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स्कन्ध पुराण में श्री जिनेन्द्र-भक्ति अरिहंत प्रसादेन सर्वत्र कुशलं मम । सा जिह्वा या जिनस्तोति तो करो यो जिनाचंनौ ||७|| सादृष्टिर्या जिने लीना तन्मनो यज्जिनेरतम् । दया सर्वत्र कर्तव्या जीवात्मा पूज्यते सदा ||८||
- स्कन्ध पुराण, तीसरा खंड ( धर्मखंड) ब० ३८
श्री अर्हन्त देव के प्रसाद से मेरे हर समय कुशल है । वह ही जवान है जिससे जिनेन्द्र देव का स्तोत्र पढ़ा जाय और वह ही हाथ है जिनसे जिनेन्द्र देव की पूजा की जाय, वह ही दृष्टि हैं जो जिनेन्द्र के दर्शनों में तल्लीन हो और वही मन है जो जिनेन्द्र में रत हो ।
मुद्राराक्षस नाटक में अर्हन्त-वन्दना
प्राकृत - सासण मलिहताण पडिवज्जहमोहवाहि बेज्जाणं । जेमुत्तमातपच्छापत्थं मुपदिसन्ति ||१८||
संस्कृत - शासनमर्हता प्रतिपद्यध्व मोहव्याधि वैद्यानां । मुहुर्तमा कटुकं पश्चात्पथ्यमुपदिशन्ति || १८ ||
अर्थात् - मोहरूपी रोग के इलाज करने वाले प्रर्हन्तों के शासन को स्वीकार करो जो मुहुर्त मात्र के लिए कडुवे हैं किन्तु पीछे से पथ्य का उपदेश देते हैं।
प्राकृत - धम्म सिद्धि होदु सावगाणाम् संस्कृत-धर्म सिद्धिर्भवतु श्रावकानाम् ।
-मुद्राराक्षस नाटक चतुर्थी अंक पृष्ठ २१३
अर्थात् श्रावकों को धर्म की सिद्धि हो । प्राकृत - श्रहंताणं पणमामि जेथे गंभीलदार बुद्धीए । लाउस लेहि लोए सिद्धि मग्नेहि गछन्दि || २ | संस्कृत - अर्हताना प्रणमामि येते गम्भीरतया बुद्धेः । लोकोत्तरैर्लोके सिद्धि मागेर्गच्छन्ति || २ ||
-मुद्राराक्षस नाटक पंचमो अंक पृष्ठ २२१
अर्थात् - संसार में बुद्धि की गम्भीरता से लोकातीत (अलोकिक) मार्ग से मुक्ति को प्राप्त हैं उन ग्रन्तों को मैं प्रणाम
करता हूँ ।
बौद्ध ग्रन्थों में वीर - प्रशंसा
'मज्झिमनिकाय" में निर्ग्रन्थ ज्ञात पुत्र भगवान महावीर को सर्वज्ञ, समदर्शी तथा सम्पूर्ण ज्ञान और दर्शन का ज्ञाता स्वीकार किया है ।
न्यायविन्दु में भगवान महावीर को श्री ऋषभदेव के समान सर्वज्ञ तथा उपदेश दाता बताया है ।
अंगुत्तरनिकाय में कथन है कि निगंठ नातपुत्र भगवान महावीर सर्वदृष्टा थे, उनका ज्ञान अनन्त था और वे प्रत्येक क्षण, पूर्ण सजग, सर्वज्ञ रूप में ही स्थित रहते थे ।
के संयुक्त निकाय में उल्लेख है कि सर्व प्रसिद्ध भगवान नातपुत्र महावीर यह बता सकते थे कि उनके शिष्य मृत्यु उपरान्त कहाँ जन्म लेंगे ? विशेष मृल व्यक्तियों के सम्बन्ध में जिज्ञासा करने पर उन्होंने बता दिया कि अमुक व्यक्ति ने अमुक स्थान में अथवा रूप में नव जन्म धारण किया है।
"सामगाम सुत्त" में पावापुरी से भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्त करने तथा उनके श्रमण संघ के महात्माओं की जन साधारण की श्रद्धा और आदर के पात्र होने का वर्णन है ।
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