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कि यहां भी निशब्द दिगम्बर मुनि के रूप में व्यवहुत हुआ है।
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"ब्रह्माण्डपुराण" के उपोद्घात ३ ० १४० १०४ में है. "जग्नादयो न पश्येषु श्राद्धकर्म व्यवस्थितम् ||३४|| "
अर्थात् -"जब श्राद्धकर्म में लगे तब लग्नादिकों को न देखे।" और आगे उसी पृष्ठ पर ३६ व श्लोक में लिखा है कि नग्नादिक कौन है ?
"वृद्ध धावक निन्याः इत्यादि
वृद्धआपकक ऐलक का घोतक है तथा निर्गन्ध शब्द दिगम्बर मुनि कायोतक है अर्थात् जैनधर्म के किसी भी गृहत्यागी साधु को श्राद्धकर्म के समय नहीं देखना चाहिए, क्योंकि सम्भव है कि यह उपदेश देकर उसकी निस्सारता प्रकट कर दें । ग्रतः वैदिक साहित्य के उल्लेखों से भी निर्ग्रन्थ शब्द नग्न साधु के लिये प्रयुक्त हुआ सिद्ध होता है ।
बौद्ध साहित्य भी इसी बात का पोषण करता है। इसमें 'निर्ग्रन्थ' शब्द साधु रूप में सर्वत्र नग्न मुनि के भाव में प्रयुक्त हुआ मिलता है। भगवान महावीर को यौद्ध साहित्य में उनके कुल यपेक्षा निर्ग्रन्थ नातपुत कहा है और श्वेताम्बर जैन साहित्य से भी यह प्रकट है कि नित्य महावीर दिगम्बर रहे थे। बीद्ध शास्त्र भी उन्हें निबंध और अचलकर प्रकट करते है। इससे स्पष्ट है कि वोटों ने 'नियन्स' और 'अचेलक शब्दों को एक ही भाव (Sense) में प्रयुक्त किया है अर्थात् नग्ना
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के रूप में तथापि बौद्ध साहित्य के निम्न उद्धरण भी इसी बात के द्योतक हैं-
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दीघनिकाय ग्रन्थ १ | २७८ ७६ में लिखा है कि
"Pasendi, King of Kosal saluted Niganthas.”
अर्थात् कोशल का राजा पसेनदी (प्रभजित) नियंवों (नग्न जेन मुनियों) को नमस्कार करता था।
बोड़ों के "महावग्ग" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि "एक बड़ी संख्या में निचगण थाली में सड़क सड़क और चौराहे चौराहे पर शोर मचाते दौड़ रहे थे।" इस उल्लेख ये दिगम्बर मुनियों का उस समय निर्वाध रूप में राजमार्गों से चलने का समर्थन होता है वे ष्टमी पर चतुईशी को इकट्ठे होकर धर्मोपदेश भी दिया करते थे।
'विशाल' में भी निर्ग्रन्थ साधु को मग्न प्रकट किया है। दीर्घ निकाय के 'पासादिक मुत्तन्त' में है कि "जब निगन्ठ नातपुत्त का निर्वाण हो गया तो निर्ग्रन्थ मुनि आपस में झगड़ने लगे। उनके इस झगड़ने को देख कर श्वेतवस्त्रधारी astrian बड़े दुःखी हुये । अब यदि निर्ग्रन्थ साधु भी श्वेत वस्त्र पहनते होते तो श्रावकों के लिये वह एक विशेषण रूप में न लिखे जाते । अतः इससे भी 'निग्रन्थ साधु' का नग्न होना प्रगट है ।
'दादासो' में 'पहिरिका' शब्द के साथ-साथ निगण्ड शब्द का प्रयोग जन साधु के लिए हया मिलता है" । घोर 'लीक' या 'प्रहिरिक शब्द नग्नता का योतक है। इसलिये बौद्ध साहित्यानुसार भी निन्य साधु को नग्न मानना ठीक है ।
शिलालेखीय साक्षी भी इसी बात को पुष्ट करती है। कदम्यवंशी महाराज श्री विजयशिवमृगेश वर्मा ने अपने एक दानपत्र में अर्हन्तु भगवान और श्वेताम्बर महाश्रमण संघ तथा निर्यन्त्र प्रर्थात् दिगम्बर महाश्रमण संघ के उपभोग के लिये कालवंग
१. वे०, पृष्ठ १४ ।
२.१ १२. गुरनिकाय १ । १२० ।
३. जावक भा० २ पृ० १६२ - भग० ० २४५ ।
४. Indian Historical Quarterly, Vol. 1. P. 153 महावीर और म० बुद्ध पू० २८० ।
५. महाग २ १/१ और
६. भम० पु० २५२ ।
७. "तस्म का किरिया भिन्ना निगष्ट देधिक जाता, भण्डन जाता कलह जाता वधो एवं सोमं निगन्दे नाथत्तिसु वत्तति ये पिनिगन्डम्स नात्तस्य साबका गिट्टी ओदालय सना
दु खाते इत्यादि।"
- म ० २१४ ८. 'इसे अहिरिका सब्वे मद्भादिगुणा वज्जिता । यहा राजच पन्ना सगगोयल विवन्धका ॥८॥ इति सो स्तिथित्याग्रह नराधिप । पञ्चाजेसिसकारट्ठा निग ने असे सके ||८६॥
- दाटावंसो
पृ० १४ ।
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