Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 986
________________ ime श्री वीरजिन स्तुतिः (रचयित्री-परमविदुषीरत्न प्रायिका श्री ज्ञानमती माताजी) (बसंततिलका छंदः) सिद्धार्थ राज-कुल-मंडन-वीरनाथ: जातः सुकुण्डलपुरे त्रिशलाजनन्यां । सिद्धिप्रियः सकल-भव्यहितंकरो यः, श्रीसन्मतिवितनुतात् किल सन्मति मे ॥१॥ श्री सिद्धार्थ नृपति के नंदन, नाथवंशमण्डन महावीर, कुंडलपुर पत्रिशला-माता से जन्म बिना तुप वीर। सिद्ध वधूप्रिय ! सकल भव्य जन के हितकारी वीर प्रभू, श्री सन्मति जिन मुझको सन्मति, दीजे नितप्रति विनय करूं ॥१॥ कैवल्य-बोधरविदीधितिभिः समंतात्, दुष्कर्मपंकिल-भुवं किल शोषयन् यः। भव्यस्य चित्तजलजप्रविबोधकारी, तं सम्मति सुरनुतं सततं स्तवीमि ।।२।। दुरित पंक से पंकिल पृथ्वी, कीच सहित सर्वत्र प्रहो! केवल ज्ञान सूर्य किरणों से सदा सुखाते रहते हो। भव्य जनों के मन सरोज को सदा खिलाते हो भगवन ! सुरगण पूजित सन्मति जिनका करूं भक्ति से सदा स्तवन ।।२।। पाबापुरे सरसि पचयुते मनोजे, योगं निरुध्य किल कर्मवनं ह्यधाक्षीत् । लेभे सुमुक्तिललनामुपमाव्यतीताम्, भेजे त्वनंतसुखधाम नमोस्तु तस्मै ॥३॥ पावापुर के बीच कमल युत, जल से पूर्ण सरोवर है, वहीं योग का निरोध करके, कर्माटवी जलाई है। उपमा रहित मुक्ति ललना को प्राप्त किया शिवपुर जाके, अनंत सुखमय धाम मुक्ति पति, है नमोस्तु तुमको रुचिसे ।।३।। ११३

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