गन्त्री एतैः आदिशब्दादपरेण वा विच्छर्देन 'आयाति' आगच्छति वैद्ये कायानां-पृथिव्यादीनां वधो भवति । तथा 20 समायातस्यासनं दातव्यम् । ग्लानस्य च शरीरे परामृष्टे व्रणादिपाटने वा कृते कुरुकुचाकारापणे मृत्तिकाया उदकस्य च वधो भवति । खगृहे तु परयोगो भवति, परप्रयोगेण सर्वमपि भवति न साधूनां किमप्यधिकरणं भवतीत्यर्थः । एषा प्राभृतिका वैद्ये ग्लानसमीपमानीयमाने यतो भवति ॥ १९१६ ॥ अतः किम् ? इत्याह लिंगत्थमाइयाणं, छण्हं वेजाण गम्मऊ मूलं । संविग्गमसंविग्गे, उवस्सगं चेव आणेजा ॥ १९१७ ॥ लिङ्गस्थादीनां षण्णामपि वैद्यानां गृहं ग्लानं गृहीत्वा गम्यताम् नैते उपाश्रयमानेतन्याः, अधिकरणदोषभयात् । संविग्नोऽसंविग्नश्च एतौ द्वावप्युपाश्रयमेवानयेत् , दोषाभावात् ॥१९१७॥ एवं परेणोक्त सूरिराह वाता-ऽऽतवपरितावण, मयपुच्छा सुण्ण किं सुसाणकुडी । 30 सच्चेव य पाहुडिया, उवस्सए फासुया सा उ ॥ १९१८ ॥ ग्लानो वैद्यगृहं नीयमानो यातेन आतपेन च महतीं परितापनामनुभवति । "मयपुच्छ" त्ति १ एवं नोदकेनोक्ते भा०॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ लोकस्तं तथानीयमानं दृष्ट्वा पृच्छति — किमेष मृतो यदेवं नीयते ? । “सुण्णे" ति स ग्लानो नीयमानोऽपान्तरालेऽपद्राणस्ततो वैद्येन यावद् मुखमुद्घाटितं तावत् 'शून्यं' जीवरहितं शवं तिष्ठतीति विज्ञाय ब्रूयात् — किं मदीयं गृहं श्मशानकुटी यदेवं मृतमानयत ? । ततः स वैद्यः 'शबस्य स्पृष्टोऽहम्' इति कृत्वा सचेलः स्वायात्, फलहकाभ्यन्तरे वा छगणपानीयं दापयेत्, ततो ननु 5 सैव प्राभृतिका समधिकतरा भवेत् । उपाश्रये पुनः प्राशुकपानकादिना सा क्रियेत ततो न काचिद् विराधना भवतीति ॥ १९९८ ॥ गतं नोदकपृच्छाद्वारम् । अथ गमनद्वारमाहउग्गह-धारणकुसले, दक्खे परिणामए य पियधम्मे । कालन्नू देसन्नू, तस्साणुमए अ पेसिज्जा ।। १९१९ ॥ वैद्येन दीयमानमुपदेशं ये झगित्येवावबुध्यन्ते न च चिरादपि विस्मारयन्ति तेऽवग्रह - धार10णाकुशलास्तान् तथा 'दक्षान्' शीघ्रकारिणः 'परिणामकान् ' यथास्थानमपवादपदपरिणमनशीलान् ‘प्रियधर्मणः' धर्मश्रद्धालून् 'कालज्ञान' वैद्यान्ति के प्रविशतां यः कालः - प्रस्तावस्तद्वेदिनः 'देशज्ञान' यत्र प्रदेशे वैद्य उपविष्टस्तं प्रशस्तमप्रशस्तं वा ये जानते तान् तथा 'तस्य' ग्लानस्य वैद्यस्य वा येऽनुमताः- अभिप्रेतास्तान् वैद्यसकाशं प्रेषयेत् ॥ १९१९ ॥ 15 अगुणविपमुक्के, पेर्सितस्स चउरो अणुग्धाया । " यथेहि यगमणं, गुरुगा य इमेहिं ठाणेहिं ॥। १९२० ॥ एते - अवग्रह-धारणाकुशलत्वादयो ये गुणास्तैर्विप्रमुक्तान् प्रेषयत आचार्यस्य चत्वारोऽनुद्धाताः प्रायश्चित्तम् । गीतार्थैश्च तत्र गमनं कर्त्तव्यम् । चतुर्गुरुकाश्च प्रायश्चित्तम् 'एभिः ' वक्ष्यमाणैः स्थानैः क्रियमाणैर्मन्तव्यम् || १९२० ॥ तान्येवाभिधित्सुः प्रमाणोपकरणद्वारद्वयमाहएक्कग दुगं चउकं, दंडो दूया तहेव नीहारी । 20 food नीले मइले, चोल रय निसिज मुहपत्ती ॥। १९२१ ॥ यद्येकः साधुर्वैद्यसमीपे प्रेष्यते ततः स वैद्यः 'यमदण्डोऽयमागतः' इति दुर्निमित्तं गृह्णीयात्, अथ द्वौ प्रेप्येते ततः 'यमदूतावेतौ' इति मन्येत, अथ चत्वारः प्रेप्यन्ते ततः 'नीहारिणः ' शस्य स्कन्धदायिनोऽमी इति मिनुयात्, एतावतां च प्रेषणे चतुर्गुरुकम् । उपकरणद्वारे25 यदि कृष्णं नीलं मलिनं वा उपकरणं प्रावृण्वन्ति तदा चतुर्गुरु । उपकरणं चेह चोलपट्टको रजोहरणं निषद्याद्वयोपेतं मुखवस्त्रिका उपलक्षणत्वादौर्णिक - सौत्रिकौ च कल्पाविति मन्तव्यम् । ततः शुद्धं श्वेतं चोपकरणं ग्रहीतव्यम् ॥ १९२१ ॥ अथ शकुनद्वारमाह 30 अत्रैव व्यतिरेके प्रायश्चित्तमाह मइल कुचेले अब्भंगियल्लए साण खुज वडभे य । कासायवत्थ उद्धूलिया य कजं न साहंति ।। १९२२ ॥ नंदीतूरं पुण्णस्स, दंसणं संख - पडहस हो य । भिंगार छत्त चामर, एवमादी पसत्थाई ॥। १९२३ ॥ अनयोर्व्याख्या प्राग्वत् ( गा० १५४७ - ५० ) ॥ १९२२ ॥ १९२३ ॥ १ शुकेन पानीयादिना भा० ॥ २ मनु' त० दे० ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १९१९-२७] प्रथम उद्देशः । ५६१ आवडणमाइएसुं, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया । एवं ता वचंते, पत्ते य इमे भवे दोसा ॥ १९२४॥ 'आपतनं' द्वारादौ शिरसो घट्टनम् , आदिशब्दात् प्रपतनं प्रस्खलनं वा सञ्जातम् , अपरेण वा वस्त्रादौ गृहीत्वा पश्चान्मुख आकृष्टः, 'कुत्र वा व्रजसि ?' इत्यादि भणितः, गच्छतामेव वा केनापि क्षुतम् , एवमादिप्वपशकुनेषु जातेषु यदि गच्छति तदा चत्वारो मासा अनुद्धाता 5 भवन्ति । एवं तावद् व्रजतो मन्तव्यम् । अथ वैद्यगृहं प्राप्तस्तत इमे दोषाः परिहर्त्तव्या भवन्ति ॥ १९२४ ॥ तानेव प्रतिपादयन् व्यापारद्वारमाह साड-ऽन्भंगण-उचलण-लोय-छारु-कुरुडे य छिंद-भिंदंतो। सुहआसण रोगविहिं, उवएसो वा वि आगमणं ॥ १९२५॥ एकशाटकपरिधानो यदा वैद्यो भवति तदा न प्रष्टव्यः । एवं तैलादिना अभ्यङ्गनं कल्क-10 लोधादिना वा उद्वर्त्तनं लोचकर्म वा-कूर्चमुण्डनादिलक्षणं कारयन् , क्षारस्य-भस्मन उत्कुरुटकस्यकचवरपुञ्जकस्य उपलक्षणत्वाद् बुसादीनां वा समीपे स्थितः, कोष्ठादिकं वा रप्फकादिना वा दूषितं कस्याप्यङ्गं छिन्दानः, घटम् अलावुकं वा भिन्दानः, शिराया वा भेदं कुर्वाणो न प्रच्छनीयः, अथ ग्लानस्यापि किञ्चित् छेत्तव्यं भेत्तव्यं ततश्छेदन-भेदनयोरपि प्रष्टव्यः । अथासौ शुभासने उपविष्टः 'रोगविधि' वैद्यशास्त्रपुस्तकं प्रसन्नमुखः प्रलोकयति, अथवा रोगविधिः-चिकित्सा 15 तां कस्यापि प्रयुञ्जान आस्ते ततो धर्मलाभयित्वा प्रष्टव्यः । स च वैद्यः पृष्टः सन्नुपदेशं वा दद्याद् ग्लानसमीपे वा आगमनं कुर्यात् ॥ १९२५॥ अथ सङ्गारश्च गृहिणामिति द्वारं व्याख्यानयति पच्छाकडे य सन्नी, देसणहाभद्द दाणसड्डे य । मिच्छद्दिट्टि संबंधिए अ परतित्थिए चेव ॥ १९२६ ॥ 'पश्चात्कृतः' चारित्रं परित्यज्य गृहवासं प्रतिपन्नः, 'संज्ञी' गृहीताणुव्रतः, "दंसण" ति 20 दर्शनसम्पन्नोऽविरतसम्यग्दृष्टिः, 'यथाभद्रकः' सम्यक्त्वरहितः परं सर्वज्ञशासने साधुषु च बहुमानवान् , 'दानश्राद्धः' दानरुचिः, 'मिथ्यादृष्टिः' शाक्यादिशासनस्थः, 'सम्बन्धी' ग्लानस्यैव खजनः, 'परतीर्थिकः' सरजस्क-परिव्राजकादिः परं भद्रकः । एतेषां सङ्केतः क्रियते, यथावैद्यस्य पार्श्वे वयं गच्छामः, भवद्भिस्तत्र सन्निहितैर्भवितव्यम् , यदसौ ब्रूयात् तद् युष्मामिः सर्वमपि प्रतिपत्तव्यम् ॥ १९२६ ॥ ये वैद्यसमीपे प्रस्थापितास्ते वैद्यस्येदं कथयन्ति वाहि नियाण विकारं, देसं कालं वयं च धातुं च । आहार अग्गि-धिइबल, समुइं च कहिंति जा जस्स ॥ १९२७॥ 'व्याधि' ज्वरादिकं रोगं 'निदानं' रोगोत्थानकारणं 'विकारं' प्रवर्द्धमानरोगविशेषं 'देशं' ग्लानत्वोत्पत्तिनिबन्धनप्रवात-निवातादिप्रदेशरूपं 'कालं' रोगोत्थानसमयं पूर्वाहादिकं 'वयश्च' शैशव-तारुण्यादिकं 'धातुं च' वातादीनां धातूनामन्यतमो यस्तस्योत्कटो वर्त्तते तं 'चः' समुच्चये 30 १ वा उपरि अवष्टभ्य वा स्थि° भा० ॥ २ स्त्रं वाचयति ततः प्रष्टव्यः । स च भा० ॥ ३°गोत्पत्तिकारणभूतं वसन्तादिकं रोगोत्थानसमयं वा पूर्वा भा० । ४ मो० ले० विनाऽन्यत्र'तमो य उत्कटस्तम् 'आहा त० डे० कां० । तमो धातुरस्योत्कटो वर्तते इत्येवं 'आहा भा०॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 कलमोदणो य खीरं, ससकरं तूलियाइयं दव्वे । भूमिघरेट्टग खेत्ते, काले अमुगीइ वेलाए ।। १९२८ ॥ इच्छानुलोम भावे, न य तस्सऽहिया जहिं भवे विसया । अहवण दित्तादीसुं, पडिलोमा जा जहिं किरिया ।। १९२९ ।। अनन्तरोक्तं व्याधि-निदानादिकं श्रुत्वा वैद्यः खगृहस्थित एव द्रव्यादिभेदात् चतुर्विधमुपदेशं दद्यात् । तद्यथा— द्रव्यतः कलमशालिरोदनस्तथा क्षीरं च सशर्करमस्य दातव्यम्, तथा तूलि - 10 कायां शाययितव्यः, आदिशब्दाद् गोशीर्षचन्दनादिना विलेपनीय इत्यादि । क्षेत्रतो भूमिगृहे पक्केष्टकागृहे वाऽयं स्थापनीयः । कालतोऽमुकस्यां वेलायां प्रथमप्रहरादौ भोजनमयं कारणीयः । भावतों यदस्य स्वकीयाया इच्छाया अनुलोमम्-अनुकूलं तदेव कर्त्तव्यम्, नास्याज्ञा कोपनीयेति तथा यत्र 'तस्य' ग्लानस्य विषयाः 'अहिताः' अनिष्टाः क्रन्दित-विलपितादिरूपा गीत - वादित्रगोचरा वा शब्दादयो न भवन्ति तत्र स्थापनीय इति शेषः । ' अहवण" त्ति अथवा 15 ' दृप्तादिषु' दृप्तचित्तप्रभृतिषु प्रतिलोमा क्रिया कर्त्तव्या । तत्र दृप्तचित्तस्यापमानना, यथा • अपमानादिनाऽपहृतचित्तस्य दर्पातिरेकज उन्मादः शाम्यति, क्षिप्तचित्तस्यापमानादिनोपहृतचित्तस्य - सम्मानना; यक्षाविष्टस्य तु यथायोगमपमानना सम्मानना वा विधेया; ज्वरादौ या रोगे विशोषणादिका क्रिया या यत्र युज्यते सा तत्र विधेयेति ॥ १९२८ ॥ १९२९ ॥ अथ तुलनाद्वारमाह भावः, Do ५६२ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ‘आहारम्' अल्पभोजित्वादिलक्षणम् अग्निवलं- जाठरो वह्निरस्य मन्दः प्रबलो वा इत्येवं धृतिबलंसात्त्विकः कातरो वाऽयमित्येवं तथा "समुई" ति प्रकृतिः सा च या यस्य जन्मतः प्रभृति तां व कथयन्ति ॥ १९२७ ॥ अथोपदेशद्वारमाह 20 अपsिहणता सोउं, कयजोगाऽलंभि तस्स किं देमो । जहविभवा तेगिच्छा, जा लंभो ताव जूर्हति ॥। १९३० ॥ वैद्येन दीयमानमुपदेशम् 'अप्रतिघ्नन्तः' तद्वचनमविकुट्टयन्तः श्रुत्वाऽऽत्मानं तोलयन्ति --- किमेतत् कलमशाल्यादिकं लप्स्यामहे न वा ? इति । यदि विज्ञायते 'ध्रुवं लप्स्यामहे' ततो न किमपि भणन्ति । अथ न तस्य ध्रुवो लाभः ततो भणन्ति — यथा युष्माभिरुपदेशो दत्तस्तथा 25 वयं योगं करिष्यामः, परं यदि कृतेऽपि योगे न लभामहे ततस्तस्य किं दद्म: ?; अपि च वैद्यकशास्त्रे ‘यथाविभवा’ विभवानुरूपा चिकित्सा भणिता, यस्य यादृशी विभूतिस्तस्य तदनुरूपैरौषधैः पथ्यैश्च चिकित्सा क्रियते इत्यर्थः ; अतो यूयमपि जानीथ, यथा -- अस्माकं सर्वमपि याचितं लभ्यते नायाचितम्, अतो यदा कलमशाल्यादिकं याच्यमानमपि न प्राप्यते तदा किं दातव्यम् ? इति । एवं वैद्योपदेशमपसर्पयन्तस्तावद् “जूहंति " ति देशीशब्दत्वाद् आनयन्ति यावद् 30 यस्य द्रव्यस्य कोद्रव - कूरादेर्ध्रुर्वः प्रतिदिनभावी लाभो भवतीति ॥ १९३० ॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति || ३ मो० ले० विनाऽन्यत्र - एतदन्तर्गतः पाठः भा० पुस्तक एव वर्तते ॥ ५ °ति " १ 'रयितव्यः । भा भा० ॥ 'स्य तस्य दर्पा' त० डे० कां० ॥ आन मो० ले० विना ॥ ६ 'वो लाभो भवति मो० ले० विना ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 माष्यगाथाः १९२८-३३] प्रथम उद्देशः । ५६३ अथ तुलनामेव प्रकारान्तरेणाह नियएहिँ ओसहेहि, कोइ भणेजा करेमऽहं किरियं । तस्सऽप्पणो य थाम, नाउं भावं च अणुमन्ना ॥ १९३१ ॥ तस्य म्लानस्य 'कोऽपि' सज्ञातको वैद्यो भणेत्–निजकैरौषधैरहं ग्लानस्य करोमि क्रियाम् , प्रेषयत मदीये गृहे ग्लानमिति । ततो गुरुभिः पृष्टेन ग्लानेन तस्यात्मनश्च 'स्थाम' वीर्य तोल-5 नीयम्-किमेष वैद्य औषधानि पूरयितुं समर्थो न वा ?, अहमपि किं धृत्या बलवान् ? आहोश्चिदबलवान् ?, भावो नाम-किमेष धर्महेतोश्चिकित्सां चिकीर्षुः खगृहे मामाकारयति ? उताहो उन्निष्क्रामणाभिप्रायेण ? इति । यद्यसौ गृहस्थ औषधपूरणे समर्थो यदि च स्वयं धृत्या बलवान् यदि च धर्महेतोः सज्ञातकस्तमाकारयति तत एवं तस्यात्मनश्च वीर्यं भावं च ज्ञात्वा गुरूणामनुज्ञां गृहीत्वा तत्र गन्तव्यं नान्यथेति ॥ १९३१ ॥ अथासौ वैद्यो ब्रूयात् जारिसयं गेलन्न, जा य अवस्था उ वट्टए तस्स । अद्दट्टण न सका, वोत्तुं तं वच्चिमो तत्थ ॥ १९३२ ॥ यादृशं युष्माभिः 'ग्लान्यं' ग्लानत्वमाख्यातं 'या च' यादृशी तस्यावस्था वर्त्तते तदेतददृष्ट्वा न शक्यते किमध्यौषधादि 'वक्तुम्' उपदेशुम्, ततः 'तत्रैव' ग्लानसमीपे बजाम इति ॥१९३२॥ एवं भणित्वा प्रतिश्रयमागतस्य तस्य यो विधिः कर्त्तव्यस्तमभिधित्सुरगाथामाह अब्भुट्ठाणे आसण, दायण भद्दे भती य आहारो। गिलाणस्स य आहारे, नेयव्यो आणुपुन्वीए ॥ १९३३ ॥ प्रथममभ्युत्थानविषयो विधिर्वक्तव्यः, तत आसनविषयः, ततो ग्लानस्य दर्शना यथा क्रियते, ततः “भद्दे" ति भद्रको वैद्यो यथा चिकित्सामेवमेव करोति, इतरस्य तु 'भृतिः' मज्जनादिकं चिकित्सावेतनम् आहारश्च यथा दातव्यः, ग्लानस्य च यथा आहारे यतना कर्चव्या 20 सथा सर्वोऽपि विधिरानुपूर्व्या प्ररूप्यमाणो ज्ञातव्य इति समुदायार्थः ॥ १९३३ ॥ अक्यवार्थ तु प्रतिद्वारमभिधित्सुराह अब्भुट्टाणे गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो भवे दोसा । १ तस्य ग्लानस्य कोऽपि सक्षातिको भणेत्-निजकैरौषधैरहं ग्लानस्य करोमि क्रियाम्, प्रेषयत मदीये गृहे ग्लानमिति । ततः किं कर्तव्यम् ? इत्याह-तस्य' गृहस्थस्य 'स्थाम' वीर्यम्-'किमौषधानि पूरयितुं समर्थो वा? असमर्थः ?' इत्येवं ज्ञात्वा, 'आत्मनो वा' तस्थ ग्लानस्य स्थाम ज्ञात्वा-'किं धृत्या बलवान् ? आहोश्चिदबलवान् ?' इति, भावं ज्ञात्वा-'किमेष धर्महेतोश्चिकित्सां चिकीर्षुः स्वगृहे ग्लानमाकारयति ? उताहो उनिष्कामणाभिप्रायेण ?' इति । यद्यसौ गृहस्थ औषधपूरणे समर्थो यदि च ग्लानो धृत्या बलवान् यदि च धर्महेतोः सज्ञातिकस्तमाकारयति ततोऽनुज्ञा दातव्या अन्यथा तु नेति ॥ १९३१ ॥ इति भा० पुस्तके टीका। ___ "अधवा सण्णातओ से कोइ भणेज्जा-णियगाणिक गाथा॥ तस्स थामं-किं ओसधाणं समत्थो असमत्थो ? अप्पणो थाम-किं ति धितिए बलिओ एस ण वा?, भावं च त्ति-किं हेणं? धम्महेउं वा? अध परिणामेंतओ?, एवं णातुं अणुण्णा ॥” इति चूर्णी ।। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सुत्रम् १ मिच्छत्त रायमादी, विराहणा कुल गणे संघे ॥ १९३४ ॥ ___ आचार्यों यदि वैद्यस्यागतस्याभ्युत्थानं करोति तदा चत्वारो गुरुकाः । तत्राप्याज्ञादयो दोषा भवेयुः । तथा मिथ्यात्वं राजादयो ब्रजेयुः, आदिग्रहणेन राजामात्यादिपरिग्रहः । ते हि चारपुरुषादिमुखादाचार्य वैद्यस्याभ्युत्थितं श्रुत्वा स्वयं वा दृष्ट्वा चिन्तयेयुः-अमी श्रमणा अस्माकमभ्यु5 स्थानं न कुर्वन्ति, अस्मद्धृत्यस्य तु नीचतरस्येत्थमभ्युत्तिष्ठन्ते, अहो ! दुर्दृष्टधर्माणोऽमी इति । प्रद्विष्टा वा यत् तस्यैवाचार्यस्य यदि वा कुलस्य गणस्य सङ्घस्य वा विराधनां कुर्युः तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ १९३४ ॥ अणब्भुट्ठाणे गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो भवे दोसा। मिच्छत्त सो व अन्नो, गिलाणमादीविराहणया ॥ १९३५ ॥ 10 अथैतद्दोषभयादाचार्यों नोत्तिष्ठति तत्रापि चतुर्गुरुकाः । तत्राप्याज्ञादयो दोषा भवन्ति । 'स वा' वैद्योऽन्यो वा तं दृष्ट्वा मिथ्यात्वं गच्छेत् , यथा-अहो ! तपस्विनोऽप्यमी गर्वमुद्वहन्ति । प्रद्विष्टो वा वैद्यो ग्लानस्य क्रियां न कुर्याद् अपप्रयोगं वा कुर्यात् , एवं ग्लानविराधना। आदिशब्दादाचार्यादेर्वा राजवल्लभतया विराधनां कुर्यात् , यद्वा 'युष्माकं देहेऽमुको व्याधिर्वर्तते तच्चिकित्सार्थममुकमौषधं भवतां दास्यते' इति भणित्वा विरुद्धौषधप्रदानेनाचार्य विराधयेत् 16॥ १९३५ ॥ यत एते दोषा अतोऽयं विधिः कर्त्तव्यः गीयत्थे आणयणं, पुचि उद्वित्तु होइ अभिलावो । गिलाणस्स दावणं धोवणं च चुनाइगंधे य ॥ १९३६ ॥ गीताथैद्यस्य प्रतिश्रये आनयनं कर्तव्यम् । यदि ते पञ्च जनास्ततः सङ्घाटकः प्रथमत एवागच्छति । अथ त्रयस्तत एकस्तन्मध्यात् प्रथममागच्छति, आगत्य च गुरूणां कथयति–वैद्य 20 आगच्छतीति । ततो गुरवो द्वे आसने तत्र साधुभिः स्थापयन्ति । स्वयं तु चक्रमणलक्ष्येण 'पूर्व' वैद्यागमनात् प्रागेवोत्थायो’ स्थिता आसते । गीतार्थेश्च निवेदयितव्यम् 'एष वैद्यः' इति । आचार्यैश्च पूर्वमनालपतोऽपि वैद्यस्याभिलापः कर्त्तव्यः, पूर्वन्यस्तेन चासनेनोपनिमन्त्रणीयः । तत आचार्यो वैद्यश्च द्वावप्यासने उपविशतः । ततो ग्लानस्य दर्शना कार्या । कथम् ! इत्याहग्लानस्य यद् उपकरणे शरीरे वा अशुचिनोपलिप्तं तस्य 'धावनं' प्रक्षालनं कर्त्तव्यम् , चशब्दात् 25 खेल-कायिकी-संज्ञामात्रकाण्येकान्ते स्थापनीयानि, भूमिकाया उपलेपनं सम्मार्जनं च विधेयम् , तथापि यदि दुर्गन्धो भवति ततः पटवासादिचूर्णानि तत्र विकीर्यन्ते, आदिशब्दात् कर्पूरादिभिः सुगन्धिद्रव्यैरशुभो गन्धोऽपनीयते, ततः प्रावृतशुक्लवासाः शुचीभूतो ग्लानो वैद्यस्य दर्श्यते । यदि तस्य किञ्चिद् व्रणादिकं पाटयितव्यं तदा तस्मिन् पाटिते सति उष्णोदकादि प्राशुकं हस्तधावनं दातव्यम् । अथोप्णोदकमसौ नेच्छति ततः पश्चात्कृतादयो मृत्तिकामुदकं वा प्रयच्छन्ति 30॥ १९३६ ॥ गतमभ्युत्थाना-ऽऽसन-दर्शनाद्वारत्रयम् । अथ भद्रकद्वारमाह चउपादा तेगिच्छा, को भेसज्जाइँ दाहिई तुभं ।। तहियं च पुव्वपत्ता, भणंति पच्छाकडादऽम्हे ॥ १९३७॥ वैद्यो ब्रुयात्-चिकित्सा चतुप्पादा भवति, चत्वारः पादाः-चतुर्थांशरूपा यस्यां सा चतु Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १९३४-४१] प्रथम उद्देशः । ५६५ प्पादा, तद्यथा-आतुरः प्रतिचरका वैद्यो भेषजानि । न एतैश्चतुर्भिवैद्यशास्त्रोक्तगुणोपेतैश्चिकित्सा निष्पद्यते, » अतः को नाम ग्लानस्य योग्यानि भेषजानि युष्माकं प्रदास्यति ? । ततस्तत्र दत्तसकेततया पूर्वप्राप्ताः पश्चात्कृतादयो भणन्ति-वयं दास्याम इति । एवं तावद् भद्रको वैद्यः क्रियां करोति न चान्यत् किमपि स्पृहयति ॥ १९३७ ॥ यस्तु प्रान्तस्तमुद्दिश्य भृतिद्वारमाहारद्वारं चाह कोई मजणगविहिं, सयणं आहार उवहि केवडिए । [नि.गा. ३०३७] गीयत्थेहि य जयणा, अजयण गुरुगा य आणाई ॥ १९३८ ॥ कश्चिद् वैद्यो ब्रूयात्-मज्जनं-स्नानं तस्य विधिः-प्रकारः 'मजनविधिः तैलाभ्यङ्गनादिप्रक्रियापुरस्सरं स्नानमित्यर्थः, 'शयनं' पल्यकादि, ‘आहारः' भोजनम् , 'उपैधिः' वस्त्रादिरूपः, "केवडिय" त्ति रूपकाः, एतत् सर्वं मम को नाम दास्यति ? इति । ततः पश्चात्कृतादिभिर-10 भ्युपगन्तव्यम्-वयं दास्यामः । तेषामभावे गीतार्थैर्यतनया सर्वमप्यभ्युपगन्तव्यम् । यद्ययतनया अभ्युपगच्छन्ति प्रतिषेधयन्ति वा ततश्चत्वारो गुरुकाः आज्ञादयश्च दोषाः । एषा नियुक्तिगाथा ॥ १९३८ ॥ अथैनामेव बिभावयिषुराह एयस्स नाम दाहिह, को मजणगाइ दाहिई मज्झं। [नि.गा. ३०३८] ते चेव णं भणंती, जं इच्छसि अम्हें तं सव्यं ॥ १९३९ ॥ 15 'एतस्य' ग्लानस्य 'नाम' इति सम्भावनायां यद् यत् प्रायोग्यं भेषजादि तत् तत् सर्व दास्यथ, मम पुनर्मज्जनकादिकं को दास्यति ? इत्युक्ते 'त एव' पश्चात्कृतादयः “ण” इति तं वैद्यं भणन्ति—यद् इच्छसि तत् सर्वं वयं दास्याम इति ॥ १९३९ ॥ जं एत्थ अम्हें सव्वं, पडिसेहे गुरुग दोस आणादी । एएसिं असईए, पडिसेहे गुरुग आणादी ॥ १९४०॥ 20 ये ते पूर्व पश्चात्कृतादयः प्रज्ञापितास्तैः 'यदत्र ग्लानस्य युष्माकं चोपयुज्यते तत् सर्व वयं दास्यामः' इत्युक्ते सति यः साधुस्तानधिकरणभयात् प्रतिषेधयति तस्य चत्वारो गुरुका आज्ञादयश्च दोषाः । अथ न सन्ति पश्चात्कृतादयस्तत एतेषाम् 'असति' अभावे यो वैद्यं 'प्रतिषेधयति' 'न वयं भवतो मज्जनादि दास्यामः' इति तस्यापि चतुर्गुरुका आज्ञादयश्च दोषाः ॥ १९४०॥ पश्चात्कृतादिषु प्रतिषिध्यमानेषु यद वैद्यश्चिन्तयति तदाह 25 जुत्तं सयं न दाउं, अन्ने दिते वि ऊ निवारिति । न करिज तस्स किरियं, अवप्पओगं वे से दिजा ॥ १९४१॥ युक्तममीषां खयमदातुम् अपरिग्रहत्वात् , यत् पुनरन्यान् ददतो निवारयन्ति तन्न युज्यते । एवं प्रद्विष्टः सन् 'तस्य' ग्लानस्य क्रियां न कुर्यात् , 'अपप्रयोगं वा' विरुद्धौषधयोग "से" तस्य 'दद्यात्' प्रयुञ्जीत, तस्मादन्यान् न निवारयेदिति ॥ १९४१ ॥ ___ 30 १ एतदन्तर्गतः पाठः त० डे० कां० नास्ति ॥ २°तुर्भिर्मिलितैश्चि भा० ॥ ३°पधिः' तूलीप्रभृतिकं “के भा० ॥ ४°षा पुरातना गाथा मो० ले० विना । “कोई मजणगविहि. गाहा पुरातना" इति विशेषचूर्णौ ॥ ५ त० डे० विनाऽन्यत्र-व से देज मो० ले० । व देसिजा भा० कां०॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ५६६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ दाहामो त्ति य गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो भवे दोसा । संका व सूयएहिं, हिय नटे तेणए वा वि ॥ १९४२ ॥ पश्चात्कृतादीनामभावे यदि साधवो भणन्ति 'वयमवश्यं ते सर्वमपि दास्यामः' इति तदा चत्वारो गुरुकाः, तत्राप्याज्ञादयो दोषा भवेयुः । तथा कस्यापि हिरण्यादौ केनचिद् हृतेऽन्यथा 5 वा नष्टे सति शङ्का भवति-अहिरण्य-सुवर्णा अप्यमी यद् दास्याम इति भणन्ति तद् नूनमे तैरेव गृहीतमिति । यद्वा 'सूचकैः' आरक्षिकादिभिस्तच्छ्रुत्वा राजकुले गत्वा सूच्यते, यथास्तेनका एते श्रमणाः, येन वैद्यस्य हिरण्यादिकं दातव्यतया प्रतिपद्यन्ते । ततो ग्रहणा-ऽऽकर्षगादयो दोषाः ॥ १९४२॥ पडिसेह अजयणाए, दोसा जयणा इमेहिँ ठाणेहिं । भिक्खण इड्डी विइयपद रहिय जं भाणिहिसि जुत्तं ॥ १९४३ ॥ पश्चात्कृतादीनामभावे यद्ययतनया 'प्रतिषेधयन्ति' 'न तव भृतिं वा भक्तं वा दास्यामः' इति ततश्चतुर्गुरुका आज्ञादयश्च दोषाः । तस्माद् यतना एमिः स्थानः कर्तव्या-"मिक्खण" वि भिक्षां कृत्वा वयं दास्यामः, “इड्डि" ति ऋद्धिमता वा निष्कामता यत् वापि निक्षिप्तं तद् गृहीत्वा दास्यामः, "बिइयपदे"ति 'द्वितीयपदे वा' क्वचित् कारणजाते सञ्जाते सति यदर्थजातं गृहीतं तद् उद्धरितं दास्यामहे । “रहिए" त्ति पश्चात्कृतादिरहिते एवं भणन्ति--"जं भाणिहिसि जुत्तं " ति यत् त्वं भणिप्यसि तद् यथाशक्ति करिष्यामः, यद् वा अस्माकं 'युक्तम्' उचितं तद् विधास्याम इति ॥ १९४३ ॥ अथासौ वैद्यो ब्रूयात् अहिरण्णग त्थ भगवं!, सक्खी ठावेह जे ममं देंति । धंतं पि दुद्धकंखी, न लभइ दुद्धं अधेणूतो॥ १९४४॥ 20 भगवन् ! अहिरण्यकाः स्थ यूयम् अतः साक्षिणः स्थापयत ये मम पश्चात् प्रयच्छन्ति । अमुमेवार्थ प्रतिवस्तूपमया द्रढयति--"धंतं पि" ति देशीवचनत्वाद् अतिशयेनापि दुग्धकासी न लभते दुग्धमधेनोः सकाशात् ॥ १९४४ ॥ एवं वैद्येनोक्ते किं कर्तव्यम् ? इत्याह१°ण्यादिके केन भा० ॥ २ ये वै त• डे० ॥ ३ °शात् । एवं वैद्येनोक्ते साधुभिरभिघातव्यम्-अस्माकं दीक्षितानामलीकमुल्लपित न कल्पते अतः किं कार्य साक्षिणां स्थापनया? इति । अथैवमपि न तिष्ठति ततः कोऽपि गृही साक्षित्वेन स्थाप्यते, यथा-वयं भिक्षाटनं कृत्वा यथालब्धमेतस्य दास्यामः, बच्चा स्माकं युक्तं तत् करिष्यामः, अत्रार्थे भवान् साक्षिक इति ॥ १९४४ ॥ अथ ऋद्धिपदं व्याख्याति-पंचसयदाणगहणे० गाथा इति भा० पुस्तके पाठः ॥ __अहिरण• गाथा कंठा । 'धंतं पि' त्ति णिरातं भणियं होति । एवं भणिते पच्छा भण्णति-अम्हं दिक्खियाणं ण कप्पति अलियं उल्लावेउं । एवं पि भणिते जति ण ठाति तो को वि गिही जतणाए सक्सी ठविन्नति, जधा-भिक्खणीयं काउं जं अम्ह जुत्तं तं अम्हे दाहामो, तुमं सक्खी ॥ 'इट्टी' ति कोई बाइडिमंतो पव्वइतो सो ताधे भणति-पंचसतदाण० गाधाद्वयं कण्ठयम् ॥” इति चूर्णौ ॥ "अहिरण्णग त्थ० गाहा कण्ठ्या । णवरं 'धंतं पि' त्ति णिराई ति भणियं होइ ॥ 'इढि' त्ति कोइ इथिमंतो पव्वइओ ताहे सो भणइ-पंचसयदाणगहणे० गाहा ॥” इति विशेषची __ भा० पुस्तके चूर्णि-विशेषचूर्ण्यनुसारिणी टीकेति तस्मिन् चूर्णि-विशेषचूर्णिवत् “पच्छाकडाइ जयणा०" इति १९४५ गाथा न वर्तते ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १९४२-४९] प्रथम उद्देशः । ५६७ पच्छाकडाइ जयणा, दावणकजेण जा भणिय पुचि । सद्धा-विभवविहूणा, ति चिय इच्छंतगा सक्खी ॥ १९४५ ॥ पश्चात्कृतादिविषया मज्जनकादिदापनकार्येण या पूर्वं यतना भणिता सैव इह मन्तव्या । नवरं ये पश्चात्कृतादयः श्रद्धया विभवेन च विहीनास्त एव इच्छन्तः सन्त इह साक्षिणः स्थाप्यन्ते, यथा-वयं भिक्षाटनं कृत्वा यथालब्धमेतस्य दास्याम इति ॥ १९४५॥ अथ ते साक्षीभवितुं नेच्छन्ति ततो य ऋद्धिमत्प्रव्रजितः स इदं ब्रूयात् पंचसयदाण-गहणे, पलाल-खेलाण छड्डणं व जहा । सहसं व सयसहस्सं, कोडी रजं व अमुगं वा ॥ १९४६ ॥ एवं ता गिहवासे, आसी य इयाणि किं भणीहामो। जं तुब्भऽम्ह य जुत्तं, तं उग्गादम्मि काहामो ॥ १९४७॥ 10 यथा पलाल-खेलयोश्छर्दनं विधीयते तथा दीना-ऽनाथादिभ्यो वयं रूपकाणां पञ्च शतानि हेलयैव दानं दत्तवन्तः, उपार्जनामपि कुर्वाणाः पञ्चशतानां ग्रहणमेवमेव कृतवन्तः, एवं सहस्र शतसहस्रं कोर्टि राज्यम् 'अमुकं वा' अनिर्दिष्टं सङ्ख्यास्थानं लीलयैव वयं दत्तवन्तः खीकृतवन्तो वा, एवं तावदस्माकं गृहवासे विभूतिरासीत्, इदानीं पुनरकिञ्चनाः श्रमणाः सन्तः किं भणिष्यामः ? किं करिष्यामः ? इति भावः, परं तथापि ग्लाने 'उद्गाढे' प्रगुणीभूते सति यत् ।। तवास्माकं च 'युक्तम्' अनुरूपं तत् करिप्याम इति ॥ १९४६ ॥ १९४७ ॥ ___ एवं तावत् खग्रामे वैद्यविषया यतना भणिता । अथ खग्रामे वैद्यो न प्राप्यते ततः परग्रामादप्यानेतव्यः तत्र विधिमाहपाहिजे नाणत्तं, बाहिं तु भईऍ एस चेव गमो । परप्रामाद् वैद्यस्यापच्छाकडाइएसुं, अरहिय रहिए उ जो भणिओ ॥१९४८॥ नयने पाथेयं नाम-कण्टकमर्दनवेतनं यत् तस्य भक्तादि दीयते तत्र 'नानात्वं' विशेषः, वास्तव्यवैद्यस्य विधिः तन्न सम्भवति अस्य तु भवतीति भावः । तत्र च बहिर्गामादागतस्य 'भृतौ' मजनादौ वेतने एष एव गमो द्रष्टव्यः, पश्चात्कृतादिभिररहिते रहिते वा योऽनन्तरमेव भणितः ॥ १९४८ ॥ अथात्रैव यतनाविशेषमाहमजणगादिच्छंते, बाहिं अभितरे व अणुसट्ठी । 25 धम्मकह-विज-मंते, निमित्त तस्सष्ट अन्नो वा ॥ १९४९ ॥ मज्जनं स्नानम् आदिशब्दाद् अभ्यङ्गनोद्वर्तनादिकं 'बहिः' मार्गे आगच्छन् 'अभ्यन्तरे वा' ग्लानसकाशे प्राप्तो यदीच्छति ततः सर्वं तस्य पश्चात्कृतादयः कुर्वते । तेषामभावेऽनुशिष्टिः क्रियते, यथा-यतीनां न कल्पते गृहिणः स्नपनादि कर्तुम् , भवतश्च मुधा कुर्वतो बहु फलं भवति । अथ तथापि नोपरमते ततो धर्मकथा कर्तव्या । तथाप्यप्रतिपद्यमाने विद्या-मन्त्र-निमिचानि 'तस्य' 30 वैद्यस्यावर्जनार्थ प्रयुज्यन्ते, अन्यो वा तानि प्रयुज्य वशीक्रियते, ततस्तस्य वैद्यस्यासौ मज्जनादिकं काराप्यते ॥ १९४९ ॥ अथ धर्मकथापदं भावयति तह से कहिंति जह होइ संजओ सनि दाणसट्टो वा । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ बहिया उ अण्हायंते, करिति खुड्डा इमं अंतो ॥ १९५० ॥ आक्षेपणीप्रभृतिभिर्धर्मकथाभिस्तस्य तथा धर्म कथयन्ति यथाऽसौ संयतो भवति 'संज्ञी वा' गृहीताणुव्रतोऽविरतसम्यग्दृष्टि; 'दानश्राद्धो वा' मुधैव साधूनामारोग्यदानशीलो भवति । अथ धर्मकथालब्धिर्नास्ति ततो विद्या-मन्त्रादयः प्रयुज्यन्ते । तेषामभावे तस्य आमलकादीनि दीयन्ते, 5 भण्यते चासौ-वहिर्गत्वा तडागादिषु स्नानं कुरुत । अथ बहिः स्नातुं नेच्छति ततो बहिरनाति तस्मिन् क्षुल्लकाः 'इदं' वक्ष्यमाणम् 'अन्तः' प्रतिश्रयस्याभ्यन्तरे कुर्वन्ति ॥ १९५० ॥ किं तत् ? इत्याह उसिणे संसद्वे वा, भूमी-फलगाइ भिक्ख चड्डाई । अणुसट्ठी धम्मकहा, विज-निमित्ते य अंतों वहिं ॥ १९५१॥ 10 'उष्णोदकेन प्रतीतेन 'संसृष्टेन' गोरसरसभावितेन अपरेण वा प्राशुकेन पानकेन क्षुल्लकास्तं सपयन्ति । शयनमाश्रित्य भूमौ फलके आदिशब्दात् पल्यङ्कादिषु वा स शाय्यते । भोजनं प्रतीत्य 'भैक्षं भिक्षापर्यटनेन लब्धमानीय तस्य दातव्यम् । "चड्डाइ" त्ति 'चड्डु' कमढकमयं भाजनम् आदिग्रहणात् कांस्यपाच्यादिपरिग्रहः, एतेषु भोजनमसौ कारयितव्यः । हिरण्यादिकं द्रविणजातं याचमानस्य 'अन्तः' इति वास्तव्यवैद्यस्य 'बहिः' इत्यागन्तुकवैद्यस्योभयस्याप्यनुशिष्टि16 धर्मकथा-विद्या-निमित्तानि प्रयोक्तव्यानीति' नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ १९५१ ॥ अथैनामेव भावयन्नाह तेल्लुबट्टण व्हावण, खुड्डाऽसति वसभ अन्नलिंगेणं । पट्टदुगादी भूमी, अणिच्छि जा तूलि-पल्लंके ॥ १९५२ ॥ क्षुल्लकास्तं वैद्यं तैलेनाभ्यङ्गय कल्केनोद्वयोष्णोदकादिना प्राशुकेनैकान्ते स्नपयन्ति । अथ 20 क्षुल्लका न सन्ति सपयितुं वा न जानते ततो ये 'वृषभाः' गच्छस्य शुभा-ऽशुभकारणेषु भारोद्वहनसमर्थास्ते 'अन्यलिङ्गेन' गृहस्थादिसम्बन्धिना सानादिकं वैद्यस्य कुर्वन्ति । “पट्टदुगाई" इत्यादि, स वैद्यः शयितुकामः प्रथमतो भूमौ संस्तारपट्टमुत्तरपट्टकं च प्रस्तीर्य शाय्यते । अथ नासौ पट्टद्वये खप्तुमिच्छति तत और्णिक-सौत्रिको कल्पौ प्रस्तीर्येते । तथापि यदि नेच्छति ततः काष्ठफलके संस्तारोत्तरपट्टकावास्तीर्य शयनं कार्यते । तथाप्यनिच्छति उत्तरोत्तरं तावन्नेतव्यं यावत् 25 तूली-पल्यङ्कावप्यानीय शाययितव्य इति ॥ १९५२ ॥ अथ भैक्षपदं भावयति समुदाणिओदणो मत्तओ वणिच्छंति वीसु तवणा वा । एवं पणिच्छमाणे, होइ अलंभे इमा जयणा ॥ १९५३ ॥ समुदानं नाम-उच्चावचकुलेषु भिक्षाग्रहणम् तत्र लब्धः सामुदानिकः, "अध्यात्मादिभ्य इकण्" (सिद्ध० ६-३-७८) इति इकणप्रत्ययः, स चासाबोदनश्च सामुदानिकौदनः, स 30प्रथमतो वैद्यस्य दातव्यः । अथासौ तं भोक्तुं नेच्छति ततो मात्रकं वीपनीयम् , तत्र प्रायोग्य तदर्थ ग्रहीतव्यमिति भावः । अथ तथापि नेच्छति ततः "वीसु" ति पृश्वग ओदनं व्यञ्जनमपि १ 'चड्डुकम्' अष्टकमयं मो० ले० विना ॥ २ °ति सङ्ग्रहगा मो० ले. विना ॥ ३ मापनां तस्य कुर्वन्ति । अथ मो० ले० ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६९ भाष्यगाथाः १९५०-५५] प्रथम उद्देशः । पृथक् तदर्थ ग्राह्यम् । अथ शीतलमिति कृत्वाऽसौ तद् नेच्छति तदा “तवण" त्ति तदेव (ग्रन्थाग्रम्-२५०० । सर्वग्रन्थानम्-१४७२०) गृहीत्वा यतनया तापयितव्यम् । एवमप्यनिच्छति अलभ्यमाने वा 'इयं वक्ष्यमाणलक्षणा यतना भवति ॥ १९५३ ॥ तामेवाह तिगसंवच्छर तिग दुग, एगमणेगे य जोणिघाए अ। __संसट्ठमसंसढे, फासुयमप्फासुए जयणा ॥ १९५४ ॥ । येषां शालि-व्रीहिप्रभृतीनां धान्यानां संवत्सरत्रयादूर्द्धमागमे विध्वस्तयोनिकत्वमुक्तं तेषां सम्बन्धिनो ये त्रिवार्षिकास्तन्दुलास्ते "तिग दुग एग"न्ति प्रथमतस्त्रिच्छटिता ग्रहीतव्याः, तदभावे द्विच्छटिताः, तेषामलाभे एकच्छटिता अपि । अथ त्रिवार्षिका न प्राप्यन्ते ततो द्विवार्षिकाः, तेषामलाभे एकवार्षिका अपि व्युत्क्रान्तयोनिकाः सन्तस्त्रियेकच्छटिताः क्रमेणं ग्राह्याः । 'अणेगे य" त्ति येषां धान्यानाम् 'अनेकानि' वर्षत्रयाद् बहुतराणि वर्षाणि स्थितिः प्रतिपा- 10 दिता, यथा-तिल-मुद्ग-माषादीनां पञ्च वर्षाणि अतसी-कङ्गु-कोद्रवप्रभृतीनां तु सप्त वर्षाणात्यादि, तेषामपि तन्दुलाः पञ्चवार्षिकाः सप्तवार्षिका वा त्रियेकच्छटिताः क्रमेण ग्राह्याः । अत्रापि वर्षपरिहाणिव्युत्क्रान्तयोनिकत्वं च तथैव द्रष्टव्यम् । इह च येषां यावती स्थितिरुक्ता ते तावती स्थितिं प्राप्ताः सन्तो नियमाद् व्युत्क्रान्तयोनिकाः, ये त्वद्यापि न परिपूर्णां स्थितिं प्राप्नुवन्ति ते व्युत्क्रान्तयोनिका अव्युत्क्रान्तयोनिका वा भवेयुरिति । “जोणिघाए अ" ति व्युत्क्रान्तयोनिका-15 नामभावेऽव्युत्क्रान्तयोनिका अपि ये 'योनिघातेन' जीवोत्पत्तिस्थानविध्वंसनेन गृहिभिः साध्वर्थमचित्तीकृतास्तेऽप्येवमेव वैद्यार्थं ग्रहीतव्याः। तथा पानकं पुनरिदं तस्य दातव्यम् – “संसट्ट' इत्यादि, दध्यादिभाजनधावनं संसृष्टपानकम् , उष्णोदकं तन्दुलधावनादि वा असंसृष्टपानकम् , उभयमपि प्रथमतः प्राशुकं तदभावेऽप्राशुकमपि यतनया यत् त्रसविरहितं तत् तदर्थं ग्रहीतव्यम् ॥१९५४॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां भावयति वकंतजोणितिच्छडदुएक्कछडणे वि होइ एस गमो। एमेव जोणिधाए, तिगाइ इतरेण रहिए वा ॥ १९५५ ॥ त्रिवार्षिकादयो ये व्युत्क्रान्तयोनिकास्ते त्रिच्छटिता ग्राह्याः । तेषामभावे येकच्छटितानामपि 'एष एव गमः' यत्तेऽपि व्युत्क्रान्तयोनिका गृह्यन्ते । एवमेव च योनिघातेऽपि साध्वर्थ कृते "तिगाइ" त्ति त्रिद्ध्येकच्छटिताः क्रमेण ग्रहीतव्याः। तेषामभावे त्रिवार्षिकादयो यथाक्रम कण्डाप-25 नीयाः। अथ नास्ति कोऽपि कण्डयिता ततः 'इतरेण' अव्यक्तलिङ्गेन 'रहिते वा' सागारिकवर्जिते प्रदेशे खयमेव कण्डयति । यद्वा “रहिए" ति पश्चात्कृतादिभिर्गृहस्थै रहिते एषा प्रोगुक्ता वक्ष्यमाणा चा» यतना कर्तव्या, < यंत्र तु पश्चात्कृतादयो भावितगृहस्थाः प्राप्यन्ते तत्र सर्वमपि वैद्यस्य समाधानं त एवोत्पादयन्तीति भावः ॥ १९५५ ॥ ते च तन्दुलाः कथमुपस्कर्तव्याः ? इत्याह१°ण ग्रहीतव्याः । “अ° भा० ॥ २°णिस्तथैव द्रष्टव्या । अत्र च येषां भा० ॥ ३°ति कृत्वा द्विवार्षिकादिषु व्युत्क्रान्तयोनिकत्वविशेषणं कृतमिति । "जो भा० ॥ ४ गृह्यन्ते । तथा त० डे० कां०॥ ५-६ एतदन्तर्गतः पाटः मो, ले० विना न ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ पुवाउत्ते अवचुल्लि चुल्लि सुक्ख-घण-मज्झुसिर-मविद्धे ।। पुवकय असइ दाणे, ठवणा लिंगे य कल्लाणे ।। १९५६ ॥ पूर्व-प्रथमं गृहिभिः काष्ठप्रक्षेपणादायुक्तः पूर्वायुक्तस्तसिन् 'पूर्वायुक्ते' पूर्वतप्तेऽवचुल्लके प्रथमं तन्दुलानुपस्करोति । तदभावे पूर्वतप्तायां चुल्याम् । अथ चुल्यपि पूर्वतप्ता न प्राप्यते तत 5 ईदृशानि दारूणि प्रक्षिप्योपस्करोति, तद्यथा-"सुक्खघणमझुसिरमविद्धि" त्ति शुष्काणिनााणि घनानि-वंशवद् न रन्ध्रयुक्तानि अशुषिराणि-अस्फुटितानि वचारहितानि वा अविद्धानि-घुणैरकृतच्छिद्राणि । ईदृशानि दारूणि वक्ष्यमाणप्रमाणोपेतानि पूर्वकृतानि च ग्रहीतव्यानि । अथ पूर्वकृतानि न सन्ति ततः स्वयमपि तेषां प्रमाणोपेतत्वं कर्त्तव्यम् । तथा याचमानस्य वैद्यस्य "दाणे" ति अर्थजातदानं कर्त्तव्यम् । कथम् ? इति अत आह-"ठवण" ति शैक्षण 10 प्रव्रजता यद् निकुञ्जादिषु द्रविणजातं स्थापितं तस्य दानं कर्त्तव्यम् । “लिङ्गि" ति स्खलिङ्गेन परलिङ्गेन गृहिलिङ्गेन वा अर्थजातमुत्पादनीयम् । “कल्लाणे' त्ति प्रगुणीभूतस्य ग्लानस्य तत्प्रतिचरकाणां च पञ्चकल्याणकं दातव्यम् ॥ १९५६ ॥ अथ प्रक्षिप्यमाणदारूणां प्रमाणादिकमाह हत्थद्धमत्त दारुग, निच्छल्लिय अघुणिया अहाकडगा। असईइ सयंकरणं, अघट्टणोवक्खडमहाउं ॥ १९५७ ॥ 15 हस्तार्द्ध-द्वादशाङ्गुलानि तन्मात्राणि-तावत्प्रमाणदैोपेतानि 'निच्छल्लिकानि' छल्लीरहितानि _ 'अधुणितानि' घुणैरविद्धानि दारूणि भवन्ति । ईदृशानि च यथाकृतानि ग्रहीतव्यानि । यथाकृतानाम् 'असति' अभाव 'स्वयंकरणम्' आत्मनैव हस्तार्द्धप्रमाणानि क्रियन्ते छल्लिश्चापनीयते इत्यर्थः । उपस्कृते च भक्ते उल्मुकानां घट्टना न कर्तव्या किन्तु तेऽमिजीवा यथायुष्कमनुपाल्य खयमेव विध्यायन्ति ॥ १९५७ ॥ अथ पानकयतनामाह- . 20 कंजिय-चाउलउदए, उसिणे संसट्ठमेतरे चेव । व्हाण-पियणाइपाणग, पादासइ वार दद्दरए ॥ १९५८ ॥ पानीयं याचतो वैद्यस्य काञ्जिकं दातव्यम् । यदि तद् नेच्छति ततः 'चाउलोदकं' तन्दुलधावनम् । तदप्यनिच्छत्युष्णोदकं वा संसृष्टपानकं वा । "इतरं" ति प्राशुकमनिच्छति अप्रा शुकमपि, यावत् कर्पूरवासितम् । एवं स्नान-पानादिषु कार्येषु पाकं तस्य दातव्यम् । तच्च 25 प्रथमतः पात्रके स्थाप्यते । अथ नास्त्यतिरिक्तं पात्रकं न वाऽसौ तत्र स्थापयितुं ददाति ततो वारके स्थापयित्वा 'दर्दरयति' मुखे घनेन चीवरेण वध्नाति येन कीटिकादयः सत्त्वा नाभिपतन्ति ॥ १९५८ ॥ भावितं भैक्षपदम् । अथ "चड्डादि" (गा० १९५१) त्ति पदं भावयति १°पणेनायु भा० ॥ २ °णि पूर्वकृतान्येव प्र° भा० ॥ ३ °मपि कर्त्तव्यानीति वाक्यशेषः। तथा भा० ॥ ४ तदानीय दातव्यम् भा० ॥ ५°पस्कुर्वता चोल्मकानां परस्परं घट्टना न कर्तव्या, उपस्कृते चाग्निर्यथायुष्कमनुपाल्य स्वयमेव विध्यायति, न पुनः साधुना विध्यापयितव्य इति ॥ १९५७ ॥ कंजिय गाथा० भा० । “असतीय.” पच्छद्धं । उवक्खडिते ण घट्टति, सयमेव अधाउयं पालेति ॥ पाणगं इम-" इति चूर्णौ । “अघट्टण" त्ति जयणाए अवसंतुअति (2), उवक्खडिए ताव ण घट्टेइ, जाव सयमेव विज्झातो ताहे ते अहाउयं पालेति ॥ पाणगं इम-" इति वि Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १९५६-६३] प्रथम उद्देशः । ५७१ चड्डग सराव कंसिय, तंबक रयए सुवन्न मणिसेले । भोत्तुं स एव धोवइ, अणिच्छि किढि खुड्ड वसभा वा ॥ १९५९ ॥ 'चड्डकं' कमढकं तत्रासौ भोजनं कार्यते । अथ तत्र नेच्छति भोक्तुं ततः शरावे । तत्रानिच्छति कांस्यभाजने ताम्रभाजने वा । तत्राप्यनिच्छति रजतस्थाले सुवर्णस्थाले मणिशैलमये वा भाजने भोजयितव्यः । भुक्त्वा चासौ स्वयमेव तद् भाजनं धावति । अथ नेच्छति धावितुं ततः । 'किढी' स्थविरश्राविका सा प्रक्षालयति । तस्या अभाधे क्षुल्लकाः । क्षुल्लकाणामभावे वृषभाः ॥ १९५९ ॥ शिष्यः पृच्छति-कथमसंयतस्य संसृष्टभाजनं संयतः प्रक्षालयति ? किं निमित्तं वा वैद्यस्य मज्जनादिकमियत् परिकर्म क्रियते ? उच्यते पूयाईणि वि मग्गइ, जह विजो आउरस्स भोगट्ठी । तह विजे पडिकम्मं, करिति वसभा वि मुक्खट्टा ॥ १९६०॥ 10 यथा वैद्यः 'भोगार्थी' भोगाङ्गद्रव्याभिलाषी 'आतुरस्य रोगिणः 'पूयादीन्यपि' पूर्व-पकरक्तं तदादीनि आदिशब्दात् शोणितप्रभृतीन्यप्यशुचिस्थानानि 'मार्गयति' शोधयति तथा वृषभा अपि मोक्षार्थ वैद्यस्य सर्वमपि प्रतिकर्म' मज्जनादिकं कुर्वन्ति ॥ १९६० ॥ यस्तु न कुर्यात् तस्य प्रायश्चित्तमाहतेइच्छियस्स इच्छाणुलोमगं जो न कुज सइ लामे । 16 अस्संजमस्स भीतो, अलस पमादी व गुरुगा से ॥ १९६१ ॥ चिकित्सया चरति जीवति वा चैकित्सिकः-वैद्यस्तस्य या मज्जनादाविच्छा तस्याः अनुलोमम्अनुकूलं प्रतिकर्म 'सति लाभे' लाभसम्भवे "अस्संजमस्स भीउ' त्ति पञ्चम्यर्थे षष्ठी 'असंयमाद्' असंयतवैयावृत्त्यकरणलक्षणाद् भीतोऽलसः प्रमादी वा यो न कुर्यात् तस्य चत्वारो गुरुकाः ॥ १९६१ ॥ अथ ग्लान-वैद्ययोर्वैयावृत्त्यकारणान्युपदर्शयति लोगविरुद्धं दुप्परिचओ उ कयपडिकिई जिणाणा य । अतरंतकारणेते, तदट्ठ ते चेव विजम्मि ॥ १९६२ ॥ ग्लानस्य यदि वैयावृत्त्यं न क्रियते ततो लोकविरुद्धं भवति, लोको ब्रूयात्---धिगमीषां धर्म यत्रैवं मान्द्यसम्भवेऽपीदृशमनाथत्वमिति । तथा परस्परमेकप्रवचनप्रतिपत्त्यादिना यः कोऽपि लोकोत्तरिकः सम्बन्धः सः 'दुप्परित्यजः' दुप्परिहर इति ग्लानस्य वैयावृत्त्यं कार्यम् । कृतप्रति-25 कृतिश्चैवं कृता भवति', यत् तेन ग्लानेन पूर्वं हृष्टेन सता यदात्मन उपकृतं तस्य प्रत्युपकारः कृतो भवतीति भावः । 'जिनानां' तीर्थकृतां या 'आज्ञा' 'अग्लान्या ग्लानस्य वैयावृत्त्यं कुर्यात्' इत्यादिलक्षणा सा कृता भवति । एतानि अँतरन्तः-ग्लानस्तस्य वैयावृत्त्ये कारणानि । 'तदर्थ ग्लानार्थ यद् वैद्यस्य वैयावृत्त्यकरणं तत्रापि 'तान्येव' लोकविरुद्धपरिहारादीनि कारणानि द्रष्टव्यानि ॥ १९६२ ॥ अथ ग्लानस्य मज्जनादिविधिमतिदिशन्नाह 30 एसेव गिलाणम्मि वि, गमो उ खलु होइ मजणाईओ। सविसेसो कायव्यो, लिंगविवेगेण परिहीणो ॥ १९६३ ॥ १°द अपराण्यप्यशुमा० ॥२°ति, तेनापि ग्ला भा० ॥ ३ अतरतः-ग्लानस्य वै भा०॥ 20 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ५७२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ ___ एष एव ग्लानेऽपि मज्जनादिकः ‘गमः' प्रकारो भवति, यथा वैद्यविषय उक्तः । नवरं 'सविशेषः' भक्ति-बहुमानादिविशेषसहितो लिङ्गविवेकेन परिहीनः सर्वोऽपि कर्त्तव्यः ॥ १९६३ ॥ .. अथ ग्लान-वैद्ययोरनुवर्तनाया महार्थत्वं दर्शयन्नाह को वोच्छिइ गेलन्ने, दुविहं अणुअत्तणं निरवसेसं । जह जायइ सो निरुओ, तह कुजा एस संखेवो ॥ १९६४ ॥ ग्लान्ये सति या द्विविधा अनुवर्तना-ग्लानविषया वैद्यविषया च तां 'निरवशेषां' सम्पूर्णां को नाम वक्ष्यति ? बहुवक्तव्यत्वाद् न कोऽपीत्यभिप्रायः । अतो यथाऽसौ ग्लानो नीरुग् जायते तथा कुर्यात् । एपः 'सङ्केपः' सङ्ग्रहः, उपदेशसर्वखमिति यावत् ॥ १९६४ ॥ अथ वैद्यस्य दानं दातव्यं तत्र विधिमाह--- आगंतु पउण जायण, धम्मावण तत्थ कइयदिटुंतो । पासादे कूवादी, वत्थुक्कुरुडे तहा ओही ॥ १९६५ ॥ ग्लाने प्रगुणे जाते सति आगन्तुकवैद्यो यदा दक्षिणां याचते तदा तस्यानुशिष्टिर्दातव्यायथा न वर्त्तते यतीनां हस्ताद् वेतनकं ग्रहीतुम् , मुधाकृतममीषां बहुफलं भवति, अपि च 'धर्मापणः' धर्मव्यवहरणहट्टोऽयमस्माकम् , अतो यदत्र सम्भवति तदेव ग्रहीतव्यम् । ऋयिकदृष्टान्तश्च तत्रोच्यते । यथा केनचित् ऋयिकेण गान्धिकापणे रूपकान् निक्षिप्य भणितम्-ममैतैः किञ्चिद् भाण्डजातं दद्याः । ततः सोऽन्यदा तत्रापणे मद्य मार्गयितुं लग्नः । वणिजा प्रोक्तः–ममापणे गन्धपण्यमेव व्यवहियते, नास्ति मम मद्यम् , अतस्त्वं गन्धपण्यं गृहाणेति । एवमस्माकमपि धर्मापणाद् धर्म गृह्णातु भवान् , नास्ति द्रविणजातम् ।। 20 इत्युक्ते यदि नोपरमते ततः शैक्षेण प्रव्रजता यद् निकुञ्जादिषु परिष्ठापितं तदानीय दीयते । तस्याभावे यद् उत्सन्नखामिकं क्वापि प्रासादे कूपे वा आदिशब्दाद् निर्धमनादिषु वा निधानं तथा शटितपतितं यद् वास्तु-गृहं तद् उत्कुरुटमिवेति कृत्वा वास्तूत्कुरुटमुच्यते तत्र वा यद् निधानं तद् अवधिज्ञानिन उपलक्षणत्वाद् दशपूर्विप्रभृतीनां वा पार्थे पृष्ट्वा ततः प्रासादादिस्थानादानीय वैद्यस्य दातव्यम् ॥ १९६५ ॥ वास्तव्यवैद्यस्य दानविधिमाह बत्थव्य पउण जायण, धम्मादाणं पुणो अणिच्छंते । स चेव होइ जयणा, रहिए पासायमाईया ॥ १९६६ ॥ प्रगुणीभूते ग्लाने वास्तव्यवैद्योऽपि यदि याचनं कुरुते ततस्तस्यापि धर्म एवादानं-द्रव्यं तद् दातव्यम् । “पुणो अणिच्छंते" ति 'पुनः' भूयो भूयः प्रज्ञाप्यमानोऽपि यदि धर्मादानं नेच्छति १ इत आरभ्य “विजस्म व दव्यस्य व." इति ६९.७३ गाथायावद्वर्त्तिन्यो गाथाः चूर्णौ एतत्क्रमेण वर्तन्ते-आगंतु पउण. गाथा १९६५। उवहिम्मि पडग० गाथा १९६७ । कवडुगमादी गाथा १९६९ । वत्थव्य पउण० गाथा १९६६ । वितियपदे. माथा १९६८ । बितियपदे, गाथा १९७० । पउणम्मि य. गाथा १९७१ । विचस्व व दचस्स० गाथा १९७३ । विशेपचूर्गों पुनः टीकानुसारी गाथाक्रमो वर्तते ॥ २ यदा भृति या भा० ॥ ३ तदा मायने-'पर्यापणा' त रे० कां० ।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माप्यगाथाः १९६४-६९ । प्रथम उद्दशः । ५७३. तदा पश्चात्कृतादिभिर्गृहस्सै रहिते सैव प्रासादादिका यतना कर्तव्या या अनन्तरगाथायामभिहिता ॥ १९६६ ॥ द्वयोरप्यागन्तुक-वास्तव्यवैद्ययोरुपधिं याचतोविधिमाह उवाहेम्मि पडगसाडग, संवरणं वा वि अत्थुरणगं वा । दुगभेदादाहिंडणंऽणुसहि परलिंग हंसाई ।। १९६७ ॥ 'उपधौ' उपकरणे 'पटशाटकः' परिधानं 'संवरणं' प्रच्छदपटः 'आस्तरण' प्रस्तरणकं तूली 5 वा यद्येतानि मार्गयति ततस्तथैव धर्मापणदृष्टान्तः क्रियते । अथ नोपरमते ततो द्विक–साधुयुगं तल्लक्षणो यो भेदः-प्रकारस्तेन आदिशब्दाद् वृन्देन वा हिण्डित्वा पटशाटकादिकमुत्पाद्य वैद्यस्य प्रयच्छन्ति । अथ सर्वथैव न प्राप्यते ततोऽनुशिष्टि-धर्मकथादीनि प्रयोक्तव्यानि । तथाऽप्यनुपरतरय परलिङ्गं कृत्वा हंसादिप्रयोगेणोत्पाद्य प्रयच्छन्ति ॥ १९६७ ॥ द्वितीयपदे न दद्यादपि, यत आह 10 बिइयपदे कालगए, देसुट्ठाणे व बोहिगाईसु । असिवाई असईइ व, ववहारऽपमाण अदसाई ॥ १९६८ ॥ "द्वितीयपदे वैद्य ग्लाने वा कालगते सति वस्त्रादिकं न दद्यादपि । यद्वा बोधिकाः-म्लेच्छास्तेषाम् आदिशब्दात् परचक्रस्य वा भयेन 'देशस्योत्थाने' उद्वसीभवने । अशिवे वा आदिग्रहणाद् दुर्भिक्षे राजद्विष्टे वा सञ्जाते सांते । 'असति वा' सर्वथैव वस्त्राणामलाभे व्यवहारः क्रियते, 15 व्यवहारेण च निर्जितस्य न प्रयच्छन्ति, व्यवहारेण वा कारणिकैर्दाप्यमानाः प्रमाणहीनानि 'अदशाकानि' वस्त्राणि दर्शयन्ति-अस्माकमीदृशान्येव स्वाधीनानि अन्यानि न सन्ति ॥१९६८॥ अथ द्रविणजातं मार्गयति वैद्ये विधिमाह कवड्डगमादी नंवे. रुप्पे पीते तहेव केवडिए । हिंडण अणुसट्ठादी, पूइयलिंगे तिविह भेदो ॥ १९६९.॥ 20 . कपर्दकादयो मार्गयित्वा तस्य दीयन्ते । ताम्रमयं वा नाणकं यद् व्यवहियते, यथादक्षिणापथे काकिणी । रूपमयं वा नाणकं भवति, यथा-भिल्लमाले द्रम्मः । पीतं नाम १°ण, अणुसट्टाई वि परलिंगे भा० ॥ २ त० डे० कां० तां० विनाऽन्यत्र-ग हिंसाई मो. ले०॥ ३ 'पटकः' प्रावरणं 'शाटकः' परि भा० । पडगसाडगं 'संवरणं' सुंदरं पाउरणं 'अत्थुरणं' पत्थरणं वा मग्गंते तहेव धम्मावणदिटुंतो ।" इति विशेषचूर्णौ ॥ ४°ष्टिातव्या । तथाप्यनुप त. डे. कां०॥ ५ त्वा हिंसा भा० मो० ले. । “अलंभे परलिंगेण वा गिहत्थलिंगेण वा हंसादि. विभासा।” इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च । “असति परिलिंगेण वा गिहिलिंगेण वा संघायादिविभासा।" इति चूर्णिप्रत्यन्तरे पाठः ॥ ६°दपि, कथम् ? इति चेद् उच्यते-भा० ॥ ७ द्वितीयपदे स वैद्यो ग्लानो वा कालगतः, देशस्य वा उत्थाने-उद्वसीभवने योधिकाः-म्लेच्छास्तद्भयेन वा दिशोदिशं पलायिताः, आदिशब्दात् परचक्रादिभयपरिग्रहः, अशिवं वा तत्र जातम् , आदिशब्दाद् दुर्भिक्षं राजद्विष्टं वा समजनि, 'असति वा' सर्वथा अलब्धे व्यवहारः क्रियते भा० । "विइयपदे 'कालगए' वेजो कालगओ गिलाणो वा, देसो वा उठ्ठिओ बोहियादिभएणं, बोहिया-मेच्छा, असिवं वा जायं, आदिग्गहणेणं दुभिक्खं रायदुटुं वा, अलब्भमाणे यवहारं करेंति।" चूर्णी विशेपचूर्णौ च ।। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकरूपप्रकृते सूत्रम् १ सुवर्ण तन्मयं वा नाणकं भवति, यथा-पूर्वदेशे दीनारः । केवडिको नाम' यथा तत्रैव पूर्वदेशे केतराभिधानो नाणकविशेषः । एतेषामप्युत्पादनं कुर्वता सङ्घाटकेन वृन्देन वा हिण्डनं तथैव कर्तव्यम् । अलब्धेऽनुशिष्ट्यादीनि प्रयोक्तव्यानि । लिङ्गमिति पदं व्याख्यायते-पूजितम्-अर्चितं यल्लिङ्गं तत्र त्रिविधो भेदः कर्त्तव्यः । किमुक्तं भवति ? तस्मिन् देशे यत् त्रयाणां खलिङ्ग-गृहिलिङ्ग-कुलिङ्गानां मध्यात् पूजितं तेन लिङ्गेन द्रविणजातमुत्पादयन्ति वैद्य वा प्रज्ञापयन्ति ॥ १९६९ ॥ द्वितीयपदे द्रविणजातमपि न दद्यात् , कथम् ? इत्याह बिइयपदे कालगए, देसुट्ठाणे व बोहियादीसु । असिवादी असईइ व, ववहार हिरण्णगा समणा ॥ १९७० ॥ द्वितीयपदे वैये ग्लाने वा कालगते सति, देशस्य वा बोधिकादिभयेनोत्थाने उद्वसने, अशि10 वादौ वा सञ्जाते, 'असत्तायां वा' सर्वथैवालाभेऽर्थजातं वैद्यस्य न दद्यात् । व्यवहारे च समुपस्थिते ब्रुवते--अहिरण्यकाः श्रमणा भवन्तीति तावत् सर्वत्रापि सुप्रतीतम् , परं तथाप्येतेनारब्धैरस्माभिस्तदपि द्रविणजातं गवेषयितुमारब्धम् , ततो लोको ब्रवीति-न वर्त्तते शिष्टानां यतिभ्यो हिरण्यादि दातुम् । यत उक्तम् ___ गृहस्थस्यान्नदानेन, वानप्रस्थस्य गोरसात् । 15 यतीनां च हिरण्येन, दाता खर्ग न गच्छति ॥ इति । एवं व्यवहारो लभ्यते ॥ १९७० ॥ अथ कल्याणकपदं व्याख्यानयति पउणम्मि य पच्छित्तं, दिजइ कल्लाणगं दुवेण्हं पि । बूढे पायच्छित्ते, पविसंती मंडलिं दो वि ।। १९७१ ॥ ग्लाने प्रगुणीभूते सति 'द्वयोरपि' ग्लान-प्रतिचरकवर्गयोः 'कल्याणकं' प्रायश्चित्तं दीयते । 20 इहैवमविशेषेणोक्तेऽपि ग्लानस्य पञ्चकल्याणकं प्रतिचरकाणां त्वेककल्याणकं दातव्यम् , आदेशान्तरेण वा द्वयोरपि पञ्चकल्याणकं मन्तव्यम् । स आह च निशीथचूर्णिकृत् १ यथा पश्चिमदेशे दी मो० ले० ॥ २ °टिप्रभृतीनि प्र° भा० ॥ ३ °यन्ति द्वितीयपदे द्रविणजातमुत्पादयन्ति वैद्यं वा मो० ले० ॥ ४ द्वितीयपदे वैद्यो ग्लानो वा कालगतः, देशो वा उद्वसितः, वोधिकादीनां वा भयमुदपादि, अशिवादिकं वा समजनि, 'असता वा' सर्वथैव न लब्धं ततो न दद्याद् । व्यवहारे भा० ॥ ५ ते । तत्रैवम भा० ॥ ६ एतदन्तर्गतः पाठः त० डे. कां. नास्ति ॥ . ७ मो० ले० विनाऽन्यत्र-कृत्-जाहेगे गिलाणो पन्नत्तो ताहे से पंचकल्लाणगं दिजद, पडियरगाणं एक्ककल्लाणगं, आदेसंतरेण वा दुण्ह वि पंचकल्लाणं ति । ततो व्यूढे प्रायश्चित्ते 'द्वावपि' ग्लान-प्रतिचरकवर्गों मण्डलीभोजनादिषु प्रविशतो नान्यथा ॥ १९७१ ॥ गतमनुवतनेति मूलद्वारम् । अथ चालनाद्वारमाह-विजस्स व० गाथा भा०॥ ___ "पउणस्स य० गाथा कंठा । जेहिं वेतावचं कतं तेसिं पाएसु पडितुं 'इच्छामो वेतावच्चं' भणति । अणुय. तण त्ति दारं गतं । इदाणी चालण ति दारं-वेजस्स व० गाधा॥” इति चौँ । ____ "पउणम्मि य पच्छित्तं० गाहा कण्ठ्या । गिलाणस्स पडियरयस्स य पंचकोणगं दिज्जइ । बूढे पंचकल्ला. णए मंडलिं पविसंति । जेहिं वेयावचं कयं तसिं पादे मु पडि 'इच्छामो वेयावच्चं' भणइ ॥ अणुयत्तण ति दारं गयं । इदाणी चालण त्ति दारं, तत्थ गाहा-वेजस्व ० गाहा ॥” इति विशेषचौँ । ___ भा० पुस्तके टीका चूर्णी-विशेषचूर्ण्यनुसारिणीति चूर्णि-विशेषचूर्णीवत् तस्मिन् “अणुयत्तणा उ एसा.” इति १९७२ गाथा नास्ति ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १९७०-७५] प्रथम उद्देशः । आदेसन्तरेण वा दुण्ह वि पंचकल्लाणं ति ।। ततो व्यूढे प्रायश्चित्ते 'द्वावपि' ग्लान-प्रतिचरकवर्गौ भोजनादिमण्डली प्रविशतः ॥१९७१॥ अथोपसंहरन्नाह अणुयत्तणा उ एसा, दव्वे विजे य वनिया दुविहा । इत्तो चालणदारं, वुच्छं संकामणं चुभओ ॥ १९७२ ॥ ग्लानप्रायोग्यद्रव्यविषया वैद्यविषया चैषा द्विविधाऽनुवर्तना वर्णिता । इत ऊर्दू चालनाद्वारं सङ्क्रामणाद्वारं च 'उभयतः' ग्लानद्वयविषयं वक्ष्ये ॥ १९७२ ॥ विजस्स व दव्यस्स व, अहा इच्छंतें होइ उक्खेवो । पंथो य पुव्वदिट्ठो, आरक्खिओं पुव्वभणिओ उ॥ १९७३ ॥ वैद्यस्य वा 'द्रव्यस्य' औषधादिलक्षणस्य वा अर्थाय यदि ग्लान इच्छति ग्रामान्तरं गन्तुं तदा 10 तस्य 'उत्क्षेपः' चालना कर्त्तव्या । यदि रात्रौ गन्तव्यं भवति तदा पन्थाः पूर्वमेव दृष्टः कर्तव्यः । आरक्षिकश्च पूर्वमेव 'वयं रात्रौ ग्लानं गृहीत्वा गमिष्यामः, भवता चौरादिशझ्या न ग्रहीतव्याः' इति भणितः कर्तव्य इति ॥ १९७३ ॥ अथास्या एवं नियुक्तिगाथायाः पूर्वार्द्धं भावयति चउपाया तेगिच्छा, इह विजा नत्थि न वि य दव्वाइं। 15 अमुगत्थ अस्थि दोन्नि वि, जड़ इच्छसि तत्थ वच्चामो ॥ १९७४ ॥ क्वापि क्षेत्रे वैद्या औषधानि वा नै सन्ति ततो ग्लानं प्रतिचरका ब्रुवीरन्-चिकित्सा चतुप्पादा पूर्वोक्तनीत्या भवति', तत्रेह क्षेत्रे वैद्या न सन्ति नापि च 'द्रव्याणि' औषधादीनि अत्र सन्ति, अमुकत्र ग्रामे नगरे वा द्वे अपि विद्येते, अतो यदि त्वमिच्छसि ततस्तत्र व्रजाम इति ॥ १९७४ ॥ ग्लानः प्रतिभणति किं काहिइ मे विजो, भत्ताइ अकारयं इहं मज्झं । तुम्भे वि किलेसेमि य, अमुगत्थ महं हरह खिप्पं ॥ १९७५ ॥ आर्याः ! यदि नाम अत्र वैद्यो भवति ततः किं ममासौ करिष्यति ? 1 उपलक्षणमिदम् , तेन यद्यौषधान्यपि भवेयुस्तान्यपि मे किं करिप्यन्ति ? » यतो भक्तादिकमकारकं ममेह विद्यते, तस्मिंश्चाकारके युष्मानपि मुधैव परिक्लेशयामि । ( यत उक्तम्- 25 भेषजेन विना व्याधिः, पथ्यादेव निवर्तते । न तु पथ्यविहीनस्य, भेषजानां शतैरपि ॥ - ततो माममुकत्र ग्रामे नगरे वा क्षिप्रं 'हरत' नयत, येन मे तत्र भक्तादि कारकं स्यात् । एवंब्रुवाणोऽसौ ग्रामान्तरं प्रति चालयितव्यः ॥ १९७५ ॥ चालनायामेव कारणान्तरमाहसाणुप्पगभिक्खट्टा, खीणे दुद्धाइयाण वा अट्ठा। 30 १ एव पूर्वार्दू भा० कां० ॥ २ न भवेयुः ततो भा० ॥ ३°ति, परमिह क्षेत्रे मो० ले० विना ॥ ४° प्यति? । कुतः? इत्याह-भक्ता भा० ॥ ५॥ एतदन्तर्गतः पाठः मो• ले. पुस्तकयोरेव ॥ ६॥ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥ 20 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ अभितरेतरा पुण, गोरससिंभुदय - पित्तट्ठा ।। १९७६ ॥ नागरं ग्लानं सानुप्रगे - प्रत्यूषवेलायां लभ्यते या भिक्षा सा सानुप्रगभिक्षा तदर्थं ग्रामं नयन्ति । नगरे हि प्राय उत्सूरे भिक्षा लभ्यते, तावतीं च वेलां प्रतीक्षमाणस्य ग्लानस्य कालातिक्रान्तभोजित्वेन जाठराग्निमान्द्यमुपजायते, अतः सानुप्रेगे - सवारमेव भिक्षा यद्रामे लभ्यते तदर्थं ग्लानो B ग्रामं नीयते । नगरे वा दुग्धादीनि दुर्लभद्रव्याणि क्षीणानि अतस्तेषामर्थाय आभ्यन्तराः— नगरवास्तव्यसाधवो ग्लानमन्यत्र नयन्ति । 'इतरे पुनः' ग्रामीणग्लानप्रति चरका ग्लानस्य गोरसेन - उपलक्षणत्वादन्येन तादृशेन श्लेष्मजनकद्रव्येण सिम्भः - श्लेष्मा तस्योदयो जातः पित्तं वा क्षुभितमिति परिभाव्य तदुपशामकद्रव्याणामुत्पादनार्थं ग्लानं नगरं नयन्ति || १९७६ ॥ Do ५७६ 10 परिहीणं तं दव्वं, चमढिजंतं तु अन्नमनेहिं । कालाइकंतेण य, वाही परिवडिओ तस्स ।। १९७७ ॥ अन्यान्यग्लानसङ्घाटकैः स्थापनाकुलेषु चमढ्यमानं सत् परिक्षीणं 'तद् द्रव्यं' ग्लानप्रायोग्यम्, अथवा वैद्येन ग्लानस्योपदिष्टम् — सवारमेव भवता भोक्तव्यम्; तदानीं च नगरे न लभ्यते ततस्तेन कालातिक्रान्तेन तस्य व्याधिः सुष्ठुतरं परिवर्द्धितः ॥ १९७७ ॥ एवमादीनि कारणानि विज्ञाय ते परस्परं भणन्ति - 15 अथवा नागरग्लानचालनायामिदं कारणम् उक्खिप्पऊ गिलाणो, अन्नं गामं वयं तु नेहामो । नेऊण अन्नगामं, सव्वपयत्तेण कायव्वं ।। १९७८ ।। उत्क्षिप्यतां ग्लानः, यतस्तमन्यं ग्रामं वयं नेष्याम इत्येकवाक्यतया निश्चित्य सवारमेव तैर्नि - र्गन्तव्यम् । यतः प्रत्युषसि शीतलायां वेलायां नीयमानो ग्लानो न परिताप्यते । किञ्चप्रत्युषसि हता मार्गाः, परिहासहताः स्त्रियः । मन्दबीजं हतं क्षेत्रं, हतं सैन्यमनायकम् ॥ ततो नीत्वा ग्लानमन्यं ग्रामं सर्वप्रयत्नेन प्रतिचरणं कर्त्तव्यमिति ॥ १९७८ ॥ गतं चालनाद्वारम् । अथ सङ्क्रामणाद्वारमाह सो निजई गिलाण, अंतर सम्मेलणा य संछोभो । नेऊण अन्नगामं, सव्वपयत्तेण कायव्वं ।। १९७९ ॥ एवमुत्क्षिप्य यं ग्रामं 'सः' नागरग्लानो नीयते ततो ग्रामादन्यो ग्लानो नगरमानीयमानोऽस्ति तेषामुभयेषामपि साधूनाम् 'अन्तरा' अपान्तराले सम्मिलना भवति ततः परस्परं वन्दनं कृत्वा निराबाधं पृष्ट्वा ग्लानयोः 'संछोमं' सङ्क्रामणं कुर्वन्ति, नागरा ग्रामीणग्लानं गृह्णन्ति ग्रामीणास्तु नागरग्लानमित्युक्तं भवति । नीत्वा चान्यं ग्रामं सर्वप्रयत्नेन प्रतिचरणमुभयैरपि कर्त्तव्यम् 30 ॥ १९७९ ॥ किं पुनरभिधाय ते ग्लानसङ्क्रामणां कुर्वन्ति ? इति उच्यते--- जारिस दव्वे इच्छह, अम्हे मुत्तूण ते न लब्भहिह । 20 25 १ प्रगभिक्षार्थ ग्रामं नीयते भा० ॥ २एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥ ३ यां सुखेनैव मार्गो भूयानतिलङ्घयते । उक्तं च- प्रत्यु भा० ॥ ४ °यते ततस्तेषा भा० ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७७ भाष्यगाथाः १९७६-८५] प्रथम उद्देशः । इयरे वि भणंतेवं, नियत्तिमो नेह अतरते ॥ १९८० ॥ नागरा ग्रामेयकान् ब्रुवते—'यादृशानि' तिक्त-कटुकादीनि द्रव्याणि ग्लानार्थमिच्छत 'तानि' तादृशानि अस्मान् 'मुक्त्वा' विना न लप्स्यध्वे । 'इतरेऽपि' ग्रामेयका नागरान् एवं भणन्तियूयमस्माभिर्विना दुग्धादीनि न लप्स्यध्वे । ततस्ते द्वयेऽपि परस्परमभिदधति-यद्येवं ततो निवर्तामहे, यूयममुम् 'अतरन्तं' ग्लानं नयत, वयं युष्मदीयं नयाम इति ॥ १९८० ॥ 5 एवं सङ्क्रामणां कृत्वा तत्र च ग्रामे नगरे वा नीत्वा सर्वप्रयत्नेन प्रतिचरणा विधेया । न पुनर्निर्धर्मतयेत्थं चिन्तनीयं भणनीयं वा देवा हुणे पसन्ना, जं मुक्का तस्स णे कयंतस्स ।। सो हु अइतिक्खरोसो, अहिगं वावारणासीलो ॥ १९८१ ॥ तेणेव साइया मो, एयस्स वि जीवियम्मि संदेहो । 10 पउणो वि न एसऽम्हं, ते वि करिजा न व करिजा ॥ १९८२ ॥ _ 'हुः' अवधारणे, नूनं “णे” अस्माकं देवाः प्रसन्नाः यद् मुक्ता वयं तस्मात् कृतान्तात् , गाथायां पञ्चम्यर्थे षष्ठी । इह कृतान्तशब्देन कृतं-निष्पादितं बह्वपि कार्यमन्तं नयतीति व्युत्पत्त्या कृतघ्न उच्यते, यद्वा कृतान्तः-यमस्तत्तुल्यत्वादसावपि कृतान्तः । अत एवाह-स हि 'अतितीक्ष्णरोषः' पुनः पुना रोषणशीलो दीर्घरोषी वेत्यर्थः । 'अधिकम्' अत्यर्थ 'व्यापारणाशील:' 15 कृताकृतेषु कार्येषु भूयो भूयो नियुङ्क्ते । यद्वा तेनैव ग्लानेन 'सादिताः' खेदं प्रापिता वयमतोऽस्य कर्तुं न शक्नुमः । अथवा एतस्यापि जीविते सन्देहस्ततः किं निरर्थकमात्मानं परिक्लेशयामः ?, प्रगुणीभूतोऽपि चैष नास्माकं भविष्यति, तेऽप्यस्मदीयस्य कुर्युर्वा न वा, अतो वयमपि न कुर्महे । एवमादीनि ब्रुवाणानां तेषां निर्धर्माणामाचार्येण शिक्षा दातव्या न तूपेक्षा विधेया ॥१९८१॥ १९८२ ॥ यत आह 20 जो उ उवेहं कुजा, आयरिओ केणई पमादेणं । आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुत्वनिद्दिट्ठा ॥ १९८३ ॥ 'यस्तु' यः पुनराचार्यः केनापि प्रमादेन प्रमत्तः सन्नुपेक्षां कुर्यात् तस्यारोपणा पूर्वनिर्दिष्टा कर्तव्या, चत्वारो गुरव इत्यर्थः ॥ १९८३ ॥ अथवेयमारोपणा उवेहऽप्पत्तिय परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए। चत्तारि छ च लहु-गुरु, छैओ मूलं तह दुगं च ॥ १९८४ ॥ यो ग्लानस्योपेक्षां करोति तस्य चत्वारो गुरुकाः । उपेक्षायां कृतायां यद्यप्रीतिकं ग्लानस्य जायते ततोऽपि चत्वारो गुरवः । अनागाढपरितापे चतुर्लघु । आगाढपरितापे चतुर्गुरु । महादुःखे षड्लघु । मूर्छायां षड्गुरु । कृच्छ्प्राणे च्छेदः । कृच्छोच्छ्वासे मूलम् । समवहतेऽनवस्थाप्यम् । कालगते पाराञ्चिकम् ॥ १९८४ ॥ उवेहोभासण परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए । चत्तारि छ च लहु-गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च ॥ १९८५ ॥ उपेक्षायां स ग्लानः स्वयमेव गत्वा गृहस्थानवभाषते चत्वारो लघवः । तस्य तत्र गच्छतः 30 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ शीत-वाता-ऽऽतपैः परिश्रमेण वाऽनागाढपरितापनादीनि जायन्ते ततः प्रायश्चित्तमनन्तरगाथोक्त नीत्या द्रष्टव्यम् || १९८५ ॥ 5 उवेहोभासण ठेवणे, परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए । चचारि छच्च लहु-गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ १९८६ ।। उपेक्षायां ग्लानो भक्त-पानमौषधं वा अवभाषणेनोत्पाद्य स्थापयति न शक्नोम्यहं दिने दिने पर्यटितुं ततश्चत्वारो गुरवः । तेन परिवासितेन शीतलत्वाद् अनागाढपरितापनादीन्युपजायन्ते प्रायश्चित्तयोजना प्राग्वत् ॥ १९८६ ॥ 10 15 20 ५७८ उवेोभासण करणे, परितावण महय मुच्छ किच्छ कालगए । चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥। १९८७ ॥ उपेक्षायां कृतायां यदि ग्लानोऽवभाप्य स्वयमेवौषधादिकं करोति गृहस्थैर्वा कारयति तदा चत्वारो गुरवः । स्वयंकुर्वतश्चिकित्साद्यनभिज्ञैर्गृहस्थैर्वा चिकित्सां कारयतोऽनागाढपरितापादीनि भवन्ति । शेषं प्राग्वत् ॥ १९८७ ॥ 1 antra ओहाणे, सलिंगपडिसेवणं निवारिते । गुरुगा अनिवारिते, चरिमं मूलं च जं जत्थ ।। १९८८ ॥ अप्रतिजागरितो ग्लानो यदि निर्वेदेन वैहायसं मरणमभ्युपगच्छति ततस्तेषामप्रतिजागरatri 'चरमं' पाराञ्चिकम् । अथ ' अवधावनम्' उत्पत्रजनं करोति ततो मूलम् । खलिङ्गस्थितो यद्यकल्प्यप्रतिसेवनां करोति ततश्चतुर्गुरुकाः । यदि तं तथा प्रतिसेवमानं निवारयति तदापि चतुर्गुरुकाः । अथ न निवारयति ततो यद् यत्र अप्राशुकेऽनेषणीये वा गृह्यमाणे प्रायश्चित्तं तत् तत्र प्राप्नोति ॥ १९८८ ॥ अथ निर्द्धर्मा येषु स्थानेषु ग्लानं त्यजेत् तान्याह - संविग्गा गीयत्था संविग्गा खलु तहेव गीयत्था । संविग्गमसंविग्गा, नवरं पुण ते अगीयत्था ।। १९८९ ।। संविग्ग संजईओ, गीयत्था खलु तहेवऽगीयत्था । गीयत्थ अगीयत्था, नवरं पुण ता असंविग्गा || १९९० ॥ संयताश्चतुर्द्धा, तद्यथा— संविग्ना गीतार्थाः १ असंविग्ना गीतार्थाः २ संविद्मा अगीतार्थाः ३ 25 असंविग्ना अगीतार्थाश्व ४ इति । संयत्योऽपि चतुर्विधाः, तद्यथा - संविग्ना गीतार्थाः १ संविग्ना अगीतार्थाः २ असंविमा गीतार्थाः ३ असंविद्मा अगीतार्थाः ४ || १९८९ || १९९० ॥ एतेष्वष्टसु स्थानेषु ग्लानं परित्यजतः प्रायश्चित्तमाह चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंति लहुग गुरुगा य । छेदो मूलं च तहा, अणवटुप्पो य पारंची ॥। १९९१ ॥ 30 प्रथमे स्थाने ग्लानं परित्यजति चत्वारो लघुकाः । द्वितीये चत्वारो गुरुकाः । तृतीये षण्मासा लघवः । चतुर्थे षण्मासा गुरवः । पञ्चमे च्छेदः । षष्ठे मूलम् । सप्तमेऽनवस्थाप्यः । अष्टमे पाराविको भवति ॥। १९९१ ॥ यदि वा १ एतदम्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः १९८६-९८] प्रथम उद्देशः । मंविग्ग नीयवासी, कुसील ओसन्न तह य पासत्था । संसत्ता विंटाया, अहछंदा चेव अट्ठमगा ॥ १९९२ ॥ संविमाः १ नित्यवासिनः २ कुशीलाः ३ अवसन्नाः ४ पार्श्वस्थाः ५ संसक्ताः ६ वेण्ठकाः ७ यथाच्छन्दाश्चैवाष्टमाः ८ ॥ १९९२ ॥ एतेषु परित्यजतो यथासङ्ख्यमिदं प्रायश्चित्तम् चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगा य। 5 छेदो मूलं च तहा, अणवटुप्पो य पारंची ॥ १९९३ ।। चत्वारो लघुकाः १ चत्वारो गुरुकाः २ षण्मासा लघुकाः ३ षण्मासा गुरुकाः ४ छेदः ५ मूलं च तथा ६ अनवस्थाप्यश्च ७ पाराञ्चिकः ८॥ १९९३ ॥ अथवा संविग्गा सिजातर, सावग तह दंसणे अहाभद्दे । दाणे सड्डी परतित्थिगे य परतित्थिगी चेव ॥ १९९४ ॥ 10 'संविमाः' प्रतीताः १ 'शय्यातरः' प्रतिश्रयदाता २ 'श्रावकः' गृहीताणुव्रतः ३ दर्शनसम्पन्नः-अविरतसम्यग्दृष्टिः ४ 'यथाभद्रकः' शासनबहुमानवान् ५ 'दानश्राद्धिकः' दानरुचिः ६ 'परतीर्थिकः' शाक्यादिपुरुषः ७ 'परतीर्थिकी' शाक्यादिपाषण्डिनी ८ ॥१९९४ ॥ एतेषु परित्यजतो यथाक्रममिदं प्रायश्चित्तम् - चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगा य । 10 छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची ॥ १९९५ ॥ उक्तार्था ॥ १९९५ ॥ अथ क्षेत्रतः प्रायश्चित्तमाह उवस्सय निवेसण साही, गाममज्झे य गामदारे य । उजाणे सीमाए, सीममइक्कामइत्ताणं ॥ १९९६ ॥ चउरो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंति लहुग गुरुगा य । 20 छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची ॥ १९९७ ॥ क्षेत्रान्तर सङ्क्रामन्नुपाश्रये ग्लानं परित्यज्य यदि गच्छति तदा चत्वारो लघुकाः । उपाश्रयानिष्काश्य निवेशनं यावदानीय परिहरति चत्वारो गुरुकाः । साहिकायां षण्मासा लघवः । ग्राममध्ये षण्मासा गुरवः । ग्रामद्वारे च्छेदः । उद्याने मूलम् । ग्रामसीमनि परिष्ठापयति अनवस्थाप्यम् । स्वग्रामसीमानमतिकाम्य परित्यजन् पाराञ्चिक इति । यत एवमतो न परित्यजनीयः 25 ॥ १९९६ ॥ १९९७ ॥ कियन्तं पुनः कालमवश्यं प्रतिचरणीयः ? उच्यते छम्मासे आयरिओ, गिलाण परियट्टई पयत्तेणं ।। जाहे न संथरेजा, कुलस्स उ निवेदणं कुजा ॥ १९९८ ॥ येन स ग्लानः प्रत्राजितो यस्य वा उपसम्पदं प्रतिपन्नः स आचार्यः सूत्रार्थपौरुषीप्रदानमपि परिहृत्य प्रयत्नेन षण्मासान् ग्लानं 'परिवर्तयति' प्रतिचरति । यदा षट्खपि मासेषु पूर्णेषु स ग्लानः 30 'न संस्तरेत्' न प्रगुणीभवेत् , यद्वा आचार्य एव स्वयमन्याभिर्गणचिन्ताभिर्न संस्तरेत् ततः 'कुलस्य निवेदनं कुर्यात्' कुलसमवायं कृत्वा तस्य समर्पयेदित्यर्थः ॥ १९९८ ॥ ततः संवच्छराणि तिनि य, कुलं पि परियई पयत्तेणं । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ५८० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ? जाहे न संथरिजा, गणस्स उ निवेदणं कुजा ॥ १९९९ ॥ त्रीन् संवत्सरान् कुलमपि प्रायोग्यभक्त-पानौषधादिभिः प्रयत्नेन परिवर्त्तयति । ततस्त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु यदा न संस्तरेत् तदा गणस्य निवेदनं कुर्यात् ॥ १९९९ ॥ ततः संवच्छरं गणो वी, गिलाण परियट्टई पयत्तेणं । जाहे न संथरिज़ा, संघस्स निवेयणं कुजा ॥ २००० ॥ एकं संवत्सरं यावद् गणोऽपि ग्लानं महता प्रयत्नेन परिवर्तयति । ततो यदा न संस्तरेत् ततः सङ्घस्य निवेदनं कुर्यात् । ततः सङ्घो यावज्जीवं तं सर्वप्रयत्नेन परिवर्तयति ॥ २००० ।। गाथात्रयोक्तमर्थमेकगाथया संगृह्य प्रतिपादयति छम्मासे आयरिओ, कुलं तु संवच्छराइँ तिन्नि भवे । संवच्छरं गणो वी, जावजीवाय संघो उ ॥ २००१॥ व्याख्यातार्था ॥ २००१॥ एतच्च यो भक्तविवेकं कर्तुं न शक्नोति तमुद्दिश्य द्रष्टव्यम् । यस्तु भक्तविवेकं कर्तुं शक्नोति तेनाष्टादश मासान् यावत् प्रथमतश्चिकित्सा कारयितव्या, विरतिसहितस्य जीवितस्य पुनः संसारे दुरापत्वात् । ततः परं यदि न प्रगुणीभवति ततो भक्तविवेकः कर्त्तव्य इति । आगाढे कारण15 जाते सञ्जाते सति ग्लानस्य वैयावृत्त्यं न कुर्यादपि परित्यजेद् वा ग्लानम् । किं पुनस्तत् कारणजातम् ? इति उच्यते असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भये व गेलन्ने । [द.नि.७३] एएहि कारणेहिं, अहवा वि कुले गणे संघे ॥ २००२॥ अशिवे समुत्पन्ने सति ग्लानं परित्यजेद् न च प्रायश्चित्तमाप्नुयात् । एवम् । अवमौदर्ये 20 राजद्विष्टे 'भये वा' शरीरस्तेनसमुत्थे "गेलने" त्ति सर्वो वा गच्छो ग्लानीभूत इत्यतः कस्य कः प्रतिचरणं करोतु ? एतैः कारणैः, अथवा कुलस्य गणस्य सङ्घस्य वा समर्पिते ग्लाने खयमकुर्वन्नपि शुद्धः । परित्यजने त्वियं यतना-अशिवे समुत्पन्ने देशान्तरं सङ्क्रामन् ग्लानमन्येषां प्रतिबन्धस्थितानां साधूनामर्पयति, तेषामभावे शय्यातरादीनां समीपे साधर्मिकस्थलीषु वा देव कुलिकेषु वा निक्षिपन्ति । एवमवमौदर्ये भये च द्रष्टव्यम् । राजद्विष्टे योकस्य गच्छस्य 25 प्रद्वेषमापन्नो राजा ततोऽन्येषां साधूनां समर्पयन्ति, अथ सर्वेषामपि प्रद्विष्टस्ततः श्रावकादिषु निक्षिप्य व्रजन्ति । उत्सर्गतः पुनरेतैरपि कारणैर्न निक्षिपन्ति किन्तु स्कन्धे न्यस्य वहन्तीति ॥२००२ ॥ आह च एएहिं कारणेहि, तह वि वहंती न चेव छड्डिंति । असहू वा उवगरणं, छडिंति न चेव उ गिलाणं ॥ २००३ ॥ 30 एतैः कारणैर्यद्यपि ग्लानो निक्षेप्तुं कल्पते तथापि वहन्ति नैव परित्यज्यन्ति । अथ 'असहिष्णवः' वोढुमसमर्थाः तत उपकरणं परित्यजन्ति नैव ग्लानम् ॥ २००३ ॥ अहवा वि सो भणेजा, छड्डेउ ममं तु गच्छहा तुन्भे। १ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥ २ °नरेतेष्वपि कारणेषु न नि° भा० ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८१ भाष्यगाथाः १९९९-२००९] प्रथम उद्देशः । होउ त्ति भणिय गुरुगा, इणमन्ना आवई बिइया ॥२००४॥ अथवा स ग्लानो भणेत्-मां 'छर्दयित्वा' परित्यज्य यूयं गच्छत । एवमुक्त यदि कोऽपि साधु: 'भवत्वेवम्' इति भणति तदा तस्य चत्वारो गुरुकाः । 'इयं' वक्ष्यमाणलक्षणा प्रकारान्तरेण 'अन्या' द्वितीया आपदुच्यते ॥ २००४ ॥ तामेवाह पच्चंतमिलक्खेसुं, बोहियतेणेसु वा वि पडिएसु। जणवय-देसविणासे, नगरविणासे य घोरम्मि ॥ २००५ ॥ बंधुजणविप्पओगे, अमायपुत्ते वि वट्टमाणम्मि । तह वि गिलाण सुविहिया, वचंति वहंतगा साहू ॥ २००६॥ प्रत्यन्ताः-प्रत्यन्तदेशवासिनो ये म्लेच्छास्तेषु तथा बोधिकस्तेना नाम-ये मानुषाणि हरन्ति तेषु वा पतितेषु सत्सु यो जनपैदस्य-मगधादेः देशस्य वा-तदेकदेशभूतस्य विनाशः-विध्वंसस्त-10 स्मिन् , तथा नगरविनाशे च 'घोरे' रौद्रे उपस्थिते, बन्धुजनानां-खज्ञातिलोकानां मरणभयातिरेकात् पलायमानानां यः परस्परं विप्रयोगस्तस्मिन् , कथम्भूते ? 'अमातापुत्रे' स्वखजीवितरक्षणाक्षणिकतया यत्र माता पुत्रं न स्मरति पुत्रोऽपि मातरं न स्मरति तदमातापुत्रम् "मयूरव्यंसकेत्यादयः” [ सिद्ध० ३-१-११६ ] इति समासः तस्मिन्नपि वर्तमाने ये 'सुविहिताः' शोभनविहितानुष्ठानास्ते तथापि ग्लानं वहन्तो व्रजन्ति न पुनः परित्यजन्ति ॥ २००५॥२००६॥ 15 ततोऽसौ ग्लानः प्राह तारेह ताव भंते !, अप्पाणं किं मएल्लयं वहह । एगालंबणदोसेण मा हु सव्वे विणस्सिहिह । २००७॥ तारयत ताव भ॑दन्त ! यूयमात्मानमस्मादपारादापत्पारावारात् , किं मां मृतमिव मृतम्-अद्यश्वीनमृत्युसम्भवतया शबप्रायं वहत ? । अपि च 'एकालम्बनदोषेण मदीयमेव यदेकमालम्बनं तदेव 20 बहूनां विनाशकारणतया दोषस्तेन मा यूयं सर्वे विनङ्ख्यथ ॥ २००७ ॥ एवं च भणियमेत्ते, आयरिया नाण-चरणसंपन्ना । अचवलमणलिय हितयं, संताणकार वइमुदासी ॥ २००८ ॥ एवं च ग्लानेन भणितमात्रे सति आचार्याः 'ज्ञान-चरणसम्पन्नाः' संविग्नगीतार्थ इति भावः 'अचपलाम्' अत्वरितां त्वराकारणस्य मरणभयस्याभावात् 'अनलीकां' सत्यां सद्भावसारत्वात् 25 'हिताम्' अनुकूलां परिणामसुन्दरत्वात् 'सन्त्राणकरीं' आर्त्तजनपरित्राणकारिणीं वाचमुदाहृतवन्तः ॥२००८ ॥ कथम् ? इत्याह सव्वजगजीवहियं, साहुं न जहामों एस धम्मो थे । जति य जहामो साहुं, जीवियमित्तेण किं अम्हं ॥ २००९ ॥ सर्वस्मिन् जगति ये जीवाः-त्रस-स्थावरभेदभिन्नास्तेषामभयदायकतया हितं सर्वजगज्जीव-30 १°माणा 'अन्या' भा० ॥ २°पदः-मगधादिः देशः-तद्वयवस्तयोः विना भा० ॥ ३ भगवन्तः! आत्मानमस्सादापदर्णवात् , किं भा० ॥ ४ सत्राणं-परित्राणं रक्षणमित्येको. ऽर्थः तत्करी-तत्कारिणी वाच° भा० ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ हितं साधु 'न प्रजहिमः' न परित्यजामः, एषोऽस्माकं 'धर्मः' समाचारः । यदि च साधु प्रजहीमस्ततः किमस्माकं 'जीवितमात्रेण' सदाचारजीवितविकलेन बहिःप्राणधारणमात्रेण प्रयोजनम् ? न किञ्चिदित्यर्थः ॥ २००९ ॥ तं वयणं हिय मधुरं, आसासंकुरसमुब्भवं सयणो। समणवरगंधहत्थी, वेइ गिलाणं परिवहंतो ॥ २०१० ॥ 'तद् एवंविधं वचनं 'हितं' परिणामपथ्यं मधुरं' श्रोत्र-मनसां प्रल्हादकं तथाऽऽश्वास एवाङ्करः-प्ररोहस्तस्य समुद्भवः-उत्पत्तिर्यस्मात् तद् आश्वासाङ्करसमुद्भवम् , ग्लानस्याश्वासप्ररोहबीजमिति भावः, स्वजन इव स्वजनः स आचार्य: 'श्रमणवरगन्धहस्ती' यथा हि गन्धहस्ती गज कलभानां यूथाधिपत्यपदमुद्रहमानो गिरिकन्दरादिविषमदुर्गेप्वपि पतितो न तत्परित्यागं करोति, 10 एवमयमपि गणधरपदमनुपालयन् विषमदशायामपि श्रमणवरान्न परित्यजतीति श्रमणवरगन्धहस्तीत्युच्यते, स ग्लानं 'परिवहन्' परिवर्तयन्नेवमनन्तरोक्तं ब्रवीति ।। २०१०॥ तत इत्थं तदीयवचनं श्रुत्वा समीपवर्तिनामगारिणामित्थं स्थिरीकरणमुपजायते जइ संजमो जइ तवो, दढमित्तित्तं जहुत्तकारित्तं । जइ बंभं जइ सोयं, एएसु परं न अन्नेसुं । २०११ ॥ 15 यदि 'संयमः' पञ्चाश्रवविरमणादिरूपो यदि 'तपः' अनशनादिरूपं 'दृढमैत्रीकत्वं' निश्चल सौहृदं 'यथोक्तकारित्वं' भगवदाज्ञाराधकत्वं यदि 'ब्रह्म' अष्टादशभेदभिन्नं ब्रह्मचर्य यदि 'शौचं' निरुपलेपता सद्भावसारता वा, एतानि यदि परमेतेष्वेव साधुपु प्राप्यन्ते 'नान्येषु' शाक्यादिपरतीर्थिकेषु, तेषामेवंविधस्य ग्लानप्रतिचरणविधेरभावात् ॥ २०११ ॥ इत्थं तावद् विषमायामपि दशायां ग्लानो न परित्यक्तव्य इत्युक्तम् । अथात्यन्तिके भये 20 तमपरित्यजतां यदि सर्वेषामपि विनाश उपढौकते ततः को विधिः ? इत्याह अचागाढे व सिया, निक्खित्तो जइ वि होज जयणाए। तह विउ दोण्ह वि धम्मो, रिजुभावविचारिणो जेणं ॥ २०१२॥ 'अत्यागाढे' प्रत्यन्तम्लेच्छादिभये, वाशब्दः पातनायाम् , सा च प्रागेव कृता, 'स्यात्' कदाचिद् यतनया निष्प्रत्यपाये प्रदेशे यद्यप्यसौ ग्लानो निक्षिप्तो भवेत् तथापि 'द्वयोरपि' 25 ग्लान-प्रतिचरकवर्गयोः 'धर्मः' "सर्व वाक्यं सावधारणं भवति" इति न्यायाद् धर्म एव मन्तव्यः। कुतः ? इत्याह—'येन' कारणेन द्वावपि तौ ऋजुः-अकुटिलो मोक्षं प्रति प्रगुणो यो भावःपरिणामस्तत्र विचरितुं शीलमनयोरिति ऋजुभावविचारिणौ, २ अंशठपरिणामयुक्ताविति भावः ॥ २०१२ ॥ ततश्च पत्तो जसो य विउलो, मिच्छत्त विराहणा य परिहरिया । 30 साहम्मियवच्छल्लं, उवसंते तं विमग्गंति ॥ २०१३ ॥ तैराचार्यः साधुभिश्च तादृशेऽपि भये सहसैव ग्लानमपरित्यजद्भिः 'विपुलं' दिग्विदिक्प्रचारि यशः प्राप्तम् । गाथायां पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , एवमन्यत्रापि यथायोगं लिङ्गव्यत्ययो मन्तव्यः । १-२२एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८३ भाप्यगाथाः २०१०-१६] प्रथम उद्देशः । तथा 'मिथ्यात्वं' तत्परित्यागसमुत्थमन्येषी गृहस्थानां ग्लानस्य वा मिथ्यादर्शनगमनं तत् परिहृतं भवति । विराधना च ग्लानस्य सहायविरहितस्य संयमा-ऽऽत्मविषया सा च परिहृता । साधर्मिकवात्सल्यं चानुपालितं भवति । यदा च तदत्यागाढं भयमुपशान्तं भवति तदा 'त' ग्लानं 'विमार्गयन्ति' शोधयन्तीत्यर्थः ॥ २०१३ ॥ गतं ग्लानद्वारम् । अथ गच्छप्रतिबद्धयथालन्दिकद्वारमाह पडिबद्धे को दोसो, आगमणेगाणियस्स वासासु । __ मुय-संघयणादीओ, मो चेव गमो निरवसेसो ॥ २०१४ ॥ प्रतिवन्धनं प्रतिबद्धं गच्छप्रतिवद्ध इत्यर्थः तत्र कारणं यथालन्दिकानां वक्तव्यम् । “को दोसो" त्ति को नाम दोषो भवति यत् ते यथालन्दिका आचार्याधिष्ठिते क्षेत्रे न तिष्ठन्ति ? । "आगमणेगाणियम्स" ति यद्याचार्याः वयं क्षेत्रबहिर्गन्तुं न शक्नुवन्ति तत एकाकिनो यथाल-10 न्दिकस्यागमनं - गुरूणां समीपे । भवति । “वासासु" ति वर्षासु उपयोगं दत्त्वा यदि जानाति वर्ष न पतिष्यति तत आगच्छति र यथालन्दिको गुरुसमीपे, » अन्यथा तु नेति । श्रुत-संहननादिकस्तु गमः स एव निरवशेषो वक्तव्यः यो जिनकल्पिकानाम् , यस्तु विशेषः स प्रागेवोक्तः ।। २०१४ ॥ अथ प्रतिबद्धपदं व्याख्याति सुत्तत्थ सावसेसे, पडिबंधो तेसिमो भवे कप्पो। आयरिए किकम्मं, अंतर बहिया व वसहीए ॥ २०१५॥ सूत्रस्यार्थस्तैर्गृहीतः परमद्यापि 'सावशेषः' न सम्पूर्णः एष तेषां गच्छविषयः प्रतिवन्धो द्रष्टव्यः । तेषां च 'अयं' वक्ष्यमाणः कल्पः, यथा-आचार्यस्यैव 'कृतिकर्म' वन्दनकं तैर्दातव्यं नान्येषां साधूनाम् । तथा यद्याचार्यों न शक्नोति गन्तुं ततोऽन्तरा वा ग्रामस्य बहिर्वा वसतौ यथालन्दिकस्य वाचनां ददाति । एतदुत्तरत्र भावयिष्यते ॥ २०१५॥ अथ को दोष इति 20 द्वारम् । शिष्यः पृच्छति—यद्याचार्याधिष्ठिते क्षेत्रे ते तिष्ठेयुस्ततः को दोषः स्यात् ! उच्यते नमणं पुव्वब्भासा, अणमणे दुस्सील थप्पगासंका । आयट्ट कुक्कुड ति य, वातो लोगे ठिई चेव ॥ २०१६ ॥ __यथालन्दिकानां न वर्तते आचार्य मुक्त्वा अन्यस्य साघोः प्रणामं कर्तुम् , तथाकल्पत्वात् । ततस्ते क्षेत्रान्तस्तिष्ठन्तः पूर्वाभ्यासाद् 'नमनं' प्रणाम साधूनां कुर्युः । गच्छवासिनश्च यथाल-25 न्दिकान् वन्दन्ते, ते पुनर्यथालन्दिकास्तान् भूयो न प्रतिवन्दन्ते, ततस्तेषामनमने लोको ब्रूया. त्-'दुःशीलाः' शैलस्तम्भकल्पा अमी, येनान्येषामित्यं वन्दमानानामपि न प्रतिवन्दनं प्रयच्छन्ति, न वा कमप्यालापं कुर्वन्ति । गच्छवासिषु वा लोकस्य स्थाप्यकाशका भवति, अवश्यं स्थाप्याः-दुःशीलत्वादवन्दनीयाः कृता अमी, अन्यथा कथं न प्रतिवन्यन्ते , आत्मार्थिका वा अमी येनाप्रतिवन्दमानानपि वन्दन्ते, 'कौत्कुटिका वा' मातृस्थानकारिणोऽमी लोकपक्तिनिमि- 30 चमित्थं वन्दन्ते । एवं लोके वाद उपजायते । एतैः कारणैः क्षेत्रबहिस्ते यथालन्दिकाखिष्ठन्ति । अपि च 'स्थितिरेव' कल्प एवायममीषाम् , यत् क्षेत्राभ्यन्तरे न तिष्ठन्ति ॥२०१६ ॥ . १°षां तस्य वा मिथ्या मो• ले• विना ॥२-३ - एतदन्तर्गतः पाठः मो• • पुखम्योरेन । - Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ५८४ अथामीषामेव कल्पमाह दोनिवि दाउं गमणं, धारणकुसलस्स खेत्तबहि देह | किइकम्म चोलपट्टे, ओवग्गहिया निसिजा य || २०१७ ॥ आचार्यः सूत्रार्थ पौरुष्यौ द्वे अपि गच्छ्वासिनां दत्त्वा यथालन्दिकानां समीपे गमनं करोति । 5 गत्वा च तत्र तेषामर्थं कथयति । अथाचार्यो न शक्नोति तत्र गन्तुं ततो यस्तेषां यथालन्दिकानां मध्ये धारणाकुशल:- अवधारणाशक्तिमान् स क्षेत्रवहिरन्तरा पल्लिकायाः प्रत्यासन्ने भूभागे समायाति, तत्र च गत्वा आचार्यस्तस्यार्थं ददाति । स च श्रुतभक्तिहेतोराचार्याणां 'कृतिकर्म' वन्दनकं दत्त्वा चोलपट्टकद्वितीय औपग्रहिक्यां निषद्यायामुपविष्टश्चार्थं शृणोति ॥ २०१७ ॥ अथ "दोन वि दारं गमणं" इत्यपवदन्नाह - अत्थं दो व अदाएं, वच्चइ वायावर व अनेणं । एवं ता उडुबद्धे, वासासु य काउमुवओगं || २०१८ ॥ यद्याचार्यो द्वे अपि पौरुष्यौ दत्त्वा गन्तुं न शक्नोति ततोऽर्थमदत्त्वा, तथाप्यशक्तौ 'द्वावपि ' सूत्रार्थावदत्त्वा व्रजति, अन्येन वा शिष्येण स्वशिष्यान् 'वाचयति' वाचनां दापयति । अथाचार्यस्तत्र गन्तुमशक्तस्ततो यथालन्दिक एकः सूरिसमीपमायाति । एवं तावद् ऋतुबद्धे द्रष्ट16 व्यम् । वर्षासु चशब्दः पुनरर्थे वर्षासु पुनरयं विशेषः -- ' उपयोगं कृत्वा ' 'किं वर्षं पतिष्यति न वा ?' इति विमृश्य यदि जानाति पतिष्यति ततो नाचार्याणां समीपमायाति, 1 अंथ जानाति न पतिष्यति ततः समायाति || २०१८ || अथ गुरवस्तत्र गताः कथं समुद्दिशन्ति : इत्याहसंघाडो मग्गेणं, भत्तं पाणं च नेइ उ गुरूणं । रावा, तो अंतरपल्लिए एइ ॥। २०१९ ॥ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ 25 20 'गुरूणां ' यथालन्दिकसमीपमुपगतानां योग्यं भक्तं पानं च गृहीत्वा सङ्घाटक : 'मार्गेण ' पृष्ठतो गत्वा तत्र नयति । अथ यावता कालेन यथालन्दिकानामुपाश्रयं गुरवो व्रजन्ति तावता ' अत्युष्णम्' अतीवातपश्चटति 'स्थविरा वा' वार्द्धकवयः प्राप्तास्ते आचार्यास्ततोऽन्तर पल्लिकायामेको यथालन्दिको धारणासम्पन्नः समायाति । तत्र गुरवोऽपि गत्वा तस्य वाचनां दत्त्वा सङ्घाटकेनानीतं भक्त - पानं समुद्दिश्य सन्ध्यासमये मूलक्षेत्रमायान्ति ॥ २०१९ ॥ अथान्तरपल्लिमपि गन्तुमसमर्था गुरवस्ततः किम् ? इत्याह अंतर पडिवसभे वा, बिइयंतर बाहि वसभगामस्स । अन्नवसहीऍ तीए, अपरीभोगम्मि वाएइ || २०२० ॥ अन्तरपल्लिका-प्रतिवृषभग्रामयोः 'अन्तरा' अपान्तराले गत्वा यथालन्दिकं वाचयति । तत्र गन्तुमशक्तौ प्रतिवृषभश्रामे । अथ तत्रापि गन्तुं न शक्नोति ततः " बिइयंतर " चि द्वितीयं30 प्रतिवृषभ-मूलक्षेत्रयोरपान्तराललक्षणं यदन्तरं तत्र गत्वा वाचनां प्रयच्छति । तत्रापि गमनाशक्तौ 'वृषभग्रामस्य' मूलक्षेत्रस्य बहिर्विजने प्रदेशे गत्वा वाचयति । यदि तत्रापि गन्तुं न प्रभविष्णुस्ततो मूलक्षेत्र एवान्यस्यां वसतौ । तत्रापि गन्तुमशक्तौ तस्यामेव मूलवसतावपरिभो - १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० पुस्तक एव वर्तते ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २०१७-२५] प्रथम उद्देशः । ५८५ ग्येऽवकाशे वाचयति ॥ २०२० ॥ तत्र चेयं सामाचारी तस्स जई किइकम्मं, करिति सो पुण न तेसि पकरेइ । जा पढइ ताव गुरुणो, करेइ न करेइ उ परेणं ॥ २०२१ ॥ 'तस्य' यथालन्दिकस्य 'यतयः' गच्छवासिनः साधवः कृतिकर्म कुर्वन्ति, ‘स पुनः' यथालन्दिकः 'तेषां' गच्छवासिनां पर्यायज्येष्ठानामपि कृतिकर्म न करोति । यावच्च ‘पठति' अर्थशे-5 पमधीते गुरोरपि तावदेव करोति, परतस्तु न करोति, तथाकल्पत्वात् ॥ २०२१ ॥ अमीषामेव मासकल्पविधिमाह___एको वा सवियारो, हवंतऽहालंदियाण छ ग्गामा। मासो विभजमाणो, पणगेण उ निहिओ होइ ॥ २०२२ ॥ यदि गुर्वधिष्ठितमूलक्षेत्रस्य बहिरेको ग्रामः 'सविचारः' सविस्तरो वर्तते। स ईह विचारशब्देन 10 विस्तार उच्यते, ततः सह विचारेण वर्त्तते यः स सविचारो विस्तीर्ण इत्यर्थः ।। __ आह च चूर्णिकृत्-सवियारो त्ति वित्थिन्नो । ततस्तस्मिन् ग्रामे षड् वीथीः परिकल्प्य यथालन्दिका एकैकस्यां वीथ्यां पञ्च पञ्च दिवसान् भिक्षामटन्ति, तस्यामेव च वीथ्यां वसतिमपि गृह्णन्ति । एवं प्रतिवीथ्यां "पणगेण" रात्रिन्दिवपञ्चकेन मासो विभज्यमानः सन् षभिरहोरात्रपञ्चकैः निष्ठितः' सम्पूर्णो भवति । अथ नास्ति 15 विस्तीर्णो ग्रामस्ततः "हवंतऽहालंदियाण छ ग्गामा" इति मूलक्षेत्रपार्थतो ये लघुतराः षड् ग्रामा भवन्ति तेषु प्रत्येकं पञ्च पञ्च दिवसान् पर्यटतां यथालन्दिकानां तथैव षभिरहोरात्रपञ्चकैर्मासः परिपूर्णो भवतीति ॥ २०२२ ॥ गतं गच्छप्रतिबद्धयथालन्दिकद्वारम् । अथोपरि दोषा अपवादश्चेति द्वारद्वयमाह मासस्सुवरिं वसती, पायच्छित्तं च होंति दोसा य। बिइयपदं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए ॥ २०२३ ॥ मासस्य उपलक्षणत्वात् चतुर्णों वा मासानामुपरि यदि वसति तदा प्रायश्चित्तं दोषाश्च भवन्ति । द्वितीयपदं च 'ग्लाने' ग्लानार्थम् उपलक्षणत्वादशिवादिभिश्च कारणैर्मासस्योर्द्धमप्यवस्थानलक्षणं भवति । तत्र च वसतिभैक्षं च यतनया ग्रहीतव्यम् ॥ २०२३ ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवरीषुः प्रायश्चित्तापत्तिस्थानानि तावदाह परिसाडिमपरिसाडी, संथाराऽऽहार दुविह उवहिम्मि । डगलग-सरक्ख-मल्लग-मत्तगमादीण पच्छित्तं ॥ २०२४ ॥ ओवासे संथारे, वीयारुच्चार वसहि गामे य । मास-चउम्मासाधिगवसमाणे होइमा सोही ॥ २०२५ ॥ संस्तारको द्विधा-परिशाटी अपरिशाटी चें। परिशाटी-तृणमयः स परिशटति-उत्पाठ्य-30 4 एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले. पुस्तकयोरेव ॥ २ मो० ले. विनाऽन्यत्र-अथैनामेव विवरीषुः त. डे. का० । अथैतदापत्तिस्थानानि प्रतिपादयति-परि भा० ॥ ३ मो० ले. विनाsन्यत्र-च । यस्य परिभुज्यमानस्य किश्चित् तदन्तर्गतं तृणादि परिशटति स परिशाटीतृणमयः संस्तारकः, तद्विप° भा० ॥ ४॥ एतदन्तर्गतः पाठः त• डे• कां• नास्ति.॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् १ मानः सन्नवश्यं विशीर्यते इति व्युत्पत्तेः, तद्विपरीतो - अपरिशाटी फलकादिरूपः । एवं द्विविधमपि संस्तारकं यत्र मासकल्पं वर्षावासं वा कृतवान् तत्रैव ग्रामादौ गृह्णतः । एवमाहारमपि तेष्वेव कुलेषु गृह्णतः । औघिकौपग्रहिकभेदाद् द्विविधो य उपधिस्तस्मिँश्च तत्रैव गृह्यमाणे । तथा डगलकानि-पुतप्रोञ्छनलेष्टुकाः सरजस्कः - क्षारः मल्लेक - मात्र के प्रतीते तेषामादिशब्दात् काष्ठ5 किलिञ्चादीनां च तत्रैव ग्रहणे प्रायश्चित्तं वक्ष्यमाणलक्षणं भवति ॥ २०२४ ॥ तथा ‘अवकाशः’ प्रतिश्रयैकदेशः 'संस्तारः' संस्तारकभूमिः, एतौ पूर्वपरिभुक्तावेव परिभुङ्क्ते । 'विचारः' प्रश्रवणम् 'उच्चारः ' संज्ञा, एतौ तत्रैव स्थण्डिले समाचरति । वसतिं प्राक्परिभुक्तां परिभुङ्क्ते । ग्रामस्योपरि ममत्वं करोति, यद्वाऽवकाशादिषु सर्वेष्वपि ममत्वं करोति । तथा ऋतुबद्धे मासाधिकं वर्षावासे चतुर्मासाधिकं वसति । एतेषु स्थानेषु 'इयम्' अनन्तरमेव वक्ष्य10 माणा शोधिः २०२५ ।। तामेवाह — उक्कोसोवहि-फलए, वासातीए अ होंति चउलहुगा । डगलग सरक्ख मल्लग, पणगं सेसेसु लहुओ उ ॥। २०२६ ॥ उत्कृष्टे उपधौ – वर्षाकल्पादिके फलके च तत्रैव गृह्यमाणे वर्षातीते चत्वारो लघवः । डगलक-सरजस्क-मल्लकेषु उपलक्षणत्वात् काष्ठ - किलिञ्चादौ च रात्रिन्दिवपञ्चकम् । 'शेषेषु' परिशा15 टिसंस्तारकादिषु सर्वेष्वपि • अनन्तरगाथाद्वयोक्तेषु स्थानेषु - लघुको मासः || २०२६॥ अथ मासाद्युपरि तिष्ठतो दोषानाह संवासे इत्थिदोसा, उग्गमदोसा व नेहतो कुज्जा | चढण गिलाणदुल्लभ, वारत्तिसिभासियाहरणं ॥। २०२७ ॥ ऋतुबद्धे वर्षावासे वा यथोक्त कालावधेरुपरि 'संवासे' एकत्रावस्थाने क्रियमाणे सन्दर्शन20 सम्भाषणादिना स्त्रीविषया आत्मपरोभयसमुत्था दोषा भवेयुः । प्रभूतकालावस्थानतश्च साधूनामुपरि भद्रकगृहिणां गाढतरः स्नेह उपजायते, ततश्च ते स्नेहतः 'उद्गमदोषान्' आधाकर्मादीन् र्कुर्युः । ये तु प्रान्ता गृहपतयस्ते त्र्युः – कियच्चिरमस्माभिरमीषामद्यापि दातव्यं तिष्ठति ? इति । अतिचमढणया च क्षेत्रं नीरसं भवति, ततो ग्लानस्य उपलक्षणत्वादाचार्यादीनां च प्रायोग्यं दुर्लभं भवेत् । अत्र च वारत्तकमहर्षेः कृतखल्पमात्रगृहिसङ्गस्य प्रद्योतनृपेणोपहसितस्याहर25 णम् । अत एव तेन भगवता ऋषिभाषितेषु यत् सप्तविंशमध्ययनं विरचितं तत्रादावेवेदमुपदेशसूत्रमभाणि - न चिरं जणि संवसे मुणी, संवासेण सिहि वडई | भिक्खुस्स अणिच्चचारिणो, आयट्ठे जम्हा उहायई ॥ इति । ॥ २०२७ ॥ १ 'लकं मात्रकं च प्रतीतम् आदिशब्दात् काष्ठ-किलिञ्चादीनां परिग्रहः एतेषां तत्रैव भा० ॥ २ 'ल्पादौ फल' मो० ले० विना ॥ ३० एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥ ४ परि तिष्ठतः 'संभा० ॥ ५ 'स्थानं तत्र सन्द° भा० ॥ ६ कुर्युः । एवं तावद् भद्रककृता दोषा भवन्ति । ये तु प्रान्ता गृहपतयस्ते प्रद्वेषं गच्छेयुः - कियच्चिरमस्माभिरमीषामद्यापि दातव्यमवशिष्यते ? इति । अति भा० ॥ ७ हर्षेः सम्बन्धि यद् ऋषिभाषितनामकमध्ययनं तदुदाहरणं वक्तव्यम् । तेन हि भगवता भा० ॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २०२६-३०] प्रथम उद्देशः । गतमुपरि दोषा इति द्वारम् । अथ द्वितीयपदं भावयति बहुदोसे वऽतिरित्तं, जइ लब्भे वेज-ओसहाणि बहिं । । । चउभाग तिभागद्धे, जयंतऽणिच्छे अलंभे वा ॥ २०२८ ॥ ग्लाननिमित्तमतिरिक्तमपि कालं वसेत् । अथोद्गमादिभिर्दोषैर्बहुदोषं तत् क्षेत्रं तत उत्पाट्य ग्लानं बहिर्गन्तव्यं यदि वैद्योषधानि तत्र लभ्यन्ते । अथ ग्लानो बहिर्गन्तुं नेच्छति वैद्यौषधानि । वा बहिर्न लभ्यन्ते ततोऽनिच्छति अलाभे वा तत्रैव ग्रामे चतुर्भागीकृते त्रिभागीकृतेऽर्कीकृते वा यथायोगं वसतौ भिक्षायां च यतन्ते । इह च यद्यप्युत्सर्गतस्तं ग्राममष्टौ भागान् कृत्वा यतन्ते, तथा चेन्न संस्तरति ततः सप्त भागान् , एवं यावदेकभागमपि कृत्वा यतन्ते इति पुरस्ताद (गा० २०३१) वक्ष्यते, तथापि चतुर्भाग-त्रिभागा-ऽर्द्धग्रहणं "तुलादण्डमध्यग्रहण". न्यायेनाष्टभागादीनामपि ग्रहणार्थम् ॥ २०२८ ॥ प्रकारान्तरेण द्वितीयपदमाह- 10 ओमा-ऽसिव-दुढेसुं, चउभागादि न करिति अच्छंता। पोरुसिमाईवुड्डी, करिति तवसो असंथरणे ॥ २०२९॥ अवमा-ऽशिव-राजद्विष्टेषु बहिः सञ्जातेषु तत्रैव क्षेत्रेऽतिरिक्तमपि कालं तिष्ठन्ति यावद् बहिः सुभिक्षादीनि जायन्ते । तच्च क्षेत्रं यदि लघुतरं ततस्तत्र तिष्ठन्तोऽसंस्खरणे सति चतुर्भागादिरचनां न कुर्वन्ति, किन्तु तत्र पौरुष्यादितपसो वक्ष्यमाणनीत्या वृद्धिं कुर्वन्ति । 1 अथ बृह-15 त्तरं तत् क्षेत्र पूर्यते चतुर्भागादिरचनयाऽपि क्रियमाणं परं तत्राप्यवमादीनि समुत्पन्नानि, तत्रावमं तादृशमुत्पन्नं यादृशे चतुर्भागादिपरिपाट्या पर्यटन्तो न संस्तरन्ति, अशिवे भागाद् भागान्तरेषु सङ्कामतामशिवं सञ्चरति, राजद्विष्टेऽपरापरभागेषु सञ्चरन्तः प्रकटीभवन्ति, अतस्त्रिष्वप्यवमा-ऽशिव-राजद्विष्टेषु चतुर्भागादिरचनामकुर्वन्तः पौरुष्यादितपसो वृद्धिं कुर्वन्ति । तद्यथाये पौरुषीप्रत्याख्यानिनस्ते पूर्वार्द्ध प्रत्याचक्षते, ये पूर्वार्द्ध प्रत्याख्यातारस्ते एकाशनं प्रत्याख्या-20 न्तीत्यादि ॥ २०२९ ॥ अथ यतनामेव स्पष्टयति मासे मासे वसही, तण-डगलादी य अन्न गिण्डंति। भिक्खायरिय-वियारा, जहिं ठिया तत्थ नऽन्नासु ॥ २०३० ॥ मासे मासे वसतिरन्या तृण-डगलादीनि च पूर्वपरिभुक्तानि परित्यज्य अन्यानि गृह्णन्ति । यसिंश्च भागे मासकल्पं स्थितास्तत्रैव भागे तस्मिन् मासे भिक्षाचर्या विचारभूमिं च गच्छन्ति 25 'नान्यासु' भिक्षा-विचारभूमिषु ॥ २०३० ॥ अथ भागकरणस्यैव विधिमाह १ 'अवमं' दुर्भिक्षम् अशिवं वा राजद्विष्टं वा बहिः सञ्जातं ततस्तत्रैवातिरिक्तमपि कालं तिष्ठन्ति यावद् बहिः सुभिक्षादीनि जायन्ते । तच्च क्षेत्रं यदि लघुतरं ततस्तत्र तिष्ठन्तश्च. तुर्भागादिकल्पनां न कुर्वन्ति । यदि वा तत्रैव क्षेत्रे अवममशिवं राजद्विष्टं वा समुत्पन्नम्, तत्र च ग्लानादिप्रतिबन्धेन स्थितास्ततोऽअवमोदरिके चतुर्भागादिपरिपाट्या पर्यटन्तो न संस्तरन्ति, अशिवे भागाद् भागान्तरं सामतामशिवं सञ्चरति, राजद्विष्टे अपरापरेषु भागेषु सञ्चरन्तः प्रकटीभवन्ति ततलिष्वपि चतुर्भागादिरचनां न कुर्वन्ति । यत्र चाशिवं भवति तत्र यदि चतुर्थ-षष्ठादिकं तपः कर्तुं संस्तरणं-सामर्थ्य नास्ति ततः पौरुष्यादिप्रस्याख्यानस्य वृद्धिं कुर्वन्ति । तद्यथा-भा० ॥ २ एतदन्तर्गतः पाठः त• • कां• नास्ति ॥ ३ मिक्षां वि भा०॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् २ अट्ठाइ जाव एकं, करिति भागं असंथरे गाम । अट्ठाइ चिय वसही, जयंति जा मूलवसही उ ॥ २०३१ ॥ कदाचिदष्टौ ऋतुबद्धमासान् ग्लानकार्येण स्थातव्यं भवेद् अतो ग्राममष्टौ भागान् कुर्वन्ति । सतः प्रथमेऽष्टभागे वसतिं तृण-डगलादीनि च गृह्णन्ति, मासं च यावत् प्रथम एवाष्टभागे 5 भिक्षाचर्या विचारभूमिगमनं च कुर्वन्ति । ततो यदि मध्येमासं पूर्णे वा मासे ग्लानः प्रगुणीभूतस्ततस्तदैव निर्गन्तव्यम् । अथ न प्रगुणीभूतस्ततः पूर्ण मासे द्वितीयेऽष्टभागे तिष्ठन्ति, तत्राप्येष एव विधिमन्तव्यः । एवं तृतीयमष्टभागमादौ कृत्वा अष्टममष्टभागं यावद् द्रष्टव्यम् । अथाष्टभिर्भागैर्विभक्ते ग्रामे न संस्तरन्ति ततः सप्तभागीकृत्य तथैव यतन्ते । एवमप्यसंस्तरणे षड् भागानादौ कृत्वा यावदेकमपि भागं कुर्वन्ति । एवं वसतीरपि प्रथमतः पृथक् पृथग् मास10 कल्पप्रायोग्या अष्टौ गृहन्ति । तदभावे सप्त-षट्-पञ्चादिक्रमेण यतन्ते, यावत् तस्यामेव मूलबसतौ तिष्ठन्ति ॥ २०३१ ॥ अथात्रैव भङ्गकानाह इत्थं पुण संजोगा, इविक्कस्स उ अलंमें लंभे य । णेगा विहाणगुणिया, तुल्ला-तुल्लेसु ठाणेसु ॥ २०३२ ॥ अत्र पुनः प्रक्रमे 'एकैकस्य' वसतिभागस्य भिक्षाचर्याभागस्य वा अलाभे लाभे च यानि 15 तुल्यानि-समानसङ्ख्याकानि स्थानानि अतुल्यानि-विसदृशसङ्ख्याकानि तेषु विधानेन-चारणि काविधिना गुणिताः सन्तः ‘अनेके' बहवः 'संयोगाः' भङ्गका भवन्ति । चारणिकाक्रमश्चायम्-अष्टौ वसतयोऽष्टौ भिक्षाचर्याः १ अष्टौ वसतयः सप्त भिक्षाचर्याः २ एवं षड् भिक्षाचर्याः ३ पञ्च भिक्षाचर्याः ४ चतस्रो भिक्षाचर्याः ५ तिस्रो भिक्षाचर्याः ६ द्वे भिक्षाचर्ये ७ एका भिक्षाचर्या ८, एवं सप्त वसतयोऽष्टौ भिक्षाचर्याः १ सप्त वसतयः सप्त भिक्षाचर्याः २ 20 इत्यादिचारणिकया सप्तादिसङ्ख्याखपि वसतिविषयासु प्रत्येकमष्टावष्टौ भङ्गकाः प्राप्यन्ते, सर्वसङ्ख्यया लब्धा भङ्गकानां चतुःषष्टिरिति ॥ २०३२ ॥ अथैतेष्वेव भङ्गकेषु विधिमाह एक्काइ वि वसहीए, ठिया उ भिक्खयरियाएँ पयतंति ।। वसहीसु वि जयणेवं, अवि एकाए वि चरियाए ॥ २०३३ ॥ येषु भङ्गकेष्वेकैव वसतिः प्राप्यते तेष्वेकस्यामपि वसतौ स्थिता भिक्षाचर्यायां प्रयतन्ते, 23 प्रथममष्टौ भागान् ग्रामं विभज्य भिक्षां पर्यटन्ति, असंस्तरणे यावदेकमपि भागं कृत्वेति भावः। अपिशब्दो ब्यादिसङ्ख्याकासु वसतिषु तिष्ठन्तः सुतरां भिक्षाचर्यायां प्रयतन्ते इति सूचनार्थः । यत्र त्वेकैव भिक्षाचर्या प्राप्यते तत्रैकस्यामपि भिक्षाचर्यायां पर्यटेद्भिः एवमेव वसतिप्वपि यतना कर्तव्या ॥२०३३॥ उक्तमपवादद्वारम् । तदुक्तौ च समर्थितं "पडिलेहण निक्खमणे" (गा० १६५८-५९) इति द्वारगाथाद्वयम् ॥ सूत्रम्30 से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथाणं हेमंत-गिम्हासु दो १°टन्ते एव मो० ले० विना ॥ २ इत्यादि द्वा° भा० ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशः । मासे वत्थए । अंतो इक्कं मासं, वाहिं इकं मासं । अंतो वसमाणाणं अंतो भिक्खायरिया, वाहिं वसमाणं वाहिं भिक्खायरिया २- ७ ॥ भायगाथाः २०३१-३८ ] अस्य सम्बन्धो व्याख्या च प्राग्वत् । नवरं 'सवाहिरिके' प्राकारबहिर्वर्तिगृहपद्धति रूपया बाहिरिकया सहिते कल्पते निर्ग्रन्थानां हेमन्त - ग्रीष्मेषु द्वौ मासौ वस्तुम् । कथम् ? इत्याह — 'अन्तः' प्राकाराभ्यन्तरे एकं मासम्, 'वहि:' बाहिरिकायामप्येकं मासम् । अन्तर्वसतान्तर्भिक्षाचर्या, बहिर्वसतां बहिर्भिक्षाचर्येति ॥ अथ भाप्यविस्तरः— ५८९ एसेव कमो नियमा, सपरिक्खेवे सबाहिरीयम्मि | नवरं पुण नाणतं, अंतो मासो बहिं मासो || २०३४ ॥ 'एष एव' प्रथमसूत्रोक्तः क्रमः सपरिक्षेपे सवाहिरिकेऽपि ग्रामादौ नियमाद् वक्तव्यः । नवरं पुनः ‘नानात्वं' विशेषोऽयम् —' अन्तः' प्राकाराभ्यन्तरे मासो बहिरपि मास इत्येवं मासद्वयं ऋतुबद्धे स्थातव्यम् || २०३४ ॥ पुण्णम्मि मासकप्पे, बहिया संकमण तं पि तह चेव । नवरं पुण नाणत्तं, तणेसु तह चैव फलएसु ।। २०३५ ॥ आभ्यन्तरे मासकल्पे पूर्णे 'बहि:' बाहिरिकायां सङ्क्रमणं कर्त्तव्यम् । तदपि सङ्क्रमणं 'तथैव' पूर्वसूत्रवद् द्रष्टव्यम् । नवरं पुनरत्र नानात्वं तृणेषु तथा फलकेषु । तत्र यदि बाहिरि - कायामेव तृण- फलकानि प्राप्यन्ते ततस्तत्रैव ग्रहीतव्यानि । अथ तत्र तानि न लभ्यन्ते 1 ततोऽन्यं ग्रामं व्रजन्तु, अथ तत्राशिवादीनि कारणानि तत आभ्यन्तराण्येव तृण - फलकानि वाहिरि - कायां नेतव्यानि || २०३५ ॥ तत्र विधिमाह - 20 अन्नउवस्सयगमणे, अणपुच्छा नत्थि किंचि नेयव्व । [नि. १२८९-१२९७] जड़ ने अणापुच्छा, तत्थ उ दोसा इमे होंति । २०३६ ॥ द्वितीये मासकल्पे बाहिरिकायामन्यमुपाश्रयं गच्छद्भिरनापृच्छया नास्ति किञ्चित् तृण-फलकादितव्यम् । यद्यनापृच्छया नयति ततस्तत्रे मे दोषा भवन्ति ॥। २०३६ ॥ ताई तण- फलगाई, तेणाहडगाइँ अप्पणो वा वि । निजंतय - गहियाई, सिट्ठाइँ तहा असिट्ठाई ।। २०३७ ॥ तानि तृण- फलकानि येन साधूनां दत्तानि तस्य स्तेनाहृतानि वा भवेयुः आत्मसम्बन्धीनि वा । तानि च प्रतिश्रयान्तरं नीयमानानि - प्राप्यमाणानि गृहीतानि वा-नीतानि सन्ति शिष्टानि अशिष्टानि वा भवेयुः || २०३७ || शिष्टा ऽशिष्टपदद्वयं व्याख्यानयति कस्से aण - फलगा, सिट्ठे अमुकस्स तस्स गहणादी | frees व सो भीओ, पञ्चंगिर लोगमुड्डाहो । २०३८ ॥ १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ 10 15 25 30 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकरूपप्रकृते सूत्रम् २ स्तेनाहृतानि तृण-फलकान्यनापृच्छया नीयमानानि पूर्वखामिना राजपुरुषैर्वा दृष्टानि ततः साधुः पृष्टः–कस्यैतानि ? साधुः प्राह-अमुकस्य गृहपतेः इति 'शिष्टे' कथिते सति तस्य ग्रहणाऽऽकर्षणादयो दोषा भवन्ति । अथासौ साधुः भीतः सन् 'निहुते' अपलपति न कथयतीत्यर्थः ततोऽशिष्टे साधोः प्रत्यङ्गिरादोषो भवति, तृण-फलकदायकस्य गृहपतेः सम्बन्धी यश्चौर्यकरणल5 क्षणो दोषः स परकीयोऽप्यात्मनि लगतीत्यर्थः । लोके चोड्डाहो भवति-अहो! साधवोऽपि परद्रव्यमपहरन्ति ॥ २०३८ ॥ अथात्रैव प्रायश्चित्तमाह नयणे दिढे सिढे, गिण्हण कड्डण ववहारमेव ववहरिए । लहुओ लहुगा गुरुगा, छम्मासा छेय मूल दुगं । २०३९ ॥ स्तेनाहृततृणानामपृच्छया बाहिरिकायां नयनं करोति लघुको मासः । अथ तानि नीयमा10 नानि राजपुरुषैदृष्टानि ततश्चत्वारो लघुकाः । तैः पृष्टे साधुना 'शिष्टं' कथितं यथा (ग्रन्थानं ३००० । सर्वग्रन्थानम्-१५२२०) अमुकस्येति ततश्चत्वारो गुरुकाः । अथ स गृही राजपुरुषैर्गृहीतस्ततो ग्रहणेऽपि चत्वारो गुरुकाः । अथासौ तै राजपुरुषै राजकुलाभिमुखमाकर्षितस्ततः षण्मासा लघवः । अथ राजकुलाभिमुखमाकर्पतस्तान् स गृहस्थः प्रतिलोममाकर्षति ततः षड् गुरुकाः । अथ राजकुलं नीत्वा व्यवहारं कारितस्ततः छेदः । व्यवहृते सति यदि स गृहस्थः 15 पश्चात्कृतस्ततो मूलम् । ततो बहुलोकसमक्षमुद्दग्धे हस्त-पादाद्यवयवव्यङ्गिते वा कृतेऽनवस्थाप्यम् । अपद्राविते निर्विषये वा कृते पाराश्चिकम् । सर्वत्र संयतस्यैतत् प्रायश्चित्तम् ॥ २०३९ ।। अथ निहवनपैदं व्याख्याति अहवा वि असिट्ठम्मी, एसेव उ तेण संकणे लहुगा। नीसंकियम्मि गुरुगा, एगमणेगे य गहणादी ॥२०४० ॥ 20 अथवा मया कथिते सत्येष तृणफलकदाता ग्रहणा-ऽऽकर्षणादिकं प्राप्स्यते इति मत्वा यदि न कथयति ततः 'अशिष्टे' अकथिते एष एव स्तेनः सम्भाव्यत इत्येवं 'शङ्कने' शङ्कायां राजपुरुषैः क्रियमाणायां चतुर्लघुकाः । निःशङ्किते चत्वारो गुरवः । ततश्च तस्यैवैकस्यानेकेषां वा साधूनां ग्रहणादयो दोषा भवन्ति ॥ २०४० ॥ तद्यथा नयणे दिढे गहिए, कड्डण ववहारमेव ववहरिए । उड्डहणे य विरंगण, उद्दवणे चेव निविसए ॥ २०४१॥ लहुओ लहुया गुरुगा, छल्लहु छग्गुरुग छेय मूलं च । अणवठ्ठप्पो दोसु अ, दोसु अपारंचिओ होइ ॥ २०४२ ॥ तृणानि प्रतिश्रयान्तरमनापृच्छया नयति लघुको मासः । राजपुरुषैर्दृष्टेषु चत्वारो लघवः । १ या प्रतिश्रयान्तरे नयनं भा० ॥ २ अथ तस्य तेन राजपुरुषानानीय ग्रहणं कारितं तथापि चत्वा भा० ॥ ३ अथ राजपुरुषैरसौ 'पूर्वस्वामिना सह व्यवहारं कुरु' इति भणितस्ततः षण्मासा गुरवः । अथ व्यवहृतं-कारणिकानां पुरतो व्यवहारः कर्तुमारब्धस्ततः छेदः । व्यवहारे कृते सति यदि पश्चात्कृतस्ततो मूलम् भा० ॥ ४ पदं भावयति भा० ॥ ५ °वं यदि शङ्कितं भवति तदा चतुर्लघुकाः भा० ॥ ६ °सः। पूर्वस्वामिना दृष्टे भा० ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २०३९-४४] प्रथम उद्देशः । ततः पृष्टे साधुना च निकुते नृपपुमांसस्तस्य साधोग्रहणं कुर्वन्ति चत्वारो गुरवः । राजपुरुषैः 'त्वं चौरः' इत्युक्त्वा राजकुलाभिमुखमाकर्षणे कृते सति षण्मासा लघवः । अथ ते राजकुलाभिमुखमाकर्षन्ति साधुश्च तान् प्रतीपमाकर्षति एवं कर्षणाकर्षणे षण्मासा गुरवः । व्यवहारे प्रारब्धे छेदः । व्यवहृते यदि संयतः पश्चात्कृतस्ततो मूलम् । उड्डहन-व्यङ्गनयोर्द्वयोरनवस्थाप्यः । अपद्रावण-निर्विषयाज्ञापनयोर्द्वयोः पाराञ्चिक इति ॥ २०४१ ॥ २०४२ ॥ आह कथं पुनस्तृणानि स्तेनाहृतानि सम्भवन्ति ? इत्युच्यते दंतपुरे आहरणं, तेनाहड बब्बगादिसु तणेसु । छायण मीराकरणे, अत्थिरफलगं च चंपादी ॥२०४३ ॥ स्तेनाहतेषु तृणेषु दन्तपुरविषयमुदाहरणं वक्तव्यम् , यथा आवश्यके योगसङ्ग्रहेषु "दंतपुर दंतचक्के०" (नि० गा० १२८०) इत्यस्यां गाथायां यद् 'आहरणं निदर्शनमुक्तम्, तत्र यथा 'दन्ताः 10 केनापि न ग्रहीतव्याः' इति राजाज्ञया प्रतिषिद्धत्वाद् धनमित्रसार्थवाहमित्रेण दृढमित्रेण दन्ता दर्भपूलकैराच्छाद्य प्रच्छन्नमानीताः स्तेनाहृताः संवृत्ताः, एवं राज्ञा प्रतिषिद्धानि सम्भवन्ति तृणान्यपि स्तेनाहृतानीति । तैश्च बब्बकादिभिस्तृणैानादीनां छादनं प्रतिश्रयस्य वा मीराकरणं विधीयते । मीराकरणं नाम–कटैरादेराच्छादनम् , उपलक्षणमेतत् , तेन प्रस्तरणार्थमपि तृणानि गृह्यन्ते । फलकं तु प्रस्तरणार्थ मीराकरणार्थ वा । तच्चास्थिरफलकं चम्पकपट्टादि मन्तव्यम् ।15 अस्थिरफलकं नाम-उपविशतां यदधो यातीव, तच्चैवंविधं चम्पकपट्टादि ॥ २०४३ ॥ अस्तेनाहृततृणानां नयने दोषानाह अतेणाहडाण नयणे, लहुओ लहुया य होति सिट्ठम्मि । अप्पत्तियम्मि गुरुगा, वोच्छेद पसज्जणा सेसे ।। २०४४॥ अस्तेनाहृतानां तृणानामनापृच्छय बहिर्नयने लघुको मासः । अपरेण केनापि तस्य 'शिष्टं 20 कथितं 'त्वदीयानि तृणानि संयतैर्वाहिरिकायां नीतानि' तदा चतुर्लघु । कथिते यद्यसावनुग्रह मन्यते ततोऽपि चतुर्लघु । अथाप्रीतिकं करोति तदा चतुर्गुरु । व्यवच्छेदं वा तद्रव्यस्य तस्य साघोर्भूयः प्रदाने कुर्यात् । “पसज्जणा सेस" त्ति 'शेषाणाम्' अन्येषामप्यशन-पानकादिद्रव्याणामपरेषां वा साधूनां प्रसङ्गतो दानव्यवच्छेदं कुर्यात् ॥ २०४४ ॥ १हणं-गृहीतं तत् कुर्व मो० ले० ॥ २ मो० ले. विनाऽन्यत्र-माकर्षणं कृतं ष भा० । माकृष्टेष त• डे. का० ॥ ३ मो० ले. विनाऽन्यत्र-स्तेनाहृतेषु बल्वजादितृणेषु दन्तपुरविषयमुदाहरणं वक्तव्यम्, यथा आवश्यके योगसङ्ग्रहेषु "दंतपुर दंतचक्के" इत्यस्यां गाथायां प्रतिपादितम् । तत्र यथा भा० । आवश्यके योगसङ्ग्रहेषु “दंतपुर दंतचक्के" इत्यस्यां गाथायां यद् 'आहरणम्' निदर्शनमुक्तम्, तत्र यथा त. डे. कां० ॥ ४ति । तानि च किमर्थ साधुभिरानीयन्ते ? इत्याह-लानादीनां हेतोरुपाश्रयस्य च्छादनार्थ प्रतिश्रयस्य वा. मीराकरणार्थम् । मीराकरणं नाम-कटैः पार्थाणामाच्छादनमित्यर्थः, उपलक्षणमेतत्, तेन प्रस्तरणार्थमित्यपि द्रष्टव्यम् । फलकं पुनः प्रस्तरणार्थ भा० ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ५९२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ३ एष एव 'गमः' प्रकारः फलकेष्वपि भवत्यानुपूर्व्या यस्तृणेषु “ नयणे दिट्टे सिट्टे” ( गा० २०३९) इत्यादिना भणितः । नवरं पुनरत्र नानात्वं चत्वारो मासा जघन्यपदे भवन्ति । जघ5 न्यपदं नाम - यत्र तृणेषु लघुमासिकमापद्यते तच्चानापृच्छया बहिर्नयनमिति द्रष्टव्यम् तत्र फलकेषु चतुर्लघु ॥ २०४५ || अथ मासद्वयादूर्द्धमवस्थाने दोषान् द्वितीयपदं चाह - दोहं उवरिं वसती, पायच्छित्तं च होंति दोसा य । बिइयपदं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए । २०४६ ॥ सबाहिरिके क्षेत्रे द्वयोर्मासयोरुपरि यदि वसति ततः प्रायश्चित्तं प्रागुक्तमेव मासलघुकाख्यम्, 10 दोषाश्च त एवावसातव्याः ये अबाहिरिके क्षेत्रे "संवासे इत्थिदोसा " ( गा० २०२७ ) इत्यादिना उक्ताः । द्वितीयपदं च ग्लानविषयं तदेव वक्तव्यम् । तत्र च तिष्ठता वसतिर्भैक्षं च यतनया ग्रहीतव्यम् ॥ २०४६ ॥ सूत्रम् — से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथीणं हेमंत - गेम्हासु दो सेव गमो नियमा, फलएसु वि होइ आणुपुत्रीए । नवरं पुण नाणत्तं, चउरो मासा जहन्नपदे || २०४५ ॥ मासा वत्थए ३-८॥ अस्यापि व्याख्या प्राग्वत् । नवरमबाहिरिके क्षेत्रे कल्पते निर्ग्रन्थीनां हेमन्त - ग्रीष्मेषु द्वौ मासौ वस्तुमिति ॥ अथ भाष्यविस्तरः एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो । जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं ।। २०४७ ॥ 25 20 'एष एव ' निर्मन्थसूत्रोक्तः “पवज्जा सिक्खापय" ( गा० ११३२ ) इत्यादिकः क्रमो नियमाद् निर्ग्रन्थीनामपि ज्ञातव्यो भवति । यत् पुर्नः अत्र विहारद्वारे नानात्वं तदहं वक्ष्ये समासेन || २०४७ ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति arieti गणहरपरूवणा खेत्तमग्गणा चैव । वसही वियार गच्छस्स आणणा वारए चैव ॥। २०४८ ॥ भट्टणाऍ य विही, पडिणीए भिक्खनिग्गमे चैव । निग्गंथाणं मासो, कम्हा तासिं दुवे मासा || २०४९ ॥ निर्ग्रन्थीनां यो गणधरः - गच्छवर्त्तापकस्तस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या । ततः क्षेत्रस्य संयतीप्रायोग्यस्य मार्गणा - प्रत्युपेक्षणा वक्तव्या । ततस्तासां योग्या वसतिर्विचारभूमिश्च । ततः 'गच्छस्य' संयंतीगणस्य आनयना । ततः ‘वारकः' घटस्तत्खरूपम् । तदनन्तरं भक्तार्थना - समुद्देशनं तस्याः 'विधिः' 30 व्यवस्था । ततः प्रत्यनीककृतोपद्रवतो यथा निवारणम् । ततो भिक्षायां निर्गमः । ततो निर्यन्थानां कस्मादेको मासः ? तासां च कस्माद् द्वौ मासौ ? । एतानि द्वाराणि वक्तव्यानीति द्वार १ 'नरत्र नाना' भा० ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २०४५-५२] प्रथम उद्देशः । गाथाद्वयसमुदायार्थः ॥ २०४८ ॥ २०४९ ॥ अथावयवार्थ प्रतिद्वारमाह पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गेऽवज ओय-तेयस्सी। संगहुवग्गेहकुसले, सुत्तत्थविऊ गणाहिवई ॥ २०५०॥ प्रियः-इष्टो धर्मः-श्रुत-चारित्ररूपो यस्य स प्रियधर्मा । यस्तु तस्मिन्नेव धर्मे दृढो द्रव्य-5 क्षेत्राद्यापदुदयेऽपि निश्चलः स दृढधर्मा, राजदन्तादित्वाद् दृढशब्दस्य पूर्वनिपातः । संविमो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतो मृगः, सदैव त्रस्तमानसत्वात् । भावतो यः संसारभयोद्विग्नः सन् नित्यं पूर्वरात्रा-ऽपररात्रकाले सम्प्रेक्षते-किं मया कृतम् ? किंवा मे कर्तव्यशेपम् ? किं वा शक्यमपि तपःकर्मादिकमहं न करोमि ? इत्यादि । ___ ता............... उद्विग्नवासा न शयं लभन्ते । एवं वुधा ज्ञानविशेषबुद्धाः, संसारभीता न. रतिं लभन्ते ॥ "वज्ज" ति अकारप्रश्लेषाद् अवयं-पापं "सूचनात् सूत्रम्" इति कृत्वा तद्भीरु:-अवद्यभीरुः। ओजः तेजश्च उभयमपि वक्ष्यमाणलक्षणं तद् विद्यते यस्य स ओजखी तेजखी चेति । सङ्ग्रहःद्रव्यतो वस्त्रादिभिर्भावतः सूत्रार्थाभ्याम् , उपग्रहः-द्रव्यत औषधादिभिर्भावतो ज्ञानादिभिः, एतयोः संयतीविषययोः सङ्ग्रहोपग्रहयोः कुशल:-दक्षः । तथा 'सूत्रार्थविद्' गीतार्थः । एवं-15 विधः ‘गणाधिपतिः' आर्यिकाणां गणधरः स्थापनीयः ॥२०५० ॥ अथौजस्तेजसी व्याचष्टे आरोह-परीणाहा, चियमंसो इंदिया य पडिपुण्णा । अह ओओ तेओ पुण, होइ अणोतप्पया देहे ॥ २०५१ ॥ आरोहो नाम-शरीरेण नातिदैर्घ्य नातिहखता, परिणाहो नाम-नातिस्थौल्यं नातिदुर्बलता; अथवा आरोहः-शरीरोच्छायः, परिणाहः-बाह्वोर्विष्कम्भः, एतौ द्वावपि तुल्यौ न हीनाधिक- 20 प्रमाणौ । “चियमंसो" त्ति भावप्रधानत्वाद् निर्देशस्य 'चितमांसत्वं नाम' वपुषि पांसुलिका नावलोक्यन्ते । तथा इन्द्रियाणि च प्रतिपूर्णानि, न चक्षुः-श्रोत्राद्यवयवविकलतेति भावः । 'अथ' एतद् आरोहादिकमोज उच्यते, तद् यस्यास्ति स ओजखी । तेजः पुनः 'देहे' शरीरे 'अनपत्रप्यता' अलजनीयता दीप्तियुक्तत्वेनापरिभूतत्वम् , तद् विद्यते यस्य स तेजखी ॥ २०५१ ॥ गतं गणधरप्ररूपणाद्वारम् । अथ क्षेत्रमार्गणाद्वारमाह खित्तस्स उ पडिलेहा, कायव्वा होइ आणुपुव्वीए। किं वच्चई गणहरो, जो चरई सो तर्ण वहइ ॥ २०५२ ॥ 'क्षेत्रस्य' संयतीप्रायोग्यस्य 'आनुपूर्व्या' "थुइमंगलमामंतण" (गा० १४६१) इत्यादिना पूर्वोक्तक्रमेण प्रत्युपेक्षणा गणधरेण कर्तव्या । आह 'किं' केन हेतुना गणधरः खयमेव क्षेत्रप्रत्यु १ अत्र भा० प्रतौ १५३०० ग्रन्थाग्रं विद्यते, प्रथमखण्डश्चास्या अत्र समाप्यते ॥ २ गहसुत्तत्थतदुभयविदू ता० ॥ ३ - एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्खकयोरेव ॥ ४त्ति वय॑म् अकारप्रश्लेषाद् अवधं वा-पापं भा० ॥ ५ "अधवा 'आरोहो' उच्चत्तं 'परिणाहो' बाहणं बिक्खंभो, समचउरंससंठाणमित्यर्थः।" 25 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे (मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ३ पेक्षणाय व्रजति ? उच्यते-यो बलीवर्दादिश्वारिं चरति स एव तृणभारं वहति, एवं यो निम्रन्थीगणस्याधिपत्यमनुभवति स एव सर्वमपि तच्चिन्तामारमुद्वहति । २०५२ ॥ आह संयत्यः किमर्थं न गच्छन्ति ? इत्युच्यते संजइगमणे गुरुगा, आणादी सउणि पेसि पिल्लणया। [उव]लोभे तुच्छा आसियावणाइणों भवे दोसा ॥ २०५३ ॥ ___ यदि संयत्यः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितुं गच्छन्ति तत आचार्यस्य चतुर्गुरव आज्ञादयश्च दोषाः । यथा 'शकुनिका' पक्षिणी श्येनस्य गम्या भवति यथा वा “पेसि" त्ति मांसपेशिका आम्रपेशिका वा सर्वस्याप्यभिलषणीया भवति तथा एता अपि; अत एव "पेल्लणय" ति विषयार्थिना प्रेर्यन्ते । __ तथा तुच्छास्ताः, ततो येन तेनाप्याहारादिलोभेनोपप्रलोभ्य आसियावणम्-अपहरणं तासां क्रियते। 10एवमादयो दोषा भवन्ति ॥ २०५३ ।। इदमेव भावयति तुच्छेण वि लोभिजइ, भरुयच्छाहरण नियडिसड्डेणं । णंतनिमंतण वहणे, चेइय रूढाण अक्खिवणं ॥ २०५४ ॥ तुच्छेनापि आहार-वस्त्रादिना स्त्री लोभ्यते । अत्र च भृगुकच्छप्राप्तेन निकृतिश्राद्धेनोदाहरणम् । कथम् ? इत्याह-'णंत" त्ति वस्त्राणि तैनिमन्त्रणं कृत्वा 'वहने' प्रवहणे चैत्यवन्द15 नार्थमारूढानां संयतीनां तेन 'आक्षेपणम्' अपहरणं कृतमिति ॥ जहा-भरुअच्छे आगंतुगवाणियओ तच्चनियसको संजईओ रूववईओ दट्टण कवडसवत्तणं पडिवन्नो । ताओ तस्स वीसंभियाओ । गमणकाले पवत्तिणि विन्नवेइ---वहणट्ठाणे मंगलट्ठा पडिलाहणं करेमि तो संजईओ पट्टवेह, अम्हे वि अणुग्गहिया होज्जामो । तओ पट्टविया । तत्थ गया कवडसड्डेणं भण्णंति-पढमं वहणे चेइयाइं वंदह, तो पडिलाहणं करेमि त्ति । 20 ताओ जाणंति-अहो! विवेको । तओ चेइयवंदणत्थमारूढाणं पयट्टियं वहणं, जाव आसियावियाओ॥ ॥२०५४ ॥ एएहि कारणेहिं, न कप्पई संजईण पडिलेहा । [उ.नि. १६१] गंतव्व गणहरेणं, विहिणा जो वण्णिओ पुट्विं ॥ २०५५ ।। एतैः कारणैः संयतीनां क्षेत्रप्रत्युपेक्षा कर्तुं न कल्पते । केन पुनस्तर्हि प्रत्युपेक्षणाय गन्त25 व्यम् ? इत्याह-गन्तव्यं गणधरेण विधिना । कः पुनर्विधिः ? इत्याह-यः पूर्वमत्रैव मासकल्पप्रकृते (गा० १४४७-१६२२) स्थविरकल्पिकविहारद्वारे. वर्णितः ॥ २०५५ ॥ आह कीदृशं क्षेत्रं तासां योग्यं गणधरेण » प्रत्युपेक्षणीयम् ? उच्यते-- जत्थाहिवई सूरो, समणाणं सो य जाणइ विसेसं ।। एतारिसम्मि खेत्ते, समणाणं होइ पडिलेहा ॥ २०५६ ॥ 30 जहियं दुस्सीलजणो, तक्कर-सावयभयं व जहि नत्थि । निप्पच्चवाय खेत्ते, अजाणं होइ पडिलेहा ।। २०५७ ॥ 'यत्र' प्रामादौ 'अधिपतिः' भोगिकादिकः 'शूरः' चौर-चरटादिभिरनभिभवनीय इत्यर्थः, स १°णायां ग° त० डे० कां० ॥ २ » एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २०५३-६०] प्रथम उद्देशः । ५९५ च 'श्रमणानां' साधूनां विशेष जानाति, यथा-ईदृशममीषां दर्शने व्रतम् , ईदृशश्च समाचारः। एतादृशे क्षेत्रे साध्वीयोग्ये श्रमणानां प्रत्युपेक्षणा भवति, एवंविधं क्षेत्रं तासां हेतोः प्रत्युपेक्षणीयमिति भावः । ॥ २०५६ ॥ तथा यत्र दुःशीलजनः तस्कर-श्वापदभयं वा यत्र नास्ति ईदृशे निष्पत्यपाये क्षेत्रे आर्यिकाणां प्रायोग्ये प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या भवति ॥ २०५७ ॥ अथ वसतिद्वारमाह गुत्ता गुत्तदुवारा, कुलपुत्ते सत्तमंत गंभीरे । भीयपरिस मद्दविए, ओभासण चिंतणा दाणे ॥ २०५८ ॥ 'गुप्ता' वृत्या कुड्येन वा परिक्षिप्ता । 'गुप्तद्वारा' कपाटद्वयोपेतद्वारा । यस्यां च शय्यातरः कुलपुत्रकः, कथम्भूतः ? 'सत्त्ववान्' न केनापि क्षोभ्यते, महदपि च प्रयोजनं कर्तुमध्यवस्यति । 'गम्भीरो नाम' संयतीनां पुरीषाद्याचरणं दृष्ट्वाऽपि विपरिणामं न याति । तथा भीता-चकिता 10 पर्षद् यस्य स भीतपर्षद् , आजैकसारतया यस्य भृकुटिमात्रमपि दृष्ट्वा परिवारः सर्वोऽपि भयेन कम्पमानस्तिष्ठति न च क्वचिदन्याये प्रवृत्तिं करोति । मार्दवम्-अस्तब्धता तद् विद्यते यस्य स मार्दविकः । एवंविधो यदि कुलपुत्रको भवति ततः “ओभासण" ति संयतीनामुपाश्रयस्यावभाषणं कर्तव्यम् । अवभाषिते च यद्यसावुपाश्रयमनुजानीते- 'अनुग्रहो मे, तिष्ठन्तु भगवत्यो यथाऽभिप्रेतं कालमत्र' इति । ततो भण्यते-"चिंतण" त्ति यथा खकीयाया दुहितुः मुषाया वा 15 चिन्तां करोषि तथा यद्येतासामपि प्रत्यनीकाद्युपसर्गरक्षणे चिन्तां कर्तुमुत्सहसे ततोऽत्र स्थापयामः । स प्राह-वाढं करोमि चिन्तां परं कथं पुनरमू रक्षणीयाः ? । ततोऽभिधातव्यम्यथा किलाक्षिणी स्वहस्तेन परहस्तेन वा दूयमाने रक्ष्येते तथैता अपि यद्यात्ममानुषैरपरमानुषैर्वा उपद्र्यमाणा रक्षसि तत एता रक्षिता भवन्तीति । यद्येवं प्रतिपद्योपाश्रयस्य दानं करोति ततः स्थापनीयाः । अथाप्रतिपद्यमाने स्थापयन्ति ततश्चत्वारो गुरुकाः ॥ २०५८ ॥ 20 अन्याचार्याभिप्रायेणामुमेवार्थमाह घणकुड्डा सकवाडा, सागारियमाउ-भगिणिपेरंता । निप्पञ्चवाय जोग्गा, विच्छिन्नपुरोहडा वसही ॥२०५९ ॥ 'घनकुड्या' पक्केष्टकादिमयभित्तिका, 'सकपाटा' कपाटोपेतद्वारा, सागारिकसत्कानां मातृभगिनीनां गृहाणि पर्यन्ते-पार्श्वतो यस्याः सा सागारिकमातृ-भगिनीगृहपर्यन्ता, गाथायामनु-25 क्तोऽपि गृहशब्दोऽत्र द्रष्टव्यः, 'निष्पत्यपाया' दुर्जनप्रवेशादिप्रत्यपायरहिता, विस्तीर्ण पुरोहडंगृहपश्चाद्भागो यस्यां सा विस्तीर्णपुरोहडा, एवंविधा वसतिः संयतीनां योग्या ॥ २०५९ ॥ नासने नातिदूरे, विहवापरिणयवयाण पडिवेसे । मज्झत्थ-ऽवियाराणं, अकुऊहल-भावियाणं च ॥ २०६०॥ विधवाश्च ताः परिणतवयसश्च-स्थविरस्त्रियस्तासाम् तथा मध्यस्थानां-कन्दादिभावविक- 30 लानाम् अविकाराणां-गीतादिविकाररहितानाम् अकुतुहलानां-'संयत्यो भोजनादिक्रियाः कथं १ > एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥२॥ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव । “अजाणं वसहिं देहि । सो भणइ-अणुग्गहो मे । ताहे भण्णइ" इति विशेषचूर्णौ ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोsय - महतरगादी, बहुसयणो पिल्लओ कुलीणो य । परिणतवओ अमीरू, अणभिग्गहिओ अकुतूहली ॥। २०६१ ॥ कुलपुत्त सत्तमंतो, भीयपरिस भद्दओ परिणओ अ । धम्मट्ठीय विणीओ, अजासेजायरो भणिओ || २०६२ ॥ यो भोगिक-महत्तरादिः ‘बहुखजनः ' बहुपाक्षिकः, तथा 'प्रेरक :' षिङ्गादीनां स्वगृहे प्रविशतां निवारकः, कुलीनः परिणतवयाश्च प्रतीतः, 'अभीरुः' उत्पन्ने महत्यपि कार्ये न बिभेति 10 'कथमेतत् कर्त्तव्यम् ?' इति, 'अनभिगृहीतः' आभिग्रहिकमिथ्यात्वरहितः, 'अकुतूहली' संयतीनां भोजनादिदर्शने कौतुकवर्जितः ॥ २०६१ ॥ 5 ५९६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ३ कुर्वन्ति ?' इति कौतुकवर्जितानाम् भावितानां - साधु-साध्वी सामाचारीवासितानां सम्बन्धि यत् प्रतिवेश्म - प्रत्यासन्नगृहं तत्र नासन्ने नातिदूरे संयतीप्रतिश्रयो ग्राह्यः || २०६०॥ अथान्याचार्यपरिपाट्या शय्यातरखरूपमाह— यस्तु कुलपुत्रकः 'सत्त्ववान्' न केनाप्यभिभवनीयः, 'भीतपर्षत्' प्राग्वत्, 'भद्रकः ' शासने बहुमानवान्, परिणतो वयसा मत्या वा, तथा 'धर्मार्थी धर्मश्रद्धालुः, 'विनीतः ' विनयवान्, एष आर्यिकाणां शय्यातरो भणितस्तीर्थकरैः ॥ २०६२ ॥ 15 गतं वसतिद्वारम् । अथ विचारद्वारमाह 30 अँणावायमसंलोगा, अणावाया चेव होइ संलोगा | आवायमसंलोगा, आवाया चेव संलोगा || २०६३ ॥ अनापाता असेलोका १ अनापाता संलोका २ आपाता असंलोका ३ आपाता संलोका चेति ४ चतस्रो विचारभूमयः || २०६३ ॥ एतासु संयतीनां विधिमाह 20 वीयारे बहि गुरुगा, अंतो वि य तइयवज्जि ते चैव । तइए वि जत्थ पुरिसा, उवेंति वेसित्थियाओ अ ॥। २०६४ ॥ यदि पुरोहडे विद्यमाने संयत्यो ग्रामाद् बहिर्विचारेभुवं गच्छन्ति ततश्चतुर्ष्वपि स्थण्डिलेषु प्रत्येकं चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तम् । 'अन्तरपि च ' ग्रामाभ्यन्तरे पुरोहडादौ आपातासंलोकलक्षणं तृतीयं स्थण्डिलं वर्जयित्वा शेषेषु त्रिषु स्थण्डिलेषु गच्छन्तीनां 'त एव' चत्वारो गुरुकाः 25 'तृतीयेऽपि ' स्थण्डिले यत्र पुरुषा वेश्यास्त्रियश्च 'उपयन्ति' आपतन्ति तत्र चत्वारो गुरुकाः । यत्र तु कुलजानां स्त्रीणामापातो भवति तत्र गन्तव्यम् ॥ २०६४ ॥ आह किं पुनः कारणं प्रथमादीनि स्थण्डिलानि तासां नानुज्ञायन्ते : उच्यतेजत्तो दुस्सीला खलु, वेसित्थि नपुंस हेट्ठ तेरिच्छा । साउ दिसा पडिकुट्ठा, पढमा बिइया चउत्थी य ।। २०६५ ।। " तो " ति यस्यां दिशि 'दुःशीलाः' परदाराभिगामिनः पुरुषा आपतन्ति तथा वेश्यास्त्रियो - १ °डिओ वि° ता० ॥ २ आर्याणां भा० ॥ ३-४ अणवा' ता० ॥ ५ 'रभूमिं ग° भा० ॥ ६ चत्वारो गुरुकाः । 'अन्तरपि च ' ग्रामाभ्यन्तरेऽपि तृतीयभङ्गवर्जे आपाता भा० ॥ ७ काः । ग्रामाभ्यन्तरेऽपि तृतीये स्थण्डिले तत्रैवानुज्ञा यत्र कुल भा० ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः २०६१-६९] प्रथम उद्देशः । ५९७ नपुंसकाश्च "हे?" ति अधोनापिताः 'तिर्यञ्चश्च' वानरादय आपतन्ति 'सा तु' सा पुनः दिक् प्रथमा द्वितीया चतुर्थी च 'प्रतिक्रुष्टा' निषिद्धा, प्रथमादीनि स्थण्डिलानीत्यर्थः ॥ २०६५ ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथा व्याचष्टे चारभड घोड मिंठा, सोलग तरुणा य जे य दुस्सीला। उम्भामित्थी वेसिय, अपुमेसु उ इंति उ तदहा ॥ २०६६॥ 'चारभटाः' राजपुरुषाः 'घोटाः' चट्टाः 'मिण्ठाः' गजपरिवर्तकाः 'सोलाः' तुरगचिन्तानियुक्ताः, एवमादयो ये तरुणाः सन्तो दुःशीलास्ते प्रथम-द्वितीययोः स्थण्डिलयोरनापातत्वादेकान्तमिति कृत्वा उद्रामकस्त्रीषु वा वेश्यासु वा “अपुमेसु उ" ति नपुंसकेषु वा पूर्वप्राप्तेषु 'तदर्थ' तेषाम्-उद्धामकस्त्रीप्रभृतीनां प्रतिसेवनार्थमायान्तीति । चतुर्थे स्थण्डिले संलोकत्वादेते दुःशीलादयः संयतीवर्ग पश्येयुः संयतीवर्गेण वा ते दृश्येरन्नित्यतस्तदपि निषिध्यते ॥ २०६६ ॥ 10 हेट्ठउवासणहेउं, णेगागमणम्मि गहण उड्डाहो । वानर-मयूर-हंसा, छाला सुणगादि तेरिच्छा ॥ २०६७ ॥ अधस्तादुपासनम्-अधोलोचकर्म तद्धेतोरधोनापितेषु पूर्वप्राप्तेषु 'अनेकेषां' मनुष्याणामघोलोचकर्मकारापकाणामागमने सति यधुदीर्णमोहास्ते संयतीगृहन्तीति ततो ग्रहणे उड्डाहो भवति । तथा वानर-मयूर-हंसाश्छगलाः शुनकादयश्च तिर्यञ्चस्तत्रायाताः संयतीमुपसर्गयेयुः ॥ २०६७ ॥16 यत एवं ततः किम् ? इत्यत आह जइ अंतो वाधाओ, बहिया तासि तइया अणुनाया। सेसा नाणुनाया, अजाण वियारभूमीतो ॥२०६८ ॥ यदि 'अन्तः' ग्रामाभ्यन्तरे 'व्याघातः' पुरोहडादेरभावस्ततो बहिस्तासां तृतीया विचारभूमिः' आपाताऽसंलोकरूपाऽनुज्ञाता, तत्रापि स्त्रीणामेवापातो ग्राह्यो न पुरुषाणाम् । शेषा विचारभूम-30 योऽनापाताऽसंलोकाद्या आर्यिकाणां नानुज्ञाताः ॥ २०६८ ॥ गतं विचारद्वारम् । अथ संयतीगच्छस्यानयनमिति द्वारमाह पडिलेहियं च खेतं, संजइवग्गस्स आणणा होइ । निकारणम्मि मग्गों , कारणे समगं व पुरतो वा ॥ २०६९॥ __एवं वसति-विचारभूम्यादिविधिना प्रत्युपेक्षितं च गंयतीप्रायोग्य क्षेत्रम् । ततः संयतीवर्ग-25 स्यानयनं तत्र क्षेत्रे भवति । कथम् ? इत्याह–निकारणे' निर्भये निराबाधे वा सति साधवः पुरतः स्थिताः संयत्यस्तु 'मार्गतः' पृष्ठतः स्थिता गच्छन्ति । कारणे तु 'समकं वा' साधूनां पार्श्वतः 'पुरतो वा' साधूनामग्रतः स्थिताः संयत्यो गच्छन्ति ॥ २०६९ ॥ १ अथैतदेव व्या भा० ॥ २ ताः, अपरे च ये त° भा० ॥ ३ स्त्रीवेश्या वा गृहीत्वा "अपुमेसु उ"त्ति नपुंसकेषु तानि वा गृहीत्वेत्यर्थः आयान्ति । किमर्थम् ? इत्याह-'तदर्थे' तेषां प्रतिसेवनार्थमित्यर्थः ॥ २०६६ ॥ मा० ॥ ४ "णिकारणे पुरओ संजया ठायंति । अह सव्वओ भयं तो मज्झे तरुणीओ पासे मज्झिमाओ थेरीको खुड़ियाओ थेरा खुट्टगा मज्झिमा तरुणा वसभ त्ति, कारणे एयाए विहीए वचंति" इति विशेषपूर्णौ ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ३ निप्पच्चवाय संबंधि भाविए गणहरऽप्पबिर - तइओ । ने भए पुण सत्थेण सद्धि कयकरणसहितो वा ।। २०७० ।। 'निष्प्रत्यपाये' उपद्रवाभावे संयतीनां ये 'सम्बन्धिनः ' खज्ञातीयाः 'भाविताश्च' सम्यक्परिणतजिनवचना निर्विकाराः संयतास्तैः सह गणधर आत्मद्वितीय आत्मतृतीयो वा संयतीर्विवक्षितं চक्षेत्रं नयति । अथ स्तेनादिभयं वर्त्तते ततः सार्थेन सार्द्धं नयति, यो वा संयतः कृतकरण:इषुशास्त्रे कृताभ्यासस्तेन सहितोऽसौ संयतीस्तत्र नयति । स च गणधरः स्वयं पुरतः स्थितो गच्छति, संयत्यस्तु मार्गतः स्थिताः || २०७० || अत्रैव मतान्तरमुपन्यस्य दूषयन्नाह - उभयट्ठाइनिविट्टं, मा पेल्ले वइणि तेण पुर एगे । तं तु न जुञ्ज अविणय विरुद्ध उभयं च जयणाए ।। २०७१ ।। 10 एके सूरयो ब्रुवते – उभयं - कायिकी - संज्ञे तदर्थम् आदिशब्दात् परस्मिन् वा क्वचित् प्रयोजने निविष्टम् - उपविष्टं सन्तं संयतं त्रतिनी मा प्रेरयतु इत्यनेन हेतुना संयत्यः पुरतो गच्छन्ति । अत्राचार्यः प्राह – 'तत् तु' तदुक्तं न युज्यते । कुतः ? इत्याह – पुरतो गच्छन्तीनां तासामविनयः साधुषु सञ्जायते, लोकविरुद्धं चैवं परिस्फुटं भवति — अहो ! महेलाप्रधानममीषां दर्शनम् । यत एवमतो मार्गतः स्थिता एव ता गच्छन्ति । 'उभयं च ' कायिकी - संज्ञारूपं यतनया 15 कुर्यात् । का पुनर्यतना ? इति चेद् उच्यते - यत्रैकः कायिकीं संज्ञां वा व्युत्सृजति तत्र सर्वेऽपि तिष्ठन्ति । तथास्थिताँश्च तान् दृष्ट्वा संयत्योऽपि नाग्रतः समागच्छेयुः, ता अपि पृष्ठत एव शरीरचिन्तां कुर्वन्तीति ॥ २०७१ ॥ गतं गच्छस्यानयनमिति द्वारम् । अथ वारकद्वारमाहजहियं च अगारिजणो, चोक्खन्भूतो सुईसमायारो । कुडमुहदद्दरएणं, वारगनिक्खेवणा भणिया ।। २०७२ ॥ 'यस्मिंश्च' ग्रामादौ ' अगारीजनः' अविरतिकालोकश्चोक्षभूतः शुचिसमाचारश्च वर्तते तत्र वारकग्रहणं निर्ग्रन्थीभिः कर्त्तव्यम् । अथ न कुर्वन्ति ततश्चत्वारो गुरवः, यच्च प्रवचनोड्डाहादि - कमुपजायते तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । यत एवमतः कुटमुखे - घटकण्ठके लक्ष्णचीवरदर्दरकेण पिहितस्य वारकस्य - स्वेच्छद्रवभृतस्य - निक्षेपणा भणिता भगवद्भिः || २०७२ ॥ नामेव नियुक्तिगाथां भावयति - थीपडिबद्धे उवस्सएँ, उस्सग्गपदेण संवसंतीओ । 20 25 ५९८ वञ्चति काइभूमिं मत्तगहत्था न याऽऽयमणं ॥। २०७३ ॥ उत्सर्गपदेन संयतीभिः स्त्रीप्रतिबद्ध उपाश्रये वस्तव्यमिति कृत्वा तत्र संवसन्त्यो यदा कायिकीभूमिं व्रजन्ति तदा 'मात्रकहस्ता' वारकं हस्ते गृहीत्वा व्रजन्ति, यथा तासामगारीणां प्रत्ययो जायते - एताः कायिकीं कृत्वा पश्चादाचमनं करिष्यन्ति, अहो ! शुचिसमाचारा इति । तत्र च 30 गतास्तासामदर्शनीभूता आचमनं न कुर्वन्ति, स च वारकोऽन्तर्लिप्तः कर्त्तव्यः || २०७३ ॥ कुतः ? इत्यत आह १ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥ ३ इति चेद् उच्यते भा० ॥ २ एतदेव भाव' मो० ले० विना ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 भाष्यगाथाः २०७०-७७] प्रथम उद्देशः । दुक्खं विसुयावेउं, पणगस्स य संभवो अलित्तम्मि । संदंते तसपाणा, आवजण तकणादीया ॥ २०७४ ॥ वारकोऽलिप्तः सन् “विसुयावेउ" विशोषयितुं "दुक्खं" दुप्करो भवति । अलिप्ते च तत्र पानकभावितत्वात् पनकस्य 'सम्भवः' सम्मूर्च्छनं भवति । अलिप्तश्च वारकः पानके प्रक्षिप्ते सति स्यन्दते-परिगलति । स्यन्दमाने च 'त्रसप्राणिनः' कीटिका-मक्षिकादयः समागच्छेयुः । । ततः । किम् ? इत्यत आह--> "आवजण" त्ति यदनन्तकायिक-विकलेन्द्रियेषु सङ्घटनादिकमापद्यते तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । "तकणाईय" ति ततो वारकात् पानके परिगलति मक्षिकाः पतन्ति, तासां ग्रसनाथ गृहकोकिला धावति, तस्या अपि भक्षणार्थ मार्जारीत्येवं तर्कणम्-अन्योन्यं प्रार्थनं तदादयो दोषा भवेयुः ॥ २०७४ ॥ यत्र पुनः कायिकीभूमौ सागारिकं भवति तत्रेयं यतना सागारिए परम्मुह, दगसदमसंफुसंतिओ नित्तं । पुलएज मा य तरुणी, ता अच्छ दवं तु जा दिवसो ॥ २०७५ ॥ सागारिके सति पराङ्मुखीभूय कायिकी कृत्वा 'नेत्रं' भगमसंस्पृशन्त्यः 'दकशब्दं' पानकप्रक्षालनानुमापकं कुर्वन्ति । तथा 'तरुण्यः' स्त्रियः 'किमत्रास्ति पानकं न वा ?' इति जिज्ञासया मा प्रलोकन्तामिति हेतोस्तस्मिन् वारके तावद् 'अच्छम्' अकलुषं 'द्रवं' पानकं प्रक्षिप्तं तिष्ठति यावद् दिवसः, ततः सन्ध्यासमये तत् पानकं परिष्ठापयन्ति ॥ २०७५ ॥ गतं वारकद्वारम् । अथ भक्तार्थनाविधिद्वारमाह--- मंडलिठाणस्सऽसती, बला व तरुणीसु अहिवडंतीसु । पत्तेय कमढभुंजण, मंडलिथेरी उ परिवेसे ॥ २०७६ ॥ यद्यसागारिकं ततो मण्डल्यां समुद्दिशन्ति । अथ मण्डलीभूमिः सागारिकबहुला ततो मण्डलिस्थानस्यासति बलाद् वा प्रणयेन तरुणीष्वभिपतन्तीषु तत्रौर्णिकं कल्पमधः प्रस्तीर्य तस्योपरि 20 सौत्रिकं तत्राप्यलावुपात्रकाणि स्थापयित्वा प्रत्येकं कमढकेषु भुञ्जते । प्रवर्तिनी च पूर्वाभिमुखा धुरि निविशते । तत एका मण्डलिस्थविरा यमलजननीसहोदरा सर्वासामपि परिवेषयेत्, आत्मनोऽपि योग्यमात्मीये कमढके प्रक्षिपेत् ॥ २०७६ ॥ ओगाहिमाइविगई, समभाग करेइ जत्तिया समणी । तासिं पच्चयहेउं, अणहिक्खट्टा अकलहो अ॥ २०७७॥ 25 अवगाहिमं-पक्वान्नम् आदिशब्दाद् घृतादिकाश्च विकृतीः यावत्यः श्रमण्यस्तावतः समभागान् मण्डलिस्थविरा करोति । किमर्थम् ? इत्याह--'तासां' श्रमणीनां प्रत्ययार्थम् , तथा "अणहिक्खट्ट' त्ति 'अनधिकखादनार्थ' सर्वासामप्यविमसमुद्देशनार्थम् , अकलहश्चैवं भवति, असङ्खडं न भवतीत्यर्थः ॥ २०७७ ॥ ताश्च समुद्देष्टुमुपविशन्त्य इत्थं ब्रुवते निव्वीइय एवइया, व विगइओ लंबणा व एवइया । १ » एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥ २°पयति, आ° भा० ॥३°क्षिपति भा०॥ ४°पमं समुद्देशनं यथा भवतीति भावः, एवं च विधीयमाने 'अकलहः' परस्परमसह्वडं न भवति ॥ २०७७ ॥ ताश्च समुद्दिशन्त्य इत्थं भा० ॥ 30 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ३ अण्णगिलायबिलिया, अज अहं देह अन्नासि ॥२०७८ ॥ एका ब्रूते--अद्याहं निर्विकृतिका । द्वितीया प्राह-अद्य मम 'एतावत्यः' एक-यादिसङ्ख्याका विकृतयो मुत्कलाः शेषाणां प्रत्याख्यानम् । अपरा भणति-अद्य ममैतावन्तः ‘लम्बनाः' कवलाः तत ऊर्द्ध नियमः । अन्याऽभिधत्ते-अद्याहम् 'अन्नग्लाना' ग्लान-पर्युषितमन्नं मया भोक्तव्यमित्येवं 5 प्रतिपन्नाभिग्रहा । तदपरा ब्रूते-अद्याहम् 'आचाम्लिका' कृताचाम्लप्रत्याख्याना अत इदं विकृत्यादिकमन्यासां प्रयच्छत । एवं समुद्दिश्य खच्छपानकेनाचमनं कुर्वन्ति । प्रवर्त्तिन्याः कमढकं क्षुल्लिका निलेपयति, शेषास्तु खं खं कमढकम् । ततः सर्वास्वपि समुद्दिष्टासु मण्डलीस्थविरा समुद्दिशति ॥ २०७८ ॥ एवंविधं विधिं दृष्ट्वा किं भवति ? इत्याह दट्टण निहुयवासं, सोयपयत्तं अलुद्धयत्तं च । इंदियदमं च तासिं, विणयं च जणो इमं भणइ ॥ २०७९ ॥ 'तासां' संयतीनां 'निभृतवास' विकथादिविरहेण निर्व्यापारतयैवावस्थानम् , 'शौचप्रयत्न' वारकग्रहणादिरूपम् , अलुब्धत्वं च विकृत्यादिप्रत्याख्यानाभिग्रहश्रवणेन, 'इन्द्रियदमं च' श्रोत्रादीन्द्रियनिग्रहम् , 'विनयं च' प्रवर्तिन्यादिप्वभ्युत्थानादिरूपं दृष्ट्वा ‘जनः' लोक इदं ब्रवीति ॥२०७९॥ सच्चं तवो य सीलं, अणहिक्खाओ अ एगमेगस्स । 15 जइ बंभं जइ सोयं, एयासु परं न अन्नासु ॥ २०८० ॥ वाहिरमलपरिछुद्धा, सीलसुगंधा तवोगुणविसुद्धा । धन्नाण कुलुप्पन्ना, एआ अवि होज अम्हं पि ॥ २०८१ ॥ 'सत्यं वाकर्मणोरविसंवादिता, 'तपः' अनशनादि, 'शीलं' सुखभावता, 'अनधिकखादश्च' विषमभोजनम् 'एकैकस्याः' परस्परममूषाम् , तथा यदि 'ब्रह्म' ब्रह्मचर्य यदि 'शौच' शुचिसमा20 चारता, एतानि सत्यादीनि यदि परम् एतासु' संयतीपु दृश्यन्ते 'नान्यासु' शाक्यादिपापण्डिनीषु । ततो यद्यप्येता बाह्यमलेन परिक्षिप्तास्तथापि शीलेन सुगन्धाः तपोगुणैः-अनशनादिभिः यद्वा तपसा-प्रतीतेन गुणैश्च-उपशमादिभिर्विशुद्धाः 'धन्यानां कुलोत्पन्नाः' एता येषां कुले उत्पन्नास्तेऽपि धन्या इति भावः । 'अपिः' सम्भावनायाम् , सम्भाव्यते किमयमर्थः यदस्माकमपि भगिनी-दुहित्रादय एतादृश्यः-खकुलोज्वालनकारिण्यो भवेयुः ? ॥२०८०॥२०८१॥ एवं तत्थ वसंतीणुवसंतो सो य सिं अगारिजणो।। गिण्हेति य सम्मत्तं, मिच्छत्तपरम्मुहो जाओ ॥ २०८२ ॥ एवं तत्र वसन्तीनां तासां स अगारीजनः 'उपशान्तः' प्रतिबुद्धस्ततो मिथ्यात्वपराङ्मुखो जातः सन् सम्यक्त्वं गृह्णाति, चशब्दाद् देशविरतिं गृहवासभग्नो वा कश्चित् तद्गुणग्रामरञ्जितमनाः सर्वविरतिमपि प्रतिपद्यते ॥२०८२ ॥ गतं भिक्षार्थनाविधिद्वारम् । अथ प्रत्यनीकद्वारमाह30 तरुणीण अभिवणे, संवरितो संजतो निवारेइ ।। तह वि य अठायमाणे, सागारिओं तत्थुवालभइ ॥ २०८३ ॥ तरुणीनां संयतीनामभिद्रवणे प्रत्यनीकेन विधीयमाने सति 'संवृतः' संयतीवेषाच्छादितः १ "ग्लानमन्नं अन्नगिलातं” इति चूणीं ॥ २ » एतदन्तर्गतः पाठः त० दे० कां० नास्ति ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २०७८-८८] प्रथम उद्देशः । ६०१ संयतो निवारयति । तथापि चातिष्ठति तस्मिन् 'सागारिकः' शय्यातरः 'तत्र' उपसर्गे तमुपालभते ॥ २०८३ ॥ एनामेव नियुक्तिगाथां भावयति गणिणिअकहणे गुरुगा, सा वि य न कहेइ जइ गुरूणं पि । सिट्ठम्मि य ते गंतुं, अणुसट्ठी मित्तमाईहिं ॥ २०८४ ॥ कश्चित् तरुणो विषयलोलुपतया संयतीनामुपद्रवं कुर्यात् ततस्तत्क्षणादेव ताभिः प्रवर्तिन्याः । कथनीयम् । यदि न कथयन्ति ततश्चत्वारो गुरवः । साऽपि च प्रवर्तिनी यदि गुरूणां न कथयति तदापि चतुर्गुरवः आज्ञादयश्च दोषाः, तस्मात् कथयितव्यम् । ततः 'शिष्टे' कथिते 'ते' आचार्यास्तस्याविरतकस्य पार्थं गत्वा साध्वीशीलभङ्गस्य दारुणविपाकतासूचिकामनुशिष्टिं ददति । यापरमते ततः सुन्दरम् , अथ नोपरमते ततो यानि तस्य मित्राणि आदिशब्दाद् ये वा भ्रात्रादयः खजनास्तेषां निवेद्य तैः प्रज्ञाप्यते । यदि स्थितस्ततो लष्टम् ॥ २०८४ ॥ 10 तह वि य अठायमाणे, वसभा भेसिंति तहवि य अठंते । अमुगथ घरे एजह, तत्थ य वसभा वतिणिवेसा ॥ २०८५ ॥ तथाप्यतिष्ठति तस्मिन् प्रत्यनीके 'वृषभाः' गच्छस्य शुभा-ऽशुभकार्यचिन्तानियुक्तास्तं प्रत्यनीकं भापयन्ति । तथाप्यतिष्ठति यस्तरुणः कृतकरणः साधुः स संयतीनेपथ्यं कृत्वा तस्य सङ्केतं प्रयच्छति, यथा-अमुकत्र गृहे यूयमागच्छत । ततो वृषभा व्रतिनीनां वेषं परिधाय तेन 15 साधुना सह तत्र गत्वा प्रत्यनीकस्य शिक्षां कुर्वन्ति । तथाप्यनुपशान्ते तस्मिन् सागारिकस्य निवेद्यते । तेनोपलब्धो यदि स्थितस्ततः सुन्दरम् ॥ २०८५ ॥ अथ नास्ति तदानीं सन्निहितः सागारिकस्ततः किं कर्तव्यम् ? इत्याह सागारिए असंते, किच्चकरे भोइयस्स व कहिंति । अण्णत्थ ठाण णिती, खेत्तस्सऽसती णिवे चेव ॥ २०८६॥ 20 सागारिके 'असति' असन्निहिते 'कृत्यकरस्य' ग्रामचिन्तानियुक्तस्य 'भोगिकस्य वा' ग्रामखामिनः कथयन्ति । तेन शासितोऽपि यदि नोपरमते ततः संयतीरन्यत्र 'स्थाने' क्षेत्रे नयन्ति । अथ नास्ति संयतीप्रायोग्यमपरं क्षेत्रं वयं वा संयत्यो ग्लानादिकार्यव्यामृता न शक्नुवन्ति क्षेत्रान्तरं गन्तुं ततः 'नृपस्य' दण्डिकस्य निवेद्यते, स प्रत्यनीकमुपद्रवन्तं निवारयति ॥ २०८६ ॥ गतं प्रत्यनीकद्वारम् । अथ भिक्षानिर्गमद्वारमभिघित्सुराह 25 दो थेरि तरुणि थेरी, दोनि य तरुणीउ एकिया तरुणी। चउरो अ अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ २०८७॥ अत्र गुरुनियोगतश्चर्णिरेव लिख्यते-जति दोन्नि थेरीओ निग्गच्छंति भिक्खस्स का, तरुणी थेरी य जति का, दो तरुणीओ जति निग्गच्छंति एका, एगा थेरी जति निग्गच्छइ एका, एक्किया तरुणी जति निग्गच्छइ एका, तत्राप्याज्ञादयो दोषाः॥२०८७॥ कुतः ? इत्याह-30 चउकण्णं होज रहं, संका दोसा य थेरियाणं पि। कुट्टिणिसहिता बितिए, तइय-चउत्थीसु धुत्ति त्ति ॥ २०८८ ॥ १ इदमेव भाव भा० कां०॥ २थ चेव ए° ता. ॥ ३ अत्र चूर्णिः-जति कां० ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के वृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ३ दोहं थेरी दोसे- दुवे अभिन्नरहसीओ होज्जा, संका य-1 - किं भने केइ दूति किच्चेण निउत्तियाओ ? असंकणिज्जाओ त्ति काउं । तरुणी थेरी य लोगो भणेज्जा - कुट्टिणिसहिया हिंडइ, "बितिए" त्ति पगारे निम्गमस्स । दो तरुणीओ धुत्तीओ संभाविज्जति । एगा वि थेरी धुत्त संभाविज्जइ । एगा तरुणी तक्कणिज्जा ।। २०८८ ॥ यस्मादेते दोषाः तस्मादयं विधिःपुरतो यमग्गतो या, थेरीओ मज्झ होंति तरुणीओ । अगमणे निग्गमणे, एस विही होड़ कायव्वो ।। २०८९ ॥ 5 'पुरतः' अग्रतः 'मार्गतश्च' पृष्ठतः स्थविरा भवन्ति, मध्यभागे पुनस्तरुण्यः, एवं बहीनां सम्भूय पर्यटन्तीनामुक्तम् । जघन्येन तु तिस्रः सहैव पर्यटन्ति, तत्रैका स्थविरा पुरतः द्वितीया स्थविरैव पृष्ठतः तृतीया तरुणी तयोर्द्वयोरपि मध्यभागे स्थिता सती पर्यटन्ति । एवम् 'अतिग10 मने' गृहपतिगृहप्रवेशे ‘निर्गमने च' तत एव निर्गमे एष विधिः कर्तव्यो भवति ॥ २०८९ ॥ कुतः ? इति चेद् उच्यते तिगमाद संकणिज्जा, अतक्कणिजा य साग- तरुणाणं । अन्नोन्नरक्खणेसण, वीसत्थपवेस किरिया य ।। २०९० ॥ त्रिकादयः पर्यटन्त्योऽशङ्कनीया भवेयुः, श्वान - तरुणानां च ' अतर्कणीया ः ' अनभिलषणीया 15 भवन्ति, उवद्रवत्स्वपि च श्वान - गवादिषु त्रिप्रभृतयोऽन्योन्यं परस्परं सुखेनैव रक्षणं कुर्वन्ति, एषणां च सम्यक् शोधयन्ति, विश्वस्ताश्च सत्यो गृहस्थकुलेषु प्रवेश निर्गमादिकाः क्रियाः कुर्वि || २०९० ॥ यत्र कोष्ठको भवेत् तत्रायं विधिः— थेरी कोट्ठगदारे, तरुणी पुण होइ तीऍ णादूरे । fate किढ़ी ठाइ बहिं, पच्चत्थियरक्खणडाए || २०९१ ।। 20 - प्रत्य एका स्थविरा ‘कोष्ठकस्य' अपवरकस्य द्वारे, तरुणी पुनः 'तस्याः' स्थविराया नातिदूरे प्रदेशे, या तु द्वितीया 'किढी' स्थविरा सा द्वारस्य बहिस्तिष्ठति । किमर्थम् ? इत्याह – प्रत्यर्थी - प्र नीकस्तस्य रक्षणार्थम्, यदि कोऽप्युपसर्गं कुर्यात् तदा सुखेनैव बोलं कृत्वा स निवार्यते ॥ २०९१ ॥ 25 जाणंति तब्बिह कुले, संबुद्धीए चरिज अन्नोनं । ओराल निच लोयं, खुज तत्रो आउल सहाया ॥। २०९२ ।। द्विधानि - तादृशानि सम्भावनीयोपद्रवाणि कुलानि सम्यग् जानन्ति, ज्ञात्वा च प्रथमत एव परिहरन्ति । ‘अन्योऽन्यं' परस्परं 'सम्बुद्ध्या' सम्मत्या 'चेरयुः' भिक्षाचर्यां पर्यटेयुः, मा भूवन्नसम्मत्या पर्यटने परस्परमसङ्खडादयो दोषाः । या च 'उदारा' रूपातिशयसंयुक्ता संयती सा नित्यमेव लोचमात्मनः करोति, "खुज्ज" त्ति तस्याः पृष्ठदेशे कुब्जकरणी स्थापयितव्या, 'तपः ' 30 चतुर्थादिकं सा कारापणीया, 'आकुले' जैनाकीर्णे बह्वीभिश्च सहायाभिः सहिता सा भिक्षादी १ मध्ये | एवम् मो० ले० विना ॥ २ जनाकीर्णे सा भिक्षां हिण्डापयितव्या, 'सहाया' द्वितीया तस्या दातव्या, न सहायविरहितायाः प्रतिश्रयान्निर्गन्तुं कदाचिदप्यनुज्ञातव्यमिति भावः ॥ २०९२ ॥ आह किं पुनः कारणं येन त्रिप्रभृतिवृन्देन ता भिक्षामटन्ति ? इति उच्यते--तिप्पमिइ भा० ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः २०८९-९६] प्रथम उद्देशः । ६०३ हिण्डापनीया ॥ २०९२ ॥ अथ तासां वृन्देन भिक्षाटने कारणान्तरमाह तिप्पभिइ अडंतीओ, गिण्हंतऽनन्नहिं चिमे तिनि ।। संजम-दव्वविरुद्धं, देहविरुद्धं च जं दव्यं ॥ २०९३॥ त्रिप्रभृतिवृन्देन भिक्षामटन्त्यः ‘अन्योऽन्यस्मिन्' पृथक्पृथग्भाजने चशब्दः प्रागुक्तकारणापेक्षया कारणान्तरद्योतनार्थः, अमूनि त्रीणि द्रव्याणि सुखेनैव गृह्णन्ति, तद्यथा-संयमविरुद्ध द्रव्यविरुद्धं देहविरुद्धं च यद् द्रव्यम् ॥ २०९३ ॥ एतान्येव यथाक्रमं प्रतिपादयति पालंक-लट्टसागा, मुग्गकयं चाऽऽमगोरसुम्मीसं । संसज्जती उ अचिरा, तं पि य नियमा दुदोसाय ॥ २०९४ ॥ पालङ्कशाकं-महाराष्ट्रादौ प्रसिद्धम् , लट्टाशाकं-कौसुम्भशालनकम् , एते अन्योऽन्यं मिलिते सूक्ष्मजन्तुभिः संसज्येते । यच्च मुद्कृतम् , उपलक्षणत्वादन्यदपि द्विदलं तदप्यामगोरसोन्मिश्रं 10 सद् अचिरादेव सूक्ष्मजन्तुभिः संसज्यते, संसक्तं च नियमाद् द्वौ दोषौ समाहृतौ द्विदोषं तस्मै द्विदोपाय भवति, संयमोपघाता-ऽऽत्मोपघातरूपं दोषद्वयं करोतीत्यर्थः ॥ २०९४ ॥ दहि-तेलाई उभयं, पय-सोवीराउ होति उ विरुद्धा। देहस्स विरुद्धं पुण, सी-उण्हाणं समाओगो ॥ २०९५ ॥ दधि-तैले आदिशब्दादन्यदपि 'उभयं' मिलितं सद् यत् परस्परविरुद्धम् , ये च ‘पयः-15 सौवीरे दुग्ध-काञ्जिके परस्परं विरुद्ध एतद् द्रव्यविरुद्ध मन्तव्यम् । देहस्य पुनर्विरुद्धं यः शीतोप्णयोद्रव्ययोः परम्परं समायोगः । एतानि पृथक्पृथग्भाजनेषु गृह्यमाणानि न संयमाद्युपघातीय जायन्ते ॥ २०९५॥ अपि च नत्थि य मामागाई, माउग्गामो य तासिमब्भासे । सी-उण्हगिण्हणाए, सारक्षण एकमेकस्स ॥ २०९६ ॥ 20 नं च सन्ति तासां मामाकानि कुलानि, नहि कोऽपि स्त्रीजनं गृहे प्रविशन्तमीjया निषे१ त्रिप्रभृतयस्ता भिक्षा भा० ॥ २ चशब्दः कारणान्तरद्यो° भा० ॥ ३ पालक ता० ॥ ४ पालङ्कशाकं महाराष्ट्रे गोल्लविषये च प्रसि° भा० । “पालक महर?विसए गोल्लविसए य सागो जायइ" इति विशेषचूर्णौ ॥ ५°दलमामगोरसोन्मिश्रं सदचिरादेव सूक्ष्मजन्तुभिः संसज्यते, अतस्तदपि च नियमाद् द्विदोषाय भवति, संयमा-ऽऽत्मोप° भा० ॥ ६°ल्लाई दवे, पय° ता० ॥ ७ दधि तैलं च प्रतीतम् एतदुभयम् आदिशब्दादपरमपि संयुक्तं सद् यत् परस्परविरुद्धम् , तथा पयः-दुग्धं सौवीरं-काधिकम् एते अपि परस्परं विरुद्ध भा० ॥ ८°तायोपकल्प्यन्ते भा० ॥ ९°गाई भा०॥ १० न सन्ति 'तासां' संयतीनां मामाकाः-'मा मदीयं गृहं प्रविशत' इत्येवमीालुतया प्रतिषेधकाः पुरुषाः, आदिशब्दाद् अप्रीतिकृतोऽपि न सन्ति, 'मातृग्रामश्च' स्त्रीवर्गः तासाम् 'अभ्यासे' प्रत्यासत्तौ वर्त्तते स्त्रियः स्त्रीणां विश्वसन्तीति भावः, ततः कोऽपि प्रतिसेवनार्थी कयाचिदगार्या तरुणसंयती प्रज्ञापयेत् , एतैः कारणैः त्रिप्रभृतयः पर्यटन्ति, 'मा चिरं पर्यटितव्यं भविष्यति' अतो दोषान्नमपि गृहन्ति, एवं शीतोष्णग्रहणेन संरक्ष. णमेकैकस्याः परस्परं कृतं भवति ॥ २०९६ ॥ कथं पुनः शीतमुष्णं च गृह्णन्ति? इति चेद् उच्यते-एगस्थ भा०॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ३ धयतीति भावः । मातृप्रामो नाम समयपरिभाषया स्त्रीवर्गः, चशब्द एवकारार्थः, तत इदमुक्तं भवति-स्त्रीवर्ग एव प्रायेण भिक्षादायकः, स च तासां संयतीनामभ्यासे स्त्रीत्वसम्बन्धमधिकृत्य प्रत्यासत्तौ वर्त्तते, अतस्त्रिप्रभृतीनामपि पर्यटन्तीनां सुखेनैव भक्त-पानं पर्याप्तं भवति । शीतोष्णग्रहणेन च संरक्षणमेकैकस्याः परस्परं कृतं भवति ॥ २०९६ ॥ कथं पुनः ? इत्यत आह एगत्थ सीयमुसिणं, च एगहिं पाणगं च एगत्था। दोसीणस्स अगहणे, चिराडणे होजिमे दोसा ॥ २०९७ ॥ 'एकत्र' प्रतिग्रहे 'शीतं' पर्युषितं भक्तं गृह्णन्ति, एकस्मिन्नुष्णम् , एकत्र च पानकम् , एतच्च तिसृणामटन्तीनों घटामाटीकते । अथ द्वे पर्यटतस्तत एकत्र प्रतिग्रहे उष्णं द्वितीयत्र तु पानकं परं दोषान्नं कुत्र गृहन्तु ? मात्रकं तु स्वार्थ परिभोक्तुं न कल्पते, अथोष्णमध्ये दोषान्नं गृह्णन्ति 10 तदा देहविरुद्धं भवति, अथ दोषान्नं न गृह्णन्ति ततो दोषान्नस्याग्रहणे 'चिराटने' चिरं पर्यटन्तीनां तरुणादिकृतोपसर्गः स्त्रीवेद उद्दीप्येत॥२०९७ ॥ तथा चामुमेवार्थ दर्शयितुं वेदत्रयस्वरूपमाह थी पुरिसो अ नपुंसो, वेदो तस्स उ इमे पगारा उ । फंफम-दवग्गिसरिसो, पुरदाहसमो, भवे तइओ॥ २०९८॥ वेदस्त्रिधा-स्त्रीवेदः पुरुषवेदो नपुंसकवेदश्च । तस्य तु त्रिविधस्यापि यथाक्रमममी प्रकाराः16 स्त्रीवेदः फुस्फुकामिसदृशः-करीषाग्मितुल्यः, यथा करीषाग्निरन्तर्धगधगन्नास्ते न परिस्फुटं प्रज्वलति न वा विध्यायति चालितस्तु तत्क्षणादेवोद्दीप्यते एवं स्त्रीवेदोऽपि । पुरुषवेदस्तु दवामिसदृशः, यथा दवाग्निरिन्धनयोगतः सहसैव प्रज्वल्य विध्यायति एवं पुरुषवेदोऽपि । तृतीयो नपुंसकवेदः स पुरदाहसमः, यथा हि महानगरदाहे वह्निः प्रज्वलितः सन्ना वा शुष्के वा सर्वत्र दीप्यते एवं नपुंसकवेदोऽपि स्त्रियां पुरुषे वा सर्वत्र दीप्यते न चोपशाम्यति ॥ २०९८॥ 20 इत्थं वेदत्रयखरूपमुपदर्य प्रस्तुतयोजनामाह जह फुफुमा हसहसेइ घट्टिया एवमेव थीवेदो। दिप्पइ अवि किढियाण वि, आलिंगण-छे(छ)दणाईहिं ॥ २०९९ ॥ यथा फुस्फुकाग्निर्घट्टितः सन् “हसहसेइ" त्ति देदीप्यते एवमेव स्त्रीवेदोऽप्यालिङ्गन-च्छेद(च्छन्द) नादिभिरुदीरितः । सन् “किढियाण वि" त्ति » स्थविराणामपि दीप्यते, किं पुनस्तरुणी25 नाम् ? इत्यपिशव्दार्थः ॥२०९९।। आह स्थविराणां कथं वेदोद्दीपनं भवति ? इति उच्यते न वओ इत्थ पमाणं, न तवस्सित्तं सुयं न परियाओ।[आव.नि.७१५] अवि खीणम्मि वि वेदे, थीलिंगं सव्वहा रक्खं ॥ २१००॥ . १. नतः किमुक्त त० ३० का० ॥ २ पतञ्च त्रिप्रभृतीनामेव पर्यटन्तीनां भवति । अथ द्वे पर्यटतस्तत एकत्रोष्णं द्वितीयेच प्रतिग्रहे पानकं गृहीतं ततो दोषान्नमुत्पादितं तत् कुत्र गृह्णातु ? । अथ यस्मिन्नेव प्रतिग्रहे उष्णं गृहीतं तत्रैव शीतमपि गृह्णाति तदा देहविरुद्धं भवति । अथ दोषानं न गृहन्ति ततो दोषान्नस्याग्रहणे चिराटनं-प्रभूतां वेलां पर्यटनं भवति ॥ २०९७ ॥ तत्र चामी दोषा भवेयुः-थी पुरिसो भा० ॥ ३°नां भवति । अथ त. डे० कां० ॥ ४॥ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले. पुस्तकयोरेव ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २०९७-२१०४] प्रथम उद्देशः । ६०५ न 'वयः' वार्द्धकादिकम् 'अत्र' विचारे प्रमाणम् , न वा 'तपस्वित्वम्' अनशनादितपःकर्मकारिता, न वा 'श्रुतम्' आचारादिकं सुबहप्यवगाहितम् , न वा 'पर्यायः' द्राघीयःप्रव्रज्याकाललक्षणः, एतेषु सत्खपि वेदोदयो भवेदित्यर्थः । अपि च 'क्षीणेऽपि' निर्दग्धेन्धनकल्पे कृतेऽपि » वेदे स्त्रीलिङ्गं सर्वथा रक्ष्यम् , अत एव स्त्रीकेवली यथोक्तामार्यिकोपकरणप्रावरणादियतनां करोतीति भावः ॥ २१०० ॥ आह यदि ताः स्नानादिपरिकर्मरहिताः ततः किं कोऽपि । तासु रागं व्रजति येनेत्थं यतना क्रियते ? उच्यते कामं तवस्सिणीओ, हाणुव्वदृणविकारविरयाओ। ___ तह वि य सुपाउआणं, अपेसणाणं चिमं होइ ॥ २१०१॥ 'कामम्' अनुमतं यथा तपखिन्यः स्नानोद्वर्तनविकारविरतास्तथापि 'सुप्रावृतानी' नित्यमेव बहुभिरुपकरणैराच्छादितानाम् 'अप्रेषणानां च' अव्यापाराणाम् 'इदम्' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणं 10 शरीरसौन्दर्यं भवति ॥ २१०१॥ तदेवाह रूवं वन्नो सुकुमारया य निद्धच्छवी य अंगाणं । होंति किर सन्निरोहे, अजाण तवं चरंतीणं ॥ २१०२॥ 'रूपम्' आकृतिः 'वर्णः' गौरत्वादिः 'सुकुमारता' कोमलस्पर्शता स्निग्धा च-कान्तिमती छविः-त्वम् 'अङ्गानां' शरीरावयवानाम् । एतानि रूपादीनि आर्यिकाणां 'सन्निरोधे बहूपकर-15 णप्रावरणादौ ध्रियमाणानां तपः चरन्तीनामपि भवन्ति, ततो युक्तियुक्ता पूर्वोक्ता तासां यतनेति ॥ २१०२ ॥ गतं भिक्षानिर्गमद्वारम् । अथ निर्ग्रन्थानां मासः कस्मात् तासां द्वौ मासाविति द्वारम् । शिप्यः पृच्छति-किं निम्रन्थीनामभ्यधिकानि महाव्रतानि येन तासां द्वौ मासौ निम्रन्थानामेकं मासमेकत्र वस्तुमनुज्ञायते ? सूरिराहजइ वि य महव्ययाई, निग्गंथीणं न होंति अहियाई । 20 तह वि य निचविहारे, हवंति दोसा इमे तासिं ॥ २१०३॥ ___ यद्यपि च निर्ग्रन्थीनां महाव्रतानि नाधिकानि भवन्ति तथापि 'नित्यविहारे' मासे मासे क्षेत्रान्तरसङ्क्रमणे इमे दोषास्तासां भवन्ति ॥ २१०३ ॥ मंसाइपेसिसरिसी, वसही खेत्तं च दुल्लभं जोग्गं ।। एएण कारणेणं, दो दो मासा अवरिसासु ॥ २१०४॥ मांसादिपेशीसदृशी संयती, सर्वस्याप्यभिलषणीयत्वात् । तथा तासां योग्या वसतिर्दुर्लभा, क्षेत्रं च तत्प्रायोग्यं दुर्लभम् । ततो यथोक्तगुणविकलायां वसतौ दोषदुष्टे वा क्षेत्रे स्थाप्यमानानां बहवः प्रवचनविराधनादयो दोषी उपढौकन्ते । एतेन कारणेन तासाम् ‘अवर्षासु' वर्षावासं १ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥ २ आह नन्वेतदपि चिन्त्यमस्ति यत् छद्मस्थसंयत्योऽप्येवंविधां यतनां कुर्वन्ति, यावता यदि ताः स्नानादिविकाररहितास्ततः किमर्थमित्थं यतना क्रियते? उच्यते भा० ॥ ३ नाम्' अन्तर्निवसन्यादिभिर्बहु भा० ॥ ४ द्वारं व्याख्यायते । शिष्यः भा० त. हे० ॥ ५°षा भवन्ति । ए° भा० ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ४ विमुच्य द्वौ द्वौ मासावेकत्र वस्तुमनुज्ञायते ॥ २१०४ ॥ अथ द्वयोरुपरि वसन्तीनां दोषान् द्वितीयपदं चोपदर्शयति दोण्हं उवरि वसंती, पायच्छित्तं च होति दोसा य। विइयपयं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए ॥ २१०५ ॥ 5. द्वयोर्मासयोरुपरि वसन्ति ततः प्रायश्चित्तं दोषाश्च भवन्ति । द्वितीयपदं च ग्लाने वसतिर्भेक्षं च यतनया ग्रहीतव्यम् । भावार्थो निग्रन्थानामिव द्रष्टव्यः ॥ २१०५ ॥ सूत्रम् से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सवाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथीणं हेमंत-गिम्हासु चत्तारि मासा वत्थए-अंतो दो मासे, वाहि दो 10 मासे । अंतो वसमाणीणं अंतो भिक्खायरिया, वाहिं वसमाणीणं बाहिं भिक्खायरिया ४-९॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् । नवरं सबाहिरिके क्षेत्रेऽन्तौ मासौ बहि मासावित्येवं चतुरो मासान् निर्ग्रन्थीनां वस्तुं कल्पत इति ॥ अथ भाष्यम् एसेव कमो नियमा, सपरिक्खेवे सवाहिरीयम्मि । नवरं पुण नाणत्तं, अंतो बाहिं चउम्मासा ॥ २१०६ ॥ ___ 'एष एव' पूर्वसूत्रोक्तः क्रमः सर्वोऽपि नियमात् सपरिक्षेपे सबाहिरिके क्षेत्रे वसन्तीनां संयतीनां द्रष्टव्यः । नवरं पुनः'नानात्वं' विशेषोऽयम्- 'अन्तः' अभ्यन्तरे 'बहिः' वाहिरिकायाम् एवमुभयोश्चत्वारो मासाः पूरणीयाः ॥ २१०६॥ चउण्हं उवरि वसंती, पायच्छित्तं च होंति दोसा य । नाणत्तं असईऍ उ, अंतो वसही बहिं चरइ ॥ २१०७॥ चतुर्णा मासानामुपरि यदि सबाहिरिके क्षेत्रे संयती वसति तदा तदेव प्रायश्चित्तं त एव च दोषाः द्वितीयपदमपि तदेव मन्तव्यम् । 'नानात्वं' विशेषः पुनरयम्-बाहिरिकायां वसतेः शय्यातरस्य वा यथोक्तगुणस्य 'असति' अभावे 'अन्तः' प्राकाराभ्यन्तरे "वसहि" ति वसतौ पूर्वस्यामेव स्थिता 'बहिः' बाहिरिकायां 'चरति' भिक्षाचर्यामटति ॥ २१०७ ॥ 25 इदमेव स्पष्टयति जोग्गवसहीइ असई, तत्थेव ठिया चरिंति बाहिं तु । पुव्वगहिए विगिंचिय, तत्तो चिय मत्तगादी वि ॥ २१०८॥ बहिः संयतीयोग्याया वसतेरभावे 'तत्रैव' अभ्यन्तरोपाश्रये स्थिताः सन्त्यो वहिश्चरन्ति, पूर्वगृहीतानि मात्रक-तृण-डगलादीनि 'विविच्य' परित्यज्य अपराणि 'तत एव' बाहिरिकाया 30 मात्रकादीन्यप्यानेतन्यानि, न केवलं भिक्षेत्यपिशव्दार्थः, श्रुत-संहननादिविषया सामाचारी १ °हीतं मात्रक-तृण-डगलादि 'वि° मो० ले. विना ॥ 15 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः २१०५-१४] प्रथम उद्देशः । ६०७ क्षेत्र-कालादिविषया च स्थितिः स्थविरकल्पिकानामिब द्रष्टव्या ॥ २१०८ ॥ तदेवमुक्त आर्यिकाणामपि मासकल्पविधिः । अथ शिप्यः प्रश्नयति गच्छे जिणकप्पम्मि य, दोण्ह वि कयरो भवे महिड्डीओ। निप्फायग-निप्फन्ना, दोनि वि होती महिड्डीया ॥ २१०९॥ गच्छ-जिनकल्पयोर्द्वयोर्मध्ये कतरः 'महर्द्धिकः' प्रधानतरो भवेत् ? । गुरुराह-निष्पादक-5 निष्पन्नाविति कृत्वा द्वावपि महर्द्धिकौ भवतः । तत्र गच्छः सूत्रार्थग्राहणादिना जिनकल्पिकस्य निष्पादकः अतोऽसौ महर्द्धिकः, जिनकल्पिकस्तु निप्पन्नः-ज्ञान-दर्शन-चारित्रेषु परिनिष्ठित इत्यसौ महर्द्धिकः ॥ २१०९ ॥ एनामेव नियुक्तिगाथां भावयति दंसण-नाण-चरित्ते, जम्हा गच्छम्मि होइ परिवुड्डी। एएण कारणेणं, गच्छो उ भवे महिड्डीओ ॥ २११० ॥ दर्शन-ज्ञान-चारित्राणां यस्माद् गच्छे परिवृद्धिर्भवति एतेन कारणेन गच्छो महर्द्धिको भवति ॥ २११०॥ पुरतो व मग्गतो वा, जम्हा कत्तो वि नत्थि पडिबंधो । एएण कारणेणं, जिणकप्पीओ महिड्डीओ ॥ २१११॥ 'पुरतो वा' विहरिष्यमाणक्षेत्रे 'मार्गतो वा' पृष्ठतः पूर्वविहृतक्षेत्रे यस्मात् 'कुतोऽपि' द्रव्यतः 15 क्षेत्रतः कालतो भावतो वा प्रतिबन्धस्तस्य भगवतो न विद्यते एतेन कारणेन जिनकल्पिको महर्द्धिकः ॥ २१११ ॥ अथ द्वयोरपि महर्द्धिकत्वं दृष्टान्तेन दर्शयति दीवा अन्नो दीवो, पइप्पई सो य दिप्पइ तहेव । सीसो च्चिय सिक्खंतो, आयरिओ होइ नऽन्नत्तो ॥ २११२ ॥ दीपाद 'अन्यः' द्वितीयो दीपः प्रदीप्यते, स च मौलो दीपस्तथैव दीप्यते, एवं जिन-20 कल्पिकदीपोऽपि गच्छदीपादेव प्रादुर्भवति, स च गच्छदीपस्तथैव ज्ञान-दर्शन-चारित्रैः स्वयं प्रदीप्यते । यद्वा यथा शिप्य एव शिक्षमाणः सन् क्रमेणाचार्यो भवति 'नान्यतः' नान्येन प्रकारेण एवं स्थविरकल्पिक एव तपःप्रभृतिभिर्भावनाभिरात्मानं भावयन् क्रमेण जिनकल्पिको भवति नान्यथा । अतो द्वावपि महर्द्धिकौ ॥ २११२ ॥ अस्यैवार्थस्य समर्थनायापरं दृष्टान्तत्रयं दर्शयितुं नियुक्तिगाथामाह दिटुंतों गुहासीहे, दोन्नि य महिला पया य अपया य । गावीण दोन्नि वग्गा, सावेक्खो चेव निरवेक्खो ॥ २११३ ॥ दृष्टान्तोऽत्र गुहासिंहविषयः प्रथमः । द्वितीयो द्वे महिले—एका 'प्रजा' अपत्यवती द्वितीया 'अप्रजा' अपत्यविकला । तृतीयो गवां द्वौ वर्गौ-एकः सापेक्षः, अपरो निरपेक्ष इति ॥२११३॥ तत्र गुहासिंहदृष्टान्तं भावयति 30 सीहं पालेइ गुहा, अविहाडं तेण सा महिड्डीया । तस्स पुण जोव्वणम्मि, पओअणं किं गिरिगुहाए ॥२११४॥ १ इदमेव भा भो० ले० विना ॥ २ °त्रयमाह भा० कां० ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ४ "अविहाडं" ति देशी भाषया बालकं सिंहं गुहा 'पालयति' वनमहिष- व्याघ्रादिभ्यो रक्षति, तन्निर्गतस्य तस्य तेभ्यः प्रत्यपायसम्भवात् ; तेन कारणेन गुहा महर्द्धिका । यदा तु सिंहो यौवनं प्राप्तो भवति तदा किं तस्य प्रयोजनं गिरिगुहया ? न किञ्चिदित्यर्थः खयमेव वनमहिपाद्युपद्रवादात्मानं पालयितुं प्रत्यलीभूतत्वात् इत्थं सिंहो महर्द्धिकः ।। २११४ ॥ , " अथार्थोपनयमाह - दव्वावइमाई, कुसीलसंसग्गि- अन्नउत्थीहिं । रक्ख गणपुरोगो, गच्छो अविकोवियं धम्मे ॥ २११५ ॥ गणी- आचार्यः स पुरोग : - पुरस्सरो नायको यस्य स तथाविधो गच्छो गुहास्थानीयः सिंहशावकस्थानीयं साधुं ‘धर्मे' श्रुत चारित्रात्मके 'अविकोविदम्' अद्याप्यप्रबुद्धं द्रव्यापदि आदि10 शब्दात् क्षेत्र-काल-भावापत्सु तथा कुशीलाः - पार्श्वस्थादयस्तैरन्यतीर्थिकैर्वा सार्द्धं यः संसर्गस्तत्र च ‘रक्षति' विश्रोतसिका-प्रमाद - मिथ्यात्वाद्युपद्रवात् पालयति अतो गच्छो महर्द्धिकः । यदा त्वसौ द्विविधेऽपि धर्मे व्युत्पन्नमतिः कृतपरिकर्मा जिनकल्पं प्रतिपन्नस्तदा स्वयमेवात्मानं द्रव्यापदादिष्वपि विश्रोतसिकादिविरहितः सम्यक् परिपालयति अतो जिनकल्पिको महर्द्धिकः ॥ २११५ ॥ अथ महेलाद्वयदृष्टान्तमाह 15 ६०८ आणा - इस्सरियसुहं, एगा अणुभवइ जइ वि बहुतत्ती । देहस्स य संठप्पं, भोगसुहं चेव कालम्मि ।। २११६ ॥ परवावारविमुक्का, सरीरसक्कारतप्परा निच्चं । मंडण वक्खित्ता, भत्तं पि न चेयई अपया ।। २११७ ॥ द्वयोर्महेलयोर्मध्ये ‘एका’ सप्रसवा यद्यपि 'बहुतप्तिः' अपत्यस्त्रपनादिबहुव्यापारव्यापृता तथापि 20 सा गृहस्वामिनीत्वादाज्ञैश्वर्य सुखमनुभवति, 'काले च' प्रस्तावे देहस्य 'संस्थाप्यं' संस्थापनां भोगसुखमपि च प्राप्नोति ॥ २११६ ॥ 25 या तु 'अप्रजा' अप्रसवा सा 'परव्यापारविमुक्ता' अपत्यादिचिन्तावर्जिता 'नित्यं' सदा शरीरसंस्कारे-मुखधावनादौ तत्परा -परायणा 'मण्डनके' विलेपना -ऽऽभरणादौ व्याक्षिप्ता सती ‘भक्तमपि’ भोजनमपि ‘न चेतयति' न संस्मरति ॥ २११७ ॥ अर्थोपनयमाह - वेयावचे चोयण-वारण चावारणासु य बहुसु । मादीवक्खेवा, सययं झाणं न गच्छम्मि ।। २११८ ॥ यथा सप्रसवायाः स्त्रियो बहुव्यापारव्यग्रता भवति तथा गच्छेऽपि यद् आचार्योपाध्यायादिवैयावृत्त्यम्, या च चक्रवालसामाचारी हापयतो नोदना, या चाकृत्यप्रतिसेवनां कुर्वतो वारणा, याश्च बहवो वस्त्र -पात्राद्युत्पादनविषया व्यापारणाः तदेवमादिषु यो व्याक्षेपः - व्याकुलत्वं तस्मा30 द्धेतोः 'गच्छे' गच्छ्वासिनां 'सततं' निरन्तरं 'ध्यानम् ' एकाग्रशुभाध्यवसायात्मकमात्मनो मण्डनकल्पं न भवति । जिनकल्पिकस्य तु वैयावृत्त्यादिव्याक्षेपरहितस्य निरपत्यस्त्रिया आत्मनो मण्डनमिव 'निरन्तरमेव तथा तद् उपजायते यथा भोक्तुमपि स्पृहा न भवति ॥ २११८ ॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः २११५-२४ ] अथ गोवर्गद्वयदृष्टान्तमाह— प्रथम उद्देशः । सद्दूलपोइयाओ, नस्संतीओ वि व घेणूओ । मोत्तूण तण्णगाई, दवंति सपरक्कमाओ वि || २११९ ॥ न विवच्छ सर्जति वाहिओ नेव वच्छमाऊसु । सबलमगृहंतीओ, नस्संति भएण वग्घस्स ।। २१२० ॥ ' धेनवः' अभिनवप्रसूता गावस्ताः 'शार्दूलेन' व्याघ्रेण 'पोतिताः' त्रासिताः सत्यो नश्यत्योऽपि 'तर्णकानि' वत्सरूपाणि मुक्त्वा 'सपराक्रमा अपि' समर्था अपि 'नैव द्रवन्ति' न शीघ्रं पलायन्ते, अपत्यसापेक्षत्वात् ॥ २११९ ॥ यास्तु “वाहिओ” बष्कयिण्यस्ता नापि वत्सकेषु 'सजन्ति' ममत्वं कुर्वन्ति, नापि 'वत्समातृषु' धेनुषु, किन्तु खबलमगूहमाना व्याघ्रस्य भयेन नश्यन्ति, निरपेक्षत्वात् ॥ २१२० ॥ एष दृष्टान्तः । अथार्थोपनयमाह - आयसरीरे आयरिय बाल- बुढेसु आवि सावेक्खा | कुल - गण - संघे सुतहा, चेहयकजाइएसं च ॥ २१२१ ॥ रयणाय उगच्छो, निप्फादओं नाण-दंसण-चरिते । एएण कारणेणं, गच्छो उ भवे महिड्डीओ ।। २१२२ ॥ ६०९ १° घे य तहा ता० ॥ मो० ले० विना ॥ यथा धेनवस्तथा गच्छ्चासिनोऽप्यात्मशरीरे आचार्य बाल-वृद्धेषु अपि च कुल-गण- सङ्घकार्येषु चैत्यादिकार्येषु च सापेक्षाः, अतः संसारव्याघ्रभयेन नश्यन्तोऽपि संहननादिबलोपेता अपि न 15 शीघ्रं पलायन्ते । जिनकल्पिकास्तु भगवन्त आत्मशरीरादिनिरपेक्षा अधेनुगाव इव खवीर्यमगूहमानाः संसारव्याघ्राद् निः प्रत्यूहं पलायन्ते । यद्येवं तर्हि जिनकल्पो महर्द्धिकतर इत्यापन्नम्, मैवं वादीः, -4 निर्जनिजनिरुपमगुणैरुभयोरपि तुल्यकक्षत्वात् । तथाहि — अत्यन्ताप्रमादनिष्प्रतिकर्मतादिभिर्गुणैर्जिनकल्पो महर्द्धिकः, परोपकार - प्रवचनप्रभावनादिभिश्च गुणैः स्थविरकल्पिको महर्द्धिक इति ॥ २१२१ ॥ अपि च Do रत्नाकर इव रत्नाकरः- जिनकल्पिकादिरत्नानामुत्पत्तिस्थानं यतो गच्छो वर्त्तते, निष्पादकश्च ज्ञान-दर्शन- चारित्रेषु एतेन कारणेन गच्छो महर्द्धिकः ॥ २१२२ ॥ इदमेव भावयतिरयणे बहुविसु, नीणिअंतेसु नेव नीरयणो । अतरो तीरइ काउं, उप्पत्ती सोय रयणाणं ॥ २१२३ ।। इय रयणसरिच्छेसुं, विणिग्गएसुं पि नेव नीरयणो । जायइ गच्छो कुणइ य, रयणन्भूते बहू अने ॥ २१२४ ॥ ॥ मासकप्पो सम्मत्तो ॥ २ एतदन्तर्गतः पाठः मो० ले० पुस्तकयोरेव ॥ B ३ यत आह 10 20 25 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६१० सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ मासकल्पप्रकृते सूत्रम् ४ न तरीतुं शक्यत इति 'अतरः' रत्नाकरः, स यथा बहुविधेषु रत्नेषु निष्काश्यमानेष्वपि नैव 'नीरत्नः' रत्नविरहितः कर्तुं शक्यते, कुतः ? इत्याह-यतः ‘उत्पत्तिः' आकरोऽसौ रत्नानाम् । "इय" अनेनैव प्रकारेण गच्छरत्नाकरोऽपि रत्नसदृक्षेपु जिनकल्पिकादिषु विनिर्गतेष्वपि नैव नीरत्नो जायते, आचार्यादिरत्नानां सर्वदैव तत्र सद्भावात् , करोति च पश्चादपि वहूनन्यान् साधून् 5 रत्नभूतानिति गच्छो जिनकल्पिकश्च उभावपि महर्द्धिको इति ॥ २१२३ ॥ २१२४ ॥ ॥ मासकल्पप्रकृतं समाप्तम् ॥ चूर्णि-श्रीबृद्धभाष्यप्रभृतिबहुतिथग्रन्थसार्थाभिरामा— ऽऽरामादर्थप्रसूनैरुचितमवचितैः सूक्तिसौरभ्यसारैः । चेतःपट्टे निधाय स्वगुरुशुचिवचस्तन्तुसन्तानव्धैः, श्रीकल्पे मासकल्पप्रकृतविवरणस्रग् मया निर्मितेयम् ॥ ॥ ग्रन्थानम्- १५६०० मूलतः ॥ ॥ इति श्रीकल्पे प्रथमः खण्डः समाप्तः ॥ १°म् । 'इति' अमुना प्रका° भा० ॥ २ °हुविधन मो० ले. कां ॥ ३ °माद् वाक्यप्र' मो. ले०॥४°नैस्त्वरितम त. डे. कां० ॥ ५न्तुभिर्गुम्फितेयं, मो० ले. विना ॥ ६°या भव्ययोग्या त. डे० कां० ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vejas Printers AHMEDABAD PH (079) 6601045