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जैन धर्म का प्रभाव-२ स्वामी दर्शनानन्द बीमार थे मैं उनसे मिलने गया। उन्होंने कहा, "अब जीवन का भरोसा नहीं।" मैंने कहा, "एक संन्यासी को मृत्यु की क्या चिन्ता ? उन्होंने कहा, "शरीर की नहीं, केवल यह चिता है कि अब जैनियों से शास्त्रार्थ कौन करेगा ?" मैंने जैनियों के साथ शास्त्रार्थ करने का संकल्प कर लिया और प्रथम मोर्चा भिवानी के जैनियों से जमा। फिर देहली, केवड़ी आदि अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थ हुए। पानीपत में जबानी और लिखित शास्त्रार्थ पाठ दिन तक चलता रहा । मेरी लिखी पुस्तक 'दिगम्बर जैनों से १०० प्रश्न' का पं. पन्नालाल जी न्यायदिवाकर ने जो उत्तर भेजा, उससे मुझे विश्वास हो गया कि मैंने जैन धर्म को जो समझा था, जैन धर्म उस से भिन्न है। जैन धर्म प्रथमानुयोग में नहीं बल्कि द्रव्यानयोग में है, जो जैन धर्म का प्रमाण है। धीरे-धीरे मेरी आत्मा पर जैन धर्म की सत्यता का प्रभाव पड़ता रहा, जिसका फल यह हुआ कि मुझे जैन धर्म में श्रद्धा हो गई। जैनधर्म का ज्ञान तो पहले से ही था लेकिन श्रद्धा न थी, अब श्रद्धा हो गई तो वही ज्ञान सम्यक् ज्ञान हो गया। मैं अपनी प्रात्मा का वह स्वरूप पहिचान गया और कर्मों में आनन्द मानने वाले कर्मानन्द से निज (आत्मा) में प्रानन्द मानने वाला निजानन्द हो गया।'
१. विस्तार के लिए जैन-सन्देश, आगरा (२२ फरवरी, १९५१) १०३-४ ।
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