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श्री हनुमान जी जैन धर्मी से अब तक वे गृहस्थ में रहे महिया धर्म का पालन करते हुए रावण जैसे शक्तिशाली बहिरंग क्षत्रपों पर विजय प्राप्त की और जब ७५० विद्यावर राजाओंों के साथ घी धर्म रत्न नाम के जैन मुनि से दीक्षा लेकर जैन साधु हुए तो कर्म रूपी अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर तुंगीगिरि से मोक्ष प्राप्त किया और उनको रानी ने भी बंधुमती नाम की आर्थिक से साधुका के व्रत धारे।
श्री कृष्ण जी की भावना
श्रीकृष्ण जी के पिता श्री वासुदेव जी और बाईसवें जैन तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि जी के पिता श्री विजयभद्र बापस में सगे भाई थे। श्री परिष्टनेमि ऐतिहासिक महापुरुष हुए हैं। वेदों और पुराणों तक में इनके गुणों का भक्तिपूर्वक वर्णन है ये बालब्रहाचारी महाबलवान थे। जब तक गृहस्थ में रहे, जैन धर्म का पालन करते हुए भी जरासिन्य जैसे अनेक महायोद्धाओं पर विजय प्राप्त करते रहे और जय जिन दीक्षा लेकर जैन साधु हुए तो कर्म रूपी पत्रुओं पर विजय प्राप्त करके केवलज्ञान (सर्वज्ञता ) प्राप्त किया। जब श्री कृष्ण जी में इनके केवलज्ञान के समाचार सुने तो उसी समय चक्र की प्राप्ति और पुत्र के उत्पन्न होने की सूचना भी मिली थी कृष्ण की तीनों सुखद समाचारों को एक साथ सुनकर विचार करने लगे कि किस का उत्सव प्रथम मनाया जाये, वे धर्मात्मा थे, वे धार्मिक कार्य को विशेषता देते हुए अपने परिवार, चतुरंगी सेना और प्रजा सहित सबसे प्रथम श्री अरिष्टनेमि के केवलज्ञान की कन्दना करने गये और उनको तीन परिक्रमाएं देकर भक्ति पूर्वक नमस्कार कर इस प्रकार स्तुति करने लगे
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"हे नाथ! आप धर्म चक्र चलाने में चकी के समान हो, केवलज्ञान रूपी सूर्य से लोकालोक को प्रकाशित कर रहे हो, समस्त संसार को रत्नत्रयरूपी मोक्ष मार्ग दिखाने वाले हो, थाप देवों के देव और जगद्गुरु हो, आप देवतागण द्वारा पूज्य हो, भला हमारी क्या शक्ति जो आपकी भली प्रकार स्तुति कर सकें।"
द्वारका नगर में भगवान नेमिनाथ जी का उपदेश हो रहा था - कल्पवृक्ष मांगने पर और चिन्तामणि विचार करने पर ही इच्छित वस्तु प्रदान करते हैं परन्तु धर्म बिना मांगे और बिना इच्छा करे सुख प्रदान करता है। धर्म का साधन युवा अवस्था में ही हो सकता है। इसीलिए सच्चे सुख के अभिलाषियों को भरी जवानी में जिन दीक्षा लेना उचित है। भगवान के उपदेश को सुनकर थावच्चाकुमार नाम के एक बालक को भी वैराग्य उत्पन्न हो गया उसने जैन साधु बनने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उसके माता पिता ने बहुत मना किया, परन्तु जब वह न माना तो माता-पिता ने श्री कृष्ण जी के दर बार में दुहाई मचाई। श्री कृष्ण जी बालक को खुद समझाने उसके मकान पर आये और उससे पूछा कि तुम्हें क्या दुःख है, जिस के कारण तुम दीक्षा ले रहे हो? में अवश्य तुम्हारे दुःख को मेदूंगा। चालक ने उत्तर दिया, मुझे कर्मरोग लगा हुषा है जिस के कारण आवागमन के चक्कर में फेस कर अनादि काल से जन्म मरण के दुःख भोग रहा हूँ, मेरा यह दुःख मेट दो। ऐसा सुन्दर उत्तर पाकर श्री कृष्ण जी बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने बालक को आशीर्वाद देकर उसके माता-पिता को सराहा कि धन्य हो ऐसे माता पिता को जिसके बच्चे ऐसे शुभ विचारों और उत्तम भावनाओं वाले होते हैं। माता पिता ने कहा कि यह तो कमा कर हमारा पेट भरता था, अब हम बूढ़ों का गुजर कैसे होगा ? श्री कृष्ण ने कहा- 'उसकी चिता मत करो, जब तक तुम लोग जीवित रहोगे, सरकारी खजाने से तुमको यथेष्ट सहायता मिलती रहेगी । और श्री कृष्ण जी ने समस्त राज्य में मुनादी करा दो कि जो जिन दोक्षा धारेगा, उसके कुछ वालों को सारी उम्र तक राज्य की ओर से खर्च मिला करेगा और उस बालक को अपनी चतुरंग सेना, गाजे बाजों और ठाठ वाट के साथ स्वयं श्री नेमिनाथ जी के समवशरण में ले जाकर दीक्षा दिलवाई।
श्री कृष्ण जो अगले युग में 'मम' नाम के बारहवें तीर्थंकर इसी भारतवर्ष में होंगे, इसीलिए भावी तीर्थकर होने के कारण जैन धर्म वाले कृष्ण को परम पूज्य स्वीकार करते हैं।
लार्ड फ्राइस्ट की हिंसा
श्रमण (जैन साधु) बहुत बड़ी संख्या में फिलिस्तीन के अन्दर अपने मठों में रहते थे हजरत ईसा ने जैन साधुओं में अध्यात्म विद्या का रहस्य पाया था और इनके ही श्रादर्श पर चलकर अपने जीवन की शुद्धि के लिए म्रात्म विश्वास (Self Reliance) विश्व प्रेम (Universal love) तथा जीव दया (Ahinsa ) समता अपरिग्रह आदि धर्मों की साधना की थी।
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