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अवतार
के होते हैं, जो कि अपनी कुछ कलाओं से सुशोभित होते हैं, जिन्हें आंशिक अवतार एवं पूर्णावतार की संज्ञा दी जाती है । 'परमात्मा षोडशकला सम्पन्न माना जाता है । परमात्मा की षोडश कलाशक्ति जड़-चेतनात्मक समस्त संसार में व्याप्त है। एक जीव जितनी मात्रा में अपनी योनि के अनुसार उन्नत होता है, उतनी ही मात्रा में परमात्मा की कला जीवाश्रय के माध्यम से विकसित होती है । अतः एक योनिज जीव अन्य योनि के जीव से उन्नत इसलिए है कि उसमें अन्य योनिज जीवों से भगवत्कला का विकास अधिक मात्रा में होता है । चेतन सृष्टि में उद्भिज्ज सृष्टि ईश्वर की प्रथम रचना है, इसलिए अन्नमयकोषप्रधान उद्भिज्ज योनि में परमात्मा की षोडश कलाओं में से एक कला का विकास रहता है। इसमें श्रुतियाँ भी सहमत हैं, यथा
'पोडशानां कलानामेका कलाऽतिशिष्टाभूत् सानेनोपसमाहिता प्रज्वालीत् । '
[ परमात्मा की सोलह कलाओं में एक कला अन्न में मिलकर अन्नमश कोष के द्वारा प्रकट हुई।] अतः स्पष्ट है, उद्भिज्ज योनि द्वारा परमात्मा की एक कला का विकास होता है। इसी क्रम से परवर्ती जीवयोनि स्वेदज में ईश्वर की दो कला, अण्डज में तीन और जरायुज के अन्तर्गत पशु योनि में चार कलाओं का विकास होता है। इसके अनन्सर जरायुज मनुष्ययोनि में पाँच कलाओं का विकास होता है । किन्तु यह साधारण मनुष्य तक ही सीमित है । जिन मनुष्यों में पाँच से अधिक आठ कला तक का विकास होता हैं वे साधारण मनुष्यकोटि में न आकर विभूति कोटि में ही परिगणित होते हैं। क्योंकि पाँच कलाओं से मनुष्य की साधारण शक्ति का ही विकास होता है, और इससे अधिक छः से लेकर आठ कलाओं का विकास होने पर विशेष शक्ति का विकास माना जाता है, जिसे विभूति कोटि में रखा गया है।
शक्ति
लेकर
जिसे
इस प्रकार एक कला से लेकर आठ कला तक का विकास लौकिक रूप में होता है । नवम कला से षोडश कला तक का विकास अलौकिक विकास है, जीवकोटि नहीं अपितु अवतारकोटि कहते हैं । जिन केन्द्रों द्वारा परमात्मा की शक्ति नवम कला से लेकर षोडश कला तक विकसित होती है, वे सभी केन्द्र जीव न कहला कर अवतार कहे जाते हैं। इनमें नवम कला से
अतः
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पन्द्रहवीं कला तक का विकास अंशावतार कहलाता है एवं षोडश कलाकेन्द्र पूर्ण अवतार का केन्द्र है। इसी कलाविकास के तारतम्य से चेतन जीवों में अनेक विशेषताएं देखने में आती हैं । यथा पाँच कोषों में से अन्नमय कोष का उद्भिज्ज योनि में अपूर्व रूप से प्रकट होना एक कला विकास का ही प्रतिफल है। अतः ओषधि, वनस्पति, वृक्ष तथा लताओं में जो जीवों की प्राणाधायक एवं पुष्टिप्रदायक शक्ति है, यह सब एक कला के विकास का हो परिणाम है।
स्वेदज, अण्डज, पशु और मनुष्य तथा देवताओं तक की तृप्ति अन्नमय कोष वाले उद्भिज्जों द्वारा ही होती है और इसी एक कला के विकास के परिणाम स्वरूप उनकी इन्द्रियों की क्रियाएं दृष्टिगोचर होती हैं। यथा महाभारत ( शान्ति पर्व ) में कथन है :
ऊष्मतो म्लायते वर्णं त्वक्फलं पुष्पमेव च । म्लायते शीर्यते चापि स्पर्शस्तेनात्र विद्यते ॥
[ ग्रीष्मकाल में गर्मी के कारण वृक्षों के वर्ण, त्वचा, फल, पुष्पादि मलिन तथा शीर्ण हो जाते हैं, अतः वनस्पति में स्पर्शेन्द्रिय की सत्ता प्रमाणित होती है । ] इसी प्रकार प्रवात, वायु, अग्नि, वज्र आदि के शब्द से वृक्षों के फलपुष्प नष्ट हो जाते हैं । इससे उनकी श्रवणेन्द्रिय की सत्ता सत्यापित की जाती है। लता वृक्षों को आधार बना लेती है एवं उनमें लिपट जाती है, यह कृत्य बिना दर्शनेन्द्रिय के सम्भव नहीं । अतः वनस्पतियाँ दर्शनेन्द्रिय शक्तिसम्पन्न मानी जाती है। अच्छी बुरी गन्ध तथा नाना प्रकार की धूपों की गन्ध से वृक्ष निरोग तथा पुष्पित फलित होने लगते हैं। इससे वृक्षों में घ्राणेन्द्रिय की भी सत्ता समझी जाती है। इसी प्रकार वे रस अपनी टहनियों द्वारा ऊपर खींचते हैं, इससे उनकी रसनेन्द्रिय की सत्ता मानी जाती है । उद्भिज्जों में सुख-दुःख के अनुभव करने की शक्ति भी देखने में आती है | अतः निश्चित है कि ये चेतन शक्तिसम्पन्न हैं । इस सम्बन्ध में मनु का भी यही अभिमत है : तमसा बहुरूपेण वेष्टिता कर्महेतुना । अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः ।
[ वृक्ष अनेक प्रकार के तमोभावों द्वारा आवृत रहते हुए भी भीतर ही भीतर सुख-दुख का अनुभव करते हैं । ] अधिक दिनों तक यदि किसी वृक्ष के नीचे हरे वृक्षों को लाकर चीरा जाय तो वह वृक्ष कुछ दिनों के अनन्तर सूख
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