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स्वामी की प्रतिमा है। यह प्रतिमा माघ शुक्ला दशमी को संवत् १९३३ में प्रतिष्ठित की गई है। इसी वेदी में ५-६ अन्य प्रतिमाएं हैं।
पूर्वोत्तर के कोने को बेदी में भी मूलनायक वासुपूज्य स्वामी की ही प्रतिमा है, इसकी प्रतिष्ठा भी संवत् १९३२ में ही हई है। इस बेदी में दो प्रतिमाएं पार्श्वनाथ स्वामी की पापाणमयी हैं। एक पर संवत् १५८५ और दूसरी पर संवत् १७४५ का लेख अंकित हैं।
पूर्व दक्षिण कोने को वेदी में मलनायक प्रतिमा पूर्वोक्त समय की वासुपूज्य स्वामी की है। इस वेदो में भगवान ऋषभदेय की एक खगासन प्राचीन प्रतिमा है, जिसमें मध्य में धर्म चक्र और इसके दोनों ओर दो हाथी अंकित है
दक्षिण-पश्चिम कोने की वेदी में भी मलनायक वामपूज्य स्वामी की प्रतिमा संवत ११३२ की प्रतिष्ठित है | इस वेदी मैं एक पार्श्वनाथ स्वामी की पापाणमयी प्रनिमा ब जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित संवत १५५४ की है। वीसवीं शताब्दी की कई प्रतिमाएं भी इस वेदी में है ।
मध्य की मुख्य वेदी में चांदी के भव्य सिंहासन पर ४ फुट ऊंची पीतवर्ण की पाषाणमयी वासुपूज्य स्वामी की प्रतिमा है। मूलनायक के दोनों ओर अनेक धातु प्रतिमा विराजमान हैं। बड़े मन्दिर के मामे मुगलकालीन स्थापत्य कला के ज्वलन्त प्रमाण स्वरूप दो मानस्तम्भ हैं, जिनकी ऊंचाई क्रमशः ५५ और ३५ फोट है।
मन्दिर के मल फाटकः पर नक्सामीदार किबाड़ हैं। मल मन्दिर की दीवालों पर सकौशल मुनि के उपसर्ग, सीता की अग्नि परीक्षा, द्रोपदी का चीर हरण आदि कई भव्य चित्र अकित किये गये हैं। द्रोपदी के चीरहरण और सीता की अग्नि परीक्षा में दरबार का दृश्य भी दिखाया गया है। यद्यपि इन चित्रों का निर्माण हाल ही में हुआ है, पर जैन कला को अपनी विशेषता नहीं आ पायी है।
इस मंदिर में प्राध मील गंगा नदी के नाले के तट पर, जिसको चम्पानाला कहते हैं, एक जैन मंदिर और धर्मशाला है। इसका प्रबन्ध श्वेताम्बरीय भाइयों के प्राधीन हैं। इस मंदिर में नीचे श्वेताम्बरी प्रतिमाएं और ऊपर दिगम्बर आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। इन प्रतिमानों में में कई प्रतिमाएं, जो चम्पानाला से निकली हैं, बहुत प्राचीन हैं, अन्य प्रतिमाओं में एक खेत पापाण की १५१५ की प्रतिष्ठित तथा एक मंगिया रंग के पाषाण की पद्मासन सं० १९८१ में भट्टारक' जगकीति द्वारा प्रतिष्ठित है। प्रतिष्ठा कराने वाले चम्पापुर के सन्तलाल हैं। यहां अन्य कई छोटी प्रतिमानों के अतिरिक्त एक चरणपादुका भी है। श्वेताम्बर प्रागम में इसी स्थान को भगवान् वासुपूज्य स्वामी के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण इन पंचकल्याणकों का स्थान माना गया है।
श्री डब्लू० इठल हण्टर ने भागलपुर का स्टेटिकल एकाउन्ट देते हुए लिखा है कि जहां प्राजकल चम्पानगर में जैन मंदिर है, उस स्थान को ख्वाजा अहमद ने सन १६२२-३ में आवाद किया था। इस स्थान के पास-पास का मोहल्ला प्रकबरपुर कहलाता है । यह स्थान बहुत प्राचीन है, यहां पर अरण्य हैं। मन्चारगिरि
भागलपुर में ३१ मील दक्षिण एक छोटा सा पहाड़ अनुमानतः ७०० फुट ऊंचा एक ही शिला का है। यह प्राचीन क्षेत्र है। यहां से भगवान् वासुपूज्य ने निर्वाण लाभ किया है। उत्तर पुराण में बताया गया है :
स तैः सह विहृत्याखिलार्यक्षेत्राणि तर्पयन् । धर्मवष्ट्या क्रमाप्राप्य चम्पामब्दसहस्त्रकम् ।। स्थित्वात्र निष्क्रियो मास नद्या राजतमौलिवासंज्ञायाचित्तहारिण्या : पर्यन्तावनिबत्तिनि ।। अग्रमन्दरशैलस्य सानुस्थानविभूषणे । वन मनोहररोद्याने पल्यकासनमाथितः ।। मासे भाद्रपदे ज्योत्स्ने चतुर्दश्यापरान्ह के । विशाखायां ययौ मुक्ति चतुर्मवतिसंयतः ।।
- उत्तरपुराण पर्व ५८ इमो० ५०-५३ ८०६