Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 993
________________ अखिल दोष के हर्ता प्रभ तुम अखिल सौख्य के कर्ता हो। मोक्षमार्ग के तुम्हीं विधाता मक्ति श्री के दाता हो । पाखिल तत्व के तम हो ज्ञाता अष्टकर्म संहारक हो । शिवलक्ष्मी के भर्ता तमको, सदा नमोऽस्तु हमारा हो ॥२७॥ (पृथ्वी छन्वः) अनंतभवसंकटे ज्वलितदुःखदावानले, विचित्रजनसंकुले महति भीकरे संमृतौ । भ्रमति जिन ! देहिनो विविधकर्मपाकोदयात, त एव खलु यांति भक्तिवशतः सुसोख्यास्पदं ।।२६|| दुःखदावानल की ज्वाला से, ज्वलित अनंते भव वन में, अनंत प्राणिगण से व्यापित, महाभयंकर इस जग में। विविध विविध खलकर्म उदय से, भटक रहे जन झुलस रहें, यदि वे जन तब भक्ति करें निश्चित अनुपम पद प्राप्त करें ॥२६॥ त्रिलोकविहरगिलत्सकलदेहिन भीतिद, मगेन्द्रमिव संमुख खलु विलोक्य भीमं यमं । विभेति न हि भाक्तिकस्तव' भवेद्धि मुत्युंजयः, नमोऽस्तु मृतिहानये मदनजिच्च मृत्युजय ! ॥३०॥ तीन लोक में घूम घूम कर निगल रहा सब प्राणिगण, क्रूर सिंह सम महाभयंकर काल शत्रु संमुख लखकर। उसको भी तव भक्त जीतकर मृत्युंजय बन जाते हैं, स्मरजित् ! मृत्युञ्जय ! नमोस्तु मम मृत्यु नाश के हेतु है॥३०॥ शरीरसुत-मित्र-सन ललनादयो मे ध्रुवं, विचिन्त्य बहिरात्मक: सततमेव भोगे रतः । अलब्ध-परमात्मना जगति दुःखमाप्तं मया, जिनेन्द्र ! भवतः सुपाहि शरणागतं सांप्रतं ॥३१॥ तनु, धन, पुत्र, मित्र, भार्या, गह, प्रादि सभी मेरे निश्चित् । 'मैं हूँ उनका, इस विध विषयों में ही फंसा हुया संतत॥ नहि पाकर परमात्मा को में, बहिरात्मा जग में दुःखी, हे जिनेन्द्र अब शरण तुम्हारी, गही करो रक्षा झटिति ॥३१॥ कदाचिदपि लब्धितः स्वयमिहांतरात्माभवम्, तदाहमिह वाह्यजान् सकलपर्ययान वेधिच । विशुद्धपरमात्मवत् स्वमपि बुध्यमानः स्वयं, भवामि नियतं मुनीन्द्र परमात्मरूपः स्वतः॥३२॥ ६२.

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