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प्रतिष्ठा भी मघवन में या इस क्षेत्र से सम्बद्ध किसी स्थान में नहीं हुई है। अतएव यह स्पष्ट है कि बीच में कुछ वर्षों तक इस क्षेत्र में लोगों का प्रावागमन नहीं होता था। इसका प्रधान कारण मुसलमानो सल्तनत से आन्तरिक उपद्रवों का होना तथा यातायात की असुविधाओं का रहना भी है । औरंगजेब के शासन के उपरान्त ही यह पृनः प्रकाश में आया है। तब से अब तक प्रतिवर्ष सहस्रों यात्री इसकी अर्चना, बंदना कर पुण्यार्जन करते हैं । १८वीं शनो में जो अंग्रेज यात्रियों ने भी इस क्षेत्र की यात्रा कर यहां का प्राकृतिक, भौगोलिक एव ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया है तथा तत्कालीन स्थिति का स्पष्ट चित्रण किया है। पर्वत की चढ़ाई, उतराई और वन्दना का क्षेत्र कुल १८ मोल तथा परिक्रमा का क्षेत्र २८ मील है । मधुवन से दो मील चढ़ाई पर मार्ग में गन्धर्व नाला और इससे एक मील प्राग सीता नाला पड़ता है।
ग्राज इस क्षेत्र में दिगम्बर पीर श्वेताम्बर जैनधर्मशालाम मन्दिर एवं अन्य गांस्कृतिक स्थान हैं। पहाड़ के ऊपर २५ गुम्म है, जिनमें निर्वाण प्राप्त २० तीर्थकर, गौतम गणधर एवं अवशेष चार तीर्थकरों की चरण पादुकाए स्थापित हैं । पहाड़ के नीचे मधुवन में भी विशाल जिनमंदिर हैं जिनमें भव्य एवं चित्ताकर्षक मूर्तियां स्थापित की गई हैं। भाव सहित इस क्षेत्र के दर्शन, पूजन करने से ४६ भव में निश्चयतः निर्वाण प्राप्त होता है तथा नरक और तिर्यक् गति का बंध नहीं होता। पावापुरी
अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी की निर्वाण भूमि पावापुरी, जिसे शास्त्रकारों ने पावा के नाम से स्मरण किया है अत्यन्त पवित्र है। इस पवित्र नगरी के पद्म सरोवर से ई०पू०५२७ में ७२ वर्ष को प्रायु में भगवान महावीर ने कात्तिक वदी अमावस्या के दिन उपाकाल में निर्वाण पद प्राप्त किया है। प्रचलित यह पानापुरी, जिसे पूरी भी कहा जाता है, बिहार शरोफ स्टेशन से मील दूरी पर है ।
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय वाले इस तीर्थ को समान रूप से भगवान महावीर की निर्वाण भुमि मानसे हैं। परन्तु ऐतिहासिकों में इस स्थान के सम्बन्ध में मतभेद है। महापण्डित श्री राहुल मांस्कृत्यायन गोरखपुर जिले के पपउर ग्राम को ही पावापुर बताते हैं, यह पडरोना के पास है और कसया से १२ मील उत्तर पूर्व को है। मल्ल लोगों के गणतन्त्र का सभा भवन इसी नगर में था।
मुनिथी कल्याणविजय गणी विहारशरीफ के निकट बाली पाबा को ही भगवान की निर्वाण नगरी मानते हैं। आपका कहना है कि प्राचीन भारत में पावा नाम की तीन नगरियां थीं। जैन मूत्रों के अनुसार एक पावा भंगिदेश की राजधानी थी। यह प्रदेश पाश्वनाथ पर्वत के पास-पास के भूमि भाग में फैला हुआ था, जिसमें हजारीबाग और मानभूमि जिलों के भाग शामिल हैं। बोद्ध साहित्य के मर्मज्ञ कुछ विद्वान् इस पावा को मलय देश की राजधानी बताते हैं। किन्तु जैन सूत्र ग्रन्थों के अनुसार यह भगिदेश की राजधानी ही सिद्ध होती है।
दूसरी पावा कोशल से उत्तर पूर्व कुशीनारा की पोर मल्ल राज्य की राजधानी थी, जिसे राहुल जी ने स्वीकार किया है।
तीसरी पावा मगध जनपद में थी, जो आजकल तीर्थक्षेत्र के रूप में मानी जा रही है। इन तीनों पावायों में से पहले पाबा माग्नेय दिशा में और दूसरी पाया वायव्य कोण में स्थिन थी। अत: उल्लिखित तीसरी पावा मध्यमा के नाम से प्रसिद्ध थी। भगवान महावीर का अन्तिम चातुर्मास्य तथा निर्वाण इसी पाषा में हुआ है।
श्री डा. राजवली पाण्डेय का भगवान महावीर की निर्वाण भूमि' शीर्षक एक निबन्ध प्रकाशित हुया है । आपने इसमें कुशीनगर से वैशाली की ओर जाती हुई सड़क पर कुशीनगर से मील की दूरी पर पूर्व दक्षिण दिशा में सठियाब' के भगनावशेष (फाजिलनगर) को निश्चित किया है। यह भग्नावशेष लगभग इन मील विस्तृत है और भोगनगर तथा कुशीनगर के बीच में स्थित है। यहां पर जंन मूर्तियों के ध्वंसावशेष अभी तक पाये जाते हैं। बौद्ध साहित्य में जो पाबा की स्थिति बतलायी गयी है, वह भी इसी स्थान पर घटित होती है ।
इन तीनों पावाओं की स्थिति पर विचार करने से एसा मालुम होता है कि भगवान महावीर की निर्वाण भूमि पाया डा. राजबली पाण्डेय द्वारा निरूपित है। उनके अनुसार इसी स्थान पर काशी कोशल के नी-लिच्छवी तथा नौ मल्ल एवं प्रठारह गणराजों ने दीपक जलाकर भगवान का निर्वाणोत्सव मनाया था। नन्दिवर्द्धन के द्वारा भगवान के निर्वाण स्थान की पुण्यस्मृति में जिस मंदिर का निर्माण किया गया था, आज वही मदिर फाजिल नगर का ध्वंसावशेष है। इस मंदिर को भी एक मील कं घरे का बताया गया है तथा यह ध्वंसावशेष भी लगभम एक-डेढ़ मील का है। ऐसा मालूम होता है कि मुसलमानी सल्तनत की ज्याद
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