Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 909
________________ परन्तु बौद्ध नियम जैन नियमों के समान ही विशद और गम्भीर नहीं है। एक प्रती आवक के पालन करने योग्य अणुव्रत जितना भी महत्व उनका नहीं है। इस व्याख्या की यर्थाथता दोनों धर्मों के नियमों का तुलनात्मक विवेचन करने से स्वयं प्रमाणित हो जावेगी, किन्तु विस्तारभय के कारण हम यहाँ पर केवल दोनों धर्मों के ग्रहसा नियम को लेते हैं। जाहिरा उसका भाव दोनों धर्मों में एक है, परन्तु एक बौद्ध धम इस का पालन करते हुए भी मांस और गच्छी को भोजन में ग्रहण करने से आया पीछा नहीं करेगा। इसके विपरीत एक जैन गृहस्थ उनका नाम सुनना भी पसन्द नहीं करेगा। यद्यपि यह जैन मुनियों की अपेक्षा बहुत नीचे दर की महिसा का पालन करता है गी भिक्षु स्वयं तो किसी जीव का वध नहीं करेगा, परन्तु यदि कहीं भूत मांस मिल जाये तो उसको ग्रहण करने में संकोच नहीं करेगा। स्वयं महात्मा बुद्ध ने कई बार मांस भोज किया था। वैशाली में सेनापति सिंह के यहां जब मांस भोजन बुद्ध एवं बौद्ध साधुओं को कराया गया तो जैनियों ने उसी समय इसका प्रगटविशेष किया, किन्तु यह समझ में नहीं आया कि जब बौद्ध गृहस्थों के लिए भी हिंसागत लागू है तब वे किस तरह बौद्ध भिक्षुओंों के लिए मांस भोजन तैयार कर सकते हैं ? परन्तु बौद्ध शास्त्रों में अनेक स्थलों पर मांस भोजन तैयार किये जाने का उल्लेख मिलता है और एक स्थल पर जब मांस बाजार में नहीं मिला तो बौद्ध गृहस्थिन ने स्वयं अपनी जांच काटकर मांस तैयार करके बौद्ध संघ को मिलाया था। यह उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि म० बुद्ध की अहिंसा जैन अहिंसा से कितनी हे प्रकार की थी। जैन अपेक्षा वह हिसा ही है। म० बुद्ध ने केवल नीति में एम्पी में होकर पशुओं को नष्ट करने का विशेष किया था सूक्ष्म हिंसा की मोर उन्होंने दृष्टिपात ही नहीं किया। यह ख्याल ही नहीं किया कि मृत मांस में भी कोटि राशि सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती रहती है, जैसे कि आजकल विज्ञान (Science) से भी प्रमाणित है। इस अवस्था में भी मांस को खाना स्पष्टतः हिंसा करना है। इस तरह जैन अहिंसा का महत्व प्रकट है । स्वयं याधुनिक बौद्ध विद्वान् श्री धर्मानंद कौसम्बी का निम्न कथन जैन अहिंसा की विशेषता को प्रकट करता है। वह लिखते हैं कि म० बुद्ध पर यह आरोप था कि लोगों के घर आमंत्रण स्वीकार करके वह मांस भोजन करते थे और गृहस्थ लोग उनके लिए प्राणियों का वध करके वह मांस भोजन तैयार करते थे। जैन श्रमण दूसरे के घर का ग्रामन्त्रण स्वीकार नहीं करते। यदि खास उनके लिए कोई अन्म तैयार किया गया हो तो उसको निषिद्ध सममते थे और अब भी समझते हैं, क्योंकि उसके तैयार करने में अग्नि के कारण थोड़ी बहुत हिंसा होती ही हैं और स्वीकार करने से भ्रमण उस हिंसा का मानों अनुमोदन ही करता है महिंसा की यह व्यापक व्याख्या बुद्ध भगवान को पसन्द नहीं थी। जानबुझकर किसी भी प्राणी को क्रूरता पूर्वक न मारना चाहिए, सिर्फ यही उनका कहना था, अतएव म बुद्ध के चारित्र-नियम जैन धर्म के प्रणुव्रतों से भी समानता नहीं कर सकते यह प्रकट है। वास्तव में जिस प्रकार सिद्धान्त विवेचन में म० बुद्ध ने वैज्ञानिकता और पूर्णता का ध्यान नहीं रखा वैसे ही परिष नियमों के विषय में देखने को मिलता है एक याधुनिक विद्वान् उस विषय में लिखते हैं वह दृष्टव्य है । 'परीक्षा करने पर यह प्रकट हो जाता है कि बौद्ध धर्म का सुन्दर ग्राचार वर्णन एक कम्पित नींव पर स्थिर हैं। हमें वेदों की प्रमाणिकता का निषेध करना है. अच्छी बात है। हमें महिसा धीर त्याग का पालन करना है, अच्छी बात है। हमें कर्मों के बन्धन तोड़ने हैं, अच्छी बात है, परन्तु सारे संसार के लिए यह तो बताइये हम हैं क्या ? हमारा नया है, सामाजिक उद्देश्य क्या है? इन समस्त प्रश्नों का उत्तर बोद्ध धर्म में अनूठा पर भयावह है, अर्थात् हम नहीं हैं। तो क्या हम छाया में श्रम परिश्रम कर रहे हैं ? और क्या अन्धकार ही ध्येय है ? क्यों हमें कठिन त्याग करना है और हमें क्यों जीवन के साधारण इन्द्रिय सुखों का निरोध करना चाहिए केवल इसलिए कि शोकादि नष्टता और नित्य मीन निकटतर प्राप्त हो जाएं। यह जीवन एक भ्रान्तवाद का मत है और दूसरे शब्दों में उत्तम नहीं है। समय ही ऐसी बात्मा के अस्तित्व को न मानने वाला विनश्वरता का मत सर्व साधारण के मस्तिष्क को संशोषित नहीं कर सकता। बौद्ध मत की याश्चर्यजनक उन्नति उसके सैद्धान्तिक नश्वरवाद (Nibilisn) पर निर्भर नहीं थी, बल्कि उसके नामधारी 'मध्यमार्ग' की तपस्या को कठिनाई के कम होने पर ही थी । बौद्ध धर्म में अगाड़ी कहा गया है कि वह व्यक्ति जो बुद्ध धर्म और संघ में खास कर बुद्ध में - श्रद्धा प्राप्त कर लेता है और मोहजनित अज्ञानता ( Delusion) को छोड़ देता है वह आभ्यन्तरिक दृष्टि को ( later sight) पाकर अन्ततः अर्हत हो जाता है । बुद्ध ने जिस समय सर्व प्रथम कोन्डन्स को अपने मत में दीक्षित किया तो उन्होंने कहा कि 'अन्नासि वत भी कोन्डो !' अर्थात् सचमुच कोन्डण्यने जान लिया है ? क्या जान लिया है ? वही मार्ग जिसको बुद्ध ने देखा था ( अन्नात Has that which is perceived ) इसके साथ वह ग्रहंत कहलाने लगा। वास्तव में बुद्ध के प्रारम्भिक शिष्य अपनी उपसम्पदा ग्रहण करने के साथ ही 'अहं' कहलाने लगे थे, जैसे कि हम देख चुके हैं। इस अवस्था में बौद्धों के निकट महंतु शब्द कितने हल्के ८०३

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