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सिद्धि भूमियाँ श्री सम्मेद शिखर
इस स्थान का दूसरा नाम पार्श्वनाथ पर्वत है, यह जिला हजारीबाग के अन्तर्गत है । गिरीडीह स्टेशन से १८ मील और पारसमाथ (ईसरी) स्टेशन से लगभग १५ मील की दूरी पर है। इस शलराज की उत्तुंग शिखाएं प्राकृतिक और सांस्कृ. तिक गरिमा का गान आज भी गा रही हैं। यह समुद्र गर्भ से ४४८८ फुट ऊँचा है। देखने में बड़ा ही सुन्दर है। धनी बनस्थली से घिरे ढालू संकीर्ण पथ से पहाड़ी पर चढ़ाई आरम्भ होती है, जैसे ही प्रयाण करते हैं, पर्वतराज की विस्मयजनक शोभा उद्भासित होने लगती है और बीच-बीच में नाना रमणीय दृश्य दिखलाई देते हैं। लगभग एक सहस्र फुट ऊंचा जाने पर पाठ चोटियों के बीच पार्श्वनाथ चोटी बादलों के बीच गुम्मज सी प्रतीत होती है। अनेक अंग्रेज यात्रियों ने मुस्तकंठ से इस रमणीय स्थल का वर्णन किया है । सन् १८१६ में कोलोनेस फ्रैंकलिगन ने इसकी यात्रा की थी।
इस पर्वत की सबसे ऊंची चोटी सम्मेद शिखर कहलाती है। यह शब्द-शिखर का रूपान्तर प्रतीत होता है । इसकी निप्पत्ति सम् मद अर्थ में अथवा अच प्रत्यय करने पर हर्ष या हर्षयुक्त होगा। तात्पर्य यह है कि इसकी ऊंची चोटी को मंगलशिखर कहा जाता है । कुछ लोगों का अनुमान है कि जन श्रवण इस पर्वत पर तपस्यायें किया करते थे इसलिए इस पर्वत की ऊंची चोटी का नाम समणशिखर से सम्मेदशिखर हो गया है। इस मैलराज से चोवीस तीर्थंकरों में से अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पदमप्रम, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, भैयांसनाथ, विमलनाथ, अनन्त नाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, और पार्श्वनाथ, इन बीस तीर्थंकरों ने कर्मकालिका को नष्ट कर जन्म-मरण से मुक्ति की है।
बर्द्धमान कवि ने अपने दशभक्त्यादि महाशास्त्र में पार्श्वनाथ पर्वत की पवित्रता का वर्णन करते हुए श्री रामचन्द्र जी का निर्वाण स्थान इसे बतलाया है। जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार इस क्षेत्र की अर्चना करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । कवि ने इस गैलराज को अनन्त केवलियों की निर्वाण भूमि बतलाया है।
श्री पं० आशाधर जी ने अपने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र में राम और हनुमान का मुक्तिस्थान भी सम्मेदाचल को माना है। रविषणाचार्य ने अपने पद्मपुराण में हनुमान का निर्वाणस्थान भी इसी पर्वत को बतलाया है। श्री गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण में सुग्रीव, हनुमान भौर रामचन्द्र प्रादि को इस शैलराज से मुक्त हुए कहा है ।
श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य में चौबीस तीर्थकरों के तीर्थकाल में इस पवित्र तीर्थ की यात्रा करने वाले उन व्यक्तियों के आख्यान दिये गये हैं , जिन्होंने इस तीर्थ की वंदना से अनेक लौकिक फलों को प्राप्त किया तथा दीक्षा लेकर तपस्या की और इसी शैलराज से निर्वाण पद पाया ।
दिगम्बर आगमों के समान श्वेताम्बरी आगमों में भी इस क्षेत्र की महत्ता स्वीकार की गयी है। विविध तीर्थकल्प में पवित्र तीर्थों की नामाबली बतलाते हुए कहा गया है।
अयोध्या-मिथिला-चम्पा-थावती हस्तिनापुरे । कौशाम्बी-काशि-काकन्दी-काम्पिल्य भद्रलामिवे । चंद्रानना सिंहपुरे तथा राजगृहेपुरे । रत्नवाहे शौर्यपुरे कुण्डनामे प्यपपादया। श्रीरेवतक सम्मेत बेभारा ष्टापदाद्रिषु ।
यात्रायास्मिस्तेषु यात्राफलाच्छातगुणं फलम् ।। इस प्रकार इस तीर्थ की पवित्रता स्वत: सिद्ध है। यह एक प्राचीन तीर्थ है, परन्तु वर्तमान में इस क्षेत्र में एक भी प्राचीन चिन्ह उपलब्ध नहीं है। यहां के सभी जिनालय आधुनिक हैं, तीन-चार सौ वर्ष से पहले का कोई भी मन्दिर नहीं है। प्रतिमायें भी इधर सौ वर्षों के बीच की हैं । केवल दो-तीन दिगम्बर मूर्तियां जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित है, परन्तु इसकी
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