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अर्थ में व्यवहृत होता था, यह स्पष्ट है । स्व० मि. हीसडेविड्स हमको यही विश्वास दिलाते हैं कि व्यक्तित्व की प्रज्ञानता के नाश से जो विजय प्राप्त होती है, वह गौतम बुद्ध की दृष्टि से, इसी जीवन में और केवल इसी जीवन में प्राप्त करके भोगी जा सकती है। यही भाव बौद्धों की अर्हतावस्था से है । अर्हत् वह है जिसका जीवन आंतरिक दृष्टि से पूर्ण बन गया है, जो उत्तम अष्टांग मार्ग का बहुत कुछ अभ्यास कर चुका है और जिसने बन्धनों को तोड़ दिया है एवं जिसने बौद्ध धर्म के चरित्र नियम और संयम का पूर्णतः अभ्यास कर लिया है यह बौद्धों के अहंत का स्वरूप है। जिस समय व्यक्ति अष्टांगमार्ग का पूरा अभ्यास कर लेता है और ध्यान आदि में भी उन्नति कर चुकता है. बुद्ध कहते हैं, उसे आर्य ज्ञान का प्रकाश दृष्टि पड़ता है। यह मा बद्ध का निर्वाण है और व्यक्ति के मरण के पहले ही यह प्राप्त होता है। अंतिम मरण परिनिब्बान है। निब्वान अवस्था में आनन्द की प्राप्ति होती है, परन्तु इसके उपरांत व्यक्ति की क्या दशा होती है इस पर बुद्ध चुा है। यदि कहीं यह मौन भग किया गया है तो वहाँ स्पष्टता का अभाव है । कभी पूर्ण नाश का प्रतिपादन है तो कभी किसी यथार्थ दशा का। किन्त पूर्ण प्रभाव को ही प्रधानता प्राप्त है। परिनिव्वान में व्यक्ति का पूर्ण क्षय (खय) हो जाता है। यही मबद्ध का परम उद्देश्य है।
प्रकट रीति से हम मबद्ध के बताये हए अर्हत् और निर्वाण पदों की तुलना जैन सिद्धान्त के क्षायिक सम्यक्व और अहत पद से क्रमशः कर सकते हैं किन्तु यह तुलना केवल बाह्य रूप में ही है । मूल में बौद्धों के अर्हत पद की समानता जैनों के अईत पद से नहीं की जा सकती। प्रत्युत बाह्य रूप में जन अहंतावस्था के समान म. बुद्ध का निधान पद भी है, जिसका विवरण जाहिरा जैन विवरण से सदश्यता रखता है, यद्यपि मूल में वहाँ भी पूर्ण वेद विद्यमान है।
इस प्रकार म० बुद्ध और भगवान महावीर का उपदेश वर्णन है और यहाँ भी दोनों में पूरा पूरा अन्तर मौजूद है। भगवान महावीर का दिव्योपदेश एक सर्वज्ञ परमात्मा के तरीके बिलकुल स्पष्ट, पूर्ण और व्यवस्थित, वैज्ञानिक ढंग का प्रमाणित होता है । म बुद्ध का उपदेश तत्कालीन परस्थिति को सुधारने की दृष्टि से हरा प्रतीत होता है और उसमें प्रायः स्पष्टता का अभाव देखने को मिलता है । वास्तव में न म बुद्ध को ही अपने उपदेश की साद्धांतिकता को ओर ध्यान था और न उसके अनुयायियों को। उनके उपदेश की मान्यता जो इतनी विशद ई थी उसमें उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व कारण था। उनके निकट पहुंच कर व्यक्ति मोहन मंत्र की तरह मुग्ध हो जाता था उसे उनके धर्म के प्रोचित्य को जानने का खबर हो नहीं रहती थी। इसी बात को लक्ष्य करके उनका उपदेश भी विविध मान्यतामों को लिए हुआ था। प्रत्येक मत के अनुयायी का अपना भक्त बनाने के लिए मबद्ध ने अपने सिद्धान्तों को प्रायः सर्व मती में मिलता जुलता रक्खा था, परन्तु इस दशा में भी वह सफल मनोरथ नहीं हुए। लोगों को अनक्यता में ऐक्यता के दर्शन नहीं हुए और न उन्हें वह सुख मार्ग मिला जिससे उनके जीवन पूर्ण सुख के भोक्ता बनते, परन्तु इतने पर भी हम म० बुद्ध के सांसारिक पोड़ानों और दुःखों के वर्णन की प्रशंसा किये विना नहीं रह सकते । उन्होंने इसके प्रकट दर्शन किये और उसकी बड़ी ख्वी से शब्दों में चित्रित किया था।
भगवान महावीर ने वस्तुस्थिति को प्रतिपादित किया था और संसार की प्रत्येक अवस्था के प्राणी के लिए एक सच्चे सुख का मार्ग निर्दिष्ट किया था तथापि इस प्रतिपादन शैला में उनका स्थाबाद सिद्धान्त विशेष महत्व का था। उसके अनुसार वस्तु की प्रत्येक दशा का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता था। परिमित बुद्धि और दृष्टि को रखते हए संसारी प्रात्मा पदार्थ के पूर्ण रूप को एक साथ शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता । वह पदार्थ के एक देश को ही ग्रहण कर सकता है। इसलिए पदार्थ के पूर्ण स्वरूप को जानने के लिए स्याद्वाद सिद्धान्त परमावश्यक है। प्रात्ममीमांसा, स्याद्वाद मंजरी, सप्तभंगितरंगणी आदि ग्रन्थों में इसका पूर्ण विवेचन दिया हुआ है । यहां पर इसका सामान्य दिग्दन कराना भी कठिन है। इतना जान लेना हो पर्याप्त है कि इसकी सहायता के बिना हमारा किसी पदार्थ का विवरण अधूरा रहेगा। मान लीजिए यदि हमें मोहन के गहस्थी अपेक्षा व्यक्तित्व को प्रकट करना है, तो हम केवल उसको उसके पुत्र की अपेक्षा 'पिता' कहकर पूर्णत: प्रकट नहीं कर सकते, क्योंकि वह अपने पिता की अपेक्षा 'पुत्र' भानजे की अपेक्षा 'मामा' भतीजे की अपेक्षा 'चाचा' प्रादि है । स्याद्वाद सिद्धान्त इन्हीं सब सम्बन्धों को अपनी अपेक्षा 'दृष्टि पूर्ण व्यक्त कर देता है, जिसको सामान्य व्यक्ति अन्यया कहने को समर्थ नहीं है। यह एक सर्वज्ञ परमात्मा के ही संभव है कि वह एक वस्तु का एक-सा पूर्ण वर्णन प्रकट कर सके । जिस तरह सामान्य बातें स्याद्वाद सिद्धान्त से पूर्ण प्रकट होती हैं उसी तरह सैद्धान्तिक विवेचन भी इसी की सहायता से पूर्णता को प्राप्त होता है । बौद्ध दर्शन के न्याय में स्याद्वाद सदृश कोई नियम हमको नहीं मिलता है । यही कारण है कि म० बुद्ध का वक्तव्य एकान्त मत को लिए हुए है। उन्होंने कहा :