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मुसलमानों के बारे में भी कहा गया है कि "अरबों के यहां भी नग्न अवस्था संसार त्याग का एक चिन्ह माना जाता था। मि. वाशिंगटन अरबिन्ना अपनी लाइफ ग्राफ मुहम्मद में कहते हैं कि तौफ अर्थात् काबा का परिक्रमा देना महम्मद से पहिले की एक प्राचीन क्रिया थी और स्त्री पुरुष दोनों हो नग्न होकर इस क्रिया को करते थे। मुहम्मद ने इस क्रिया को बन्द किया और इहराम अर्थात यात्री के वस्त्र की व्यवस्था की थी। ईसा मसीह का बिना सिया हुया कोट अलंकृत भाषा में नग्नता का द्योतक है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि एक समय संसार में सर्वत्र नग्नता साधुपने का यावश्यक चिह्न समझी जाती थी। भगवान महावीर के समय में आजीवकः आदि भी नग्न रहते थे, यह हम देख चुके हैं। आज भी हिन्दुषों में नंगे साधु मिलते है । उसी तरह जैन निर्ग्रन्थ साधु भी प्राचीन दिगम्बर भेष में विचरते दृष्टि पड़ते हैं।
इस परिस्थिति में यह सहसा जी को नहीं लगता कि उस प्राचीनकाल में जैन निन्ध मनि वस्त्रधारी होते हों। जैन शास्त्रों के अतिरिक्त बौद्ध शास्त्रों में जैन मुनियों का उल्लेख नग्न रूप में किया गया है। साथ हो उनमें एक वस्त्रधारी और श्वेत वस्त्रधारी निग्रंथ साबकों (श्रावकों०) का भी उल्लेख मिलता है। और यह दिगम्बर जैन शास्त्रों के सर्वथा अनुकल है। व्रती धावकों को श्वेतवस्त्र धारण करने का विधान उनमें मिलता है और ग्यारहवी प्रतिमाधारो धावक एक वस्त्र धारी कहा गया है । इसके अतिरिक्त बौद्ध शास्त्र में जैन मुनियों की कतिपय प्रख्यात् दैनिक क्रियाओं का भी इस प्रकार वर्णन मिलता है
"डायोलाम्स आफ बुद्ध नामक पुस्तक के कस्सप-सिंहनान-सुत्त में विविध साधुओं की क्रियाओं का वर्णन दिया हना है। उनमें एक प्रकार के साधुनों को क्रियाय निम्न प्रकार दी हैं और यह जैन साधनों की क्रियायों से बिल्कूल मिल जाती है । इसलिए हम दोनों को यहां पर देते हैं -
बौद्ध शास्त्र
१-बह नग्न विचरता है। जैन शास्त्र--- १-यह जैन मुनि के २८ मूलगुणों में से एक है और यों है
बत्थाजिणवक्केण य अह्वा पत्ताइणा असंवरणं ।
णिभसण णिगंथं प्रच्चे लक्कं जगदि पूज्ज ॥३०॥--मूलाचार २–बह ढीली आदतों का है । शारीरिक कर्म और भोजन वह खड़े-खड़े करता है, (भले मानसों की भौति झुक कर या बैठ कर नहीं करता ।)
२-इसमें २४ ब (अस्थान) २६ - (अदन्तघर्षण) और २७ वें (स्थित भोजन) मूलगुणों का उल्लेख है।।
३-वह अपने हाथ चाटकर साफ कर लेता है। जैन मुनि हाथों को अंजुलि में जो भोजन रक्खा जावंगा उसे वैसा श्री खा लेते हैं, ग्रास बनाकर नहीं खाते । यहाँ पर बौद्धाचार्य इसी क्रिया को विकृत आक्षेप रूप से बतला रहे हैं।
४-(जब वह अपने प्रहार के लिये जाता है, यदि सभ्यतापूर्वक नजदीक आने को या ठहरने को कहा जाय कि जिससे भोजन उसके पात्र में रख दिया जाय तो) वह तेजी से चला जाता है ।
४-यह मुलाचार को ऐषणा समिति को टीका में स्पष्ट कर दिया गया है, यथा---
भिक्षावेलायाँ ज्ञात्वा प्रशान्ते धममुशलादिशब्दे गोचरं प्रविशेन्म निः ।
तत्र गच्छन्नातिन्द्र तं, न मन्द न विलम्बित गच्छेत् ।।१२१ ॥ ५-वह (उस) भोजन को नहीं लेता है । (जो उसके निकट आहार के लिए निकलने के पहिले लाया गया हो)।
1-ऐषणा समिति में मनिको ४६ दोष रहित, मन, वचन, काय, कृतकारित अनुमोदना के प्रकार के दोषों से रहित भोजन ग्रहण आवश्यक बतलाया है, अतएव लाया हुमा भोजन खास उनके निमित्त से बना जानकर वे ग्रहण नहीं करते।
६-वह (उस भोजन को भी नहीं लेता है (यदि बता दिया जाय कि वह खासकर उसके लिए बनाया है।। ६—इसमें भो कारित अनुमोदना दोप प्रकट है। ७- वह कोई निमन्त्रण स्वीकार नहीं करता। ७–यहाँ भी उक्त दोष है, जैन मुनि निमन्त्रण स्वीकार नहीं करते।
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