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सुवर्णकला-रूप्यकूला रक्ता रक्तोदा नदियाँ बहुतो हैं ।२०। (ह. पु./५/१२२-१२५) । (तिनमें भी गंगा सिन्धु व रोहितास्या ये तीन पद्यद्रह से रोहित व हरिकान्ता महापद्य द्रह से हरित व सीतोदा तिगिछ द्रह से, सीता वनरकान्ता केशरी द्रह से नारी व रूप्यकूला महापुण्डरीक से तथा सुवर्णकला, रक्ता व रक्तोदा पुण्डरीक सरोवर से निकली हैं-(ह. पु./५/१३२-१३५)1 ८. उपरोक्त युगलरूप दो-दो नदियों में से पहली पहली नदी पूर्व समुद्र में गिरती हैं और पिछली-पिछली नदी पश्चिम समुद्र में गिरती हैं।२१-२२।(ह. पु. ५/१६०); (ज. प./३/१९२-१९३) । गंगा सिन्धु प्रादि नदियों की चौदह चौदह हजार परिवार नदिया। (यहां यह विशेषता है कि प्रथम गंगा सिन्धु' युगल में से प्रत्येक की १४०००, द्वि युगल में प्रत्येक को २५००० इस प्रकार सीतोदा नदी तक उत्तोत्तर दूनी नदियां हैं । तदनन्तर शेष तीन युगलों में पुन: उत्तरोत्तर आधी-पाधी हैं । (स. सि./३/२ /२२०/१०): (रा वा ३/२३/३/१६/१३) (ह पु/५/२७५-२७६) ।
ति. प /४गा का भावार्थ-१० यह द्वीप एक जगती करके वेष्टित है ।१५। (ह पु/५/३) (ज प/१२६)। ११ इस जगती की पुवादि चारों दिशाओं में विजय बैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार हैं ।४१-४२। (रा. वा./३/६/१। १७०/२९); (ह. पु. ५/३६०); (त्रि. सा./८६२); (१३८, ४२) । १३ इनके अतिरिक्त यह द्वीप अनेकों वक उपवनों, कुण्डों गोपुर द्वारों, देव नगरियों व पर्वत, नदो सरोवर, कुण्ड प्रादि सबकी वेदियों करके शोभित हैं 18२-१३।१४ (प्रत्येक पर्वत पर अनेकों कूट होते हैं (दे० प्रागे उन पर्वतों का निर्देश) प्रत्येक पर्वत व कूट नदी, कुण्ड, द्रह, ग्रादि वेदियों करके संयुक्त होते हैं(दे० अगला शाषक) प्रत्येक उत, कुण्ड, द्रई कूटों पर भवनवासो व व्यन्तर देवों के पुर, भवन व प्रावास हैं-(दे० व्यन्तर/४ प्रत्येक पर्वत आदि के ऊपर तथा उन देवों के भवनों में जिन चैत्याला होते हैं । (दे० चैत्यालय ३/२)।
मुटाई का, प्रमाण निकल आता है)।
उदाहरण-भूमि की अपेक्षा सान• माहेन्द्र कल्प के पास बातथलयों की मुटाई.-१६ (६x२): १५ यो० अथवा १२+15x =१५३ यो मुख की अपेक्षा।
मेरुतल से कार को नया सिद्ध क्षेत्र के पार्श्व भाग में चौराली, छयानवें, एक सौ आठ, एक सौ बारह और फिर इसके प्रागे सात स्थानों में उक्त एक सौ बारह में से (११२) उत्तरोतर चार चार कम संस्था को रखकर प्रत्येक में सात का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना दातवलयों की मुटाई का प्रमाण है।
___अर्व लोक में वातवलयों का बाहल्य-(१)मेरुतल से ऊपर सौ० ई० के अधोभाग में ; (२) सौ० ई. के उपरि भाग में । (३) सा० मा० 436 (४) अग्रम्हो014 (५) ला० का 18 (६) शु० महा शु018 (७) शा० स० (4) आ. प्र. (E) आ० अ० १३ (१०) श्रे. (११) सिद्ध क्षेत्र
सातवों पृथ्वी और ब्रह्मयुगल के पाव भाग में तीनों दस्युओं की मुदाई क्रम से तीस, इकतालीस के आधे और तीन से भाजित उन्नचास कोस है । व. ड० ३०, घ ४ तनु कोश ।
लोक के ऊपर शिखर पर तीनों वातवलयों की मुटाई कम से दूसरे भाग से अधिक एक कोस, छठवें भाग से अधिक एक कोस और बारहवें भाग से अधिक एक कोस हैं ऐसा लोक विभाग में कहा गया हैं। पाठान्तर । ५० इ० १३५६ १५. तनु १५ कोस ।
यहाँ वायु से रोके गये क्षेत्र, आठों पृथ्बियों और शुद्ध आकाश प्रदेश के धनकल को लवमात्र अर्थात् संक्षेप में कहते हैं।
अब लोकगर्यन्त में स्थित बातवलयों से रोके गये क्षेत्रों के निकालने के विधान को कहते हैं- लोक के नीचे तीनों वायुओं में से प्रत्येक वायु का बाहम बीस हजार योजन प्रमाण है । इन तीनो वायुओं को इकट्ठा करने पर साठ हजार योजन बाहल्य प्रमाण जगप्रतर होता है। यहां विशेषता सिर्फ इतनी है कि लोक के दोनों ही अन्तों अर्थात पूर्व-पश्चिम के अन्तिम भागों में साठ हजार योजन की ऊंचाई तक क्षेत्र पद्यपि हानि रूप है, फिर भी उसे न जोड़कर साठ हजार योजन वाहल्य वाला जगप्रतर है इस प्रकार संकल्प पूर्वक उसको छेद कर पुथक स्थापित करना चाहिए । यो ६००००x४६ |