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कनकभूभृति - पांडुकसच्छिला, शदुनार रन करोत्यभिषेचनम् । सुरपतिस्तव जन्ममहोत्सवे,
ह्यतुलशक्ति--युतः शुशुभे प्रभुः ।।।। महाभेरु कनकाचलपर शुभ पांडूकशिला बनी सुन्दर । सुरपति ने तब जन्म महोत्सव में अभिषेक किया उसपर ॥ देव इन्द्र प्रसुरेन्द्र सभी मिल महामहोत्सव नृत्य किया। प्रतुल शक्ति युत बोर प्रभु का जन्मोत्सव कर पुण्य लिया ।।८।।
नुतगणीन्द्रमुनीन्द्रवियच्चरप्रभुनरेन्द्रसुरेन्द्र-सुसन्मतिः । सदसि मध्य-मृगेन्द्रसुविष्ट रे,
प्रविरराज सदा किल नौमि तं ।।। समवशरण में द्वादश परिषद मध्य रत्नसिंहासन पर। चतरंगुल के अन्तराल से, शो) प्रभु शशिसम सुन्दर ।। गणधर मुनिगण विद्याधरपति, नरपति सुरपति से पूजित । प्रसंख्य ज्योतिष व्यंतर सुरनुत उन्हें नम मैं रुचि से नित ।।६।।
(मन्दाक्रांता)
प्रान्त्वा भ्रान्त्वा चितयजगति त्रस्यमानेन काम, लवा दुःख नरककुहरे वाक्पथातीत-घोर। भो वीर । त्वं कथमपि मया दुःखसिंघी सुलब्ध:,
कृत्वेदानीं मयि सुकरुणां पाहि मां पाहि तूर्णं ॥१०॥ । तीन लोक में भटक भटक कर, बहुत दुःखी हो रहा जिनेश !
• नरकों में में वचन अगोचर कष्ट सहे हैं हे परमेश ।
- इस दुःख सागर में प्रभु तुमको पाया बड़ी कठिनता से, ..: रक्षा करो प्रभो! करुणाकर, रक्षा करो झटिति प्राके ||१०॥
यावद्द खं भवभवगतं तन्न पार्येत वक्तुं, तत्तत्सर्व कथमपि महानलेशतः सह्मते हा ! सभ्यग्दृष्टया मरणसमये सत्समाधिन लब्धः,
बार बारं लभत' इति यत्तत् पुनर्जन्मदुःखं ॥११॥ भवभव में जितने दुःख पाये नहीं वचन से कह सकते, हा ! हा ! कर संक्लेश भावधर जैसे तैसे ही सहते । सम्यग्दर्शन सहित समाधि मरण काल में नहिं पाई, बार बार प्रतएव जन्म, मरणादि दुःख भोगें सब ही ॥११॥