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क्रुद्ध-महाशीविषकृतमूर्छा, भेषजमत्रव्रजति सुशांति । नाथ ! तथा ते स्तुतिशुभमंत्र
मोहविषैच्छित-जन-शांतिः ।।१६।। क्रुद्ध महामाशीविष सर्प के इसने रो मच्छित जन की, औषधि मंत्र जलादिक से विष दूर भगे शांति होती। तद्वत् मोह महा महि विष से मछित संसारी जन की, तव स्तुति मंत्रों से मूर्छा हटे प्रगट हो सुख शांति ।।१६॥
वर्णनिभा शुनितनुकातिः, चन्द्रनिभा ते विततसुकीर्तिः । ध्यानमहाग्नी ज्वलितशरीरं,
नौम्यतिवीर सुगुणगभीरं ॥१७॥ है प्रभु ! तव हारीर कांति है, सुवर्ण सम अतिशय संदर। चन्द्रसमान धवल तव कीर्ति, व्याप्त हो रही त्रिभुवन भर ।। ध्यान महानल में तुमने, कार्मण शरीर भी भस्म किया, हे अतिधीर ! सुगुण गंभीर! नमू तुम्हें अयशुद्धि सदा ॥१७॥
धर्म-सुधावर्षण-विधु-तुल्यः, पापतमोहृद् दशशतरश्मिः । मोहमहांध्यं त्रिभुवनजंतु,
संततमुन्मीलयति मुनींद्रः ॥१८॥ धर्म सुधा बरसाने में प्रभु पूर्ण चन्द्रमा तुम ही हो, दुरित अंधेरे को हरने में सहस्ररश्मि' तुम ही हो । मोह महातम से अंधे हैं, त्रिभुवन के सब प्राणीगण, शानौषधि से चक्षु खोलते तुम्ही चिकित्सक हो भगवन् ! ||१८||
स्यात्पदचिन्हैर्वचनपवित्रः, सिञ्चति भव्यान् घन इव साक्षात् । सुव्रतशीलं चरितसुपूर्ण,
प्राक् खलु धृत्वा शिवसुखमापः ॥१६॥ स्यात्पद से युत पवित्र वचनामृत से भविजन खेती को, सिंचन करके फलयुत करते मेघसमान विभो ! तुम हो । व्रत गुण शीलादिक चरित्र को, दोष रहित पाला तुमने, उस ही का फल शिवसुख पाकर हे प्रभु ! तुम कृतकृत्य बने ।।१६।।
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