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गृह त्याग और साधु जीवन
मनुष्य अपनी जान में अपने को बड़ा कुशल और चतुर समझता है । वास्तव में जीवित संसार में उससे बढ़कर और कोई बुद्धिमान प्राणी है भी नहीं, किन्तु उसकी वुद्धिमत्ता, कुशलता, और चतुरता के भी खट्टे दांत कर देने वाली एक शक्ति भी इस संसार में विद्यमान है। यह शक्ति यद्यपि जीति जागती शक्ति नहीं हैं, परन्तु प्रभाव स्वयं मनुष्य की जीती जागती किया पर ही जमा हुआ है मनुष्य अपनी प्रांतों से देखता रहता है और यह शक्ति अपना कार्य करती चली जाती है उसके जीवन की दशाओं का अन्त यही लाती है। इसी को लोग काल कहते हैं। सचमुच काल की शक्तिप्रति विचित्र है । कालचक्र सांसारिक परिवर्तन में एक प्रमुख कारण है। इस ही कालचक्र की कृपा से प्रत्येक क्षण में ससार का कुछ भी हो जाता है । ऐसे प्रबल कालचक्र का प्रभाव बड़े-बड़े आचार्थी और चक्रवतियों का भी लिहाज नहीं करता है।
भगवान महावीर और म० बुद्ध भी इसी कालचक्र की इच्छानुसार अपने बाल्य और कुमार अवस्था को त्याग कर पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हो गये थे । म० बुद्ध रानी यशोदा के साथ सांसारिक सुख का उपभोग कर रहे थे कि एक दिन वे नगर में होते हुए बन बिहार के लिए निकले। उन्होंने एक रास्ते में रोगी को देखकर अपने साथ से उसका हाम पूछा। रोगों के प्रताप पर बूढापे के दुःख सुनकर उनका हृदय व्यथा से व्याकुल हो गया। इस माकुल व्याकुल हृदय को लिए वे गाड़ी बड़े कि मृत पुरुष को लिये विलाप करते स्मशान भूमि को जाते अनेक मनुष्य दिखाई दिये । सार्थी से फिर और हकीकत को जानकर उनका ग्राकुल हृदय एक दम थर्रा गया। उन्होंने कहा जब यह शरीर नश्वर है, युवावस्था हमेशा रहने की नहीं बुढ़ापे के दुःख दर्द सबको सहने पड़ते हैं, तो इससे उत्तम यही है कि उस मार्ग का अनुसरण किया जाय जिससे इन जन्मजरा के दुःखों को न भुगतना पड़े। इसके साथ ही हृदय पर इन विचारों का इतना प्रभाव पड़ा कि म० बुद्ध फिर लौटकर राजमहल में अधिक दिन नहीं ठहरे। एक दिन रात्रि के समय छत्र नामक सार्थी के सुपुर्द सब वस्त्राभूषण किये और आप साधारण वस्त्रों को धारण करके एकाकी वन की एक ओर को चल दिये। इस फिकर से घर से निकल पड़े कि कोई सच्चे सुख के मार्ग का जानकार काबिल पुरुष मिले तो मैं उसके परणों की सेवा करके कार्यों के उत्तम ज्ञान का अधिकारी बनूं। इस ही विचार में निमग्न म० बुद्ध जा रहे थे कि पीछे से इनके पिता के भेजे हुए मनुष्य मिले। उन्होंने म० बुद्ध को घर लौट चलने के लिए बहुत समझाया। परन्तु पिता के अनुरोध और पत्नी को करुण कातर प्रार्थनायें निरर्थक गईं। म० वुद्ध निश्चय में दृढ़ रहे । वे लोग हताश होकर कपिलवस्तु को लौट गये।
अगाड़ी चल कर म० बुद्ध परिव्राजक ब्रह्मचारियों के आश्रम में पहुंचे और वहाँ साधु आराकान्लम की प्रशंसा सुनकर वह उनके पास चले गए। इन साधू का गत दर्शन से बहुत कुछ मिलता जुलता था। म० बुद्ध इस मत का अध्ययन कुछ दिवस करते रहे। किन्तु अन्त में उन्हें विश्वास हो गया कि को कुछ बाराद ने बतलाया है उसने मेरे हृदय को संतुष्टि नहीं हो सकती है। इसलिए में वहां से भी प्रस्थान कर गये और ऋषि उदराम के पास पहुंचे। यहां भी कुछ दिन रहे। उपरान्त वहाँ से भी निराश होकर किसी उत्तम मार्ग को पाने की खोज में गाड़ी चल दिए। धाखिरकार वे पर्वत "क्या ची ( गया-तापसवन) में पहुंचे। यहाँ एक परीषस जय वन नामक ग्राम था यहां पहले से पांच भिक्षु मौजूद थे । म० बुद्ध ने देखा कि ये पांचों भिक्षु अपनी इन्द्रियों को पूर्णतः वश में किये हुए हैं और उत्तम चारित्र के नियमों का पालन कर रहे हैं यथापि तपश्चरण के भी अभ्यासी है। यह देखकर म० वृद्ध विचारमग्न हो गये उपरान्त उन भिक्षुओं का अभिवादन और नियमित क्रियाओं सेवाओं से निवृत होकर उसने नैरज्जरा नदी के निकट एक स्थान पर प्रासन जमा लिया और अपने उद्देश्य सिद्धि के लिए वे तपदचरण करने लगे। शारीरिक विषयका का निरोध करने लगे और शरीर पुष्टि का ध्यान बिल्कुल छोड़ बैठे। हृदय की विशुद्धता पूर्वक वे उन उपवासों का पालन करने लगे, जिनको कोई गृहस्य सहन नहीं कर सकता। मीन और शान्त हुए वे ध्यानमग्न थे। इस रीति से उन्होंने छः वर्ष निकाल दिये ।
म० बुद्ध ने जो इस प्रकार छः वर्ष तक साधु जीवन व्यतीत किया था वह जैन साधु की उपवास और ध्यानमय, मोन
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