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रिस्मरधस्मरोरगविषज्वालावादोजन:, शेषोमोह बिज़म्यितो हि विषयान भोक्तु न मोक्तु क्षमः ॥७१।।
–श्रीमत भर्तृहरिकृत शतकत्रय । अर्थात्-प्रेमियों में एक शिवजी मुख्य हैं, जो अपनी प्यारो पार्वती जी को सर्वदा अांग में लिये रहते हैं और त्यागियों में जैनियों के देव जिन भगवान ही मुख्य हैं, स्त्रियों का संग छोड़ने वाला उनसे अधिक कोई दूसरा नहीं है और शेष मनुष्य तो मोह से ऐसे जड़ हो गये हैं कि न तो विषयों को भोग हो सकते हैं और न लोड हो सकते हैं। महाराज भर्तृहरि जी की इच्छा थी कि मैं नग्न दिगम्बर होकर कब कर्मों का नाश करूंगा:
एकांकी निस्पहः शान्त पाणीपात्री दिगम्बरः । कदा शम्भो भविष्यामि कर्म निम्लनक्षमः ।।
-वैराग्य शतक, पृ० १०७ अर्थात-हे शम्भो, मैं अकेला इच्छा रहित, शांत, पाणिपात्र और दिगम्बर होकर कर्मों का नाश कब कर सकूँगा?
महाराजा श्रेणिक बिम्बसार को वीर-भक्ति जै जै केवलज्ञान प्रकाश, लोकालोक करण प्रतिभास ॥४५॥ जय भव कुमुद विकासन चन्द, जय २ सेवत मुनिवर बन्द ।।४६।। आज ही शीश सुफल मो भयो, जब जिन तुम चरणन को नयो ।।४७।। नेत्र युगल मानन्दे जबे, तुम पद कमल निहारु तवे ॥५०।। कानन सुफ़ल मुणि धन धरि, रसना सुफल पावै धुन भरी ।। ५१॥ ध्यान धरत हिरदे अति भयो, कर जुग सुफल पूजते भयो ॥५२॥ जन्म धन्य अव ही मो भयो, पाप कलंक सकल भजि गयो ॥५३।। मो करुणा जिनवर देव, भव भव में पाऊं तुम सव' ।।५४॥
-तरेपन क्रिया, अध्याय १, पृ० ४-५ हे भगवान महावीर । आपकी जय हो। आप केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी से शोभित हैं, जिसके कारण लोक-परलोक के समस्त पदार्थों को हाथ की रेखा के समान दर्शाने वाले हो। भव्य जीवों के हृदय रूपी कमल को खिलाने के लिए आप सूर्य के समान हैं। मुनीश्वर तक भी आपकी सेवा करते हैं । आपके चरणों में भाक जाने के कारण आज मेरा मस्तक भी सफल हो गया। आपके दर्शन करने से मेरी दोनों प्रांखें ग्रानन्दमयी हो गई। प्रापका उपदेश सुनने से मेरे दोनों कान शुद्ध हो गये और आपकी स्तुति करने से मेरी जबान पवित्र हो गई। आपका ध्यान करने से मेरा हृदय निर्मल हो गया, आपकी पूजा करने से मेरे दोनों हाथ सफल हो गये । आपके दर्शनों से मेरे पापों का नाश होकर आज धन्य है कि मेरा नर जन्म सफल हो गया। दया के सागर श्री जिनेन्द्र भगवान अब तो केवल मेरी यह अभिलाषा है कि हर भव और हर जन्म में आपको पाऊं और आपकी सेवा करूं।
श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्य की वर्धमान बन्दना एससुरासुरमण सिव दिद, धोईघाई कम्ममलं । पणमामि बड्ढमाणं तिन्यं धम्मस्स कत्तारं ||१||
-थीमत कुन्दकुन्दाचार्यः प्रवचनसार प०१ भवनबासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी चारों प्रकार के देवों के इन्द्र तथा चक्रवर्ती जिन को भक्ति पूर्वक वन्दना करते हैं और जो ज्ञानावर्णी, दर्शनावणी, मोहनीय और अन्तराय चारों घातिया कर्मों को काटकर अनन्तानन्त ज्ञान, अनन्तानन्त दर्शन अनन्तानन्त सुख और अनन्तानन्त शक्ति को प्राप्त किये हुये हैं और धर्म तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थकर भगवान श्री बर्धमान हैं, मैं उनको नमस्कार करता हूं।
१. लक्ष्मीनारायण प्रेस मुरादाबाद की सं० १९९२ की छगी हुई पं. गंगाप्रसाद बृत भाषा टोका के शृंगार शतक का ७१ वां
श्लोक। २. विशेषता के लिए देखिए महाराजा श्रेणिक और जैन धर्म तथा महाराजा अशोक पर वीर प्रभाव ।
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