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कुछ लोगों को भ्रम है कि जब माली की अवती कन्या महन्त भगवान के मन्दिर की चौखट पर ही फूल चढ़ाने से सौ धर्म नाम के प्रथम स्वर्ग की महाविभूतियों वाली इन्द्राणी हो गई। धनदस नाम के ग्बाले को ग्रहन्तदेव के सम्मुख कमल का फूल चढ़ाने से राजा पद मिल गया। मेंढ़क पशु तक बिमा भक्ति करे, केवल अर्हन्न भक्ति की भावना करने से ही स्वर्ग में देव, हो गया तो दो घण्टा प्रहन्त वन्दना करने पर भी हम दुःखी क्यों है। इस प्रश्न का उत्तर श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कल्याण मन्दिर स्तोत्र में इस प्रकार दिया है:
प्राकथितोऽपि महितोऽपि निरीक्षतोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या ।
जातोऽस्मि तेन जनबान्धवा दुःखपात्रं यस्मात् क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावशून्या ।। अर्थात् हे भगवान ! मैंने आपकी स्तुतियों को भी सूना, आपको पूजा भी को, आपके दर्शन भी किये किन्तु भक्तिपूर्वक हृदय में धारण नहीं किया । हे जनबान्धव ! इस कारण ही हम दुःख का पात्र बन गये क्योंकि जिस प्रकार प्राण रहित प्रिय-सेप्रिय स्त्री-पुत्र ग्रादि भी अच्छे नहीं लगते, उसी प्रकार बिना भाव के दर्शन, पूजा आदि सच्ची अर्हन्ति भक्ति नहीं बल्कि निरी मूर्तिपूजा है इसके लिए वैरिस्टर चम्पतराय के शब्दों में जनधर्म में कोई स्थान नहीं ।' भावपूर्वक अर्हन्त भक्ति के पुण्य फल से प्राज पंचभकाल में भी मनवांछित फल स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। मानलंगाचार्य की श्री ऋषभदेव की स्तुति से जेल के ४६ लौह कपाट स्वयं खुल गये ।' समन्तभद्दाचार्य की तीर्थकर वन्दना से चन्द्रप्रभु तीर्थकर का प्रतिविम्ब प्रकट हुमा। चालुक्य नरेश जयसिंह के समय वादीराज का काष्ट रोग जिनेन्द्र भक्ति से जाता रहा। जिनेन्द्र भगवान पर विश्वास करने से गंगवशी सम्राट् दिनयादित्य ने प्रथाह जल से भरे दरिया को हाथों से तैर कर पार कर लिया। जैनधर्म को त्याग कर भी होयसल वंशी सम्राट विष्णवर्धन को श्री पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाने में, पुत्र सोलंकी सम्राट् कुमारपाल को श्री अजितनाथ को भक्ति से युद्धों में विजय और भरतपुर के दीवान को वोरभक्ति से जीवन प्राप्त हुआ। कदम्बावंशी सम्राट रविवर्मा ने सच कहा है, 'जनता को श्री जिनेन्द्र भगवान की निरन्तर पूजा करनी चाहिए, क्योंकि जहां सदैव जिनेन्द्र पूजा विश्वासपूर्वक की जाती है वहीं अभिवृद्धि होती है, देश आपत्तियों और बीमारियों के भय से मुक्त रहता है और वहां के शासन करने वालों का यश और शक्ति बढ़ती है।
जैन धर्म का प्रभाव?
पू० अ० गणेश प्रसाद जी वर्णी हम वैष्णव धर्म के अनुयायी थे । हमारे घर के सामने जैन मन्दिर जी था । वहाँ त्याग का कथन हो रहा था। मुझ पर भी प्रभाव पड़ा और मैंने सारी उम्र के लिए रात्रि भोजन का त्याग कर दिया। उस समय मेरी प्रायु दस साल की थी।
एक दिन मैं और पिता जी गांव जा रहे थे। रास्ते में घना जंगल पड़ा हम अभी बीच में ही थे कि एक शेर-शेरनी को अपनी ओर पाते देखा। मैं डरा, परन्तु मेरे पिता ने धीरे-धीरे णमोकार मंत्र का जाप ग्रारम्भ कर दिया। शेर-शेरनी रास्ता काट कर चले गये। मैंने पाश्चर्य से पूछा, "पिता जी। वैष्णव-धर्म के अनुयायी होते हए जैनधर्म के मन्त्र पर इतना .. गहरा विश्वास"? पिता जी बोले कि इस कल्याणकारी मंत्र ने मुझे बड़ी-बड़ी प्रापत्तियों से बचाया है। यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो जैन धर्म में दृढ़ श्रद्धा रखना । मुझे जैन धर्म की सचाई का विश्वास हो गया। इसकी सचाई से प्रभाबित होकर समस्त घर बार और कुदम्ब को छोड़ कर फाल्गुण सुदी सप्तमी बीर सं० २४७४ को आत्मिक कल्याण के हेतु मैंने जैन धर्म की क्षुल्लक पदवी ग्रहण कर ली।४
१. आदर्श कथा संग्रह (वीर मेया मन्दिर सरसावा, सहारनपुर) १० ११२ । २. इसी ग्रन्थ का पृ० ३८२-३५३ ।
3. Jaioism is not idolatrous and it has bitterly opposed to idolworship as the iconoclastic religion. The Tirthankars are models of perfection for our soul to copy. Their images are to constantly remind for the ideal. What is Jainism. p. 22.
४. मेरो जीवन गाथा, गणेशप्रसाद वर्णी जैन अन्धमाला, भदैनी घाट, बनारस ।
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