Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 970
________________ यह तो स्पष्ट है कि अहंन्त''अहन "जिनेन्द्र जिनदेव "जिनेश्वर अथवा तीर्थकर को पूजा का कथन वेदों और पुराणों में भी है। अब केवल प्रश्न इतना रह जाता है कि यह जैनियों के पूज्यदेव हैं या अन्य महापुरुष? हिन्दी शब्दार्थ तथा शब्द कोषों के अनुसार इनका अर्थ जैनियों के 'पूज्यदेव' हैं। यही नहीं बल्कि इनके जो गुण और लक्षण जैनधर्म बताता है वही ऋग्वेद स्वीकार करता है, "अहंन्देव! आप धर्मरूपी बाणों, सदुपदेश (हितोपदेश) रूपी धनुष तथा अनन्तज्ञान आदि आभूषणों के धारी, केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) और काम, क्रोधादि कषायों से पवित्र (वीतरागी) हो। आप के समान कोई अन्य बलवान नहीं, पाप अनंतानन्त शक्ति के धारी हो।' फिर भी कहीं किसी दूसरे महापुरुष का भ्रम न हो जाये, स्वयं ऋग्वेद ने ही स्पष्ट कर दिया, "अहंन्तदेव पाप नग्न स्वरूप हो, हम आपको सुख-शांति की प्राप्ति के लिए यज्ञ की बेदी पर बुलाते हैं। कहा जाता है-मूर्ति जल है इसके अनुराग से या लाभ है ? सिनेमा जड़ है लेकिन इसकी बेजान मतियों का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता, पुस्तक के अक्षर भी जड़ हैं, परन्तु ज्ञान की प्राप्ति करा देते हैं चित्र भी जड़ हैं लेकिन बलवान योद्धा का चित्र देख कर क्या कमजोर भी एक बार मूंछों पर ताव नहीं देने लगते ? क्या वंश्या का चित्र हृदय में बिकार उत्पन्न नहीं करता? जिस प्रकार नक्शा सामने हो तो विद्यार्थी भूगोल को जल्दी समझ लेता है उसी प्रकार अर्हन्तदेव को मूर्ति को देख कर अर्हन्तों के गुण जल्दी समझ में आ जाते है। मूर्ति को केवल निमित्त कारण (object of devotion) है। .. कुछ लोगों को शंका है कि जब अहंन्तदेव इच्छा तथा रागद्वेष रहित हैं, पूजा से हर्ष और निन्दा से खेद नहीं करते, कर्मानुसार फल स्वयं मिलने के कारण अपने भक्तों की मनोकामना भी पूरी नहीं करते तो उनकी भक्ति और पूजा से क्या लाभ? इस शंका का उत्तर स्वा० समन्त भद्राचार्य जी ने स्वयम्भूस्तोत्र में बताया : म पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे ने निन्दया नाथ बिवान्तवरे । तथापि ते पुण्य-गुण स्मृतिर्नः पुनाति चितं दुरिताजनेभ्यः ॥५७॥ अर्थात्-श्री महन्तदेव । राग-द्वेष रहित होने के कारण पूजा-वन्दना से प्रसन्न और निन्दा से प्राप दुखी नहीं होते पोर न हमारी पूजा अथवा निन्दा से आपको कोई प्रयोजन है। फिर भी प्रापके पुण्य गुणों का स्मरण हमारे चित्त को पापमल से पवित्र करता है। श्रीमानतं गाचार्य ने भी भक्तामर स्तोत्र में इस शंका का समाधान करते हुए कहा : . आस्तां तव स्तवनमस्त समस्त दोषं त्वत्संकथापि जगा दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्त्र किरणः कुरुते प्रभव पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि । प्रर्थात्-भगवन् ! सम्पूर्ण दोषों से रहित आपकी स्तुति की तो बात दूर है, आपकी कथा भी प्राणियों के पापों का माश करती है। सूर्य की तो बात जाने दो उसकी प्रभामात्र से सरोवरों के कमलों का विकास हो जाता है। प्राचार्य कुमुचन्द्र ने भी बताया : हद्विर्त्तनि स्वयि विभो शिथिलिप भवन्ति, जन्तीःक्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः। सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते बनशिखिण्डिनि चन्दनस्थ ।। अर्थात्-हे जिनेन्द्र ! हमारे लोभी हृदय में आपके प्रवेश करते ही अत्यन्त जटिल कर्मों का बन्धन उसी प्रकार ढीला पड़ जाता है जिस प्रकार बन मयूर से आते ही सुगन्ध की लालसा में चन्दन के वृक्ष से लिपटे हुए लोभी सपो के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं। १. इसी ग्रन्थ के फुटनोट नं० २, और फुटनोट नं०३ अर्हन्विषि सायकानि धन्वाहन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् । अहन्निदं दर से विश्वभ्व नवाओजीयो रुद्र त्वस्ति ऋ० २।४।३३ २. वैनप्चुर्देववतः शते गोरियाव वधूमन्ता सुदासः । __ अहन्नम्ने पंजवनम्पदानं होतेव सद्ममि रेमन् ।। ऋ० ७/२०१५ 3. Great men are still admirable. The unbelieving French Believe in their Voltaire and burst out round him into very curious hero worship. Does not cvery true man Feel that he is himself made higher by doing reverence to what really above him. -English Thinker Thomas Carlyle ८६६

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