Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 980
________________ से छेदने, उपर से बौँ भाले पर डालने, गुदा के मार्ग में लकड़ी डालकर मह में से निकालने प्रान्तों को खींचने और अण्डकोषों को कुचलने आदि में होता है। परन्तु खेद है कि कानून निर्माताओं ने इन कार्यों को निर्दयतापूर्ण मानते हुए भी धर्म में हस्ताक्षेप करने के भय से नहीं रोका।। सितम्बर १९३८ में भारतीय व्यवस्थापिका सभा (Legislative Assembly) ने अपने शिमला सेशन (Session) "पश निर्दयता निवारक कानून" में कुछ और संशोधन किये हैं, किन्तु धर्म के नाम पर की जाने वाली निर्दयता को उससे भी प्रबंध नहीं किया गया, यह खेद का विषय है। हां इस विषय में ब्रिटिश भारत की अपेक्षा देशी राज्यों ने कुछ अधिक कार्य किया है निजाम हैदराबाद ने जन १९३८ से अपने राज्य में गऊ और ऊंट की कुरबानी करना कानून द्वारा बन्द कर दिया था। मैसूर, ट्राबनकोर तथा उत्तरी भारत के अनेक राज्यों ने भी अपने यहां बलि विरोधी कुछ कानून बनाए थे। पाठकों से यह छिपा नहीं है कि लोकमत के प्रबल विरोध के कारण ही भारत सरकार ने सती प्रथा को बन्द किया है, बाल विवाहों में कुछ रुकावट डाली हैं, लाहौर में बूचड़खाना बनाने के विचार का परित्याग किया है और बंगाल सरकार ने भी एक कानून बनाकर प्रान्त की फूका प्रथा को बन्द किया है। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि सरकार लोक मत प्रबलता को देखकर धर्म में भी हस्ताक्षेप करती है। अतः हमको भारत के कोने-कोने में आन्दोलन करके धर्म के नाम पर पशुओं पर किये जाने वाले इन घोर अत्याचारों को एकदम बन्द करा देना चाहिए। इस समय महात्मा गांधी तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू तक पशुबलि को जंगली प्रथा बतला कर उसका विरोध KARO उयनपल्ली जैसे स्थानों में जीवित पशुओं की बलि देते समय उसकी गर्दन को थोड़ा-सा काट लिया जाता है,फिर उस टपकते हए रक्त को कटोरे से देवी के सामने पिया जाता है। बेचारा पशु महावेदना भोगता हुआ तड़प-तड़पकर प्राण दे देता है। HAR MORA कर रहे थे और भी कुछ सज्जन प्राणों की बाजी लगाकर पशुबलि के विरोध में उठे हए हैं। अतः यह अवसर प्रान्दोलन के लिए बहुत अनुकूल है। ६०६

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